देश की अर्थव्यवस्था का बुरा हाल

देश की अर्थव्यवस्था का बुरा हाल

September 11, 2021 0 By Yatharth

मध्य वर्ग का एक तबका भी हो रहा मुफलिसी का शिकार

एक बड़ी आबादी भुखमरी के कगार पर

आज अर्थव्यवस्था का अत्यंत बुरा हाल है। मोदी सरकार की बदइंतजामी, नाकामी तथा पूंजी की खुली-नंगी तरफदारी ने आर्थिक संकट को और बढ़ा दिया है। आम लोगों की खस्ताहाल स्थिति बढ़ती जा रही है। पहले की तुलना में एक बहुत बड़ी आबादी भुखमरी के कगार पर पहुंच गयी है। दो वर्ष पूर्व की स्थिति की तुलना में गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वालों में और नये 23 करोड़ लोग जुड़ गये हैं। इतना ही नहीं, साढ़े तीन से चार करोड़ अतिरिक्त लोग नियमित नौकरी से हाथ धो बैठे हैं। इनमें से अधिकांश को फिर से नौकरी मिलने की संभावना भी नहीं है। जब अर्थव्यवस्था आगे बढ़ रही होती है तब भी मजदूरों के दिन अच्छे नहीं होते, लेकिन जब से कोरोना की कहर शुरू हुई है तब से अर्थव्यवस्था तथा आम लोग दोनों की स्थिति अत्यंत नाजुक दौर में पहुंच चुकी है। लोग किसी तरह जिंदा रहने और अगले दिन भोजन का जुगाड़ करने की जद्दोजहद करने के लिए बाध्य हो चुके हैं। यह स्थिति की भयावहता ही है कि आम तौर पर मजदूरों की सुध नहीं लेने वाले पूंजीपतियों की अखबारें तथा उनके शोध संस्थान इन दिनों लोगों की खस्ताहाल होती जिंदगी की रिपोर्ट बहुतायत में छापने लगे हैं। यह उनकी संवेदना या लगाव को नहीं मजबूरी को दिखाता है, क्योंकि अगर वे इतनी नग्न सच्चाई को भी नहीं दिखायेंगे या बतायेंगे, तो उनकी खुद की विश्वसनीयता खतरे में पड़ जाएगी। बड़े पूंजीपतियों के एक नामी अखबार ‘द इकोनॉमिक टाइम्स’ में हाल ही में एक सर्वे आधारित लेख में इस सच्चाई की एक भयावह तस्वीर खींची गयी है जिसमें साफ-साफ कहा गया है कि मुफलिसी और भुखमरी की आग मध्यवर्ग के एक तबके तक पहुंच चुकी है।


अच्छी-भली नौकरी चली गई
न रहने का ठौर, न खाने को राशन-भोजन
मयस्सर नहीं हो रहा बच्चों को दूध

‘द इकोनॉमिक टाइम्स’ ने पिछले दिनों दिल्ली की गुंबद बस्ती में किराये के मकान में अपने तीन छोटे-छोटे बच्चों के साथ रहने वाले एक पारिवारिक जोड़े (चंचल देवी और उनके पति) की कहानी छपी जिसका संदेश साफ है कि संकटग्रस्त पूंजीवाद मजदूरों-मेहनतकशों को ही नहीं मध्य वर्ग के एक तबके को भी भुखमरी से भरे नारकीय जीवन में धकेल दिया है।


चंचल देवी और उनके पति दोनों नौकरी करते थे। हर महीने कुछ बचत भी हो जाया करती थी और जिंदगी मोटे तौर पर ठीक-ठाक चल रही थी। एक तरह से उनका परिवार मध्यवर्ग के नीचले पायदान पर सही लेकिन विकासोन्मुखी था। लेकिन पिछले साल मार्च में कोविड के कारण हुए लॉक डाउन के बाद दोनों की नौकरी एक-एक कर के चली गई। तब से वे दोनों बेरोजगार हैं तथा उनके बच्चों ने पिछले एक साल से दूध का स्वाद नहीं चखा है। नौकरी के अभाव में उनकी आज की स्थिति यह है कि घर में खाने के लाले पड़े हैं और नियमित तौर पर भोजन नसीब नहीं हो पा रहा है। बचत खाते में जो भी पैसे जमा थे खर्च हो गये और अब कर्ज लेकर दो जून की रोटी का जुगाड़ हो रहा है। लेकिन नौकरी नहीं हो तो कर्ज देने वाला भी कब तक कर्ज देगा! कर्ज भी कोई तभी देता है जब कर्ज देने वाले को सूद सहित कर्ज लौटने की उम्मीद हो।
ं चंचल और उनके पति का आज बुरा हाल है। चंचल देवी ने अखबार को बताया – ‘‘मैं रातों को सो नहीं पाती। हर दिन दूसरे वक्त के भोजन के लिए हाथ-पैर मारते-मारते मैं बुरी तरह थक चुकी हूं।’’ ऐसे में उनकी अन्य जरूरतों की बात करना भी बेमानी है। आज चंचल का परिवार दानकर्ताओं के पैसे से चलाये जा रहे भोजन वितरण केंद्रों के भरोसे जी रहा है।


