भारतीय पूंजीवाद के तीक्ष्ण अंतर्विरोध किसान आंदोलन को जनसंघर्ष बना रहे हैं
September 13, 2021एम असीम
हेराक्लिटस ने कहा था, तुम उसी नदी में दो बार नहीं उतर सकते, क्योंकि दूसरे, और फिर दूसरे पानी वहां से सदा बह रहे हैं। अर्थात कोई भो दो स्थितियां एक नहीं, चीजें खुद को ठीक उसी तरह कभी नहीं दोहरातीं, हर बार उनमें एक विशिष्टता होती है। लेनिन ने भी सिखाया कि सही सिद्धांत को भी हर ठोस एवं विशिष्ट स्थिति में ज्यों का त्यों लागू करना उसे खोखला शब्दजाल मात्र बना देता है। ठोस स्थिति का ठोस विश्लेषण ही द्वंद्ववाद की बुनियाद है, और मार्क्सवाद की जीवंतता की जरूरी शर्त है कि प्रत्येक विशिष्ट ऐतिहासिक स्थिति का ठोस एवं सर्वांगीण पहलू से विश्लेषण कर क्रांतिकारी संघर्ष को आगे बढ़ाने वाले कार्यभार को तय किया जाए। लेनिन की नजर में क्रांतिकारी सिद्धांत और क्रांतिकारी शब्दावली वाली लफ्फाजी में यही अंतर है कि पहला हर स्थिति की विशिष्टता के आधार पर आवश्यक एवं मुमकिन क्रांतिकारी क्रियाशीलता की ओर ले जाता है, जबकि दूसरा नहीं। हमारी भावनाएं कितनी भी उदात्त, निष्ठा कितनी भी असंदिग्ध क्यों न हो, यदि किसी विशिष्ट स्थिति का सैद्धांतिक विश्लेषण हमें क्रांतिकारी क्रियाशीलता के बजाय निष्क्रियता की ओर ले जाये तो वह सैद्धांतिक विश्लेषण खोखला शब्दजाल और लफ्फाजी है, मार्क्सवाद नहीं। हर विशिष्ट स्थिति की सम्पूर्ण सर्वांगीण समझ के आधार पर उसमें सटीक क्रांतिकारी क्रियाशीलता को तय करना ही जीवंत मार्क्सवादी विज्ञान है।
पंजाब, हरयाणा के बाद अब मुजफ्फरनगर की महापंचायत से मौजूदा किसान आंदोलन को व्यापक जनसमर्थन हासिल होने की जो तस्वीर उभर रही है और मोदी सरकार व कुछ साल पहले तक मोदी के पीछे खड़े किसानों का यह आंदोलन दोनों क्यों ऐसे टकराव की स्थिति पर जा पहुंचे हैं जहां से पीछे हटना दोनों के लिए मुश्किल हो गया है, उसका विश्लेषण भी उपरोक्त कसौटी पर ही करना चाहिए। तभी हम समझ पाएंगे कि फसलों के ऊंचे दामों के जरिये कृषि को लाभकारी बनाने के सवाल पर सालों से चलते धनी किसान नेतृत्व वाले आंदोलन में ऐसा क्या मोड़ आया कि इसने न सिर्फ 86% गरीब लघु-सीमांत किसानों सहित वर्गविभेदीकृत किसान समुदाय के उन हिस्सों का भी समर्थन हासिल कर लिया जिसे फसलों के दाम बढ़ाने की मांग से कोई वास्तविक लाभ नहीं तथा मजदूर वर्ग सहित देश की आम मेहनतकश जनता व अन्य गरीब-उत्पीड़ितों की हमदर्दी भी इसके साथ हो गई।
पूंजीवादी आर्थिक संकट से बढ़ती बेरोजगारी
नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के एक लंबे दौर के बाद 21वीं सदी के पहले दशक के अंत तक ही भारतीय पूंजीवाद तदजनित अनिवार्य आर्थिक संकट की भंवर में जा फंसा, जो निरंतर तीक्षण होता जा रहा है। इसके मुख्य लक्षण प्रति इकाई पूंजी पर गिरती मुनाफा दर, अति-उत्पादन (आवश्यकता से नहीं, बाजार मांग से अधिक उत्पादन), उद्योगों का दिवालिया-ठप होना या क्षमता से नीचे संचालन, नए जड़ पूंजी निवेश में गिरावट, श्रमिकों की छंटनी व नयी भर्ती के अभाव में बेतहाशा बढ़ती बेरोजगारी, गिरती वास्तविक मजदूरी दर, स्थायी औद्योगिक वेतनभोगी रोजगारों के बजाय अस्थायी मेड, ड्राईवर, वाचमैन, डिलिवरी/कूरियर, जैसे उच्च व मध्य वर्ग के ख़िदमतगार रूपी अत्यधिक शोषण व किसी तरह जिंदा रहने लायक मजदूरी वाले रोजगार, आदि हैं। भारतीय पूंजीपति वर्ग, खास तौर पर उसके वित्तीय व इजारेदार हिस्से, द्वारा पुरानी विश्वस्त कांग्रेस का दामन छोड़ फासिस्ट मोदी के विकल्प को अपनाने के पीछे यही मुख्य वजह है क्योंकि उसे मजदूर वर्ग के शोषण की दर को तेजी से बढ़ाने के साथ ही साथ सार्वजनिक क्षेत्र ही नहीं, खुद छोटे पूंजीपतियों, किसानों सहित लघु उत्पादकों-व्यापारियों व मध्य वर्ग के एक बड़े हिस्से को बेदखल कर उसकी संपत्ति व पूंजी पर काबिज हो जाना जरूरी है। पर इजारेदार वित्तीय व औद्योगिक पूंजीपतियों की हितपूर्ति के लिए होने वाली यह लूट व बेदखली इस आबादी को भयंकर दुख-तकलीफ देने वाली है और उसका प्रतिरोध भी होगा। अतः सामान्य पूंजीवादी जनतंत्र के बजाय राज्यसत्ता के साथ ही फासिस्ट गुंडावाहिनियों के समानांतर राज्य वाली अति-प्रतिक्रियावादी फासिस्ट तानाशाही पूंजीपति वर्ग की जरूरत बन गई है।
