शिक्षा पाठ्यक्रमों का भगवाकरण करने के प्रोजेक्ट को नाकाम करो

January 16, 2022 0 By Yatharth

शिक्षा संसदीय समिति रिपोर्ट, नवम्बर 2021

एस वी सिंह

‘नई शिक्षा नीति, 2020’ लागू होनी शुरू हो गई है. शिक्षा में ‘आमूलचूल बदलाव’ राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ (RSS) का हमेशा से ही पहला अजेंडा रहा है. भारतीय जनता पार्टी आरएसएस की राजनीतिक जत्थेबंदी है. आरएसएस की स्थापना 27 सितम्बर 1925 को नागपुर में हुई लेकिन 50 सालों तक एकदम हांसिए पर रहने के बाद देश की मुख्य राजनीतिक धारा में उसे प्रवेश का अवसर 1977 में ही मिला जब अपनी कुर्सी बचाने के लिए इंदिरा गाँधी द्वारा आपातकाल घोषित कर लोगों के सभी जनवादी अधिकारों को बलात छीन लेने के परिणाम स्वरूप कांग्रेस शासन के विरुद्ध जन आक्रोश की प्रचंड लहर देश भर में उठी. वो जन सैलाब इस व्यवस्था को भी बहा ले जा सकता था, उसी डर से जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में फटाफट जनता पार्टी गठित हुई जिसे शासक पूंजीपति वर्ग की हर संभव मदद की बदौलत गठित होते ही देश भर में चुनाव लड़ने के लिए संसाधनों की कोई कमी महसूस नहीं हुई. आरएसएस की तत्कालीन राजनीतिक जत्थेबंदी जनसंघ भी, जो उस जनता पार्टी का अंग बनी. 1977 में जनता पार्टी सरकार बनने के बाद जनसंघ को ‘शिक्षा में आमूल चूल बदलाव’ लाने के संघ के अजेंडे को कुछ हद तक लागू करने का पहला अवसर मिला.  आरएसएस की विघटनकारी विचार धारा को आक्रामक रूप से सत्ता में लाने का जो काम पिछले दशक में अन्ना हजारे ने किया बिलकुल वही काम उनसे 36 साल पहले जय प्रकाश नारायण कर चुके हैं.

आर एस एस को शिक्षा का अपना अजेंडा लागू करने के दूसरा बड़ा अवसर 1997 में मिला जब अटल बिहारी वाजपेयी मंत्रिमंडल में खांटी संघ प्रचारक मुरली मनोहर जोशी मानव संसाधन मंत्री बने. ये दोनों प्रयास, लेकिन, आक्रामक नहीं थे. जन विरोध होने पर उस वक़्त क़दम पीछे खींच लिए जाते थे.   

