पहले कड़कड़ाती सर्दी, जानलेवा गर्मी, और अब आंधी, तूफान तथा बारिश के कहर को झेलते कॉरपोरेट के विरुद्ध संघर्षरत किसानों के हौसले को सलाम! गजब के धैर्य और शक्ति का परिचय दिया है किसानों ने!
एक बात यहां दुहराना जरूरी है कि किसानों का यह संघर्ष जिस हद तक कार्पोरेट की कृषि में निर्णायक चढ़ाई और उसकी स्थापित होने वाली इजारेदारी के विरुद्ध है उस हद तक यह लड़ाई मजदूर वर्ग सहित पूंजी से पीड़ित अन्य सभी वर्गों की लड़ाई भी है। इस अर्थ में यह किसान आंदोलन एक जनांदोलन है और इसमें देश की व्यापक जनता के हित समाहित हैं।
भारतीय कृषि में नए कृषि कानूनों के माध्यम से इजारेदार वित्तीय पूंजीपतियों यानी बड़ी पूंजी व कारपोरेट की निर्णायक जीत के बाद खाद्यानों के व्यापार में इजारेदारी कायम होगी। इसी के साथ खाद्यानों सहित तमाम तरह के कृषि मालों की इजारेदाराना कीमतें जनता पर थोपी जाएंगी। कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव के बावजूद अंततः खाद्यानों के बाजार दाम आज के मुकाबले और ऊंचे होंगे। इनके कम होने की उम्मीद का आज के एकाधिकारी पूंजीवाद के युग में कोई आधार नहीं है।
मार्क्स कहते हैं कि अगर इजारेदाराना कीमतों का प्रवेश मजदूर वर्ग की जरूरी खपत में शामिल वस्तुओं में भी होता है, तो इससे मजदूरी में वृद्धि होगी। इसलिए अगर यह मान लिया जाए कि मजदूर वर्ग को पहले की तरह ही अपनी श्रमशक्ति का मूल्य प्राप्त हो रहा है तो इसका अर्थ यह होगा कि कि बेशी मूल्य की मात्रा पहले से कम होगी, यानी जिससे पूंजीपति वर्ग का मुनाफा बनता है उसकी मात्रा में कमी आएगी। इसलिए यह माना जाता है कि वेज गुड्स में इजारेदारी कीमतें स्वयं पूंजीपति वर्ग के खिलाफ हैं और इसीलिए यह भी मान लिया जाता है कि पूंजीपति वर्ग आम तौर पर खाद्यानों के मामले में इजारेदारी कीमतें लागू नहीं करता है।
अगर हम इजारेदाराना कीमतों की वसूली कैसे की जाती है इस पर विचार करें तो हम पाते हैं कि मार्क्स के अनुसार कुछ मालों की इजारेदाराना कीमतों का अर्थ दूसरे माल उत्पादकों यानी दूसरे पूंजीपतियों के मुनाफे के एक हिस्से का इजारेदाराना कीमतों वाले मालों के स्वामी पूंजीपतियों की जेब में स्थानांतरण भर है, क्योंकि बेशी मूल्य की सीमाओं का अतिक्रमण इजारेदाराना कीमत नहीं कर सकती है। इसका अर्थ यह है कि अगर इजारेदाराना कीमत थोपी जाएगी, तो यह अन्य अन्य पूंजीपतियों की जेब पर भी डाका होगा, क्योंकि अगर पूंजीपतियों को मजदूरों से काम लेना है तो उसकी मजदूरी को उसके भौतिक रूप से न्यूनतम सीमा के नीचे नहीं गिराया जा सकता है। इससे यह अर्थ निकाला जा सकता है कि इसीलिए खाद्यानों आदि सहित अन्य वेज गुड्स आदि पर इजारेदाराना कीमत कायम करना कोई पूंजीपति नहीं चाहेगा। किसी एक पूंजीपति को या फिर पूंजीपतियों के गुट को, जो ऐसा करना चाहेगा भी, तो उसे पूरे पूंजीपति वर्ग के हितों का ध्यान रखते हुए ऐसा करने से पीछे हटना पड़ेगा। यानी, इजारेदाराना कीमतें लादी नहीं जाएंगी।
