फासीवाद और मजदूर वर्ग का दायित्व

(मजदूर अधिकार संघर्ष अभियान (MASA), दिल्ली द्वारा 12 अक्टूबर 2025 कोबढ़ता फासीवादी खतरा और मजदूर वर्गविषय पर अम्बेडकर भवन, दिल्ली में आयोजित कन्वेंशन में आईएफटीयूसर्वहारा का वक्तव्य)

I  

मजदूर अक्सर पूछते हैं, फासीवाद क्या है? फासीवाद के बारे में सबसे पहली बात तो यही है कि यह पूंजीपति वर्ग की तानाशाही का ही दूसरा नाम है – लेकिन उसकी सामान्य तानाशाही का नहीं, अपितु उसकी जगह पूंजीपति वर्ग के सबसे प्रतिक्रियावादी वित्तीय तत्वों की आतंकी तानाशाही का नाम है; जिसके तहत आम जनता के तमाम राजनीतिक एवं जनवादी अधिकार एकबारगी और संसद को भंग करके (हिंसात्मक तरीके से प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के द्वारा) या फिर क्रमशः, यानी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के द्वारा चुनाव जीत कर और अपेक्षाकृत ‘शांतिपूर्ण’ तरीके से खत्म कर दिए या छीन लिए जाते हैं। दोनों ही सूरतों में साधन और परिणाम एकसमान होते हैं – सांप्रदायिक-नस्लीय नफरत और अंधराष्ट्रवाद की राजनीतिक-वैचारिक मुहिम के द्वारा आम जनता को अपने प्रभाव में लाना और सत्ता प्राप्त करने में विजयी होने पर जनतंत्र का खात्मा करना और मजदूर-मेहनतकश वर्ग को मध्ययुगीन गुलामी के दौर में ले जाना जहां उसके पास कोई अधिकार नहीं रह जायेगा – अन्याय और जुल्म का विरोध करने की इजाजत भी नहीं होगी। इसलिए फासीवादी सत्ता का बलात कायम होना या फासीवादी दल या किसी ताकत का चुनाव के माध्यम से केंद्रीय सत्ता में आना और लगातार जीतना सामान्य बात नहीं है। यह सरकारों की सामान्य अदला-बदली नहीं है, भले ही फासीवाद चुनाव और जनतांत्रिक तरीके से ही क्यों न आया हो। अगर चुनाव से सत्ता में आने के बाद फासीवादी शक्तियां संवैधानिक एवं पूंजीवादी-जनवादी संस्थाओं पर अन्दर ही अन्दर कब्जा करने में सफल हो जाती हैं तो उनके द्वारा फासीवादी सत्ता व शासन कायम करने की संभावना भी बढ़ जाती है। इसकी सबसे बड़ी मिसाल अपने देश की मोदी सरकार है जो हिन्दू-मुस्लिम नफरत और चालाकी से भरे पाकिस्तान-विरोधी अंधराष्ट्रवाद और सेना के जवानों की ‘प्रायोजित आतंकी हमलों’ में हुई मौतों पर लोगों की आहत भावना और दुःख को बेशर्मी से दुहने की बुनियाद पर चुनाव-दर-चुनाव जीत कर और तमाम जनतांत्रिक व संवैधानिक संस्थाओं को कब्जाते हुए फासीवाद की स्थापना करने की राह पर तेजी से अग्रसर है। इसके 11 वर्षों के शासन से यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि 2014 में नरेन्द्र मोदी का सत्ता में आना बुर्जुआ जनतंत्र के अंतर्गत हर पांच वर्ष पर सरकारों की सामान्य अदला-बदली नहीं थी। क्रांतिकारी आन्दोलन में इसे लेकर काफी भ्रम तब भी था, और संभवतः आज भी है। एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के जिस अति-प्रतिक्रियावादी हिस्से ने तब मोदी की मदद की थी, उसकी मंशा फासीवादी सत्ता कायम करने की ही थी। इसके लिए सुनियोजित रूप से धार्मिक-सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और साथ में ‘अच्छे दिन’ के वायदों के द्वारा चुनाव को प्रभावित करने का तरीका लिया गया, और इस तरह जनतांत्रिक निकायों का ही सफलतापूर्वक इस्तेमाल करके फासीवादी सत्ता कायम करने की प्रक्रिया ली गई। फासीवादी इसमें सफल भी हो गए।  

सवाल है: तो क्या फासीवाद चुनाव के माध्यम से चला भी जायेगा, यानी परास्त भी हो जायेगा? नहीं, इसकी संभावना बहुत कम है, क्योंकि एक दशक से अधिक तक मोदी के सत्ता में बने रहने के बाद निष्पक्ष चुनावी तंत्र और प्रशासनिक तंत्र बचा ही नहीं रह गया है। वह फासीवादियों के तंत्र का हिस्सा बन गया है। अगर हम यह मानते हैं कि पूंजीवादी राज्य का ‘जनतांत्रिक’ तंत्र और इसका पूरा ताना-बाना मोदी शासन के अंतर्गत फासीवादियों के कब्जे में है, तो फिर चुनाव प्रक्रिया से फासीवाद परास्त कैसे होगा? 2014 में अपेक्षाकृत निष्पक्ष चुनावी तंत्र था और चुनाव में सभी पार्टियों के लिए एक लेवल प्लेयिंग फील्ड था। इसलिए ही फासीवादियों ने एकाधिकारी पूंजी के बल पर इसका उपयोग करते हुए सत्ता हासिल कर ली थी। लेकिन वो तब ही यह समझ गए थे कि अगर सत्ता को लम्बे समय तक अपने हाथ में रखना है, तो सत्ता में आने के इस रास्ते को दूसरों के लिए बंद करना होगा और उन्होंने ठीक यही करने की कोशिश 11 सालों में की है। और आज ये प्रतीत होता है कि वे इसमें सफ़ल भी हो गए हैं। सत्ता में आते ही उन्होंने राज्य के सारे तंत्रों और कलपुर्जों पर कब्जा करना शुरू कर दिया था। आज अधिकांश पर उनका कब्जा है। भारत की सत्ता इतनी तो केंद्रीकृत है ही कि प्रांतीय सरकारें अपने अधिकार क्षेत्र में भी इनके हस्तक्षेप और दबदबे को रोकने में असमर्थ रही हैं। कहने का मतलब साफ है, चुनाव के माध्यम से इन्हें परास्त करने की बात सोचना अपने को मुगालते में रखना ही है। हालांकि हमारे कहने का अर्थ यह नहीं है कि चुनाव के मोर्चे को इनके लिए यूं ही छोड़ दिया जाना चाहिए। इस मोर्चे पर इन्हें यूं ही अकेला बादशाहत करने देने की बात हम यहां बिल्कुल ही नहीं कर रहे हैं। हम बस यह कह रहे हैं कि बेकार के मुगालते में नहीं रहना चाहिए। 