2014 के बाद परिदृश्य गुणात्मक रूप से बदल गया है. शिक्षा को, और खास तौर पर इतिहास को बदल डालने के संघ के अजेंडे को अब आक्रामक तरीक़े से लागू किया जा रहा है. जन विरोध होने पर अब क़दम पीछे नहीं खींचे जाते, विरोध को या तो नज़रंदाज़ कर दिया जाता है या उससे निबटने के उपाय ढूंढे जाते हैं. ‘नई शिक्षा नीति’ का तो वैसा विरोध भी नहीं हुआ जो निज़ाम की चिंता का कारण बनता. शिक्षा नीति बदल कर स्कूल पाठ्यक्रमों को संघ की मूल विचारधारा के अनुरूप बदल डालने की दिशा में शिक्षा संसदीय समिति का गठन और उसके द्वारा ‘जनमत’ जानने की नौटंकी कर सिफारिशों की अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करना एक बड़ी छलांग है. ‘शिक्षा, महिला, बाल, युवा एवं खेल’ विषयों पर बनी संसदीय समिति के अध्यक्ष आर एस एस के प्रमुख ‘शिक्षाविद’ डॉ विनय सहस्रबुद्धे हैं. 21 सदस्यीय इस समिति में अकेले भाजपा के ही 12 सदस्य हैं. मतलब भाजपा अकेले ही बहुमत में है. उनके सहयोगी दलों जे डी यू, बीजू जनता दल, अन्ना द्रमुक के 4 सदस्य हैं. बाक़ी दलों के एक-एक सदस्य हैं. इस समिति ने अपनी रिपोर्ट 30 नवम्बर 2021 को राज्य सभा अध्यक्ष को सौंपी.  शिक्षा की इस महत्वपूर्ण समिति के अध्यक्ष बनाए गए, राज्य सभा सदस्य डॉ विनय सहस्रबुद्धे की योग्यताएं संक्षेप में इस तरह हैं; स्कूल के दिनों से ही राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ से जुड़े, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (ABVP) के राष्ट्रिय सचिव रहे, प्रचारक रहे और आर एस एस की संस्था ‘रामभाऊ महालगी प्रबोधिनी’ के डायरेक्टर हैं और भाजपा के उपाध्यक्ष रह चुके हैं. इतना ही नहीं, मोदी के पहले कार्य काल में जो तूफानी तरक्की और जनवाद के नए विलक्षण प्रयोग हए हैं उनपर एक किताब “The Innovative Republic” (अभिनव गणतंत्र) भी लिख चुके हैं. अब उनके भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध कौंसिल (ICCR) का अध्यक्ष और इस समिति का अध्यक्ष होने और इस समिति की सिफारिशों पर पाठकों को हैरानी नहीं होनी चाहिए!!  

सिफारिशें

  • स्कूल पाठ्यक्रम की पुस्तकें, प्राचीन भारत में भरी पड़ी बुद्धिमत्ता और वेदों में भरे ज्ञान भंडार से भरी होनी चाहिएं.  तब ही देश के छात्र शिक्षा के मामले में व्याप्त भेदभाव से मुक्त हो सकेंगे.
  • भारत के आज़ादी आन्दोलन के इतिहास लेखन में बहुत गड़बड़ी हो रखी है. इसे दूर किया जाना चाहिए. प्रख्यात इतिहासकारों से विचार विमर्श करते हुए देश के विभिन्न भागों से आन्दोलनकारियों, खास तौर पर मराठा और सिख समाज के बलिदानों और आज़ादी की लड़ाई में उनके योगदान को पर्याप्त स्थान मिलना चाहिए.
