कृषि कानूनों की वापसी, एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग
और किसानों की मुक्ति के संदर्भ में क्रांतिकारी रणनीति

January 17, 2022 1 By Yatharth

एक साल से अधिक समय तक चलने वाला ऐतिहासिक किसान आंदोलन फिलहाल खत्‍म हो चुका है। संघर्षरत किसानों से निपटने के बोझ से मोदी सरकार मुक्‍त हो चुकी है और निर्णायक टकराव का खतरा फिलहाल इसके सर से टल चुका है। इसी के साथ फासीवादी दुष्चक्रों का एक नया दौर शुरू हो चुका है। हम जिस समय ये पंक्तियां लिख रहे हैं, उस समय हरिद्वार में धर्म संसद के बहाने शुरू हुए फासीवाद के नंगे नाच से देश का आम जनमानस हतप्रभ है। समय की ट्यूनिंग देखिये! ठीक इसी वक्‍त कृषि‍ मंत्री फिर से कृषि कानूनों को वापस लाने की घोषणा कर रहे हैं। दूसरी तरफ संयुक्‍त किसान मोर्चे में फूट पड़ चुकी है। जो लोग मोदी द्वारा कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा के बाद ”यथार्थ” के संपादकमंडल की ओर से जारी हमारी तीन फौरी टिप्‍पणि‍यों व संपादकीय को पढ़े हैं, वे जानते हैं कि हमने ठीक ऐसी ही दुश्चिंताओं व आशंकाओं के बारे में चेतावनी दी थी। तब हमने किसान आंदोलन की वापसी के लिए किसान नेताओं के राजी होने पर लिखा था – ”यह माना और स्वीकार किया जा सकता है कि किसान रूपी फौज के शीर्षस्थ संचालकों ने सच में कुछ आराम का वक्‍त मांगा हो ताकि वे थोड़ी लंबी सांस ले सकें! हो सकता है कि आराम करने की चाह में कोई खोट नहीं हो। लेकिन यह देखना बाकी है कि आराम फरमाने के लिये ऐसे नाजुक वक्त का चुनाव कितना सही है और इससे किसकी, संयुक्‍त किसान मोर्चा व किसानों की या फिर किसान आंदोलन से हलकान परेशान मोदी सरकार और कॉर्पोरेट की, उखड़ती सांसों को सहारा मिलने वाला है!” अफसोस की बात है कि हमारी आशंकायें निर्मूल नहीं साबित हुईं।

बड़ी से बड़ी जीत के भी सही में कुछ मायने तभी होते हैं जब इसे आगे ले जाया जा सके। अर्थात, इसे आगे ले जाने वाले तत्‍व या कारक इसके भीतर मौजूद हों। नेतृत्‍व का सवाल बाहर का सवाल है और यह भी एक महत्‍वपूर्ण सवाल है। भीतरी तत्‍वों के बावजदू सही नेतृत्‍व के बिना भी बड़ी से बड़ी जीत सिमट कर चंद तुच्‍छ सुधारों में अपना ठौर पाती रही हैं जबकि उसे अगली जीत तक ले जाया सकता था। किसानों की कृषि कानूनों पर हुई जीत और एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग पर विचार करते वक्‍त इस दृष्टि से विचार जाना चाहिए। यानी, इस पर विचार किया जाना चाहिए कि मौजूदा किसान आंदोलन की जीत व मुख्‍य मांगों (कृषि कानूनों की वापसी और एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग) में क्‍या है जो इस जीत को आगे ले जा सकती हैं? हमारा मानना है कि किसान आंदोलन के दोनों मुद्दों में क्रांतिकारी जीवंतता है। जहां कृषि कानूनों की वापसी की मांग कृषि क्षेत्र व गांवों को बलपूर्वक बड़ी पूंजी के हवाले करने की पूंजीवादी राज्‍य की कार्रवाई पर रोक लगाने की मांग है, तो वहीं एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग सारी फसलों की, बाजार दाम से अलग, सरकार द्वारा निर्धारित न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य पर खरीद गांरटी की मांग है। यह दोनों मांगें एकाधिकारी पूंजी के द्वारा व्‍यापक किसानों को निवाला बनाने की प्रक्रिया पर रोक लगाने वाली मांगें है, यानी उनके संपत्तिहरण को रोकने वाली मांगें है। इन मुद्दों पर जीत का मतलब एकाधिकारी पूंजी की लूट के बलपूर्वक विस्‍तार पर रोक लगाने में सफलता से है। ये मांगें जनांदोलन के दबाव में युद्धनीति के तहत भले ही मान ली जायें, लेकिन आज के दौर के पूंजीवादी राज्‍य के लिए एका‍धिकारी पूंजी के विरूद्ध जाने वाली इन मांगों पर वास्‍तव में अमल करना ठीक उसी तरह असंभव है जिस तरह वित्‍तीय पूंजी की इजारेदारी के युग वाले पूंजीवाद को स्‍वतंत्र प्रतिस्‍पर्धा के युग में ले जाना या उसमें बदलना है; ठीक उतना ही नामुमकिन है जितना नवउदारवाद के युग की आर्थिक नीतियों को नेहरू के युग की आर्थिक नीतियों से प्रतिस्‍थापित करना है। कहने का तात्‍पर्य है कि ये दोनों मांगें चंद सुधारों में सिमटने वाली मांगें नहीं हैं। बड़ी पूंजी के अधीन पूंजीवादी राज्‍य में बड़ी पूंजी के कृषि क्षेत्र में वर्चस्‍व को रोकना स्‍वयं पूंजीवादी राज्‍य को खत्‍म किये बिना संभव नहीं है। इसी तरह, जहां एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग बाजार की मार से बर्बाद और हताश हो चुके किसानों को कुछ देर तक सहारा देने का अंतिम उपाय है (गरीब तथा निम्‍न मध्‍यम किसान भी ऐसा मानते हैं), वहीं पूंजीवादी राज्‍य के अंतर्गत इसे वास्‍तव में लागू करना बुरी तरह संकटग्रस्‍त पूंजीवाद की उखड़ती सांसों को तत्‍काल खतरे में डालने जैसी बात है। और ठीक यही वह चीज है जो इस जीत को आगे ले जाने की क्षमता से लैस करती है, क्‍योंकि दूसरी तरफ इन मांगों के वास्‍तव में पूरा हुए बिना किसानों की आसन्‍न बर्बादी को चंद दिनों के लिए भी, जैसा कि किसान सोंचते हैं, रोकना आज मुश्कि‍ल है। अगर इन दोनों मुद्दों पर किसानों की हार बड़ी पूजी के हाथों उनकी पूर्ण बर्बादी की आमद है, तो इन मुद्दों पर किसानों को मिलने वाली जीत के स्‍थायी होने की शर्त ही यह है कि इस जीत के आगे और जीतें हासिल की जायें, यानी अंतिम जीत तक इसे जीतों के एक सिलसिले में बदला जाये। देखा जाये तो किसानों की बर्बादी लाने वाली बड़ी पूंजी यानी कॉर्पोरेट पक्षीय नीति के विरूद्ध जीती गई कोई भी लड़ाई आगे और जीतों की जरूरत को रेखांकित किये बिना नहीं रह सकती है। खेती किसानी की आज की यह एक खासियत ही है जो इसे अन्‍य आंदोलनों से अलग करती है। किसानों के लिये मानों बीच के सारे रास्‍ते ही बंद हो चुके हैं।

यह निर्विवाद है कि कृषि कानूनों की वापसी के बावजूद सरकार पूंजीवादी खेती को ही और आगे बढ़ायेगी, यानी सरकार खेती में पूंजीवादी बाजार के तर्कों से ही आगे बढ़ेगी। छोटी जोतें कृषि के विकास में बाधक होती हैं और इसलिये पूंजीवाद में कृषि से छोटे किसानों की आबादी को हटाने और निकाल बाहर करने की हिमायत की जाती है। छोटे उत्‍पादकों के संपत्तिहरण की प्रक्रिया पूंजीवादी व्‍यवस्‍था में हमेशा चलती रहती है जिसमें बाजार की एक बहुत बड़ी भूमिका है। बाजार पूरे विश्‍व में ज्‍यादा से ज्‍यादा कॉर्पोरेट यानी बड़ी औद्योगिक तथा वित्‍तीय पूंजी के मठाधीशों के अधीन आ चुका है। देशी इजारेदारियों का नाम लें तो रिलायंस फ्रेश और अदानी लॉजिस्टिक दो बड़े प्रमुख नाम हैं। जिस देश का कृषि क्षेत्र अभी तक उनके पूर्ण नियंत्रण से बचा हुआ है (भारत का कृषि क्षेत्र उनमें से एक है) उसे भी तेजी से इनके अधीन लाने की कोशिश लगातार जारी है। भारत के क़ृषि क्षेत्र पर पिछले तीन दशक से कॉर्पोरेट की नजरें गड़ी हैं। कृषि क्षेत्र के उत्‍पादन, भंडारण और कृषि मालों के विपणन तथा व्‍यापार – तीनों पर इनकी नजरें हैं। आज राज्‍यसत्‍ता और पूरी अर्थ व्‍यवस्‍था इनके अधीन आ चुकी है। ऐसे में कृषि में बड़ी पूंजी यानी कॉर्पोरेट के निर्णायक वर्चस्‍व को अंतत: कैसे रोका जा सकता है? इस आलोक में किसानों को मिली जीत एक ठहरी हुई जीत के रूप में बहुत अधिक मायने नहीं रखती है, इसे किसानों को ही नहीं हम सबको भलि भांति समझ लेना चाहिए।