सत्ता के निकायों पर कब्जे का सीधा अर्थ ही यह है कि जनता का लोकप्रिय समर्थन खत्म होने से भी फासीवादियों को सत्ता से हटाना असंभव नहीं तो काफी मुश्किल अवश्य होगा। थोड़ी और गहराई से इस पर विचार करें तो इसका अर्थ यह है कि निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया के लिए संघर्ष भी एक कटु ही नहीं भीषण संघर्ष का रूप ले लेगा। अगर किसी को चुनावी-जनतांत्रिक प्रक्रिया अथवा पूंजीवादी जनतंत्र से अत्यधिक मोह है, अगर कोई यह सोचता है कि पूंजीवादी जनतंत्र की जमीन से ही फासीवाद को परास्त किया जाना चाहिए या किया जा सकता है, खासकर इसलिए कि हम यानी मजदूर वर्ग अभी काफी कमजोर स्थिति में हैं, तो भी उन्हें एक भीषण संघर्ष में उतरना पड़ेगा। मजदूर वर्ग की कमजोर स्थिति के हवाले से वे इससे भी भागते हैं या इससे भी भागने की बात करते हैं, तो यह समझ लेना चाहिए कि वे पराजित मनोभाव से ग्रस्त हैं और फासीवाद को परास्त करने के लिए एकमात्र विपक्षी शासक वर्ग और उसकी पार्टियों और दलों पर निर्भर रहने की वकालत कर रहे हैं…। इस तरह हम देख सकते हैं कि चुनाव से फासीवाद को हराना, यानी आरएसएस-भाजपा की जगह किसी अन्य विपक्षी दल या गठबंधन को सत्ता में बैठाने की चाहत रखना भी फासीवादियों द्वारा कब्जा ली गई सत्ता की मशीनरी से एक भीषण संघर्ष की मांग कर रहा है, और इसलिए हम अपनी कमजोरी का बहाना बनाते हैं या इसे जरूरत से ज्यादा अहम बनाते हैं, तो फिर हमें चुनाव से फासीवादियों को हराने के ‘भीषण संघर्ष’ से भी तो भाग खड़ा होना होगा। और अगर कुछ लोग यह सोचते हैं कि चुनाव के इस ‘पवित्र पूंजीवादी जनवादी रास्ते’ को मोदी शासन ‘अक्षुण्ण और पावन’ बनाये रखे हुए है, ताकि विपक्ष आये और जनता के आक्रोश को भुनाते हुए शांतिपूर्ण तरीके से सत्ता ले ले, तो इसका मतलब यही है कि वे अति-भोले लोग हैं और फासीवादियों के चरित्र के प्रति अनभिज्ञ हैं या फिर वे जानबूझकर इससे आँखें मूंदे हुए हैं। हमारी समझ से फासीवादी अगर दो टर्म तक शासन में रहें हैं और अब तीसरे टर्म में प्रवेश कर चुके हैं, तो हमारे लिए यह साफ हो जाना चाहिए कि किसी भी तरीके से इन्हें सत्ता से हटाने का रास्ता क्रांतिकारी और भीषण संघर्ष से होकर ही जाता है। जाहिर है, इसके लिए सर्वप्रथम जरूरी बात यह है कि फासीवादी जनता का लोकप्रिय समर्थन तेजी से खो रहे हों या खो चुके हों। 

चुनावी रास्ते से फासीवादियों को हराने के प्रति मोह में कोई खास हर्ज नहीं है। लेकिन समझना यह है कि इसके लिए भी तो फासीवादियों के कब्जे में चली गई मशीनरी को फिर से बहाल करने के लिए जनता के बीच एक ऐसे क्रान्तिकारी उभार व आन्दोलन की जरूरत है जो फासीवादियों के मंसूबों को बहा ले जाये। यह किसी को भी साफ-साफ दिख सकता है कि इसके बिना फासीवादियों को चुनाव के माध्यम से हराने की बात करना महज विपक्षी दलों पर इसके लिए पूरी तरह से निर्भर हो जाना है। और कुछ नहीं तो हम देख रहे हैं कि चुनाव आयोग ने वोटर लिस्ट के Special Intensive Revision के नाम पर वोटों का घोटाला करना शुरू कर दिया है, जिसमें गरीबों के वोट काटे जाने के और भाजपा समर्थक वोटों के जोड़े जाने के गहरे अंदेशे हैं। समग्रता में इसे वोट चोरी कहा जा रहा है। सारे विरोधों के बावजूद यह हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट भी इसे रोकने के पक्ष में नहीं है। यानी, जनता के पास आन्दोलन का ही रास्ता बचता है। इसका क्या मतलब है? अगर आन्दोलन और विरोध की भी ये नहीं सुने तो क्या होगा? ये सवाल इसलिए जरूरी हो गए हैं क्योंकि फासीवादी सत्ता आम आन्दोलनों की परवाह नहीं करती है। इसका मतलब साफ़ है, एक ऐसे आन्दोलन की जरूरत है जो फासीवादी मशीनरी को नाकाम कर दे और इसे बहा ले जाये। यह निष्पक्ष चुनाव के लिए होगा लेकिन इसका अंतर्य बिल्कुल भिन्न होगा, क्योंकि इसकी अगुआई एकाधिकारी पूंजी के खूंटे से बंधे या उसके समक्ष समर्पित दल और पार्टी नहीं कर सकते। यानी, एक ऐसे क्रांतिकारी आन्दोलन के एक उभार के बल पर होने वाला चुनाव और इसमें मिली जीत सामान्य तरह की चुनावी जीत नहीं होगी। जोड़-तोड़ एवं जातीय समीकरण आधारित चुनावी संघर्ष से न तो यह संभव है, न ही इसके परिणाम ही उस तरह के होंगे। जब भी कोई ऐसा क्रांतिकारी उभार पैदा होगा, तो यह फासीवादी मशीनरी को बहा ले जा कर ही होगा; जिसका अर्थ ही यह है कि यह एक क्रांतिकारी सरकार व सत्ता को जन्म देगा और क्रांतिकारी सत्ता स्वयं इस आन्दोलन के एक कार्यकारी अंग के रूप में कार्य करेगी – तब तक करेगी जब तक कि फासीवाद को उसके जड़-मूल से ही यह सत्ता ख़त्म नहीं कर देगी। यह एक तरह से जनवाद की लड़ाई को पुनः जीतने की लड़ाई होगी। लेकिन ऐसी कोई सत्ता या सरकार किसी क्रांतिकारी आन्दोलन के गर्भ से जन्म लेगी, उसकी पूर्व शर्त यह है कि मजदूर वर्ग इस आन्दोलन का नीचे से और साथ ही साथ ऊपर से नेतृत्व करे। ऐसा इसलिए क्योंकि अन्य कोई दूसरा वर्ग फासीवाद को इस तरह से बंद रास्ते चीरते हुए एवं इसे पूर्ण रूप से पराजित करने की राजनीतिक व वैचारिक शक्ति नहीं रखता है। और इस पर हममें से सभी लोग सहमत भी हैं। अगर कुछ लोग मजदूर वर्ग की आज की दयनीय अवस्था को देखते हुए भिन्न राय रखते हैं, या इसके सबसे क्रांतिकारी वर्ग होने एवं इसके ऐतिहासिक मिशन पर आशंका व्यक्त करते हैं, तो वे हद दर्जे की मूर्खता करते हैं। हमें मार्क्स की यह प्रसिद्ध उक्ति याद रखनी चाहिए कि मजदूर वर्ग आज किस हालत में है वह यहां मायने नहीं रखता है, वह अंततः क्या करने के लिए बाध्य है यह मायने रखता है। 