उनकी बस्ती के बगल में प्रवासी मजदूरों की बस्ती है जहां के हालात लगभग ऐसे ही हैं। अधिकांश लोग या तो बेरोजगार हैं या बीच-बीच में बेरोजगार होते रहते हैं। मजदूरी बस किसी तरह जीने-खाने भर मिल जाती है। संसद उनके घर से 20 मिनट की दूरी पर है, लेकिन ऐसे मजबूर लोगों की हालात पर हमेशा की तरह मौन साधे हुए है। सबको पता है, वह आम लोगों की तकलीफें नहीं, बड़े पूंजीपतियों की परेशानियों का हल खोजने में व्यस्त रहती है। शर्मनाक बात यह है कि देश का प्रधानमंत्री अडानी-अंबानी जैसे अपने धनकुबेर यार-दोस्तों की पूंजी बढ़ाने की चिंता में व्यस्त रहता है।


क्या यह कहानी सिर्फ चंचल देवी और उनके परिवार की है? नहीं, यह उनके जैसे करोड़ों अभागे लोगों की है जिनकी नौकरियां इस दौराना छिन गई हैं या जो पिछले कई सालों से बेरोजगार हैं। भुखमरी और कंगाली में हुई भयावह वृद्धि का यह नमूना मात्र है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट बताती है कि इस वर्ष एकमात्र मई के महीने में चंचल जैसे 150 लाख लोग बेरोजगार हो गये। लॉकडाउन की वजह से इन सबकी नौकरियां छिन गईं। यही नहीं, पिछले एक साल में साढ़े तीन करोड़ से अधिक नियमित नौकरी करने वालों की नौकरियां खत्म हो गईं। चंचल या उनका परिवार उन असंख्य अभागे लोगों में से एक है जिनकी बची-खुची आर्थिक जमीन खिसक चुकी है।


किस बात का संकेत है यह रिपोर्ट?


यह रिपोर्ट इस बात का प्रमाण है कि शहरी क्षेत्रों में भी भुखमरी का विस्तार हुआ है जिसकी चपेट में मध्यवर्ग का एक हिस्सा भी आ चुका है। यह एक भयानक तस्वीर है लेकिन सच है। इसी के साथ यह बात याद रखनी चाहिए कि पहले से ही पूरी दुनिया के कुल कुपोषित लोगों की एक तिहाई आबादी भारत में निवास रहती है और इसलिए यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह नयी स्थिति कितनी भयावह है! बड़े शहरों में भोजन वितरण केंद्रों पर लाइन में खड़े होकर अपने और अपने परिवार के लिए भोजन इकट्ठा करने वालों की तादाद इस वर्ष कई गुना बढ़ गई है। चश्मदीद लोगों का कहना है कि उन्होंने अपने जीवन में कभी इतनी बड़ी लाइन नहीं देखी है।
एक स्वयंसेवी संगठन की सदस्या कहती हैं – ‘‘दो लोगों के कमाने वाले परिवारों में भी भोजन के लिए निराशा तथा राशन-भोजन के लिए इतनी लंबी लाइनें एक अद्वितीय स्थिति है।’’

