कम्युनिस्ट नैतिकता एवं हिंसा का प्रश्न

January 17, 2022 0 By Yatharth

प्यारेलाल ‘शकुन’

कम्युनिस्ट नैतिकता

दोस्तो, कम्युनिस्ट नैतिकता एवं संस्कृति के बारे में पूंजीपतियों द्वारा संचालित प्रेस एवं मीडिया द्वारा बहुत भ्रम फैलाया गया है।
और इस भ्रम के शिकार बहुत शिक्षित लोग एवं समाज सुधारक भी हुए हैं। और अब भी ये साजिश लगातार जारी है। इसके अतिरिक्त तथाकथित क्रांतिकारियों के भी कुछ ऐसे गिरोह हुए हैं, जिन्होंने अपने कथनों और कार्यों से इस व्यक्तिवादी पूंजीवादी धारणा की पुष्टि की है कि साध्य सिद्ध हो जाये तो साधनों की अच्छाई बुराई की चिंता करने की जरूरत नहीं है। उदाहरण के लिए 19 वीं शताब्दी के सातवें और आठवें दशक में निचाइयेव के नाम से एक अरजाकतावादी और अत्यंत मुतफन्नी ऐसा व्यक्ति हुआ था जिसने रूस में तथा पश्चिमी यूरोप में यह प्रचार करने की चेष्टा की थी कि क्रांतिकारियों को शिष्टता और सज्जनता जैसी चीजों को।

नैतिक मर्यादाओं को बूट की ठोकर से मारकर दूर कर देना चाहिए और अपनी पूरी शक्ति से विध्वंस कार्य में जुट जाना चाहिए। निचाइयेव कहता था कि कि अपने विरोधियों को मारने के लिए झुट फरेब से लेकर हत्या तक के सभी साधनों का इस्तेमाल सही और पवित्र है। इस धारणा का इस्तेमाल कदाचित भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भी देखा जा सकता है। परंतु जहाँ तक कम्युनिस्ट दर्शन अथवा मार्क्सवाद-लेनिनवाद का संबंध है, उसने इस चीज को कभी भी मंजूर नहीं किया। मार्क्स और एंजिल्स मानते थे कि इस धारणा को मानने का मतलब श्रमजीवी वर्ग के क्रांतिकारी आंदोलन पर “पूंजीवादी अनैतिकता” को थोपने की कोशिश करना है। आगे मार्क्स ने कहा था, “जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अन्यायपूर्ण साधनों की आवश्यकता पड़ती है, वह लक्ष्य न्यायपूर्ण नहीं हो सकता” ( कार्ल मार्क्स- “प्रकाशन की स्वतंत्रता संबंधी बहस में”)
साध्य और साधनों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। उनके बीच एक द्वंद्वात्मक एकता होती है। इसीलिए परिणाम को उसकी प्राप्ति की प्रक्रिया से विलग नहीं किया जा सकता। जैसा कि महान भववादी दार्शनिक, हीगेल ने कहा था, “परिणाम वास्तविक वस्तु नहीं है, वह उस प्रक्रिया के साथ मिलकर ही पूर्ण वस्तु बनता है, जिसने उसे पैदा किया है।”

सच बात तो यह है कि सही सिद्धांतों की भी यदि अनुचित तरीके से पुष्टि करने की अथवा उन्हें गलत तरीके से प्राप्त करने की चेष्टा की जाती है, तो वे अपना विरोधी रूप ग्रहण कर ले सकते हैं। सच्चाई को झूठ-फरेब के माध्यम से जनता के पास नहीं ले जाया जा सकता, मानवतावादी सिद्धांतों को पाशविकता के जरिये समाज पर नहीं लादा जा सकता। कम्युनिज्म अगर सच्चे मानों में मानवतावादी नहीं है तो कुछ भी नहीं है। यह सोचना भी नितांत नादानी होगी कि विशाल जनसमुदायों को दुर्दिनों के गड्ढे में ढकेलकर सुख की सृष्टि की जा सकती है।


