संघर्ष की रस्मअदायगी से आगे बढ़िए, महानुभावों!

संघर्ष की रस्मअदायगी से आगे बढ़िए, महानुभावों!

September 11, 2021 0 By Yatharth

देश के मजदूर-किसान व आम जनता पर बड़ी इजारेदार पूंजी की गुलामी थोपने वाली मोदी सरकार के विरूद्ध केंद्रीय ट्रेड यूनियनों तथा स्वतंत्र फेडरेशनों व एसोसिएशनों के संयुक्त मंच द्वारा ‘9 अगस्त क्रांति दिवस’ को “भारत बचाओ दिवस” के रूप में मनाने का मेहनतकशों से आह्वान

केंद्रीय कमिटी,

इंडियन फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियंस (सर्वहारा)

I

आज देश के आम लोग अब तक की सबसे भयंकर आर्थिक तबाही के दौर से गुजर रहे हैं। हम सबकी जिंदगी धीरे-धीरे देशी-विदेशी बड़े पूंजीपतियों के गुलामों वाली जिंदगी में तब्दील होती जा रही है। 44 श्रम कानूनों का खात्मा, उनकी जगह पर थोपे गये चार श्रम कोड, आवश्यक रक्षा सेवा विधेयक व अध्यादेश और नये कृषि कानून सहित अन्य कई तरह के प्रशासनिक कार्रवाई व आदेश इसी ओर इशारा कर रहे हैं। पिछले सात सालों में यह साबित हो चुका है कि मोदी सरकार का मुख्य ध्येय जनता को पूंजीपतियों का गुलाम बनाना है और इस दिशा में वह तीव्र गति और आवेग से काम कर रही है। मोदी सरकार द्वारा संचालित मुख्य नारे – हिंदुत्व, हिंदु राष्ट्र, राष्ट्रवाद और विश्व गुरू आदि – का असली मकसद जनता को बड़े पूंजीपतियों का गुलाम बनाने, जनता की बदहाली को छुपाने और उसे विभाजित कर वेवकूफ बनाने का ही रहा है।
इस बीच केंद्रीय यूनियनों के मंच ने अपनी 8 जुलाई की बैठक में 9 अगस्त क्रांति दिवस को ‘‘भारत बचाओ दिवस’’ के रूप में मनाने का उचित ही आह्वान किया है। परंतु असली समस्या इसके इसके प्रस्तुतीकरण और अंतिम आह्वान में है जहां ये यूनियने अपने को अभी तक गिड़गिड़ाने और मिमियाने तक सीमित रखती आ रही हैं। 8 जुलाई की उपरोक्त बैठक में इन्होंने लिखित प्रस्ताव पारित करते हुए कहा है –
‘‘मई 2014 के बाद से केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के साथ कड़वे अनुभव के कारण यह आवाहन जरूरी हो गया था। सरकार की नीतियां मजदूर विरोधी, जनविरोधी और यहां तक कि राष्ट्र विरोधी भी हैं।’’
प्रस्ताव में आगे कहा गया है –


‘‘मई, 2019 के बाद से अपने दूसरे कार्यकाल में, संसद में प्रचंड बहुमत के साथ भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार का रिकॉर्ड और भी खराब है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि केंद्र की इस सरकार को कॉरपोरेट्स के लाभ के लिए श्रमिकों, किसानों और देश के सभी मेहनतकशों और आम लोगों के हितों का बलिदान करने में कोई गुरेज नहीं है।’’
इसी तरह प्रस्ताव में यह भी सही कहा गया है कि –


‘‘ वर्तमान शासन के इन सात वर्षों के दौरान, मेहनतकरा लोगों (विशेषकर महिलाओं) को बढ़ती बेरोजगारी के साथ-साथ रोजगार और कमाई के नुकसान का सामना करना पड़ा है, जिसने इन्हें तीव्र भूख, बढ़ती कीमतों, किसी भी सामाजिक सुरक्षा की कमी की स्थिति में धकेल दिया, यहाँ तक कि जब कोविड की महामारी आई तो बड़ी संख्या में लोगों की मौत बुनियादी चिकित्सा देखभाल के अभाव के कारण हुई। केंद्र सरकार ने हमारे मेहनतकश लोगों की रक्षा करने के बजाय उन पर दुनिया में सबसे कठोर प्रतिबंध लगा दिए ताकि सरकार उनकी आड़ में मेहनतकशों के खिलाफ और कॉरपोरेट्स के पक्ष में कानून पारित कर सकें। 3 कृषि कानून और चार श्रम संहिताएं (कोड) इसके उदाहरण हैं और इसी तरह के हमले विभिन्न रूपों में जारी हैं। इन नीतियों के परिणाम स्वरूप, मेहनतकश लोग दो वक्त के भोजन को लेकर चिंतित थे, जबकि अंबानी, अदानी और अन्य कॉरपोरेट ने इस अवधि में बहुत बड़ी संपत्ति अर्जित की और उनमें से कुछ ने महामारी के हर मिनट में 2 करोड़ रुपये कमाए।’’


