शहीद-ए-आजम भगत सिंह
April 3, 2022“व्यक्तियों को कुचलकर वे विचारों को नहीं मार सकते हैं”
अजय सिन्हा
शहीद-ए-आजम भगत सिहं, सुखदेव और राजगुरू की शहादत की 91वीं वर्षगांठ (23 मार्च 2022) के अवसर पर पूरा देश जहां इन्हें और इनकी विचारधारा को याद कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ अत्यंत जहरीले संप्रदायवाद और दमघोंटू अंधराष्ट्रवाद, यानी कुल मिलाकर फासीवाद के उभार के कारण मंडरा रहे खतरे को लेकर जनवादी और प्रगतिशील जनमानस में चिंता की एक तेज लहर भी दौड़ रही है। जहां देश को मुट्ठी भर बड़े इजारेदार पूंजीपतियों के हाथों बेचा जा रहा है और गरीबी-महंगाई एवं बेरोजगारी ने व्यापक जनता के जीवन को सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पंगु बना दिया है, वहीं साम्प्रदायिक नफरत एवं धार्मिक वैमनस्य ने देश व समाज को पूरी तरह जकड़ रखा है। देश में फासिस्टों की सत्ता मजबूती से कायम हो चुकी है और जनमानस में जरखरीद मीडिया के सहारे घृणा और नफरत का जहर घोलकर ये धड़ाधड़ चुनाव भी जीत रहे हैं जबकि आम जनता का जीवन दिनोंदिन नारकीय बनता जा रहा है।
जाहिर है, फासीवाद के मौजूदा खतरनाक दौर में देश व जनता के भविष्य को लेकर चिंतित लोग भगत सिंह और उनके साथियों की क्रांतिकारी परंपरा को सिर्फ याद ही नहीं कर रहे हैं उसे पुनर्जीवित करने की कोशिश भी कर रहे हैं, हालांकि स्थिति बेकाबू हो बद से बदतर बन चुकी है। अभी ‘द कश्मीर फाइल्स’ के नाम से बनी फिल्म के माध्यम से भाजपा सरकारों की शह पर जिस तरह देश के स्कूली बच्चों तक के दिमाग में जहर घोलने का काम किया जा रहा है और जानबूझ कर झगड़े लगाई जा रही है, उससे देश में एक विस्फोटक स्थिति पैदा हो गई है। कहीं और कभी भी देश में दंगे भड़क सकते हैं। दूसरी तरफ, सरकारी और गैर-सरकारी (फासिस्ट गुंडा गिरोहों की) प्रताड़ना के डर से कोई इस फिल्म की खुलकर आलोचना तक नहीं कर पा रहा है।
यह सच है कि फासीवादी सरकार भगत सिंह के विचारों को भी प्रतिबंधित कर दे सकती है। आज देश के राजनीतिक हालात ऐसे हो चले हैं कि अगर स्वयं भगत सिंह जिंदा होते तो उन्हें भी सरकार की गलत नीतियों के विरुद्ध क्रांतिकारी संघर्ष का बिगुल फूंकने तथा शोषण के विरुद्ध क्रांतिकारी विचारों के प्रचार-प्रसार और उनका पालन करने के जुर्म में यूएपीए के तहत कठोर कारावास की सजा दे दी जाती। आज भारत की जेलों में अधिकतर भगत सिंह के विचारों को मानने वाले लोगों को ही तो कैद किया जा रहा है! यही कारण है कि हमें आज और ज्यादा शिद्दत से भगत सिंह और उनके साथियों की क्रांतिकारी परंपरा व विचारधारा को जीवित रखने के लिए उसे ज्यादा से ज्यादा पढ़ने, समझने, आत्मसात करने एवं उसका प्रचार-प्रसार करने की जरूरत है।
एक विलक्षण धारा जिसे पुनर्जीवित करने की जरूरत है
देश की आजादी के संघर्ष में जो वैचारिक धाराएं मौजूद थीं, उनमें भगत सिंह और उनके साथियों की धारा विशिष्ट प्रकार की एक प्रबलतम क्रांतिकारी धारा थी। इस अर्थ में वे सच्चे आमूलवादी क्रांतिकारी थे। क्रांति और उसके मुख्य ध्येय (समाज को आमूलचूल तरीके से बदलने के ध्येय) के प्रति पूर्णत: समर्पित व्यवहार के दृष्टिकोण से यह एक अनूठी एवं विलक्षण धारा थी। शायद इसीलिए वह धारा अंत-अंत तक सबसे अलग बनी रही। भगत सिंह का यहां विशेष महत्व इस बात में निहित है कि वे इस धारा के राजनीतिक-वैचारिक जनक होने के साथ-साथ इसके नेता और सर्वोत्तम प्रतिनिधि भी हैं। वे अंत में एक युगद्रष्टा की तरह उभरे, लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें हमसे जल्द ही छीन लिया। तब वे महज 23 वर्ष के नौजवान थे। यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि भगत सिंह और उनके साथी मार्क्सवाद और कम्युनिज्म से पूरी तरह प्रभावित होने के बावजूद उस समय की भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) से जुड़ पाने की तो बात दूर उसके नजदीक भी नहीं आ पाए। इसके कारणों पर प्रकाश डालने के लिए समुचित तथ्य भी हमारे पास नहीं हैं।