लेकिन, जैसा कि हम जानते हैं, सही प्रतीत होने वाली बात से भी अक्सर गलत निष्कर्ष निकाले जाते हैं, इस संबंध में भी कुछ लोग ठीक यही कर रहे हैं। कुछ लोग हू-बहू इसे भारत पर लागू करते हुए ऐसा ही निष्कर्ष निकाल रहे हैं। इस तरह के निष्कर्ष के आधार पर भारत के बारे में बात करते हुए हम अगर यह मान लें कि सचमुच ऐसा ही होगा तो इसका अर्थ यह मान लेना होगा कि अडानी व अंबानी की पूरे भारतीय कृषि पर कब्जा करने की मूहिम के पीछे का मकसद इजारेदाराना कीमत लादना नहीं अपितु एमएसपी के द्वारा खाद्यानों की ऊंची कीमतों को नीचे लाना है तथा पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग की जेब पर जो डाका जा रहा है उसे रोकना है। या, यह कहें कि अगर कृषि कानून लागू होंगे तो इसका यही परिणाम होगा।
जाहिर है एकमात्र इस दृष्टि से देखें, तो किसान आंदोलन जनविरोधी दिखता है और कॉर्पोरेट बड़ी इजारेदार पूंजी (तमाम छोटी-मंझोली पूंजियों सहित) जनता का मित्र।
लेकिन वास्तविकता क्या है? वास्तविकता यह है कि इजारेदार पूंजी अगर ऐसी होती तो वह भला इजारेदार क्यों होती, क्यों कहलाती! ठीक वैसे ही जैसे अगर बेशी पूंजी का उपयोग यानी उत्पादन और पूंजी के संकेंद्रण में हुई अपार वृद्धि का उपयोग जनता के हित के लिए होता न कि इजारेदारी कायम करने के लिए तो स्वयं पूंजीवाद पूंजीवाद नहीं होता। अगर इजारेदार पूंजी ऐसी होती कि वह सारे पूंजीपतियों के हितों का ख्याल रखती, तो फिर भला लेनिन को इस पर अलग से इसके बारे में थेसिस क्यों लिखना पड़ता?
लेकिन, स्वयं मार्क्स को भी देखिए। वे जब इस तरह की इजारेदारी कीमतों पर लिख रहे होते हैं, तो वह समय इजारेदारी पूंजी का नहीं था। फिर भी वे यह तो लिखते हैं कि इजारेदाराना कीमत की वसूली वास्तविक मजदूरी में से और दूसरे पूंजीपतियों के मुनाफे में कटौती करके की जाएगी, लेकिन वे यह नहीं लिखते हैं कि ऐसा नहीं किया जा सकता है, जबकि उस समय तक इजारेदार पूंजीवाद का विकास नहीं नहीं हो सका था।
हमें पता है हम न सिर्फ इजारेदार पूंजी के युग में जी रहे हैं अपितु जिस समय इसका जन्म हुआ था उससे सवा सौ साल बाद के समय में जी रहे हैं जब यह लेनिन के समय की संक्रमणकालीन वस्तु से बदलकर एक पूर्ण विकसित और परिपक्व अवस्था – पूंजीवाद की चरम अवस्था – में जा पहुंची है। स्वयं भारत में वित्त पूंजी का बड़े पैमाने पर विकास हो चुका है और वह अर्थव्यवस्था का नियामक तथा नियंता बन चुका है। वैसी स्थिति में यह मानना पूरी तरह गलत है कि इजारेदार पूंजी तमाम दूसरे सारे पूंजीपतियों का ख्याल रखेगी। हमारे लिए यह बात समझ से परे है। यह बात दरअसल इजारेदार पूंजी को उसके मरणासन्न व मुत्यु की अवस्था वाली पूंजी से पूरी तरह अलग छवि, कुल मिलाकर गैर-इजारेदार पूंजी की प्रगतिशील छवि बनाती है, जो लेनिन के विचारों से पूरी तरह अलग है, बल्कि उनके खिलाफ है।
इसलिए अगर लेनिन की इजारेदार पूंजी की व्याख्या को हम सही मानते हैं तो हमें यह भी मानना पड़ेगा कि अगर कृषि क्षेत्र पर आज इजारेदार पूंजी अपना वर्चस्व कायम करती है, तो वह निश्चय ही इजारेदाराना कीमत भी वसूलेगी और जैसा कि मार्क्स कहते हैं मज़दूर वर्ग की वास्तविक मज़दूरी में और भी ज्यादा गिरावट आएगी तथा मज़दूर-मेहनतकश वर्गों की माली हालत आज के मुकाबले और भी ज्यादा खराब होगी। उसके खाने के लाले पड़ जाएंगे और वह बस किसी तरह जिंदा रह पाएगा। दूसरी तरफ, किसानों की व्यापक आबादी को अपनी जमीन से भी हाथ धोना पड़ेगा। उनकी जमीनें कॉर्पोरेट कंपनियों के कब्जे में चली जाएंगी।
