फिर से कंपनी राज
September 13, 2021दिल्ली मेट्रो बनाम रिलायंस इन्फ्रा
संपादकीय सितंबर 2021
दिल्ली मेट्रो कारपोरेशन ने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से इंदिरा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा होते हुए द्वारका सेक्टर 21 तक (22.5 किमी) मेट्रो एक्सप्रेस लाइन बनाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय टेंडर निकाले। अनिल अम्बानी ग्रुप की कंपनी रिलायंस इन्फ्रा ने इस टेंडर में भाग लेने के लिए स्पेन की एक कंपनी के साथ मिलकर एक नई कंपनी बनाई, ‘डेल्ही एअरपोर्ट मेट्रो एक्सप्रेस लाइन प्राइवेट लिमिटेड (DAMEPL)’ जिससे वो इस टेंडर में भाग लेने लायक़ हो सके और उसे इस काम का ठेका मिल गया। ‘डीएएमईपीएल’ का काम था, इस लाइन का डिजाईन बनाना, इंजीनियरिंग, निर्माण, उसके शर्तों के अनुरूप होने की टेस्टिंग, सभी शर्तों के अनुरूप मेट्रो लाइन पर मेट्रो सेवा शुरू करना जिसकी गति 120 किमी प्रति घंटा रहेगी, बिजली आपूर्ति करना, सिग्नल आदि सभी व्यवस्था को लगाना, प्लेटफार्म बनाना, देख रेख करना और साथ ही अगले 30 साल तक लिखित ‘रियायती’ शर्तों के आधार पर उससे भाड़ा वसूली और दूसरी सभी व्यवसायिक कमाई करना। कुछ निर्माण कार्य दिल्ली मेट्रो को भी करना था। अनिल अम्बानी की इस कंपनी के साथ इस सम्बन्ध में आवश्यक ‘रियायती’ समझौते पर 25 अगस्त 2008 को दिल्ली मेट्रो और ‘डीएएमईपीएल’ की ओर से हस्ताक्षर हुए।
उक्त समझौते की एक आवश्यक शर्त के अनुरूप एअरपोर्ट एक्सप्रेस लाइन को बिलकुल सही तरह से शुरू करने के लिए अम्बानी की इस कंपनी को दो साल का टाइम दिया गया। मतलब 31 जुलाई 2010 को इस लाइन पर एक्सप्रेस मेट्रो दनदनाते हुए दौड़ेगी और अगर देरी हुई तो कंपनी सप्ताह के हिसाब से हर्जाना देगी, लिखित में ये समझौता दिल्ली मेट्रो और अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ के बीच हुआ। दिल्ली मेट्रो को भी इस प्रोजेक्ट में कुल ₹2700 करोड़ काम करना था जो उसने निर्धारित समय में पूरा कर दिया। अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ ने देरी के लिए पैसे की कमी के बहाने शुरू कर दिए और गाड़ी शुरू होने की तारीख 31 जुलाई 2010 की तारीख को पहले दो महीने मतलब 30 सितम्बर 2010 तक, उसके बाद दूसरे बहाने बनाते हुए और दो महीने मतलब 30 नवम्बर तक बढ़वा लिया लेकिन काम फिर भी पूरा नहीं हुआ। अंत में उसके भी 40 दिन बाद मतलब 10 जनवरी 2011 को बताया कि हमारा काम पूरा हो गया। रेलवे आयुक्त ने 11 जनवरी 2011 को उस लाइन के परीक्षण की तारीख रखी। तय शुदा शर्तों के मुताबिक़ इस लाइन पर गाड़ी 120 किमी प्रति घंटा की गति से दौड़नी थी लेकिन अम्बानी द्वारा बिछाई गई रेलवे लाइन उस गति में गाड़ी दौड़ाने में फेल हो गई। कंपनी ने फिर रोना रोया और अंत में रेलवे आयुक्त ने गति सीमा को कम करके 105 किमी प्रति घंटा की गति तक संशोधित किया और गाड़ी चलाने की अस्थाई अनुमति 23 फरवरी 2011 को दे दी।
निर्धारित समय सीमा के पूरे 163 दिन बाद, निर्धारित गति सीमा 120 किमी प्रति घंटा की बजाए 105 किमी प्रति घंटा की गति से गाड़ी दौड़नी शुरू हुई लेकिन ये क्या? 22.5 किमी की इस लाइन पर मेट्रो ‘एक्सप्रेस’ शुरू होने के एक महीने में ही कुल 367 गर्डर (कंक्रीट के भारी भरकम टुकड़े जिनपर गाड़ी दौड़ती है) पर कुल 1551 जगहों पर बड़ी-बड़ी दरारें पाई गईं। मतलब 72% काम निर्धारित गुणवत्ता के अनुरूप नहीं पाया गया। मेट्रो ‘एक्सप्रेस’ लाइन रोक दी गई। 22 मार्च 2012 को अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ और दिल्ली मेट्रो के अधिकारियों ने संयुक्त रूप से सारी लाइन का निरीक्षण किया। निर्माण कार्य में गंभीर अनियमितताएं पाई गईं। अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ भले निर्माण कार्य में फिसड्डी और धोखेबाज़ साबित हुई लेकिन एक बात में उस्ताद निकली। इससे पहले कि देल्ली मेट्रो की ओर से शिकायत और हर्जाने का बम्बू आए उसने खुद तुरंत दिल्ली मेट्रो की कमियां निकालते हुए एक पत्र 23 मई 2012 को दिल्ली मेट्रो को लिखा। उसकी शिकायत बहुत ही दिलचस्प थी कि उनका कोई कसूर नहीं है बल्कि डक्ट के नीचे जो बेअरिंग लगाए गए हैं उनमें निर्माण की त्रुटी है जिससे डक्ट नीचे धसक जाती है और ऊपर रखे गर्डरों में दरार आ जाती है। मतलब कसूरवार बेअरिंग बनाने वाली कंपनी है!!