  • स्कूलों में शिक्षा उसी तरह दी जानी चाहिए जैसे की नालन्दा, तक्षशिला और विक्रमशिला में दी जाती थी. अध्यापकों को उसी तरह से पढ़ाने की ट्रेनिंग दी जानी ज़रूरी है.
  • आज़ादी आन्दोलन के कुछ आन्दोलनकारियों, क्रांतिकारियों को एक दम ग़लत तरीक़े से दिखाया गया है, मानो वे अपराधी हों. इसे दुरुस्त किया जाना चाहिए. (नाम नहीं लिखा लेकिन लगता है इशारा विनायक दामोदर सावरकर की ओर है).
  • प्राचीन काल में गुप्त वंश, विक्रमादित्य, चोला राज्य, चालुक्य, विजयनगर, गोंडवाना, ट्रावनकोर और उत्तर पूर्व के अहोम राज्यों को उचित स्थान नहीं मिला है जिसे दुरुस्त किए जाने की ज़रूरत है. (मतलब इतिहास वस्तुपरक और तथ्यात्मक तरीक़े की जगह मुस्लिम और इसाई राज्यों को दुराकिनर करके लिखा जाना चाहिए.)
  • हमारा इतिहास मुस्लिम आक्रमणकारियों के महिमा मंडन से भरा पड़ा है. ये बहुत अन्यायपूर्ण है, इस विकृति को ठीक करते हुए इतिहास दुबारा लिखा जाना चाहिए. 
  • आज तक इतिहास को ‘राष्ट्रीय’ भावनाओं से नहीं लिखा गया, उसे राष्ट्रीय नज़रिए से लिखा जाना चाहिए. ‘राष्ट्रीय इतिहास, राष्ट्रीय गौरव और एकता’ की भावना को इतिहास लेखन में उचित स्थान मिलना ज़रूरी है.  
  • महिलाओं के योगदान को उचित महत्त्व नहीं मिला है. वेदों, उपनिषदों, जातकों में महिलाओं के योगदान को महत्त्व दिए जाने की सिफारिशें की गई हैं. साथ ही अनेकों भुला दिए गए सेनानियों को उचित स्थान दिए जाने की बात है लेकिन ऐसा लगता है जैसे मंगल पांडे, रानी लक्ष्मीबाई, पंडिता रमाबाई, बिरसा मुंडा, दादाभाई नौरोजी, बालगंगाधर तिलक, डॉ अम्बेडकर, महात्मा गाँधी, पेरियार रामास्वामी, सुभाष चन्द्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, एलुरी सीतारामा राजू आदि को निज़ाम किनारे कर देना चाहता है.
  • पूरी रिपोर्ट में इतिहास विषय पर सबसे ज्यादा जोर है. सत्तर और अस्सी के दशक में लिखे गए इतिहास और इतिहास पुस्तकों को खास निशाने पर लिया गया है. कोई भी आलोचना चूँकि ठोस तर्कों के आधार पर ना होकर मनगढ़ंत तरीक़े से की गई है इसलिए जो कहना चाह रहे हैं, उसे स्पष्ट तरीक़े से कहने की बजाए घुमा फिराकर कहा गया है. तर्कहीन, विवेकहीन तरीक़े से गोल मोल लिखकर इतिहास को झुठलाने का प्रयास किया गया है इसी लिए भारतीय इतिहास कांग्रेस ने इन सिफारिशों को ख़ारिज करने में देर नहीं की.