हम पाते हैं कि मोदी सरकार के लिए कृषि कानूनों की वापसी दरअसल एक टैक्टिकल युद्धविराम था और है, जो पूंजीवादी राज्‍य के लिए खतरनाक परिणामों की ओर बढ़ रहे किसान आंदोलन और तात्‍कालिक तौर पर उत्‍तरपद्रेश चुनाव पर इसके पड़ने वाले गंभीर (भाजपा विरोधी) प्रभावों को देखते हुए अत्‍यावश्‍क बन चुका था। लेकिन यह युद्धविराम मोदी को मुफ्त में नहीं मिला। मोदी को इसके लिए हार स्‍वीकार करने की कीमत अदा करनी पड़ी और यह एक बड़ी बात है। जहां किसानों को हर हाल में घर भेजना इस युद्धनीति का मुख्य लक्ष्‍य था, वहीं इसका दूसरा लक्ष्‍य संयुक्‍त किसान मोर्चा में फूट तथा भ्रम के बीज बोना था। सरकार दूसरे लक्ष्‍य में भी सफल होती दिख रही है। यह फासीवादी ताकतों के अपने मुख्‍य लक्ष्‍य के प्रति समर्पण को भी दिखाता है। मोदी सरकार और इसके थिंक टैंक ने जैसे ही यह समझ लिया कि किसानों के साथ अब युद्धविराम आवश्‍यक हो चुका है, तो मोदी ने इसे एक अपरिहार्य युद्धनीति की तरह लिया और कभी न झुकने वाले मजबूत नेता की छवि का बलिदान देकर इसे आनन-फानन में लागू किया, मानो इसमें थोड़ी भी और देर हुई तो बड़ी क्षति हो जायेगी। और सच में बात ऐसी ही थी। मोदी सरकार की नग्‍न कॉर्पोरेटपक्षीय नीतियों से जनता का आक्रोश न सिर्फ बढ़ रहा है, बल्कि तेजी से यह बारूद की एक बड़ी ढेर में तब्‍दील हो रहा है। किसान आंदोलन के साथ राज्‍यसत्‍ता का बढ़ता टकराव एक चिनगारी की तरह इसमें कभी भी विस्‍फोट कर सकता था। युद्धविराम ने निश्चित ही टकराव की इस स्थिति में परिवर्तन लाया है और सरकार को राहत दी है। इससे युद्ध की रणनीतिक पहलकदमी मोदी के हाथ में आयी है। उदाहरण के लिये, यह युद्धविराम कब तक चलेगा इसका निर्णय मोदी सरकार के हाथ में है, जबकि किसान घर जा चुके हैं और फिर से मोर्चे पर आ डटना संभव तो है लेकिन काफी आसान नहीं है। पहले तो मौजूदा परिस्थिति में उत्‍पन्‍न कन्‍फ्यूजन से निपटना होगा। कृषि मंत्री की खुली घोषणा आज हुई है, लेकिन कृषि‍ कानूनों की वापसी को कई अन्‍य तरीके से नाकाम करने की बात‍ बड़े पूंजीपतियों के अखबार पहले दिन से कर रहे थे। मोदी की बातों से भी यह शुरू से स्‍पष्‍ट था कि कृषि कानूनों की वापसी की भी वापसी होगी। किसान फि‍र से मोर्चे पर आ सकते हैं, और यह एक महत्‍वपूर्ण और हौसला बढ़ाने वाली बात है, लेकिन आज की सर्वाधिक गौरतलब बात यह है कि सरकार एक सेकेंड के लिये भी अपने मोर्चे से नहीं हटी है, उस समय भी नहीं जब किसान घरों को लौट चुके हैं।

युद्धविराम किसानों के लिए भी जरूरी थी। बड़ी लड़ाई इसके बिना संभव नहीं है। लेकिन युद्धविराम को ही जीत मान लेना दूसरी बात है। 8, 9, 10 दिसंबर को जब सरकार से किसान नेता व्‍हाट्सअप पर वार्ता कर रहे थे, तो उन दिनों गफलत का आलम यह था कि एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग को सरकारी कमिटी के रहमोकरम पर छोड़ देने की बात को भी जीत मान लिया गया, जबकि प्रस्‍तावित कमिटी एमएसपी की कानूनी गारंटी पर विचार या निर्णय करने आदि के लिये अधिकृत ही नहीं है। इस जीत में ऐसा बहुत कुछ महान है जिस पर उचित ही जश्‍न मनाया जाना चाहिए, लेकिन वास्‍तविक स्थिति से आंख मूंद लेना गलत है। मोदी सरकार जब युद्ध जीतने के लिए (फासीवाद जनता पर एक युद्ध ही है) एक अहम मोड़ पर एक जरूरी युद्धनीति का पालन कर रही थी, तो ‘हम’ समझ रहे थे कि मोदी सरकार वास्‍तव में हार मान चुकी है। जरा सोचिये, मोदी सरकार ने युद्धविराम होते ही युद्ध शुरू कर दिया! कृषि कानूनों को फिर से लाने की घोषणा आखिर और क्‍या है? संसद में फिर से नये कानून पारित करवाने की कवायद होती रहेगी, लेकिन जहां तक युद्ध की बात है तो यह शुरू हो चुका है। वैसे भी संसद मोदी सरकार के इरादों के आड़े कब आयी है? दरअसल इस जीत पर एकतरफा ढंग से बात करने का समय बीत चुका है। आज इस पर बात करना जरूरी है कि इस जीत को आगे की अन्‍य छोटी-बड़ी जीतों के एक अटूट सिलसिले में इसे कैसे बदला जाये, यानी इसे पक्‍का कैसे बनाया जाये।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि इस जीत में किसानों की उस विशिष्‍ट सामाजिक‍-राजनीतिक स्थिति (खासकर निजी पूंजी के सबसे बड़े अलंबरदार और समर्थक के रूप में) का भी योगदान है जो इन्‍हें मौजूदा पूंजीवादी शासक वर्ग का सहयोगी तथा महत्‍वपूर्ण अवलंब बनाता है और इसीलिए किसानों को अपने से पूरी तरह से छिटकाने और दूर करने की हिम्‍मत फिलहाल बड़ी कॉर्पोरेट पूंजी द्वारा पोषित फासिस्‍ट मोदी में भी नहीं है। दूसरी तरफ यह भी सच है कि शासक वर्ग का असमाधेय संकट तेजी से किसानों के बहुत बड़े हिस्‍से को पूंजीवादी शासकों से निर्णायक संबंध विच्‍छेद के लिए भी विवश कर रहा है, और उतनी ही तेजी से मजदूर वर्ग की हरावल शक्तियों को देशव्‍यापी तौर पर इसमें क्रांतिकारी हस्‍तक्षेप करने का सुयोग भी पैदा कर रहा है। अगर अन्‍य परिस्थिति‍यां भी अनुकूल हों, तो हम क्रांतिकारी मजदूर-किसान संश्रय के आधार पर जीत का एक अटूट सिलसिला भी कायम कर सकते हैं। पूंजीवादी-फासीवादी शासकों के बीच इस भय का इस बीच काफी संचार हुआ है।

