मुकेश असीम | सर्वहारा #71-73 (1 मार्च – 15 अप्रैल 2025)
पूंजीवादी व्यवस्था का दावा रहा है कि उसने जनतंत्र कायम किया और सभी को अभिव्यक्ति का जनतांत्रिक अधिकार दिया है, हालांकि सच्चाई यह है कि पूंजीवाद में हर अधिकार वास्तव में सम्पत्तिशालियों के लिए ही होता है। संपत्तिहीन मजदूर मेहनतकश इन अधिकारों का प्रयोग करने में व्यवहार में असमर्थ होते हैं। फिर भी यह मानना होगा कि एक समय अपने उभार व विस्तार के दौर में पूंजीवाद ने वास्तविक तो नहीं, पर औपचारिक रूप से तो ऐसी आजादी दी ही थी। स्वतंत्रता एवं समानता के इस औपचारिक ऐलान का फायदा उठाते हुए मजदूर वर्ग ने दीर्घ बलिदान भरे संघर्षों के द्वारा इस अधिकार को अपने वर्गीय संगठन की शक्ति से विस्तृत किया और कुछ हद तक वास्तविक अधिकारों में भी बदला। मजदूर वर्ग की इस संगठन शक्ति से हासिल इस अधिकार का समाज के अन्य तबकों खास तौर पर बुद्धिजीवियों को भी अपने विचारों की अभिव्यक्ति में बहुत लाभ मिला।

किंतु जैसे ही पूंजीवाद का विस्तार का युग चुक गया और वह संकटग्रस्त होकर मेहनतकशों के शोषणमुक्ति के संघर्षों से भयभीत होने लगा, उसने इस जनवादी अधिकार का हनन और बोलने के अधिकार का इस्तेमाल करने वालों के खिलाफ निर्मम दमनचक्र छेड़ दिया। मजदूर वर्ग के लिए तो पूंजीवादी जनतंत्र पूंजीपतियों की तानाशाही हमेशा ही रहा है और उनके संघर्षों पर दमन निर्ममता से ही किया जाता रहा है। पर 21वीं सदी में वैश्विक स्तर पर ही पूंजीवाद एक लगभग अंतहीन संकट में आ गिरा है अर्थात एक संकट से निकलने का मतलब दूसरे संकट का शुरू होना जैसा बन गया है। ऐसे सकट के दौर में उसके लिए मोनोपॉली वित्तीय पूंजी के हित में इस संकट का पूरा बोझ मजदूर वर्ग पर ही नहीं, दरमियानी तबकों जैसे किसानों, व्यवसायियों, मध्यम वर्ग, आदि पर डालना और उनकी संपत्ति से बेदखली करना जरूरी हो गया है। इस स्थिति में उसे एक पूर्ण निरंकुश आतंकी शासन अर्थात फासीवादी निजाम की जरूरत आन पड़ी है। आज पूरी दुनिया में पूंजीवाद को कमोबेश इसी दिशा में बढ़ते देखा जा सकता है।
यह फासीवादी सत्ता न सिर्फ मजदूर वर्ग द्वारा अपने श्रम व जनवादी अधिकारों के हनन के हर विरोध पर सख्त दमन करती है बल्कि पूंजीवादी जनतंत्र द्वारा दी गई औपचारिक आजादी एवं जनवाद को समूचा खत्म कर सभी तबकों, यहां तक कि खुद बुर्जुआ चुनावी विपक्ष से उठने वाली असहमति तथा विरोध की चंद आवाजों का भी गला घोंट देती है। पिछले एक सप्ताह में ही दुनिया के कुछ हिस्सों से आई ऐसी कुछ घटनाओं का जिक्र हम यहां कर रहे हैं।
भारत में मोदी सरकार के हिंदुत्व आधार पर अखंड शक्तिशाली भारत के सजीले सपने के झूठे गौरव की तरह ही तुर्की में ऑटोमन साम्राज्य की पुनर्स्थापना का सपना दिखाकर इस्लामिस्ट रेसिप अर्दोआन की अगुआई में फासिस्ट हुकूमत सत्ता में है। एक ओर यह इस्लामी राज्य का झूठा दम भरता है तो दूसरी ओर यह पश्चिम एशिया में अमरीका-नाटो साम्राज्यवाद का जूनियर पार्टनर एवं इजरायली जायनिज्म का सहयोगी है। डेढ़ साल से इसने फलस्तीनियों के जनसंहार में सक्रिय मदद की है और कुछ महीने पहले इजरायल के साथ मिलकर सीरिया को अपने अपने प्रभाव क्षेत्रों में बांट लिया है। इस वजह से तथा बढ़ती महंगाई-बेरोजगारी-गरीबी से तबाह अवाम की बिगड़ती आर्थिक स्थिति से जनता में भारी असंतोष फैल रहा है। हम जानते हैं कि फासीवाद चुनाव से आता तो है पर सिर्फ चुनावी विरोध से जाता नहीं है। चुनाव को यह तब तक ही सहन करता है जब तक उसमें कोई वास्तविक जोखिम न हो। इसलिए इसने अब चुनाव एवं वोट के अधिकार पर ही हमला बोलते हुए 19 मार्च को अपने खिलाफ राष्ट्रपति पद हेतु संभावित विपक्षी उम्मीदवार सहित सौ से अधिक विपक्षी नेताओं-कार्यकर्ताओं को फर्जी मुकदमों में गिरफ्तार करा लिया है। इसके खिलाफ तुर्की भर के शहरों में भारी विरोध हो रहा है जिनमें रोजाना 30 लाख तक के शामिल होने का अनुमान लगाया है। पुलिस इन पर आंसू गैस, मिर्च पाउडर, लाठी, निर्मम पिटाई, आदि द्वारा दमन कर रही है। तुर्की की कम्युनिस्ट पार्टी भी जनवाद, सेकुलर रिपब्लिक के साथ ही मजदूर वर्ग के अपने कार्यक्रम के साथ इस विरोध में अहम भूमिका निभा रही है। इसलिए 23 मार्च को उसके 5 नेताओं को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।
