ट्रोट्स्कीवादियों से सैद्धांतिक वार्तालाप

ट्रोट्स्कीवादियों से सैद्धांतिक वार्तालाप

September 16, 2021 1 By Yatharth

किश्त पहली: भगतसिंह क्रांति के दो चरणों वाले मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत के अनुकारी थे, ट्रॉट्स्कीवादी नहीं

श्यामसुन्दर

साथियो!

सन् 2012 में शहीद भगतसिंह दिशा मंच और ‘प्रैक्सिस कलैक्टिव’ (बिगुल मजदूर दस्ता) के बीच एक बहस हुई थी जिसका विषय भारत में राजनैतिक स्वतंत्रता के बाद यानी भारतीय पूंजीपति वर्ग के हाथों में राजसत्ता हस्तांतरित हो जाने के बाद क्रांति के चरण एवं भगतसिंह के मूल्यांकन को लेकर एक बहस हुई थी। इसी बहस में वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी (डब्ल्यू.एस.पी.) के साथी राजेश त्यागी (दिल्ली) ने भी हस्तक्षेप करते हुए अपनी ओर से दस्तावेज़ निकाले थे। शहीद भगतसिंह दिशा मंच की आलोचना करते हुए जो 21 पृष्ठीय दस्तावेज़ उन्होंने निकाला था वह मुझे कुछ देरी के बाद अपने एक साथी सुरेश कुमार (कुरुक्षेत्र) के द्वारा प्राप्त हुआ था। उस वक्त मैंने उक्त दस्तावेज़ को बिना पढ़े ही अपने कागज़ों में रख दिया था। कारण यह था कि ट्रॉट्स्कीवादियों के साथ बहस में उलझना मुझे अपना समय बर्बाद करने जैसा लगा था। अब गत कुछ अरसे से साथी राजेश त्यागी की डब्ल्यू.एस.पी. के अम्बाला छावनी के एक नेता साथी बलबीर सिंह सैनी के साथ क्रांति के चरणों के सिद्धांत को लेकर बातचीत चल रही थी और फिर भगतसिंह के मूल्यांकन का विषय भी बातचीत का हिस्सा बन गया तो फिर हम दोनों ने यह निर्णय किया कि इन विषयों पर बातचीत को लिखित रूप में बड़े स्तर पर आगे बढ़ाया जाए। इसके बाद जब मैंने ट्रॉट्स्की सम्बन्धी दस्तावेज़ों को देखा तो साथी राजेश त्यागी का सन् 2012 वाला दस्तावेज़ भी मेरे आगे आया और जब मैंने अब उसको पहली बार पढ़ा तो मैंने देखा कि साथी राजेश त्यागी ने मुझ पर यह आरोप मढ़ा हुआ है कि मैंने उनकी सन् 2009 की किसी वेबसाइट से सामग्री चुराकर सन् 2012 में भगतसिंह सम्बन्धी अपने सन् 2006 में किए गए मूल्यांकन (जो ‘शहीद भगतसिंहः लक्ष्य और विचारधारा’ शीर्षक से पुस्तिका के रूप में प्रकाशित  किया गया था) में संशोधन करते हुए दूसरा संस्करण निकाला। मैं इस बारे सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि त्यागी जी का यह आरोप आधारहीन और मनमाना है। इसका सत्य से तनिक भी लेना देना नहीं है। मैं उनके इस आरोप को पूर्णतः खारिज़ करता हूं। और यह बता दूं कि मुझे कोई भी वेबसाइट खोलना तक नहीं आती और राजेश त्यागी तो क्या किसी की भी वेबसाइट पर क्या-क्या पड़ा है मुझे कुछ पता नहीं। उम्मीद है कि त्यागी जी अब और आगे बढ़कर यह आरोप नहीं लगाएंगे कि मैंने अपने अन्य किसी साथी की मदद से उनकी वेबसाइट से सामग्री उठाई है।


खैर! वार्त्तालाप की इस पहली किश्त में हमें इस विषय पर चर्चा करनी है कि भगतसिंह क्रांति के दो चरणों वाले मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत को मानते थे या ट्रॉट्स्की के ‘स्थायी क्रांति’ के सिद्धांत को। क्रांति का दो चरणों वाला यानी पहले चरण में जनवादी क्रांति और दूसरे चरण में समाजवादी क्रांति वाला सिद्धांत मार्क्स-एंगेल्स द्वारा सुस्थापित सिद्धांत है जिसका अनुपालन लेनिन ने सन् 1905 में रूसी सर्वहारा के मार्गदर्शन के लिए किया। लेनिन ने रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी (रूसाजमपा) की स्थापना सन् 1898 में की थी और उस पार्टी की 1903 में हुई दूसरी पार्टी कांग्रेस में पार्टी दो धड़ों में बंट गई थी। बहुमत वाला क्रांतिकारी धड़ा बोल्शेविक कहलाया और अल्पमत वाला अवसरवादी और समझौतावादी धड़ा मेंशेविक। अप्रैल सन् 1905 में बोल्शेविकों और मेंशेविकों की अलग-अलग तीसरी पार्टी कांग्रेस हुई। बोल्शेविकों की कांग्रेस लंदन में और मेंशेविकों की जेनेवा में। क्यांकि मेंशेविकों की कांग्रेस में प्रतिनिधियों की संख्या काफी कम थी इसलिए उन्होंने अपनी इस कांग्रेस को सम्मेलन का नाम दिया था। लेनिन ने जुलाई 1905 में एक पुस्तक ‘जनवादी क्रांति में सामाजिक-जनवाद की दो कार्यनीतियां’, संक्षेप में ‘दो कार्यनीतियां’ लिखी। क्रांति की दो कार्यनीतियों का मायने यही था कि एक कार्यनीति वह जो मेंशेविकों द्वारा अपने सम्मेलन में पास की थी और दूसरी वह जो बोल्शेविकों ने अपनी उक्त पार्टी कांग्रेस में तय की थी। मेंशेविकों की कार्यनीति यह थी कि आसन्न क्रांति में सर्वहारा वर्ग अपनी कोई नेतृत्वकारी राजनीतिक भूमिका अदा न करे और सिर्फ पूंजीपति वर्ग को सत्ता प्राप्ति में सहयोग करे। लेकिन लेनिन, जो बोल्शेविकों के नेता थे, ने रूसी सर्वहारा वर्ग के लिए जो कार्यनीति तय की वह यह थी कि एकतांत्रिक सामंती सत्ता के विरुद्ध जनवादी क्रांति को पूरा करने के लिए रूसी सर्वहारा वर्ग क्रांति का नेतृत्व पूंजीपति वर्ग के हाथों में न जाने दे बल्कि उस क्रांति का नेतृत्व खुद अपने हाथों में ले और समस्त किसानों के साथ संश्रय कायम करते हुए यानी ‘सर्वहारा वर्ग और किसान वर्ग का क्रांतिकारी जनवादी अधिनायकत्व’ के जरिए जनवादी क्रांति को निर्णायक रूप से पूरा करे और फिर क्रांति के दूसरे चरण यानी समाजवादी चरण के लिए जो कि पूंजीपति वर्ग के प्रतिरोध को कुचलने के लिए होगा, सर्वहारा को किसानों के निर्धनतम हिस्से के साथ अपना संश्रय कायम करना चाहिए। क्रांति के इन दो चरणों की सामाजिक शक्तियों के दो भिन्न संश्रयों को पूरी तरह स्पष्ट करते हुए अपनी रचना ‘दो कार्यनीतियां’ में लेनिन ने लिखाः
“सर्वहारा वर्ग को चाहिए कि वह एकतंत्र के प्रतिरोध को बलपूर्वक कुचल देने और बुर्जुआ वर्ग की अस्थिरता को निशशक्त बना देने के लिए किसान अवाम को अपने साथ मिलाकर जनवादी क्रांति को परिणति तक पहुंचाये। सर्वहारा वर्ग को चाहिए कि वह बुर्जुआ वर्ग के प्रतिरोध को बलपूर्वक कुचल देने और किसानों तथा टुटपुंजिया वर्ग की अस्थिरता को निशशक्त बना देने के लिए आबादी के अर्द्ध-सर्वहारा तत्वों को अपने साथ मिलाकर समाजवादी क्रांति को पूरा करे। ये हैं सर्वहारा वर्ग के कार्यभार…” (संकलित रचनाएं दस खण्डों में, खंड-3, पृष्ठ 122)