आर्थिक संकट की यह स्थिति एक दशक पहले से ही पैदा हो रही थी। 27 मार्च 2018 को जारी रिज़र्व बैंक और KLEMS के 2015-16 तक के रोजगार डाटा के अनुसार ही 2012-13, 2014-15 और 2015-16 अर्थात तब तक के अंतिम 4 में से 3 वर्षों में देश में कुल रोजगार की तादाद घटी थी। इसमें एक वजह कृषि में स्थाई पूंजी में निवेश (यंत्रीकरण, विद्युतीकरण, स्वचालन) बढ़ने से उसमें 2005-06 से ही श्रम शक्ति की जरुरत अर्थात कुल रोजगार की तादाद का निरंतर कम होना था। लेकिन कुछ वर्षों तक कृषि से फालतू हुए श्रमिक उद्योग या सेवा क्षेत्र, खास तौर पर तेज वृद्धि वाले गृह व व्यवसायिक भवन निर्माण क्षेत्र, में खप जा रहे थे, हालांकि इन क्षेत्रों में मिलने वाली मजदूरी बमुश्किल जीने लायक थी। लेकिन दूसरे दशक में आए आर्थिक संकट की वजह से अब उद्योग-सेवा क्षेत्र में भी इतने नए रोजगार सृजित होने बंद हो गए कि वे कृषि से अतिरिक्त हुए श्रमिकों को खपा सकें।
रोजगार में यह गिरावट तो तब थी जब अर्थव्यवस्था में तेज वृद्धि बताई जा रही थी। इसके बाद के सालों में नोटबंदी और जीएसटी के असर से बड़ी मात्रा में निर्माण, खनन, उद्योग, सेवा सभी क्षेत्रों में करोड़ों नौकरियां कम होने की बात तो जगजाहिर है। 2018 में सरकार ने अपना वह सर्वेक्षण खुद ही तालाबंद कर दिया था जिसमें बेरोजगारी दर के 45 वर्ष के रिकॉर्ड स्तर पर होने की बात सामने आई थी। कृषि में भी संकट इन वर्षों में और गहराया है। इसीलिए बेरोजगार श्रमिकों का सवाल इस वक्त देश का प्रमुख सवाल बन कर खड़ा हो गया है। स्थिति यह है कि 2018 में ही 14-25 आयु वर्ग के एक चौथाई से अधिक युवा न तो शिक्षा में थे, न कोई प्रशिक्षण ले रहे थे और न ही उनके पास कोई रोजगार था! तब से यह स्थिति और अधिक गंभीर हुई है खास तौर पर कोविड के नाम पर मोदी ने जो दमनकारी लॉकडाउन लागू किया उससे हालात अत्यंत विस्फोटक बन चुके है।
शहरों से गांव की ओर उल्टा प्रवास
सरकार द्वारा कराये गए सावधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफ़एस) की ताजा रिपोर्ट अनुसार कारखानों-शहरों से खेती-गांवों की ओर श्रमिकों का बड़े पैमाने पर उलटा प्रवास (रिवर्ज माइग्रेशन) हुआ है। ‘उलटा’ इसलिए क्योंकि विश्व और भारत सभी जगह पूंजीवाद के विकास के साथ ऐतिहासिक तौर पर सामान्य प्रक्रिया इसके बजाय श्रमिकों द्वारा गांव व खेती-दस्तकारी से शहरों अर्थात उद्योगों-कारखानों की ओर प्रवास की रही है। पीएलएफ़एस रिपोर्ट बताती है कि जहां 2018-19 में कुल रोजगार के 42.5% खेती में थे वहीं 2019-20 में यह तादाद तेजी से बढ़कर 45.6% हो गई।
इसके पहले से ही सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) का उपभोक्ता परिवार सर्वेक्षण (सीपीएचएस) भी उलटे प्रवास की ऐसी ही रिपोर्ट देता रहा है जिसकी पुष्टि अब सरकारी सर्वेक्षण में हुई है बल्कि इसमें इस तादाद को और भी अधिक पाया गया है। पीएलएफ़एस के 45.6% के मुक़ाबले सीपीएचएस के अनुसार 2019-20 में कृषि रोजगार कुल रोजगार के 38% ही थे। इस अंतर पर हम बाद में आएंगे, पहले यह जान लेना बेहतर होगा कि सीपीएचएस के अनुसार कुल रोजगार में कृषि का हिस्सा बढ़ना कोई अनोखी घटना नहीं है बल्कि यह अनुपात कुछ वर्षों से साल दर साल बढ़ता जा रहा है। 2017-18 में यह अनुपात 35.3% था, 2018-19 में यह बढ़कर 36.1% हो गया और 2019-20 में 38%। इसके बाद भी यह वृद्धि जारी रही और 2020-21 में कुल रोजगार में कृषि का हिस्सा 39.4% हो गया। इससे स्पष्ट है कि यह मात्र कोविड महामारी और तालाबंदी अर्थात लॉकडाउन की वजह से बेरोजगार हो शहर छोड़कर गांव जाने वाले श्रमिकों की वजह से ही नहीं है। यह तो भारतीय पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में गहन संकट की पहले से जारी प्रक्रिया का नतीजा है।