जहां तक इजरेदाराना कीमतों की पूरी तरह से या ज्यादा से ज्यादा वसूली का सवाल है (अधिकतम मुनाफे के निमित्त), तो यह स्पष्ट है कि इसके लिए पूंजीपति वर्ग के गैर-इजारेदार हिस्से के मुनाफे के ही ज्यादा से ज्यादा हिस्से पर इजारेदार पूंजीपतियों द्वारा हाथ साफ किया जाएगा। वित्तीय पूंजी के एकाधिकार व इजारेदारी का यही तो मतलब है, खासकर तब जब संकट टल नहीं रहा हो और मुनाफा कमाना अब हर तरह से इजारेदारी (जिसमें वित्तीय इजारेदारी प्रमुख है) कायम करने के अतिरिक्त किसी और तरीके से संभव ही न हो, जैसा कि आज कल दिखाई दे रहा है। आज इजारेदारी का अर्थ वही है जो लेनिन के समय था – निरंतर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए “बलपूर्वक” यत्न करना, सभी तरह के तिकड़मों को अंजाम देना (जिसमें प्रतिस्पर्धियों को बाजार से बाहर धकेलने के लिए कुछ समय के लिए दाम करना भी शामिल है), इजरेदाराना कीमतों की वसूली के लिए मज़दूर वर्ग की मजदूरी को उसके भौतिक रुप से न्यूनतम सीमा तक गिराना और साथ में पूंजीपति वर्ग के एक बड़े हिस्से के मुनाफे को तथा स्वयं इन पूंजीपतियों को भी अपने अधीन करने के लिए तमाम तरह के छल-कपट, तिकड़म और “राज्य” के साथ अपने खुले व गुप्त संबंधों का इस्तेमाल करना, इस तरह पूरे समाज पर अपना आधिपत्य करना और जनवाद व जनतंत्र का गला घोंट देना। आज हम यही अपने चारो तरफ होते देख रहे हैं और इससे आंख नहीं मूंद सकते हैं।
हम यह भी देख सकते हैं कि किस तरह न सिर्फ कृषि मालों के, अपितु कृषि उत्पादन के ही वित्तीयकरण की प्रक्रिया तेज हुई है। इस अतिप्रक्रियावादी दौर के उदय के पीछे इसका यानी वित्तीयकरण का सबसे बड़ा हाथ है। भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में, कृषि में ही नहीं सभी उत्पादन सेक्टरों में विस्तारित उत्पादन बाधित और बुरी तरह सीमित है। चिस्थायी बने संकट ने विस्तारित उत्पादन कर के, यानी ‘स्वस्थ’ पूंजी संचय के जरिए मुनाफे के अवसरों में भारी कमी पैदा की है। ऐसे में इजारेदार वित्तीय पूंजी के पास अपने चरित्र के अनुरूप अधिकतम मुनाफे को सिक्योर करने हेतु चौतरफा वित्तीयरण की ओर बढ़ने के अलावे और कोई चारा या उपाय भी कहां है? आज पूरी दुनिया के साथ-साथ भारत में भी (मोदी के केंद्र में राजकीय उत्थान के साथ-साथ और क्यों कांग्रेस का सत्ता से बाहर किया गया इसके व अन्य जुड़ी चीजों के कारणों को हम जानते हैं) वित्तीयकरण की यह प्रक्रिया द्रुत गति से तेज हुई है जिसे हम अडानी व अम्बानी की पूंजी में हुई अप्रत्याशित वृद्धि के रुप में देख सकते हैं। वित्तीयकरण की प्रवृत्ति की बढ़त के इस सबसे बुरे दौर में, जब कृषि में उपज की बिक्री का संकट, पूंजीवाद के आम संकट की तरह ही, पूरे शबाब पर है, और इसलिए विस्तारित उत्पादन के जरिये मुनाफा कमाने के अवसर में भारी संकुचन हुआ है जो संकट की दीर्घजीविता के कारण और बढ़ेगा, उस दौर में कृषि क्षेत्र में भी वित्तीयकरण की प्रवृत्ति की ओर मुड़ने के अलावा इजारेदार पूंजी के पास और कोई रास्ता कहां बचा है?