भारत में जनवादी अधिकारों एवं अभिव्यक्ति के अधिकार के हनन की पूरी शृंखला की ताजा कड़ी में 23 मार्च को ही हमने मुंबई में देखा कि एक स्टैंड अप कॉमेडियन कुणाल कामरा ने बीजेपी सरकार एवं महाराष्ट्र में उसके पार्टनर शिवसेना के नेता एकनाथ शिंदे पर तीखे व्यंग्य वाले चुटकुले सुनाए तो शिवसेना के गुंडा गिरोह ने कार्यक्रम वाले होटल पर ही हमला कर भारी तोड़फोड़ की और पुलिस ने कामरा के खिलाफ ही रिपोर्ट दर्ज कर ली है। राज्य के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने एक तरह से कहा है कि कॉमेडी की आजादी है मगर तभी तक जब उनकी पार्टी एवं सरकार के खिलाफ न हो, वैसा होने पर इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
24 मार्च को ही पड़ोस में पाकिस्तान से खबर आई कि लाहौर की एक यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर, राजनीतिक कार्यकर्ता एवं यूट्यूब पर अपने विद्वत्तापूर्ण वीडियोज के लिए मशहूर तैमूर रहमान को पुलिस ने पूछताछ के लिए तलब किया है क्योंकि वे पाकिस्तान में ईशनिंदा या ब्लास्फेमी के बहाने बढ़ते हमलों, हत्याओं एवं इसके जरिए होने वाली आपराधिक उगाही के लाभकारी बिजनेस के खिलाफ लिखते बोलते रहे हैं। पुलिस में दर्ज रिपोर्ट के अनुसार उन पर इल्जाम है कि ‘ब्लास्फेमी बिजनेस’ के खिलाफ उनका प्रचार धार्मिक भावनाएं भड़काता है।
यह स्थिति सिर्फ कमजोर जनतंत्र बताए जाने वाले पिछड़े पूंजीवादी देशों की ही नहीं है बल्कि विकसित जनतंत्र बताए जाने वाले उन्नत पूंजीवादी देशों का भी ऐसा ही हाल है। इसी सप्ताह हमने ‘स्वतंत्रता समानता भ्रातृत्व’ के लिए मशहूर 1789 की पूंजीवादी फ्रांसीसी क्रांति के केंद्र रहे पेरिस में फासीवाद के बढ़ते खतरे के खिलाफ 30 हजार की उपस्थिति वाले विरोध प्रदर्शन में पुलिस का निर्मम दमन देखा। मानवाधिकारों एवं सेकुलरिज्म के चैंपियन होने का दावा करने वाले फ्रांस की पुलिस ने इस विरोध प्रदर्शन में बुजुर्गों एवं स्त्रियों तक को बेहद निर्ममता से लाठी और लातों-मुक्कों से पीटा। फ्रांस एवं पड़ोसी जर्मनी में तो एक तरह से कानून ही बना दिया गया है कि इजरायली जायनिज्म की आलोचना को किसी हालत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। ऐसी आलोचना करने वालों को किसी तरह का कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं करने दिया जा रहा है यहां तक कि पुलिस ऐसे हॉल की बिजली तक बंद कर दे रही है और अत्यंत सुरक्षित नौकरी में समझे जाने वाले प्रोफेसरों तक को बर्खास्त कर दिया जा रहा है। संसदीय जनतंत्र की मां होने के दावे वाले इंग्लैंड में भी असहमति व विरोध को कुचलने के लिए ऐसे ही तमाम कदम उठाए जा रहे हैं।
डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति पद संभालने के बाद मानवाधिकारों का सिरमौर होने के दावे वाले अमरीका में भी दमनचक्र का ऐसा ही रूप देखा जा सकता है। इजरायली जनसंहार के विरोध में छोटी भी गतिविधि में शामिल होने पर नियमित वीजा ही नहीं स्थायी रेजिडेंस परमिट वाले ग्रीन कार्ड के बावजूद छात्रों-शोधकर्ताओं को कॉलेज यूनिवर्सिटी से निष्कासित, गिरफ्तारी एवं देशनिकाला दिया जा रहा है और छात्रों के विरोध के साथ हमदर्दी दिखाने वाले प्रोफेसरों की बर्खास्तगी की जा रही है।
साफ है कि अपने गहन संकट की वजह से सड़ता पूंजीवाद अब असहमति व विरोध की जरा सी भी आवाज को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं रह गया है। ऐसे में यह जरूरी हो गया है कि मजदूर वर्ग एक बार फिर से अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी को निभाने के लिए कटिबद्ध हो कर न सिर्फ समस्त उत्पीड़ित अवाम का नेतृत्व करते हुए पूंजीवादी जनतंत्र में लंबे संघर्षों से हासिल किए गए कुछ अधिकारों की हिफाजत करे बल्कि पूंजीपतियों के इस तथाकथित जनतंत्र के स्थान पर ‘जनता के द्वारा जनता के लिए जनता का राज्य’ के सिद्धांत को वास्तविकता में बदलने के लिए सच्ची जनताशाही अर्थात मजदूर वर्ग का राज्य कायम करने के संघर्ष को गति दे।