आज जब चुनाव के माध्यम से मोदी सरकार चुनाव-दर-चुनाव जीत कर और तमाम जनतांत्रिक व संवैधानिक संस्थाओं को कब्जाते हुए फासीवाद की स्थापना करने की राह पर तेजी से अग्रसर है, तो हमें सोवियत लाल सेना के हाथों अपनी हार के कगार पर खड़े जर्मनी के प्रसिद्ध फासीवादी प्रचार मंत्री जोसफ गोएबल्स के इस कथन को नहीं भूलना चाहिए कि ‘अब उनकी लाश ही राइखस्टैग (जर्मन संसद भवन) से बाहर जायेगी।’ यह कथन फासीवादियों के कट्टर इरादों और मंसूबों को प्रदर्शित करने वाला कथन है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हिटलर की नाजी पार्टी ने भी चुनाव में भाग लिया था, हालांकि उन्हें मोदी की तरह बहुमत हासिल नहीं हुआ था और बहुत जल्द ही वित्तीय एकाधिकारी पूंजीपतियों के समर्थन से उसने राइखस्टैग पर जबरदस्ती कब्जा कर लिया था। यह बताता है कि फासीवाद की मामूली चुनावी विजय भी खतरों का संकेत है। जब चुनावी जीत के तरीके से फासीवाद आता है तो यह बहुतों को भ्रमित करने में सफ़ल होता है, क्योंकि ‘जनतंत्र’ ऊपरी आवरण में बना रहता है, भले ही अंतर्य बदल चुका होता है। इसमें फासीवादीकरण की प्रक्रिया धीमी होती है और फासीवाद की पूर्ण स्थापना के पहले तक इसके अपेक्षाकृत कम तीव्रता के हिंसक उभार की कई लहरें आती और जाती रहती हैं। इससे भी चुनाव के माध्यम से हराने के प्रति भ्रम होता रहता है। जब एक घोर सांप्रदायिक-नस्लीय नफरत की आंधी चलती है और एक अंधराष्ट्रवादी मुहिम तेज होता है तथा जनतंत्र के लिबास में छुपा फासीवाद का नग्न रूप एकाएक सामने आता है, जैसा कि हम मोदी के शासन में कई बार होते देख चुके हैं, तो खतरे का एक गहरा अहसास होता है। तब हमें ज्यादा स्पष्ट दिखता है कि किस तरह से जनतंत्र के नाम पर ही जनतंत्र को खत्म किया जा रहा है। तब जाकर हमें स्पष्ट होता है कि एक सुनियोजित प्रतिक्रियावादी राजनीतिक एवं वैचारिक आन्दोलन तथा सामाजिक-सांस्कृतिक मुहिम, जिसके केंद्र में नृजातीय घृणा और इस आधार पर हिंसात्मक अराजकता होती है, के तहत समग्रता में जनतंत्र, न्याय और बराबरी की ऐतिहासिक अवधारणा का पूरी तरह से सफाया किया जा रहा है, जबकि हम इसके इंतज़ार में हैं कि कब संसद भंग होगा और कब हम यह कह सकेंगे कि फासीवाद आ गया है। अजीबोगरीब बात है लेकिन सोलहो आना सच बात है।  

फासीवादी आतंकी तानाशाही के विभिन्न रूप हो सकते हैं और इससे हमें भ्रमित होने की जरूरत नहीं है। देश और काल के हिसाब से इसकी तीव्रता भी कम या ज्यादा हो सकती है। आज विश्व पूंजीवाद जिस तरह के चौतरफा ‘स्थाई’ संकट में फंसा है वह फासीवाद की तरफ एक स्थाई शिफ्ट की मांग कर रहा है। जाहिर है, दीर्घकालीन फासीवाद की तीव्रता और रूप इसके अनुरूप होंगे। भारत में यह धर्म के लिबास में, यानी फासीवाद धर्म-राष्ट्र (हिंदू-राष्ट्र) के लिबास में प्रकट होता दिख रहा है जो ब्राह्मणवाद और मनुस्मृति के प्रतिक्रियावादी उभार या पुनरोदय की आहट लिए हुए है। इस रूप को हम धार्मिक-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कह सकते हैं। अन्य देशों में ये अलग ही तरीके से आ रहा है। सम्पूर्णता में यह वैश्विक पूंजीवादी राजनीति में एक स्थाई चरित्र का घोर और अति-धुर दक्षिणपंथी शिफ्ट का रूप लिए हुए है और इसके खिलाफ निर्णायक पलटवार की उम्मीद सिर्फ और सिर्फ मजदूर वर्ग से की जा सकती है। 20वीं सदी के फासीवाद से आज के फासीवाद की तुलना करना बेकार है। सौ साल पहले इटली का फासीवाद (रोमन साम्राज्य की महानता के पुनर्जागरण के आधार पर कॉर्पोरेट राज्य के रूप में) जर्मनी के फासीवाद (नाजीवाद, यानी आर्य नस्ल की श्रेष्ठता और यहूदी विरोध पर आधारित) से भिन्न था और तुलनात्मक रूप से कम नस्लीय था। इसी तरह, जापानी फासीवाद सम्राट-केन्द्रित राष्ट्रवाद का रूप धारण किये हुए था जिसमें राजा ईश्वर का रूप माना जाता था। हंगरी और ऑस्ट्रिया में इसका रूप नस्लीय राष्ट्रवाद था। स्पेन में इसका रूप रुढ़िवादी राष्ट्रवादी था जिसे फ्रेंकोवाद भी कहा गया। लेकिन जहां तक इसके मूल चरित्र की बात है, तो इन सबमें न तो तब कोई अंतर था, न ही आज है। यानी, मुख्य बात यही है कि फासीवाद एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के सबसे जनतंत्रविरोधी, सबसे खूंखार, सबसे क्रूर, सबसे  प्रतिक्रियावादी, सबसे आतंकी और सबसे साम्राज्यवादी-मानवद्रोही तत्वों की खुली व नग्न तानाशाही होता है। यह मानवजाति को मध्ययुगीन बर्बरता और पशुवत गुलामी की जंजीरों में जकड़ देने वाली तानाशाही का नाम है और इसीलिए इसे एक ऐतिहासिक पश्चगमन भी कहा जाता है। मानवजाति की अब तक हासिल की गई तमाम उपलब्धियों एवं प्रगति पर यह पानी फेर देने वाली तानाशाही है। 

