105 मजदूरों की छटनी के खिलाफ चला हुंडई मोबिस (धारूहेड़ा) मजदूर संघर्ष के परिणाम और सबक
May 9, 2022एस राज
धारूहेड़ा (जिला रेवाड़ी, हरियाणा) स्थित हुंडई मोबिस वेयरहाउस के सभी 105 मजदूरों की 28 फरवरी 2022 को गैरकानूनी छंटनी कर दी गई जिसके खिलाफ उसी दिन से मजदूरों ने गेट के बाहर धरना शुरू किया था जो 20 अप्रैल तक चला, और जिसके अंत में मजदूरों को हिसाब के रूप में कुछ राशि ही मिल पाई। [यथार्थ के मार्च 2022 अंक (वर्ष 2, अंक 11) में हुंडई मोबिस संघर्ष पर एक विश्लेषणात्मक रिपोर्ट प्रकाशित हो चुकी है, जो 24 मार्च 2022 तक के घटनाक्रमों पर आधारित है। संघर्ष की पृष्ठभूमि तथा धारूहेड़ा में मजदूर आंदोलन की अवस्थिति जानने हेतु उस लेख को इस लिंक के जरिए ऑनलाइन पढ़ा जा सकता है – http://yatharthmag.com/2022/04/04/hyundai-mobis-dharuheda/ ]
संक्षिप्त पृष्ठभूमि
‘हुंडई मोबिस इंडिया लिमिटेड’ हरियाणा के रेवाड़ी जिला में धारूहेड़ा स्थित हुंडई और किआ कंपनियों के ऑटो पार्ट्स व एक्सेसरीज का एक वेयरहाउस है। यह हुडा औद्योगिक क्षेत्र में प्लाट न। 31 पर 2010 से स्थित है, जिसके पहले यह रामपुरा और दिल्ली में था। वेयरहाउस में कुल 105 मजदूर (सभी पुरुष) थे। गौरतलब है कि मजदूरों ने 6 से लेकर 22 सालों तक इसी कंपनी में काम किया था लेकिन फिर भी कंपनी में एक भी परमानेंट/स्थाई मजदूर नहीं था। हालांकि अन्य कंपनियों के कैजुअल मजदूरों के मुकाबले इनका वेतन अपेक्षाकृत अधिक था – 20 हजार से लेकर 35 हजार प्रतिमाह तक।
28 फरवरी 2022 को कंपनी में कार्यरत सभी मजदूरों की अचानक, ठेकेदार के साथ कंपनी का कॉन्ट्रैक्ट समाप्त हो जाने के नाम पर, गेटबंदी कर दी गई। यह कदम पूर्ण रूप से गैरकानूनी था क्योंकि प्रबंधन/ठेकेदार ने मजदूरों को कोई पूर्व सूचना नहीं दी थी तथा मजदूरों की ओर से एक डिमांड नोटिस भी सिविल कोर्ट में लंबित था जिसके दौरान प्रबंधन मजदूरों को निकाल नहीं सकता है। 26 फरवरी (शनिवार) तक सामान्य रूप से काम समाप्त कर रविवार की छुट्टी के बाद जब मजदूर 28 फरवरी को कंपनी गेट पर पहुंचे तो उन्हें अंदर घुसने से मना कर दिया गया। नोटिस देख आक्रोशित मजदूरों ने अपने बीवी-बच्चों-परिवार सहित गेट जाम कर दिया। पुलिस द्वारा बेरहमी से उन्हें वहां से हटाया गया जिसमें महिलाओं के साथ भी बदसलूकी की गई, हालांकि इसके बावजूद मजदूरों ने दुबारा गेट जाम किया। लेकिन इस बार वहां मौजूद AITUC के स्थानीय नेता ने ही गेट जाम करने को गलत बताते हुए उन्हें वहां से हटने को कह दिया, जिसके बाद मजदूर कंपनी गेट से 50-100 मीटर दूर बैठ गए और अपना धरना शुरू किया। जल्द ही 50 से अधिक लाल झंडे और 5 बैनर भी धरनास्थल के इर्द-गिर्द लगा दिए गए, और धरनास्थल पर नियमित रूप से नारेबाजी होने लगी।
