
संपादकीय | सर्वहारा #71-73 (1 मार्च – 15 अप्रैल 2025)
इस संबंध में देश के प्रतिष्ठित अखबारों (जैसे कि इकोनॉमिक टाइम्स और फाइनेंशियल टाइम्स) में छपी पूंजीवादी थिंक-टैंक के एक सदस्य सौरभ मुखर्जी (मार्सेलस इनवेस्टमेंट मैनेजर्स के संस्थापक और मुख्य निवेश अधिकारी) की रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत के मध्य वर्ग1 की आर्थिक स्थिति काफी चिंताजनक है। कहा गया है कि पिछले एक दशक में इस वर्ग की वास्तविक आय आधी रह गई है और इस वर्ग की वित्तीय स्थिरता काफी कमजोर हुई है। रिपोर्ट ने इसके जीडीपी ग्रोथ, जो फिलहाल एक बड़ा संकट झेल रहा है, पर पड़ने वाले अत्यंत बुरे प्रभावों पर भी गहरी चिंता जताई है। यह स्वाभाविक है क्योंकि पूंजीवादी विशेषज्ञों की नजर में मिडिल क्लास उपभोग और वृद्धि का इंजिन है।
वैसे तो रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले एक दशक में मिडिल क्लास की वित्तीय स्थिरता में आई कमजोरी के तीन प्रमुख कारण हैं, लेकिन सबसे प्रमुख कारण आय का ठहराव (Stagnant Earnings) और उसमें आई गिरावट है। रिपोर्ट कहता है कि मिडिल क्लास की औसत सालाना आय पिछले 10 सालों में एक ही बिंदू पर (लगभग 10.5 लाख रुपये पर) स्थिर रही है। महंगाई के साथ इसे समायोजित करने पर (यानी रियल टर्म्स में), यह आय प्रभावी रूप से “आधी” हो गई है। इसका अर्थ यह है कि मध्य वर्ग की क्रय शक्ति में भारी कमी आई है। उदाहरण के लिए, जहां 2015 में 10 लाख रुपये की आय से एक परिवार एक साल तक आराम से जीवन चला सकता था, वहीं 2025 में महंगाई के कारण यह राशि अपर्याप्त हो गई है और 2015 की तरह से जीवन चलाना मुश्किल हो गया है।
दरअसल, स्वचालन (automation) से नौकरी की संख्या में होने वाला नुकसान और इस कारण उसकी आय में गिरावट तो यह वर्ग पहले ही झेल ही रहा था, अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धिमत्ता या एआई) ने बड़े पैमाने पर मिडिल क्लास की पारंपरिक नौकरियों (जैसे बैंक टेलर, ट्यूटर, टीचर, ऑफिस क्लर्क, IT प्रोफेशनल, आदि) को खत्म करना शुरू कर दिया है। हालांकि इससे सर्वथा नई तरह की नौकरियों और इसके ट्रेनर आदि का रास्ता खुलता है, लेकिन इससे होने वाले भारी नुकसान की भरपाई नहीं हो सकेगी। यह एक ऐसी समस्या है जो हर बार और लगातार ऊंचे स्तर की प्राविधिक पूंजी में विस्तार व वृद्धि के साथ निरंतर होने वाले पूंजी संचय की बाध्यता से पैदा होती है। सौरभ मुखर्जी जिसे ”संरचनात्मक समस्या” कहते हैं वह दरअसल यही है।