मोदी सरकार ने पिछले साल जून में जब कोरोना महामारी कहर ढा रही थी तब अपने चिरपरिचित पैंतरे ‘आपदा में अवसर’ के तहत छात्रों, अध्यापकों और शिक्षाविदों से इस सम्बन्ध में सुझाव, ई मेल rsc_hrd@sansad.nic.in पर मांगने की औपचारिकता पूरी की थी जिसकी अन्तिम तारीख 15 जुलाई 2021 थी. हालाँकि ये स्पष्ट है कि ये ‘सुझाव’ आर एस एस की विचार धारा के अनुरूप ही रहने थे, जैसे की असलियत में रहे. कितने सुझाव आए, उनकी छानबीन कैसे हुई और किन सुझावों को किस आधार पर स्वीकार अथवा अस्वीकार किया गया, इसका कोई ब्यौरा उपलब्ध नहीं कराया गया. यही वज़ह है कि सिफारिशें/ सुझाव भी उसी तरह के आए जैसे सरकार चाहती थी और उन्हें ही संज्ञान में ले लिया गया. ‘सुझाओं’ की एक बानगी प्रस्तुत है.

अमेरिका के अलेक्सेन्ड्रिया विश्वविद्यालय में विदेशी भाषा विभाग के प्रोफ़ेसर डॉ शोनू नांगिया द्वारा मोदी सरकार को भेजे गए सुझाव से आर एस एस की पहुँच और उसके विचारों का पता चलता है. शिक्षा में आगे क्या होने जा रहा है इसका भी सही अंदाज़ उनके सुझावों से हो जाता है जो इस तरह हैं. “इतिहास की पुस्तकों में अपनी जान कुरबान कर देने वाले कितने ही राष्ट्र भक्तों को कोई जगह नहीं मिली है जबकि क्रूर, रक्त पिपासू राजाओं जैसे टीपू सुल्तान का महिमा मंडन किया गया है. टीपू सुल्तान ने 700 अयंगर परिवारों को इसलिए मार डाला था क्योंकि उन्होंने मुसलमान बनने से इंकार कर दिया था. उनके गाँव मंडयम में आज भी दीवाली नहीं मनाई जाती जबकि उसी टीपू सुल्तान को वामपंथी और मार्क्सवादी इतिहासकार ‘मैसूर का शेर’ लिखते हैं…रोमिला थापर जैसे इतिहासकार लिखते हैं कि सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध में हुआ खून ख़राबा देखकर बौद्ध धर्म अपना लिया और हिंसा छोड़ दी जबकि हकीक़त ये है, जैसा कि महावंषा और दिव्यवदाना ने बताया है कि सम्राट अशोक अपने शासन के चौथे साल में ही बौद्ध धर्म ग्रहण कर चुके थे और कलिंग युद्ध उनके शासन के आठवें साल में हुआ. मतलब कलिंग युद्ध का खून ख़राबा उनके बौद्ध धर्म अपनाने के चार साल बाद हुआ. अशोक ने कुल 18000 ग़ैर बौद्ध धर्मियों का क़त्ल किया और कसूरवार हिन्दुओं को ठहराया जाता है….. 12 वीं की इतिहास कि पुस्तकों में पढाया जाता है कि सभी मुगलों ने मंदिरों को दान दिया, शाहजहाँ और औरंगजेब ने मंदिरों की मरम्मत कराई जबकि NCERT के पास इस बात का कोई सबूत नहीं है, जिससे सोशल मीडिया पर कितना हंगामा हुआ. भरतपुर निवासी आर टी आई कार्यकर्ता तपिंदर सिंह ने NCERT को इस सम्बन्ध में कानूनी नोटिस भेजा हुआ है… भारत की असली समस्या ये है कि हिन्दुओं और सिखों के जो बलपूर्वक धर्मान्तरण हो रहे हैं उन्हें इतिहास में कभी नहीं लिखा जाता. ये आज भी हो रहा है जबकि हिन्दू कुल जनसंख्या के 75% से भी अधिक हैं, आज भी हिन्दू’,बलात्कार, हिंसा और धर्मान्तरण के शिकार हो रहे हैं, विभिन्न नस्लों में एकता के मिथ्या विचार पढाए जाते हैं ….हमारी महान संस्कृति को नहीं पढाया जा रहा जबकि विदेशी विचारों, संस्कारों का प्रसार किया जा रहा है.. जो पढाया जाना चाहिए वो ये है; महान भारतीय सभ्यता ने दुनिया को ज्ञान, संस्कार, विचार दिए, इस्लाम और ईसाई धर्मों ने समूची दुनिया को दूसरी तरह प्रभावित किया. अपनी संस्कृति में अभिमान, राष्ट्रभक्ति, पुराण, रामायण, महाभारत, गीता, भारतीय संस्कृति, योग पढाया जाना चाहिए … अफ़गानिस्तान में तालिबान के सत्ता हथियाने से सबक लेते हुए देश के टुकड़े करने के मंसूबे पाले मार्क्सवादियों से सावधान रहने की ज़रूरत है”

ये है सरकार की शिक्षा नीति का असल मक़सद! जो बात देश के संघ विद्वान कहते शरमाते हैं वही बात अमेरिका में बैठे इस विद्वान संघी ने खुल कर रख दी.  

‘संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय बाल शिक्षा कोष (UNICEF)’ तथा ‘संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन (UNESCO)’ ने दुनियाभर में बच्चों की शिक्षा पर कोरोना महामारी द्वारा हुए विनाशकारी शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक प्रभावों का अध्ययन किया है. इन संगठनों के भारत से सम्बद्ध प्रतिनिधि ने 23 जुलाई 2021 को भारत सम्बन्धी रिपोर्ट इस संसदीय समिति को सोंपी. संसदीय समिति ने उक्त रिपोर्ट को अपनी रिपोर्ट में शामिल किया है, ये अच्छी बात है. रिपोर्ट के मुख्य बिंदु इस तरह हैं.