लेकिन मजदूर वर्ग से किसानों की तरह के संघर्ष में उतरने को कहना गलत होगा। किसानों से‍ भिन्‍न, मजदूर पूंजीपतियों के उजरती गुलाम हैं। उनके दम पर पूंजीपति वर्ग के मुनाफे का पहाड़ खड़ा है और प्रतिदिन बड़ा होता है। मजदूरों की किसी भी गंभीर कार्रवाई से इसके भरभराकर गिरने और मुनाफा के पहिये के रूक जाने का खतरा पैदा होता है। किसानों की आम लड़ाई व कार्रवाई से बस वोट की राजनीति प्रभावित होती है और बुर्जआ वर्ग की पार्टियों के आपसी राजनीतिक शक्ति संतुलन में थोड़ा बहुत फर्क पड़ता है। लेकिन पूंजीवाद के अंतर्गत मजदूर वर्ग की हर छोटी-बड़ी कार्रवाई में वर्ग-संघर्ष का अंश होता है। किसान संघर्ष के साथ ऐसी स्थिति अपवादस्‍वरूप ही हो सकती है। हां, यह वर्ग-संघर्ष के पक्ष में आ जाये तो पूंजीपति वर्ग के विरूद्ध मजदूर वर्ग की जीत की संभावना को यह निश्चित ही बलवति और अवश्‍यंभावी बना देता है। इसलिए पूंजीपति वर्ग मजदूर वर्ग की किसान आंदोलन में क्रांतिकारी हस्‍तक्षेप को अपने लिये एक बड़े खतरे के रूप में देखता है। दूसरी तरफ, इस फर्क को भी समझना जरूरी है कि ”किसानों की तरह का मोर्चा” मजदूर वर्ग अगर किसी दिन लेगा, तो उसके पहले ही उसे पूंजीवादी सत्‍ता से निर्णायक लड़ाई में चले जाने का, अर्थात पूंजीपति वर्ग के विरूद्ध एक मुकम्‍मल विद्रोह कर देने का फैसला भी कर लेना होगा, जो सिर्फ मजदूर वर्ग के चाहने पर नहीं अपितु बाकी अन्‍य परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। इसके अतिरिक्‍त अन्‍य भिन्‍नतायें भी हैं, लेकिन वे बाद की बातें हैं। जैसे, किसानों पर दमन करने की सरकार की हिम्‍मत पर हम दांतों तले उंगली दबाते हैं, जबकि मजदूर वर्ग पर दमन एक स्‍वाभाविक बात प्रतीत होती है। इसमें एक दूसरे का पक्‍का दुश्‍मन होने का स्‍वाभाविक अहसास है, जबकि किसान पर पूंजीपति वर्ग के दमन के वक्‍त हम इसे लेकर हैरान होते हैं। जब मोदी सरकार किसानों से भी अन्‍यों की तरह (देशद्रोही आदि कहते हुए और दमन के रास्‍ते से) निपटने की कूवत दिखाने की कोशिश की, तो उसे तुरंत ही अपने कदम पीछे करना पड़ा, क्‍योंकि शासक पूंजीपति वर्ग के लिये यह एक डरावने सपने की तरह है कि दमन से किसान उनसे पूरी तरह छिटक कर क्रांतिकारी राह न पकड़ लें। शासक वर्ग जानता है, किसानों के क्रांतिकारी राजनीति पर चल निकलने के उनके लिए गंभीर परिणाम होंगे, क्‍योंकि यह सामाजिक शक्ति संतुलन को पूंजीपति की कब्र खोदने वाले मजदूर वर्ग की तरफ निर्णायक रूप से झुका देता है और अगर ठीक उसी समय मजदूर वर्ग भी फैसलाकुन वर्ग-संघर्ष के मैदान में हो, तो पूंजीपति वर्ग के लिए स्थिति अत्‍यंत नाजूक हो जायेगी, हो जाती है। इसलिए किसान आंदोलन की इस जीत ने मजदूर वर्ग को उर्जा ही नहीं, आगे के लिये कुछ अमूल्‍य सबक भी प्रदान किये हैं। सबसे बढ़कर, इसने सुदूर दिखने वाली मजदूर वर्गीय क्रांति के अंधकार से भरे उबड़-खाबड़ और टेढ़े-मेढ़े रास्‍ते को भावी क्रांतिकारी संकट काल के रूप-रंग की एक झलक दिखाकर इसे नजदीक से अहसास करने का अनमोल अवसर भी दिया है। अगर हम किसान आंदोलन के समकक्ष एक क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन की मौजूदगी की कल्‍पना करें, तो हमें भावी क्रांतिकारी संकट काल की एक झलक दिख जायेगी। इसकी कल्‍पना करना या उसके बारे में सोचना कतई गलत नहीं होगा, लेकिन शर्त यह है कि हम अपनी जिम्‍मेवारि‍यों के प्रति पूरी तरह सचेत हों और उसे पूरा करने की भी इमानदारी से तथा पूरी ताकत से कोशिश कर रहे हों और हम किसान आंदोलन का सुसंगत और मजदूर वर्गीय दृष्टि से, अर्थात मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन के दृष्टिकोण से विश्‍लेषण करें, और मजदूर वर्ग अपने का भावी शासक वर्ग के रूप में पेश करने में कोई हिचकिचाहट न दिखाये, कम से कम राजनीतिक तौर पर।

नग्‍न कॉर्पोरेटपक्षीय स्‍वार्थों से प्रेरित कृषि कानूनों की वापसी के रूप में मिली जीत इसलिए भी ऐतिहासिक है कि क्‍योंकि आज के दौर में कॉर्पोरेट के हितों को कुछ समय के लिए स्‍थगि‍त करना भी एक कठि‍न बात है, जब कि किसान आंदोलन ने कॉर्पोरेट और इसकी दलाल सरकार को और कुछ नहीं तो ‘हॉल्‍ट’ की अवस्‍था में तो जरूर ही ला खड़ा किया है। इसका ऐतिहासिक महत्‍व इस बात को समझने में भी निहित है कि किसान आंदोलन एक खास बिंदु के पार पहुंच कर और साथ ही किसान नेताओं की इच्‍छा के भी परे जाकर राज्‍यसत्‍ता और सरकार से गभीर तरह के टकरावों की संभावना को जन्‍म दे रहा था, जिसका महज एक तात्‍कालिक पक्ष ही यूपी चुनाव में भाजपा को इससे होने वाली मुश्किलें थीं। मुख्‍य बात यह थी कि इसने शासक वर्ग को खास तरह के सामाजिक संकट में डाल दिया था जिससे किसानों के साथ शासक वर्ग का टकराव एक गंभीर स्थिति में चलता चला जा रहा था। भाजपा नेताओं व मंत्रियों को गांवों में चुनाव प्रचार के‍ लिए नहीं घुसने देने की घटनायें और इससे जुड़ी झड़पें महज इसका संकेत थीं। लखीमपुर खीरी किसान हत्‍याकांड और फिर उसके बाद देश में आया राजनीतिक भूचाल (शासक वर्ग के अंदर और बाहर दोनों जगह) इसी का एक और गंभीर संकेत था। किसानों के बढ़ते असंतोष को रोकना तथा उसे व्‍यवस्‍था की सीमा में बनाये रखना शासक वर्ग के लिए फौरी तौर पर जरूरी हो गया था। आखिर मोदी के हटने के बाद भी तो पूंजीपति वर्ग को देश में जनता पर शासन करना है! अगर जनता का गुस्‍सा इतना बढ़ जाये कि मोदी के हटने के बाद विरोधी पार्टियों के लिए भी यह अनमैनेजेबल हो जाये, तो यह पूंजीवादी राज्‍य की स्थिरता के लिए खतरनाक चीज है। शासक वर्ग इसे बखूबी समझता है। कृषि कानूनों की वापसी की टैक्टिकल नीति इसका ही परिणाम थी। सत्‍यपाल मल्लिक के द्वारा जारी की जा रही खुली गंभीर चेतावनियों में भी इसकी एक झलक मिलती है। लखीमपुर खीरी जैसी घटना अगर एक-दो जगह और हो जाती, तो टकाराव कैसा स्‍वरूप लेता इसकी सहज कल्‍पना की जा सकती है। भारत जैसे देश में पूंजीवादी शासक वर्ग, जब तक और जिस सीमा तक संभव है, किसानों का समर्थन और जनाधार खोना नहीं चाहेगा, या कम से कम उसके साथ अपने अंतर्विरोधों को मैनेजेबल लिमिट में रखना चाहेगा। इसके अनमैनेजेबल हो जाने का खतरा ही वह मुख्‍य कारण बना जो सरकार को ही नहीं, कॉर्पोरेट को भी अपने कदम पीछे मोड़ने के लिये विवश किया।