कम्युनिज्म और सत्य

इसी संदर्भ में शायद यह कहना भी आवश्यक है कि कम्युनिज्म के दर्शन में झूठ-फरेब की भी कोई जगह नहीं है। लेनिन ने कहा था, सर्वहारा वर्ग को आवश्यकता है सत्य की, क्योंकि उसके लक्ष्य के लिए ऊपर से सुंदर लगने वाली, प्रतिष्ठित, अधकचरे झूठ से अधिक घातक चीज दूसरी नहीं हो सकती…

लेनिन ने ऐसा क्यों कहा था? क्योंकि श्रमिक जनता और उसकी पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी, जो संघर्ष कर रही है उसका लक्ष्य उत्पीड़न की एक व्यवस्था को मिटाकर किसी दूसरी उत्पीड़न-व्यवस्था की स्थापना करना नहीं, बल्कि हर प्रकार के उत्पीड़न का अंत कर देना है। इसका अर्थ यह हुआ कि श्रमिक जनता और उसकी पार्टी सर्वाधिक न्यायपूर्ण लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए लड़ रही है। फिर जनता से कोई चीज वह छुपाये क्यों? उसकी नीति को शुरू से आखिर तक सच्चाई पर आधारित होना चाहिए।

सत्य के लिए संघर्ष करना और जनता को झूठ फरेब से बाहर लाना कम्युनिस्ट चरित्र की सबसे अहम भूमिका है। और इससे बड़ी नैतिकता क्या हो सकती है?


हिंसा और कम्युनिज्म

कम्युनिज्म के विरोधियों का कम्युनिस्टों पर यह सबसे बड़ा आरोप है कि कम्युनिस्ट हिंसा में विश्वास रखते हैं। इस धारणा के कारण बहुत से अच्छे लोग भी इस सिद्धांत को अपने जीवन में नहीं उतार पाते और कुछ और अहिंसावादी सिद्धांत अपनाकर जनसंघर्ष से कतरा कर पलायन कर जाते हैं। कम्युनिज्म के सिद्धांत के बारे में हिंसक होने का जो भ्रम फैलाया गया है और अब भी तथाकथित मानवतावादी बुद्धिजीवी इस भ्रम से मुक्त नहीं हुए हैं और वे अपने आपको मानवतावादी होने के नाम से गर्व महसूस करते हैं। इसके बावजूद कि उनका मानवतावाद व्यक्तिवाद में परिणित होकर लोकतांत्रिक मूल्यों के नाम से पूंजीवादी व्यवस्था की सेवा में लगा हुआ है।

जबकि कम्युनिस्ट मानवतावाद का अर्थ है व्यक्तिगत संपत्ति रहित मानवतावाद आदिम कबीले जब सामूहिक रूप से संगठित होकर प्राकृतिक शक्तियों से संघर्ष करके अपने जीवन की रक्षा करते थे तो वह उनके जीवन की जरूरत थी और इसी जीवन संघर्ष को इतिहास में नाम दिया गया आदिम कम्युनिज्म। बाद में कबीले की सामूहिक संपत्ति पर शक्तिशाली लोगों ने अधिकार कर लिया और मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण शुरू हो गया। यहां पर समाज वर्ग विभाजित हो गया।जो बाद में सामंतवादी शासन व्यवस्था से गुजरते हुए पीढी़ दर पीढी़ बदलते हुए वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था तक पहुंचा। इस दौर में हम देखते हैं कि समाज में शोषण का रूप बदलता चला गया परंतु मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण खत्म नहीं हुआ।

इस शोषण के स्वरूप को समझने के लिए बहुत से दार्शनिकों ने दुनिया की तरह-तरह से व्याख्या की। लेकिन कोई सही वैज्ञानिक रास्ता दिखाने में कामयाब नहीं हुआ। तब 19 वीं सदी के प्रारंभ में कार्ल मार्क्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन का विकास किया और इस दर्शन के आधार पर इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या की जिसे द्वंद्वात्मक एवं एतिहासिक भौतिकवाद कहा जाता है। इसकी व्याख्या में उन्होंने सवाल उठाया कि दुनिया की व्याख्या करने से क्या होगा, सवाल तो इसे बदलने का है? और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने उस समय के उभरते हुए पूंजीवाद की व्याख्या की और दिखाया कि यह किस तरह मजदूरों का खून चूसकर पूंजी का संचय करता है और किसानों को भी उजरती मजदूरों में बदल देता है। उन्होंने प्रमाणित किया कि पूंजीवाद केवल कारखाने में ही शोषण नहीं करता बल्कि राजनैतिक रूप से सामंतों को बेदखल कर शासन व्यवस्था को अपने कब्जे में ले लेता है। इस पूंजीवादी शोषण की सच्चाई का नंगा रूप जब अखबारों में प्रकाशित होना शुरू हुआ और खुद कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजिल्स ने अपना समाचार पत्र प्रकाशित किया तो पूंजीपति वर्ग और सामंतों में भय पैदा हो गया।