इसलिए यह स्वाभाविक है कि फासीवाद घरेलू और विदेशी – दोनों मोर्चों पर पशुतुल्य और गैर-इंसानी युद्धोन्माद फैलाता है। विदेशों में जहां वह कमजोर राष्ट्रों व वहां की जनता को दबाता है और उनके साथ पशुवत व्यवहार करता है, वहीं मजबूत देशों के साथ हर तरह का गंठजोड़ बनाता है, और इस तरह दुनिया के श्रम और संसाधनों की लूट में हिस्सेदारी के लिए लड़ता है। जाहिर है, वह साम्राज्यवादियों द्वारा दुनिया के पुन: बंटवारे के लिए लड़ता है और पूरी तरह से लुटेरू युद्ध चलाने का पक्षधर होता है और इस तरह मानवीय मूल्यों को कुचलने की ओर तेजी से बढ़ता है। 

जहां तक घरेलू मोर्चे की बात है तो सबसे पहले वह इसी मोर्चे पर जीत हासिल करता है या करना चाहता है। वह अपने देश की जनता के सारे अधिकारों को कुचलने के लिए उन पर तरह-तरह का युद्ध लादता और चलाता है। हालांकि ऊपर से वह धार्मिक उन्माद और नस्लीय नफरत फैलाकर इस पर मुलम्मा भी चढ़ाता है और यह दिखाने की कोशिश करता है कि वह एक खास धर्म के लोगों के साथ है। जैसे कि भारत में हिंदू-मुस्लिम करके हिंदू जनता को बरगलाने की कोशिश भारत के फासीवादियों द्वारा की जाती है। इसके लिए वह हिंदुत्व का सहारा लेता है। लेकिन जैसा कि हर जगह होता है, भारत में भी उसका वास्तविक और अंतिम निशाना मजदूर-मेहतनकश वर्ग ही है, और इस नाते हम यह भी कह सकते हैं कि भारत में इसका निशाना गरीब-मेहनतकश दलित, आदिवासी और समाज के पिछड़े समुदाय के लोग हैं। वह इसके लिए ब्राह्मणवाद का छुपे तौर पर ही सही (क्योंकि उसे शुद्र एवं दलित समुदाय के लोगों को मुस्लिमों के ऊपर जुल्म ढाने के लिए अपना सहयोगी और पैदल सिपाही भी बनाना होता है) लेकिन शर्तिया उपयोग करता है। अल्पसंख्यक तो इसके निशाने पर हैं ही। लेकिन इससे हमें इस भ्रम में नहीं आना चाहिए कि फासीवाद महज कोई धार्मिक और सांस्कृतिक सवाल और हमला है। नहीं, फासीवाद अपने अंतर्य में मूलतः और वास्तविक रूप से एक वर्गीय सवाल और वर्गीय हमला है जो अन्य सभी तरह के हमलों को समेटे हुए रहता है। दरअसल, ऐसा किये बिना वर्गीय हमला को बरकरार रखा भी नहीं जा सकता है। यहां फासीवाद के इस पहलू को भी विशेष रूप से नोट किया जाना चाहिए कि भारत में फासीवाद अपनी मुहिम में इन्हीं दलित, आदिवासी और पिछड़ों, जिनका ये दमन करते हैं, यहां तक कि मुसलमानों, जिनके खिलाफ विषवमन ही फासीवादी राजनीति का आधार है, में से भी उसके आगे बढ़े हुए एवं विशेष तरह के दलाल तत्वों को अपने में शामिल किये हुए है, जबकि इन्हीं के बाकी के हिस्सों के ऊपर हमला करता है। हम यह भी देखते हैं कि मोदी को मुस्लिम देशों के, यहां तक कि पाकिस्तान के मुस्लिम शासकों को गले लगाने से कोई परहेज नहीं है। सभी से इनके सम्बन्ध ठीक-ठाक हैं। यह दिखाता है कि फासीवाद एक वर्गीय सवाल है, न कि धार्मिक और सांस्कृतिक। हां, यह जरूर है कि भेदभाव बढ़ाने के उद्देश्य से इसका इस्तेमाल वे बखूबी करते हैं। ऐसा करके ही वे राजनीतिक रूप से पिछड़ी जनता के धार्मिक एवं सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों का नफरती राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए उपयोग करते हैं। लेकिन इसका वास्तविक लक्ष्य बड़ी वित्तीय पूंजी की तानाशाही कायम करना, मेहनतकश अवाम को मध्ययुगीन दौर का गुलाम बनाना, और मानव श्रम से निर्मित सामाजिक धन और देश के तमाम संसाधनों की लूट करना और एकाधिकारियों का साम्राज्य स्थापित करना ही है। इस अर्थ में फासीवाद वित्तीय पूंजी की राजशाही का रूप भी ले सकता है जिसका बाह्य शक्ल हिन्दू-राष्ट्र होगा। 

फासीवाद या इसकी आहट भी मजदूर वर्ग के लिए खतरे की घंटी है, उस पर बहुत बड़े हमले का संकेत है। अच्छी बात यह है कि इसके विरुद्ध जनता के संघर्षों की लहर भी उठ रही है। यही नियम है। जब सत्ता का घोर प्रतिक्रियावादी चरित्र उजागर होता है, तो जनता इसका जवाब संघर्षों की एक लहर से देती है। इसे हम श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल में देख चुके हैं। इसकी धमक पूरी दुनिया में है। भारत में भी लहर मौजूद है लेकिन इसकी धमक मद्धिम है। यूरोप और अमेरिका में इस लहर का आंकलन इससे किया जा सकता है कि जब फिलिस्तीन को धरती के नक़्शे से मिटाने की कोशिश साम्राज्यवादी कर रहे हैं, तो यह यूरोपीय और अमेरिकी मजदूरों और आम जनता के दिलों में अंकित हो चुका है। पूरी दुनिया के लोग फिलिस्तीन का झंडा उठा लिए हैं। जब कभी साम्राज्यवाद को विश्व की जनता पीछे धकेलेगी और मजदूर वर्ग जीत की ओर अग्रसर होगा, वैसे ही फिलिस्तीन राष्ट्र का जन्म अरब में हो जाएगा। 

II 

मजदूर वर्ग को यह भी समझना होगा कि मजदूरों और जनता के समस्त अधिकारों एवं जनतंत्र पर इतना अधिक हमला होने या बढ़ने का, फासीवाद के आने का आखिर कारण क्या है। पूंजीपति वर्ग को, खासकर बड़े एकाधिकारी एवं वित्तीय पूंजीपति वर्ग को फासीवादी शासन की इसलिए जरूरत है क्योंकि पूरे विश्व के पैमाने पर छाये गहन आर्थिक मंदी एवं संकट के बढ़ते बोझ को पूंजीपति वर्ग दुनिया भर के श्रमिक वर्ग के ऊपर लादना चाहता है, यानी उसके शोषण की तीव्रता और सामाजिक धन और प्राकृतिक संसाधनों की लूट को और तेज करना चाहता है, और अगर मजदूर-मेहनतकश वर्ग और जन साधारण इसका विरोध करें तो उसे पूरे तरीके से कुचला जा सके। यही कारण है कि जनतंत्र और न्याय की अवधारणा तक से उनको अत्यधिक घृणा है! एकाधिकारी पूंजी के फासीवादी शासन के प्रति झुकाव का यह एक मुख्य कारण है।  