भगत सिंह – एक सच्चे आइकॉन जिनकी हमें आज सख्त जरूरत है
यह सच है कि आज भी भगत सिंह देश के छात्रों-युवाओं के दिलों पर राज करने वाले एकमात्र सच्चे आइकॉन बने हुए हैं। यही कारण है कि भगत सिंह पर लिखी किताबें बेस्टसेलर हैं और उन पर बनने वाली फिल्में हिट और सुपरहिट होती रही हैं। लेकिन आज उनकी ख्याति युवाओं तक सीमित नहीं है। अपने मार्क्सवादी तथा मजदूर वर्गीय विचारों के कारण वे आज मजदूर-मेहनतकश वर्गों के भी प्रिय नेता बन कर उभरे हैं। मजदूर वर्ग में भी भगत सिंह की परंपरा का जोरशोर से प्रचार एवं प्रसार हुआ है, यह आज की एक बड़ी सच्चाई है। इसलिए बात सिर्फ उनके विचारों की प्रासंगिकता की नहीं, उनकी संपूर्ण धारा की मजदूर वर्ग के बीच बढ़ती लोकप्रियता की भी की जानी चाहिए।
यह जरूरी है कि आज भगत सिंह की क्रांतिकारी परंपरा में देश, देशभक्ति, आजादी एवं विकास जैसे मसलों के वास्तविक मायनों पर बात की जाए और उसके अनुरूप देश को नये सिरे से गढ़ने एवं बनाने की बात की जाए। लेकिन उनके विचारों को संपूर्णता में जाने-समझे बिना यह नहीं हो सकता है। भगत सिंह के हमारे आइकॉन होने का मतलब ही यह है कि हमें उनके विचारों के आधार पर पूरे साहस और निष्ठा से देश में एक विचारधारात्मक संघर्ष चलाना एवं इस संघर्ष को जीतना चाहिए ताकि एक नये देश एवं समाज के निर्माण करने के भगत सिंह के सपने को पूरा कर सकें। इसलिए आज जरूरी है कि भगत सिंह तथा उनके साथियों की विचारधारा एवं परंपरा को लेकर पूरे देश में एक स्वस्थ बहस एवं बातचीत की शुरूआत हो। इसकी फौरी जरूरत को महसूस करने की बात सभी दिशाओं से आ रही है। इसलिए हम अमर शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत की इस 91वीं वर्षगांठ पर खासकर अपने छात्र-युवा एवं मजदूर साथियों से यह अपील करते हैं कि वे देश के मौजूदा हालात से आंख न मूंदें और एक उत्कट उत्साह के साथ एवं उर्जावान तरीके से भगत सिंह के विचारों के आलोक में देश में एक जबर्दस्त विचारधारात्मक संघर्ष तेज करें। शायद यह कहने का समय आ गया है कि असमाधेय अतार्किकताओं के बोझ से दरक चुके सड़े गले वर्तमान को अस्वीकार करके ही अब आगे बढ़ा जा सकता है। जो देश के हालात हैं, उसमें व्यक्तिगत कैरियर की चिंता करना बेकार है। अगर देश को हम बदल नहीं पाए, तो सबों के लिए निरापद कैरियर और सुखमय भविष्य की बात करना कठिन ही नहीं असंभव हो जाएगा।
भगत सिंह के नास्तिक विचारों पर परिवार का प्रभाव
सबसे पहले आज हमें इस बात को समझना जरूरी है कि आखिर क्यों कुटिल शासक वर्ग भगत सिंह को कभी एक सिख और सरदार के रूप में पेश करने की कोशिश करता है, तो उसके अगले दिन भगवा रंग में रंगने की कोशिश करता है। भाजपा और आरएसएस के लोग भगत सिंह के इंकलाब के नारे को जय श्री राम के नारे से प्रतिस्थापित करने की कोशिश करते हैं जबकि भगत सिंह इश्वर और धर्म की राजनीति के दायरे से बिल्कुल बाहर थे। वे जहां इश्वर के अस्तित्व से इनकार करते थे, वहीं धर्म को निजी जीवन तक सीमित रखने और सार्वजनिक जीवन के दायरे से निकाल बाहर करने के पक्षधर थे। इसकी प्रथम सीख उन्हें अपने परिवार से ही मिली जो हर मायने में एक से ज्यादा पीढ़ियों तक उत्कट क्रांतिकारियों का परिवार था। भगत सिंह के दादा श्री अर्जुन सिंह नए विचारों को अपनाने वाले बहुत ही हिम्मती एवं प्रगतिशील ख्यालात के व्यक्ति थे। उन्होंने सिख धर्म को छोड़ आर्य समाज को अपनाया था, जो उस समय के लिहाज से खुद में एक क्रांतिकारी कदम था। यह उनके जनवादी आचरण का ही प्रमाण है कि वे खुद आर्य समाजी हो गए लेकिन उन्होंने अपनी पत्नी पर कभी भी सिख धर्म छोड़ने का दबाव नहीं डाला। ऐसे प्रगतिशील विचारों वाले दादा का प्रभाव कुशाग्र बुद्धि वाले उनके पोते भगत सिंह पर पड़ना लाजिमी था।