  1. कोरोना महामारी से भारत में कुल 15 लाख स्कूल और 13.7 लाख बाल विकास केंद्र बंद हुए जिससे कुल 28.6 करोड़ बच्चों की शिक्षा बुरी तरह प्रभावित हुई.
  2. भारत में मौजूद कुल घरों में से 24% घरों में ही इन्टरनेट सुविधा है और 61.8% घरों के पास ही स्मार्टफोन हैं.
  3. कुल छात्रों में 40% छात्र किसी भी साधन से डिजिटल शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाए.
  4. ग्रामीण भाग में शहरी भाग से 10% कम बच्चे ही डिजिटल शिक्षा ग्रहण कर पाए.
  5. डिजिटल शिक्षा व्यवस्था से ना जुड़ पाने के कारण बच्चों को भयंकर मनोवैज्ञानिक तनाव झेलना पड़ रहा है. साथ ही ग़रीब बच्चों को भोजन की कमी का सामना करना पड़ा है जिससे उनका स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हुआ.

डॉ विनय सहस्रबुद्धे की अध्यक्षता वाली इस शक्तिशाली संसदीय समिति को इस मुद्दे पर सरकार से जवाब तलब करना चाहिए. ‘विश्वगुरु’ भारत में इतने बच्चे इन्टरनेट और स्मार्टफोन ना होने के कारण शिक्षा से महरूम हैं तो फिर स्कूल बंद हो जाने पर वे शिक्षा कैसे ग्रहण करेंगे? कोरोना किसी ना किसी रूप में मौजूद रहने वाला है, ऐसा विशेषज्ञों का कहना है. इसलिए इन ग़रीब घरों के बच्चों को तुरंत स्मार्टफोन अथवा लैपटॉप उपलब्ध कराया जाना ज़रूरी है और घर घर तक मुफ़्त इन्टरनेट की सुविधा होना बहुत ज़रूरी है. इस दिशा में मोदी सरकार ने अपने 8 साल के कार्यकाल में अब तक क्या काम किया है, इस समिति को सरकार से जवाब मांगना चाहिए. समिति के अध्यक्ष डॉ विनय सहस्रबुद्धे को तो खुद ये बताना चाहिए कि मोदी के पहले शासन काल में इतनी ज़बरदस्त तरक्क़ी हुई है, जैसा उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है, तब देश में शिक्षा की इतनी दयनीय स्थिति कैसे है? इतनी बड़ी तादाद में ग़रीब बच्चों को ‘सुदूर शिक्षा’ ग्रहण करने लायक़ कब तक बनाया जाएगा?

प्राचीन भारत महान था. मुस्लिम आक्रमणकारियों के आने से पहले का काल स्वर्णिम काल था. सब लोग प्रेम और सद्भाव से हर्षोल्लास में रहते थे. स्त्रियों का सम्मान होता था. सनातन धर्म में समाज में हर तरफ़ प्रेम की गंगा बहती थी. विज्ञान और तकनीक का अद्भुत विकास हो चुका था. दुनियाभर में जो भी अविष्कार आधुनिक युग में, औद्योगिक क्रांति के बाद हुए वे सब हमारे ऋषियोंमुनियोंवेदोंउपनिषदों में मौजूद ज्ञान को चुराकर ही हुए. हिन्दू श्रेष्ठ हैं, हमारी आर्य नस्ल महान है, हम महान हैंआदि आदि

ये खूबसूरत, मनभावन झूट और ग़लतफ़हमी आर एस एस/ भाजपा की विचारधारा का मूल आधार है जिसे सही साबित करने की छटपटाहट उन्हें इतिहास से छेड़छाड़ करने और उसे विकृत करने की ओर धकेलती आई है. आईये, इस विषय पर वस्तु स्थिति जानने के लिए प्रख्यात इतिहासविदों का क्या कहना है, ये जानें.                      