सीपीएचएस और पीएलएफ़एस में अंतर का कारण रोजगार की परिभाषा का अलग होना है। पीएलएफ़एस किसी व्यक्ति को रोजगार में गिन लेता है अगर उसने साल में कुछ समय भी काम किया हो जबकि सीपीएचएस की परिभाषा तुलनात्मक रूप से सख्त है और वह साप्ताहिक सर्वेक्षण करता है और जो उस सप्ताह में रोजगार बताए उसी को रोजगाररत मानता है। कृषि में रोजगार अत्यंत अनियमित और बहुत से श्रमिकों के लिए साल में कुछ समय के लिए ही होता है। पीएलएफ़एस की परिभाषा में इन सभी को उस साल में रोजगाररत तादाद में गिना जाता है जबकि सीपीएचएस में सिर्फ उस सप्ताह में जब उन्हें वास्तव में काम मिला हो। इसलिए पीएलएफ़एस में न सिर्फ कुल रोजगार की संख्या बढ़ जाती है बल्कि अनियमित काम वाले क्षेत्र कृषि में रोजगार का अनुपात भी अधिक होता है।
किन्तु दोनों में संख्या के इस फर्क के बावजूद भी यह बात स्पष्ट है कि कुल रोजगारों में कृषि रोजगार का अनुपात बढ़ने की पुष्टि दोनों ही सर्वेक्षण कर रहे हैं अर्थात उद्योगों में बढ़ती बेरोजगारी के कारण बहुत से श्रमिकों को जिंदा रहने के लिए उसी खेती की ओर लौटने के लिए विवश होना पड़ रहा है जिससे वे शहरों-कारखानों की ओर आए थे। पीएलएफ़एस पुष्टि करता है कि कुल रोजगार में विनिर्माण या मैनुफैक्चरिंग का हिस्सा 12.1% से घटकर 11.2% ही रह गया (0.9% की कमी) जबकि निर्माण क्षेत्र में 0.5% और यातायात, भंडारण व संचार क्षेत्र में 0.3% की कमी हुई। अनुमान यही लगाया जा सकता है कि सरकार द्वारा पूंजीपति मालिकों को उत्पादन के लिए लाखों करोड़ रुपये प्रोत्साहन की घोषणाओं-योजनाओं के बावजूद औद्योगिक क्षेत्र में संकट निरंतर बढ़ता ही गया है और मैनुफैक्चरिंग व निर्माण दोनों ही के असंगठित क्षेत्र से बड़े पैमाने पर श्रमिक बेरोजगार होकर कृषि की ओर जाने को मजबूर हुये हैं।
जाहिर है कि यह उलटा प्रवास स्वैच्छिक कतई नहीं है बल्कि गैर कृषि क्षेत्रों में श्रमिकों की घटती मांग और बढ़ती बेरोजगारी से श्रमिकों की कष्टदायक मजबूरी का परिणाम है। पीएलएफ़एस में ही विभिन्न क्षेत्रों में मजदूरी दर का आंकड़ा ही इस प्रक्रिया के पीछे मजदूर वर्ग की मजबूरी और उसके जीवन की तकलीफ को बयान करता है। इस रिपोर्ट अनुसार नियमित वेतन वाले रोजगार की औसत मजदूरी रु 16,780 प्रति महीना या रु 558 रोजाना है जबकि स्व-रोजगार (जो खुद ही बेतहाशा बेरोजगारी का परिणाम है) से औसत आय रु 10,454 प्रति महीना या रु 349 रोजाना है। इसकी तुलना में खेती में मुख्यतः अनियमित या दिहाड़ी काम ही उपलब्ध होता है जिसमें रोजाना औसत मजदूरी रु 291 है। अतः शक की कोई गुंजाइश ही नहीं कि जरा भी बेहतर विकल्प उपलब्ध होने पर श्रमिकों द्वारा स्वेच्छा से सबसे कम मजदूरी वाले क्षेत्र की ओर रुख करने का सवाल ही नहीं उठता, बल्कि यह भारतीय पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के गहन संकट के कारण मेहनतकश जनता के जीवन में आसमान छूती बेरोजगारी, कंगाली, महंगाई और भूख के संकट का नतीजा है।
किन्तु भारत में बेरोजगारी संकट की वास्तविकता को समझने के लिए बेरोजगारों की नहीं रोजगार की संख्या को देखना चाहिए क्योंकि बेरोजगारों की गिनती की पद्धति बुनियादी तौर पर ही गलत और वास्तविकता को छिपाने वाली है। अगर हम काम करने लायक उम्र वालों में से रोजगार करने वालों की गिनती करें तो वास्तविक संकट का परिमाण अधिक स्पष्ट होगा। मोटी संख्याओं में बात करें तो 15 से 65 साल की उम्र के लगभग 100 करोड़ लोगों में मौजूदा रोजगार दर लगभग 40% है। नोटबंदी के पहले 2016 में ही यह दर लगभग 46% थी अर्थात 4 साल से कुछ अधिक में 6% या लगभग 6 करोड़ व्यक्ति बेरोजगार हो गए। विश्व के पैमाने पर देखें तो चीन में रोजगार की दर 70% से ऊपर है, पर अन्य मध्यम श्रेणी के विकसित देशों में भी यह 60% से ऊपर है। 60% के मोटे पैमाने पर भी देखें तो भारत में काम करने लायक उम्र के एक तिहाई व्यक्ति बेरोजगार हैं। साथ ही जिनके पास रोजगार है भी उनकी जो परिभाषा हम पहले देख चुके हैं उसके अनुसार बहुत से अर्ध-बेरोजगार भी रोजगार की गिनती में ही शामिल हैं।