उनका कहना है कि अगले दशक में मिडिल क्लास को यह और भी अधिक बुरे तरीके से प्रभावित करेगी। लेकिन हमारा मानना है कि यह पूंजीवादी विकास से जुड़ी समस्या है और जब तक पूंजीवाद है तब तक बनी रहने वाली समस्या है। आज के दौर के विश्वपूंजीवाद में इस समस्या का कोई निदान नहीं है जब तक कि विश्वयुद्ध बड़े पैमाने पर इस सभ्यता का ध्वंस नहीं कर देता है। जाहिर है यह प्रतिक्रियावादी निदान है, हालांकि विश्वपूंजीवादी व्यवस्था इसी ओर सरक रही है या सरकने के लिए बाध्य है। हम इसे लगातार देख रहे हैं।
पूंजीवाद ज्यों-ज्यों विकसित होता जाएगा, त्यों-त्यों स्वचालन (ऑटोमेशन) बढ़ता जाएगा। ज्यों-ज्यों पूंजी की आर्गेनिक कंपोजिशन (जैविक संरचना) ऊंची होती जाएगी, त्यों-त्यों उत्पादों और सेवाओं में जीवित मानव श्रम की आवश्यकता घटती जाएगी और नौकरियों का नुकसान होता जाएगा। बावजूद इसके कि तकनीक की हर प्रगति नये तरह के कुशल श्रम की मांग को बढ़ाती है, लेकिन समय के साथ अंतत: जीवित मानव श्रम की मांग समग्रता में कम होती जाएगी। यह एक ऐतिहासिक प्रवृत्ति है और पूंजीवाद के रहते इसका कोई निदान नहीं है। उदाहरण के लिए, पहले आई.टी. सेक्टर में या बैंकों में बड़े पैमाने पर भर्तियां होती थी। लेकिन पहले ऑटोमेशन ने और अब ए.आई. टूल्स ने आई.टी. प्रोफेशनल्स और बैंक कर्मचारियों व अधिकारियों को हटाना शुरू कर दिया है। यह एक उदाहरण मात्र है जबकि ऐसे ढेरों उदाहरण समाज के हर क्षेत्र से दिये जा सकते हैं जहां इसका असर पड़ रहा है। यह भी सच है कि यह परिघटना समय के साथ काफी तेज होने वाली है।
पूंजीपति वर्ग के लिए दिक्कत यहां यह है कि जहां एक तरफ इससे मुनाफे की दर में गिरावट पैदा होती है (नौकरियों के क्षरण के कारण वेतन पर कम खर्च होने के बावजूद, क्योंकि मुनाफा उत्पादों व सेवाओं में निहित जीवित मानव श्रम पर निर्भर है न कि मृत श्रम पर) और परिणामस्वरूप पूंजीगत निवेश में गिरावट आती है तथा आर्थिक विकास पर संकट एवं मंदी का खतरा बढ़ता है, वहीं दूसरी तरफ यह उपभोग से जुड़ी मांग को गिराता है। साथ में यह मध्य वर्ग के बीच कर्ज लेकर अपने जीवन-स्तर को सुधारने या उसे एक स्तर से नीचे नहीं गिरने देने की प्रवृत्ति तथा बाध्यता दोनों को बढ़ाता है। उदाहरण के लिए, अगर मध्य वर्ग 2015 के जीवन-स्तर को बरकरार रखना चाहता है, तो उसे इसके लिए 2025 में अपनी खोई (वास्तविक) आय के बराबर या उससे अधिक कर्ज लेना पड़ेगा। लेकिन शायद बात इससे आगे निकल चुकी है। सौरभ मुखर्जी कहते हैं कि ”मिडिल क्लास अब जीवित रहने के लिए कर्ज ले रहा है।” यानी, वह कर्ज घर, शिक्षा, या गाड़ी जैसे निवेश के लिए नहीं बल्कि रोजमर्रा के खर्चों के लिए ले रहा है। RBI डेटा के हवाले से मुखर्जी ने कहा कि क्रेडिट कार्ड और रिटेल लोन का हिस्सा बैंकिंग सिस्टम में 4% से बढ़कर 11% हो गया है। गोल्ड लोन भी काफी बढ़ा है। लोग सोना गिरवी रखकर जिंदगी की गाड़ी खींच रहे हैं। उनका कहना है कि ”यह चक्रीय मंदी (साइक्लिकल स्लोडाउन) के साथ मिलकर मिडिल क्लास को वित्तीय संकट में डाल रहा है।”