इसके बाद दिल्ली मेट्रो और अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ में पत्राचार द्वारा तू तू- मैं मैं शुरू हो गई। कुछ समय बाद इस नूरा कुश्ती में रेलवे मंत्रालय और शहरी विकास मंत्रालय भी शामिल हो गए। सारी दुनिया जानती है कि अम्बानियों से लड़ाई में जब केंद्र सरकार के मंत्रालय शामिल हो जाते हैं तो आखिर में जीत अम्बानियों की ही होती है। कंपनी निर्धारित समय सीमा में अपना काम नहीं कर पाई। उस वक़्त तक उसने जो काम किया उसे रेलवे की निर्माण कंपनी इरकॉन ने गणना कर के बताया कि उसका मूल्य ₹2273.67 करोड़ है।
अम्बानी के पक्ष में ट्रिब्यूनल का अज़ीब-ओ-ग़रीब फैसला
आम गरीबों से अप्रत्यक्ष करों के ज़रिए वसूलकर भरे गए सरकारी खजाने से ₹2700 करोड़ रुपये इस प्रोजेक्ट में लग चुके थे। क़रार के मुताबिक़ इस लाइन पर भाड़े और दूसरे दुनिया भर के करों और व्यवसायिक उगाही करते हुए अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ को 30 साल तक हर साल कुल ₹51 करोड़ रुपये सरकार को मतलब दिल्ली मेट्रो को देने थे। ये ही नहीं, हर साल ₹51 करोड़ की इस रक़म में 5% वृद्धि होती जानी तय हुई थी। अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ ने अब तक सिर्फ़ एक बार ही ₹51 करोड़ रुपये दिए हैं वह भी भाड़े की तयशुदा दरों, नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से एयर पोर्ट ₹150, महीने का पास ₹2000, एअरपोर्ट से सेक्टर 21 द्वारका ₹30, महीने का पास ₹600 से कहीं ज्यादा भाड़ा वसूलने के बाद। सरकारी ख़जाने पर हो रही इस डकैती के ख़िलाफ़ दिल्ली मेट्रो ने समझौते में उपलब्ध मध्यस्थता के प्रावधानों का इस्तेमाल करते हुए 23 अक्तूबर 2012 को अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ को नोटिस दिया। मामला आर्बिट्रेटर मतलब ‘सरपंच’ के पास पहुँच गया। तीन आर्बिट्रेटर नियुक्त हुए; एच एल बजाज, एस एस खन्ना और ए पी मिश्रा।
मामला आर्बिट्रेशन में जाने के बाद भी अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ अपनी चालें चलती रही। 18 जनवरी 2013 को उसने प्रस्तावित किया कि यदि गाड़ी की गति घटाकर 80 किमी प्रति घंटा कर दी जाए तो हमारी बिछाई लाइन उसे झेल जाएगी और हम दिल्ली मेट्रो से मिलजुलकर काम करते रहेंगे लेकिन देल्ली मेट्रो इस तरह ‘मिलजुलकर’ काम करने को राज़ी नहीं हुई!!