बर्खास्त मजदूरों ने अपने कार्यकाल में कोई यूनियन नहीं बनाई। हालांकि प्रबंधन की मजदूर-विरोधी कार्रवाइयों, खास कर मनमाने ढंग से मजदूरों को बैठाने (दंड के तौर पर अवैतनिक अवकाश), के खिलाफ वे 2016 से ही लगातार एकजुट कार्रवाइयों (यहां तक कि हड़ताल) को अंजाम देते रहे जिसके कारण 2016 से एक भी मजदूर को प्रबंधन अवैध रूप से बैठा नहीं पाया था। किसी के भी परिवार में कोई स्वास्थ्य संबंधित या अन्य आपातकालीन स्थिति होने पर मजदूरों ने आपसी सहयोग से हजारों रुपये अनेकों बार जुटाए हैं। प्रबंधन द्वारा मजदूरों को निकाले जाने का एक प्रमुख कारण इनकी मजबूत आपसी एकता ही थी। अंत तक भी भिन्न धर्मों, जातियों, व क्षेत्रों से होने के बावजूद मजदूरों के बीच मजबूत आपसी भाईचारा कायम रहा। गौरतलब है कि इनकी जगह रखे गए नए मजदूरों को प्रबंधन ने 3-4 महीने के फिक्स्ड-टर्म (FTE) पर रखा है, जो कि गैर-कानूनी है (हालांकि नई श्रम संहिताओं के लागू होते ही इसे अनुमति मिल जाएगी)।
मजदूर संगठनों से तालमेल और नेतृत्व की कमजोरियां
हस्तक्षेप कर रहे मजदूर संगठनों (इफ्टू-सर्वहारा, ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन, इंकलाबी मजदूर केंद्र – जिसमें इफ्टूस अंत तक उपस्थित रहा) की पहल से 8 मार्च से संपूर्ण औद्योगिक क्षेत्र व नेशनल हाईवे पर 5-6 किमी लंबे जुलूस प्रदर्शन भी हुए। करीब 25 दिनों तक ऐसे जुलूस लगभग प्रतिदिन हुए। संघर्ष में अगुआ मजदूरों की 9-सदस्यीय कमेटी बनाई गई। हालांकि इसके चयन की प्रक्रिया पूरी तरह से जनवादी नहीं थी क्योंकि प्रक्रिया में केवल A-ग्रेड मजदूरों (करीब 18-20 की संख्या में) को ही शामिल किया गया। प्रधान और महासचिव के चुनाव का आधार भी अघोषित तौर पर यह था कि कौन अधिक संपत्तिवान, पढ़ा-लिखा है तथा स्थानीय/लोकल है। इसके तहत जिन्हें इन 2 पदों पर चुना गया वह कंपनी में सबसे नए मजदूरों में से थे।
असिस्टेंट लेबर कमिश्नर, रेवाड़ी (ALC) के समक्ष मजदूरों, प्रबंधन व ठेकेदार की त्रिपक्षीय समझौता वार्ता भी चली और दर्जन भर सुनवाइयां भी हुई। कमेटी ने जो वकील रखा था वह AITUC से निष्कासित है, घोर समझौतापरस्ती व दलाली के साथ जिसका एक मजदूर संघर्ष में मजदूरों से पैसे लेकर प्रबंधन की और से सुनवाई में पेश हो जाने तक का भी इतिहास है। मौजूद मजदूर संगठनों ने मजदूरों को इसके बारे में लगातार चेताया लेकिन कमेटी प्रधान का उस वकील से व्यक्तिगत पहचान होने और कमेटी का संगठनों से ज्यादा प्रधान पर भरोसा होने के कारण इन बातों को अनसुना कर दिया गया। जैसा की अपेक्षित था, इस प्रक्रिया से प्रशासन, प्रबंधन व वकील तीनों के द्वारा मजदूरों को भरमाने व भटकाने का ही काम किया गया। प्रबंधन लगातार प्रक्रिया को लंबा खींचने के तरीके अपनाता रहा और ALC का रवैया लगातार प्रबंधन-पक्षीय बना रहा। वकील का लक्ष्य भी साफ था – मामले को संघर्ष के रास्ते से हटा कर समझौता के रास्ते पर लाना और मजदूरों को मिलने वाले हिसाब से अपना कट लेकर निकल जाना। हर बार निराशा हाथ लगने तथा मजदूर संगठनों द्वारा लगातार चेताए जाने के बावजूद कमेटी का इस प्रक्रिया पर भरोसा लगभग अंत तक बना रहा।
