संपादकीय | ‘यथार्थ’ पत्रिका (जनवरी-मार्च 2025)
बजट व अन्य आर्थिक नीतियां – ‘फ्रीबीज-रेवड़ियां’ सिर्फ पूंजीपतियों-अमीरों को ही, गरीब इससे मुफ्तखोर बनते हैं! – फासीवादी दौर का ‘वेलफेयर’ मॉडल
सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर चुनावों के पहले मुफ्त चीजें या फ्रीबीज देने के राजनीतिक दलों के वादे पर नाराजगी जताई और कहा कि लोग काम नहीं करना चाहते, क्योंकि आप उन्हें फ्री राशन दे रहे हैं, बिना कुछ किए पैसे दे रहे हैं। क्या हम परजीवियों का वर्ग नहीं बना रहे हैं। बेहतर होगा कि इन्हें समाज की मुख्यधारा का हिस्सा बनाकर राष्ट्रीय विकास में योगदान दिया जाए। इन्हें परजीवी न बनायें। जस्टिस बी आर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ड मसीह की बेंच दिल्ली में शहरी बेघरों को आसरा दिए जाने की याचिका सुन रही थी। कोर्ट ने कहा कि दुर्भाग्यवश, चुनाव से ठीक पहले इन मुफ्त की योजनाओं- जैसे ‘लाडकी बहिन’ और ऐसी अन्य योजनाओं के कारण लोग काम करने को तैयार नहीं हैं। जब याचिकाकर्ताओं में से एक के वकील ने कहा कि अगर काम हो तो शायद ही कोई ऐसा होगा जो न करना चाहे। इस पर जस्टिस गवई ने कहा कि आपको एकतरफा जानकारी है, मैं भी किसान परिवार से हूं। महाराष्ट्र में चुनाव से पहले घोषित मुफ्त सुविधाओं के कारण, किसानों को मजदूर नहीं मिल रहे हैं।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट कह रहा है कि फ्रीबीज और ‘रेवडियों’ का हक सिर्फ अमीरों-सरमायेदारों को है, गरीबों को सामाजिक व्यवस्था के तहत कुछ भी दिया गया तो वो अमीरों की खिदमत बंद कर देंगे। चुनाव आयोग पहले ही इसे चुनावी भ्रष्टाचार बता चुका है। कॉर्पोरेट मीडिया भी जोर जोर से यही कह रहा है। बडे बडे अर्थशास्त्री एवं विद्वान ऐसा ही कह रहे हैं। पूंजीपतियों की संस्थाएं व थिंक टैंक ऐसा ही कहते आ रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘रेवड़ियां बांटने’ की राजनीति के खिलाफ बोल ही चुके हैं। उनके एक मंत्री प्रहलाद पटेल ने तो सरकार से सुविधाएं मांगने के लिए जनता को भिखमंगा ही बता दिया है। मोदी सरकार ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के जरिए मुख्य काम तो यही करना चाहती है कि जनता की ‘सेवा का मौका’ मांगने के वास्ते उनके कल्याण के लिए कुछ वादे करने के लिए बार बार चुनावी प्रचार में जाने की मजबूरी ही खत्म हो जाए।
बड़े कॉर्पोरेट हाउस L&T के चेयरमैन का कहना है कि मजदूरों को परिवार के साथ वक्त बिताने के बजाय सप्ताह में 90 घंटे काम कर राष्ट्र निर्माण करना चाहिए। उनके मुताबिक उनको काम करने के लिए लेबर नहीं मिलते हैं, क्योंकि सरकारी वेलफेयर स्कीम और आर्थिक मदद मिलने की वजह से लोग काम नहीं करना चाहते। उनकी शिकायत है कि सरकार मुफ़्त अनाज दे रही है। दरअसल बात यह कि इन सबके आका पूंजीपति गरीबों मेहनतकशों वंचितों पर एक पैसे का खर्च भी बर्दाश्त करने को राजी नहीं हैं। उनके लिए कोई आंशिक राहत की भी स्कीम हो तो उन्हें लगता है तब वो मामूली जिंदा रहने वाली मजदूरी पर हफ्ते में 90 घंटे काम क्यों करेंगे, जबकि मजदूर वर्ग से 90 घंटे काम करा सुपर प्रॉफिट की ललक भारतीय पूंजीपति वर्ग के दिमाग में घर कर चुकी है।
यहां सवाल उठाया जा सकता है कि दूसरे दलों पर ‘मुफ्तखोरी’ को बढ़ावा देने का इल्जाम लगाने वाले नरेंद्र मोदी भी to जनता से खूब चुनावी वादे करते हैं। दिल्ली चुनाव में ही ऐसी ‘मुफ्तखोरी’ वाले उनके वायदों की फेहरिस्त काफी लंबी है – हर महिला के खाते में 2500 रुपये, 500 रुपये में गैस सिलिंडर, फ्री बिजली, फ्री पानी, फ्री इलाज, फ्री शिक्षा, सरकारी अस्पतालों एवं मोहल्ला क्लिनिकों में फ्री इलाज व दवाई, बुजुर्गों के लिए फ्री तीर्थ-यात्रा और महिलाओं के लिए सरकारी बसों में फ्री यात्रा, आदि को जारी रखना, वगैरह। गरीबों के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना की बात तो वो पहले से करते आ ही रहे हैं। एक और ‘मुफ्तखोरी’ का विरोध, दूसरी और, ऐसे वादों की इस लंबी सूची में प्रतीत होते अंतर्विरोध की इस सियासत को भी समझना जरूरी है।
अमीरों को फ्रीबीज पर कोई एतराज नहीं