तीन सदस्यीय आर्बिट्रेशन पेनल तीन साल तक मामले का अध्ययन करता रहा। इस गहन अध्ययन के बाद उसने पाया कि सारी ग़लती दिल्ली मेट्रो की ही है। अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ बेक़सूर है। 11 मई 2017 को तीनों सरपंचों ने एकमत से अपना फैसला सुना दिया। इस ‘न्याय’ के लिए आर्बिट्रेटर लोगों ने अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ की जो दलीलें मंज़ूर कीं वे बहुत दिलचस्प हैं। न्याय व्यवस्था से सम्बद्ध सभी लोगों ने उनका अध्ययन करना चाहिए। कंपनी का कहना है कि दिल्ली मेट्रो ने उनका ठेका 8 अक्तूबर 2012 को निरस्त कर दिया था इसलिए उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती और इसीलिए वे अब उक्त कॉन्ट्रैक्ट के पुनर्गठन के लिए भी तैयार नहीं।
ट्रिब्यूनल एक-एक कर दिल्ली मेट्रो की दलीलों को खारिज करता चला गया। गर्डर में आई दरारों के लिए भी अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ ज़िम्मेदार नहीं बल्कि दिल्ली मेट्रो ही ज़िम्मेदार है। इसकी वजह दो गर्डर के बीच ज्यादा गैप होना बताया गया जिसके लिए दिल्ली मेट्रो को ही ज़िम्मेदार ठहराया गया। दिल्ली मेट्रो को ही ठेके के क़रार को तोड़ने के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया। दरार की मरम्मत में सिर्फ़ ₹14 करोड़ का ही खर्चा आता और इसके लिए ₹5700 करोड़ की प्रोजेक्ट अटक गई इसके लिए दिल्ली मेट्रो ही ज़िम्मेदार है!! जो मरम्मत हुई उसकी पर्याप्त तराई नहीं हुई इसमें अम्बानी की कंपनी का क्या क़सूर, दिल्ली मेट्रो ज़िम्मेदार है। दिल्ली मेट्रो की ओर से प्रस्तुत गवाह ज़िरह के वक़्त गोल-मोल जवाब दे गए। इसमें ज़रा सा भी आश्चर्यचकित होने की ज़रूरत है ही नहीं, ऐसा हमारे देश में हर रोज़ धड़ल्ले से होता है!! इस मामले में तो सबसे मज़बूत गवाह ठोस दस्तावेज थे लेकिन उससे क्या जब सामने अम्बानी है!! अम्बानी की कंपनी को बस एक बात का क़सूरवार माना कि उसने साल की तय रक़म ₹51करोड़ सिर्फ़ एक साल की ही दी है और उसकी ओर दिल्ली मेट्रो का ₹46.94 करोड़ रुपया निकलता है। दिल्ली मेट्रो को कुल ₹4506.02 करोड़ अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ को देना है। आधा न्याय तो इस तरह संपन्न हुआ!! अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ द्वारा जमा की गई ₹75 करोड़ की बैंक गारंटी जो, मेट्रो लाइन के सफलता पूर्वक संचालित होने पर 50%, 10 साल बाद 30% तथा 20% पूरे 30 साल बाद, रिलीज़ होनी थी, उसको भी रिलीज़ करवा दिया गया।
अब बारी थी, अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ के काउंटर क्लेम की। अम्बानी की कंपनी की ओर से तीन क्लेम फाइल किये गए। पहला मूलधन ₹3470 करोड़ चाहिए, दूसरा बैंक का ब्याज ₹166.32 करोड़ चाहिए और तीसरा दावे की रक़म पर ब्याज 105.74 करोड़ भी चाहिए। ‘बुद्धिमान’ आर्बिट्रेटरों ने एकमत से कहा, पहला दावा ₹3470 करोड़ जायज है, दूसरा दावा ₹166.32 करोड़ जायज़ है लेकिन तीसरा दावा मतलब दावे पर ब्याज ₹105.74 करोड़ नाजायज़ है वो नहीं मिलेगा। निचोड़ बात का यूँ हुआ कि दिल्ली मेट्रो, अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ को कुल ₹3636.32 करोड़ का भुगतान करेगी। अत: दूसरा आधा न्याय भी संपन्न हुआ!! बेचारे अनिल अम्बानी का नाहक ₹105.74 करोड़ का नुकसान करा दिया!! बड़ी कंपनियों के मामले में जहाँ हजारों करोड़ के वारे-न्यारे होते हैं, ऐसे होता है न्याय!!