उनके दो चाचा अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह ने स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी की थी। जहां अजीत सिंह को अंग्रेजों ने देश निकाला दे दिया था, वहीं स्वर्ण सिंह को अंग्रेजों के खिलाफ काम करने के जुर्म में भयंकर यात्नाएं दी गईं जिसकी वजह से बहुत कम उम्र में ही उनकी मृत्यु हो गई थी। फिर भी अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह की पत्नियों ने तमाम कष्ट सहते हुए स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान जारी रखा। ऐसे क्रांतिकारी पारिवारिक परिवेश में भगत सिंह का बचपन बीता और उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम सोपान प्राप्त किए। इसलिए जो लोग भगत सिंह को एक कौम और क्षेत्र विशेष से जोड़कर देखते हैं उन्हें उनके परिवार और विचार दोनों को एक बार फिर से पढ़ने और उन पर विचार करने की जरूरत है।
क्रांति के बारे में दार्शनिक गहराई
हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के घोषणापत्र में दर्ज ‘क्रांति क्या है’ इस पर 22 वर्षीय भगत सिंह के विचारों की दार्शनिक गहराई को देखकर कोई भी हैरान रह जाएगा। वे लिखते हैं – “मानवीय स्वभाव भ्रमपूर्ण और यथास्थितिवादी होने के कारण क्रांति से एक प्रकार का भय प्रकट करता है। सामाजिक परिवर्तन सदा ही ताकत और विशेष सुविधाएं मांगने वालों के लिए भय पैदा करता है। क्रांति एक ऐसा करिश्मा है जिससे प्रकृति स्नेह करती है और जिसके बिना कोई प्रगति नहीं हो सकती है – न प्रकृति में, न इंसानी कारोबार में। क्रांति निश्चय ही बिना सोची-समझी हत्याओं और आगजनी का दरिंदा मुहिम नहीं है और न ही यहां-वहां चंद बम पटकना और गोलियां चलाना है, और न ही यह सभ्यता के सारे निशान मिटाना तथा समयोचित न्याय और समता के सिद्धांत को खत्म करना है। क्रांति कोई मायूसी से पैदा हुआ दर्शन भी नहीं है और न ही सरफरोशों का कोई सिद्धांत है। क्रांति ईश्वर विरोधी हो सकती है, लेकिन मनुष्य विरोधी नहीं। यह एक पुख्ता और जिंदा ताकत है। नये और पुराने के, जीवन और मौत के, रोशनी और अंधेरे के आंतरिक द्वंद्व का प्रदर्शन है, कोई संयोग नहीं। न कोई संगीतमय एकरसता है और न ही कोई ताल है, जो क्रांति के बिना आई है। ‘गोलियों का राग’, जिसके बारे में कवि गाते हैं, सच्चाई रहित हो जाएगा अगर क्रांति को समूची सृष्टि से खत्म कर दिया जाये। क्रांति एक नियम है, क्रांति एक आदेश है और क्रांति एक सत्य है।”
आलोचनात्मक दृष्टि के बारे में भगत सिंह के विचार
भगत सिंह ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ में कहते हैं कि ”आलोचना और स्वतंत्र विचार दोनों एक क्रांतिकारी के अनिवार्य गुण हैं। क्योंकि हमारे पूर्वजों ने किसी परम आत्मा के प्रति विश्वास बना लिया था, अतः कोई भी व्यक्ति जो उस विश्वास की सत्यता या उस परम आत्मा के अस्तित्व को चुनौती देगा, उसको विधर्मी, विश्वासघाती कहा जाएगा।”
इसी लेख से लिए गये इस पैराग्राफ पर अत्यधिक गौर करने की जरूरत है- “सिर्फ विश्वास और अंधविश्वास खतरनाक है। यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य अपने को यथार्थवादी होने का दावा करता है, उसे समस्त प्राचीन रूढ़ीग्रस्त विश्वासों को चुनौती देनी होगी। प्रचलित मतों को तर्क की कसौटी पर कसना होगा। यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके, तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेगा। तब नये दर्शन की स्थापना के लिए उनको पूरा धराशायी करके जगह साफ करना और पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग करके पुनर्निर्माण करना चाहिए। मैं प्राचीन के ठोसपन पर प्रश्न करने के सबंध में आश्वस्त हूं। मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन परम आत्मा का, जो प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करता है, कोई अस्तित्व नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हुए और समस्त प्रगतिशील आंदोलन का ध्येय मनुष्य द्वारा अपनी सेवा के लिये प्रकृति पर विजय प्राप्त करना मानते हैं। इसको दिशा देने के पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा दर्शन है।”