जाहिर है, कॉर्पोरेट यानी एकाधिकारी पूंजी की कृषि क्षेत्र में आज कोई प्रगतिशील या विकासमान भूमिका नहीं हो सकती है। पूंजीवादी कृषि के दूसरे चरण की शुरुआत एकमात्र इसी तरह यानी बड़ी एकाधिकारी पूंजी की वित्तीयकरण की इन्हीं प्रवृत्तियों से ओतप्रोत आदमखोर वित्तीय पूंजी की बढ़त वाली व्यवस्था को आगे बढ़ाकर ही हो सकती है, इसलिए कृषि क्षेत्र में एकाधिकारी बड़ी पूंजी की निर्णायक जीत का एक ही अर्थ है किसानों सहित मज़दूर वर्ग और साथ में छोटी व मंझोली पूंजियों का सर्वनाश।
छोटी-मंझोली पूंजियों का पूंजीवाद के अंतर्गत नाश कोई नई घटना नहीं है, लेकिन आज यह जितने बड़े पैमाने पर, जितने बड़े दायरे में और जितनी तेज गति से यह हो रहा है उसके कारण पूंजीवाद की खोल में एक विस्फोट की स्थिति पैदा हो गई है जो, अगर भारत के संदर्भ में बात करें तो, गहराई और क्षैतिज विस्तार में अभूतपूर्व स्थिति की ओर बढ़ रही है। इस खोल के अंदर पूर्णता की ओर बढ़ चले समाजीकरण का इसके बाह्य आवरण (निजी हस्तगतकरण) के साथ अंतर्विरोध इतना तीखा हो चला है कि कभी भी यह विस्फोट एक वास्तविक सच्चाई का रूप ले सकता है। यह स्थिति साफ-साफ बता रही है कि बीच का कोई रास्ता नहीं बचा है। इसमें सवाल छोटी पूंजियों को बचाने का नहीं है, क्योंकि इसे बचाया ही नहीं जा सकता है। मुख्य सवाल यह है कि आज जो स्थिति है और यह जिस ओर बढ़ रही है उसको देखते हुए मजदूर वर्ग की मुक्ति का रास्ता सिवाय इसके और कुछ नहीं हो सकता है कि सर्वहारा क्रांति के जरिये समाज के पुनर्गठन और समाजवाद की पूर्ण विजय के लक्ष्य को सामने रखते हुए आगे के रास्तों का अनुसरण किया जाए। किसानों को यह बात बतानी जरूरी है, उनके निर्धनतम हिस्से को इस रास्ते पर लाना जरूरी है और इसलिये किसान आंदोलन में इस दिशा से हस्तक्षेप अत्यावश्यक है। अन्य छोटी व मंझोली पूंजियों के साथ भी यही बात है कि उन्हें भी सर्वहारा वर्ग की अधीनता में आना होगा तभी उनके जीवन का सार बचेगा। जहां तक उनकी वर्तमान उत्पादन पद्धति का है, उसका सर्वहारा वर्ग का राज्य अंत कर देगा, क्योंकि उसके अंत में ही मानवजाति के सार को बचाने का मूलमंत्र छिपा है। पूंजीवादी उत्पादन संबंध के नाश में उन सबका बचाव है जिसमें बड़ी पूंजी की मार से तबाह होते सारे तबके व संस्तर शामिल हैं। अन्यथा, न सिर्फ उनका अस्त्तिव बचेगा और न ही जीवन का कोई सार।