आजादी के बाद से भारत में बनने वाली सभी सरकारों ने पूंजीपति वर्ग के हितों को ही प्राथमिकता दी है और यही कारण है कि मजदूरों और मेहनतकश जनता की लूट शुरू से ही जारी है। धीरे-धीरे पूंजी का संकेंद्रण बढ़ा। संकेंद्रित पूंजी के अलग-अलग हिस्सों के बीच बाजार के लिए प्रतिस्पर्धा पैदा हुई जो बैंक पूंजी की उपलब्धता की वजह से काफी तेज हुई। इसी के साथ पूंजी का केंद्रीकरण बढ़ा। पूंजीपति वर्ग के बीच से एक एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग पैदा हुआ। इसने बैंक पूंजी और औद्योगिक पूंजी के संलयन का रास्ता तैयार किया और वित्तीय पूंजी का जन्म हुआ। आज जब हम एकाधिकारी पूंजी की बात करते हैं तो हम दरअसल एकाधिकारी वित्तीय पूंजी की बात कर रहे होते हैं। आज इसने देश की अर्थव्यवस्था को अपने नियंत्रण में ले लिया है। पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था भी एकाधिकारी वित्तीय पूंजी की जकड़न में कैद है। वैश्वीकरण के दौर में भारतीय एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के हित और तेजी से व एकदम गहरे रूप से वैश्विक साम्राज्यवादी-वित्तीय पूंजी से जुड़ते चले गए। इसकी लय में नरसिम्हा राव की सरकार की अगुआई में 1991 में नई आर्थिक नीति लाई गई। तब के वित्त मंत्री और 2004 से 2014 के बीच में देश के प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह इसके प्रणेता बने। तब से लेकर आज तक वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण देश की अर्थव्यवस्था के नये मूलमंत्र हैं जो हमारे देश में उभरे एकाधिकारी वित्तीय व औद्योगिक पूंजी के संयुक्त हितों के बिल्कुल ही अनुरूप हैं। उनका लक्ष्य था और है – देश की धन-संपदा, इसके प्राकृतिक व सामाजिक संसाधनों, पब्लिक सेक्टर, आदि पर तथा आकाश से लेकर पाताल तक जो भी देश में है उस पर पूर्ण कब्जा करना और फिर इसे निचोड़कर हासिल मुनाफे के बल पर तथा अंतरराष्ट्रीय पूंजी के साथ मिलकर देशी और विदेशी श्रम की लूट से अधिकतम संभव मुनाफा कमाना और अपनी थैली को लगातार बड़ा करते जाना। नरसिम्हा राव के बाद वाजपेयी सरकार ने इन नीतियों को और आगे बढ़ाया व तेज किया। लेकिन 2004 से 2014 के बीच यूपीए की गठबंधन सरकार के दौरान यह उस गति से नहीं बढ़ा जिस तेजी से देश का एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग चाहता था। एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग क्या चाहता था? वह चाहता था कि मजदूर वर्ग पर तथा आम जनता के तमाम जनवादी अधिकारों पर तीव्र गति से हमला बोला जाए, पूंजीपक्षीय सुधारों को बिजली की गति से और पूरी निर्ममता से लागू किया जाए और जितनी जल्दी संभव हो जनता को मूर्ख बनाकर या फिर उसका दमन कर अपने हितों को आगे बढ़ाया जाये। यह पूरा प्रोजेक्ट ही जनतंत्र को खत्म करने का प्रोजेक्ट था। वे देख चुके थे कि जनतंत्र के रहते, यानी जब तक जनता के पास सरकार का विरोध करने का अधिकार और माहौल है, यानी देश में जनवादी वातावरण बना हुआ है, और सबसे बढ़कर, मजदूर वर्ग को संगठन बनाने और पूंजीपति वर्ग से मोलभाव करने के लिए हड़ताल आदि का अधिकार बना हुआ है, और इससे भी बढ़कर, प्रत्येक पांच वर्षों पर नई सरकार चुनने का आम जनता का अधिकार बना हुआ है, तब तक कोई भी पार्टी जनता के बुनियादी हितों की पूरी तरह अवहेलना नहीं कर सकेगी और खुलकर एकाधिकारी पूंजी के लिए काम नहीं कर सकेगी। सवाल था, जनता के सरकार को चुनने के अधिकारों को कैसे खत्म किया जाए या कम से कम एक ऐसी स्थिति किस प्रकार तैयार की जाए ताकि जनता पूरी तरह से आपस में बंट जाये और इस तरह से अपना होश खो दे कि वह स्वयं अपने ही हितों के खिलाफ हो जाए। इसके लिए जरूरी था कि जनता को धर्मांध व उन्मादी बना दिया जाये, उसके सामने एक ऐसा छाया दुश्मन खड़ा कर दिया जाए जिसके विरुद्ध उसमें इतना नफरत भर दें कि वह भूल जाये कि उसका असली दुश्मन कौन है। समस्या यह भी थी कि पूंजीपति के लिए सफलता से इस काम को करने वाला कौन है, कौन है जिसे जनता के बीच धार्मिक नफरत फ़ैलाने और इसके नशे में पूरे देश की जनता को डुबो देने में महारत हासिल थी। कांग्रेस बड़ी पूंजी की ही पार्टी है और थी। लेकिन उसमें ऐसी क्षमता नहीं थी। कांग्रेस इस सूची से बाहर हो चुकी थी, यह 2014 तक स्पष्ट हो चुका था। लेकिन देश में ऐसा संगठन – आरएसएस पहले से मौजूद था। इसके गुजरात के प्रचारक मुख्यमंत्री (नरेन्द्र मोदी) एक दशक पहले से यह कारनामा सफलता और सफाई से कर रहे थे। हम देखते हैं कि 2014 में उन्हें जितवाने के लिए एकाधिकारी पूंजीपतियों ने अपनी तिजोरी खोल दी। बड़ी पूंजी ने इसके लिए बेशुमार खर्च किये। लेकिन जब मोदी प्रधानमंत्री के रूप में जनता से किये गए अपने वायदों में फेल होने लगे और यह सामने आने लगा कि ये तो अदानी और अम्बानी के सेवक हैं, तो हमने देखा कि जनता को बहुत तेजी से धार्मिक उन्माद और अंधराष्ट्रवाद के नशे में डुबा दिया गया। खासकर मुस्लिमों के विरुद्ध पैदा की गई नफरत में मोदी भक्तों की टोली यह तक कहने लगी कि पेट्रोल एक हजार प्रति लीटर भी हो जाएगा तो भी मोदी को जिताएंगे। बेरोजगारी, महंगाई आदि की बात को उठाने या इसी तरह से जनता के अन्य तरह के मुद्दे को उठाने वालों को जनता के ही एक हिस्से ने गद्दार और देशद्रोही तक कहना शुरू कर दिया। हम यह दौर देख चुके हैं। लेकिन वह दौर अब जाने वाला है। लोग नशे से जागने लगे हैं। लेकिन तब तक मोदी शासन ने पूरी संस्थाओं को अपने कब्जे में ले लिया, यहां तक कि उच्चतम न्यायालय को भी अपने प्रति नमनीय बना लिया। आज  मोदी शासन बिना हिंदू-मूस्लिम के भेदभाव के सबके ऊपर दमन चलाने का काम कर रही है। जो भी हक़-अधिकार की बात कर रहा है, उसे बिना हिन्दू-मुस्लिम के भेदभाव के दमन का शिकार बना रही है। श्रीलंका, बांग्लादेश और फिर नेपाल में युवाओं के विद्रोह को देखते हुए मोदी सरकार बहुत तेजी से दमनतंत्र को पहले से सौगुना अधिक और हर तरह से चाक-चौबंद बनाने के लिए सभी बड़े शहरों में चप्पे-चप्पे पर स्पाई फैला चुकी है। क्या इसमें हिन्दू-मुस्लिम का कोई भेदभाव है? नहीं, दमन के शिकार वे सभी हिन्दू युवा और मजदुर और किसान होंगे या हो रहे हैं जो मोदी सरकार के जनविरोधी और कॉर्पोरेटपक्षी नीतियों का विरोध कर रहे हैं या करेंगे। यहां पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष दिखती है यह सरकार! आज हालात ये है कि अंबानी और अडानी का नाम लेने पर भी सरकार और फासीवादियों को गुस्सा आता है। कोर्ट को भी गुस्सा आता है। अदानी द्वारा किसानों की जमीन के कब्जे का विरोध कर रही जनता पर पुलिस सीधे रायफल ही तान देती है, चाहे वे छत्तीसगढ़ के आदिवासी हों या बिहार के किसान। पैटर्न एकसमान है। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आज 1687 लोगों के पास 167 लाख करोड़ रूपये की संपत्ति है जो भारत की कुल जीडीपी के आधे के बराबर है। मुकेश अंबानी 9.55 लाख करोड़ के साथ पहले नंबर पर और अडानी 8.15 लाख करोड़ के साथ दूसरे नंबर पर हैं। अमीरी-गरीबी की लगातार चौड़ी होती खाई लाख छुपाए छिप नहीं रही है। हालांकि, भाजपा सरकार और इसका सम्पूर्ण संघ परिवार जनता को हिंदू-गैर हिंदू के झगड़ों में उलझाकर असली समस्याओं से ध्यान भटकाने की अभी भी कोशिश कर रहा है, जबकि देश की 80% से अधिक संपत्ति पर सिर्फ 10% अमीरों का कब्जा हो चुका है। आधी आबादी कर्ज, भुखमरी, बेरोजगारी, महंगाई, कंगाली और बदहाली में डूबी हुई है। आत्महत्याओं का सिलसिला उनके बीच और तेज ही हुआ है। मेहनतकश जनता की जिंदगी असहनीय रूप से दयनीय बन चुकी है। दूसरी तरफ, शांतिपूर्ण प्रदर्शनों पर लाठीचार्ज, अवैध गिरफ्तारियां और फासीवादी संगठनों की सांप्रदायिक नफरत की आलोचना करने वाले पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का दमन अब रोजमर्रा की चीज और कहानी बन गया है। युवाओं, मजदूरों से लेकर किसानों के आंदोलनों तक हर तरह के जनवादी व शांतिपूर्ण आन्दोलन को बर्बरता से दबाया जा रहा है। जब धैर्य टूट जाता है, और जनता उग्र हो जाती है तो सीधे-सीधे उसे देशद्रोही बता दिया जाता है। साफ है कि यह सरकार मजदूर विरोधी, जन-विरोधी और लोकतंत्र विरोधी तो है ही, फासीवाद कायम करने की तरफ बहुत तेजी से पग बढ़ा रही है। इनकी कारगुजारियों की लिस्ट अब काफी लम्बी हो चुकी है – बाबरी मस्जिद का विध्वंस, गुजरात में नरसंहार, गौरी लंकेश की हत्या, दिल्ली के दंगे, संविधान को अंदर ही अंदर रद्द और ख़त्म करने की कार्रवाई, झूठे देशद्रोह के मुकदमों में अपने विरोधियों को फंसाना, मुसलमानों के खिलाफ लव जिहाद, वोट जिहाद, जमीन जिहाद … के नाम से मुहीम चलाना, मॉब लिंचिंग करना, असम में बीस लाख हिन्दू और मुस्लिमों को गैर-नागरिक घोषित करना, मणिपुर में आदिवासियों पर हमला, गुजरात में बलात्कारियों का सम्मान, उत्तर प्रदेश में बुलडोजर राज, पीड़ितों के शवों को जबरन जलाना, मध्य भारत में जल-जंगल-जमीन से लोगों को बेदखल कर उन पर दमन चलाना, और अब Special Intensive Revision के नाम पर बड़ी संख्या में गरीब-गुरबों को वोटर लिस्ट से बाहर करना, आदि ऐसे कई उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि वर्तमान हुकूमत फासीवाद की ओर तेजी से छलांग लगाते हुए बढ़ रही है। मजदूर वर्ग को इसका मूकदर्शक नहीं बनना चाहिए, अन्यथा विनाश तय है। 