भारतीय पूंजीवाद का असमाधेय अंतर्विरोध
पूंजीवादी विकास की स्वाभाविक गति है कि जैसे-जैसे नए उद्योग-कारोबार विकसित होते हैं और कृषि भी पूंजीवादी ढंग से संगठित, यंत्रीकृत व केंद्रीकृत होती जाती है, बड़े पैमाने पर छोटे किसान बरबाद व दिवालिया होते हैं या बड़े भू-स्वामियों द्वारा बेदखल कर दिये जाते हैं तथा पुरानी खेती और दस्तकारी की ग्रामीण उत्पादन व्यवस्था में लगी आबादी बड़े पैमाने पर अतिरिक्त या सरप्लस हो जाती है। यह सरप्लस आबादी नए उद्योग-कारोबार में श्रमिक के रूप में खपती जाती है। लेकिन सामाजिक उत्पादन किन्तु निजी मालिकाने के अंतर्विरोध पर आधारित और पूंजीपति के मुनाफे के लक्ष्य से संचालित पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली की गतिकी जल्द ही उद्योगों में भी बेरोजगारी को जन्म देने लगती है – बाजार होड में आगे निकलने हेतु सभी पूंजीपति उत्पादन में परिवर्तनशील पूंजी अर्थात श्रमशक्ति की तुलना में स्थायी पूंजी अर्थात यंत्रों व अत्याधुनिक तकनीक का प्रयोग बढ़ाते जाते हैं। अतः बेरोजगारी पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का अनिवार्य सह-उत्पाद है। ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, हॉलैंड, जापान, इटली, आदि पुराने विकसित पूंजीवादी देश भी उद्योगों में कृषि व दस्तकारी से अतिरिक्त हुई आबादी का एक हिस्सा ही खपा पाये थे। किन्तु इन पूंजीवादी देशों के लिए सुविधा थी कि वे अपने संकट के समाधान हेतु न सिर्फ अपनी पूंजी व उत्पादित माल निर्यात करने की स्थिति में थे, उनके पास इस अतिरिक्त आबादी के एक बड़े हिस्से को भी उत्तर-दक्षिण अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका जैसे महाद्वीपों के उपनिवेशों में निर्यात करने का मौका था। पूरी 19वीं सदी और नाजी विरोधी विश्वयुद्ध तक भी इन देशों से करोड़ों की तादाद में अतिरिक्त आबादी कुछ स्वेच्छा से और कुछ जबर्दस्ती इन उपनिवेशों में स्थानांतरित की गई।
औपनिवेशिक गुलामी के दौर में पैदा बीमार व रक्ताल्पता के शिकार भारतीय पूंजीवाद में न तो खुद यह क्षमता-ऊर्जा थी कि वह गांवों में अतिरिक्त बनती आबादी को तीव्र औद्योगिक विकास के जरिये पूरी तरह खपा सके और न ही कहीं विदेशों में इसे निर्यात कर पाने की सहूलियत थी। अतः उसने विभिन्न तरीकों से अतिरिक्त आबादी को निरंतर छिपाने व सीमित करने की कोशिश की – लघु-कुटीर उद्योगों को बढ़ावा, छोटे कर्जों द्वारा खेती, दस्तकारी-पशुपालन, आदि में ही जीवन सुधरने के भ्रम में फंसा कर रखना, आदि। स्वर्गिक ग्राम्य जीवन के विचार का प्रचार भी इसी का एक हिस्सा था, हालांकि आर्थिक वजहों के आइरिक्त उत्पीड़ित जातियों व स्त्रियों के साथ ही युवाओं के एक हिस्से के लिए भी गाँव से शहर में प्रवास जाति-पितृसत्ता के मकड़जाल से निकल तुलनात्मक रूप से आजाद हवा में सांस लेने की आकांक्षा की अभिव्यक्ति भी था। अतः धीमे औद्योगिक विस्तार के बावजूद भी गांवों में अतिरिक्त होती आबादी का एक हिस्सा तो शहरीकरण की प्रक्रिया के द्वारा स्थानांतरित हो ही रहा था। फिर भी गांवों में छोटी-छोटी जोतों वाले जमीन के टुकड़ों में परिवार सहित खपते, खुद को ही खाते, ये गरीब कंगाल किसान भारतीय पूंजीवाद के लिए भारी बेरोजगारी को छिपा सामाजिक असंतोष-विद्रोह को रोके रखने में सहायक थे।