लेनिन की इस कार्यनीति के अनुसार क्रांति के दो चरण हुए। पहला चरण जनवादी क्रांति का जिसके जरिए दो वर्गों की सत्ता यानी सर्वहारा वर्ग और किसान वर्ग अस्तित्व में आएगी और दूसरा चरण पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध समाजवादी क्रांति का चरण जिसके फलस्वरूप सर्वहारा एवं अर्द्ध-सर्वहारा (किसानों का निर्धनतम हिस्सा) की सत्ता यानी समाजवादी सत्ता अस्तित्व में आएगी। मेंशेविकों और बोल्शेविकों से पृथक तीसरी कार्यनीति ‘स्थायी क्रांति’ के नाम से ट्रॉट्स्की ने खुद गढ़कर पेश की थी। असल में मार्क्सवाद-लेनिनवाद विरोधी ‘स्थायी क्रांति’ का सिद्धांत गढ़कर ट्रॉट्स्की ने लेनिन की दो चरणों वाली और जनवादी क्रांति में दो वर्गों की सत्ता वाली कार्यनीति के उक्त सूत्र को सिद्धांतहीन एवं त्रुटिपूर्ण बताकर उस पर प्रहार किया था। ट्रॉट्स्की का ‘स्थायी क्रांति’ का सिद्धांत स्वविरोधी सिद्धांत है। एक तरफ तो 1905 में बोल्शेविकों और मेंशेविकों की भांति ट्रॉट्स्की यह मानता था कि आने वाली क्रांति का वर्ग चरित्र बुर्जुआ जनवादी चरित्र है दूसरी ओर उसके उक्त सिद्धांत का यह कहना था कि बुर्जुआ जनवादी क्रांति के फलस्वरूप सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व अस्तित्व में आएगा, सर्वहारा वर्ग और किसानों का जनवादी अधिनायकत्व नहीं। मार्क्सवाद-लेनिनवाद के अनुसार सर्वहारा अधिनायकत्व समाजवादी अधिनायकत्व होता है, जनवादी अधिनायकत्व नहीं और यदि कोई कहे कि होने वाली क्रांति बुर्जुआ जनवादी क्रांति है तो उसके परिणामस्वरूप अस्तित्व में आने वाला अधिनायकत्व भी जनवादी ही होगा, समाजवादी नहीं। ट्रॉट्स्की और उनके शिष्य सर्वहारा अधिनायकत्व को समाजवादी अधिनायकत्व मानने से इनकार करके ऐतिहासिक द्वन्द्ववाद को ध्वस्त कर देते हैं। राजेश त्यागी ने अपने 21 पृष्ठ वाले दस्तावेज़ में पृष्ठ-4 पर कोष्ठकों में लिखा है कि, “श्यामजी, स्तालिनवादी होने के नाते, ‘सर्वहारा अधिनायकत्व’ को समाजवादी क्रांति का नारा मानते हैं”। अर्थात् सर्वहारा अधिनायकत्व के नारे को ट्रॉट्स्की और उनके शिष्य समाजवादी क्रांति का नारा मानने को ‘स्तालिनवाद’ की संज्ञा देते हैं। सर्वहारा अधिनायकत्व समाजवादी अधिनायकत्व ही होता है इसकी चर्चा आगे होगी लेकिन सामंती अथवा औपनिवेशिक अधिनायकत्व वाली समाज व्यवस्थाओं से सीधे सर्वहारा अधिनायकत्व यानी समाजवादी अधिनायकत्व में छलांग लगाना मार्क्सवाद-लेनिनवाद कतई नहीं है अपितु ट्रॉट्स्की मार्का ‘मार्क्सवाद’ है।

ट्रॉट्स्की और ट्रॉट्स्कीवादियों का कहना है कि ‘सर्वहारा वर्ग और किसान वर्ग के जनवादी अधिनायकत्व’ का अस्तित्व न तो 1905 की जनवादी क्रांति के फलस्वरूप आया और न ही फरवरी 1917 में हुई जनवादी क्रांति के फलस्वरूप, तथा उनका कहना है कि फरवरी 1917 की क्रांति में जब मजदूरों-किसानों की हथियारबंद सोवियतें सामंतशाही का तख्ता पलट देने के बाद खड़ी देखती रह गईं और सत्ता पर कब्जा पूंजीपति वर्ग ने कर लिया तो लेनिन ने क्रांति सम्बन्धी अपने दो चरणों वाले और मजदूर वर्ग तथा किसानों के संश्रय पर आधारित जनवादी अधिनायकत्व वाले कार्यनीति सम्बन्धी सिद्धांत की त्रुटि समझ में आ गई तथा अपनी रचना ‘अप्रैल थीसिस’ के जरिये उसमें सुधार कर लिया और ऐसा करके उन्होंने ट्रॉट्स्की की अवस्थिति को ग्रहण कर लिया। और उनका यह भी कहना है कि अपनी रचना ‘अप्रैल थीसिस’ के जरिये लेनिन ने क्रांति के दो चरणों वाले सिद्धांत का पूर्ण परित्याग कर दिया था और अपनी अगली रचनाओं में उन्होंने क्रांति के दो चरणों वाले और दो वर्गों की सत्ता पर आधारित सर्वहारा वर्ग और किसान वर्ग के अधिनायकत्व वाले सिद्धांत को कोई स्थान नहीं दिया। उनका यह भी कहना है कि अक्टूबर 1917 की क्रांति ने इस बात को प्रमाणित कर दिया कि लेनिन द्वारा अपनी रचना ‘दो कार्यनीतियां’ में सूत्रित किया गया क्रांति का दो चरणों वाला सिद्धांत गलत था तथा ट्रॉट्स्की का स्थायी क्रांति का सिद्धांत सही था। ट्रॉट्स्की का कहना है कि लेनिन ने अपनी रचना ‘दो कार्यनीतियां’ में जनवादी क्रांति के चरण के लिए जो सर्वहारा वर्ग और किसानों के क्रांतिकारी जनवादी अधिनायकत्व वाली अवधारणा प्रस्तुत की थी असल में वही अवधारणा अक्टूबर क्रांति के जरिये सर्वहारा वर्ग के एकल अधिनायकत्व के रूप में फलीभूत और प्रकट हुई। ट्रॉट्स्की और ट्रॉट्स्कीवादियों के उक्त निराधार और झूठे दावों और कथनों का पूरी तरह पर्दाफाश तो वार्त्तालाप की दूसरी किश्त में किया जाएगा फिलहाल इस किश्त में लेनिन के संबंध में, हम अपने को इस प्रश्न तक ही सीमित रखेंगे कि क्या वास्तव में लेनिन ने फरवरी क्रांति और ‘अप्रैल थीसिस’ के बाद अपनी रचना ‘दो कार्यनीतियां’ में वर्णित क्रांति के दो चरणों वाले सिद्धांत का परित्याग कर दिया था? लेनिन पर इस प्रकार का आधारहीन इल्जा़म वही व्यक्ति लगा सकता है जिसका कि या तो लेनिन से बैर हो या फिर जिसने लेनिन की रचनाओं के मात्र पन्ने पलटे हों। इस बात को प्रमाणित करने के लिए फरवरी क्रांति और ‘अप्रैल थीसिस’ के बाद की लेनिन की रचनाओं से कुछ चुनिंदा प्रसंगों को उद्धृत कर देना ही काफी होगा जो प्रमाणित कर देंगे कि ट्रॉट्स्की और उनके सशिष्योंका यह दावा कितना निराधार और मनगढ़ंत है कि लेनिन ने अपनी रचना ‘दो कार्यनीतियां’ में वर्णित और सूत्रित क्रांति की दो चरणों वाली कार्यनीति और जनवादी क्रांति के चरण में सर्वहारा वर्ग और किसानों के क्रांतिकारी जनवादी अधिनायकत्व की कार्यनीति का फरवरी क्रांति के बाद परित्याग कर दिया था। क्योंकि उनके अनुसार फरवरी-मार्च 1917 की क्रांति ने सर्वहारा वर्ग और किसानों के क्रांतिकारी जनवादी अधिनायकत्व की कार्यनीति को गलत सिद्ध कर दिया था। आओ देखें ‘अप्रैल थीसिस’ के बाद की लेनिन की रचनाओं से कुछ उद्धरणः

1). सन् 1905 में लिखी अपनी रचना ‘दो कार्यनीतियां’ में सूत्रित कार्यनीति की ओर इशारा करते हुए लेनिन 29 अगस्त 1917 को लिखते हैंः “राजतंत्र को केवल सर्वहारा वर्ग और किसान ही उलट सकते हैं-यह था उस समय हमारी वर्गीय नीति का बुनियादी निर्णय और वह निर्णय सही था। फरवरी और मार्च 1917 ने इस बात की एक बार और पुष्टि की।” (एक लेखक-पत्रकार की डायरी से, किसान और मज़दूर, ज़मीन का सवाल और आज़ादी की लड़ाई पुस्तक से)


अब देखिए कि ट्रॉट्स्की और उनके शिष्य जो पूरे जोर शोर से यह दावा करते नहीं थकते कि फरवरी-मार्च 1917 की क्रांति ने लेनिन द्वारा सूत्रित की गई कार्यनीति यानी सर्वहारा वर्ग और किसानों के क्रांतिकारी जनवादी अधिनायकत्व की कार्यनीति को गलत सिद्ध कर दिया था, लेनिन से बिल्कुल विपरीत ध्रुव पर खड़े हैं या नहीं? लेनिन तो कहते हैं कि हमारी उस कार्यनीति को फरवरी क्रांति ने सही सिद्ध किया और उसकी पुष्टि की लेकिन ट्रॉट्स्कीवादी कहते हैं कि लेनिन की उस कार्यनीति को फरवरी क्रांति ने गलत सिद्ध कर दिया था और इसीलिए लेनिन ने ‘अप्रैल थीसिस’ में उस कार्यनीति को गलत मानकर तिलांजलि दे दी थी। इससे तो यही सिद्ध होता है कि ट्रॉट्स्की और उनके शिष्य न तो लेनिन की रचना ‘दो कार्यनीतियां’ को समझ पाये, न फरवरी क्रांति को न ‘अप्रैल थीसिस’ को और फलतः न ही अक्तूबर क्रांति के सबकों को। इस पर विस्तृत चर्चा अगली किश्त में की जाएगी।


2). अक्तूबर 1918 में लिखी अपनी रचना ‘सर्वहारा क्रांति और गद्दार काउत्स्की’ में लेनिन लिखते हैंः
“रूसी क्रांति बुर्जुआ क्रांति है- यह 1905 से पहले रूस के सभी मार्क्सवादियों ने कहा था। मेंशेविकों ने मार्क्सवाद के स्थान पर उदारतावाद रखते हुए इससे यह निष्कर्ष निकाला थाः अतएव सर्वहारा वर्ग को अवश्य ही उससे आगे नहीं जाना चाहिए, जो बुर्जुआ वर्ग के लिए स्वीकार्य है, उसे बुर्जुआ वर्ग के साथ अवश्य ही समझौते की नीति का अनुसरण करना चाहिए। बोल्शेविकों ने कहा कि यह उदारतावादी-बुर्जुआ सिद्धांत है। बुर्जुआ वर्ग राजतंत्र, ज़मीदारी प्रणाली, आदि को यथासंभव बरक़रार रखते हुए राज्य को क्रांतिकारी ढंग से नहीं, अपितु बुर्जुआ सुधारवादी ढंग से पुनर्गठित करने का प्रयत्न कर रहा है। सर्वहारा वर्ग को बुर्जुआ वर्ग के सुधारवाद से अपने को न ‘बंधने’ देते हुए बुर्जुआ-जनवादी क्रांति अवश्य ही उसके समापन तक पहुंचानी चाहिए। बोल्शेविकों ने बुर्जुआ क्रांति के अंतर्गत वर्ग शक्तियों के सहसम्बन्ध का इस प्रकार सूत्रीकरण किया थाः किसान समुदाय को अपने साथ एकजुट करते हुए सर्वहारा वर्ग उदारतावादी पूंजीपति वर्ग को निष्प्रभावित करता है और राजतंत्र, मध्ययुगीनता, ज़मीदारी प्रणाली को अंतिम रूप से नष्ट करता है।