मासा द्वारा जारी पर्चा कहता है – ”सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने तानाशाही तरीके से मजदूर वर्ग पर हमले और तेज कर दिए। ठेका प्रथा, हायर एंड फायर, फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेंट (FTE) और चार नए श्रम संहिताओं के जरिए यूनियन बनाने और हड़ताल करने जैसे अधिकारों को बर्बरता से कुचला गया। इन्फोसिस के नारायणमूर्ति जब 70 घंटे और एलएंडटी के सुब्रमण्यम 90 घंटे काम की वकालत करते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे मजदूर इंसान नहीं, बल्कि, बेजुबान पशु हों।“ 

”भाजपा सरकार खुलेआम देश के प्राकृतिक संसाधनों और जनता के टैक्स से खड़े किए गए सरकारी उपक्रमों को अपने करीबी कॉरपोरेट साथियों, खासकर अडानी और अंबानी को सौंप रही है। विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) के नाम पर जमीन और संसाधन पूंजीपतियों को दिए जा रहे हैं, जहां मजदूरों के अधिकार लागू ही नहीं होते। जियो (Jio) को फायदा पहुंचाने के लिए बीएसएनएल जैसी सरकारी कंपनी को जानबूझकर कमजोर किया गया। तेल, रेल, सड़क परिवहन, बंदरगाह, हवाई सेवाएं और खनन आदि क्षेत्र को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। विदेश नीतियां और समझौते भी मेहनतकश जनता के हितों को दरकिनार कर पूंजीपतियों के मुनाफे को ध्यान में रखकर बनाए जा रहे हैं और समझौते किये जा रहे है। न सिर्फ विपक्षी पार्टियों को ED, CBI और फर्जी मुकदमों के जरिए डराया धमकाया जा रहा है, बल्कि लेखकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को राष्ट्रविरोधी ठहराकर जेलों में डाला जा रहा है और उनकी आवाज को दबाने के लिए सरकारी तंत्र का खुलकर दुरुपयोग किया जा रहा है। फासीवादी ताकतें मजबूत और देश में फासीवादी शासन का खतरा बढ़ता जा रहा है।’’