1 फरवरी को आगामी वित्तीय वर्ष हेतु पेश किए गए बजट को देखें तो कुछ उल्टा ही दृश्य नजर आता है। पर पहले सरकारी वित्तीय नीतियों को सही ठहराते एवं उनके पीछे की मजबूरी बताते हुए प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य नीलकंठ मिश्रा की नवभारत टाइम्स में 3 फरवरी को प्रकाशित बात देखें – ‘इस बार के बजट की बात करें तो वित्तीय अनुशासन के दबाव की वजह से वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पास बहुत कुछ करने की गुंजाइश नहीं दिख रही थी।’ ‘इंफ्रास्ट्रक्चर में बहुत ही अच्छा निवेश हुआ है, लेकिन हो सकता कि आगे यह स्थिति बदल जाए। वित्त वर्ष 2025 में इसके संकेत तब मिले जब सरकार के पास खर्च करने के अवसरों की कमी हो गई। … यह पैसा नेशनल हाईवेज, रेलवे, रक्षा, दूरसंचार, हवाई अड्डों और बंदरगाहों पर ही खर्च किया जा सकता है। … इसलिए सरकार के पास कैपिटल खर्च के बहुत ठिकाने नहीं बचे हैं।’ एवं ‘बजट के हिसाब किताब के मुताबिक़, सरकार के पास सिर्फ़ 1 लाख करोड़ रुपए को मनचाही चीजों पर खर्च करने का विकल्प था और उसने इसका इस्तेमाल 12 लाख की आमदनी पर टैक्स छूट देने के लिए किया।’
आयकर में इस छूट से 12 लाख रुपए आमदनी तक वालों को जो 5 से 15% टैक्स देना पड़ता था वह बिल्कुल समाप्त कर दिया गया है। 30% की आयकर दर अब 24 लाख रुपये सालाना की आय के ऊपर लागू होगी। अर्थात 24 लाख रुपए और अधिक आय वालों को टैक्स में लगभग 1 लाख 10 हज़ार रुपये की छूट दी गई है। ऐसे कई प्रावधान पहले ही हैं जिनका लाभ लेकर लगभग 15 लाख रुपये सालाना आय वालों को अब कोई आयकर नहीं देना होगा अर्थात 60 हज़ार रुपये महीना से सवा लाख रुपये महीना तक की आय वालों को पूरा आयकर माफ और अधिक आय वालों को भारी छूट। वर्ल्ड इनइक्वलिटी डेटाबेस के अनुसार भारत में 66,141 रू से अधिक महीना आय वाले आबादी के शीर्ष 10% में आते हैं। इस आय वर्ग वाले ही ख़ुद को मध्य वर्ग कहते हैं पर भारतीय समाज में यह ‘मध्य वर्ग’ आय के मामले में देश के शीर्ष 10% में आता है। आयकर छूट का लाभ इस 10% आबादी को ही होगा।
नीलकंठ मिश्रा की बात पर गौर करें तो तीन बातें तुरंत समझ आती हैं जो इस लेख का केंद्रीय विषय हैं। एक, सरकार की राजकोषीय स्थिति इतनी तंग है कि जनता के किसी हिस्से को कोई छूट रियायत देने के लिए उसे अपने निवेश कार्यक्रम में कटौती करना विवशता बन गई है। दो, सरकारी खर्च सिर्फ हाइवे, हवाई अड्डा, बंदरगाह, रक्षा, आदि पर ही किया जाना है, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, खाद्य सुरक्षा, आदि की सार्वजनिक व्यवस्था सरकार के लिए उपयुक्त खर्च नहीं है। और इन मदों पर खर्च करने की गुंजाइश भी नहीं बची है। तीन, कर राहत के लिए इस सरकार ने शीर्ष 10% आय वालों को चुना है, न कि औसतन 10-12 हज़ार महीना या कम कमाने वाली बहुसंख्यक मजदूर मेहनतकश आबादी को जिन पर लागू 5% या 12% या 18% या इसके ऊपर की जीएसटी दरें वसूली जाती रहेंगी। उन्हें राहत देने की कोई बात सरकारी योजनाओं में नहीं है।
‘सूट-बूट वाले भारत’ के लिए यह एक सपनों का बजट है। अब तक भारत की औसत प्रति व्यक्ति आय से 3 गुना आय 5% आयकर देना होता था। अब औसत प्रति व्यक्ति आय से 6 गुना तक कमाने वाले कोई आयकर नहीं देंगे। अर्थात नई कर व्यवस्था में औसत प्रति व्यक्ति आय से 6 गुना आय अर्जित करने वाला व्यक्ति भी कर देने के लिए पर्याप्त समृद्ध नहीं माना गया है। किंतु औसत प्रति व्यक्ति आय से आधा या कम आय वाले अप्रत्यक्ष कर देने के लिए योग्य माने गए हैं। आयकर में बदलावों से 1 लाख करोड़ रुपये राजस्व कम होगा। आगामी वित्त वर्ष में कुल व्यय वित्त वर्ष 2025 के संशोधित अनुमान से 3.4 लाख करोड़ रुपये ही अधिक होने का अनुमान है। कर कटौती नहीं होती, तो व्यय 4.4 लाख करोड़ रुपये होता। इस प्रकार, सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में व्यय में कमी के अलावा, वित्त वर्ष 2026 में कुल व्यय आयकर कटौती के बिना की तुलना में 30% कम है। अर्थव्यवस्था कई साल से निजी पूंजी निवेश में कमी व उपभोक्ता खर्च के न बढ़ने से आर्थिक वृद्धि के लिए मुख्यतः सरकारी खर्च व निवेश पर ही निर्भर है। अतः व्यय में यह कमी गहराते आर्थिक संकट का संकेत है। पूंजीवादी दृष्टिकोण से भी यह वृद्धि नहीं, ठहराव का संकेत है।
नितिन गडकरी के यातायात मंत्रालय के विचाराधीन नई टोल नीति का उदाहरण लेते हैं। 4 फरवरी को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित बयान मुताबिक नेशनल हाईवेज पर ट्रैफिक में प्राइवेट कारों की हिस्सेदारी 60% है। लेकिन टोल रेवन्यू में इनका हिस्सा 20-26% ही है। पिछले दस साल में ज्यादा जगहों पर टोल कलेक्शन शुरू होने से इन पर भार बढ़ गया है क्योंकि कुल टोल कलेक्शन 2023-24 में 64,809.86 करोड़ रुपये पहुंच गया। 2019-20 में यह 27,503 करोड़ रुपये था। मंत्रीजी कहते हैं कि इससे यात्रियों में असंतोष बढ़ता है।
अतः नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया (NHAI) सड़कों पर टोल से राहत देने की नीति बना रहा है। 6 फरवरी की नवभारत टाइम्स की रिपोर्ट मुताबिक ‘सूत्रों ने बताया कि सालाना टोल पास 3 हजार रुपये में और 15 साल के लिए लाइफटाइम टोल पास 30 हज़ार रुपये में बनाने का प्रस्ताव है। यह रियायत निजी कार मालिकों के लिए ही होगी, बसों जैसे यात्री वाहनों व मालवाहक वाहनों को नहीं।