लेकिन शासक वर्ग अपने वर्ग चरित्र के अनुरूप हीं यहां भी भारी गफलत में है और एक गंभीर गलती कर रहा है। या यह कहना चाहिए कि ऐसी मूर्खता करने के लिए वह हमेशा बाध्‍य होता है। जनता के गुस्‍से को पीछे हटकर मैनेज करना तब बहुत काम आता है जब शासक वर्ग कोई गंभीर और असमाधेय आर्थिक संकट में नहीं हो और किसानों के साथ कोई असाधारण लेन-देन या डील करने की स्थिति में हो। इसके विपरीत, अगर ऐसा डील ऐसे करना पड़े कि उसके पीछे हटने की अंतिम सीमा व दीवार और आज जहां वह खड़ा है उसके बीच के स्‍पेस, जो शासक वर्ग की युद्धनीति को लचीलापन प्रदान करता है, को ही कंप्रोमाइज करना पड़े, यानी वह स्‍पेस और कम हो जाये, तो इस तरह का आक्रोश मैनेजमेंट शासक वर्ग को जल्‍द ही भारी मुसीबत में डाल देता है और डाल देगा। शासक वर्ग को इसका अहसास हो या नहीं, इस बात से इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है कि यह उसके लिये मौत की ओर सरकने का परिचायक है। ऐतिहासिक रूप से तथा चिरकालि‍क आर्थिक संकट की स्थिति को देखते हुए यह राजनीतिक रूप से भी एक देय स्थिति‍ है। मोदी का यह आक्रोश मैनेजमेंट इसी तरह का है। आज किसानों से किसानों के हित में डील करने लायक स्थिति शासक वर्ग के पास है ही नहीं। वह बस झूठ-फरेब कर सकता है। किसानों के गुस्‍से के कारण कॉर्पोरेट के हितों को वैसे तो कुछ दिनों के लिये भी स्‍थगित या मुल्‍तवी करना संभव नहीं है, लेकिन अगर युद्धनीति के तहत शासक वर्ग ऐसा करता भी है, तो ऐसा वह बहुत दिनों तक या बार-बार नहीं कर सकता है। किसान अगर एक जीत को पक्‍का करने लिए आगे और जीतों के लिए संघर्ष पर उतारू हों, जैसा कि किसानों की घोषणाओं से दिखता है, तो ऐसे आक्रोश मैनेजमेंट की सीमा क्‍या है हम समझ सकते हैं। उदाहरण के लिये, एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग अगर किसान जीत लेते हैं तो भी इसे वास्‍तव में लागू कराने के लिए एक बार फिर से खरीद और खरीदारों की गारंटी की लड़ाई भी लड़नी होगी, क्‍योंकि कानूनी रूप से बाध्‍य करने पर व्‍यापारी किसाने की उपज को खरीदेंगे ही नहीं। महाराष्‍ट्रा में 2018 में ठीक ऐसा ही हुआ और इस तर‍ह के बने कानून को सरकार ने हटा लिया था क्‍योंकि किसानों ने आगे इसे लागू कराने के लिये लड़ाई नहीं लड़ी और इसके आगे कैसे लड़ा जाये इसकी कोई स्‍पष्‍ट समझ किसानों को नहीं थी। यानी, यह जीत जीतों के एक सिलसिले के बिना हमें अतार्किकता में ले जाती है जिसका समाधान सरकारी खरीद की गारंटी में है लेकिन ऐसा सिर्फ सर्वहारा राज्‍य ही कर सकता है, न कि पूंजीवादी राज्‍य जिसके लिए यह सच में एक अतार्किक चीज है। तब किसानों की लड़ाई को वर्ग-संघर्ष का हिस्‍सा बनना और बनाना होगा। हम देख सकते हैं कि इस रूप में यह मांग और लड़ाई अंतत: पूंजीवादी राज्‍य के खात्‍मे की मांग में अपना वास्‍तविक ठौर पाती है और पायेगी, जिसके बारे में हम शुरू से ही और विस्‍तार में लि‍खते और कहते आ रहे हैं। 1960 के दशक में शुरू हुए एमएसपी से लेकर 2021 में इसके कानूनी गारंटी की मांग की शक्‍ल तक के सफर पर हम एक सरसरी नजर भी डालेंगे तो इस स्‍वाभाविक गति की एक ठोस तस्‍वीर हमारे आंखों के सामने उभरती है जिसमें कोई भी यह देख सकेगा कि आज क्‍यों किसानों की यह मांग उनके जीवन की सर्वोपरि मांग बन चुकी है तथा क्‍यों इस मांग की गतिमयता पूंजीवादी राज्‍य के तंग दायरे व क्षि‍तिज को लांघती है। जाहिर है, यह किसानों को एक जीत के बाद दूसरी जीत तक ले जाने की क्षमता रखती है। और यह चीज तब और शानदार बन जाती है अगर किसान अपनी ही मांग की इस स्‍वाभाविक द्वंद्वात्‍मक गति की एक झलक स्‍वयं आंदोलन की गति में ही देख लेते हैं। यही कारण है कि किसानों के वर्तमान गुस्‍से को मैनेज करने के लिए सरकार को बार-बार कॉर्पोरेट के हितों को स्थगित करना पड़ सकता है। ऐसा जितनी बार होगा, कॉर्पोरेट और उसके अधीन चलने वाली राज्‍यसत्‍ता के लिये स्थितियां उतनी ही दुरूह होती जायेंगी, अर्थात उसके लिये अपने कदम पीछे मोड़ने हेतु भविष्‍य में स्‍पेस की उतनी ही ज्‍यादा कमी पड़ती जायेगी। अंतत: किसानों के आक्रोश को संभालने, यानी उन्‍हें अपने साथ सहयोजित कर पाने की शासक वर्गों की क्षमता व संभावना दोनों खत्‍म हो जायेगी। पूंजीवादी नजरिये से कृषि कानूनों पर मिली जीत और एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग दोनों की असफलता तय है, जबकि मजदूर वर्ग की दृष्टि से ये दोनों किसानों को इनके मुक्तिपथ तक ले जाते हैं। हम उम्‍मीद करते हैं कि किसान भी जल्‍द ही समझ जायेंगे कि कॉर्पोरेट यानी बड़ी पूंजी को पूरी तरह धूल चटाये बिना उनके जीवन में खुशहाली नहीं आने वाली है।

एमएसपी की शुरूआती व्‍यवस्‍था से लेकर एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग तक के इसके सफर का अवलोकन तथा विश्‍लेषण पूंजीवादी कृषि की इस अतार्किकता को पूरी नग्‍नता के साथ उजागर करता है कि पूंजीवादी खेती में किसानों का भविष्‍य सुखद नहीं हो सकता है। पूंजीवाद ने हालात इतना हृदयविदारक बना दिया है कि आज किसान सरकारी मंडी में सरकार द्वारा निर्धारित एमएसपी पर अपने अनाज बेचने को न सिर्फ प्राथमिकता देते हैं, बल्कि इसे अपने बचे-खुचे आर्थिक-सामाजिक अस्ति‍त्‍व की रक्षा के लिए जरूरी मानते हैं। इसे ही अपने अस्तित्‍व रक्षा का एकमात्र साधन मानने लगे हैं जबकि यह उनका भ्रम मात्र ही है, क्‍योंकि इससे अगर उनका अस्तित्‍व बचता तो एमएसपी का लाभ उठाने वाले किसानों के एक व्‍यापक हिस्‍से खासकर गरीब व निम्‍न मध्‍यम किसानों की हालत खस्‍ताहाल नहीं होती और वे लाखों की संख्‍या में आत्‍महत्‍या नहीं करते।

लेकिन इससे भी ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण बात आज यह समझना जरूरी है कि एमएसपी पर बेचने की किसानों की यह प्राथमिकता क्‍या शुरू से थी? नहीं, बिल्‍कुल ही नहीं। आज बड़ी पूंजी द्वारा नियंत्रित बाजार में किसानों की फसलों की कीमत काफी नीचे रहती है। कभी-कभी बाजार कीमतें किसी-किसी फसल में लागत मूल्‍य के भी नीचे चली आती हैं। आज खुले बाजार में अनाजों व फसलों की कीमत बड़े-बड़े वित्‍तीय सट्टेबाज तय करते हैं। वे ही इसके एकमात्र नियंता बन बैठे हैं। परिणामस्‍वरूप यह प्रवृति आम बन चुकी है कि किसानों के घर में जब फसल आती है तो दाम गिरा दिया जाता है और जब व्‍यापारी किसानों की फसलों को अपने गोदामों में भर लेते हैं और उपभोक्‍ताओं को बेचने के लिये बाजार में उतरते हैं तो दाम अत्‍यधिक बढ़ा देते हैं। आज हर क्षेत्र में वित्‍तीय सट्टेबाजों की पौ बारह है। वित्‍तीय इजारेदारी के युग के पूंजीवाद की मूल प्रवृत्तियों में यह शुमार है।

एमएसपी के इतिहास पर एक नजर

शुरूआत में, यानी 60 के दशक में जब यह व्यवस्‍था पहली बार लागू हुई थी, तो स्थिति बिल्‍कुल भिन्‍न और विपरीत थी। तब किसान खुले बाजार में बेचने को प्राथमिकता देते थे, क्‍योंकि बाजार दाम प्रोक्‍योरमेंट प्राइस और एमएसपी दोनों से ऊपर होते थे। अगले एक दशक तक, और कुछ अर्थों में उसके भी अगले दशक तक, बाजार में अनाजों के नहीं बिकने की सूरत में ही किसान एमएसपी पर बेचते थे। किसानों की पहली प्राथमिकता बाजार में बेचना ही था। सरकारी व्‍यवस्‍था यह थी कि किसानों को अपनी फसल का एक हिस्‍सा सरकारी प्रोक्‍योरमेंट के तहत बेचना होता था। इस तरह सरकारी प्रोक्‍योरमेंट और उद्योगों की जरूरत के पूरा होने के बाद किसानों के पास अनाज बच जाता था, तो सरकार उसे न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य (एमएसपी) पर खरीद लेती थी। प्रोक्‍योरमेंट प्राइस एमसपी से ज्‍यादा और बाजार दाम से कम होता था।