हम इससे सहमत हैं कि फासीवाद की तरफ बढ़ते पूंजीवादी शासन का विरोध करना मजदूर वर्ग के लिए इसलिए भी जरूरी है कि ऐसे शासन में मजदूर वर्ग के लिए अपने कंधे से पूंजी के जुए को उठाकर फेंकना और अपनी गुलामी के खिलाफ संघर्ष करना काफी कठिन हो जाता है। खुला वर्ग-संघर्ष ही मजदूर वर्ग को संगठित, शिक्षित और बहादुर बनाता है और इसकी इजाजत पूंजीपति वर्ग की सामान्य तानाशाही के तहत, यानी पूंजीवादी जनतंत्र में मिलती है! 

यहां गौरतलब है कि अपनी सामान्य तानाशाही को ही हमारा पूंजीपति वर्ग ‘जनतंत्र’ कहता है। जबकि यह उसका जनतंत्र है, सभी का नहीं, मजदूरों का नहीं। फिर भी यह सच है कि इसमें आम जनता एवं मजदूर वर्ग को भी कुछ राजनीतिक और कानूनी बराबरी के अधिकार मिले हैं। लेकिन इसका पलड़ा हमेशा पूंजीपति वर्ग के पक्ष में झुका रहता है। पूंजी की ताकत से बराबरी का यह अधिकार हमसे ठीक तब छीन लिया जाता है जब मजदूर इसे वास्तव में हासिल करने को आगे बढ़ते हैं। यही पूंजी की सर्वशक्तिमत्ता है और यह सर्वत्र है! वह कोर्ट, सरकार और संस्थाओं को खरीद लेती है। जनता द्वारा चुनी हुई सरकार को भी पूंजीपति अपनी शक्ति से अपना चाकर बना लेते हैं। लेकिन यह बात कि पूंजीवादी जनतंत्र में जनता को औपचारिक तौर पर ही सही लेकिन कुछ महत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त होते हैं, अपने आप में इतनी महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि इससे मजदूर वर्ग को वर्ग-संघर्ष चलाने का, अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए पूंजीपति वर्ग और सरकार के विरुद्ध संघर्ष चलाने का अधिकार मिलता है और इसका उपयोग वे अपने को संगठित करने के लिए कर सकते हैं। जाहिर है, पूंजीपति वर्ग इस खतरे से अनभिज्ञ नहीं है और स्वयं संविधान में इसका प्रावधान किये हुए है कि जनता के इन अधिकारों को कभी भी आपात स्थिति के हवाले से सस्पेंड, खारिज या खत्म किया जा सकता है। दमन के नए कानूनों के द्वारा भी पूंजीपति वर्ग और इसकी सरकारों ने इन अधिकारों को सीमित और पंगु बनाया है। गौर करने वाली बात यहां यह है कि जब फासीवाद स्थापित होता है तो ये औपचारिक अधिकार भी, जिन्हें पूंजीपति वर्ग सामान्य तानाशाही के तहत जनता को देता है, खत्म कर दिये जाते हैं। श्रम कानूनों के साथ जो हुआ, हम देख सकते हैं। अभिव्यक्ति के अधिकारों, तथा बाकी के जनवादी अधिकारों के साथ आज जो हो रहा है, यानी जिस तरीके से इन्हें निरस्त किया जा रहा है, हम यह भी देख रहे हैं। संविधान को औपचारिक रूप से खत्म किये बिना ही इसे खत्म किया जा रहा है। इसका खामियाजा सबसे ज्यादा मजदूर वर्ग भुगत रहा है। इसके विरोध की आवाज, चाहे जिस कोने से उठे, उसे दबाया जा रहा है। पहले आम तौर पर मजदूरों के विरोध प्रदर्शनों और घेरावों और शांतिपूर्ण कार्रवाइयों पर, यहां तक कि हड़ताल पर रोक नहीं थी, इतनी तो कतई नहीं, जितनी कि आज है। मजदूरों के संघर्षों पर इतनी अधिक रोकथाम या निगरानी पहले नहीं थी जैसी कि आज देखी जा रही है। यह परिवर्तन अपने आप में इस बात का पुख्ता इशारा एवं प्रमाण है कि फासीवाद कदम-दर-कदम हमारी जिंदगी में घुस चुका है, प्रकट हो चुका है। मजदूर कश्मीर पर कुछ नहीं बोल सकता। फिलिस्तीन पर नहीं बोल सकता। मुसलमानों पर हो रहे जुल्म पर नहीं बोल सकता है। भारत-पाक युद्ध पर कुछ नहीं बोल सकता। श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल और लेह-लद्दाख के विद्रोह पर कुछ नहीं बोल सकता, मणिपुर पर बात नहीं कर सकता, पूंजीवाद से मुक्ति के उपायों पर खुलकर बात नहीं कर सकता….अगर बोलना है तो उसे देखना होता है की उसकी बात सरकार के सीधे विरोध में न हो। फिर भी रिस्क है। उसके पीछे फासीवादी गुंडा-गिरोह लग जा सकता है और मुंह बंद रखने को कह सकता है, या फिर सीधे पुलिस ही गिरफ्तार करने पहुंच जा सकती है। क्या परमानेंट-मजदूर ठेका-मजदूरों के पक्ष में खुलेआम बोल सकते हैं या उनके वाजिब संघर्ष का समर्थन कर सकते हैं? करते हैं तो फिर यह रिस्क है कि प्रबंधन कार्रवाई कर सकता है और उसकी जॉब जा सकती है। बोनस में एफआईआर भी मिल सकता है। अभिव्यक्ति के सभी रूपों पर हमला है। आम मजदूरों को इस बौद्धिक बहस में नहीं पड़ना चाहिए कि राज्यसत्ता फासीवादी हुआ है या नहीं, फासीवादियों का पूर्ण कब्जा हुआ है या नहीं। उन्हें तो अपने जीवन के ठोस अनुभवों से समझना चाहिए कि फासीवाद के आसन्न खतरे की बात में कितना दम है। और यह तो मजदूरों को समझ ही लेना चाहिए कि फासीवाद पूंजीपति वर्ग की एक खुली, नंगी और खूंखार तानाशाही है और इसका स्थापित होना एक सामान्य घटना या परिघटना नहीं है। मजदूर वर्ग के लिए फासीवाद की स्थापना का अर्थ उसकी गुलामी के सबसे खूंखार स्वरुप का आना है।  