”सामान्यतया किसान समुदाय के साथ सर्वहारा वर्ग की संघबद्धता में क्रांति का बुर्जुआ स्वरूप प्रकट होता है, इसलिए कि सामान्यतया किसान छोटे उत्पादक होते हैं, जो माल-उत्पादन के सहारे अस्तित्वमान रहते हैं। आगे चलें, बोल्शेविकों ने उसी समय यह और जोड़ा था कि सर्वहारा वर्ग सारे अर्द्ध-सर्वहाराओं (सारे शोषितों और मेहनतकशों) को अपने साथ एकजुट करता है, मझौले किसानों को निष्प्रभावित करता है तथा बुर्जुआ वर्ग का तख्ता उलटता हैः इसमें ही बुर्जुआ-जनवादी क्रांति से समाजवादी क्रांति की भिन्नता निहित है। (देखें 1905 की मेरी पुस्तिका ‘दो कार्यनीतियां’ जो 1907 में पीटर्सबर्ग में ‘बारह वर्षके अंदर’ नामक लेख-संग्रह में पुनःमुद्रित हुई थी।)”
लेनिन आगे लिखते हैंः


“काउत्स्की ने 1905 में इस वाद-विवाद में परोक्ष रूप से भाग लिया था, जब उस समय के मेंशेविक प्लेख़ानोव के एक प्रश्न के उत्तर में उनकी राय सारतः प्लेख़ानोव के विरुद्ध थी, जिनका उस वक़्त बोल्शेविक अख़बारों ने ख़ास तौर पर मज़ाक उड़ाया था। परंतु अब काउत्स्की उस समय के वाद-विवाद के बारे में एक शब्दभी नहीं कहते (अपने ही बयानों से बेनकाब होने से डरते हैं!) और इस तरह जर्मन पाठक के लिए मसले का सार समझना सर्वथा असंभव बना देते हैं। श्री काउत्स्की जर्मन मज़दूरों को 1918 में यह नहीं बता सके कि वह किस तरह 1905 में मज़दूरों की उदारतावादी बुर्जुआ वर्ग के साथ नहीं, अपितु किसानों के साथ संघबद्धता के पक्ष में थे और किन शर्तों पर उन्होंने इस संघबद्धता की पैरवी की थी, इस संघबद्धता के लिए किस कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की थी।” (सर्वहारा क्रांति और गद्दार काउत्स्की, संकलित रचनाएं दस खंडों में, खंड-8, पृष्ठ 160-162)


3). अक्तूबर 20, 1920 को ‘अधिनायकत्व के प्रश्न के इतिहास के संबंध में’ नामक अपने लेख में 1905 में लिखी अपनी रचना ‘दो कार्यनीतियां’ की वैधता की फिर पुष्टिकरते हुए लेनिन लिखते हैंः


“सोवियतों के महत्व के बारे में विवाद उस समय ही अधिनायकत्व के प्रश्न से जुड़ चुका था। बोल्शेविकों ने अक्तूबर, 1905 की क्रांति से पहले ही अधिनायकत्व सम्बन्धी प्रश्न प्रस्तुत कर दिया था (देखें मेरी पुस्तिका ‘जनवादी क्रांति में सामाजिक जनवाद की दो कार्यनीतियां, जेनेवा, जुलाई, 1905, ‘बारह वर्षके अंदर’ शीर्षक लेख संग्रह में पुनःमुद्रित)। मेंशेविकों ने अधिनायकत्व के इस नारे के प्रति नकारात्मक रुख़ अपनाया। बोल्शेविकों ने इस पर ज़ोर दिया कि मज़दूर प्रतिनिधि सोवियतें ‘नयी क्रांतिकारी सत्ता के वस्तुतः अंकुर हैं’-बोल्शेविक प्रस्ताव के मसौदे में अक्षरषः यह कहा गया था (‘रिपोर्ट’ का पृष्ठ 92)। मेंशेविकों ने सोवियतों का महत्व स्वीकार किया था, वे उन्हें ‘संगठित करने में सहायता देने’ के पक्ष में थे, आदि, परंतु वे उन्हें क्रांतिकारी सत्ता का अंकुर नहीं मानते थे, उन्होंने इस या उस किस्म की ‘नयी क्रांतिकारी सत्ता’ के बारे में आमतौर पर कोई बात नहीं कही, अधिनायकत्व के नारे को सीधे-सीधे ठुकरा दिया। यह देखना कठिन नहीं है कि मेंशेविकों के साथ इस समय के सारे मतभेदों के बीज़ प्रश्न के इस प्रस्तुतीकरण में निहित हैं। यह देखना भी कठिन नहीं है कि मेंशेविक (रूसी और काउत्स्कीपंथियों, लॉन्गेपंथियों, आदि की तरह के गै़र-रूसी भी) इस प्रश्न के अपने प्रस्तुतीकरण में सुधारवादियों या अवसरवादियों के रूप में पेश आये तथा पेश आ रहे हैं, कथनी में सर्वहारा क्रांति को स्वीकार करते हैं, परंतु करनी में उसे ठुकराते हैं, जो क्रांति की अवधारणा में सबसे सारभूत तथा मूलभूत होता है।”


लेनिन फिर आगे लिखते हैंः
“1905 की क्रांति से पहले ही ऊपर चर्चित पुस्तिका ‘दो कार्यनीतियां’ में मैंने मेंशेविकों के तर्क का विश्लेषण किया था, जिन्होंने मुझ पर यह आरोप लगाया था कि मैंने ‘क्रांति तथा अधिनायकत्व की अवधारणाओं की चुपके से अदला-बदली कर दी’ (‘बारह वर्ष के अंदर’, पृष्ठ 459)।” (संकलित रचनाएं दस खंडों में, खंड-10, पृष्ठ 73)


4). लेनिन ने अपने अक्तूबर 1920 वाले उक्त लेख ‘अधिनायकत्व के प्रश्न के इतिहास के संबंध में’ में कई पृष्ठ अपने 1906 के लेख से भी उद्धृत किए हैं जिसमें कई जगहों पर उन्होंने जनता के अधिनायकत्व का उल्लेख किया है और उस वक्त के दो समाचार पत्रों- ‘नाचालो’ एवं ‘नोवाया जीज़्न’ की अधिनायकत्व के प्रश्न बारे अवस्थितियों का हवाला देते हुए लेनिन ने लिखा हैः
“…विवाद घटनाओं के मूल्यांकन की केवल तफ़सीलों से सरोकार रखते थेः ‘नाचालो’, उदाहरण के लिए, मज़दूर प्रतिनिधि सोवियतों को क्रांतिकारी स्वशासन के निकाय मानता था, ‘नोवाया जीज़्न’ उन्हें सर्वहारा वर्ग तथा क्रांतिकारी जनवादियों को एकताबद्ध करने वाली क्रांतिकारी सत्ता के भ्रूण रूपी निकाय मानता था। ‘नाचालो’ सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की ओर झुका। ‘नोवाया जीज़्न’ ने सर्वहारा वर्ग तथा किसान समुदाय के जनवादी अधिनायकत्व के दृश्टिकोण को अपनाया।” (वही, पृष्ठ-92)
ऊपर दिए गए इन पुख्ता प्रमाणों के होते हुए भी नहीं मालूम कि ट्रॉट्स्की ने किस आधार पर यह दावा किया कि लेनिन ने फरवरी क्रांति के बाद अपनी रचना ‘दो कार्यनीतियां’ में दिया सिद्धांत सर्वहारा और किसान वर्ग के जनवादी अधिनायकत्व को खारिज़ कर दिया था और अपनी उस ‘गैर-सैद्धांतिक’ अवधारणा को ‘अप्रैल थीसिस’ के जरिए सुधार लिया था एवं उस अवधारणा का सदा-सदा के लिए परित्याग कर दिया था!


5). फरवरी क्रांति और ‘अप्रैल थीसिस’ के बाद अगस्त-सितंबर 1917 में लेनिन अपनी रचना ‘राज्य और क्रांति’ में जनता की जनवादी क्रांति के सिद्धांत को मार्क्स के हवाले से पुख्ता करते हुए लिखते हैंः
“…मार्क्स के इस अत्यंत अर्थपूर्ण कथन पर खास तौर से ध्यान दिया जाना चाहिए कि राज्य की नौकरशाही-फौजी मषीनरी को नष्ट करना ‘किसी भी सच्ची जन-क्रांति की प्रारंभिक षर्त’ है। ’जन’-क्रांति की यह अवधारणा मार्क्स के मुंह से अजीब लगती है, और हो सकता है कि रूस के प्लेख़ानोववादी और मेंशेविक, स्त्रूवे के वे चेले, जो अपने को मार्क्सवादी मनवाना चाहते हैं, कह दें कि यह शब्द मार्क्स की ’कलम से गलती से निकल गया’। इन लोगों ने मार्क्सवाद को ऐसी खोखली उदारतावादी विकृति की स्थिति में पहुंचा दिया है कि उनकी दृश्टि में बुर्जुआ क्रांति और सर्वहारा क्रांति के बीच की प्रतिपक्षता के अलावा और किसी चीज़ का अस्तित्व ही नहीं है-और इस प्रतिपक्षता की भी व्याख्या वे बिल्कुल निर्जीव ढंग से करते हैं।” (अध्याय-3 अनुभाग-1, संकलित रचनाएं दस खंडों में, खंड-7, पृष्ठ 55-56)