8 मार्च यानी संघर्ष के शुरुआती दिनों में ही मजदूर संगठनों द्वारा कमेटी के साथ बैठक में यह सुझाव दिया गया कि ALC सुनवाइयों में दबाव बनाने के लिए सभी मजदूर तारीखों पर लघु सचिवालय पहुंचे। कमेटी ने (वकील के कहने पर) इस सुझाव को अस्वीकार कर दिया। इसके अतिरिक्त वकील के ही कहने पर संगठन के साथियों को शुरुआत में सुनवाइयों में उपस्थित रहने व बाद में (जब चर्चा कर उपस्थिति पर सहमती बनी तो) सुनवाइयों में बात रखने के लिए कमेटी ने ही मना कर रखा था। मजदूर संगठनों के सुझाव पर औद्योगिक व रिहायशी क्षेत्रों में पर्चा वितरण का भी निर्णय हुआ। लेकिन संगठनों द्वारा संयुक्त रूप से तैयार किए गए पर्चे के मसौदे को कमेटी ने “सरकार के खिलाफ भी हमलावर होने” के कारण खारिज कर दिया तथा उसके साथ पर्चा वितरण की योजना भी खारिज कर दी थी।
संगठनों द्वारा यह भी सुझाव दिया गया कि कमेटी आम मजदूरों के साथ और अधिक पारदर्शिता रखे तथा आगे के रास्ते पर आम बैठकें बुला कर संयुक्त निर्णय ले, जिसपर कमेटी ने कहा कि उचित पारदर्शिता रखी जा रही है। हालांकि कई दिनों तक आम मजदूरों को निर्णयन प्रक्रिया में शामिल नहीं किए जाने पर इफ्टू (सर्वहारा) की पहल से मजदूरों की आम बैठक बुलाई गई, जिसमें मजदूरों की ओर से कई जरूरी सुझाव आए। बैठक में यह तय हुआ कि आगे से ALC सुनवाई में सभी मजदूर उपस्थित रहेंगे तथा संघर्ष को तेज करने के लिए कंपनी के गुड़गांव मुख्यालय के सामने भी प्रदर्शन किया जाएगा। पहल को कमेटी सदस्यों द्वारा भी सराहा गया और ऐसी बैठकें नियमित रूप से रखने की बात कही गई। हालांकि अगले ही दिन, प्रधान व वकील के कहने पर, इन निर्णयों को खारिज कर दिया गया! इसके बाद आम बैठकों की पहल कमेटी द्वारा 6 अप्रैल से ली गई जब तक देर हो चुकी थी व आंदोलन अंतिम चरणों में जाने लगा था।
संघर्षरत मजदूरों की अवस्थिति और उनका विकास
इस रूप के संघर्ष का कोई तजुर्बा न होने और आसपास के पूरे इंडस्ट्रियल बेल्ट में व आम तौर पर भी मजदूर आंदोलन के लगातार बिखराव व कमजोर होने के कारण कमेटी व कुछ मजदूरों का भरोसा जमीनी संघर्ष के बजाए व्यवस्थागत व अवसरवादी रास्तों पर ही रहा। मजदूरों में भी यह आस लगातार बनी रही कि कोई बड़ा नेता/पार्टी आकार उनकी समस्या का निवारण कर दे। इसी आस में मजदूरों ने भाजपा व कांग्रेस के नेताओं (खट्टर, गडकरी, अजय कप्तान से लेकर भाजपा नगरपालिका चेयरमैन प्रत्याशी, जजपा के स्थानीय नेता आदि) के कई असफल चक्कर लगाए। यहां तक कि आरएसएस के हिंदू जागरण मंच से समर्थन का आश्वासन मिलने पर धारूहेड़ा शहर में उनकी तिरंगा यात्रा (बाइक रैली) में भी शामिल हो लिए। हालांकि कहीं से भी कुछ कार्रवाई नहीं होने के कारण मजदूरों के सामने सरकार-प्रशासन तथा इन पार्टियों का असली चरित्र एक हद तक सामने आया।