हरित क्रांति ने चंद वर्षों में ही स्थिति को बदल दिया। गेहूं तथा चावल का उत्‍पादन खपत से ज्‍यादा होने लगा और भारत मुख्‍य खाद्यान्‍नों के मामले में आत्‍मनिर्भर होने के साथ-साथ खपत से ज्‍यादा खाद्यान्‍न उत्‍पादन करने वाले देशों में शुमार होने लगा। अनबिके अनाजों की मात्रा तेजी से बढ़ने लगी और ऐसा बार-बार होने लगा। इसी के साथ बाजार दाम अक्‍सर गिरने लगे। 80 के दशक का अंत आते-आते खपत से ज्‍यादा उत्‍पादन होने के कारण बिक्री की समस्‍या विकराल रूप में प्रकट होने लगी। इसी के साथ किसानों की प्राथमिकता बदलने लगी। जब गेहूं और चावल का उत्‍पादन दर आबादी वृद्धि दर और मांग दर दोनों से आगे निकल गया और सरकारी गोदामों में गेहूं और चावल के भंडारण के लिए जगह कम पड़ने लगी, तो एक तरफ अनाज के रख-रखाव पर खर्च अत्‍यधिक बढ़ने से सरकार मुख्‍य खाद्यान्‍नों के प्रोक्‍योरमेंट से पीछा छुड़ाने लगी, वहीं दूसरी तरफ बाजार दाम से हट कर किसान ज्‍यादा से ज्‍यादा सरकारी प्राक्‍योरमेंट हो इसके लिए जोर देने लगे।

90 के दशक में नयी आर्थिक नीति यानी नवउदारवादी नीतियों ने पुरानी (नियंत्रणकारी) नीतियों की जगह ले ली और किसानों की खेती के लागत और फसलों की कीमतों पर इसका बहुत बुरा पड़ा। सरकार WTO के प्रति अपने कमिटमेंट को पूरा करने की दिशा में बढ़ने लगी। संक्षेप में, भारतीय कृषि अंतर्राष्‍ट्रीय बाजार से जुड़ गयी और पूरी तरह सट्टेबाजों की जद में आ गई। अनाजों के बाजार दाम अक्‍सर टूटने लगे। इस कारण किसानों के कर्ज में डूबने और उनके द्वारा की जाने वाली आत्‍महत्‍यायों का सिलसिला बड़े पैमाने पर शुरू हुआ जो आज तक जारी है। प्रोक्‍योरमेंट की मात्रा और प्रोक्‍योरमेंट प्राइस दोनों को बढ़ाने की मांग तेज होने लगी। बुर्जुआ राजनीति में इसका राजनीतिक टूल के रूप में इस्‍तेमाल होना स्‍वाभाविक बात थी। लेकिन पूंजीवादी राज्‍य सारी फसलों व उपज की खरीद न कर सकती थी और न ही की। उल्‍टे, नवउदारवादी नीति के तहत सरकार ने कृषि उपकरणों, खाद, बीज तथा कीटनाशकों के विपणन से अपने हाथ खींच लिये जिससे कृषि लागत में भारी बढ़ोतरी होने लगी। किसान कर्ज से और ज्‍यादा लद गये, जबकि अनाजों के बाजार दाम अधिकांशत: नीचे ही रहने लगे। सरकारी गोदामों में अनाज बफर स्‍टॉक से दोगुना तक जमा हो गये। एमएसपी बढ़ाया गया और अब वह बाजार दाम से भी ऊपर हो गया। प्रौक्‍योरमेंट प्राइस की जगह एमएसपी ने ले ली और इसे सरकार ने बंद कर दिया। बिक्री की विकराल समस्‍या उत्‍पन्‍न हुई और कृषि लागत में होने वाली सतत वृद्धि से किसानों की आय गिरने से उनकी माली हालत बिगड़ती गई। गरीब किसानों की स्थिति सबसे ज्‍यादा खराब थी। आत्‍महत्‍या करने वालों में मुख्‍यत: वे ही थे और आज भी हैं। लेकिन अन्‍य किसानों की माली हालत भी अच्‍छी नहीं रही। वे धीरे-धीरे विस्‍थापित होने के कगार पर पहुंचने लगे।

किसान अब प्राइस सिग्‍नल के आधार पर फसल उगाने लगे जो अक्‍सर गच्‍चा दे देता था। धनी तथा बड़े किसान तो भयानक रूप से ऊपर-नीचे होते दाम का झूला झुलते हुए भी लाभ कमाने में एक हद तक सक्षम थे और दिवालिया होने से बच जाते थे, लेकिन बाकियों की स्थिति दयनीय होती गयी। हालांकि बाद के दिनों में, खासकर नयी सदी के दूसरे दशक के पूर्वार्ध के बाद से, बड़े किसान भी बाजार की लगभग स्‍थायी परिघटना का रूप ले चुकी दगाबाजी से परेशान होते गये। गांवों में कर्ज देने वाले साहूकारों और सूदखोरों की खूब बन आयी। धनी किसानों ने इसमें भी अपना हाथ साफ किया। लेकिन कालांतर में बड़े किसानों का एक एक अच्‍छा-खासा हिस्‍सा खूद ही कर्ज के भंवर में फंस गया। पूंजीवादी खेती की अतार्किकता के भंवर में सबको आज न कल आखिर फंसना ही था और किसान इसमें बुरी तरह फंसते गये!

कर्जमाफी एक प्रमुख मांग बनकर उभरी। लेकिन इसका फायदा एक सीमित और छोटी किसान आबादी को ही मिला। संस्‍थागत ऋण तो माफ हुआ लेकिन निजी सूदखोरों से लिये गये कर्ज, जिसकी मात्रा अत्‍यधिक थी, से निजात नहीं मिला। कांट्रैक्‍ट खेती, वायदा कारोबार, फॉरवर्ड ट्रेडिंग, डेरिवेटिव और फ्यूचर जैसे कॉर्पोरेट पूंजी के उपकरणों को, जो दरअसल कृषि‍ में कॉर्पोरेट पूंजी के प्रवेश को शुरूआती तौर पर नीतिगत रूप से सुगम बनाने के काम आये, को भी आजमाया गया। तर्क था कि किसानों को सही बाजार दाम मिलेगा। इसने तात्‍कालिक फायदा भी दिया, लेकिन अंतत: अपने स्‍वाभाविक गुण व प्रकृति के अनुरूप बिक्री की समस्‍या को और गहरा तथा विकराल बना दिया। इसने अंतत: सही कीमतों की समस्‍या को सुलझाने के बजाय और उलझा दिया। वायदा बाजारों ने न सिर्फ सट्टेबाजी को बढ़ावा दिया अपितु प्राथमिक जिंसों की कीमतों को भी काफी बढ़ा दिया और कीमतों में पहले की तुलना में और भी ज्‍यादा भारी तूफानी उतार-चढ़ाव को जन्‍म दिया जिसका अर्थ यह था कि बिक्री की समस्‍या को इसके बाद असमाधेय बन जाना था। यह स्थिति कॉर्पोरेट की कृषि क्षेत्र पर होने वाली चढ़ाई करने के लिए अत्‍यधिक सुगम था जिसकी ओर किसानों को सही दाम देने के नाम पर जानबूझ कर धकेला गया, यानी किसानों को इसका आदि बनाया गया ताकि पूंजीवादी कृषि को इसके विकास के दूसरे चरण, जिसमें कॉर्पोरेट की इजारेदारी ही मुख्‍य बात है, में ले जाना आसान हो।

इसी के साथ बड़ी पूंजी और कॉर्पोरेट ने खेती को उनके हवाले करने की मांग तीव्र कर दी। हालांकि इसकी मांग नयी सदी के प्रथम दशक से ही तीव्र होने लगी थी। तमाम सरकारी कमिटियों व आयोगों के माध्‍यम से यह मांग तेज स्‍वर में उठायी गयी और कृषि संकट के हल के लिए बड़े कॉर्पोरेट पक्षीय सुधार करने की ताबड़तोड़ सिफारिशें की जाने लगीं। लेकिन दिक्‍कत वाली बात यह थी कि व्‍यापक किसानों के लिए ये सुधार बहुत बड़ी और अत्‍यंत तेजी से होने वाली बर्बादी तथा तबाही के कारण बनते और राजनीतिक रूप से ऐसा खतरा मोल लेने की हिम्‍मत कांग्रेस जैसी आम बुर्जुआ पार्टियों में नहीं थी। इससे होने वाली सामाजिक अशांति से निपटने (भटकाने तथा दबाने) के लिये एक फासिस्‍ट पार्टी की जरूरत थी। एमएसपी और सरकारी मंडियों को इन सुधारों के जरिये खत्‍म करने की योजना शुरू से ही थी और आज भी है। दूसरी तरफ, किसानों की आत्‍महत्‍यायें राजनीतिक रूप से शासक वर्ग तथा व सरकारों के लिये अत्‍यधिक सरदर्द का कारण बन गईं, और इसलिए एमएसपी को बढ़ाने के लिए सरकार विवश रहीं, जबकि अंदरखाने में सभी सरकारें व शासक वर्गीय पार्टियां कृषि‍ व देहात को बड़ी पूंजी को सौंप देने की नीति पर मुख्‍यत: सहमत थीं जिसका अवश्‍यंभावी परिणाम एमएसपी और सरकारी कृषि मंडी का अंत है। एकमात्र राजनीतिक उथल-पुथल का डर ही वह चीज थी जो पूंजीवादी पार्टियों को इस रास्‍ते पर जाने से रोकती रही। उद्योगों में भी एक हद के बाद कांग्रेस की सरकार उतनी तीव्र गति से सुधार करने के लिये तैयार नहीं थी जितनी तीव्र गति से कॉर्पोरेट पूंजी चाहती थी। तभी नग्‍न कॉर्पोरेटपक्षीय गुजरात मॉडल के नायक मोदी के प्रति कॉर्पोरेट अर्थात बड़ीह पूंजी का आकर्षण बढ़ा और 2014 में तथा उसके बाद जो हुआ उससे हम और आप सभी वाकिफ हैं।