भगत सिंह की क्रांति के बारे में विचार : एक विहंगम दृष्टि
जब भगत सिंह से पूछा गया कि क्रांति से उनका क्या मतलब है तो उन्होंने कहा था- “क्रांति से हमारा
अभिप्राय है अन्याय पर आधारित समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन।” भगत सिंह और उनके साथियों की समझ इस बाबत पूरी तरह स्पष्ट थी कि उनका उद्देश्य केवल अंग्रेजों को भगाना नहीं, अपितु देश एवं समाज में एक आमूलचूल परिवर्तन लाना और एक नए समाज का निर्माण करना है। नई समाज व्यवस्था कैसी होगी इस पर भी उनके विचार स्पष्ट और साफ थे। इसकी प्रथम झलक कलकत्ते से प्रकाशित ‘मतवाला’ अखबार में छपे उनके इन विचारों में मिलती है। उन्होंने 1924 में लिखा था – “वसुधैव कुटुम्बकम! जिस कवि सम्राट की अमूल्य कल्पना है, जिस विश्व प्रेम के अनुभवी का यह हृदयोदगार है, उसकी महत्ता का वर्णन करना मनुष्य की शक्ति से सर्वथा बाहर है। विश्वबंधुता! इसका अर्थ मैं तो समस्त संसार में समानता (साम्यवाद या कम्युनिज्म) अर्थात सच्चे अर्थों में वैश्विक समानता के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझता।”
युद्ध छिड़ा हुआ है …
फांसी से तीन दिन पहले भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने (फांसी के बजाए गोली से उड़ा दिए जाने की मांग करते हुए) पंजाब के गवर्नर को लिखे अपने पत्र में कहा था – ”…हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है- चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूंजीपति और अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों। उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूंजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अंतर नही पड़ता।”
वे आगे लिखते हैं – ”…निकट भविष्य में अन्तिम युद्ध लड़ा जाएगा और यह युद्ध निर्णायक होगा। साम्राज्यवाद व पूंजीवाद कुछ दिनों के मेहमान हैं। यही वह लड़ाई है जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया है और हम अपने पर गर्व करते हैं कि इस युद्ध को न तो हमने प्रारम्भ ही किया है और न यह हमारे जीवन के साथ समाप्त ही होगा।” (20 मार्च 1931)
शोषक काले हों या गोरे, कोई फर्क नहीं
वे आगे यह लिखते हैं – “भारत सरकार का प्रमुख लार्ड रीडिंग की जगह यदि सर पुरुषोत्तम दास या ठाकुर दास हों तो उन्हें (जनता को) इससे क्या फर्क पड़ता है? एक किसान को इससे क्या फर्क पड़ेगा, यदि लार्ड इरविन की जगह सर तेज बहादुर सप्रू आ जाएं। राष्ट्रीय भावनाओं की अपील बिल्कुल बेकार हैं। उसे आप अपने काम के लिए ‘इस्तेमाल’ नहीं कर सकते। आपको गम्भीरता से काम लेना होगा और उन्हें समझाना होगा कि क्रांति उनके हित में है और उनकी अपनी है। सर्वहारा श्रमिक वर्ग की क्रांति, सर्वहारा के लिए। …. जब यह वर्तमान आन्दोलन खत्म होगा तो आप अनेक ईमानदार व गंभीर क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं को निराश व उचाट पायेंगे। लेकिन आपको घबराने की जरूरत नहीं है। भावुकता एक ओर रखो। वास्तविकता का सामना करने के लिए तैयार हो। क्रांति करना बहुत कठिन काम है। यह किसी एक आदमी की ताकत के वश की बात नहीं है और न ही यह किसी निश्चित तारीख को आ सकती है। यह तो विशेष सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से पैदा होती है और एक संगठित पार्टी को ऐसे अवसर को संभालना होता है और जनता को इसके लिए तैयार करना होता है। क्रांति के दुस्साध्य कार्य के लिए सभी शक्तियों को संगठित करना होता है। इस सबके लिए क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं को अनेक कुर्बानियां देनी होती हैं। यहां मैं