कमेटी ने शुरुआत में ही लगभग सभी स्थानीय मजदूर यूनियन (मुख्यतः AITUC व HMS से संबद्ध) प्रधानों से जाकर बैठकें कर समर्थन जुटाने की सक्रियता के साथ कोशिशें की थी। 28-29 मार्च को देशव्यापी हड़ताल के दिन मजदूर अच्छी संख्या में रेवाड़ी के नेहरू पार्क में CTUs द्वारा आयोजित सभा में शामिल हुए। सभा में हुंडई मोबिस कमेटी की और से एक साथी ने मजदूरों तथा उनके संघर्षों की एकता का आह्वान करते हुए जोशीला वक्तव्य भी रखा। साथ ही इफ्टू (सर्वहारा) के प्रतिनिधि ने भी वक्तव्य रखा। परंतु यूनियनों की और से मौखिक समर्थन व सुझावों के अलावा और कुछ नहीं मिल पाया, जिस कारण से मजदूर आंदोलन व यूनियनों पर से मजदूरों का ठोस भरोसा नहीं बन सका तथा कुछ हद तक अविश्वास की भावना भी आई, हालांकि मजदूर आंदोलन को और सशक्त बनाने की जरूरत भी मजदूरों को महसूस हुई।
लगभग सभी मजदूर कंपनी के स्थानीय प्रबंधन को ही एकमात्र दोषी मानते थे, और उच्च (कोरियन) प्रबंधन मजदूरों को मासूम/अनजान। हालांकि इफ्टू (सर्वहारा) की पहल से कंपनी के राष्ट्रीय एमडी को उचित कार्रवाई करने की मांग पर मजदूरों की और से पत्र और संघर्ष की रिपोर्ट व तस्वीरें भी भेजी गई, जिसका स्वाभाविक रूप से कोई जवाब नहीं आया। इससे बड़े मालिकों/प्रबंधकों की मजदूरों की नजर में ‘साफ’ छवि का भी पर्दाफाश हुआ।
संघर्ष ने मजदूरों के बीच वर्गीय एकता का भाव जगाने का भी काम किया जिसकी साफ झलक उनके नारों (इंकलाब जिंदाबाद, धारूहेड़ा/दुनिया के मजदूरों एक हों!, मजदूर-मजदूर भाई-भाई ले कर रहेंगे पाई-पाई, एक पर हमला सब पर हमला, एक की लड़ाई सबकी लड़ाई) में देखने को मिली। यही नहीं, 29 मार्च को JNS मजदूर संघर्ष के समर्थन में मोबिस संघर्ष के करीब 40 मजदूरों की टीम स्वतःस्फूर्त ढंग से इफ्टू (सर्वहारा) के साथियों के साथ मानेसर पहुंच गई तथा समर्थन जुलूस भी निकाला। JNS मजदूरों की गिरफ्तारी की खबर सुनकर दुबारा मजदूरों की टीम रात में घटनास्थल व पुलिस थाना पहुंची एवं मजदूरों से सहानुभूति जाहिर की। 18 अप्रैल को धारूहेड़ा के ही आरटी पैकेजिंग कंपनी से निकाले गए संघर्षरत मजदूरों के समर्थन में भी मोबिस मजदूरों का जत्था उनके धरनास्थल पहुंच गया और खुद के संघर्ष से सबक लेते हुए उनका मार्गदर्शन व उत्साहवर्धन किया। अतः मजदूरों और खासकर संघर्षों की एकता की जरूरत मोबिस मजदूरों के जहन में घर कर गई है।
परिणाम