1960 के दशक में कृषि में तीव्र हुये पूंजीवाद विकास ने जहां लाभकारी पूंजीवादी खेती वाले धनी किसानों का एक वर्ग तैयार किया जिसमें से ऊपर की एक परत तो ग्रामीण पूंजीपति ही बन चुकी है, वहीं बड़े पैमाने पर छोटे किसानों को बरबाद व दिवालिया भी किया। इनमें से कुछ तो शहरों में प्रवास कर पाये पर अधिकांश चाह कर भी अपने जमीन के छोटे टुकड़ों से मुक्त नहीं हो पाये। देश के 14% सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पर लगभग 40% जनसंख्या का बोझ ही उनकी गरीबी की व्यापकता को समझने के लिए पर्याप्त है। किन्तु इसमें भी आधी से अधिक जमीन के मालिक एक छोटे हिस्से, जिनकी खेती लाभकारी है, को छोड़ दें तो गांवों की आधी से अधिक भूमिहीन मजदूर आबादी और छोटे-सीमांत किसानों की बेरोजगार, अर्धबेरोजगार, श्रमिक, अर्धश्रमिक बहुसंख्या आज भी अत्यंत वंचना और कंगाली का जीवन जी रही है। पिछले दशकों में हमने जिन लाखों किसानों की आत्महत्याओं के बारे में इतना कुछ सुना है वह इसी तबके के थे।
परंतु पिछले दस सालों के पूंजीवादी आर्थिक संकट ने जिस तरह बेरोजगारी को भयावह स्तर पर पहुंचाया है और अंत में मोदी द्वारा कोविड रोकथाम के नाम पर पुलिस के बूटों और डंडों के बल पर जो नृशंस लॉकडाउन थोपा और गांवों से शहरों-औद्योगिक क्षेत्रों में प्रवास कर गए श्रमिकों को जिस तरह रोजगार से वंचित कर उनके गांवों की ओर खदेड़ा गया, उसने उलट प्रवास द्वारा कृषि भूमि पर निर्भर आबादी का बोझ और भी बढ़ाकर इस संकट को कई गुना बढ़ा दिया है। हम देख ही चुके हैं कि पीएलएफ़एस के सर्वेक्षण अनुसार 2019-20 के एक ही वर्ष में कृषि पर निर्भर आबादी 3.1% बढ़ गई। इससे भारतीय पूंजीवाद का यह अंतर्विरोध तीक्ष्ण होते हुये विस्फोटक स्थिति में आन खड़ा हुआ है।
जमीन का मुद्दा जीवन-मरण का सवाल बन गया है
जहां पहले ही ग्रामीण आबादी बरबाद होती खेती, बेरोजगारी और कम मजदूरी से परेशान थी वहीं न सिर्फ इन परिवारों के शहर गए प्रवासी मजदूरों द्वारा गांव में अपने परिवारों जीवनयापन के सहारे के तौर पर भेजी गई रकम आनी बंद हो गई है वहीं खुद इनके बेरोजगार होकर गांव वापस चले आने से वहां भी श्रमिकों की आपूर्ति मांग के मुक़ाबले अधिक हो जाने से न सिर्फ काम की उपलब्धता बहुत अधिक घट गई है बल्कि मजदूरी की दर और भी गिर गई है। ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) में भी 2020-21 में 100 दिन की ‘गारंटी’ के बजाय प्रत्येक पंजीकृत श्रमिक को 12 दिन ही रोजगार मिला। अतः अर्ध-सर्वहारा आबादी जो धीरे-धीरे जमीन से लगाव-जुड़ाव से मुक्त हो रही थी, लॉकडाउन में गांव के जमीन के टुकड़े के ही सहारा बनने की वजह से उसका जमीन के प्रति लगाव वापस बहुत तेजी से बढ़ गया है – रोजगार छिन जाने पर भी थोड़ी सी जमीन उनके लिए किसी तरह जिंदा रहने का सहारा तो है! वहीं रोजगार की तलाश में हताश-निराश नौजवान पीढ़ी के सामने भी इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है – 20-24 वर्ष के स्नातकों में बेरोजगारी की दर जहां 2017 में 42% थी, यह 2018 में 55% और 2019 में बढ़कर 63% हो गई।
ठीक इसी वक्त पर, इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजीपतियों द्वारा छोटे मालिकों-उत्पादकों को बेदखल करने के प्रोजेक्ट की सुपारी लिए सत्ता में आई मोदी सरकार वह नवीन कृषि कानून लेकर आई जो कृषि के पूंजीवादी विकास को अगले चरण में ले जाने अर्थात केन्द्रीकरण द्वारा कृषि पर बड़ी कॉर्पोरेट पूंजी के दखल की पहले से ही जारी प्रक्रिया को और भी तेज कर देंगे। ऐसे में पहले से ही बदहाल छोटे-सीमांत किसान व मध्यम किसान ही नहीं, अब तक के पूंजीवादी विकास में गांव के गरीब किसानों-मजदूरों के शोषण से लाभ पाते रहे धनी किसानों का एक निचला हिस्सा भी कॉर्पोरेट पूंजी के सामने होड में खुद के पस्त होने की संभावना देख रहा है और गहराते आर्थिक संकट में अंतिम सहारे के तौर पर देखी जा रही जमीन से बेदखल हो जाने की आशंका से ग्रस्त हो अपनी जमीन बचाने के लिए इन क़ानूनों के खिलाफ आंदोलन को जीवन-मरण का सवाल बना चुका है। कॉर्पोरेट पूंजी द्वारा जमीन से बेदखली के भय के सवाल पर ग्रामीण पूंजीपति बन चुके सबसे धनी किसानों को छोड़कर ये सभी किसान एकजुट हो गए हैं। यही आंदोलन के इतना टिकाऊ होने की वजह है।