और देखें कि इसी संबंध में लेनिन क्या लिखते हैंः
“1871 में यूरोपीय महाद्वीप का एक भी देश ऐसा नहीं था, जिसकी आबादी में सर्वहारा वर्ग की बहुसंख्या रही हो। ‘जन’-क्रांति, जो अपने प्रवाह में सचमुच जनता की बहुसंख्या को खींच रही है, ऐसी तभी हो सकती थी, जब वह अपनी धाराओं में सर्वहारा वर्ग और किसानों, दोनों को खींच लेती। उस समय ये दोनों वर्ग ही ’जनता’ थे। ये दोनों वर्ग एकताबद्ध हैं, क्योंकि ’राज्य की नौकरशाही-फ़ौजी मषीनरी’ उनका उत्पीड़न करती है, दमन करती है और शोषण करती है। इस मषीनरी को ध्वंस कर देना, उसे तोड़ देना- यही ’जनता’ के, जनता की बहुसंख्या के, मज़दूरां और अधिकांश किसानों के हित में है, यही सबसे ग़रीब किसानों और सर्वहारा वर्ग के स्वतंत्र संघ की ’प्रारंभिक षर्त’ है, इस तरह के संघ के बिना जनवाद अस्थिर है और समाजवादी परिवर्तन असंभव है।’’ (वही, पृष्ठ 56-57)


6). मार्च 1919 की रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बो0) की 8वीं कांग्रेस की रिपोर्ट में पार्टी कार्यक्रम संबंधी रिपोर्ट, 19 मार्च में लेनिन ने क्रांति के दो चरणों बारे कई बार दोहराते हुए निम्न प्रकार से लिखाः
“हम कहते हैंः इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि कोई जाति मध्ययुगीनता से बुर्जुआ जनवाद के और बुर्जुआ जनवाद से सर्वहारा जनवाद के रास्तों की किस मंजिल में है। यह बात बिल्कुल सही है।…क्योंकि सभी देश या तो मध्ययुगीनता से बुर्जुआ जनवाद या बुर्जुआ जनवाद से सर्वहारा जनवाद का रास्ता तय कर रहे हैं। यह एक सर्वथा अनिवार्य मार्ग है। इससे अधिक कुछ भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि और कुछ कहना गलत होगा, क्योंकि वह वह नहीं होगा, जो वस्तुतः अस्तित्व में है। … हमारे कार्यक्रम में मेहनतकशों के आत्मनिर्णय की बात नहीं कही जानी चाहिए, क्योंकि ऐसा करना गलत होगा। उसमें वही कहा जाना चाहिये, जो सचमुच अस्तित्व में है। चूंकि विभिन्न जातियां मध्ययुगीनता से बुर्जुआ जनवाद के और बुर्जुआ जनवाद से सर्वहारा जनवाद के रास्ते की अलग-अलग मंजिलों में हैं, इसलिए हमारे कार्यक्रम की यह प्रस्थापना बिल्कुल सही है।“ (संकलित रचनाएं दस खण्डों में, खंड-8,पृश्ठः 277-78-79, जोर हमारा)
लेनिन द्वारा प्रस्तुत की गयी रिपोर्ट से जो उद्धरण ऊपर प्रस्तुत किया है यह मार्च 1919 का है और इसमें क्रांति की जनवादी और समाजवादी दोनों मंजिलों का जिक्र है और साफ-साफ कहा गया है कि दुनिया के सभी देश या तो बुर्जुआ जनवाद यानी जनवादी अधिनायकत्व की मंजिल में हैं, या फिर सर्वहारा जनवाद यानी सर्वहारा-अधिनायकत्व की मंजिल में हैं। कार्यक्रम संबंधी उक्त रिपोर्ट रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) की आठवीं कांग्रेस में लेनिन द्वारा प्रस्तुत की गयी थी और पूरी पार्टी (जिसमें ट्रॉट्स्की भी शरीक थे) द्वारा पास की गयी थी, फिर भी ट्रॉट्स्की के शिष्य दिन-रात लेनिन के विरुद्ध यह दुष्प्रचार करने में जुटे रहते हैं कि लेनिन ने तो फरवरी सन् 1917 की क्रांति के बाद क्रांति के दो चरणों वाले सिद्धांत का परित्याग कर दिया था। और उसके बाद कभी भी जनवादी आधिनायकत्व की बात ही नहीं की थी और कहते हैं कि लेनिन की मृत्यु के बाद स्टालिन ने क्रांति के दो चरणों वाले सिद्धांत को पुनर्जीवित कर दिया आदि, आदि।


7). कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (कोमिन्टर्न) की दूसरी कांग्रेस में राष्ट्रीय तथा औपनिवेशिक प्रष्नों से संबंधित आयोग की रिपोर्ट, 26 जुलाई 1920 में लेनिन ने बुर्जुआ जनवादी आंदोलन अथवा जनवादी अधिनायकत्व के चरण बारे लिखाः


(क). “… मैं पिछड़े हुए देशों में बुर्जुआ-जनवादी आंदोलन के प्रश्न पर विशेष रूप से बल देना चाहूंगा। यही वह प्रश्न है, जिसने कुछेक मतभेद उत्पन्न किये थे। हमने इस बात पर विचार किया कि क्या सिद्धांततः और उसूलन यह कहना ठीक होगा कि कम्युनिस्ट इंटरनेशनल तथा कम्युनिस्ट पार्टियों को पिछड़े हुए देशों के बुर्जुआ-जनवादी आंदोलन का समर्थन करना चाहिए। अपने विचार-विमर्ष के परिणामस्वरूप हम इस सर्वसम्मत निष्कर्ष पर पहुंचे कि ’बुर्जुआ-जनवादी’ आंदोलन के स्थान पर राष्ट्रीय-क्रांतिकारी आंदोलन शब्दों का ही इस्तेमाल किया जाए। इस बात में ज़रा भी संदेह नहीं होना चाहिए कि हर राष्ट्रीय आंदोलन केवल बुर्जुआ-जनवादी आंदोलन ही हो सकता है, क्योंकि पिछड़े हुए देशों में जनता का अधिकांश भाग किसान हैं, जो बुर्जुआ-पूंजीवादी संबंधों का प्रतिनिधित्व करते हैं।“ (एशिया का जागरण, पृष्ठ-55)
(ख). “…क्योंकि साम्राज्यवादी बुर्जुआ वर्ग उत्पीड़ित जनगण के बीच भी सुधारवादी आंदोलन को रोपने के लिए यथासंभव सभी कुछ कर रहा है। शोशक और औपनिवेशिक देशों के बुर्जुआ लोगों में किसी हद तक मेल स्थापित हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप उत्पीड़ित देशों का बुर्जुआ वर्ग यद्यपि राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन अवश्य करता है, पर साथ ही प्रायः, यहां तक कि अधिकांश मामलों में, साम्राज्यवादी बुर्जुआ वर्ग का भी साथ देता है, अर्थात सभी क्रांतिकारी आंदोलनों और क्रांतिकारी वर्गों के खि़लाफ़ उसके साथ मिलकर संघर्षों करता है। यह बात आयोग में अकाट्य रूप से सिद्ध कर दी गयी थी और हमने तय किया कि अकेली सही बात यही होगी कि इस अंतर पर ध्यान दिया जाए और प्रायः हर जगह “बुर्जुआ-जनवादी“ के बदले “राष्ट्रीय-क्रांतिकारी“ शब्दों का इस्तेमाल किया जाए। इस परिवर्तन का आशय यह है कि हमें, कम्युनिस्टों के नाते, उपनिवेषों में बुर्जुआ मुक्ति आंदोलनों का तभी समर्थन करना चाहिए और हम तभी समर्थन करेंगे, जब ये आंदोलन वास्तव में क्रांतिकारी हों और उनके प्रतिनिधि किसानों और शोषित  जन समुदायों को क्रांतिकारी भावना से प्रशिक्षित  और संगठित करने के हमारे कामों में बाधा न डालें।“ (वही, पृष्ठ 56)


खुद ट्रॉट्स्की ने, जो उस वक्त पार्टी में थे लेनिन द्वारा प्रस्तुत की गयी उक्त रिपोर्ट पर कोई ऐतराज नहीं किया था और कम्युनिस्ट इंटरनेशनल में यह रिपोर्ट पास हुई थी जिनमें पिछड़े देशों में क्रांति का चरण बुर्जुआ जनवादी चरण अथवा जनवादी अधिनायकत्व का चरण सर्वसम्मति से माना गया था, फिर ट्रॉट्स्की के शिष्य किस आधार पर लेनिन के विरुद्ध यह प्रचार करते हैं कि वे तो फरवरी सन् 1917 की क्रांति के बाद क्रांति के दो चरणों वाले सिद्धांत का परित्याग करके ट्रॉट्स्की के ’स्थायी क्रांति’ के सिद्धांत की पोजिशन में प्रवेश कर चुके थे, जिस सिद्धांत ने क्रांति के जनवादी अधिनायकत्व वाले चरण को खारिज कर दिया था और जो सिद्धांत सत्ता के वर्ग चरित्र से निरपेक्ष होकर केवल सर्वहारा अधिनायकत्व की बात करता था? ट्रॉट्स्कीवादी नहीं जानते कि सर्वहारा वर्ग ऐतिहासिक तौर पर समाजवादी वर्ग होता है और उसका अधिनायकत्व भी अनिवार्य तौर पर समाजवादी अधिनायकत्व होता है।