हाइवे पर यातायात का दो तिहाई बोझ प्राइवेट कार वाले कुल टोल का मात्र एक चौथाई ही चुका रहे हैं। तीन चौथाई टोल वसूली बसों व मालवाहक वाहनों से होती है जिसका बोझ गरीब व निम्न मध्यवर्गीय जनता पर पड़ता है – अधिक बस भाड़े और आवश्यक वस्तुओं की ऊंची कीमतों के रूप में। लेकिन सरकार की चिंता का विषय आम जनता पर टोल का बोझ घटाने के बजाय 10-20 लाख रुपए या अधिक कीमत की प्राइवेट कारों को राहत देना है। इस रियायत का बोझ भी टोल में वृद्धि के द्वारा गरीब मेहनतकश लोगों पर ही पड़ेगा क्योंकि टोल वसूलने वाले कॉर्पोरेट और उन्हें फाइनेंस करने वाली वित्तीय पूंजी को सरकार ने एक न्यूनतम दर या उससे अधिक मुनाफे की गारंटी की हुई है। 7 सितंबर 2024 को ‘आज तक’ पर बताया गया कि दिल्ली जयपुर मार्ग निर्माण पर 1,896 करोड़ रुपए लागत आई लेकिन 2023 तक उस पर 8,349 करोड़ रुपए टोल वसूला जा चुका था। यह वसूली अभी भी जारी है। जाहिर है कि विराट खर्च से बनाई जा रही टोल सड़कें व अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर गरीब मेहनतकश जनता से वसूली कर अमीरों की सुविधा व कॉर्पोरेट वित्तीय पूंजी के सुपर प्रॉफिट का जरिया बन चुकी हैं। फिर भी सरकार चिंतित है कि प्राइवेट कार चलाने वाले संपन्न तबके में असंतोष न हो!
अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स को भी देखें। नया शिगूफा दिल्ली से जयपुर 30 मिनट में पहुंचाने वाले हाइपरलूप का है। एक ओर साधारण गाड़ियाँ तक चलाना रेलवे के लिए मुश्किल है, तब हाइपरलूप का सपना किसलिए दिखाया जा रहा है? 2019 में चलने वाली बुलेट ट्रेन अब कोशिश है कि 2027 में किसी तरह गुजरात के एक हिस्से में एक थोडी तेज रफ्तार की गाडी चलाकर प्रचार का समां बांध लिया जाए। ओरिजनल बुलेट ट्रेन 2033 तक चलने की बात हो रही है। उधर दूरदराज की तो बात ही क्या, राजधानी दिल्ली से हर ओर गाडियों में भीड की मारामारी है। ऐसे में हमें मौजूदा पूंजीवादी आर्थिक संकट के दौर में महंगे इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स की भूमिका को समझना होगा।
जितने खर्च में दिल्ली-मेरठ के बीच मौजूद डबल रेल ट्रैक पर हजारों यात्रियों की क्षमता वाली 12 डिब्बे की नियमित ईएमयू सेवा चलाई जा सकती थीं, उससे कई गुना खर्च में बहुत कम क्षमता वाली नमो आरआरटीएस बनाई जा रही है। इसका भाडा ईएमयू से 8-10 गुना महंगा है। मेरठ दिल्ली के रोजाना मुसाफिरों की बडी तादाद इसमें सफर नहीं कर सकती। वो इस ‘क्रांतिकारी’ इंफ्रास्ट्रक्चर के बजाय पुराने तकलीफदेह भारी भीड भरे धीमे रेल सडक साधनों का इस्तेमाल करने को विवश हैं। सिर्फ अमीरों की अल्पसंख्या के लिए सुविधा वाली यह ‘क्रांतिकारी’ आरआरटीएस भारी घाटे में रहने वाली है। पर इसे मुसाफिर मिलें या नहीं, इस में पूंजी निवेश पर ऊंचे न्यूनतम मुनाफे की गारंटी सरकार ने दी है। अर्थात पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए सरकार जनता पर अप्रत्यक्ष करों व शुल्कों का बोझ बढाएगी तथा शिक्षा स्वास्थ्य यातायात सफाई वगैरह की सार्वजनिक सुविधाओं पर खर्च को और कम कर देगी।
बजट में सार्वजनिक व्यवस्थाओं में कटौती अमीरों के इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च का नतीजा है
राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम (NSAP) – सामाजिक सुरक्षा योजना जो बीपीएल श्रेणी में बुजुर्गों, विधवाओं और विकलांग व्यक्तियों सहित सबसे हाशिए पर रहने वाली आबादी को पेंशन प्रदान करती है – के लिए बजट पिछले वर्ष से अपरिवर्तित अर्थात् 9,652 करोड़ रुपये ही रहा है। इस प्रकार वास्तविक बजट घटकर लगभग 9,200 करोड़ रुपये रह गया है जबकि मुद्रास्फीति के चलते खर्च को उसी स्तर पर बनाये रखने हेतु व्यय को बढ़ाकर 10,000 करोड़ रुपये से अधिक किया जाना चाहिए था। दरअसल कुल बजट व्यय के हिस्से के रूप में NSAP के लिए आवंटन वित्त वर्ष 2014-15 में 0.58% से घटकर वित्त वर्ष 2025-26 में 0.19% रह गया है। बजट में सार्वजनिक सुविधाओं पर खर्च में चहूँ ओर कटौती की बात को तो फिर भी बहुतों ने नोट किया है। पर बजट में जिस खर्च का ऐलान किया जाता है वह भी वास्तव में किया नहीं जाता। वित्त वर्ष 2025 में प्रधानमंत्री नाम की 25 कल्याण योजनाओं के लिए बजट अनुमानों में 445,713 करोड़ रुपए आबंटन किया गया था। लेकिन 1 फरवरी को पेश संशोधित बजट अनुमानों में इसे 392,710 करोड़ ही कर दिया गया। इसमें से भी असल खर्च कितना होगा?