अप्रैल के दूसरे हफ्ते से मजदूरों के अंदर नौकरी वापस मिलने की उम्मीद समाप्त होने लगी थी। वकील के कहने पर संघर्ष के रास्ते बंद करते जाना (अप्रैल में प्रतिदिन होने वाले जुलूस भी बंद हो गए थे) और लगातार निराश करने वाली कानूनी प्रक्रिया पर ही सारा भरोसा डाल देना, इसके मुख्य कारण थे। मजदूरों की बिगड़ती आर्थिक स्थिति और (सुझाव के बावजूद) संघर्ष कोष उपलब्ध नहीं होने के कारण अब आम बैठकों में संघर्ष को लेबर कोर्ट केस की तरफ मोड़ने की राय बनने लगी। हालांकि इसी बीच कमेटी प्रधान की ओर से कोर्ट कार्रवाई में जाने के बजाए हिसाब ले लेनी की राय आने लगी। प्रधान द्वारा कंपनी की ओर से जारी नई सूची दिखाई गई जिसमें हर मजदूर को मिलने वाला हिसाब राशि का विवरण था। अंततः हिसाब पर ही आम सहमती बनी, और 20 अप्रैल को रेवाड़ी लेबर कार्यालय में ALC के समक्ष कंपनी प्रबंधन की और से हिसाब का भुगतान करने की तारीख चुनी गई।
हालांकि इस बीच आपसी स्रोतों से ही मजदूरों के बीच यह खबर आई की प्रधान व महासचिव के साथ वकील ने, मजदूरों को कम हिसाब पर राजी करवाने के लिए, कंपनी से पैसे लिए हैं। इस खबर की अतिरिक्त पुष्टि 20 अप्रैल को ही हो गई जब कंपनी ALC के समक्ष हिसाब की नई सूची ले आई, जिसमें राशि काफी कम कर दी गई थी व सभी मजदूरों के लिए 6 वर्ष तक का ही हिसाब था (यानी केवल लेटेस्ट ठेकेदार के कार्यकाल तक का ही) और फरवरी माह की वेतन राशि भी हिसाब से काटी हुई थी, और प्रधान व महासचिव उसका समर्थन कर बैठे व उल्टा मजदूरों (यहां तक की अन्य कमेटी सदस्यों) पर ही इसे मान लेने का दबाव बनाने लगे। शुरुआती विरोध के बाद संघर्ष को आगे न ले जा पाने की उपरोक्त मजबूरियों के मद्देनजर मजदूरों ने हिसाब स्वीकार कर लिया। अधिकतम राशि (A-ग्रेड मजदूरों को) ₹ 1.08 लाख तक मिली तथा न्यूनतम राशि (D-ग्रेड) ₹ 54 हजार। हद तो तब हो गई जब इस राशि पर भी वकील ने ₹1500 प्रति मजदूर (कुल ₹ डेढ़ लाख) चार्ज किया। गौरतलब है कि सुनवाई की शुरुआत में ही वकील को ₹2000 प्रति मजदूर (कुल ₹ 2.1 लाख) तथा ₹2500 प्रति सुनवाई (कुल करीब ₹ 25-30 हजार) मजदूरों से प्राप्त हो चुके थे! 15-20 साल से अपना खून-पसीना कंपनी को देने वाले कुछ वरिष्ठ व पुराने मजदूर (जिसमें कमेटी सदस्य भी शामिल थे) परिणाम से असंतुष्ट लेकिन लाचार होने के कारण चेक लेने के बाद ही फूट-फूट कर रोने लग गए। 10-12 मजदूरों ने हिसाब न लेकर आगे कोर्ट कार्रवाई में जाने का निर्णय लिया है जिसमें मुख्यतः स्थानीय मजदूर हैं।
ज्यादातर मजदूरों ने अंत में कहा भी कि अगर नेतृत्व बेहतर होता तो वह अंत तक लड़ने को तैयार थे, चाहे जमीनी संघर्ष हो या कोर्ट केस। कमेटी सदस्यों ने गलती मानते हुए कहा कि हम ही लोगों ने जिनको अगुआ चुना और अनुशासित रूप से जिनकी बातें मानी, उन्होंने ही संघर्ष को डुबा दिया। कुछ मजदूरों ने बताया कि वकील व प्रधान के कहने पर ही मजदूर संगठनों व इफ्टू (सर्वहारा) के संघर्ष संबंधित सुझाव नहीं माने जाते थे। उन्होंने यह भी कहा कि कमेटी/मजदूरों को संघर्ष को ही और तेज करना चाहिए था तथा इफ्टू (सर्वहारा) के साथियों सुझाव लागू करने चाहिए थे।
सबक