तो मुट्ठी भर धनकुबेरों की अमीरी का यह आलम है! इसकी और जितने भव्य और सारगर्भित तरीके से व्याख्या व आलोचना की जा सकती है, की जानी चाहिए। मसला मजदूरों-मेहनतकशां के समक्ष वास्तविक आह्वान का है जिसमें ये यूनियनें 1991 से लेकर आज तक फिसड्डी ही साबित हुई हैं। ये एक-एक कदम पीछे हटती गईं और पूंजीपति वर्ग एक-एक कर के हमारे सारे किले फतह करता गया। आज स्थिति यह है कि मजदूर वर्ग पर आर्थिक मार ही नहीं राजनीतिक मार भी तेज हो चुकी है। सारे श्रम अधिकार खत्म कर दिये गये और यूनियन बनाने और हड़ताल करने के अधिकार से भी मजदूर वर्ग को वंचित करने की पूरजोर कोशिश जारी है। जल्द ही मजदूरों के समग्र राजनीतिक अधिकारों पर भी मोदी सरकार हमला बोलेगी इसके संकेत साफ तौर पर आ रहे हैं। लेकिन ये यूनियनें अभी तक विरोध और संघर्ष के नाम पर मिमियाने (टोकेनिज्म) से आगे बढ़ने को तैयार नहीं हैं। आइए, इनके प्रस्ताव में मजदूर-मेहनतकश वर्ग के समक्ष वास्तविक आह्वान क्या किया गया है इसे देखें। प्रस्ताव कहता है -‘‘ यह हमें कहाँ ले जाता है? हमारे विरोधों ने अब तक क्या हासिल किया है? याद रखें, कुल्हाड़ी के एक झटके में एक पेड़ कभी नहीं काटा जा सकता है। इसके लिए अनेक प्रयासों की आवश्यकता होती है।’’


यहां स्पष्ट है कि ‘हमारे विरोधों ने अब तक क्या हासिल किया है‘ जैसे प्रश्न का कोई ठोस जबाव इनके पास नहीं है। और ‘‘अब तक’’ का यहा अर्थ दो-चार सालों के कोई छोटे काल से नहीं है, तीन दशकों के एक अत्यंत लंबे दौर से हैं। मजदूर वर्ग पर ताबड़तोड़-कमरतोड़ हमलों की शुरूआत (1991 से लेकर आज तक) के कुल तीन दशक हो चुके हैं। सवाल है तब से ये कुल्हाड़ी हाथ में लेकर ये कर क्या रहे हैं? पेड़ काटना होता तो अब तक काट देते! लेकिन इसके लिए हाथ में कुल्हाड़ी लेकर पेड़ (यहां शासक पूंजीपति वर्ग समझें) के समक्ष मिमियाना-गिड़गिड़ाना नहीं उस पर वार करना होता है। आखिर और कितने दिन इन्हें चाहिएं ‘पेड़’ को काटने के लिए?


बेरोजगारी का आलम यह है कि महामारी के दौरान एकमात्र अप्रैल में 1.7 लाख लोग प्रति घंटे की दर से बरोजगार हुए। जुलाई माह में 32 लाख सैलेरी पर कार्यरत लोग बेरोजगार हो गये। गरीबी के विस्तार का आलम यह है कि और 23 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले चले गये और भुखमरी की आग एक कोने से दूसरे कोने तक और यहां तक कि मध्यवर्ग के एक नीचले हिस्से तक जा पहुंची है। छोटे-मंझोले व्यापारी व कारखानेदार सहित अन्य सभी दरमियानी वर्ग आर्थिक संकट के कारण भारी तबाही झेल रहे हैं। क्या यह वक्त रस्मअदायगी से आगे निकलने का नहीं है? क्या यह वस्त मजदूर वर्ग के लिए संशोधनवाद-सुविधावाद की सीमाओं की कैद से बाहर निकल फैसलाकुलन संघर्ष का आह्वान का नहीं है? कुलमिलाकर, क्या यह समय ट्रेड यूनियन आंदोलन में पूंजीवाद की जगह नये समाज के गठन को केंद्र रखते हुए राजनीतिक क्रांतिकारी भंडाफोड़ करने का नहीं है? शासक वर्ग (पूंजीपति वर्ग) द्वारा पैदा किये गये आर्थिक संकट का बोझ आखिर मजदूर वर्ग कब तक अपने कंधों पर उठाये रखेगा मजदूर वर्ग सहित इसकी तमाम शक्तियों को इस पर विचार करना चाहिए, जबकि पूंजीपति वर्ग की तिजोरियों में मेहनतकशों के खून-पसीने की कमाई और भी तेजी से भरती जा रही हैं। इस पर विचार करना आवश्यक है कि ट्रेड यूनियन आंदोलन को क्रांतिकारी प्रचार से किस तरह जोड़ा जाए। इसके बिना आज स्थाई पूंजीवादी आर्थिक संकट व मंदी के काल में रस्मी ट्रेड यूनियन आंदोलन से न तो मजदूर वर्ग पर हो रहे हमले रूकेंगे, न ही मजदूर वर्ग जिस तरह की पूंजीवादी दासता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है उससे ही मुक्ति का कोई रास्ता प्रशस्त होगा। मजदूरे वर्ग के बीच क्रांतिकारी प्रचार का मूल राजनीतिक लक्ष्य व उद्देश्य पूंजीपति वर्ग को राज्यसत्ता से हटाने की जरूरत और मजदूर वर्ग को राज्यसत्ता के शीर्ष पर बैठाने की आवश्यकता को ठोस तार्किक तरीके से प्रस्तुत करके ही पूरा किया जा सकता है।