किन्तु किसान छोटा ही सही पर मालिक व माल उत्पादक वर्ग है, और हर माल उत्पादक चाहे उसके पास बाजार में बेचने लायक अतिरिक्त उत्पादन कितना भी कम क्यों न हो, अपने माल के ऊंचे दाम चाहता है। अतः उसकी लड़ाई में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) स्वाभाविक रूप से मुख्य सवाल बन जाता है। माल उत्पादक के रूप में किसान इसके अतिरिक्त किसी रूप में अपने हित को अभिव्यक्त कर ही नहीं सकता। फिर भी एमएसपी को भी सभी किसानों के सारे उत्पाद की खरीद गारंटी के दाम की मांग में रूपांतरित कर किसानों ने इस मांग का किरदार बदल दिया है। अपने अंतर्य में यह मांग निजी पूंजीपति के साथ कांट्रैक्ट खेती को नकार कर खुद सरकार के साथ अनिवार्य रूप से कांट्रैक्ट खेती की मांग और, चुनांचे, कॉर्पोरेट पूंजी द्वारा कृषि उत्पादन व व्यापार पर आधिपत्य में मुख्य बाधा बन गई है। इसीलिए अदानी-अंबानी का विरोध आंदोलन का एक प्रमुख प्रतीक बन गया है। एक तरह से किसानों ने अपनी ट्रैक्टर-ट्रॉली और भैंसा-बुग्गी को पूंजीपतियों के वॉल्वो और मर्सिडीज की राह में अड़ा दिया है।
सरमाएयदारों की खिदमत में मोदी सरकार
किसानों के साथ ही समाज के अन्य मेहनतकश व गरीब हिस्से भी देख रहे हैं कि मौजूदा सरकार एक के बाद एक पूंजीपति वर्ग को मदद की योजनाएं ला रही है; कॉर्पोरेट टैक्स से लेकर हर तरह की वसूली में रियायत दे रही है व दिवालिया कानून के नाम पर बैंक कर्जों के भुगतान में अधिकांश रकम माफ की जा रही है; दसियों लाख करोड़ रु के कर्ज राइट ऑफ कर बट्टे खाते में डाल दिये गए हैं; निजीकरण के जरिये सार्वजनिक संपत्ति औने-पौने दामों पर सरमायेदारों के मालिकाने में दी जा रही है; मौद्रीकरण की नीति के नाम पर सरकार लगभग 25 लाख करोड़ रु आय वाली सार्वजनिक संपत्ति 6 लाख करोड़ रु में 25 साल के लिए पूंजीपतियों को सौंपने जा रही है; शिक्षण संस्थान, अस्पताल, रेलवे, सड़क, आदि सभी सार्वजनिक सुविधाएं निजी पूंजी के हाथ में सौंप जनता की पहुंच से दूर की जा रही हैं; पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) के नाम पर सारा लाभ निजी हाथों में जा रहा है जबकि हानि का सारा बोझ सर्वजनिक होकर आम जनता के सिर पर लादा जा रहा है (इसी अंक में दिल्ली एयरपोर्ट लाइन मेट्रो और अनिल अंबानी के रिलायंस ग्रुप के विवाद में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बारे में पढ़ सकते हैं); इनफ्रास्ट्रक्चर निर्माण से लेकर अस्त्र-शस्त्र निर्माण और रक्षा सौदों के नाम पर सेंट्रल विस्टा, बुलेट ट्रेन, फाइटर प्लेन, पनडुब्बी, टैंक तक तमाम तरह की विशाल खर्च वाली योजनाओं के ऑर्डर दिये जा रहे हैं जिनका सारा लाभ निर्माण ठेकों के रूप में पूंजीपतियों को मिलेगा और खर्च के लिए डीजल-पेट्रोल से लेकर जीएसटी तक हर तरह के टैक्स में वृद्धि कर जनता की जेब से पैसा वसूला जाएगा; वगैरह वगैरह।
उधर जनता के लिए न सिर्फ किसी सार्वजनिक सुविधाओं का निर्माण नहीं किया जा रहा है, व्यवसायीकरण के द्वारा मौजूदा सुविधाओं को भी महंगा कर उसकी पहुंच से दूर किया जा रहा है। शिक्षा क्षेत्र का ही उदाहरण लें तो विश्वविद्यालयों का शिक्षण शुल्क तो बहुत दूर की बात है प्रवेश परीक्षाओं का शुल्क तक 4-5 हजार रु प्रति फॉर्म तक पहुंच गया है ताकि इन संस्थानों में प्रवेश को ही अमीर लोगों के लिए पूरी तरह आरक्षित कर दिया जाए। नौकरी के लिए आवेदन का शुल्क भी तेजी से बढ़ाया जा रहा है। कई बार तो लाखों आवेदकों से करोड़ों रु की भारी रकम शुल्क के रूप में वसूल की जाती है और कुछ समय बाद पूरी प्रक्रिया ही रद्द कर दी जाती है। इस सबसे बेरोजगार युवाओं में भी भारी रोष है।