हुंडई मोबिस मजदूर संघर्ष इस बात को पुनःस्थापित करता है कि पूंजीवादी व्यवस्था के गहराते संकट के कारण बढ़ते नवउदारवादी व फासीवादी हमलों (लेबर कोड, ठेकाकरण, निजीकरण, तालाबंदी आदि) के आज के दौर में, मजदूरों की व्यापक वर्गीय एकता, चाहे वह औद्योगिक क्षेत्रगत स्तर पर हो या सेक्टर/उद्योगगत, तथा स्थाई के साथ कैजुअल मजदूरों की एकता, कायम किए बिना केवल एक प्लांट/कंपनी तक सीमित संघर्ष को जीत की तरफ ले जाना बेहद मुश्किल हो चुका है। यह इसलिए क्योंकि पहले की बड़ी कंपनियों, जहां समग्र उत्पादन एक छत के ही नीचे होता था, की जगह आज तमाम वेंडर कंपनियां आ गई हैं जहां किसी कोई एक-दो प्रकार के पुर्जों का ही उत्पादन होता है, जिसके कारण एक उद्योग के मजदूरों को भी तमाम कंपनियों में विखंडित कर उनकी ताकत बांट दी गई है। स्वाभाविक तौर पर इस विभाजन से किसी एक कंपनी में हड़ताल/संघर्ष का उस उद्योग पर प्रभाव भी खंडित और छोटा हो चुका है।
नेतृत्व के संदर्भ में हुंडई मोबिस एवं इस औद्योगिक बेल्ट के अन्य संघर्षों का अनुभव यह दर्शाता है कि औद्योगिक क्षेत्र में मजदूर आंदोलन आज एक विकल्पहीन परिस्थिति में फंसा हुआ है। मजदूर अगर आंदोलन करने की तरफ बढ़ें तो उनके सामने अपेक्षाकृत अधिक प्रत्यक्ष रूप से केंद्रीय ट्रेड यूनियनों का समझौतापरस्त व अवसरवादी नेतृत्व रहता है, जिसकी कार्रवाई संघर्ष को पूंजीपक्षीय समझौते की ओर ही ले जाने की होती है। वहीं मजदूर आंदोलन में हावी बिखराव व मौकापरस्ती तथा स्वतःस्फूर्तता की कमी के कारण स्वतंत्र मजदूर संघर्ष शासक-शोषक वर्ग की ताकतों की ओर झुकने और अक्सर उनके प्यादे बन जाने के लिए मजबूर हो जाते हैं। इससे बचने के लिए संघर्षों की बागडोर संघर्षशील व जुझारू मजदूरों को संभालनी होगी।
वहीं दूसरी तरफ मजदूरों के वर्ग हित को प्राथमिकता में रखने वाले क्रांतिकारी ताकतों की सीमित क्षमता और उसपर भी मौजूद भारी बिखराव की स्थिति में वे मजदूरों की वर्गीय एकता स्थापित करते हुए ऐसे संघर्षों को जीत की तरफ मोड़ पाने में सक्षम नहीं हो पाते, और अक्सर यह संघर्ष कोर्ट केस में तब्दील हो जाते हैं। इसे पलटने के लिए वास्तविक मजदूर-वर्गीय एवं क्रांतिकारी ताकतों को आज तात्कालिक रूप से आपसी दूरियां कम करने की कार्रवाइयों में लगना होगा, ताकि मजदूर आंदोलन का CTUs के केंद्र से इतर एक क्रांतिकारी-जुझारू केंद्र का गठन हो सके। इस प्रक्रिया के साथ मौजूद क्षमता के साथ ही मजदूरों के बीच निरंतर व सघन क्रांतिकारी अभियान चलाना बेहद आवश्यक है। वहीं दूरगामी तौर पर सांगठनिक विलय व राजनीतिक एकता के लक्ष्य को सामने रखते हुए हमें आज आपस के राजनीतिक मतभेदों को भी ठोस रूप से सामने रखने और उनपर चर्चा कर उन्हें हल करने की एक जनवादी प्रक्रिया में जाना होगा, ताकि हम मजदूर आंदोलन को एक सही केंद्रीय क्रांतिकारी दिशा दे सकें।
[…] in the March and April-May 2022 issues of Yatharth which can be read online by clicking here and here […]