8). मई, 1922 में लेनिन भारत और चीन जैसे औपनिवेशिक और अर्ध-औपनिवेशिक देशों के लिए क्रांति का चरण सर्वहारा अधिनायकत्व का चरण न बता कर, जनवादी अधिनायकत्व का चरण बता रहे हैंः
“…इसी बीच हिन्दुस्तान और चीन में उबाल आ रहा है। उनकी जनसंख्या 70 करोड़ से अधिक है और आस-पड़ोस के एशियाई देशों सहित, जो हर तरह से उन्हीं जैसे हैं, यह संख्या दुनिया की आबादी के आधे से भी अधिक हो जाती है। वहां की जनता अपरिहार्य रूप से बढ़ती हुई तेजी के साथ अपने 1905 की ओर बढ़ रही है, …परंतु हिन्दुस्तान और चीन में जो क्रांतियां पनप रही हैं वे एशियाई देशों को क्रांतिकारी संघर्षों, क्रांतिकारी आंदोलन, विश्व क्राति की लहर में ला रही हैं, और ला भी चुकी हैं।“ ( ’प्रावदा’ की दसवीं वर्षगांठ पर, 5 मई 1922, एशिया का जागरण, पृष्ठ 61)
यहां लेनिन ने भारत और चीन में चल रहे जन संघर्षों के चरित्र के बारे में स्पष्ट लिखा कि ये देश अपने 1905 यानी जनवादी अधिनायकत्व की ओर बढ़ रहे है,ं न कि सर्वहारा अधिनायकत्व के लिए अक्तूबर, 1917 की ओर। लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध रचना राज्यसत्ता और क्रांति फरवरी क्रांति के बाद अगस्त-सितंबर 1917 में लिखी थी और इसमें भी उन्होंने जनता की जनवादी क्रांति अर्थात सर्वहारा वर्ग एवं किसान वर्ग के संश्रय पर आधारित क्रांतिकारी जनवादी अधिनायकत्व के सिद्धांत को मार्क्स के हवाले से सुस्थापित किया था। लेनिन जब यह सब कुछ लिख रहे थे तब ट्रॉट्स्की पार्टी में ही थे और वे चुप रहे एवं लेनिन की मृत्यु के बाद ट्रॉट्स्की और उनके शिष्यों ने इस प्रकार की बे-सिरपैर की निराधार बातें फैलानी शुरू कर दी कि लेनिन ने तो क्रांति के दो चरणों वाले सिद्धांत को तिलांजलि दे दी थी और स्टालिन ने उस सिद्धांत को पुनर्जीवित कर दिया और तभी से ट्रॉट्स्की और उनके शिष्य क्रांति के इस दो चरणों वाले तथा दो वर्गों के संश्रय पर आधारित यानी सर्वहारा वर्ग और किसान वर्ग के संश्रय पर आधारित क्रांतिकारी जनवादी अधिनायकत्व वाले मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत को स्टालिनवादी सिद्धांत के नाम से प्रचारित करने में लगे हुए हैं। लेकिन ऊपर चर्चा किए गए आठों बिन्दु पूरी तरह स्पष्ट और सिद्ध करते हैं कि फरवरी क्रांति ने न तो लेनिन की दो चरणों वाली कार्यनीति को गलत सिद्ध किया, न ही फरवरी क्रांति के बाद लेनिन ने क्रांति के दो चरणों वाले सिद्धांत का परित्याग किया और न ही उन्होंने ट्रॉट्स्की के स्थायी क्रांति के सिद्धांत की अवस्थिति को ग्रहण किया। और यहां इस तथ्य को ध्यान में ला दिया जाना भी जरूरी होगा कि ऊपर दिए गए आठों बिन्दुओं के जरिये लेनिन के जो उद्धरण दिए गए हैं वे सभी ‘साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रांति के युग’ के ही है, क्योंकि ट्रॉट्स्कीवादी एक दलील यह भी देते हैं कि ‘साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रांति के युग’ ने क्रांति की दो चरणों वाली कार्यनीति का अंत कर दिया था। अब आगे हम इस विषय पर चर्चा करेंगे कि भगतसिंह किसके अनुकारी थे, मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रांति के दो चरणों वाले सिद्धांत के या ट्रॉट्स्की के ‘स्थायी क्रांति’ के सिद्धांत के?

भगतसिंह क्रांति के दो चरणों वाले सिद्धांत के अनुकारी थे?

निःसंदेह, यह बात सही है कि औपनिवेशिक सत्ता के काल के दौरान भगतिंसंह के लेखों में  “समाजवादी आधार पर समाज के पुनर्निमाण”; “सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना”; “मार्क्सवादी आधार पर समाज का पुनर्निर्माण”; “सर्वहारा की क्रांति सर्वहारा के लिए”; “हम भारतीय सर्वहारा के शासन से कम कुछ नहीं चाहते”; “हमें यह याद रखना चाहिए कि सर्वहारा क्रांति के अतिरिक्त न किसी और क्रांति की इच्छा करनी चाहिए और न ही वह सफल हो सकती है।” आदि आदि वाक्य अथवा वाक्यांश अनेक जगह लिखे मिलते हैं। इसके अलावा भगतसिंह के लेखों में कई जगह इस प्रकार के कथन भी पढ़ने को मिलते हैं कि, “पूंजीवादी ढांचे का अंतिम तौर पर नष्ट होना अटल है”; कि, “पूंजीवादी व्यवस्था तबाही की ओर बढ़ रही है” आदि आदि। भगतसिंह और उनके साथियों के पत्र एवं दस्तावेजों में इस प्रकार के वाक्यों अथवा कथनों के आधार पर ही ट्रॉट्स्कीपंथी भगतसिंह के बारे में यह दावा करते हैं कि भगतसिंह औपनिवेशिक काल के दौरान ही बिना किसी पूर्व पड़ाव के सीधे समाजवादी क्रांति अथवा सर्वहारा के अधिनायकत्व की स्थापना की बात करते थे और वे क्रांति के दो चरणों वाले ’स्तालिनवादी’ (?) सिद्धांत को नकारते थे, इसलिए भगतसिंह ट्रॉट्स्कीपंथी थे तथा ट्रॉट्स्की के क्रांति की रणनीति संबंधी ’स्थायी क्रांति’ के सिद्धांत के अनुयायी थे।

यह स्पष्ट कर दिया जाना उचित होगा कि ट्रॉट्स्की का ’स्थायी क्रांति’ का सिद्धांत मार्क्स एंगेल्स और लेनिन द्वारा दी गयी इस आधारभूत प्रस्थापना को दरकिनार करता है कि “प्रत्येक क्रांति का बुनियादी प्रश्न सत्ता का प्रश्न होता है।” इसके विपरीत ट्रॉट्स्की का स्थायी क्रांति का सिद्धांत कहता है कि सत्ता चाहे किसी भी वर्ग की क्यों न हो क्रांति का नारा सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व का नारा ही होगा, सत्ता चाहे सामंती वर्ग की हो या साम्राज्यवादी वर्ग की साम्राज्यवादी सत्ता अथवा औपनिवेशिक सत्ता हो या फिर पूंजीवादी अर्थात देशी पूंजीपति वर्ग की सत्ता हो क्रांति का रणनैतिक नारा सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व का नारा ही होगा। अतः हम क्रांति की रणनीति और रणकौशल को तय करने के लिए बाध्य हो जाते हैं कि हम या तो मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन द्वारा स्थापित क्रांति के इस आधारभूत सिद्धांत को अपना आधार बनाएं कि क्रांति की रणनीति को तय करने का आधारभूत सिद्धांत यह होता है कि सत्ता किस वर्ग के हाथों में है यानी किस वर्ग को सत्ता से उखाड़ फेंका जाना है (सत्ता के प्रश्न पर विस्तृत चर्चा अगली किसी किश्त में की जाएगी); या फिर ट्रॉट्स्की द्वारा गढ़े गये इस मनोगत सिद्धांत को आधार बनाया जाये कि सत्ता किसी वर्ग की भी क्यों न हो क्रांति का रणनैतिक नारा सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना का ही नारा होगा।

“रणकौशल और रणनीति के बारे में हमें लेनिन के सारे लेख पढ़ने चाहिएं” (भगतसिंह, 2 फरवरी 1931)

 यहां इस बात का उल्लेख किया जाना जरूरी है कि भगतसिंह ने अपने लेख मैं नास्तिक क्यों हूं?  में लिखा है कि उन्होंने साम्यवाद के जनक मार्क्स का कुछ अध्ययन किया है किंतु ज्यादातर लेनिन, ट्रॉट्स्की व अन्य लोगों को पढ़ा है जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रांति लाये थे। विचारणीय बात यह है कि जब भगतसिंह ने लेनिन और ट्रॉट्स्की दोनों को पढ़ा था फिर उन्होंने क्रांतियों की रणनीति और रणकौशल के बारे में लेनिन के ही सभी लेखों को पढ़ने का आग्रह क्यों किया? रणनीति और रणकौशल के संबंध में ट्रॉट्स्की के किसी भी लेख को पढ़ने की बात क्यों नहीं कही? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि भगतसिंह क्रांतियों की रणनीति और रणकौशल के बारे में विशुद्ध रूप से मार्क्स और लेनिन के अनुयायी थे, ट्रॉट्स्की के नहीं, जिन्हांने लेनिन की टक्कर में क्रांति की रणनीति बारे अपना ’स्थायी क्रान्ति’ का सिद्धांत प्रस्तुत किया था। बेशक भगतसिंह ने अपने उक्त लेख में लेनिन और ट्रॉट्स्की दोनों को पढ़ने का उल्लेख किया है और कहा है कि ये वो लोग है जिन्होंने अपने देश में सफलतापूर्वक क्रांति की है। लेकिन क्या भगतसिंह की पैनी नज़रों से ये बातें ओझल हो सकती थीं कि लेनिन की मृत्यु के बाद ट्रॉट्स्की स्टालिन और बोल्शेविक पार्टी के घोर विरोधी हो गए थे और स्टालिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी व उसके नेतृत्व में कार्यरत सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को ही चुनौती दे रहे थे एवं सीधा-सीधी घोषणा कर रहे थे कि रूस में तो सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व ही नहीं है? कतई नहीं। यह हो ही नहीं सकता कि विश्व भर की क्रांतियों पर नज़र रखने वाले भगतसिंह लेनिन की मृत्यु के बाद रूस के घटनाक्रम पर अपनी नज़र न बनाये रखें। फिर प्रश्न है कि भगतसिंह ने उस घटनाक्रम पर क्या कहा? क्या भगतसिंह ट्रॉट्स्की के पक्ष और उनकी गतिविधियों से सहमत थे और स्टालिन को ट्रॉट्स्की के नज़रिए से देखते थे? नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं था, बल्कि ट्रॉट्स्की के विपरीत भगतसिंह रूस में स्टालिन के नेतृत्व में समाजवाद के बढ़ते कदमों के प्रशंषक और पक्षधर थे। रूस में ट्रॉट्स्की जब स्टालिन के नेतृत्व में सर्वहारा अधिनायकत्व के विरुद्ध तरह-तरह के षडयंत्र रच रहे थे और जिनकी वजह से सन् 1927 में ट्रॉट्स्की को बोल्शेविक पार्टी से निष्काषित कर दिया गया था तो भगतसिंह ने सितंबर सन् 1928 में ‘किरती’ में प्रकाशित  अपने एक लेख में उक्त षडयंत्रों के रचयिताओं के बारे में ट्रॉट्स्की का नाम लिये बिना निम्न प्रकार से लिखा थाः