सारी जनता यह भी देख रही है कि पूंजीपतियों और समाज के एक छोटे हिस्से को आर्थिक संकट हो या कोविड महामारी, सबको आपदा को अवसर बनाने का मौका दिया जा रहा है। सभी बड़े पूंजीपतियों की दौलत आम जनता के लिए भारी संकट और तकलीफ के इस दौर में कितनी तेजी के साथ बढ़ी है, हम सबने देखा है। उधर यूबीएस की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार उच्च संस्तर के 8% परिवारों को भी कोविड के डेढ़ साल में जबर्दस्त लाभ हुआ है – आम औसत से उनकी वित्तीय बचत जहां 2 अरब डॉलर ही होने का अनुमान था, कोविड की वजह से उनकी बचत इससे 3 अरब डॉलर ज्यादा अर्थात 5 अरब डॉलर हुई और उन्होने संपत्ति, शेयर बाजार, म्यूचुअल फंड, सरकारी बचत योजनाओं, आदि सभी में भारी निवेश किया है।
इसे देख किसान ही नहीं व्यापक मेहनतकश जनता भी यह समझ रही है कि यह सरकार आम आदमी नहीं, चंद पूंजीपतियों के हितों के लिए काम करती है। साथ ही वह यह भी देख रहे हैं कि जहां एक ओर किसान ‘उचित’ दाम न मिलने की शिकायत कर रहे हैं वहीं जब यही खाद्य कृषि उत्पाद पूंजीपति वर्ग के माध्यम से उनके पास पहुंचते है तो इनकी कीमतें आसमान छूने लगती हैं। सरसों के तेल से दालों तक के दाम इजारेदार पूँजीपतियों ने जैसे चढ़ाये हैं वह सबके सामने है। अतः वे कृषि पदार्थों के व्यापार को कॉर्पोरेट पूंजी के नियंत्रण में देने और आवश्यक वस्तु कानून में बदलाव के विरोध में किसान आंदोलन के साथ अपने हितों को जुड़ा पाते हैं। ऐसे में अदानी-अंबानी को प्रतीक बना कॉर्पोरेट पूंजी को विरोध का निशाना बनाने की किसान आंदोलन की नीति ने व्यापक मेहनतकश जनता के मानस को छुआ है और उसका हमदर्दी व समर्थन उसे हासिल हुई है। किसान नेता भी इस बात को समझ रहे हैं। इसीलिए मुजफ्फरनगर महापंचायत में उनके भाषणों को सुनें तो उन्होने भी किसानों के अतिरिक्त बेरोजगारी व महंगाई से व्यापक आम जनता पर आई विपत्ति की बात को प्रमुखता से उठाकर उन्हें अपने साथ जोड़ने का भरपूर प्रयास किया है।
किसान आंदोलन की सीमा, और मजदूर वर्ग की ज़िम्मेदारी
लेकिन टटपुंजिया मालिक वर्ग होने के नाते किसानों के आंदोलन की अपनी सीमा है। वह निजी पूंजी के साथ कांट्रैक्ट को नकार कर सरकार के साथ कांट्रैक्ट की पूंजीवाद के दायरे के पार ले जाने वाली क्रांतिकारी अंतर्य की मांग तक तो पहुंच सकता है लेकिन वह खुद मालिक होने के नाते इसे अंजाम तक नहीं पहुंचा सकता। उसकी यह मांग पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में पूरा न हो सकने वाली मांग है, ऐसी मांग है जो मात्र एक समाजवादी सत्ता पूरा कर सकती है क्योंकि सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन को नियोजित करने वाली समाजवादी सत्ता ही किसानों के साथ उनके अतिरिक्त उत्पादन को खरीदने का ऐसा कांट्रैक्ट कर सकती है। पर पूंजीवादी व्यवस्था के स्थान पर समाजवादी समाज व्यवस्था कायम करने का क्रांतिकारी रूपांतरण सिर्फ सर्वहारा वर्ग ही सम्पन्न कर सकता है। अतः इस आंदोलन को एक वास्तविक क्रांतिकारी उभार में परिवर्तित करने की ज़िम्मेदारी भी सर्वहारा वर्ग की शक्तियों पर ही आयद होती है, जो किसानों को साफ शब्दों में बिना दिग्भ्रमित किए बगैर किसी लाग-लपेट के यह कह सके कि पूंजीवादी व्यवस्था में अधिकांश किसानों की समस्या का कोई समाधान नहीं, पूंजीवादी व्यवस्था के अपने विकास क्रम में छोटे उत्पादकों के रूप में उनका भविष्य उज्ज्वल होने का सवाल ही नहीं, बड़ी पूंजी के सामने उनकी बरबादी तय है। उनका भविष्य मजदूर वर्ग के नेतृत्व में पूंजीवाद के स्थान पर समाजवादी समाज के निर्माण में है जिसमें सर्वहारा वर्ग की सत्ता उन्हें सामूहिक फार्म बनाकर आधुनिक उच्चतम तकनीक आधारित कृषि उत्पादन संगठित-संयोजित करने में मदद करेगी तथा उनके अतिरिक्त उत्पादन को शेष समाज की जरूरत के लिए खरीदने की गारंटी का कांट्रैक्ट भी करेगी।