बैठक में पारित प्रस्ताव में अंतिम आह्वान को क्रांतिकारी दिखने लायक बनाने की कुछ कोशिश की गई है, लेकिन आर-पार की लड़ाई, यहां तक कि कानूनी-ट्रेडयूनियनवादी स्तर वाली आर-पार की लड़ाई के प्रति भी अनिच्छा इसमें साफ-साफ झलक जाती है। और यह अनिच्छा ऊपर से आती है, जबकि नीचे की कतारों में आर-पार की लड़ाई के लिए उत्कट इच्छा दिखाई देती है। जब ऊपर के नेताओं में ऐसी किसी तैयारी के भाव व इच्छा का अभाव दिखाई देता है तो स्वाभाविक है कि कुछ उपाय न देख नीचे के बहादुर कतारों में भी पस्तहिम्तती घर कर जाती है। प्रस्ताव कहता है –
‘‘इन मांगों को लेकर सभी राज्यों में पन्द्रह दिनों का सघन अभियान, 9 अगस्त को सभी स्तरों पर व्यापक लामबंदी के साथ “भारत बचाओ दिवस“ के नारे के साथ राष्ट्रव्यापी विरोध में परिणत होना समय की मांग है। देश की संप्रभुता और आत्मनिर्भरता के लिए खतरा पैदा करने वाली केंद्र सरकार की राष्ट्र-विरोधी नीतियों को रोकने और उलटने के लिए हमें कई दिनों की हड़ताल सहित देशव्यापी क्षेत्रीय हड़तालों, आम हड़तालों के लिए तैयार रहना होगा।’’


9 अगस्त आने वाला है, लेकिन जिस ‘‘पंद्रह दिनों के सघन अभियान’’ की बात की गई है वह कहीं नहीं दिखता है। अंतिम दो दिनों में कुछ रस्मी कार्यक्रम होंगे और इसे ही राष्ट्रीय स्तर का सघन अभियान कह दिया जाएगा। जाहिर है, सरकार इस टोकेनिज्म को न सिर्फ समझती हैं अपितु इसे तीन दशकों से होते भी देख रहे हैं। जाहिर है उनका हमला न तो पहले ऐसे किसी रस्मी आह्वान से रूका है और न आगे ही रूकने की संभावना है।


दूसरी बात, प्रस्ताव में ऐसे सघन अभियानों के ‘‘राष्ट्रव्यापी विरोध में परिणत’’ होने की बात की गई है। लेकिन इसके लिए उचित ठोस आह्वान की जरूरत होती है जिसे कहने की कोशिश की गई है लेकिन हिचकिचाहट और अनिच्छा दोनों अगले वाक्य में साफ नजर आती है। ये नीतियों को उलटने की बात कहते है, उस व्यवस्था या पूंजीवादी राज्यसत्ता को नहीं जो इन नीतियों को जन्म दे रही है। और फिर एक गोल-मटोल बात एक अस्पष्ट वाक्यांश के माध्यम से पेश कर दिया जाता है – ‘‘हमें कई दिनों की हड़ताल सहित देशव्यापी क्षेत्रीय हड़तालों, आम हड़तालों के लिए तैयार रहना होगा’’। दरअसल ऐसी पूरी कच्ची-पक्की कवायद नीचे के लड़ाकू कतारों से अपनी नाकामियो की आलोचना में उठ रही आवाजों तथा क्रांतिकारी हलकों से आ रही आलोचनाओं के स्वर को कुंद अथवा प्रभावहीन करने के उद्देश्य से की गयी प्रतीत होती है।
इन केंद्रीय यूनियनें व फेडरेशनों की ओर ऐसे खोखले शब्द व आश्वासन हमेशा से दिये गये हैं, जैसे कि तैयार रहने का आह्वान। लेकिन ऐसे आह्वान को जमीन पर उतारना इनकी लंबी सुविधापरस्ती वाली दिशा के कारण इनके लिए मुश्किल हो गया है। ये थोड़ा बहुत करना चाहते भी होंगे तो इन्हें अब मुश्किल हो रही है। इनके द्वारा वास्तव में दिये गये देशव्यापी हड़ताल के आह्वानों तक में इन यूनियनों के नेताओं की सुस्ती व रस्मी तैयारियों को हम देख चुके हैं। फिर जब ये नारे व आह्वान जमीन पर इनकी अनिच्छा या सुस्ती के कारण नहीं उतर पाते हैं तो फिर यह कहना आसाना हो जाता है कि ‘‘हमने तो कॉल दिया, लेकिन मजदूर ही लड़ने को तैयार नहीं हैं।’’ जबकि ऐसा कई बार हुआ है कि मजदूर इनकी आशा के विपरीत कई गुना तैयारी और जोश के साथ इनके आह़वानों पर अमल किये हैं और तब इन्हें ही पीछे हटते देखा गया है, कभी बीएमएस के साथ (विगत इतिहास में) संयुक्त आंदोलन के नाम पर तो कभी दूसरे बहानों के बहाने। इनके वास्तविक आह्वानों के हस्र की व्याख्या एकमात्र इसी तरह की जा सकती है। आज तो स्थिति कई स्तरों पर कठिनाइयों से भर गई हैं। इन तीन दशकों में ये सभी यूनियनें अपनी विश्वसनीयता भी खो चुकी हैं, हालांकि जब भी इन्होंने कोई देशव्यापी कॉल दिया है और थोड़ी भी मिहनत जमीनी प्रचार में झोंकी है तो इनकी ऊपरी ठोस तैयारी के बिना भी मजदूर व आम लोगों ने अविश्वसनीय पहल तथा लड़ाकुपन दिखाया है। यह एक ऐसा तथ्य है जो इनकी नाकामियों की बात को पुख्ता करती है। ये खुद ही एक सीमा के आगे आह्वान करने से डरते हैं।