इसके बाद मार्क्स को अपने ही देश से बहिष्कृत कर दिया। लेकिन मार्क्स अपने जुनून के पक्के थे उन्होंने अपने सिद्धांत के साथ समझौता नहीं किया और शासक वर्ग की हिंसक प्रवृत्ति का मुकाबला करते हुए उन्होंने मजदूर वर्ग के नेताओं से संपर्क जारी रखते तत्कालीन क्रांतिकारी संघर्षों में भाग लेकर उन्हें मार्गदर्शन देते रहे। इसके लिए उन्होंने जीवन में अनेक आर्थिक कठिनाईयों को झेला। यहां तक कि उनके पास कई बार मकान का किराया चुकाने तक का पैसा नहीं होता था और बिना दवा के उन्हें अपनी कई संतानों को खोना पड़ा और एक बार तो बच्चे की मृत्यु के बाद उसके ताबूत के लिए पैसे नहीं थे तो उनकी प्रिय पत्नी पड़ोसी से पैसे मांग कर लाई थी। तब मार्क्स अंदर से हिल गए तो उनकी पत्नी जैनी ने उन्हें अपने कर्तव्य पथ पर चलते रहने का साहस दिया। ये थी कम्युनिज्म के संस्थापकों की नैतिकता।

शासक वर्ग चाहे कोई भी रहा हो परंतु इतिहास इस बात का गवाह है कि उसने अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज का दमन किया है। लेकिन फिर भी वे विरोध की आवाज को खत्म नहीं कर सके हैं।

आम मेहनतकश जनता हमेशा देश और समाज में शांति चाहती रही है और शासक वर्ग हमेशा ही उस पर बल प्रयोग करके उस पर हिंसक दमन करता रहा है। फिर भी लोग हिंसा और शोषण का विरोध करने वालों को ही हिंसक बताते रहे हैं। क्रांतिकारियों और विशेष रूप से कम्युनिस्टों के विरुद्ध इतना कुप्रचार किया गया है कि ऐसे लोगों को ढूंढने में कोई कठिनाई नहीं होगी जो सचमुच समझते हैं कि हिंसा करने या रक्त बहाने कम्युनिस्टों को कोई विशेष मजा आता है।

वास्तविकता सर्वथा इसके विपरीत है। कम्युनिस्ट हिंसा तथा रक्तपात को न केवल पसंद नहीं करते, बल्कि उनसे नफरत करते हैं और चाहते हैं कि उन्हें सदा के लिए समाप्त कर दिया जाय। शुरू शुरू में, जब तक कि जनता के आंदोलनों को कुचलने के लिए पूंजीवादी राष्ट्रों ने विशाल सेनाएँ नहीं संगठित की थीं, मार्क्स और एंजिल्स ने बार बार यह आशा व्यक्त की थी कि ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में मजदूर क्रांति भी शांतिपूर्ण ढंग से पूरी हो जायेगी। इस बात का उल्लेख उनकी तत्कालीन रचनाओं में तथा लेनिन द्वारा रचित, ‘राज्य सत्ता तथा क्रांति’ में मिलता है।

और यह बात भी समझ में आती है कि यदि हथियारबंद संघर्ष होता है तो सबसे अधिक नुकसान जनता का ही होता है, सबसे अधिक कुर्बानियां उसी को करनी होती हैं। उसके हाथ से बनाई गई उत्पादित शक्तियों का भी विनाश हो जाता है। इसलिए जो दर्शन इतना मानवतावादी है, जो घोषित करता है कि सब कुछ मानव के लिए है, सब कुछ मानव कल्याण के लिए है, जो समाज समाज से हर प्रकार की हिंसा और उत्पीड़न का उन्मूलन करके एक सच्चे समतावादी समाज की (पूंजीवादी ‘समतावादी’ समाज की नहीं) स्थापना करना चाहता है, वह क्यों हिंसा चाहेगा?