अतः मौजूदा वक्त में जब मजदूर वर्ग की शक्तियों में बिखराव के बावजूद भी पूंजीवाद के अपने तीक्ष्ण होते अंतर्विरोधों के कारण किसान व अन्य मेहनतकश तबके अपने भौतिक जीवन के कटु तजुर्बे से इस स्वतःस्फूर्त चेतना पर पहुंचे हैं कि मौजूदा सत्ता अंबानी-अदानी जैसे पूंजीपतियों की और एकमात्र उनके हितों का प्रबंधन करने वाली सत्ता है तो मजदूर वर्ग की शक्तियों की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वे मेहनतकश जनता की इस स्वयं स्फूर्त चेतना से पीछे न रहें, मात्र किसान आंदोलन के समर्थन तक खुद को सीमित न रखें, बल्कि आगे बढ़कर इतिहास के सबसे उन्नत व अगुआ वर्ग होने के नाते पूंजीपति वर्ग के खिलाफ इस चेतना को और विकसित करें और मेहनतकश जनता की समस्त शक्तियों को पूंजी की सता के खिलाफ एकजुट व लामबंद करें। एक लेनिनवादी के लिए आज के भारत की विशिष्ट स्थिति के ठोस विश्लेषण से इसी क्रांतिकारी कार्यभार का निष्कर्ष निकलता है और हमें इस पर अपनी शक्ति को केन्द्रित करना चाहिए जैसा कोमिंटर्न की 7वीं कांग्रेस की रिपोर्ट में कहा गया था, “बोल्शेविकों के बुनियादी गुणों में से एक, और हमारी क्रांतिकारी रणनीति का एक बुनियादी बिंदु, हर क्षण पर यह समझने की क्षमता है कि हमारा प्रधान शत्रु कौन है और उसके खिलाफ हम अपनी समस्त शक्तियों को केंद्रित कैसे करें।“
इसके बजाय यह कहना कि छोटे उत्पादकों की बरबादी और सर्वहाराकरण पूंजीवादी गतिकी की अनिवार्य ऐतिहासिक मंजिल है अतः सर्वहारा वर्ग को इतिहास को पीछे मोड़ने की मांग के साथ नहीं होना चाहिए, बल्कि बरबाद होते गरीब किसानों को तात्कालिक राहत के लिए आवाज उठानी चाहिए, निहायत अर्थवादी रवैया है जो मौजूदा स्थिति के मुख्य अंतर्विरोध को नजरअंदाज कर प्रभावी तौर पर उठ खड़े हो रहे जनसंघर्षों के मुक़ाबिल पूंजीपति वर्ग की मदद करता है।
निश्चय ही सर्वहारा वर्ग द्वारा किसान आंदोलन में दखल देने की बात पर यह कहते हुये भी ऐतराज जताया जा सकता है कि इस आंदोलन में प्रतिक्रियावादी, जातिवादी, पितृसत्तावादी, सांप्रदायिक, खाप पंचायत, बीजेपी के पुराने साथी, खालिस्तानी, वगैरह वगैरह भी शामिल हैं, अतः असली कम्युनिस्ट क्रांतिकारी इसमें शामिल नहीं हो सकते। इसके लिए हम बस लेनिन का यह उद्धरण देंगे,
“जो कोई ‘शुद्ध’ सामाजिक क्रांति की उम्मीद रखता है वह इसे होता देखने के लिये जीवित नहीं रहेगा। ऐसा व्यक्ति क्रांति क्या होती है बिना यह समझे बस क्रांति की खोखली बातें करता है।
1905 की रूसी क्रांति बुर्जुआ जनवादी क्रांति थी। इसमें संघर्षों की एक लंबी शृंखला थी जिसमें आबादी के सभी असंतुष्ट वर्गों, समूहों व तत्वों ने भाग लिया। इसमें घटिया पूर्वाग्रहों से भरी, संघर्ष के मकसद की अत्यंत अस्पष्ट व काल्पनिक समझ वाली जनता थी; जापानी पैसा लेने वाले छोटे समूह थे, सटोरिये व जोखिमबाज़ वगैरह थे। किन्तु वस्तुगत रूप से यह जनआंदोलन जारशाही की कमर तोड़ जनतंत्र का रास्ता बना रहा था, इस वजह से वर्ग सचेत मजदूरों ने इसका नेतृत्व किया। यूरोप में भावी समाजवादी क्रांति भी सभी किस्म के उत्पीड़ित व असंतुष्ट तत्वों के जनसंघर्षों का विस्फोट ही हो सकती है। टटपुंजिया व पिछड़े मजदूरों के कुछ हिस्सों का इसमें शामिल होना अवश्यंभावी है – इस भागीदारी के बगैर यह जनसंघर्ष नहीं बन सकती, जिसके बिना क्रांति नामुमकिन है – एवं उतना ही अवश्यंभावी है कि वे अपने साथ अपने पूर्वाग्रहों, प्रतिक्रियावादी कल्पनाओं, अपनी कमजोरियों और गलतियों को आंदोलन में लायें। किन्तु वस्तुगत रूप से उनका हमले का निशाना पूंजी होगी और क्रांति का सचेत अगुआ, उन्नत सर्वहारा, इस विचित्र, बेसुरे, बहुरंगे तथा बाहरी तौर पर खंडित जनसंघर्ष की वस्तुगत सच्चाई को अभिव्यक्ति देते हुये इसे एकबद्ध और निर्देशित करते हुये, सत्ता हासिल करेगा, बैंकों पर कब्जा करेगा, उन ट्रस्टों पर अधिकार करेगा जिनसे सभी नफरत करते हैं (हालांकि कारण अलग-अलग हैं!), तथा ऐसे अधिनायकवादी कदम लेगा जो अपने सम्पूर्ण रूप में बुर्जुआ वर्ग को अपदस्थ कर समाजवाद की विजय होंगे, किन्तु यह जीत भी खुद को टटपुंजिया ‘तलछट’ से तुरंत मुक्त करने में किसी तरह कामयाब नहीं होगी।“ (The Discussion On Self-Determination Summed Up, 1916)