मोदी सरकार जो तीन नये कृषि कानून लेकर आई, वे कॉर्पोरेट के इसी चिरलंबित मांग को पूरा करने के लिए थे जिनके लागू होने के बाद कृषि उत्‍पादन, कृषि उपजों के भंडारण और उनके विपणन तथा व्‍यापार पर कॉर्पोरेट का पूर्ण नियंत्रण होना निश्‍चि‍त था। जाहिर है, इसमें सरकारी मंडी और एमएसपी को बड़ी चालांकी से, किसानों को खुले बाजार में बेचने की आजादी देने और अतिरिक्‍त लाभ कमाने के नाम पर, खत्‍म करने का लक्ष्‍य शामिल किया गया था, क्‍योंकि इसे किये बिना कॉर्पोरेट के कृषि क्षेत्र पर विजय अभि‍यान का कोई मतलब नहीं रह जाता। किसानों ने इसके बाद यह भी समझ लिया कि उन्‍हें, उनकी खेती, जमीन, उपज और पूरे देहात व गांव को मानवद्रोही बाजार और उनके मुख्‍य नियंत्रणकर्ता बड़े कॉर्पोरेट के हवाले किया जा रहा है। जाहिर है इसके बाद किसानों के समक्ष इसके अलावा और कोई चारा नहीं रह गया कि वे अपने फसलों की सरकारी खरीद की गारंटी को व्‍यक्‍त करने वाली मांग अर्थात एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग को कृषि कानूनों के आगे भिड़ा दें। उन्‍होंने यह मांग की कि एमएसपी से नीचे दाम पर व्‍यापारियों के द्वारा होने वाली खरीद को गैरकानूनी बनाया जाये।

इस पूरे दौर में सरकार की नीतियों और उसके व्‍यवहार में अतार्किकता का साम्राज्‍य बना रहा जो एक स्‍वाभाविक बात‍ है। एक तरफ स्‍वामीनाथन कमिटी ने किसानों की आत्‍महत्‍या रोकने के‍ लिए एमएसपी को एक जरूरी उपाय बताया और इसे कुल व्‍यापक लागत के ऊपर 50 प्रतिशत लाभकारी (C2 +50%) बनाने की सिफारिश कर दी, लेकिन दूसरी तरफ वैसी सिफारिशें भी की जो मोदी द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों का आधार बनीं। यह तथ्‍य है कि C2 +50% को किसी सरकार ने लागू नहीं किया। हालांकि वोट से जुड़े राजनीतिक दबाव की वजह से सरकारी खरीद, यानी सरकारी प्रोक्‍योरमेंट तथा एमएसपी में थोड़ी बहुत वृद्धि भी सरकार लगातार करती रही। लेकिन वहीं दूसरी तरफ, सरकार नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और WTO में की गई अपनी कमिटमेंट के तहत सरकारी मंडी और एमएसपी को खत्‍म करने के लिए भी वचनबद्ध थी और इस दिशा में पूर्ण रूप से बढ़ने की चेष्‍टा भी करती रही। हालांकि भारतीय पूंजीपति वर्ग की यह विशेष खासियत रही है कि वह बड़े से बड़े पूंजीपक्षीय सुधार भी टुकड़ों में करके जनांदोलन के उठने के खतरे को टालने की कला में महारत हासिल किया हुआ है। लेकिन कॉर्पोरेट इस बार जल्‍दी में थे और इसने मोदी के पीठ पर हांथ रखते हुए इस ओर निर्णायक कदम बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन किसानों ने फिलहाल उसे भी ‘हाल्‍ट’ की अवस्‍था में ला खड़ा किया है। किसानों की जीत का विशेष महत्‍व यहां स्‍पष्‍ट दिखता है कि इन्‍होंने एक छोर से प्रतिरोध करते हुए कॉर्पोरेट के अश्‍वमध यज्ञ के घोडे की नकेल थाम ली।


एमएसपी की कानूनी गारंटी पूंजीवाद की ”असंभाव्‍यता” के अंतर्विरोध में घकेलता है।

कुछ लोग सवाल करते हैं कि जब कोई पूंजीवादी राज्‍य किसानों की सारी फसलों की एक पूर्व निर्धारित कीमत पर खरीद कर ही नहीं सकती है, तो फिर किसान इन मांगों पर लड़ेंगे ही क्‍यों? लड़ना ही क्‍यों चाहिए? ऐसे सारे लोग सुधारवाद से ग्रस्‍त हैं। सुधारवाद में पगा दिमाग ही ऐसे प्रश्‍न कर सकता है। हमने यह ऊपर दिखाने की कोशिश की है कि किसान पूंजीवादी खेती की अतार्किकता के भयंकर दुष्‍परिणामों के विरूद्ध अपने जीवन-संघर्ष के अनुभव से इस मांग तक पहुंचे हैं। कृषि संकट पूंजीवादी थिंक टैंक के लिए बहस और बौद्धिक आमोद का विषय है, लेकिन इसकी वीभत्‍स अभिव्‍यक्ति किसानों की आत्‍महत्‍यायें के रूप में हुई हैं, और इसके हल के लिए पूंजीवादी राज्‍य के द्वारा किये गये एक-एक उपाय जब नकारा साबित होते गये और हर कदम कॉर्पोरेट के पक्ष की चीज साबित होते गये, तभी किसान भटकते और लड़ते हुए इस मांग तक पहुंचे हैं, यह मानते हुए कि शायद इससे उनके सं‍पत्तिहरण तथा उजड़ने की प्रक्रिया रूकेगी। यह उनका भ्रम हो सकता है और है, लेकिन उसकी जिंदगी कोई भ्रम की वस्‍तु नहीं है। किसानों की इस संबंध में भ्रांत धारणा के मुख्‍यत: दो कारण हैं – पहला यह कि यह मांग मिलने से भी बिक्री की समस्‍या खत्‍म नहीं होगी। बिक्री की समस्‍या पूंजीवादी अतिउत्‍पादन से जुड़ी समस्‍या है और आम जनता की गिरती क्रय शक्ति का परिणाम भी है। इसलिए वह सुलझने के बजाये और उलझेगी। और दूसरा, पूंजीवादी राज्‍य सारी फसलों की खरीद गारंटी कभी कर ही नहीं सकता है। लेकिन इस मांग की खासियत यह है कि किसानों की मुक्ति के प्रशस्‍त पथ तक जाने वाली पगडंडि‍यों में से यह महत्‍वपूर्ण पगडंडी है। सर्वहारा राज्‍य के अंतर्गत होने वाली सामूहिक खेती के माध्‍यम से वास्‍तव में किसानों की सारी फसलों की खरीद की गारंटी कर सकता है और करेगा। लेकिन यहां तक पहुंचने के लिये किसानों की तरफ से पूंजीवाद की सीमा लांघने वाला कदम उठाया जाना आवश्‍यक है। यानी, इस मांग के लिए होने वाली लड़ाई किसानों को अंतत: पूंजीवादी राज्‍य की सीमा को लांघने के लिए प्रेरित करने की क्षमता रखती है और यही वह बात है जो इस किसान आंदोलन की मुख्‍य खासियत है।

जाहिर है, एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग के लिये अगर किसान पूंजीवादी राज्‍य को बाध्‍य करते हैं, तो वे पूंजीवादी राज्‍य को पीछे हटने की अंतिम सीमा तक धकेल कर पूंजीवादी व्‍यवस्‍था को ‘असंभाव्‍यता’ (impossibility) के अंतर्वि‍रोधों में, अर्थात पूंजीवादी राज्‍य को विस्‍फोटक अंतर्विरोधों में डाल देंगे। इस तरह के अंतर्विरोधों से बचने के लिए अगर सरकार युद्धनीति के तहत यह मांग मान लेती है और वास्‍तव में लागू करने के बदले किसानों को मूर्ख बनाती है, तो यह असंभव नहीं है कि संघर्षरत किसान मजदूर वर्ग और उसकी क्रांतिकारी पार्टी के साथ हो लें और समाज की मौजूदा व्‍यवस्‍था को उलट देने की मजदूर वर्ग की कार्रवाई के समर्थन में आ जायें, बशर्ते मजदूर वर्ग वस्‍तुगत और आत्‍मगत तौर से भी इतना ताकतवर हो कि अपने को किसानों के समक्ष भावी शासक वर्ग के रूप में पेश होते हुए किसानों को यह भरोसा देने में समर्थ हो कि मेहनतकश किसानों की भागीदारी से बनने वाला भावी सर्वहारा राज्‍य न सिर्फ सारी फसलों को खरीदेगा, अपितु किसानों को आर्थिक व सामाजिक रूप से गरिमामाय जीवन की गारंटी भी प्रदान करेगा।