यह स्पष्ट कह दूं कि यदि आप व्यापारी हैं या सुस्थिर दुनियादार या पारिवारिक व्यक्ति हैं तो महाशय! इस आग से न खेलें। एक नेता के रूप में आप पार्टी के किसी काम के नहीं हैं। पहले ही हमारे पास ऐसे बहुत से नेता हैं जो शाम के समय भाषण देने के लिए कुछ वक्त जरूर निकाल लेते हैं। ये नेता हमारे किसी काम के नहीं हैं। हम तो लेनिन के अत्यन्त प्रिय शब्द ‘पेशेवर क्रांतिकारी’ का प्रयोग करेंगे। पूरा समय देने वाले कार्यकर्ता, क्रांति के सिवाय जीवन में जिनकी और कोई ख्वाहिश ही न हो। जितने अधिक ऐसे कार्यकर्ता पार्टी में संगठित होंगे, उतने ही सफलता के अवसर अधिक होंगे।” (फरवरी 1931)
इंकलाब का अर्थ
भगत सिंह इंकलाब का अर्थ बताते हैं – “पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है .. हमारे इंकलाब का अर्थ पूंजीवादी युद्ध की मुसीबत का अंत करना है।’’
भगत सिंह लिखते हैं -”अब मैं बिल्कुल सादे ढंग से यह केस बताता हूं। आप ‘इंकलाब-जिंदाबाद’ का नारा लगाते हो। मैं यह मानकर चलता हूं कि आप इसका मतलब समझते हो। असेम्बली बम केस में दी गयी हमारी परिभाषा के अनुसार इंकलाब का अर्थ मौजूदा सामाजिक ढांचे में पूर्ण परिवर्तन और समाजवाद की स्थापना है। इस लक्ष्य के लिए हमारा पहला कदम ताकत हासिल करना है। वास्तव में ‘राज्य’, यानी सरकारी मशीनरी, शासक वर्ग के हाथों में अपने हितों की रक्षा करने और उन्हें आगे बढ़ाने का यंत्र ही है। हम इस यंत्र को छीनकर अपने आदर्शों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। हमारा आदर्श है — नये ढंग से सामाजिक संरचना, यानी मार्क्सवादी ढंग से।..”(फरवरी 1931)
विद्यार्थियों के नाम पत्र में (अक्टूबर 1929) वे कहते हैं – “नौजवानों को क्रांति का यह सन्देश देश के कोने-कोने में पहुंचाना है, फैक्टरी कारखानों के क्षेत्रों में, गंदी बस्तियों और गांवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है, जिससे आजादी आएगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जाएगा।”
भगत सिंह की देशभक्ति
यहां यह साफ हो जाना चाहिए कि भगत सिंह अंग्रेजों से मुक्ति की लड़ाई को भारतीय पूंजीपति वर्ग से मुक्ति की बात से जोड़कर देखते थे। भगत सिंह और उनके साथियों की देशभक्ति में पूंजीपति वर्ग और पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति भक्ति की बात कहीं नहीं शामिल थी। भगत सिंह पूंजीपतियों, जो देश की बहुसंख्या के शोषक हैं, की अधीनता से मुक्ति और समाजवाद, जिसमें किसी का और किसी तरह का शोषण नहीं होगा, के निर्माण के सिद्धांत में अपनी देशभक्ति को देखते और परखते थे।
आज देश में पूंजीवादी लुटेरी व्यवस्था कायम है, तो भगत सिंह के अनुसार हमारी सच्ची देशभक्ति इस बात में निहित है कि हम समाज को पूंजी के जुए से मुक्ति दिलाने की लड़ाई लड़ें, न कि पूंजीपतियों की चाटुकारिता करें। भगत सिंह जिंदा होते तो वे निश्चय ही यही लड़ाई रह रहे होते, भले ही भारत की सरकार अंग्रेजों की तरह व्यवहार करते हुए उन्हें जेल में डाल देती या फांसी पर लटका देती। इसी स्थिति से प्रेरित होकर ही हिंदी फिल्मों के मशहूर गीतकार शैलेंद्र ने यह व्यंग मिश्रित गीत लिखा था- “भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की, देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की।”
अभिव्यक्ति की आजादी और भगत सिंह
भगत सिंह ने कोर्ट में दिये अपने बयान में कहा था- “जो हुकूमत व्यक्ति के कुदरती अधिकार छीनती है, उसे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं। अगर यह कायम है, तो आरजी तौर पर और हजारों बेगुनाहों का खून इसकी गर्दन पर है।” यहां हम बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति भगत सिंह का नजरिया देख सकते हैं। वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने वाले कानूनों के विरुद्ध थे। वे कहते हैं – ”लिहाजा, ऐसे कानून को, जो युक्ति (दलील) पर आधारित नहीं हैं और न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध हैं, समाप्त कर देना चाहिए। ऐसे ही न्याय विरोधी कानूनों के कारण बड़े-बड़े बौद्धिक लोगों ने बगावत की है।” अपने केस की पैरवी करते हुए भगत सिंह कोर्ट में जज से कहते हैं – ”संभव है कि हम गलती पर हों, हमारा सोचने का ढंग जज महोदय के सोचने के ढंग से भिन्न हो, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हमें अपने विचार प्रकट करने की स्वीकृति न दी जाए।”