अमीरों के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर की नीति की वजह है कि पूंजीवाद ने जो गहरा आर्थिक संकट पैदा किया है उसके चलते उसके उत्पादों की बिक्री के लिए बाजार में सामान्य तौर पर मांग पैदा नहीं हो रही है। अतः पूंजीपति वर्ग की मैनेजमेंट कमेटी बतौर सरकार बिना जनता की ओर से किसी मांग के ही इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स व सैन्यवाद के जरिए कृत्रिम मांग तैयार कर रही है और फिर इस मांग के जरिए कुछ मोनोपॉली कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के लिए मांग व मुनाफा सुनिश्चित कर रही है। सामान्य पूंजीवादी तरीके से सुपर मुनाफा पाने में अडचन की वजह से पूंजीपतियों ने यह ‘असाधारण’ रास्ता चुना है।
आम जनता से भारी टैक्स व शुल्क वसूली तथा कल्याणकारी खर्च में हरचंद कटौती से पैसा जुटाकर अल्पसंख्यक अमीरों की सुविधा के लिए जो तमाम इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स बनाए जा रहे हैं, उनसे ही देश की छोटी अमीर-संपन्न आबादी के लिए चमकदार सुविधाएं जुटाई जा रही हैं। यह अमीर ‘मध्य’ वर्ग भी मौजूदा फासीवादी सत्ता व नीति के पीछे पूरी तत्परता से खडा है। यह तथाकथित ‘मध्य’ वर्ग ही मीडिया व शिक्षा संस्थानों से लेकर आरडब्ल्यूए वगैरह तक सबसे बडबोली व प्रभुत्वशाली ओपिनियन मेकर भूमिका में है और इसकी इस प्रतिबद्धता का प्रभाव हर जगह साफ देखा जा सकता है।
2016 पश्चात हर बजट की तरह इस बजट की मुख्य विशेषता है राजकोषीय घाटे की स्थिति। अतः खर्च घटा दिया गया है। कुल व्यय-जीडीपी अनुपात जो सरकारी खर्च या गतिविधि को मापता है – वित्त वर्ष 2022 में 16.03% से घटकर वित्त वर्ष 2024 में 15.04% और वित्त वर्ष 2026 (बजट प्रस्ताव) में 14.19% हो गया। कॉर्पोरेट टैक्स में दी गई बड़ी छूट के बाद से कर-जीडीपी अनुपात लगभग 7.9% पर स्थिर है। अब आयकर में भी छूट दी गई है। इसलिए, व्यय में कटौती से ही सरकार राजकोषीय घाटे को कम रखने हेतु विवश है। यह राजकोषीय अंकगणित एक ऐसी सरकार को उजागर करता है जो राजकोषीय घाटे को सीमित रखते हुए अपने बुनियादी कार्यों के वित्तपोषण के लिए संघर्ष कर रही है। सार्वजनिक निवेश बढ़ाने या गरीबों के हित में खर्च करने की तो बात ही बहुत दूर है, राजस्व व्यय तक वित्त वर्ष 2023 में सकल घरेलू उत्पाद के 12.81% से घटकर वित्त वर्ष 2026 (बजट प्रस्ताव) में 11.01% रह गया है। वित्त वर्ष 2025 के बजट अनुमानों की तुलना में लगभग 1 लाख करोड़ रुपये का पूंजीगत व्यय भी कम किया गया है।
शिक्षा और ग्रामीण विकास पर व्यय स्थिर है – लगभग 1.2 लाख करोड़ रुपये तथा 2.5 लाख करोड़ रुपये। इन दोनों क्षेत्रों में से किसी एक या दोनों के लिए अमीरों को आयकर में दी गई 1 लाख करोड़ रुपये की छूट खर्च करने से आम आदमी को कुछ राहत देना मुमकिन होता। इसके बजाय शीर्ष 10% अमीर लोगों को आयकर छूट दी गई है, और $40,000 से अधिक की लागत वाली नौकाओं और कारों पर कम आयात शुल्क के रूप में सुपर-रिच तबके के लिए मुफ्त टॉप-अप भी है। कुल व्यय में पूंजीगत व्यय का हिस्सा जीडीपी के अनुपात के रूप में वित्त वर्ष 2024 में 3.21% से गिरकर वित्त वर्ष 2026 में 3.14% हो गया है। यह सरकार की एक बड़े सार्वजनिक निवेश कार्यक्रम को क्रियान्वित करने की सीमित क्षमता को दर्शाता है, जिसे पिछले साल तत्कालीन वित्त सचिव टी वी सोमनाथन ने खुलकर स्वीकार किया था। वित्त वर्ष 2026 के लिए आशावादी कर उछाल का अनुमान लगाया गया है। लेकिन लगभग 25% आयकर रिटर्न दाखिल करने वाले सालाना 6-10 लाख रुपये की आय ही रिपोर्ट करते हैं। नई व्यवस्था में वे करदाता नहीं रहेंगे। वित्त मंत्रालय ने अतीत में भी टैक्स रियायतों से रेवेन्यू लॉस को कम करके दिखाया है। 2019 में कॉर्पोरेट टैक्स कटौती के वक्त रेवेन्यू लॉस का अनुमान 1 लाख करोड़ रुपये था। अब अनुमान है कि वास्तविक रेवेन्यू लॉस 3 लाख करोड़ रुपये हुआ। आयकर कटौती से रेवेन्यू लॉस का थोड़ा सा भी कम आकलन राजकोषीय गणित को गड़बड़ा देगा। इसका पूरा बोझ सार्वजनिक कल्याण योजनाओं में कटौती के रूप में आम मेहनतकश लोगों पर ही डाला जाएगा।