 “शायद कुछ लोग कहें कि यदि रोटी के सवाल का हल ही शड्यंत्रों की बीमारी के लिए अमृतधारा है तो फिर रूस में क्यों षड्यंत्र होते हैं? हमारा जवाब स्पष्ट है कि रूस में जो भी षड्यंत्र होते हैं वे सिर्फ विदेशी पूंजीपति सरकारों के छोड़े हुए कुछ भाड़े के टट्टुओं द्वारा करवाये जाते हैं और वे विदेशी सरकारें अपने एजेण्टों को धन आदि देकर उनसे षड्यंत्र करवाती है, नही ंतो रूस में षडयंत्र करने के लिए कोई कारण ही नहीं है, न ही रूसी लोगों को कोई तकलीफ है, जिससे कि उन्हें षड्यंत्र करने की जरूरत पड़े। कुछ ज़ार के चेले-चपाटे हैं या विदेशी एजेण्ट हैं जो कभी-कभार हंगामा करते हैं, वरना रूस तो इस समय एक ऐसा देश है जो हर इन्सान को खुश देखना चाहता है और प्रत्येक इन्सान की जरूरतें पूरी करता है।” (षड्यंत्र क्यों होते हैं और कैसे रुक सकते हैं?, सितंबर 1928 के ’किरती’ में छपे लेख से- जोर हमारा)

और देखें! सन् 1931 में यानी जब ट्रॉट्स्की को देश निकाला दिया जा चुका था भगतसिंह ने  तब भी अपने एक महत्वपूर्ण लेख में स्पष्ट लिखा था कि रूस में उस समय  सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के तहत समाजवादी समाज की स्थापना हो रही थी। वे लिखते हैं, “अधिक -से- अधिक हम यह कह सकते हैं कि युद्ध संक्रमण काल तक रहेंगे। यानी हम रूस का उदाहरण लें तो इस बात को अच्छी तरह समझ सकेंगे। वहां इस समय सर्वहारा वर्ग का अधिनायकतंत्र है। वे लोग समाजवादी समाज की स्थापना करना चाहते हैं। तब तक के लिए पूंजीवादी समाज से अपनी रक्षा करने के लिए उन्हें एक सेना रखनी पड़ रही है।” (’ड्रीमलैण्ड की भूमिका, 15 जनवरी 1931, वाले लेख से)। अप्रैल 1928 में ‘नौजवान भारत सभा, लाहौर का घोषणापत्र’ में भी रूस की प्रशंसा में लिखा गया कि, “…आज हम महान रूस में विश्व के मुक्तिदाता के दर्शन कर सकते हैं।” जब ट्रॉट्स्की रूस में स्टालिन को तानाशाह आदि बताते हुए समाजवाद के विरुद्ध दुष्प्रचार का अभियान चला रहे थे उस वक्त सितंबर 1928 में भगतसिंह ने डब्ल्यू. जे. ब्राउन द्वारा लिखित लेख ’रूस की जेलें भी स्वर्ग हैं’ को अपनी संपादकीय टिप्पणी देते हुए ’किरती’ पत्रिका में प्रकाशित  किया था। जब ट्रॉट्स्की तीसरे इंटरनेशनल का घोर विरोध कर रहे थे, उन्हीं दिनों 24 जनवरी 1930 को भगतसिंह और उनके साथियों ने मैजिस्ट्रेट के जरिए तीसरे इंटरनेशनल के अध्यक्ष के नाम एक तार भेजा, जिसमें लिखा थाः “लेनिन-दिवस के अवसर पर हम सोवियत रूस में हो रहे महान् अनुभव और साथी लेनिन की सफलता को आगे बढ़ाने के लिए अपनी दिली मुबारकबाद भेजते हैं। हम अपने को विश्व-क्रांतिकारी आंदोलन से जोड़ना चाहते हैं। मजदूर राज की जीत हो। सरमायेदारी का नाश हो। साम्राज्यवाद-मुर्दाबाद!!” अपने लेख ‘लाला लाजपतराय और मिस एग्निस स्मैडली’ (जनवरी 1928) में भी भगतसिंह ने लिखा था कि, “…आज दुनिया के मजदूर अपनी-अपनी सरकारों और अपने-अपने देश से टूटकर विश्व-मजदूर संगठन में षामिल हो रहे हैं।”

अतः भगतसिंह के लेखों से ऊपर उद्धृत किये गये इन उद्धरणों व तथ्यों से पूर्णतः स्पष्ट और प्रमाणित हो जाता है कि लेनिन की मृत्यु के बाद भगतसिंह स्टालिन को ही लेनिन के सच्चे उत्तराधिकारी, विश्व सर्वहारा के महान शिक्षक, पथ प्रदर्शक और शीर्ष नेता के रूप में मानते थे न कि ट्रॉट्स्की को, जैसा कि ट्रॉट्स्कीवादी दावा करते हैं। भगतसिंह ने तो सन् 1927 में ट्रॉट्स्की के बोल्शेविक पार्टी से निष्काषित किये जाने एवं सन् 1929 में उन्हें देश निकाला दिये जाने पर भी अपनी कोई आलोचनात्मक टिप्पणी नहीं की और स्टालिन एवं बोल्शेविक पार्टी के सामुहिक नेतृत्व पर इस बारे कोई सवाल नहीं उठाया। साथी राजेश त्यागी ने अपने 21 पृष्ठीय दस्तावेज़ में यह बताकर कि अपने अंतिम क्षणों में भगतसिंह ट्रॉट्स्की की जीवनी भी पढ़ रहे थे हमारे ज्ञान में ‘वृद्धि’ की है। यदि इस तथ्य को सच भी मान लिया जाए तब भी तो राजेश त्यागी को इस प्रश्न का उत्तर देना होगा कि भगतसिंह ने ट्रॉट्स्की के पार्टी से निष्कासन और उनके देश निकाले पर स्टालिन अथवा बोल्शेविक पार्टी की कोई आलोचना क्यों नहीं की? बल्कि इसके उलट उन्होंने स्टालिनकालीन रूस की अनेक पहलुओं से जिनकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है, प्रशंसा क्यों की? और दूसरा प्रश्न यह कि भगतसिंह ने ट्रॉट्स्की के ’स्थायी क्रांति’ के सिद्धांत को दरकिनार करते हुए देश के युवकों को अपने 2 फरवरी 1931 वाले लेख में यह संदेश क्यों दिया कि “रणकौशल और रणनीति के बारे में हमें लेनिन के सारे लेख पढ़ने चाहिएं” ?

ट्रॉट्स्कीपंथी भगतसिंह और उनके साथियों के पत्र-दस्तावेजों को सतही तौर पर पढ़ कर और ट्रॉट्स्की  के ’स्थायी क्रांति’ के सिद्धांत की पुष्टिकर दिये जाने के मकसद से ही यह अर्थ निकाल लेते हैं कि भगतसिंह ने क्रांति के जनवादी चरण या राष्ट्रीय क्रांति की कोई बात ही नहीं की, बल्कि उन्होंने तो सीधे-सीधे यानी एक ही छलांग में सर्वहारा अधिनायकत्व की ट्रॉट्स्कीवादी रणनीति अपनायी थी। ट्रॉट्स्कीपंथियों के इस दावे में रत्ती-भर भी वजन नहीं है, जो कि भगतसिंह और उनके साथियों के पत्र-दस्तावेजों के अध्ययन से पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है। भगतसिंह और उनके साथियों के पत्र एवं दस्तावेजों से कुछ प्रासंगिक अंशों को उद्धृत करते हुए हम दिखाएंगे कि भगतसिंह ने औपनिवेशिक दौर में लेनिन द्वारा बतायी गयी क्रांति की दो चरणों वाली रणनीति का ही अनुसरण किया है। भगतसिंह की रणनीति का पहला चरण है देश को औपनिवेशिक गुलामी से सशस्त्र क्रांति के जरिये मुक्ति दिलाना, दूसरे शब्दों में पूर्ण स्वतंत्रता का लक्ष्य और फिर इस पूर्ण स्वतंत्रता के लक्ष्य को प्राप्त कर लेने के बाद क्रांति के सर्वहारा-अधिनायकत्व वाले समाजवादी चरण में प्रवेश करना। आइये, हम उनके पत्र और दस्तावेजों के कुछ चुनिंदा और प्रासंगिक अंशों को लेकर विचार करें जिनमें कहीं भी सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व का फौरी लक्ष्य नहीं हैः 

1). नौजवान भारत सभा, लाहौर का घोषणापत्र कहता हैः

“समस्त भारतीय जनता के आने वाले महान संघर्षों के भय से आजादी के इन तथाकथित पैरोकारों की कतारों की दूरी बगैर किसी समझौते के भी कम हो जाएगी। देश को तैयार करने के भावी कार्यक्रम का शुभारम्भ इस आदर्श वाक्य से होगा-’क्रांति जनता द्वारा, जनता के हित में।’ दूसरे शब्दों में 90 प्रतिशत के लिए स्वराज्य। स्वराज्य जनता द्वारा प्राप्त ही नहीं, बल्कि जनता के लिए भी। यह एक बहुत कठिन काम है। यद्यपि हमारे नेताओं ने बहुत से सुझाव दिये हैं लेकिन जनता को जगाने के लिए कोई योजना पेश करके उस पर अमल करने का किसी ने भी साहस नहीं किया।” (11-12-13 अप्रैल 1928, जोर हमारा)

“स्वराज्य जनता द्वारा प्राप्त ही नहीं, बल्कि जनता के लिए भी” वाक्यांश पूर्ण रूप से स्पष्ट कर देता है कि भगतसिंह और उनके साथियों का फौरी लक्ष्य सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना का नहीं बल्कि देश की व्यापक जनता द्वारा क्रांतिकारी ढंग से राष्ट्रीय क्रांति के जरिए स्वराज्य प्राप्ति का है। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन और राष्ट्रीय क्रांति का वर्ग चरित्र कॉमिन्टर्न ने बुर्जुआ जनवादी चरित्र बताया है, जैसा कि ऊपर की गई चर्चा में आ चुका है।

2). हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का घोषणा पत्र में लिखा हैः

“स्वतंत्रता का कोमल पौधा शहीदों के रक्त से फलता है। भारत में स्वतंत्रता का पौधा फलने के लिए दशकों से क्रांतिकारी अपना रक्त बहा रहे हैं।” (1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में बांटा गया दस्तावेज़, जोर हमारा)

एचएसआरए का घोषणापत्र यहां भारत की स्वतंत्रता की बात कर रहा है, समाजवादी क्रांति अथवा सर्वहारा अधिनायकत्व की नहीं। यह बात इस तथ्य से भी स्पष्ट हो जाती है कि भगतसिंह से पहले दशकों से जिस स्वतंत्रता के लिए भारत के क्रांतिकारी अपना रक्त बहा रहे थे उस स्वतंत्रता से अभिप्राय  भारत की स्वतंत्रता है न कि सर्वहारा वर्ग की स्वतंत्रता, यानी उसका अधिनायकत्व।

3). हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का घोषणा पत्र में ही लिखा हैः

“विदेषियों की गुलामी से भारत की मुक्ति के लिए यह एसोसिएशन संगठित सशस्त्र विद्रोह द्वारा क्रांति करना चाहता है।”

उद्धृत किये गए इस अंश में भी एचएसआरए ने अपना जो फौरी लक्ष्य घोशित किया है वह लक्ष्य विदेषियों की गुलामी से भारत की मुक्ति का लक्ष्य है जिसे एसोसिएशन संगठित सशस्त्र विद्रोह के जरिये हासिल करना चाहती है।

4). एच.एस.आर.ए. के घोषणापत्र में यह भी लिखा हैः

“आजकल यह फैशन हो गया है कि अहिंसा के बारे में अंधाधुंध और निरर्थक बात की जाए। महात्मा गांधी महान् हैं। देश को स्वतंत्र कराने के उनके ढंग से पूरी तरह असहमति जता कर हम उनका असम्मान नहीं करते। यदि हम देश में चलाये जा रहे उनके असहयोग आंदोलन द्वारा भारी जन जागृति के लिए उनको सलाम न करें तो यह हमारे लिए बड़ी कृतघ्नता होगी। परंतु हमारे लिए महात्मा असंभवताआें का द्रष्टा है। अहिंसा भले ही एक नेक आदर्श है लेकिन यह अतीत की चीज है। जिस स्थिति में आज हम हैं उसमें सिर्फ अहिंसा के रास्ते से आजादी प्राप्त नहीं कर सकते। दुनिया सिर तक हथियारों से लैस है और (ऐसी) दुनिया हम पर हावी है। अमन की सारी बातें ईमानदार हो सकती हैं लेकिन हम जो गुलाम कौम हैं, हमें ऐसे झूठे सिद्धांतों के जरिये अपने रास्ते से कतई नहीं भटकना चाहिए।’’ (जोर हमारा)

यहां भी क्रांति का प्रथम चरण एक गुलाम कौम की मुक्ति अथवा आजादी का ही चरण है, न कि सर्वहारा के अधिनायकत्व अथवा समाजवाद की स्थापना का चरण। भगतसिंह और उनके साथी इस चरण को गांधी जी के अहिंसावादी मार्ग के विपरीत हथियारबंद क्रांति के जरिये पूरा करना चाहते हैं। यहां एक बात जिसे स्पष्ट किया जाना जरूरी है वह यह कि किसी भी गुलाम कौम की विदेशी उत्पीड़न से मुक्ति की लड़ाई जनवाद के लिए लड़ाई होती है इसलिए कोई भी राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन एक जनवादी आंदोलन के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता है। यह अवधारणा इस अध्याय के पहले भाग में उद्धृत किये गये दो उद्धरणों से पूर्णतः स्पष्ट हो जाती है, जिन दो उद्धरणों को लेनिन की रचना एशिया के जागरण से क्रमषः पृष्ठ 55 और 56 से उद्धृत किया गया है और जो लेनिन द्वारा प्रस्तुत की गयी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस में राष्ट्रीय तथा औपनिवेशिक प्रष्नों से संबंधित आयोग की रिपोर्ट, 26 जुलाई 1920 से लिए गये हैं। इन दोनों उद्धरणों में इस बात को जोर देकर कहा गया है कि किसी भी गुलाम राष्ट्र के राष्ट्रीय मुक्ति अथवा राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन को बुर्जुआ जनवादी आंदोलन न कह कर राष्ट्रीय क्रांतिकारी आंदोलन शब्दों का ही इस्तेमाल किया जाए। इसका सीधा-सीधी अर्थ यह हुआ कि अपने सारतत्व में किसी गुलाम राष्ट्र का स्वतंत्रता आंदोलन उस राष्ट्र के बुर्जुआ जनवादी आंदोलन का पर्यायवाची है।

5). ‘बम कांड पर सेशन कोर्ट में ब्यान’ में भगतसिंह ने क्रांति का अर्थ बताते हुए कहाः

” ’क्रान्ति’ से हमारा मतलब अन्ततोगत्वा एक ऐसी समाज व्यवस्था की स्थापना से है जो इस प्रकार के संकटों से बरी होगी और जिसमें सर्वहारा वर्ग का आधिपत्य सर्वमान्य होगा, और एक विश्व संघ पीड़ित मानवता को पूंजीवाद के बन्धनों और साम्राज्यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिला सकेगा।”(जोर हमारा)

भगतसिंह द्वारा दिये गए सेशन कोर्ट में बयान के उक्त अंष में ’अन्ततोगत्वा’ शब्दका प्रयोग स्पष्ट कर देता है कि उनके इन्कलाब के प्रथम चरण यानी ’समझौताहीन सशस्त्र क्रांति’ या ‘जनता द्वारा जनता के लिए क्रांति’ के मुकाम को पार करने के बाद ही वे देश में ’सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व’ की बात करते हैं। ऊपर के उद्धरण में ‘विश्व संघ’ की अवधारणा भी अन्ततोगत्वा की अवधारणा को और पुश्ट कर देती है क्योंकि विश्व संघ की स्थापना की फौरी तौर पर बात करना बिल्कुल सही नहीं हो सकता। लेकिन ट्रॉट्स्कीपंथी भगतसिंह द्वारा अपने बयान में स्पष्ट तौर पर प्रयुक्त किये गये ’अन्ततोगत्वा’ और ‘विश्व संघ’ जैसे शब्दों के प्रयोग को नज़रअंदाज़ कर देते हैं और भगतसिंह को सीधे-सीधे ट्रॉट्स्की की इस पोज़िशन में लाकर खड़ा कर देते हैं जैसे कि वे औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध राजनैतिक रूप से बुर्जुआ जनवादी अधिनायकत्व के चरण को लांघ कर ’सर्वहारा के अधिनायकत्व’ का रणनीतिक नारा दे रहे हों! यहां इस तथ्य का उल्लेख कर देना भी समीचीन होगा कि भगतसिंह के साथी रहे षिव वर्मा ने भी अपने लेख ‘क्रांतिकारी आंदोलन का वैचारिक विकास’ में भगतसिंह द्वारा सेशन कोर्ट में दिए गए बयान में सर्वहारा वर्ग की प्रभुसत्ता की स्थापना के लिए ‘अन्ततोगत्वा’ और ‘विश्व संघ’ जैसे शब्दों वाले अंष को विशेष रूप से उद्धृत किया है। भगतसिंह द्वारा सेशन कोर्ट में दिए गए बयान का हवाला देते हुए षिव वर्मा ने लिखाः “अपनी बात को और भी स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था, ‘क्रांति से हमारा अभिप्राय अन्ततः एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना से है जिसको इस प्रकार के घातक खतरों का सामना न करना पड़े और जिसमें सर्वहारा की प्रभुसत्ता को मान्यता हो तथा एक विश्व संघ मानव जाति को पूंजीवाद के बंधन से और साम्राज्यवादी युद्धों से उत्पन्न होने वाली बर्बादी से बचा सके’।” यही नहीं खुद लेनिन ने भी जब तक रूस में जनवादी क्रांति सम्पन्न नहीं हुई थी सन् 1899 में ‘हमारा कार्यक्रम’ शीर्षकसे लिखे अपने लेख में सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना को सर्वहारा संघर्षों के अंतिम ध्येय के रूप में प्रस्तुत किया था। लेनिन ने लिखा, “यह कार्यभार हैः समाज के पुनर्गठन के मंसूबे बांधना नहीं, मज़दूरों की दषा सुधारने के बारे में पूंजीपतियों तथा उनके टुकड़ख़ोरों को उपदेश देना नहीं, साजिषें रचना नहीं, अपितु सर्वहारा का वर्ग संघर्षों संगठित करना तथा इस संघर्षों का नेतृत्व करना, जिसका अंतिम ध्येय है सर्वहारा वर्ग द्वारा राजनीतिक सत्ता पर अधिकार प्राप्त किया जाना तथा समाजवादी समाज का संगठन किया जाना।” (संकलित रचनाएं दस खंडों में, खंड-1, पृष्ठ 459) अतः भगतसिंह ने अपने लेखों में जहां-जहां भी सर्वहारा क्रांति, सर्वहारा अधिनायकत्व अथवा समाजवादी क्रांति की बात की है; हमें इस प्रकार के सभी कथनों का अर्थ ’अंततोगत्वा’, ‘अन्ततः’, ‘अंतिम ध्येय’ आदि शब्दों के निहितार्थों में ही करना चाहिए। 

6). ’बम का दर्शन’ से लिये गये निम्न उद्धरण को पढें़ तो स्पष्ट हो जायेगा कि अन्ततोगत्वा अवधारणा किस प्रकार अंतर्गुंथित हैः