धर्म और दलित उत्पीड़न पर भगत सिंह के विचार
भगत सिंह धर्म के आधार पर होने वाली मारकाट के बिल्कुल खिलाफ थे। वे लिखते हैं – “भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यह मारकाट इसलिए नहीं की गयी कि फलां आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलां आदमी हिंदू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिंदू होना मुसलमान द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिंदुस्तान का इश्वर ही मालिक है।”
भगत सिंह इससे लड़ने के तरीके के बारे में भी बात करते हैं – “लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकश व किसान को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं। इसीलिए तुम्हें इनके हथकंडे से बचकर रहना चाहिए और इनके हाथों चढ़ कुछ नहीं करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग या धर्म के हों, अधिकार एक ही है। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों में लेने का यत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान नहीं होगा, इससे तुम्हारी जंजीरें कट जाएंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी।”
हम यहां देख सकते हैं कि भगत सिंह की देशभक्ति राष्ट्र की सीमाओं से परे जाती है और तमाम मेहनतकशों व गरीबों के अंतर्राष्ट्रीय भाइचारे से जा मिलती है। आगे इसी लेख में वे समाजवादी रूस में कभी दंगे न होने की बात कहते हैं, क्योंकि उनके अनुसार वहां लोगों के बीच झगड़ा कराने वाला पूंजीपति वर्ग नहीं था और इसलिए पूंजीपतियों के वैसे हथकंडे भी नहीं अपनाए जाते थे जिनसे धार्मिक व जातीय झगड़े लगवाये जाते हैं।
भगत सिंह धर्म को राजनीति से पूरी तरह अलग करने की बात करते थे। उन्होंने इसी लेख में लिखा है – “यदि धर्म को (राजनीति से) अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते है, धर्म में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।”
भगत सिंह ने सांप्रदायिकता के सवाल पर उन अखबारों की, जो सांप्रदायिक हिंसा और विद्वेष फैलाने का काम कर रहे थे, निंदा करते हुए लिखा है– “पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था आज बहुत ही गंदा हो गया है। ये लोग एक दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाओं को भड़काते हैं और परस्पर सिर-फुटौव्वल करवाते हैं। एक ही नहीं कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं क्योंकि स्थानीय अखबारों ने उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे।”
दलित उत्पीड़न पर भी उनकी कलम खुलकर चली। उन्होंने केवल साम्राज्यवाद या अंग्रेजी शासन और पूंजीवाद के खिलाफ लड़ने की बात नहीं की, अपतिु भारतीय समाज की पुरानी कुरीतियों को दूर करने की जरूरत की ओर भी ध्यान देना जरूरी समझा। 1928 में लिखे एक लेख में उन्होंने लिखा – “क्या खूब चाल है! सबको प्यार करने वाले भगवान की पूजा करने के लिए मंदिर बना है लेकिन वहां अछूत जा घुसे तो वह अपवित्र हो जाता है! भगवान रूष्ट हो जाता है! घर की जब यह स्थिति हो तो बाहर हम बराबरी के नाम पर झगड़ते अच्छे लगते हैं? तब हमारे इस रवैये में कृतघ्नता की भी हद पाई जाती है। जो निम्नतम काम कर हमारे लिए सुविधा उपलब्ध कराते हैं उन्हें ही हम दुत्कारते हैं! पशुओं की हम पूजा कर सकते हैं, लेकिन इंसान को पास नहीं बैठा सकते!”