लेनिन के समय से लगभग सौ साल बाद हम क्या देख पा रहे हैं? यही कि बड़ी एकाधिकारी वित्तीय पूंजियों के बीच की प्रतिस्पर्धा के रूप में ही मूल रूप से पूंजियों की आम प्रतिस्पर्धा का मैदान बचा रह गया हो, और बहुत पहले ही बहुत हद तक छोटी-मंझोली पूंजियों को बाजार के मैनीपुलेशन और मैनुवरिंग के जरिए बाजार की प्रतिस्पर्धा से बाहर धकेल दिया गया है। इसलिए यह संभव है कि मांग घटने के बाद भी दाम न गिरे जैसा कि आज कल हो रहा है। आंकड़ों की बात नहीं अगर जमीनी सच्चाई की बात करें, तो यह सब साफ-साफ दिेखा जा सकता है। भारत में यह प्रवृत्ति हमें नयी सदी के पहले दशक के पूर्वार्ध में दिखती है, क्योंकि तब से ही यह देखा जा रहा है कि खाद्याान्यों के दाम भुखमरी, कुपोषण और मजदूर वर्ग की क्रय शक्ति में तेजी से हुए ह्रास और इसलिए मांग में आयी कमी के बावजूद बढ़ते दिखे।
इस तरह साफ है कि कृषि में इजारेदार प्राइस की वजह से ऊंचे दाम बने रहेंगे और इसके परिणामस्वरूप मजदूर वर्ग की वास्तविक मजदूरी न्यनूतम तक गिर सकती है, वहीं अन्य पूंजीपतियों का मुनाफा भी न्यूनतम सीमा तक गिर सकता है जो कभी-कभी एकाधिकारी पूंजी के तरह-तरह के दबाव में लागत कीमत तक या उससे भी नीचे तक गिर सकता है जो उसके उजड़ने का कारण बनता है, जैसा कि लेनिन साम्राज्यवाद की अपनी प्रसिद्ध थेसिस में कहते हैं। इसके कारण मजूदर वर्ग की भारी तबाही के साथ-साथ छोटी व मंझोली पूंजियों की भी आम बर्बादी का परिदृश्य पेश हो रहा है जिसका नजारा हम पूरे विश्व में देखने के साथ-साथ भारत में भी देख सकते हैं।
लेनिन लिखते हैं, वित्तीय एकाधिकारी पूंजी विशाल और लगातार बढ़ती मात्रा में मुनाफा कमाती हैं (Finance capital concentrated in few hands and exersisinng virtual monopoly exacts enormous and ever increasing profit…LCW, p.232 Vol 22) और इसके लिए अमेरिका में 1887 में हैवेमेयेर द्वारा 15 सुगर फर्मों को मिलाकर बनायी गयी सुगर ट्रस्ट की चर्चा करते हुए लिखते हैं कि जब उसने इजारेदारी प्राइस कायम की तो इतना अधिक मुनाफा किया कि ट्रस्ट के बनते वक्त इसमें वास्तव में लगी कुल पूंजी का 70 प्रतिशत लाभांश में वितरित किया। 1909 में यानी 22 सालों के अंतराल में इसकी पूंजी दस गुनी बढ़ चुकी थी।
हम यह भी पाते हैं कि स्तालिन मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन, खासकर लेनिन की एकाधिकारी पूंजी के बारे में की गई व्याख्या तथा शिक्षा को सामान्यीकृत करते हुए यह कहते हैं कि आधुनिक पूंजीवाद का बुनियादी आर्थिक नियम महज औसत मुनाफ, सुपर मुनाफा आदि कमाना नहीं बल्कि अधिकतम मुनाफा कमाना है (p.39, Economic Problems In The USSR ) तो वे सौ फीसदी सही थे और आज भी सही हैं। मार्क्स और लेनिन की ही नहीं, इस संबंध में स्तालिन की शिक्षा भी कायम है। यह भी याद रखना चाहिए कि स्तालिन की उपरोक्त बात सिर्फ उपनिवेशों को ध्यान में रखते हुए ही नहीं (जैसा कि कुछ लोग समझते हैं), अपितु अपने देश (इजारेदारी पूंजी के अपने राष्ट्र राज्य) की जनता को ध्यान में रखते हुए भी कही गई है।