II
‘भारत बचाओ’ नारे का मजदूर वर्गीय संदर्भ
हमारा स्पष्ट मत है कि आर्थिक संकट जाने वाला नहीं है, इसलिए बड़ी पूंजी द्वारा पूरे देश की जनता पर गुलामी थोपने के प्रयासों तथा विस्तार लेती गरीबी और भुखमरी का सवाल पूंजीवाद के विरूद्ध फैसलाकुन संघर्ष से ही हल होगा, इसलिए ट्रेड यूनियन आंदोलन को पूंजीवाद विरोधी क्रांतिकारी संघर्ष व प्रचार को ‘‘भारत बचाओं’’ नारे के केंद्र में होना चाहिए। आर्थिक संकट में फंसी पूंजीवादी व्यवस्था को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि गुलामी, गरीबी, बेरोजगारी तथा भुखमरी का दंश बढ़ेगा और पूंजीवादी शासकों में यह प्रवृति तेज होगी सरकार चाहे जिसकी भी। वैसे नरेंद्र मोदी की सरकार पर ही बड़े पूंजीपति वर्ग को भरोसा है। इसके जैसी आज्ञाकारी सरकार को भला कोई सरकार क्यों हटायेगी?
सरकार इसका ढोल पीट रही है कि इसने गरीबों को पीडीएस के माध्यम से पांच किलो मुफ्त अनाज की सहायता दी है। क्या इससे यह तथ्य छुप जाता है कि अनाज के भंडारण और व्यापार पर सरकार अडानी जैसे बड़े इजारेदार पूंजीपतियों का एकाधिकार देने जा रही है? सवाल यह भी है कि हमें इसे कैसे चित्रित करना चाहिए। क्या हमें भी इनके पीछे चलते हुए इनके पांच किलो की जगह बस दस किलो की मांग करनी चाहिए या इस तरह के तुच्छ सुधारवादी कदमों का भंडाफोड़ भी करना चाहिए। जैसे कि महज कुछ महीनों के लिए पांच या दस किलो अनाज की मांग से आखिर सार्थक रोजगार के बिना तबाह जीवन को पटरी पर कैसे लाया जा सकता है? वैसे भी, क्या गरीबों को सिर्फ पेट होता है? वे जानवर नहीं हैं, उनकी अन्य तरह की आवश्यक जरूरतें भी होतीं हैं। पेट भी सिर्फ अनाजों से नहीं भरता है। अन्य चीजें भी चाहिए होता है जिनके दाम आसमान छू रहे हैं। उन्हें कपड़े चाहिए। दवा व इलाज के लिए पैसे चाहिए। काम की खोज में जाने के लिए भाड़ा के पैसे चाहिए।
सरकार द्वारा प्रदत्त पांच किलो मुफ्त अनाज की सहायता की असलियत भी समझने की जरूरत है। इसमें भयंकर अनियमितता और भ्रष्टाचार के मामले तो लगातार उजागर हुए ही हैं, इसके अलावे सड़े अनाज की सप्लाई की शिकायतें भी इस बीच खूब आईं। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि, जैसा कि अर्थशास्त्री रीतिका खेरा, मेघना मुंगीकर ंऔर ज्यां द्रेज के द्वारा किये गये एक अध्ययन से खुलासा हुआ है, लगभग 10 करोड़ अतिरिक्त गरीब लोग पुराने पड़ चुके डाटाबेस के अपडेट नहीं होने की वजह से इस मामूली व तुच्छ सहायता से भी लगातार वंचित हो रहे हैं। चंद सालों में सरकार की कमिटियां इसे भी खत्म करने का सुझाव दे रही हैं और मोदी सरकार ने इन सुझावों पर अमल करना भी स्वीकार करते काम करना शुरू कर दिया है। इस बात पर भी गौर फरमाने की जरूरत है कि आज गरीब-मंझोले किसान व मजदूर ही नहीं, पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय बेरोजगार युवा भी निराश, आहत और अवसाद से भरे खराब मनोदशा के शिकार हो आत्महत्या की तरफ बढ़ने को विवश हो रहे हैं। धनी किसानों का एक तबका भी अपनी पुरानी स्थिति को बनाये रखने में अक्षम है। इसका अर्थ है संकट बहुत गहरा और तीखा है और मजदूर-मेहनतकश तबके की बोटी-बोटी नोचकर उससे मुनाफा निचोड़ने में पूंजीपति वर्ग लिप्त है। वहीं दूसरी तरफ अन्य दरमियानी वर्गों की स्थिति भी खराब होती जा रही है।