दरअसल जिन ‘फ़्रीबीज’ पर सुप्रीम कोर्ट रो रहा है, उन योजनाओं पर जीडीपी का सिर्फ 1.5% खर्च होता है (दैनिक भास्कर)। जो आंकड़े छिपाये गये हैं वो ये कि सरकार कॉरपोरेट टैक्स पर जीडीपी का कितना प्रतिशत छूट देती है। अगर भारत का बजट कुल पचास लाख करोड़ का है और कॉरपोरेट टैक्स और ऋण माफ़ी पिछले दो सालों में 21 लाख करोड़ है, तो बजट का कितना प्रतिशत हुआ, इसे समझने के लिए आइंस्टीन होने की ज़रूरत नहीं है। दूसरी तरफ़, हरेक बजट में केपेक्स यानि पूंजीगत खर्च घट रहा है। पब्लिक स्पेंडिंग नदारद है। नतीजा ये कि पिछले दस सालों में नए सरकारी प्रतिष्ठान नहीं बने। जब सरकारी प्रतिष्ठान ही नहीं तो सरकारी नौकरी भी नहीं।
उपरोक्त राजकोषीय गणित का अनिवार्य परिणाम है कि सरकार को पुराने सीमित कल्याणकारी मॉडल को चलाने की कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन सरकार मध्य वर्ग व अमीरों पर बोझ बढ़ाने की स्थिति में भी नहीं है। आयकर के बढ़ते बोझ के ख़िलाफ पिछले सालों में इस मध्य वर्ग की और से तीखी शिकायत की जाती रही है। इसे कुछ राहत देना सरकार की मजबूरी है क्योंकि यह तबका बीजेपी का मजबूत सामाजिक आधार है। इसी अभिजात्य मजदूर व टटपुंजिया तबकों को अपनी आर्थिक स्थिति के जरा खराब होते ही खुद के गरीब मजदूरों में शामिल होने का डर सबसे अधिक सताता है। और एक वास्तविक मजदूर वर्गीय आंदोलन की गैर हाजिरी में इसी तबके इसके प्रतिगामी पूर्वाग्रहों के आधार पर मजदूर वर्ग, स्त्रियों, वंचितों, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की वजह से इसकी हालत बदतर होने का डर पैदा कर फासीवादी मुहिम के पक्ष में जुटाने की सर्वाधिक संभावना होती है।
इजारेदार वित्तीय पूंजीवाद में जनपक्षीय शासन का कोई मॉडल नामुमकिन है
स्पष्ट है कि एकाधिकारी वित्तीय पूंजीवाद के युग में किसी ‘जनपक्षीय’ वेलफेयर मॉडल के लिए जगह नहीं बची है। बहरहाल मोदी को भी ऐसे चुनावी वादे करने पड़ते हैं क्योंकि देश भर में उसका एकछत्र राज कायम करने हेतु यह जरूरी है। एकाधिकारी पूंजी ने इसीलिए मोदी को इसकी इजाजत दी है ताकि गरीब जनता की भलाई के कांग्रेस-केजरीवाल मार्का भ्रमजाल को भी पराजित कर हिंदू-मुस्लिम की राजनीति की आग में भस्म करने का अवसर भाजपा को मिल सके, उसे नफरती राजनीति की आग में पकाया जा सके और फिर उसे बंटोगे तो कटोगे की फासीवादी राजनीति की चाशनी में डुबाकर एक घातक कॉकटेल तैयार किया जा सके। मोदी का मकसद पूरे देश में एक आज्ञाकारी लाभार्थी वर्ग बनाना, उसके जरिये सांपद्रायिक राजनीति को आगे बढ़ाना और इसकी आड़ में जनपक्षीय दिखने वाले वायदों की राजनीति से हमेशा के लिए मुक्ति पा लेना है। ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ की योजना भी इसी मकसद को पूरा करेगी। जाहिर है फासीवाद की पूर्ण विजय ऐसी तमाम जनपक्षीय राजनीति का अंत कर देगी। पूंजीवाद में विकास का एकमात्र मतलब पूंजी का संचय, उसका संकेंद्रण व केंद्रीकरण है। नीति-नियम-कानून सभी इसके अनुकूल ही होते हैं। चुनांचे, पूंजीवाद में विकास का कोई वैकल्पिक मॉडल नहीं हो सकता है। अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप के स्पांसर एलन मस्क ने तो कह ही दिया है कि सरकारी खर्च और जीडीपी दो भिन्न चीजें हैं अर्थात् सरकारी व्यय मात्र पूंजीपति वर्ग के हितों के लिए दमनात्मक कामों में होना चाहिए, जनकल्याण तो क्या उत्पादक अर्थव्यवस्था में भी सरकार की कोई भूमिका नहीं है।