इसलिए लेनिन की शिक्षा के आलोक में हम कह सकते हैं कि इजारेदार पूंजी अगर कृषि में वर्चस्व यानी एकाधिकार कायम करेगी तो अनाजों के दाम में इजारेदाराना कीमत जरूर वसूलेगी, क्योंकि पूरे पूंजीपति वर्ग का ख्याल रखना उसका ध्येय नहीं है अपितु उसका मुख्य ध्येय छोटी, मंझोली और यहां तक कि बड़ी पूंजियों को भी अपने अधीन करना है। उसके द्वारा पूंजीवादी व्यवस्था का ख्याल अवश्य रखा जाता है लेकिन इसी तरह रखा जाता है। इजारेदार पूंजी के चरित्र और इसकी अब तक की यात्रा-वृतांत को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि इजारेदार पूंजी एकमात्र इसी तरीके से पूंजी के शासन का ख्याल रख सकती है किसी और तरीके से नहीं। तभी तो हम कहते हैं कि एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के उदय ने पूंजीवाद के सभी अंतर्विरोधों का अत्यंत तीव्र कर दिया है, इतना तीव्र कि एकमात्र विश्व ट्रस्ट की ओर अग्रसर इजारेदार पूंजी पूंजीवाद के खोल में बीच रास्ते में ही भयंकर विस्फोट (युद्ध व क्रांति) को जन्म देती है। क्रांति की शानदार परिस्थितियों को पैदा करके इसे समाजवाद में परिणत करने का सुअवसर इजारेदार पूंजी अपने इसी चरित्र की वजह से देती है। लेनिन की इन पंक्तियां पर गौर करना आवश्यक है –
” There is no doubt that the trend of development is towards a single world trust absorbing all enterprises without exception and all states without exception. But this development proceeds in such circumstances, at such a pace, through such contradictions, conflicts and upheavals—not only economic but political, national, etc.— that inevitably imperialism will burst and capitalism will be transformed into its opposite long before one world trust materialises, before the “ultra-imperialist”, world-wide amalgamation of national finance capitals takes place.”
हम अगर यह मानते हैं कि इजारेदार पूंजी का काम पूरे पूंजीपति वर्ग का ख्याल रखना है तो लेनिन की उपरोक्त बातों का कोई मतलब नहीं रह जाता है, और न ही इस बात का कोई मतलब रह जाता है कि पूंजी का विकास एक स्तर की इजारेदाराना स्थिति से और भी ऊंचे स्तर की इजारेदाराना स्थिति की ओर बढ़ते हुए विशाल संकटकालीन विस्फोटों को जन्म देगा। इसलिए हम अगर कॉर्पोरेट के उक्त चरित्र (जो गलत है क्योंकि उसमें उसके द्वारा पूरे पूंजीपति वर्ग का ख्याल रखने की बात है) पर विश्वास करते हैं तो हम क्रांति की परियोजना को ही पीछे छोड़ देने का अपराध करने की ओर अग्रसर होंगे। यह एक नये तरह का संशोधनवादी विचार है। इसलिए इस विचार व समझ की मुखालफत अत्यंत जरूरी है।
नोट: ठीक इसी विषय पर यथासंभव एक पूर्ण आलेख (लेकिन पोलेमिकल लेख नहीं) ”The Truth” तथा ”यथार्थ” के अगले अंक में प्रकाशित किया जाएगा।