इन सब बातों का आखिर क्या क्रांतिकारी अर्थ है? यही कि मजदूर वर्ग अगर क्रांतिकारी नेतृत्व के अंतर्गत संगठित हां तो पूंजीपति वर्ग के भिन्न छोटे-मंझोले संस्तरों में मची इस भगदड़ का फायदा उठाते हुए एक फैसलाकुल संघर्ष का आह्वान कर सकता है और करना चाहिए और ट्रेड यूनियन आंदोलन को एक क्रांतिकारी संघर्ष को आगे बढ़ाने में एक मुकम्मल भूमिका निभाने की ओर अग्रसर करना चाहिएं। इसके माध्यम से हम जनांदोलन में मजदूर वर्गीय पहलकदमी को शीर्ष पर ले जा सकते हैं और इस तरह बड़ी पूंजी की तानाशाही और लोगों को गुलामी में धकेलने की रणनीति के विरूद्ध एक करारा पलटवार किया जा सकता है। इस अर्थ में, और एकमात्र इसी अर्थ में, इन केंद्रीय यूनियनों की आज के ‘‘दूसरी आजादी की लड़ाई’’ या ‘‘भारत बचाओं’’ जैसे आह्वानों का मजदूर वर्ग तथा आम जनता के लिए कोई महत्व है, अन्यथा अगर वे इसे पुराने तर्ज पर या बुर्जुआ दलों के नारे के साथ इसका घालमेल करते हैं तो यह नारा मजदूर वर्ग के साथ गद्दारी का ही प्रतीक है, जबकि जरूरत इस बात की है कि मजदूर वर्ग की पहलकदमी और वैचारिक व राजनीतिक नेतृत्व को हर जगह स्िापित करना किसी भी जनवादी आंदोलन को प्रभावी अंत तक ले जाने की पहली शर्त बन चुकी है। ‘‘भारत बचाओ‘‘ जैसा नारा अगर देशी व विदेशी पूंजीपति वर्ग की गुलामी से देश व देश की आम जनता को बचाने और पूंजीवाद से अलग शोषणरहित समाज के निर्माण की लड़ाई में मजदूर वर्ग के नेतृत्व को स्थापित करने के लिए दिये गये आह्वान को प्रतिबिम्बित करता है तो निश्चय ही इसका भारी महत्व है। इसका अर्थ है सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि इसमें अंतिम आह्वान का प्रस्तुतीकरण कैसे किया गया है। अगर यह नारा जनता के बीच लोकप्रिय नारे का स्वरूप ग्रहण करता है तो मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी शक्तियों का फर्ज बनता है कि पूंजीवादी व्यवस्था के विरूद्ध तबाह व परेशान जनता के मन में उमड़-घुमड़ रहे समस्त आक्रोश व गुस्से का वे प्रतिनिधित्व करें। सारे पक्षों को एक दूसरे से व आदमखोर बड़ी इजारेदार पूंजी की सत्ता को हटाने के केंद्रीय प्रश्न से पूरी दक्षता के साथ जोड़ना चाहिए, खासकर करके तब जब आम जनता के बीच वैकल्पिक व्यवस्था की बात व प्रचार को स्वीकृति मिल रही है।
मई 2014 के बाद केंद्र में स्थापित मोदी सरकार के अब तक के कारनामों से यह स्पष्ट है कि इसकी नीतियां मजदूर व किसान विरोधी या जनविरोधी ही नहीं देशविरोधी भी हैं। इसका क्रांतिकारी प्रस्तुतीकरण हम कैसे करें यह एक महत्वपूर्ण सवाल है जिसे अक्सर भुला दिया जाता है। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान औक्सीजन की कमी के कारण हुई मौतों की संख्या को पहले तो कम कर के बताया गया। फिर बाद में संसद की बहस में बेशर्मी से यह कहा गया कि औक्सीजन की कमी से किसी की मौत नहीं हुई है। ऐसी शर्मनाक बातों से देश का नाम पूरे विश्व में खराब हुआ और हमारी किरकिरी हुई। पूरे विश्व में इसने जिस तरह से अमेरिकी साम्राज्यवाद और इसके इजरायल जैसे पिट्ठुओं के साथ पूरी निर्लज्जता से हाथ मिलाने का काम किया है, जिस तरह से साम्राज्यवादी शोषण व उत्पीड़न विरोधी मुखर होते विश्व जनमत का अनादर किया है उससे विश्व की लोकप्रिय जनभावना से हमारे देश के अलगाव में पड़ने का खतरा उपस्थित हो गया है जिसका खामियाजा अंततः देश की आम जनता को ही उठाना पड़ेगा। इससे भी देश की छवि पहले से और ज्यादा खराब हुई है। जनता के विकास के सारे सामाजिक सूचकांक नीचे गिरते जा रहे हैं। कुपोषण से बच्चों की होने वाली मौतों में हम और अव्वल आये हैं! दूसरी तरफ, हमारी सदियों की गंगा-जमुनी तहजीव को इस सरकार ने लगातार खंडित करने तथा भाषा और धर्म के झगड़े को उकसाने का काम कर रही है। असम और मिजोरम के बीच जो कुछ हो रहा है उससे यह साफ है कि अब यह सरकार वोटों के लिए जानबूझ कर प्रांतों के बीच भी हिंसक झगड़े शुरू करवाने वाली है। पूरे देश को प्रतिक्रियावादी विग्रह, कलह और हिंसा में ये झोंकने पर आमादा हैं। इस सरकार जनभावना, जनमत तथा जन सरोकार के पूर्ण अनादर व उपेक्षा तथा धार्मिक घृणा, भाषाई विद्वेष व अल्पसंख्यक विरोध पर आधारित है। अभी हाल में इजरायल से खरीदे गये सॉफ्टवेयर (हथियार) पेगासस द्वारा देश के जजों, संवैधानिक पदों पर आसीन उच्चधिकारियों, पत्रकारों, एक्टिविस्टों, बुद्धिजीवियों, नेताओं (जिसमें सरकारी पक्ष के नेता व मंत्री भी शामिल हैं) की जासूसी के विवाद में सरकार ने संसद में बहस तथा जांच से इनकार करके देश की छवि को गिराने में रही-सही कसर पूरी कर दी।