पूंजीवादी व्यवस्था में समस्त संपदा और उसके स्रोतों पर पूंजीपति वर्ग का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नियंत्रण होता है। अतः मेहनतकश जनता की जरूरतों की नि:शुल्क पूर्ति वाले मॉडल की राजनीति छलावा ही हो सकती है। कोई तथाकथित जनपक्षधर नेता इसे लागू करने की कोशिश भी करता है तो यह कोशिश अपंग और एकांगी ही साबित होगी, क्योंकि इसके लिए जरूरी पूंजी तो पूंजीपति वर्ग ने बेशी मूल्य के रूप में हड़प रखी है। नतीजा यह कि विकास के अन्य कार्यों के लिए सरकारी फंड कम पड़ जाएगा। मसलन, सड़कें नहीं बन पाएंगी, कचरा साफ नहीं हो पाएगा तथा इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास के काम नहीं हो पाएंगे। इन सबका असर घूम-फिर कर जनता पर ही पड़ेगा और उसकी सामाजिक जरूरतों की आपूर्ति बजट घाटा और कर्ज के कारण बाधित होगी। बजट व राजकोषीय घाटे का उपरोक्त विश्लेषण इसकी पुष्टि करता है।
पूंजीपतियों को यह शिकायत क्यों होती है कि सरकार मजदूरों को राहत दे रही है? क्योंकि यदि श्रमिक भूखा रहेगा, तो वह किसी भी शर्त पर काम करने को मजबूर होगा। यदि उसे शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन की थोड़ी बुनियादी सुविधाएं भी मिल जाएंगी, तो वह केवल ‘नौकरी’ ही नहीं, ‘सम्मानजनक नौकरी’ की मांग करेगा। इसलिए, समस्या मजदूरों की नहीं, बल्कि उस सोच की है जो मेहनत करने वालों को ‘आलसी’ और अपना मुनाफा बढ़ाने वालों को ‘राष्ट्र निर्माता’ मानती है! किंतु जब अरबपतियों के अरबों रुपये टैक्स में माफ होते हैं, जब बड़े उद्योगपतियों के कर्जे बट्टेखाते में डाल दिए जाते हैं, जब उन्हें मुफ्त की जमीनें, पानी, बिजली और सब्सिडी मिलती है, तब उसे ‘नीतिगत सहायता’ कहा जाता है, ‘विकास’ कहा जाता है। लेकिन जब मेहनतकशों के लिए थोड़ी राहत की बात आती है, जब कोई सरकार मजदूरों-किसानों के लिए कुछ सुविधाएं देने की कोशिश करती है, तब उसे ‘रेवड़ी संस्कृति’ का नाम देकर लानत भेजी जाती है।
सुप्रीम कोर्ट इसे अर्थव्यवस्था के लिए खतरा बताता है और चुनाव आयोग इसे चुनावी भ्रष्टाचार घोषित करता है। पर असली मुद्दा क्या है? असली मुद्दा है कि पूंजीपतियों के मालिकाना हक को चुनौती न दी जाए। मेहनतकशों को इतना कमजोर रखा जाए कि वे कभी अपने श्रम का मूल्य मांगने की हिम्मत न कर सकें। अगर गरीब को थोड़ी राहत मिल गई, अगर उसकी रसोई में चूल्हा जलने लगा, अगर उसके बच्चों को स्कूल जाने का मौका मिल गया, तो वह गुलामी की जंजीरें तोड़ने की सोचने लगेगा! और यह बात सत्ता के असली आकाओं को बर्दाश्त नहीं। इसलिए मेहनतकशों की हर सुविधा को ‘अनुत्पादक खर्च’ बताया जाता है और पूंजीपतियों की हर मुनाफाखोरी को ‘राष्ट्र निर्माण’ का तमगा दे दिया जाता है। मेहनतकशों की जेब से हर सिक्का निकाल लिया जाए, ताकि वह भूख, कर्ज और बेबसी में इस व्यवस्था की सेवा करता रहे। सांप्रदायिकता, जातिवाद और झूठे राष्ट्रवाद के नारों के बीच असली लूट को छिपाने की साजिश है यह।
मजे की बात यह है कि जनता के पैसों से बनी सड़कें, बिजली, पानी, हवाई अड्डे और रेलवे बेचने वालों को कोई फ्रीबी बांटने वाला नहीं कहता। बड़े पूंजीपतियों को मिली टैक्स रियायतों और सस्ते कर्जों को कोई अर्थव्यवस्था के लिए खतरा नहीं मानता। लेकिन गरीब को कुछ मिल जाए, उसे थोड़ी राहत मिले, तो अर्थव्यवस्था खतरे में पड़ जाती है! यह खुलेआम लूट और खुलेआम धोखा नहीं तो और क्या है? ये लोग असल में एक ऐसी सत्ता चाहते हैं जो पूरी तरह से सरमायेदारों के प्रति निष्ठावान हो, जिसे सिर्फ अमीरों का हित दिखे, जिसे सिर्फ कॉरपोरेट का मुनाफा दिखे, और जिसे मेहनतकशों की हड्डियों से टपकता पसीना कभी नज़र ही न आए। इस हमले का असली निशाना सिर्फ गरीबों की ‘रेवड़ियां’ नहीं हैं, बल्कि मेहनतकशों की हर वह उम्मीद है, जिससे वे बेहतर जिंदगी की ओर बढ़ सकते हैं।
सार्वजनिक सुविधाओं की अबाध निशुल्क पूर्ति के लिए पूंजीवाद का उन्मूलन जरूरी