दिल्ली उच्च न्यायालय का न्यायपूर्ण फैसला
अधिकतर मामलों में तो सरकारी विभाग बड़ी मगरमच्छ कंपनियों के मामले में अपील भी नहीं करते लेकिन इस मामले में दिल्ली मेट्रो ने दिल्ली उच्च नायालय में अपील की जिसकी सुनवाई पहले एक जज की बेंच ने की। अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ की ओर से दिल्ली उच्च न्यायलय में वकीलों की फौज का नेतृत्व कौन वकील कर रहे थे, जानना चाहेंगे? पी चिदंबरम!! आपने ठीक पढ़ा, वही भूतपूर्व वित्त मंत्री जो आज पानी पी पी कर क्रोनि कैपिटलिज्म को कोसते हैं!! सिंगल बेंच का फैसला इस केस, ‘सी एम 13435/ 2018’ में 6 मार्च 2018 को आया जिसमें आर्बिट्रेटर के अवार्ड को सही ठहराते हुए दिल्ली मेट्रो को पैसे का भुगतान करने का हुक्म सुनाया। उसके बाद दिल्ली मेट्रो ने फिर अपील की और मामला जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस चंद्रशेखर की संयुक्त बेंच के सामने गया। 15 जनवरी 2019 को फैसला सुनाते हुए माननीय न्यायधीशों ने लिखा कि आर्बिट्रेशन अवार्ड मनमाना और ग़ैर क़ानूनी है और वे इस फैसले से हैरान (shocked) हैं, और इसे निरस्त करते हैं।
ट्रिब्यूनल के अज़ीब-ओ-ग़रीब फैसले को अनुमोदित करने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला
दिल्ली उच्च न्यायलय भले आर्बिट्रेशन अवार्ड से हैरान (shocked) था लेकिन अनिल अम्बानी उच्च न्यायलय द्वारा उसके विरुद्ध हुए फैसले से बिलकुल हैरान-परेशान नहीं था। वो जानता था कि सुप्रीम कोर्ट से उसे ‘न्याय’ ज़रूर मिलेगा! और वही हुआ, ‘न्याय’ मिल गया!! सुप्रीम कोर्ट को सरकारी ख़जाने की हो रही इतनी विशाल लूट वाले केस के तथ्यों और मेरिट पर जाने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। 9 सितम्बर को जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस रवीन्द्र भट की सुप्रीम कोर्ट बेंच का एक ही बिन्दू पर फोकस रहा कि उच्च न्यायालयों को सामान्य दिन चर्या के हिसाब से आर्बिट्रेशन अवार्ड के फैसलों से खुद को अलग रखना चाहिए। जब कि हम हर रोज़ देखते हैं कि आर्बिट्रेशन अवार्ड्स को उच्च न्यायालयों में हर रोज़ चुनौतियाँ दी जाती हैं। हमारे अल्प क़ानूनी ज्ञान के मुताबिक़ आर्बिट्रेशन व्यवस्था को वैसे भी अर्द्ध न्यायिक संस्था (quasi- judicial body) कहा जाता है।
खैर जो हो, अनिल अम्बानी की कंपनी ‘डीएएमईपीएल’ को कुल ₹6252 करोड़ और उस पर ब्याज का मुनाफ़ा और उतना ही दिल्ली सरकार और दिल्ली मेट्रो को नुकसान संपन्न हुआ। ज़ाहिर है, इस नुकसान की भरपाई मेट्रो का किराया बढ़ाकर ही की जाएगी। सरकार जानती है कि कितनी भी क़ीमतें बढ़ जाएँ कुछ दिन सोशल मीडिया पर चर्चा रहती है बाद में सब ‘सामान्य’ हो जाता है। मिडिल क्लास से अभी भी बहुत कुछ निचोड़े जाने की गुंजाइश बाकी है। डीज़ल-पेट्रोल-गैस-खाने के तेल के दाम महीने में चार-चार बार बढ़ते हैं, कहीं आन्दोलन होते नज़र आते हैं क्या? केजरीवाल ने, हालाँकि, इस प्रकरण को घोटाला क़रार देते हुए सीबीआई जाँच की मांग की है लेकिन जब फैसला सर्वोच्च न्यायलय का हो तो सी बी आई क्या करेगी! उसे तो सुप्रीम कोर्ट ख़ुद पिंजरे में बंद तोता बता चुकी है। हाँ एक बात और है जिससे हमें शर्मिंदा होने और आक्रोशित होने की ज़रूरत है। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में लाखों लोगों की शहादत के बाद बर्बर ख़ूनी कंपनी ईस्ट इण्डिया कंपनी का राज ख़त्म हुआ था। आज फिर से उसी तरह की कंपनियों का राज प्रस्थापित हो चुका है बस एक अंतर है उस वक़्त की कंपनी के मालिक अँगरेज़ थे जिन्हें पहचानना आसान था। आज के कंपनी मलिक हमारे जैसे ही रंग- रूप वाले हैं जो कोशिश करने पर ही पहचाने जा सकते हैं। अगर हम पुन: प्रस्थापित होते जा रहे कंपनी राज के विरुद्ध दृढ़ता से उठ खड़े नहीं होते तो ये हमारे उन लाखों पूर्वजों का अपमान होगा जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में गोलियां खाएँ, हंसते-हंसते फांसी चढ़े।