इसी लेख में दलितों का आह्वान करते हुए उन्होंने लिखा – “हम तो साफ कहते हैं कि उठो! अछूत कहलाने वाले असली जन सेवकों तथा भाइयों, उठो। अपना इतिहास देखो। गुरु गोबिंद सिंह की फौज की असली शक्ति तुम्ही थे। शिवाजी तुम्हारे भरोसे ही सब कुछ कर सके, जिस कारण उनका नाम आज भी जिंदा है, तुम्हारी कुर्बानियां स्वर्ण अक्षरों में लिखी है।”
आगे वे लिखते हैं कि “संगठनबद्ध हो जाओ। असल में स्वयं कोशिश किए बिना स्वतंत्रता नहीं मिल पाएगी। स्वतंत्रता के लिए स्वाधीनता चाहने वालों को प्रयत्न करना चाहिए। … संगठनबद्ध हो जाओ, तुम्हारी कुछ भी हानि नहीं होगी। बस गुलामी की जंजीरें कट जाएंगी।”
छात्रों के राजनीति करने के बारे में भगत सिंह के विचार
छात्रों को राजनीति करनी चाहिए या नहीं, इसके बारे में वे कहते हैं -– ”इस बात का बड़ा भारी शोर सुना जा रहा है कि पढ़ने वाले नौजवान (विद्यार्थी) राजनीतिक या पॉलिटिकल कामों में हिस्सा न लें। … जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज अक्ल के अंधे बनाने की कोशिश की जा रही है। इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें खुद ही समझ लेना चाहिए। ..यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों को मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए, लेकिन क्या देश की परिस्थिति का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं जो सिर्फ क्लर्क पैदा करने लिए ही हासिल की जाये। .. क्या इंग्लैंड के सभी विद्यार्थी का कालेज छोड़कर जर्मनी के खिलाफ लड़ने के लिए निकल पड़ना पोलिटिक्स नहीं थी? तब हमारे उपदेशक कहां थे जो उनसे कहते – जाओ, जाकर शिक्षा हासिल करो। सभी देशों को आजाद करवाने वाले वहां के विद्यार्थी और नौजवान ही हुआ करते हैं। वे यह भी समझते हैं कि उन्हें क्रांति की जरूरत है। … वे पढ़ें। जरूर पढ़े! साथ ही पॉलिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करें और जब जरूरत हो तो मैदान में कूद पड़ें और अपने जीवन को इसी काम में लगा दें।”
हम देख सकते हैं अमर शहीद भगत सिंह के विचारों में कितनी गहराई थी और उनका व्यक्तित्व किस तरह के प्रगतिशील आदर्शों से ओतप्रोत था।
तृतीय इंटरनेशनल के बारे मे उनके विचार
वे कम्युनिज्म तथा रूस की अक्टूबर समाजवादी क्रांति के प्रबल समर्थक थे। वे लेनिन और तृतीय कम्युनिस्ट इंटरनेशनल को बखूबी जानते और समझते थे तथा उनके अध्ययन से प्राप्त हुई प्रेरणा के आधार पर ही उन्होंने भारत में समाजवादी क्रांति के कार्यक्रम का मसविदा तैयार किया था। अगर वे जिंदा रहते तो उस पर अमल भी करते।
जेल डायरी में इस बात की चर्चा है कि भगत सिंह किस तरह के संगठन बनाने की बात सोच रहे थे। डायरी में संगठन बनाने की बात की जगह साफ लिखा हुआ है- ‘कम्युनिस्ट पार्टी’। भगत सिंह के जीवन से जुड़े दस्तावेजों से यह सब बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। लेनिन मृत्यु वार्षिकी पर भगत सिंह द्वारा भेजे तार संदेश की कहानी इन सारी बातों की पुष्टि करती है। दस्तावेजों में यह इस रूप में दर्ज है- ”21 जनवरी 1930 को लाहौर षड्यंत्र केस के सभी अभियुक्त अदालत में लाल रूमाल बांध कर उपस्थित हुए। जैसे ही मजिस्ट्रेट ने अपना आसन ग्रहण किया उन्होंने “समाजवादी क्रांति जिंदाबाद”, ”कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जिंदाबाद”, ”जनता जिंदाबाद”, “लेनिन का नाम अमर रहेगा”, और “साम्राज्यवाद का नाश हो” के नारे लगाये। इसके बाद भगत सिंह ने अदालत में तार का मजमून पढ़ा और मजिस्ट्रेट से इसे तीसरे इंटरनेशनल को भिजवाने का आग्रह किया।” तार का मजमून इस प्रकार था– “लेनिन दिवस के अवसर पर हम उन सभी को हार्दिक अभिवादन भेजते हैं जो महान लेनिन के आदर्शों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ भी कर रहे हैं। हम रूस द्वारा किये जा रहे महान प्रयोगों की सफलता की कामना करते हैं। सर्वहारा विजयी होगा। पूंजीवाद पराजित होगा। साम्राज्यवाद की मौत हो।”