पूंजीवादी राज्य जब तक कल्याणकारी राज्य का ढोंग करने के लिए किसी न किसी रूप में मजबूर था, तो पूंजीवादी सरकारें भी कुछ सार्वजनिक सेवाओं को बहुत कम कीमत पर, लगभग निशुल्क, उपलब्ध कराती थीं। उदाहरण के लिए, भारत में 1980 के दशक के मध्य तक सभी का इलाज सरकारी अस्पतालों में बहुत ही कम खर्च पर होता था। इसी तरह सरकारी विद्यालयों व कॉलेजों में सभी के बच्चे पढ़ते थे। लेकिन आज बड़ी पूंजी इन सेवाओं पर पूर्ण रूप से कब्जा कर चुकी है। ये अकूत मुनाफा का क्षेत्र बन चुकी हैं। इनका बड़े पैमाने पर निजीकरण किया गया जिसकी शुरूआत 1980 के दशक में हुई। आज ऐसी सारी सेवायें – शिक्षा, पानी, बिजली, स्वास्थ्य, परिवहन, आदि – बहुत महंगी हो गयी हैं। जनता का बड़ा हिस्सा इनसे वंचित किया जा रहा है। इसलिए जो लोग ”मुफ्त” पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, आदि की नीति का विरोध करते हैं वे पूंजीपति वर्ग, खासकर बड़े पूंजीपति वर्ग के हितों से प्रेरित हैं। इनका तर्क है कि इससे ”विकास” में लगाने के लिए सरकार के पास फंड नहीं बचेगा जबकि सरकार का काम ही ”मुफ्त की रेवड़ी” बांटना नहीं ‘विकास” कराना है। इससे लोगों को रोजगार प्राप्त होगा और वे इन सेवाओं को बाजार से खरीदने में सक्षम हो जाएंगे। वे यह भी कहते हैं कि विकास का काम पूंजीपति को ही करना चाहिए, सरकार को नहीं। सरकार को बस पूंजीपति वर्ग के लिए आधारभूत ढांचा तैयार करना चाहिए। वे बाजार को ”स्वतंत्र” रूप से काम करने देने की बात भी करते हैं। इसके परिणामस्वरूप महंगाई किस कदर बढ़ रही है हम देख रहे हैं। ये सारे तर्क जनता और मजदूर विरोधी हैं।
तमाम तरह की सार्वजनिक सेवाओं व सामाजिक आवश्यकताओं को ”निशुल्क” बनाने और अबाध रूप से इसकी पूर्ति के लिए क्या चीज है जो सबसे जरूरी है? सबसे जरूरी है: तमाम उत्पादन के दौरान पैदा होने वाले कुल अधिशेष और इस तरह कुल सामाजिक उत्पाद पर समाज का नियंत्रण कायम होना। जब तक पूंजीपति वर्ग का नियंत्रण है तब तक तमाम सामाजिक आवश्यकताओं की बढ़ते पैमाने पर अबाध पूर्ति असंभव है क्योंकि जरूरी फंड उपलब्ध नहीं होगा। भारत में ही नहीं, विकसित देशों सहित पूरे विश्व के पूंजीवाद में हम यह घटित होते और इसके नाम पर जनकल्याण कार्यों में तथाकथित किफायतशारी या ऑस्टेरिटी की नीतियों को लागू किया जाता देख सकते हैं।
पूंजीवादी समाज में समस्त सामाजिक आय का एकमात्र स्रोत मजदूर वर्ग द्वारा पैदा मूल्य और बेशी मूल्य है जिसे पूंजीपति वर्ग हड़प लेता है। जब तक इस पूंजीवादी हस्तगतकरण को आधुनिक समाज खत्म नहीं करता है और सारे उत्पादन के साधनों को सामाजिक स्वामित्व में नहीं ले आता है तब तक वह समाज जनता के विकास और उसकी सामाजिक जरूरतों पर समुचित रूप से खर्च नहीं कर सकता है। अगर मेहनतकश चाहते हैं कि सामाजिक उत्पादन का उपयोग उनकी अपनी सामाजिक व सामूहिक जरूरतों (स्कूल, परिवहन, अस्पताल, सड़क, आदि) की पूर्ति के लिए हो, तो उन्हें इस पूंजीवादी उत्पादन संबंध (जिसके तहत मजदूर वर्ग को एकमात्र अपनी श्रम शक्ति के मूल्य से संतोष करना पड़ता है, जबकि उनके द्वारा ही पैदा किये गये समस्त बेशी मूल्य को पूंजीपति वर्ग हड़प लेता है) पर आधारित सामाजिक उत्पादन के निजी हस्तगतकरण की व्यवस्था को खत्म करना होगा। दूसरे अर्थों में, समस्त उत्पादन साधनों पर सामाजिक नियंत्रण स्थापित करना होगा। यही समाजवाद है। यही मजदूर वर्ग का ऐतिहासिक मिशन है। यही मजदूरों मेहनतकशों का वास्तविक लक्ष्य होना चाहिए।