सौरभी मुखर्जी की रिपोर्ट का सारांश यह है कि आर्थिक मंदी भले ही अस्थायी हो, लेकिन आय का ठहराव और स्वचालन से नौकरी का नुकसान संरचनात्मक समस्याएं हैं। वे कहते हैं कि ये संरचनात्मक समस्यायें अगले दशक में भी मिडिल क्लास पर “भारी हानिकारक प्रभाव” डालेंगी। उन्होंने यह चेतावनी भी दी है कि अगर इनको सक्रिय रूप से हल नहीं किया गया तो मिडिल क्लास की स्थिति और खराब होगी जो भारत की अर्थव्यवस्था के लिए भी चिंता का विषय है, क्योंकि उनका ही नहीं किसी भी पूंजीवादी विशेषज्ञ का मानना है कि मिडिल क्लास ही उपभोग और वृद्धि का मुख्य चालक वर्ग है। मुखर्जी ने आयकर डेटा और RBI की फाइनेंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट का उपयोग करते हुए यह दिखाया है कि घरेलू बचत 2022-23 में GDP का 5.1% थी जो 47 साल का सबसे निचला स्तर है। निश्चित ही इसका अर्थ यह है कि मध्य वर्ग के लोग कम खर्च करेंगे या एकमात्र जीवन के लिए आवश्यक चीजों पर ही खर्च करेंगे और बचत करने के लिए वे कम से कम चीजों की खरीद करेंगे। हालांकि यह तथ्य है कि मध्य वर्ग अभी भी काफी खर्च कर रहा है। यहां तक कि विलासितापूर्ण जीवन के लिए भी खर्च कर रहा है। यह खर्च वह कर्ज लेकर कर रहा है। यह उसके पूंजीवादी सरकारों तथा व्यवस्था पर उसके भरोसे को दिखाता है जिसके अनुसार उसका मानना है कि सरकार उसे अंतत: उबार लेगी। और अंशत: यह सच भी है। देखना है कि ऐसा कब तक चलता है? यह भी देखना दिलचस्प होगा कि वह कब तक मौजूदा व्यवस्था पर अपने भरोसे को बनाये रखता है? क्योंकि आने वाला समय और भी भयावह साबित होने वाला है। जहां तक मजदूर वर्ग की बात है तो उसकी तो सूखी हड्डियों को भी निचोड़ने की तैयारी है।
अंत में, मध्य वर्ग की आय ठीक-ठीक आधी रह गई है या नहीं, इस पर विवाद हो सकता है, लेकिन इस पर कोई विवाद नहीं है कि मिडिल क्लास के जीवन की चुनौतियों में काफी इजाफा हुआ है और अन्य तरह के स्रोतों (जैसे कि NSSO, CMIE, आदि) से प्राप्त आंकड़ों से भी पता चलता है कि मध्य वर्ग की वास्तविक आय में गिरावट आई है। विवाद महज इतना है कि यह गिरावट कितने प्रतिशत की है, 10-15 प्रतिशत की 50 प्रतिशत की? लेकिन ”मध्य वर्ग की वास्तविक आय आधी रह गई है” के विरोधी भी यह मानते हैं कि अगर मध्य वर्ग के ही विशिष्ट आय समूहों या शहरी मिडिल क्लास पर मुख्य रूप से फोकस करते हुए विश्लेषण किया जाए, तो सौरभ मुखर्जी द्वारा प्रस्तुत आकलन सही प्रतीत होगा।
- PRICE (“People Research on India’s Consumer Economy”) के 2022 के सर्वेक्षण के अनुसार भारत का मिडिल क्लास आमतौर पर देशवासियों का वह समूह है जिनकी वार्षिक घरेलू आय लगभग 5 लाख से 30 लाख रुपये के बीच होती है। ↩︎