साफ है कि यह मांग दरअसल एक सीमा के बाद राज्‍य से कृषि उपजों की खरीद गारंटी की मांग में स्‍वाभाविक रूप से बदल जाएगी जिसको मान लेने के बाद भी किसी पूंजीवादी राज्‍य के लिये लागू करना सर्वथा असंभव होगा। यानी, इस मांग पर की जीत भी अन्‍य जीतों के लिए, यहां तक कि किसानों को पूंजीवाद को पलट देने के लिए भी प्रेरित के साथ-साथ बाध्‍य भी करती है।

इसलिये ही हम यह कहते रहे हैं कि किसानों और पूंजीवाद के बीच का यह टकराव मामूली टकराव नहीं है। यहां यह समझना जरूरी है कि पूंजीवाद, जिसे अगर इतिहास की गति के अनुरूप इसके द्वारा लिये गये आदेश के अनुसार मेहनतकश अवाम द्वारा पलटा नहीं गया, तो पूंजीवाद की के तहत विकास की ऐतिहासिक गति के हाथों किसानों का आज न कल उजड़ना तय है। यह इतिहास के आगे बढ़ने की दो तरह की गतियों में से एक एक तरह की गति है। दूसरी तरह की गति, जैसा कि ऊपर कहा गया है, यह है कि स्‍वयं पूंजीवाद को ही पलट दिया जाये, संपत्तिहरण करने वालों का ही संपत्तिहरण कर लिया जाये। इस तरह पूंजीवाद के तहत विकास की ऐतिहासिक गति को किसानों की मुक्ति के आड़े नहीं आने दिया जाये। इतिहास की यह गति पूंजीवादी राज्‍य की जगह सर्वहारा राज्‍य के गठन और शोषण व उत्‍पीड़न के सभी रूपों के अंत की ओर जाने के अतिरिक्‍त हमें और कहीं नहीं ले जाता है। कृषि कानूनों की वापसी और एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग के लिए होने वाली लड़ाई में चाहे जीत हो या हार, यह हमें इसी ओर ले जाने वाली गति से सन्‍नद्ध करती हैं। किसानों के सभी मुख्‍य मसले अनसुलझे हैं और पूंजीवाद में अनसुलझे ही रहेंगे। किसानों की कोई भी जीत महज अगली जीत के एजेंडे को लाने वाली साबित होगी। किसानों की परिपक्‍वता भी अब जाने-अनजाने दिखने लगी है। जब वे कहते हैं कि यह तो लड़ाई की शुरूआत है, तो वे आज के दौर के पूंजीवाद की मूल प्रवृति को ही नहीं, अपनी लड़ाई के मूल चरित्र और उसकी दिशा को भी अपनी सहज वृति से समझने लगे हैं ऐसा माना जा सकता है।

यह मजदूर तथा मेहनतकश वर्ग के शोषण व लूट की अत्‍यधिक तीव्रता को ही दिखाता है कि आज छोटी पूंजी के मालिक भी तेजी से दिवालिया हो रहे हैं। मोदी की फासिस्‍ट सरकार ने इसे इतनी अधिक स्‍पष्‍टता से दिखा दिया है कि कॉर्पोरेट के हिमायतियों को छोड़ किसी को भी इसे देखने में कठिनाई नहीं हो सकती है। किसानों में छोटी व ग्रामीण पूंजी के मालिक भी आते हैं। इसलिए अगर छोटी पूंजी के मालिक किसानों के भी तेजी से उजड़ने की स्थिति आज पैदा हुई है तो इससे हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि आर्थिक शोषण की तीव्रता कितनी तेज हो चुकी है और इससे मजदूर-मेहनतकश वर्ग के जीवन पर क्‍या असर पड़ा है। इतना ही नहीं, यह हमें गरीब व निम्‍न आय तथा कम संसाधन वाले किसानों की मुक्ति के संबंध में मजदूर वर्गीय पहुंच तथा विचारधारा आदि को भी किसान आंदोलन में ले जाने का अवसर अथवा सुयोग प्रदान करता है। कुल मिलाकर यह परिस्थिति किसान आंदोलन में मजदूर वर्गीय क्रांतिकारी हस्‍तक्षेप के लिये जगह बनाने में मदद देती है। किसानों का व्‍यापक हिस्‍सा पूंजीवादी खेती की अतार्किकता के कारण तीन दशक से भी ज्‍यादा समय से उजड़ते आ रहे हैं तथा इसी प्रक्रिया को और अधिक, यानी बलपूर्वक तेज करने के लिए ये कृषि कानून लाये गये थे। दरअसल यह भारतीय खेती के पूंजीवाद विकास के दूसरे दौर का परिचायक है जिसके तहत खेती में बड़ी पूंजी का निर्णायक वर्चस्‍व कायम होना था जिसके शिकार वे किसान भी होते या होंगे जो कल तक पूंजीवादी खेती से लाभान्वित होते रहे हैं। किसानों की जीत ने फिलहाल इसे रोक दिया है। लेकिन कब तक, यह सवाल गूंज रहा है। संपूर्णता में किसानों के समक्ष यह प्रश्‍न खड़ा है कि 1980 और खासकर 1990 के दशक से ही किसानों के उजड़ने की प्रक्रिया, जिसकी आग अब संपन्‍न किसानों के एक बड़े हिस्‍से तक आज पहुंच चुकी है, का अंत कैसे होगा? किसानों की निरंतर बढ़ती कर्जग्रस्‍तता और बदहाली कैसे दूर होगी? किसानों की आत्‍महत्‍या कैसे रूकेगी? ये सारे सवाल कृषि‍ कानूनों पर मिली इस जीत के बाद भी, हमारी समझ से कृषि कानूनों पर मिली जीत के बाद और भी तेजी से, किसानों के दिमाग में गूंज रहे होंगे और जल्‍द ही उन्‍हें नये आंदोलनों में खींच ले आयेंगे।

कृषि क्षेत्र का मौजूदा संकट किसानों के किसान के रूप में उनके अस्तित्‍व पर मंडराते संकट के अलावे और भला क्‍या है? आज के दौर में अपेक्षाकृत संपन्‍न किसानों के दिलोदिमाग में भी यह बात घर कर चुकी है कि बाजार में (उनकी फसलों को मिलने वाले दाम के संदर्भ में) की दगाबाजी उनकी वर्तमान तथा भावी तबाही के केंद्र में है और यह उन्‍हें अंतत: उजाड़ देगा, और जिसके मूल में बड़ी पूंजी यानी कॉर्पोरेट का बाजार में चौतरफा बढ़ता दखल है। यह उनके किसान के रूप में अस्तित्‍व को अंतत: खत्‍म कर देगा वे यह समझ चुके हैं। खासकर अधिक विकसित क्षेत्रों के किसानों के बीच यह समझ अब आम बन चुकी है। एक बार फिर से मोर्चे पर आ डटने की घोषणा किसानों की तरफ से बारंबार यूं ही नहीं हो रही है। किसान नेता एमएसपी पर कानूनी गारंटी की मांग को एक अहम मसला मानते हुए इसके लिए पूरे देश में एक बार फिर से अलख जगाने की बात कर रहे हैं। इससे हम अंदाजा लगा सकते हैं कि एमएसपी की कानूनी गारंटी का मसला किसान आंदोलन के अगले चक्र व दौर के केंद्र में रहने जा रहा है। बाजार में दाम न मिलने की मार से हलकान किसान मानते हैं कि एमएसपी उसके जिंदा रहने के सवाल से जुड़ा मसला है। शायद इसलिए ही जीत के जश्‍न के बीच अक्‍सर किसान आंदोलन के एक बार फिर से उठ खड़ा होने की संभावना तथा उम्‍मीद का शोर पैदा हा रहा है। और अब कृषि मंत्री के बयान के रूप में कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा की भी वापसी हो हो गई। कॉर्पोरेट की प्रेतछाया पूरी तरह बनी हुई है। इस कारण भी आंदोलन के फिर से उठ खड़ा होने की जमीन वस्‍तुगत रूप से मौजूद है और लंबे काल तक मौजूद रहेगी।

अंत में ……

संसद को किसान जनता की शक्ति के आगे झुकना पड़ा! यह चीज स्‍वयं कृषि कानूनों के ऊपर मिली जीत से भी ऊपर की चीज है। यानी, यह एक ऐसी जीत है जिसमें स्‍वयं जीत एक गौण पक्ष बन गया है, और इसका इतिहास की गति पर पड़ने वाला प्रभाव मुख्‍य पक्ष। किसानों की जीत ने जनवाद के जिस तकाजे को पुनर्जीवित किया है और जिस तरह से जनता को सर्वोपरि और निर्णायक शक्ति के रूप में पेश किया है, वह पूंजी के विरूद्ध जाने वाली शक्ति है। आज के विजयी किसान अभी अंतिम विजेता साबित नहीं हुए हैं लेकिेन इस बात अहसास कि आंदोलन स्‍थगित हुआ है खत्‍म नहीं, और हम आगे जल्‍द ही फिर से मोर्चों पर आयेंगे अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है।