एक तरफ घोर निरंकुश फासीवाद सरकार और दूसरी तरफ बड़ी पूंजी के बढ़ते एकाधिकार व इजारेदारी ने पूंजीवादी व्यवस्था के अंदर के सारे अंतर्विरोधों को तेज कर दिया है और उनके बीच भयंकर विग्रह की स्थिति खड़ा कर दी है। देश के संवैधानिक संघीय ढांचे पर एक नया सहकारिता मंत्रालय बनाकर एक और बड़ा हमला किया है। इसके पहले सरकार ने जीएसटी के द्वारा राज्यों की आर्थिक ताकत को अपने हाथ में लेकर भी हमला किया था। इसी तरह विमुद्रीकरण से देश की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ने का काम यह पहले ही कर चुकी है जिसका खामियाजा देश की मजदूर-मेहतनकश जनता बेरोजगारी के रूप में अब तक उठा रही है। संसदीय मानदंडों व संघीय ढांचे के प्रति दिखावे के लिए भी इस सरकार के मन में कोई आदर नहीं है। पूंजीवादी संसदीयता, जनवाद और जनतंत्र के पूरे आवरण को इस फासिस्ट सरकार ने तार-तार कर दिया है। पूंजी की तानाशाही आज खुले रूप में स्थापित दिखती है जो कल तक जनवाद और जनतंत्र के परदे के पीछे छुपी हुई थी। इसका दूसरा अर्थ देश की अर्थव्यवस्था पर बड़ी वित्तीय पूंजी का वर्चस्व भी है जो मोदी सरकार के नेतृत्व में पूरे जोर-शोर से कायम हो रहा है या हो चुका है। पूंजीवादी व्यवस्था में बड़ी पूंजी का प्रभुत्व अवश्यंभावी होता है और वही होगा जब तक कि पूंजीवादी व्यवस्था को नहीं उखाड़ फेंका जाता है। यही कारण है कि अन्य दरमियानी वर्ग भी मोदी सरकार से नाराज हैं और आर्थिक परेशानी में वे इसका विकल्प खोज रहे हैं। जाहिर है मजदूर वर्गीय विकल्प उनको स्वीकार नहीं होगा, लेकिन मजदूर वर्ग उनके अंतर्वर्गीय विग्रहों का अपने क्रांतिकारी आंदोलन को आगे बढ़ाने में इस्तेमाल जरूर कर सकता है और करना चाहिए। कुल मिलाकर लोकतंत्र व प्रगतिशील तथा न्याय की अवधारणा के प्रति घोर अनादर, राज्यों पर केंद्र की असीम प्रभुसत्ता थोपने के प्रति झुकाव, तानाशाही थोपने की प्रवृति, मजदूरों-किसानों पर जबरन पूंजीपक्षीय व कॉर्पोरेटपक्षीय कानून थोपने के अतिरिक्त प्रशासनिक कार्रवाई व आदेशां के माध्यम से जनवादी व संवैधानिक अधिकारों पर हमला करना, चुनावी बांड से गुप्त तरीके से पार्टी के लिए बड़े पूंजीपतियों से धन इकट्ठा करना, पीएम केयर्स फंड का दुरूपयोग और घोटाला करना, सबसे बुरे आर्थिक संकट के दौर में भी सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को लागू करना, नरेंद्र मोदी की शहंशाही तथा व्यक्तिगत प्रचार पर फिजुलखर्ची के लिए जनता की गाढ़ी कमाई को लुटाना, पूरे देश पर चंद कॉरपोरेट का एकाधिकार थोपने के लिए किसी हद तक जाकर जनतंत्र के बचे-खुचे ढांचे को नेस्तनाबूद करने की लगातार कोशिश करना तथा इन सबसे जनता का ध्यान भटकाने के लिए जनमानस में संकीर्ण से संकीर्ण राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता तथा भ्रातृघातक विद्वेष का जहर उड़ेलना और अपने विरोधियों को देशद्रोह के कानून तथा यूएपीए जैसे संगीन आतंकनिरोधी कानूनों में फंसाना, ईडी, सीबीआई और एनआइए का राजनीतिक इस्तेमाल करना, चुनी हुई सरकारों को गिराना, जनांदोलनों को बदनाम करना, नेताओं व संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों को ब्लैकमेल करना इत्यादि – ये सब ही आज मोदीमार्का फासीवादी सरकार शासन की मुख्य पहचान बन चुके हैं। कुल मिलाकर आज यह स्पष्ट हो चुका है कि मोदी सरकार देश के लिए, लोकतंत्र के लिए और सबसे बढ़कर देश की मेहनतकश अवाम के लिए पूरी तरह खतरनाक बन चुकी है। यह आज पूरी तरह जनता की बर्बादी का प्रतीक बन चुकी है और लोगों के गुस्से के निशाने पर भी है। ऐसे में आगामी चुनावों में, खासकर लोकसभा चुनावों में जीत हासिल करने के लिए वह घृणित से घृणित तिकड़म, दंगों व हिंसा का सहारा लेगी इसमें संदेह नहीं होना चाहिए। यूपी के लोकल निकायों के चुनावों में बड़े पैमाने पर संभावित हार को रोकने के लिए जिस तरह विरोधियों का जबरना पर्चा भरने से हिंसा के जरिए रोका गया, अगर उसे संकेत माना जाए तो आगामी लोकभा के चुनावों में इनके द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले एक से बढ़कर एक तिकड़मों के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है। यही कहा जा सकता है कि मोदी सरकार कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के हितों को आगे बढ़ाने के लिए किसी भी सीमा तक जाकर फासीवादी हमला और षडयंत्र रचने का काम कर सकती है।
जनता के उपयोग की सारी चीजों (दाल, खाने के तेल, आटा, फल, सब्जियां, रसोई गैस, दवा, पेट्रोल-डीजल आदि) के दाम आसमान छू रहे हैं। बड़े पूंजीपति जैसे अडानी-अंबानी खुलकर जहां तक संभव है वहां तक सट्टेबाजी में लिप्त हैं। दाल व खाद्य तेल के दाम इसके कारण ही इतने अधिक तेजी से बढ़े हैं। कृषि कानूनों के जरिये खेती व खेती की उपज पर इजारेदारी कायम करने का एक बड़ा लक्ष्य है पूरे पैदावार की जमाखोरी करना और फिर आपूर्ति को नियंत्रित करते हुए इनकी सट्टेबाजी में लिप्त रहना। पेट्रोल-डीजल तथा रसोई गैस आदि की दामवृद्धि की बात करें तो सरकार द्वारा लगातार लादे जा रहे अप्रत्यक्ष करों का इसमें सबसे बड़ा हाथ है। विश्व बाजार में कच्चे पेट्रोलियम का दाम कम होने के बावजूद भारत में पेट्रोल 100 के पार हो चुका है, डीजल भी सेंचुरी लगाने वाला है और रसोई गैस 900 तक पहुंचने वाला है। इसने बेरोजगारी से तबाह गरीब-मेहनतकशों के बीच शहर और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में भुखमरी का आलम पैदा कर दिया है। विभिन्न रिपोर्टें बताती हैं कि इस बार भोजन की कमी की चपेट में मध्यवर्ग का एक हिस्सा भी आ चुका है।