अर्थव्यवस्था और मजदूर वर्ग का हाल


जैसा कि हमें मालुम है, हमारी अर्थव्यवस्था पिछले साल 7.3 प्रतिशत से सिकुड़ गई। इसका अर्थ है कि मजदूर वर्ग का हाल पहले से और खस्ताहाल हुआ है। अर्थव्यवस्था में ग्रोथ हो रहा है अगर तब भी मजदूर वर्ग की जीवन स्थिति खराब हो, तो अर्थव्यवस्था में जब सुस्ती हो या फिर ऋणात्मक विकास हो रहा हो तो मजदूर वर्ग की स्थिति का बहुत ज्यादा खराब होना तय है। पूंजीपति वर्ग अपने गिरते मुनाफे दर की भरपाई मजदूर वर्ग की मजदूरी तथा अन्य तरह की सुविधाओं में कटौती करके करता है। और ठीक ऐसा ही हुआ है। ‘‘अजीम प्रेम जी विश्वविद्यालय’’ द्वारा कराये गये एक शोध अध्ययन के अनुसार ‘‘23 करोड़ भारतीय मजदूरों की दिहाड़ी 375 रूपये से भी नीचे चली गयी है यानी 5 डॉलर से भी कम। अध्ययन में शामिल किये गये 90 फीसदी मजदूरों ने कहा कि लॉकडाउन के कारण वे पहले की तुलना में कम भोजन खाकर जिंदा रह रहे हैं। अध्ययन से यह भी पता चला कि ‘‘प्रतिदिन 5 डॉलर से कम पर गुजारा करने वालों की संख्या मार्च 2020 की तुलना में अक्टूबर 2020 में 29.8 करोड़ से बढ़कर 52.9 करोड़ हो गई है।’’ अजीम प्रेम जी विश्वविद्यालय के ‘सेंटर फॉर सस्टेनेबल एमप्लायमेंट’ के निर्देशक अमित बसोले ने यह साफ-साफ कहा है कि ‘‘अगर पिछला साल ही इतना भयावह था तो इस वर्ष के संकट की गहराई और उसके विस्तार का वास्तविक अंदाजा लगाना और कठिन है।’’ वर्तमान वर्ष के बारे में उनका कहना है कि ‘‘इस साल लोग अपनी बचत खत्म कर चुके हैं और कर्ज चुकाने में लगे हैं। इसलिए हम किसी के भी जनवरी-फरवरी 2020 की आय के स्तर में लौटने की उम्मीद नहीं करते हैं।’’
महामारी में और उसके बाद गिरती मजदूरी व आय
अजीम प्रेम जी विश्वविद्यालय द्वारा कराये गये एक अध्ययन से पता चलता है कि भारत में अमूमन सभी सेक्टर तथा सभी तरह के नौकरीपेशा लोगों तथा स्वरोजगार में लगे लोगों की औसत आय गिरी है। दिहाड़ी पर काम करने वाले भारतीय मजदूरों की औसत मासिक आय 2019 में लगभग 9195 रुपये थी जो 2020 में गिरकर 8025 रुपये हो गई। उसी तरह स्वरोजगार में लगे लोगों की आय उपरोक्त अवधि में ही 15,975 रुपये से गिरकर 13,050 हो गई। अस्थाई और स्थाई दोनों तरह की नौकरी कर रहे लोगों का वेतन वेतन घटा है। जहां अस्थाई नौकरी वालों की वेतन से प्राप्त आमदनी 11,497 से घटकर 9,502 हो गई, वहीं स्थाई नौकरी में लगे लोगों की वेतन से प्राप्त होने वाली आमदनी 29,430 रुपये से घटकर 27,900 हो गई। कुल मिलाकर देखें तो आम लोगों की औसत आय 15,315 से गिरकर 12,712 रुपये हो गई है, यानी लगभग 17 प्रतिशत की गिरावट हुई है।


पंगु होती सरकारी राशन वितरण व्यवस्था


सरकारी राशन वितरण व्यवस्था यानी सरकारी राशन की जन वितरण प्रणाली पर चौतरफा हमला हो रहा है। जहां एक तरफ नये कृषि कानूनों के माध्यम से अनाज के उत्पादन तथा व्यापार में अडानी के पूर्ण नियंत्रण हेतु एफसीआई को धीरे-धीरे नष्ट करने की मोदी सरकार की नीति से सार्वजनिक जन वितरण प्रणाली नीतिगत रूप से खात्मे की ओर बढ़ चली है, वहीं इसके लाभार्थियों का कवरेज पुराने आंकड़ों पर आधारित होने की वजह से (अर्थशास्त्री रीतिका खेरा, मेघना मुंगीकर ंऔर ज्यां द्रेज के द्वारा किये गये एक अध्ययन के मुताबिक) लगभग 10 करोड़ लोग सरकारी राशन वितरण प्रणाली के बाहर रह जाते हैं। पुराने डाटाबेस को ठीक करने की कोई कोशिश सरकार के द्वारा अभी तक नहीं की गई है। यह एक आम शिकायत है कि लोग लाइन में खड़े रहते हैं और राशन दुकान का स्टॉक खत्म हो जाता है।