“स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, कई भारतीय इतिहासकार पूर्व-इस्लामिक भारत के एक गैर-आलोचनात्मक महिमामंडन में लिप्त थे: भारतीय राज्य को एक संवैधानिक राजतंत्र के रूप में वर्णित किया गया था; जनजातीय कुलीन वर्गों की तुलना एथेनियन लोकतंत्र से की गई; दक्षिण भारत में ग्राम सभाओं (सभाओं) को छोटे लोकतंत्रों के रूप में चित्रित किया गया था; गुप्त शासकों की अवधि को स्वर्ण युग के रूप में माना जाता था, जब भारतीय लोग खुश और समृद्ध थे और शांति और सद्भाव से रहते थे। प्राचीन भारत की इस तस्वीर ने स्वतंत्रता सेनानियों को एक वैचारिक समर्थन प्रदान किया; लेकिन भारत की आजादी के बाद इसने ऐसा कोई उद्देश्य पूरा नहीं किया, हालांकि हिंदुत्व के विचारक इन विचारों से चिपके हुए हैं, और उनसे प्रेरित होकर, हमारे प्रधान मंत्री ने भी कई मौकों पर भारतीय अतीत के बारे में हास्यास्पद बयान दिए हैं। लेकिन हमारे स्रोतों का एक वैज्ञानिक विश्लेषण यह साबित करता है कि इतिहास में किसी भी स्तर पर भारत के आम लोगों ने वास्तव में स्वर्ण युग नहीं देखा। भारत का इतिहास, किसी भी अन्य देश की तरह, सामाजिक असमानताओं, आम लोगों के शोषण, धार्मिक संघर्ष आदि की कहानी रहा है। भारत के साथ-साथ अन्य देशों में भी स्वर्ण युग के विचार का हमेशा दुरुपयोग किया गया है।”प्रो डी एन झा

लेकिन इस सब के दौरान, खोये हुए स्वर्ण युग के प्राचीन गौरव के युग का कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता। मनुष्य ने समान रूप से या स्थिर रूप से प्रगति नहीं की; बल्कि उन्होंने सम्पूर्ण रूप से प्रगति की. एक काफी अक्षम जानवर से लेकर, औज़ार बनाने और औजार इस्तेमाल करने वाले प्राणी तक, जिसने अपनी संख्या के दम पर पूरे ग्रह पर प्रभुत्व जमाया और उसे अपनी विभिन्न गतिविधियों के द्वारा अब केवल खुद पर नियंत्रित करना सीखना है। कई दसियों हज़ार वर्षों के बाद खोदी गई मानव हड्डियों से पता चलता है कि किसी भी पुराने पाषाण युग के व्यक्ति के लिए चालीस वर्ष की आयु तक जीवन जी पाना एक शानदार उपलब्धि थी; आज से अधिक स्वस्थ होना तो दूर रहा, वह परजीवियों और शरीर तोड़ डालने वाली बीमारीयों से भी अधिक पीड़ित रहता था जिसने उसके जीवन को बहुत छोटा कर दिया था। सुनहरा युग, यदि कोई है तो, वो भविष्य में है, अतीत में नहीं।”डी डी कोसांबी

तथ्य आधारित, तर्कपूर्ण, वैज्ञानिक शिक्षा सामग्री की जगह स्कूल शिक्षा पाठ्यक्रम में मनगढ़ंत, कपोल कल्पित, गपोड़े शामिल कर शिक्षा का सत्यानाश करने के राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ/ भाजपा के प्रोजेक्ट को नाकाम करो. शिक्षा के भगवाकरण के विरुद्ध जन आन्दोलन तेज़ करो.