कृषि कानूनों पर विजय से किसानों को क्‍या मिला, इसका जबाव यह है कि इसने कृषि क्षेत्र पर कब्‍जा माने के लिए तेजी से लंबे डग भरे कॉर्पोरेट को तात्‍कालिक तौर पर ही सही लेकिन ‘हॉल्‍ट’ की अवस्‍था में तो अवश्‍य ही ला खड़ा किया है जिसका अर्थ यह है कि कॉर्पोरेट और फासिस्‍ट सरकार को कल उखाड़ फेंका भी जा सकता है। किसानों को इस बात की महान शिक्षा मिली है कि आगे कैसे लड़ना है, शासकों के दावपेंच को कैसे पराजित करना है, और सबसे बढ़कर इस बात की शिक्षा मिली है कि वास्तविक व अंतिम जीत अभी दूर है लेकिन असंभव और नामुमकिन नहीं है। जब तक पूंजीवादी व्‍यवस्‍था है तब तक इजारेदार पूंजी भी है। इजारेदार पूंजी के बने रहने का अर्थ इजारेदाराना वर्चस्‍व कायम करने के प्रयासों का बना रहना भी है, अन्‍यथा इसके होने का कोई अर्थ नहीं है। इसकी सर्वशक्तिमत्‍ता इस बात में निहित में है कि यह किसी एक कानून के ऊपर निर्भर नहीं है। इसलिए किसी एक कानून पर मिली जीत से इसे रोक पाना असंभव है। इसकी सीधी टक्‍कर जनवाद से है और सुसंगत जनवाद की जीत में ही इसकी मुकम्‍मल हार है। और सबसे बड़ी बात यह हैा कि एकमात्र खुले मोर्चे पर ही इसे मुकम्‍मल तौर पर पराजित किया जा सकता है। इस लड़ाई में जीत का मंत्र संसदीय नहीं हो सकता है क्‍योंकि इजारेदार पूंजी संसद और संसदीय निकायों को अपने वश में कर चुकी है। इसकी जीत का रास्‍ता सड़क की लड़ाइयों में होने वाली जीतों से होकर जाता है जहां जनवाद और जनतंत्र की आत्‍मा बसती है। अगर किसानों व मेहनतकशों ने इस जीत के वास्‍तविक सबक को आत्‍मसात कर लिया तो ”हाल्‍ट” की अवस्‍था में खड़ी इस मानवहंता फासिस्‍ट इजारेदार पूंजी को इसके तमाम अंगों-प्रत्‍यंगों के साथ कब्र में डाला जा सकता है।

इसलिए किसी उपलब्घि के महज गीत गाना उसके महत्‍व को अंदर से खोखला कर देना होगा। उसका महत्‍व उसे गति में, यानी उसे एक ऐसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य में देखने व समझने में है जो इसकी विराटता और सीमा दोनों को उजागर करता हो। इस जीत को ही सर्वेसर्वा यानी किसान आंदोलन का इतिश्री मान लेना गलत होगा। हमें कृषि-कानूनों पर हुई जीत के ऐतिहासिक महत्‍व के साथ-साथ इसकी सीमा पर भी गंभीरता से विचार करना होगा, खासकर कॉर्पोरेट यानी बड़ी पूंजी की सतत बढ़ती इजारेदारी की मौजूदगी के संदर्भ में। अगर घरों की ओर कूच करते व जश्न मनाते किसानों और आंदोलन को स्‍थगित करने वाले नेताओं को भी यह बारंबार यह कहना पड़ रहा है कि उन्‍हें सरकार व राज्‍य पर भरोसा नहीं है, और अगर वे कह रहे हैं या कहने पर विवश हो रहे हैं कि हम फिर से मोर्चा खोलने आयेंगे, तो यह अकारण नहीं है। अगर जीत का जश्‍न मनाते किसानों की नजर में भी आंदोलन अभी खत्‍म नहीं हुआ है, तो इसके कुछ तो गहरे मायने हैं, सिर्फ सैद्धांतिक नहीं अपितु व्‍यवहारिक भी। यह निश्चित ही गौरतलब है कि हमारे सामने एक ऐसी “जीत” है जिसका अहसास करते ही भावी लड़ाई की संभावना का एक महा विस्‍फोट होने लगता है! अगर इस जीत के जश्‍न में भी भावी लड़ाई की संभाव्‍यता और इसके गहरे अहसास की मौजूदगी है, और अगर इन सबके बीच यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि वर्तमान जीत और भावी लड़ाई दोनों में से कौन मुख्‍य पक्ष है और कौन गौण, तो हम आसानी से यह समझ सकते हैं कि इस ऐतिहासिक जीत की सीमा क्‍या है, किस तरह इस जीत की विराटता क्षण भर में तिरोहित हो जाती है और किसानों के जीवन का अंधकार इस महान जीत के म‍हत्‍व को भी एक क्षण में लील लेता है। इसके बाद इसमें संदेह का एक कण भी नहीं बचता है कि भावी किसान आंदोलन के एक बार फिर से फूट पड़ने की प्रबल संभावना क्‍यों और कैसे बनी हुई है, कि कैसे और क्‍यों किसान आंदोलन देश की राजनीतिक सरगर्मियों के केंद्र में आगे भी बना रहेगा, इसकी उर्जा अभी खत्‍म क्‍यों नहीं होने वाली है, और अंतत: मज़दूर वर्ग के क्रांतिकारी हस्तक्षेप की दृष्टि से यह आंदोलन पहले की तुलना में आगे और भी ज्‍यादा भी महत्व की बात क्‍यों बन गया है।

आगामी 15 जनवरी, 2022 को संयुक्‍त किसान मोर्चा की बैठक है। फूट और सरकार की वादाखिलाफी की प्रेतछाया के साये में यह बैठक होगी, यह तय है। लेकिन उम्‍मीद है कि यह बैठक आगे होने वाले महत्‍वपूर्ण घटनाक्रमों को जन्‍म देने वाली साबित हो सकती है। इसमें किसानों की मोर्चे पर फिर से आ डटने की बात सबसे अहम बात है। कुछ नेताओं के विलगाव से और ऊपरी फूटों से ऊपरी हानि के अलावा और कोई हानि नही होती है, अगर किसानों के फिर से मोर्चे पर आ डटने की बात व्‍यवहारिक रूप से ऐतिहासिक किसान आंदोलन की आखिरी बात साबित होती है। हमारा पूरा विश्‍वास है कि किसान आंदोलन का आखिरी अध्‍याय अभी लिखा जाना बाकी है। इसलिये, हम यहां साफ-साफ और अत्‍यंत खुशी के साथ यह कहना चाहते हैं कि सभी को किसानों द्वारा फिर से मोर्चा खोलने के बारे की जा रही घोषणा का स्‍वागत करना चाहिए। हमारी अपील है, इस आंदोलन के आखिरी से आखिरी अध्‍याय के लिखे जाने तक हम किसानों के संघर्ष के साथ डटे रहें। हमारी पार्टी पीआरसी सीपीआई(एमएल) भी लड़ाई के मैदान में फिर से आ डटने की घोषणा करने वाले किसानों का खुली बाहों और उल्लसित मन से स्‍वागत करती है।

क्रांतिकारी अभिवादन के साथ
पीआरसी सीपीआई(एमएल)
आईएफटीयू(सर्वहारा
)

नोट : जो प्रपत्र सम्‍मेलन में पेश किया गया था उसे तैयार करने में काफी दिक्‍कतें आयी थीं। इसका मुख्‍य कारण यह था कि प्रतिदिन इस फ्रंट पर कुछ न कुछ नया घटि‍त हो रहा था और इस कारण हर दिन प्रस्‍तुतीकरण से लेकर फार्मेट में कुछ न कुछ बदलाव करना पड़ा ताकि प्रपत्र को ज्‍यादा से ज्‍यादा अद्यतन बनाया जा सके। इसलिये आज जब हम उसे पलटकर देखते हैं तो उसमें बहुत कुछ जरूरी सुधार अत्‍यंत आवश्‍यक हो गये हैं। लेकिन फिर भी उसके मूल रूप में बिना कोई सुधार किये ही, अर्थात प्रपत्र को मूल रूप से बिना बदले ही (चंद अत्‍यंत मामूली सुधारों, शब्‍दों की बदला-बदली को छोड़कर) यहां प्रकाशित किया जा रहा है। सम्‍मेलन में बिरादराना संगठनों के साथियों के द्वारा दिये चंद जरूरी सुझावों के मद्देनजर भी इसमें कुछ सुधार अपेक्षित थे, लेकिन फिलहाल उसे भी छोड़ दिया गया है। बाद में जो भी सुधार या बदलाव किया जायेगा उसके बारे में हम ”यथार्थ” के पाठको को तथा सम्‍मेलन में सुझाव देने वाले साथियों को भलिभांति सूचित करेंगे और उनसे चर्चा भी करेंगे।