“…क्रांतिकारियों का विश्वास है कि देश को क्रांति से ही मुक्ति मिलेगी। वे जिस क्रांति के लिए प्रयत्नशील और आशान्वित हैं वह केवल विदेशी शासकों तथा उनके पिट्टुओं और जनता के बीच सशस्त्र लड़ाई में ही अपने को अभिव्यक्त नहीं करेगी बल्कि एक नई सामाजिक व्यवस्था का सूत्रपात भी करेगी। क्रांति पूंजीवाद, वर्ग भेदों तथा विशेषाधिकारों की मौत की घंटी बजा देगी। यह करोड़ों भूखे लोगों के लिए खुशी और समृद्धि लाएगी जो विदेशी और देशी शोषण के भयावह जूए के तले कराह रहे हैं। यह राष्ट्र को अपने पैरों पर खड़ा करेगी। इससे नई राजसत्ता व समाज व्यवस्था का जन्म होगा। क्रांति से सबसे बड़ी बात तो यह होगी कि यह सर्वहारा का अधिनायकत्व कायम कर सदा सदा के लिए सामाजिक परजीवियों को राजनैतिक शक्ति के सिंहासन से उखाड़ फेंकेगी।’’ (बम का दर्शन, 26 जनवरी, 1930, जोर हमारा)

यहां भी औपनिवेशिक समाज व्यवस्था का प्रधान अंतरविरोध विदेशी शासकों और देश की व्यापक जनता के बीच दिखाया गया है इसलिए विदेशी शासकों और देश की व्यापक जनता के बीच सशस्त्र संघर्षों भगतसिंह और उनके साथियों के इंकलाब का प्रथम पड़ाव है।

7). ‘बम का दर्शन’ लेख में राजनैतिक स्वतंत्रता को फौरी लक्ष्य बताया गया, देखेंः

“गांधी जी के कथन कि हिंसा से प्रगति का मार्ग अवरुद्ध होकर स्वतंत्रता पाने का दिन स्थगित होता जाता है, के विषय में हम मौजूदा वक्त के अनेक ऐसे उदाहरण दे सकते हैं, जिनसे साबित होता है कि जहां लोगों ने हिंसा से काम लिया उनकी सामाजिक प्रगति हुई और उन्हें राजनैतिक स्वतंत्रता मिली। हम रूस तथा तुर्की के ही उदाहरण लें। दोनों देशों के प्रगतिशील दलों ने सशस्त्र क्रांति द्वारा सत्ता प्राप्त की। सामाजिक प्रगति और राजनैतिक स्वतंत्रता में कोई बाधा नहीं आई।” (जोर हमारा)

’बम का दर्शन’ लेख से लिए गये उक्त अंष से पूर्णतः स्पष्ट है कि भगतसिंह यहां राजनैतिक स्वतंत्रता के चरण की बात कर रहे हैं और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गांधी जी से अपना तफर्का महज़ अहिंसा और सशस्त्र क्रांति के रास्ते के जरिये व्यक्त कर रहे हैं। ध्यान रहे कि किसी राष्ट्र के राष्ट्रीय स्वतंत्रता अथवा राजनैतिक स्वतंत्रता के चरण को जनवाद का चरण कहा जाता है।

‘आतंकवाद’) भारतीय पूंजीपति वर्ग सन् 1947 में सत्ता हस्तांतरण के जरिए गद्दी पर बैठ गया और भगतसिंह द्वारा जताई गई संभावना वास्तविकता में तब्दील हो गई, पूंजीपति वर्ग 1947 में गद्दी पर बैठते ही जालिम बन गया। सत्ता का यह हस्तांतरण साम्राज्यवादी शासक वर्ग से शासित राष्ट्र के पूंजीपति वर्ग को था, न कि शासक वर्ग की ही एक पार्टी से दूसरी पार्टी को अथवा शासक वर्ग के ही दो हिस्सों में लेन-देन। सर्वहारा वर्ग के जन्मकाल से ही पूंजीपति वर्ग उसका शत्रु होता है और आजादी आंदोलन के दौरान भी बेशक भारतीय पूंजीपति वर्ग सर्वहारा वर्ग का शत्रु था जो शासक साम्राज्यवादी वर्ग के साथ तालमेल, समझौते, गठजोड़ करके चल रहा था पर खुद शासक वर्ग नहीं था। भगतसिंह और उनके साथी ‘नौजवान भारत सभा, पंजाब का घोषणापत्र’ में जब दो मोर्चों पर लड़े जाने वाले युद्ध की बात करते हैं और लिखते हैं कि, “हमें ऐसे लोगों की आवश्यकता है जो बगैर उम्मीदों के निर्भय होकर और बगैर हिचकिचाहट के लड़ने को तैयार हों और बगैर सम्मान के, बगैर आंसू बहाने वालों के और बगैर प्रषस्तिगान के मृत्यु का आलिंगन करने को तैयार हों। इस प्रकार की भावना के अभाव में हम दो मोर्चों वाले उस महान् युद्ध को, जो हमारे सामने है, नहीं लड़ सकेंगे- दो मोर्चों वाला, क्योंकि हमें एक तरफ अंदरूनी शत्रु से लड़ना है और दूसरी तरफ विदेशी दुष्मन से। हमारी असली लड़ाई स्वयं अपनी अयोग्यताओं के खिलाफ है जिनका हमारे शत्रु  और कुछ हमारे अपने लोग निजी स्वार्थों के लिए फायदा उठाते हैं।”  तो यहां ‘अंदरूनी शत्रु’ से उनका तात्पर्य भारतीय पूंजीपति वर्ग से न होकर संगठन के साथियों की निजी कमजोरियों से है।

अगस्त 1947 में शासक साम्राज्यवादी वर्ग से शासित राष्ट्र के पूंजीपति वर्ग को सत्ता का हस्तांतरण ही गुलाम भारत का राजनीतिक रूप से स्वतंत्र भारत में रूपांतरण था, दूसरे शब्दों में भारतीय पूंजीपति वर्ग को मिली स्वाधीनता, औपनिवेशिक समाज व्यवस्था के प्रधान अंतर्विरोध का पूंजी और श्रम के प्रधान अंतर्विरोध में रूपांतरण था। औपनिवेशिक समाज व्यवस्था के प्रधान अंतर्विरोध का गुणात्मक रूप से भिन्न पूंजी और श्रम के प्रधान अंतर्विरोध में बदल जाना ही क्रांति के अगले चरण यानी सर्वहारा के अधिनायकत्व अथवा समाजवादी क्रांति के चरण का आरंभ है। हमें याद रखना चाहिए कि भगतसिंह ने कहा था कि “रणकौशल और रणनीति के बारे में हमें लेनिन के सारे लेख पढ़ने चाहिएं” और भगतसिंह के इस कथन से एक ही तार्किक निष्कर्ष निकलता है कि भगतसिंह के कथनों और वक्तव्यों में जहां कहीं भी विरोधाभास दिखाई पड़ता है उन सबकी व्याख्या लेनिन की रचना ‘दो कार्यनीतियां’ में वर्णित क्रांति संबंधी दो चरणों वाले सिद्धांत के साथ सामंजस्य बैठाते हुए ही करनी चाहिए, ट्रॉट्स्की के स्थायी क्रांति के सिद्धांत के अनुसार नहीं। उदाहरणार्थ 2 फरवरी 1931 वाले अपने लेख में भगतसिंह ने एक जगह लिखा कि, “राष्ट्रीय भावनाओं की अपील बिल्कुल बेकार है” और आगे चलकर ही पार्टी के कार्यकलाप के बारे में लिखा कि “…पार्टी एक बड़ा प्रकाशन अभियान चलाएगी जिससे न सिर्फ राष्ट्रीय राजनीति की अपितु वर्गीय राजनीति की राजनीतिक चेतना भी पैदा की जाएगी।” (जोर हमारा) इत्यादि, इत्यादि।

ऊपर की गई चर्चा से निष्कर्ष यह निकलता है कि किसी भी देश में सर्वहारा के अधिनायकत्व अथवा समाजवादी क्रांति का नारा तभी दिया जा सकता है जब उस देश में न तो सामंती सत्ता हो और न औपनिवेशिक बल्कि एक पूंजीवादी जनवादी शासन हो। चाहे इस प्रकार का जनवादी शासन राजनैतिक रूप से स्वाधीन उदारवादी पूंजीपति वर्ग का हो और चाहे वह शासन सर्वहारा वर्ग और किसानों के क्रांतिकारी जनवादी अधिनायकत्व के रूप में हो। क्योंकि इस प्रकार का शासन ही पूंजी और श्रम के बीच सीधे टकराव का शासन होता है। लेनिन ने सन् 1905 में लिखा किः

 “…हम आज़ादी और ज़मीन के संघर्षों के अलावा समाजवाद की लड़ाई चला रहे हैं। समाजवाद की लड़ाई पूंजी के शासन के विरुद्ध लड़ाई है।” आगे फिर लिखते हैं, “…ज़मीन और आज़ादी की लड़ाई जनवादी लड़ाई है। पूंजी के शासन के उन्मूलन की लड़ाई समाजवादी लड़ाई है।” (सर्वहारा वर्ग और किसान समुदाय, संकलित रचनाएं दस खंडों में, खंड 3, पृष्ठ 220, रेखांकन जोड़ा गया) कितना स्पष्ट है कि सर्वहारा अधिनायकत्व से पूर्व जनवादी अधिनायकत्व का अस्तित्व में आना अनिवार्य है! एंगेल्स ने भी लिखा है,

“…राजसत्ता का सबसे ऊंचा रूप, यानी जनवादी जनतंत्र, जो समाज की आधुनिक परिस्थितियों में अवश्यंभावी रूप से अधिकाधिक आवश्यक चीज़ बनता जा रहा है और जो राजसत्ता का वह एकमात्र रूप है जिसमें ही मज़दूर वर्ग तथा पूंजीपति वर्ग का अंतिम और निर्णायक संघर्ष लड़ा जा सकता है….” (परिवार, निजी सम्पत्ति और राजसत्ता की उत्पत्ति, अध्याय-9)

…… अगली किश्त में जारी

1 अगस्त 2021 | कुरुक्षेत्र
(लेखक ‘शहीद भगतसिंह दिशा मंच’ के संयोजक हैं)