अक्तूबर 1917 की रूसी क्रांति को लेकर बहुत प्रचार किया गया है कि कम्युनिस्ट हिंसा के पक्षपाती हैं। निस्संदेह उस क्रांति में हिंसा हुई थी और बहुतेरी जानें भी गयीं थीं, किन्तु प्रायः सभी इतिहासकार अब इस बात पर एकमत हैं कि वह दुनिया की सबसे कम हिंसक क्रांति थी। उदाहरण के लिए फ्रांस की पूंजीवादी क्रांति में जितनी हिंसा और आतंक का इस्तेमाल हुआ था, उसका सौ वां हिस्सा भी रूसी क्रांति में इस्तेमाल में नहीं लाया गया था। उस रूसी क्रांति में सबसे कम खून बहा था। उसमें प्रति हिंसा की भावना कितनी कम थी, इसका अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जून 1918 तक सोवियत की क्रांतिकारी अदालतों ने एक व्यक्ति को भी मृत्यु की सजा नहीं दी थी। यहां तक कि कोई घोर से घोर क्रांति विरोधी पकड़े जाने के बाद यह कह देता था कि आगे से वह सोवियत सत्ता के विरुद्ध नहीं लड़ेगा तो उसे रिहा कर दिया जाता था। लेनिन संबंधी संस्मरणों में जगह जगह इस बात का उल्लेख मिलता है कि किसी भी तरह की ज्यादतियों के वे सख्त खिलाफ थे। वे बार बार कहते थे कि “हमारे आदर्श में जनता के विरुद्ध शक्ति का इस्तेमाल करने की बिल्कुल इजाजत नहीं है”। वे कहते थे कि हमारे विरुद्ध अभियोग लगाया जाता है कि हम आतंक का इस्तेमाल करते हैं, किन्तु आतंक का इस्तेमाल हमने कभी नहीं किया और मैं आशा करता हूँ कि आगे भी कभी नहीं करेंगे…” वे कहते थे कि आतंक का अभियोग पूंजीपति वर्ग के खिलाफ लगाया जाना चाहिए।

पर इसका मतलब क्या यह है कि बल प्रयोग की कम्युनिस्ट दर्शन में कोई जगह ही नहीं है? नहीं, ऐसा नहीं है। संगठित बल और हिंसा के सहारे कुराज करने वाले वर्गों के विरुद्ध और कोई चारा न रह जाने पर बल प्रयोग को, कम्युनिस्ट गलत नहीं मानते। लेकिन उस वक्त भी वे उसका कम से कम मात्रा में प्रयोग करते हैं।

लेनिन ने साफ साफ कहा था कि, “जो लोग अपने शासन की पुनर्स्थापना करना चाहते हैं, उनके विरुद्ध एक उपाय के रूप में शक्ति के इस्तेमाल की एक जगह है। पर यहीं उसका महत्व समाप्त हो जाता है, इसके आगे प्रभाव और उदाहरण की भूमिका प्रारंभ हो जाती है। कम्युनिज्म का अर्थ लोगों को व्यवहार के द्वारा उदाहरण के माध्यम से समझाना चाहिए।”
इस समझदारी के इस्तेमाल में कहीं कोई कमी या विकृति पैदा हो भी गयी हो तो उससे कम्युनिस्ट दर्शन के मूल तत्व को नहीं आँकना चाहिए, बल्कि ऐसी विकृतियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। और अब तो दुनिया और भी ज्यादा तरक्की कर गयी है, अब तो हिंसा का प्रयोग और भी अनावश्यक तथा भयानक रूप से खतरनाक हो गया है। वास्तव में हिंसा का इस्तेमाल अब साम्राज्यवादी और जन-द्रोही पूंजीवादी शासक ही करते हैं।
[नोट : इस लेख को तैयार करने में रमेश सिन्हा की पुस्तक “कम्युनिस्ट नैतिकता” से मदद ली गई है।]