सिकुड़ता मध्य वर्ग


महामारी के बहुतेरे कुप्रभावों में एक कुप्रभाव मध्य वर्ग के सिकुड़ते साइज के बारे में है और जो दिनोंदिन ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट होते हालात के मद्देनजर एक सही आकलन या अध्ययन ही प्रतीत होता है।
‘इकोनॉमिक टाइम्स’ अखबार लिखता है कि पिछले साल मुंबई में स्वराज शेट्टी ने कुछ और नागरिकों के साथ मिलकर असहाय लोगों के लिए तैयार और सूखा दोनों तरह का भोजन ( जब तक संकट है तब तक) वितरित करने के लिए ‘खाना चाहिए‘ नाम से एक संस्था खोली, लेकिन बाद में देखा गया कि उन्हें मुंबई ही नहीं बल्कि मुंबई से बहुत दूर के शहरों तक इसे फैलाना पड़ा। उनका कहना है कि ‘‘पिछले साल जिन्हें खाना चाहिए था वे प्रवासी मजदूर थे, लेकिन इस साल हम लोग मध्यवर्ग के तबके के लोगों को भी लाइन में खड़े होते देख रहे हैं।’’
‘पिउ रिसर्च सेंटर’ के शोध से तो यह पता चलता है कि ‘‘भारत का मध्यवर्ग, जिसकी आमदनी प्रतिदिन 10 डालर से 20 डालर यानी प्रतिदिन लगभग 750 रुपये से 1500 रुपये है, उसकी संख्या साइज 32 मिलियन यानी 3 करोड़ 20 लाख सिकुड़ गया है। यानी, इतने लोग मध्यवर्ग से गिरकर नीचले तबके में शामिल हो गये हैं।
इसी तरह सार्वजनिक रसोई चलाने वाली सुजाता सावंत का भी मानना है कि उनके यहां भी भोजन की मांग काफी बढ़ी है। उनकी रसोई से खाना प्राप्त करने वालों की संख्या शुरू के प्रतिदिन 300 से बढ़कर 1300 हो गयी है। वे कहती हैं कि ‘‘इतने अधिक संख्या में लोगों को खाना मुहैया हम नहीं करा सकते हैं। संख्या प्रतिदिन बढ़ रही है और बढ़ती कीमत के कारण अब इसे चलाना मुश्किल है।’’
शोध अध्ययन के अनुसार ही यहां यह याद रखना चाहिए कि देश की 24 प्रतिशत आबादी की प्रतिमाह कमाई 3000 रूपये से कम है। हम समझ सकते हैं कि इस महंगाई में इतनी कम आय वालों की स्थिति क्या होगी। बड़े शहरों में भूख से मरने से बचने के लिए दानकर्ताओं के आसरे जीने वालों की संख्या दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही है। पूंजीवाद का नग्न आदमखोर स्वरूप आज सामने आ चुका है। एक तरफ बहुत बड़ी संख्या में लोगों का जिंदा रहना मुश्किल होता जा रहा है, वहीं मुट्ठी भर बड़े पूंजीपतियों की पूंजी का महल आसमान छू रहा है।


गैर-बराबरी का बढ़ता आलम


जहां आज एक तरफ आम लोग गिरती आय, बेरोजगारी, भयानक आर्थिक तंगी तथा भुखमरी की स्थिति से परेशान और तंगहाल हैं, वहीं दूसरी तरफ ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार देश के चंद अरबपतियों की कुल आय लगभग 14 लाख करोड़ से बढ़ी है। अकेले मुकेश अंबानी की कोविड के दौरान बढ़ी आय इतनी अधिक है कि उससे 40 प्रतिशत अंसगठित तथा अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूरों को गरीबी रेखा से उपर लाया जा सकता है। महामारी के दौरान मुकेश अंबानी की एक घंटे की कमाई उतनी है जितनी एक अकुशल मजदूर को कमाने में 10000 साल लगेंगे। यानी, मुकेश अंबानी की एक सेकेंड की आय के बराबर आय कमाने में एक अकुशल मजदूर को 3 साल लग जाएंगे! एक अनुमान यह भी है कि अरबपतियों की संपत्ति में हुआ इजाफा इतना अधिक है कि इससे पूरे दस सालों तक मनरेगा के बजट का या पूरे देश के स्वास्थ्य बजट का र्खच-वहन किया जा सकता है।