आर्थिक संकट की गहराई और इसके विस्तार का आलम के बीच तमाम अर्थशास्त्रियों की इस पूंजीपक्षीय सलाह को भी दरकिनार कर दिया गया कि आयकर भुगतान के दायरे में नहीं आने वाली आबादी को भुखमरी से बचाने और सिकुड़ती अर्थव्यवस्था में खपत और मांग बढ़ाने हेतु नकद सहायता प्रदान की जाए। केंद्रीय यूनियनों की यह बात सही है कि ‘‘उल्टे सरकार अमीर लोगों को सस्ता ऋण, ऋण गारंटी और उनके मुनाफा बढ़ाने के उपाय करती रही, और दूसरी तरफ और भी तेजी से लॉक डाउन का फायदा उठाते हुए सरकारी प्रतिष्ठानों (विनिर्माणः बीपीसीएल, आयुध कारखानों, स्टील; बिजलीः कोयला, बिजली; सेवाएंः रेलवे, एयर इंडिया, हवाई अड्डे; वित्तीय क्षेत्रः बैंक, एलआईसी, जीआईसी; कृषि और भंडारण) के निजीकरण करती रही। तमाम तरह के मजदूर विरोधी, किसान विरोधी तथा जनविरोधी कानून इसी बुरे दौर में सरकार ले कर आई।’’ केंद्रीय यूनियनों की विगत उपरोक्त 8 जुलाई की बैठक के प्रस्ताव में यह ठीक ही कहा गया है कि ‘‘2021 आधा बीत चुका है, लेकिन मेहनतकश लोगों के प्रति मोदी सरकार की बेरुखी और अहंकार और उसके परिणामस्वरुप लोगों के अधिकारों और आजीविका पर हमले कमने के बजाय कई गुना बढ़ गए हैं। 30 जुन 2021 को, इस सरकार ने आवश्यक रक्षा सेवा अध्यादेश, 2021 (म्क्ैव्) जारी किया, जो किसी भी तरह से “रक्षा सेवाओं“ को बाधित करने पर (यहां तक कि ओवरटाइम करने से इनकार करने पर भी) किसी को भी एक साल के लिए सलाखों के पीछे डालने, 10000/- का जुर्माना लगाने और बिना पूछताछ व आगे जांच के बर्खास्तगी की धमकी देता है। जबकि ऐसी कार्रवाई के लिए उकसाने वालों पर दो साल की जेल और रु. 20000/-जुर्माने का प्रावधान है। ईडीएसओ के प्रावधान सभी बुनियादी श्रम अधिकारों को खत्म करने के लिए बनाये गये कुख्यात चार श्रम संहिताओें से भी अधिक खतरनाक हैं।’’


आखिर ये सरकार और इनके ये उपरोक्त कदम हमें कहां ले जाते हैं? कहां ले जा रहे हैं? उत्तर स्पष्ट है कि सरकार मुट्ठी भर बड़े इजारेदार पूंजीपतियों की गुलामी की ओर देश को ले जा रही है। इसलिए समय की मांग है कि हम आगे बढ़ते हुए पूरे देश के पैमाने पर एक फैसलाकुल संघर्ष तथा उभरते हुए स्वयंस्फूर्त गुस्से से भरे जनांदोलनों का नेतृत्व देने के लिए के लिए तेज कदमों से आगे बढे़। हमें वर्तमान जनतंत्र को बचाने के क्रम में इतिहास के अगले पायदान पर कदम बढ़ाते हुए, यहां रूकने या एक ही जगह कदम दाल करने के बजाय असली, पूंजी के वर्चस्व से मुक्त तथा सभी तरह के शोषण के मूलाधार को खत्म करने वाले सर्वहारा जनतंत्र की लड़ाई तेज करनी चाहिए। वर्तमान को बचाते हुए हमें भविष्य के उस समाज के निर्माण पर नजर रखनी होगी जहां किसी भी तरह का कोई शोषण नहीं होगा और इसलिए जहां ऐसे जनविरोधी कानूनों के लिए कोई जगह भी नहीं होगी।