कल्पना कीजिए, समाज के ढांचे में ऐसा परिवर्तन हो जो श्रम व उत्पादन के सभी साधनों को समाज की साझा संपत्ति बना दे और मजदूरों का श्रम पूंजीपतियों के मुनाफे में नहीं बदले। यानी, कुल सामाजिक उत्पाद पूंजीपतियों के स्वामित्व से निकलकर समाज के स्वामित्व में आ जाए। अगर हम ऐसी उत्पादन व्यवस्था में वितरण पर विचार करें, तो पाएंगे कि सार्वजनिक सेवाओं को मुहैया कराना उस समाज का मुख्य और स्वाभाविक उत्तरदायित्व होगा। एक ऐसे समाज में जिसमें पूंजीपति वर्ग का शासन नहीं होगा और उत्पादन निजी मुनाफा के लिए नहीं लोगों के भौतिक व सांस्कृतिक विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिए होगा, उस समाज में श्रम द्वारा उत्पादित कुल सामाजिक उत्पाद का वितरण या बंटवारा किस तरह होगा? सर्वप्रथम यह बंटवारा उत्पादन की आर्थिक जरूरतों के आधार पर किया जाएगा। जैसे कि, इस्तेमाल कर डाले गये उत्पादन साधनों को बदलने, उत्पादन का विस्तार करने तथा दुर्घटनाओं व प्राकृतिक आपदाओं से उत्पन्न पेरशानियों और बाधाओं के लिए रिजर्व फंड पर खर्च होगा। इसके बाद बचे सामाजिक उत्पाद में से सामाजिक जरूरतों पर खर्च होगा। इन सामाजिक जरूरतों पर होने वाले खर्च में सबसे महत्वपूर्ण खर्च वह है जो स्कूलों, स्वास्थ्य सेवाओं, आदि जैसी सार्वजनिक आवश्यकताओं की साझा तुष्टि के लिए जरूरी व अपेक्षित है। इसके अतिरिक्त काम करने में असमर्थ लोगों के लिए भी कुल सामाजिक उत्पाद का एक हिस्सा खर्च होगा। दोनों मदों में खर्च लगातार बढ़ेगा और इससे जुड़ी सेवायें ”निशुल्क” ही होंगी क्योंकि इसकी पूर्ति उसी कुल सामाजिक उत्पाद से की जाएगी जिसे पैदा करने में पूरे समाज का श्रम (कुल सामाजिक श्रम) लगा है।
हम देख सकते हैं कि एक तरफ प्रत्यक्ष उत्पादकों को, निजी व्यक्ति की हैसियत से, कुल सामाजिक उत्पादन के जिस एक भाग से वंचित किया जाता है वह समाज के एक सदस्य होने के नाते उन्हें सार्वजनिक सेवा व सुविधा के रूप में मिल जाता है। इस तरह निजी और सामूहिक हितों के उस टकराव का अंत हो जाता है जो पूंजीवाद में पाया जाता है। स्पष्ट है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, बिजली, परिवहन जैसी सार्वजनिक सेवाओं पर होने वाला खर्च और कुछ नहीं समाज के कुल सामाजिक श्रम के एक भाग का ही खर्च है। इसलिए मसला न तो ”मुफ्त” का है और न ही ”मुफ्तखोरी” का। वास्तविक मसला कुल सामाजिक उत्पाद पर से पूंजीपतियों के नियंत्रण को खत्म करने का है। ऐसा होते ही ये सारी सामाजिक आवश्यकताओं वे सेवाओं की पूर्ति सहजता से ही नहीं प्रचुरता से होने लगेगी। लेकिन ऐसा एकमात्र पूंजीवाद को पलटकर ही संभव हो सकता है। तभी पेय जल, बिजली, स्कूल, स्वास्थ्य सेवा, परिवहन, आदि की सुविधा की ”निशुल्क” पूर्ति बढ़ेगी। ”निशुल्क” सार्वजनिक सेवाओं की उत्रोत्तर वृद्धि और इसका अबाध रूप से जारी रहना सर्वप्रथम इस बात पर निर्भर करता है कि सामाजिक धन पर से पूंजीपति वर्ग का नियंत्रण खत्म हो और पूंजीवादी व्यवस्था का खात्मा हो। मजदूर वर्ग को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि पूंजीवाद के रहते मजदूर वर्ग की जिंदगी कभी भी सुख से नहीं कट सकता है।
पूर्व में मजदूर वर्ग ने जो भी अधिकार हासिल किये थे आज उन्हें भी मोदी एवं अन्य सरकारों द्वारा निर्ममता से छीना जा रहा है। दूसरी तरफ, उनका वोट पाने के लिए पार्टियां कुछ न कुछ ”मुफ्त” देने की बात करती हैं। लेकिन बड़ी पूंजी को इतना भी मंजूर नहीं है। इसलिए वह इस कोशिश में है कि वोट से सरकार बनाने की व्यवस्था को ही खत्म कर दिया जाए। इसके लिए ही हिंदू-राष्ट्र बनाने का नारा दिया जा रहा है जिसकी सफलता के बाद उनका यह उद्देश्य भी पूरा हो जाएगा।
लेकिन यह भूलने की जरूरत नहीं कि पूंजीवाद का हर हमला अपने खिलाफ संघर्ष को भी जन्म देता है। मेहनतकशों ने इतिहास में कभी भी मुफ्त में कुछ नहीं पाया, उन्होंने हर हक के लिए लड़ाई लड़ी है। यह लड़ाई जारी है, और जारी रहेगी। मौजूदा वक्त का तकाजा है कि ”मुफ्तखोरी” के विरोध के नाम पर देश में छेड़ी गई राजनीतिक मुहिम के बरक्स हम अपना मजदूर वर्गीय नजरिया लोगों तक ले जाएं कि आम जनता के लिए सार्वजनिक सेवाओं की मुकम्मल और अबाध पूर्ति पूंजीवाद को उखाड़ फेंक कर ही की जा सकती है।