चंद मुट्ठी भर मुट्ठी भर धनकुबेरों की अमीरी का यह आलम है! रिपोर्ट के अनुसार कुमार मंगलम बिड़ला, उदय कोटक, गौतम अडानी, अजीम प्रेमजी, सुनील मित्तल, शिव नादर, लक्ष्मी मित्तल, साइरस पूनावाला और राधाकृष्ण दमानी जैसे अरबपति पिछले एक वर्ष में इस बद से बदतर होते आर्थिक संकट में भी कई गुना अधिक धनी हो गये, जबकि इसी दौरान एकमात्र अप्रैल में 1.7 लाख लोग प्रति घंटे की दर से बरोजगार हुए। उपरोक्त रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि लॉक डाउन से पहले की तुलना में देश के अरबपतियों की संपत्ति में 35 प्रतिशत और 2009 की तुलना में 90 प्रतिशत यानी लगभग दुगुनी की वृद्धि हुई है। इसीलिए पूरे विश्व में अमीरी के मामले में भारत का खूब डंका भी बजा, जबकि यह बात छुपा ली जाती है कि बाकी चंद अमीरों के अलावा बाकी लोग दरिद्रता के महासमुद्र में डुबकी लगाने को विवश हैं। सबसे अमीर लोग जिस देश में रहते हैं उनमें भारत अमेरिका, चीन, जर्मनी, रूस और फ्रांस के बाद छट्ठे स्थान पर आ गया है, लेकिन इससे यह बात छिप नहीं जाती है कि भारत में गैर-बराबारी अविश्वसनीय गति से बढ़ रही है।


उक्त रिपोर्ट में ऑक्सफैम इंडिया के सीईओ अमिताभ बेहर को यह खुलकर मानना और कहना पड़ा कि ‘‘धोखे से संचालित (तपहहमक) आर्थिक प्रणाली सबसे बुरे मंदी तथा आर्थिक संकट के बीच संपत्ति का अंबार लगाने में धनी अभिजात्य वर्ग को सक्षम बनाती है, जबकि दूसरी तरफ अरबों लोग दो जून की रोटी का इंतजाम करने में भी अक्षम हैं। यह इस महामारी का वर्गीय चरित्र है जिसने पहले से मौजूद वर्गीय विभाजन को ही नहीं, अपितु जातिगत, नस्लीय तथा लैंगिक विभाजन को और भी चौड़ा और गहरा बनाया है।’’


स्पष्ट है कि पूंजीवादी व्यवस्था, सरकारों और पूंजीपति वर्ग ने महामारी में मजदूरों, कामगारों, कर्मचारियों और स्वरोजगार में लगे गरीब लोगों को मरने तथा तबाह होने के लिए बेसहारा छोड़ दिया। पूंजीवाद और पूंजीवादी पार्टियों का यही चरित्र है। इसने यह साफ कर दिया है कि मजदूरों व गरीबों को इस व्यवस्था पर अब भरोसा करने का कोई कारण नहीं है। और दिनों की बात छोड़िये, इस भयंकर ़महामारी में भी इलाज की व्यवस्था का हाल हम देख चुके हैं। लोग ऑक्सीजन और बेड के बिना मरते रहे, लेकिन कोई सुनने वाला नहीं। आवाज उठाने वालों को महामारी कानून का उपयोग कर गिरफ्तार किया गया और पीटा गया। दूसरी तरफ, पूरी सरकार पूंजीपतियों के लिए मुनाफा की व्यवस्था में लगी रही। जब नौकरी छिन गयी, रोजगार का साधन खत्म हो गया और एक-एक रुपया के लिए लोग मोहताज हो गये, तो सरकार ने खाने-पीने की चीजों जैसे दाल, तेल, अनाज, मसाला के दाम बढ़ा दिये या व्यापारियों तथा पूंजीपतियों को इसके लिए छूट दे दी। खाने के तेल में सट्टेबाजी करके अडानी जैसे पूंजीपतियों ने बेतहाशा दाम बढ़ा दिये। दवा-इलाज, पेट्रोल-डीजल, साबुन-सोडा, रसोई गैस यानी जनता के उपयोग की सारी चीजें महंगी हो गई हैं। यहां तक कि कोरोना से बचने के लिए जरूरी मास्क और सैनिटाइजर के दाम भी मनमाना वसूले गये। मोदी सरकार ने इन सब पर टैक्स बढ़ा दिये। बात साफ है कि गरीबों और मेहनतकशों को अपने वर्ग हित के लिए आवाज बुलंद करनी होगी और संघर्ष की राह पर चलते हुए एक नयी दुनिया व समाज बनाने के लिए कमर कसना होगा।

‘सर्वहारा’ अखबार
[अंक 37 | जुलाई 26-10 अगस्त 2021]