मासा का पर्चा आगे कहता है, “ऐसे में भारत के मजदूर वर्ग के सामने चुनौती है कि वह पूंजीवादी शोषण से मुक्ति की निर्णायक लड़ाई को आगे बढ़ाए और साथ ही, अब तक के संघर्षों से अर्जित मजदूर-पक्षीय और जनवादी अधिकारों की रक्षा करते हुए फासीवादी ताकतों के खिलाफ भी मोर्चा खोले।“ बिल्कुल, और इसका एक ही अर्थ है। वह यह है कि मजदूर-मेहनतकश वर्ग को फासीवाद को पराजित करने के लिए, यानी जनवाद की लड़ाई को मुकम्मल रूप से जीतने के लिए, उसे अपने को शासक वर्ग की पोजीशन में लाना होगा। और यह बात शत-प्रतिशत दुरुस्त है, क्योंकि इसके अलावा ऊपर की बात का और कोई मतलब नहीं हो सकता है। इसी तरह हम इससे भी सहमत हैं कि “जब तक दुनिया में पूंजीवाद और साम्राज्यवाद कायम हैं, तब तक फासीवादी शासन का खतरा बना रहेगा” और इसीलिए ही फासीवाद की लड़ाई में मजदूर वर्ग को अपने को भावी शासक वर्ग के रूप में प्रतिष्ठित करने का काम स्वयं फासीवाद को हराने और जनवाद की लड़ाई को पुनः जीतने के लिए जरूरी हो गया है। “आज वैश्विक स्तर पर साम्राज्यवादी पूंजीपति प्राकृतिक संसाधनों और बाजारों पर कब्जे के लिए युद्धों की होड़ में लगे हैं। गजा में इजराइल का जनसंहार, यूक्रेन में रूस और नाटो के बीच युद्ध, और यमन, सूडान, कांगो में भाड़े की सेनाओं द्वारा उत्पीड़न इत्यादि यह दिखाते हैं कि ये युद्ध पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए लड़े जा रहे हैं, जबकि इसकी कीमत मेहनतकश जनता चुका रही है। इसलिए फासीवादी ताकतों और उनके शासन के खतरे का पूरी तरह अंत करने के लिए पूंजीवाद-साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकना जरूरी है। यह भ्रम फैलाया जाता है कि उदारवादी, संसदीय वाम या विपक्षी पार्टियों के जरिए चुनावों में फासीवादी शक्तियों को हराया जा सकता है।“ लेकिन यह एक छलावा है, खासकर तब, जब पूरी चुनावी मशीनरी और राज्य की संस्थाएं खुद फासीवादी ताकतों के कब्जे में हों जैसा कि ऊपर कहा गया है। यह इस बात की भी तस्दीक करता है कि फासीवाद के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई एकमात्र मजदूर वर्ग की अगुआई में ही लड़ी जा सकती है और देय परिस्थिति में ऐसी कोई भी निर्णायक क्रान्तिकारी लड़ाई एक ऐसी क्रान्तिकारी सरकार को जन्म दिए बिना जीत की मंजिल नहीं पा सकती है जो इस लड़ाई का अंग होगी और इस लड़ाई को अंत तक, फासीवाद को हमेशा के लिए जड़मूल से ख़त्म करने तक, चलाने का साधन होगी। लेकिन इस मजदूर वर्ग के प्रतिनिधियों की सभा में यह अलग से कहने की खास जरूरत नहीं है कि यह सब कुछ तभी संभव है जब मजदूर वर्ग इस लड़ाई में ऊपर और नीचे दोनों तरफ से दबाव बनाये और इसके लिए इसके शीर्ष पर हो। मजदूर वर्ग की यह रणनीति निश्चय ही उन सभी शक्तियों को एक मंच पर लाने और उनके संयुक्त और एकीकृत प्रहार को संगठित करने के सवाल को सामने लाता है। दूसरे शब्दों में, जैसा कि मासा का परचा कहता है, – “एकमात्र रास्ता है मेहनतकश जनता की व्यापक एकता बने और वह संगठित हो आम जनता की पहलकदमी के बल पर राजनीतिक कार्रवाई संगठित करे। इसके लिए मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मेहनतकशों, उत्पीड़ित समुदायों और प्रतिक्रियावादी ताकतों से मुक्त होने की आकांक्षा लिए जनवादी शक्तियों का एक सुसंगत संयुक्त मोर्चा बनाना आवश्यक है।“  

अंत में पटना में हुए इसी विषय पर मासा के बिहार के घटकों द्वारा आयोजित सम्मलेन में हमने जो लिखा था उसके मर्म को दुहराते हुए हम अपनी बात समाप्त करना चाहते हैं – “कॉमरेड श्रमिकों व मजदूरों! फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष का यह कार्यक्रम हम यथासंभव पूरी स्पष्टता से लंबे समय से आपके सामने रखते आ रहे हैं। जीत कब और कैसे आएगी, यह महत्वपूर्ण है। लेकिन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण क्रांतिकारी कार्यक्रम है, क्योंकि केवल एक क्रांतिकारी कार्यक्रम ही श्रमिक वर्ग और पूरी मानवता का भविष्य तय करेगा। लेकिन एक और बात है जो इससे भी जरूरी है। वह है देशव्यापी वर्ग संघर्ष का आगाज, जिसके बिना कोई भी कार्यक्रम अधूरा है। केवल वर्ग संघर्ष की रोशनी में ही कोई कार्यक्रम आगे का रास्ता तय कर सकता है। किसी भी कार्यक्रम की ठोस सच्चाई वर्ग संघर्ष के थपेड़ों के बीच और उसके वास्तविक अभ्यास में ही सिद्ध व साबित होती है। श्रमिक वर्ग की लड़ाई के सन्दर्भ में रास्तों को लेकर कायम अंधेरा केवल हमारे दिमागी क्षमता और नजर की स्पष्टता की कमी के कारण नहीं है। असली कारण है मजदूरों का राजनीतिक संघर्ष में नहीं उतरना। हमें एक स्पष्ट फासीवाद-विरोधी सर्वहारा कार्यक्रम तो अवश्य चाहिए, लेकिन वर्ग-संघर्षों की लड़ी भी चाहिए। इसलिए हम आपसे देश के राजनीतिक मंच पर कदम रखने की अपील करते हैं, क्योंकि बिना आपकी इन कार्रवाइयों के, भ्रम और अधिक गहराएगा। बल्कि गहरा रहा है। इसलिए उठिए कि आज मानवता के दुश्मनों के खिलाफ उठ खड़ा होने का वक्त है! 

तेरे ही हाथों में है तेरा भाग्य! उठो शेरों की तरह, हे महान श्रमिकों!

तूने ही बनाई है यह दुनिया इतनी खूबसूरत! उठो स्वामियों की तरह, हे परिश्रमी!

तेरे ही हाथों में है मानवता की लाज! उठो, हे महान कामगार पुरुष और महिलाएं!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Share on Social Media