यहां सिर्फ यह बात स्पष्ट नहीं हो रही है कि भगत सिंह लेनिन और कम्युनिज्म से कितना प्यार करते थे, वे लेनिनवादी (तृतीय) कम्युनिस्ट इंटरनेशनल, जिसका उस समय नेतृत्व स्तालिन कर रहे थे, के भी समर्थक थे और उससे प्यार करते थे। वे लेनिन के आदर्शों पर चलते हुए स्तालिन द्वारा उन दिनों समाजवादी निर्माण के लिए किये जा रहे तमाम प्रयोगों व कदमों का भी समर्थन करते हैं जैसा कि ऊपर के उद्धरण से स्पष्ट होता है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भगत सिंह उन दिनों रूस में बोल्शेविक पार्टी के अंदर और बाहर चल रहे विवादों में स्तालिन के पक्ष में खड़े थे ।
मजदूर वर्ग और उसके शोषण के बारे में नजरिया
मजदूर वर्ग और उसके शोषण के बारे में उनका नजरिया यह था – “समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन पूंजीपति हड़प जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मोहताज हैं। दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया करने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढंकने के लिए भी कपड़ा नहीं पा रहा। सुंदर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गंदे बाड़ों में रहकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते हैं। इसके विपरीत समाज के जोंक शोषक पूंजीपति जरा-जरा सी बात के लिए लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं।”
अंत में …
आजादी, समानता, न्याय, श्रम की गरिमा – ऐसी सभी चीजों का हनन आज शासक वर्ग के द्वारा नृशंसता के साथ किया जा रहा है। पूंजीवादी व्यवस्था उस चरम स्थिति को प्राप्त हो चुकी है जहां पहुंचकर वह इजारेदार वित्तीय पूंजी की चरम लुटेरी व्यवस्था मे बदल चुकी है। वह पूरी तरह पश्चगमनकारी विचारों की उर्वर भूमि एवं तमाम तरह की प्रतिक्रियावादी विचारों की विचरण भूमि में तब्दील हो चुकी है। मुनाफे के लिए वह नाभिकीय युद्ध शुरू कर सकती है जैसा कि यूक्रेन-रूस युद्ध में होने की संभावना पैदा हो गई है। वह चुटकी में पूरे विश्व को बर्बाद कर सकती है। मुनाफे के अलावा इसे कुछ और नहीं दिखाई देता है। ऐसे में पूंजीवाद के विरुद्ध अंत तक युद्ध चलाने के भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता और भी अधिक बढ़ जाती है। भगत सिंह पूंजीवाद को जनता की त्रासदी की जड़, उसका मुख्य कारण मानते थे। साम्राज्यवाद आज और भी खूंखार हो महाविनाश की ओर बढ़ चला है। साम्राज्यवाद का अर्थ युद्ध और तबाही होता है, लेनिन का यह कथन हर दिन सच हो रहा है। पूंजीवादी-साम्राज्यवादी युद्धों के फलस्वरूप तृतीय युद्ध और फिर पूरे विश्व की बर्बादी की संभावना से इनकार करना आज मुश्किल हो चला है। अगर पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का अंत नहीं हुआ तो मानवजाति का समूल विनाश संभव है। पूरी दुनिया उसकी संभावना के बीच सांस ले रही है।
यह भी दिन के उजाले की तरह ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट होता जा रहा है कि चाहे युद्ध का काल हो या शांति काल, पूंजीवादी व्यवस्था ने सारे वैभव और ऐश्वर्य के साधनों के मौजूद रहने के बावजूद विश्व को शांति और सुख से वंचित कर रखा है और व्यापक जनता को अंतहीन बर्बादी, भुखमरी, कंगाली और दुःख के सिवा कुछ और देने की स्थिति में नहीं है। हम देख रहे हैं कि कैसे पूंजीवाद-साम्राज्यवाद मानवजाति के लिए अभिशाप बन चुका है।
ऐसी विकट परिस्थिति में हम सब के पास अमर शहीद भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों के रूप में इस मानवद्रोही व्यवस्था के विरुद्ध लड़ने के लिए जबर्दस्त आयुद्ध भंडार मौजूद है। जरूरत है इस भंडार को खोलने और इसमें बिखरे पड़े वैचारिक हथियारों को एकत्रित करने, एवं वर्तमान समय व संदर्भ में पूंजी के विरुद्ध संघर्ष में उनका द्वंद्वात्मक तरीके से उपयोग करने की। अगर हम ऐसा कर सकते हैं तो यही भगत सिंह और उनके साथियों सहित भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के सभी नामी और गुमनाम योद्धाओं को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।