इसलिए हम केंद्रीय यूनियनों से और मजदूर वर्ग से अपील करते हैं : आइए, मेहनतकशों की व्यापक एकजुटता कायम करें और नये सुंदर व शोषणरहित समाज के लिए संगठित हों। हम कल भी चुप नहीं थे, आज भी चुप नहीं हैं और कल भी चुप नहीं रहेंगे। जरूरत है आधे-अधूरे मन व उत्साह को पूर्ण बनायें और पस्तहिम्मति त्याग कर पूरे जोशो-खरोश से मजदूर वर्ग पर हो रहे हमले का मुकाबला करने की और इस अहम मुकाबले को फेसलाकुल लड़ाई तक पहुंचाने के लिए इसे इसकी तार्किक परिणति तक ले जाने की। हम क्रांतिकारी शक्तियों से अपील करते हैं : आइए, ट्रेड यूनियन आंदोलन के कतारों के बीच क्रांतिकारी प्रचार व संघर्ष को तेज करें और मजदूर-मेहनतकश वर्ग के क्रांतिकारीकरण की प्रक्रिया को तेज करने के लिए ठोस व्यवहारिक कार्यभार तय करें। मजदूर वर्ग ने लॉकडाउन की अवधि में भी इन नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन किये हैं। कोयला, आयुध कारखानों और योजना श्रमिकों द्वारा हड़तालें की गईं। दर्जनों अन्य संघर्ष किये हैं, लेकिन सवाल इन सारे संघर्षों को को एकजुट करने और केंद्रीकृत लड़ाई का आगाज करने का है। हमारे पास कोई तैयारशुदा रास्ता नहीं है और आपसी विखंडन व विभाजन से भी काफी पीड़ित है, ऐसे में हमें व्यवहार में ठोस एकता और क्रांतिकारी प्रचार की स्वतंत्रता के साथ मजबूती के साथ मजदूर वर्ग को एक संघर्षशील संयुक्त झंडे के बीच एकजुट करने का काम हाथ में लेना होगा। किसान आंदोलन ने पूंजीपति वर्ग के अंदर के अंतर्विरोधों को तेज कर दिया है। जमीनी रिपोर्ट है कि आंदोलन और तेज होगा क्योंकि व्यापक किसानों की माली हालत अत्यंत खराब है और वे भविष्य के कॉर्पोरेट दखल से होने वाली तबाही को देख व समझ रहे हैं। मजदूर वर्ग के लिए फैसलाकुल संघर्ष की राह पर चलने का निर्णय लेने का यह भी एक कारण है व उचित अवसर है।


आगामी 9 अगस्त के देशव्यापी प्रतिरोध के लिए मजदूर वर्ग की निम्नलिखित मांगों का हम भरपूर समर्थन करते हैं तथा केंद्रीय यूनियनों से हम आगे के हमलों को देखते हुए और भी ठोस आह्वान करने की अपील करते हैं।

  1. मजदूर विरोधी श्रम संहिताओं और जनविरोधी कृषि कानूनी और बिजली संशोधन विधेयक को रद्द करो।
  2. रोजगार खत्म होने और आजीविका के मुद्दे पर ध्यान दें, अधिक रोजगार सृजित करें, तालाबंदी के दौरान या अन्यथा उद्योगों / सेवाओं / प्रतिष्ठानों में छंटनी और वेतन कटौती पर प्रतिबंध लागू करें। सरकारी विभागों में रिक्त स्वीकृत पदों की पूर्तिकरे, प्रतिवर्ष ३४ लाइव रिक्त पद का समर्पण बंद करें, सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र में नये पदों के सृजन पर प्रतिबंध के आदेश को वापस लें।
  3. मनरेगा पर बजट बढ़ाएँ, काम के दिन और पारिश्रमिक बढ़ाएँ।
  4. शहरी रोजगार गारंटी योजना लागू करें। काम के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में संविधान में शामिल किया जाए।
  5. सभी गैर-आयकर भुगतान करने वाले परिवारों के लिए प्रति माह 7500 रुपये का नकद हस्तांतरण सुनिश्चित करें।
  6. अगले छह महीनों के लिए प्रति व्यक्ति प्रति माह 10 किलो मुफ्त खाद्यान्न उपलब्ध हो ।
  7. स्वास्थ्य पर बजट में वृद्धि, सभी स्तरों पर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली का सुदृढ़ीकरण तथा सुनिश्चित करें कि गैर-कोविड रोगियों को सरकारी अस्पतालों में प्रभावी उपचार मिले।
  8. सभी को मुफ्त टीका सुनिश्चित करें। प्रो कॉर्पोरेट टीकाकरण नीति को खत्म करें।
  9. सभी स्वास्थ्य और अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ताओं और आशा और आंगनवाड़ी कर्मचारियों सहित महामारी-प्रबंधन कार्य में लगे सभी लोगों के लिए व्यापक बीमा कवरेज के साथ सुरक्षात्मक गियर, उपकरण आदि की उपलब्धता सुनिश्चित करें।
  10. सार्वजनिक उपक्रमों और सरकारी विभागों के निजीकरण और विनिवेश को रोकें। 11. कठोर आवश्यक रक्षा सेवा अध्यादेश (ईडीएसओ) को वापस लें।
  11. आवश्यक वस्तुओं पेट्रोल-डीजल और गैस आदि की कीमतों में भारी वृद्धि को वापस लें।
  12. 43वें, 44वें और 45वें आईएलसी के निर्णयों को लागू करने के लिए योजना श्रमिकों को, श्रमिक का दर्जा और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करें।
  13. आईएलओ सम्मेलनों 87, 98, 109 आदि की पुष्टि करें।