शहरी आवास समस्या और जाति-धर्म आधारित भेदभाव

June 20, 2022 1 By Yatharth

एम असीम

अक्सर बीच-बीच में यह खबर मुख्यधारा के व्यवसायिक या सोशल मीडिया में आती रहती हैं कि हमारे दिल्ली मुंबई जैसे बड़े शहरों में भी मकान किराये पर देने में जाति, धर्म, क्षेत्रीयता के आधार पर भेदभाव होता है। कुछ दिन तक इस पर हाय-तौबा शैली की कुछ चर्चा भी होती है कि हमारा समाज और उसके शिक्षित-संपन्न उच्च मध्य वर्ग तक के लोग आज भी कितने पूर्वाग्रहों व नफरत से भरे हैं कि मकान किराये पर देने में जाति-धर्म आदि के आधार पर भेदभाव करते हैं। इसके आधार पर हमारे समाज की जाति-सांप्रदायिक संरचना-विचारधारा, आदि पर कुछ पत्रकारी, अकादमिक शोध या सेमीनार टाइप के लेख-पेपर भी लिखे जाते हैं, कुछ अकादमिक व एनजीओ को इस पर काम के लिए फंड भी मिल जाते हैं। कुछ को पीएचडी-फेलोशिप भी ऐसे काम के लिए मिल जाती हैं। फिर शांति, और कुछ दिन बाद फिर से वही, यह चक्र जारी रहता है। 

पर वास्तविकता में यह भेदभाव हमारे समाज की इतनी बड़ी व कड़वी सच्चाई है कि जानबूझकर अनजान बनने वालों के सिवा इसके लिए हमें किसी खबर की जरूरत ही नहीं है। हर रोज ऐसे भेदभाव की घटनाएं हमारे चारों ओर घटित होती हैं जिनके बारे में हम तभी बेखबर रह सकते हैं जब अपने आंख कान नाक पूरी तरह बंद रखें। मकान किराये पर देने में जाति, धर्म, क्षेत्रीयता, मांसाहार-शाकाहार, विवाहित-अविवाहित, जैसे तमाम सवाल पूछे जाते हैं और साफ तौर पर भेदभाव होता है। कई मामलों में मकान मालिक न भी करे तो हमारे शहरों में जो उच्च व मध्य वर्गीय हाउसिंग सोसाइटी या रेजिडेंट वेल्फेयर एसोसिएशन बनी हैं वे अधिकांशतः समाज के सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्से के नियंत्रण में हैं और वो स्वयं भी ऐसा भेदभाव करती हैं और जो मकान मालिक न करना चाहे, परेशान करने की अपनी पूरी शक्ति का प्रयोग कर उसको भी ऐसा करने के लिए बाध्य करती हैं, हालांकि उनके पास ऐसा करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है। दिल्ली जैसे शहरों में तो उत्तर-पूर्व से आने वालों के साथ भी बहुत भेदभाव किया जाता है और जिन कुछ क्षेत्रों में इन्हें मकान किराये पर मिलते भी हैं वहां भी उन्हें उसकी शर्तों में बहुत शोषण का सामना करना पड़ता है। मजदूरों के आवास का सवाल तो और भी अधिक गंभीर है, पर उस पर अलग से लिखना जरूरी है और इस छोटी टिप्पणी में उसको हम नहीं ले रहे हैं।

पर सवाल यह है कि क्या आवास के क्षेत्र में जाति-धर्म के भेदभाव के इस सवाल पर इस बार-बार उठने वाली चर्चा से इस पर कुछ लोगों का ध्यान जाने के अतिरिक्त कुछ हो पाना संभव है? क्या नपुंसक-बंजर एनजीओवादी-अकादमिक टेसुए बहाने वाली शैली की इस चर्चा से कुछ व्यक्तियों के करियर को लाभ मिलने से अधिक कुछ हासिल हो सकता है और क्या इससे सामाजिक बदलाव की दिशा में एक भी कदम आगे बढ़ता है? वास्तव में यह चर्चा कभी इस क्षेत्र में बदलाव की किसी ठोस मांग को उठाती तक नहीं है जिसका कारण इसके बुनियादी चरित्र व समझ से जुड़ा हुआ है।  

असल में हम निजी संपत्ति की पवित्रता और स्वतंत्र व सार्वभौम व्यक्तियों (या कंपनियों) के बीच परस्पर सहमति पर आधारित संविदा (कान्ट्रैक्ट) की सर्वोच्चता वाली संवैधानिक व्यवस्था के पूंजीवादी आर्थिक संबंधों वाले समाज में रहते हैं। इस समाज में मकान मालिक और किरायेदार के बीच भी ‘परस्पर सहमति से तय शर्तों’ वाला ऐसा ही एक ‘स्वतंत्र’ कान्ट्रैक्ट होता है। लेकिन निजी संपत्ति की व्यवस्था को स्वीकार करने की इस स्थिति में मकान मालिक व किरायेदार के बीच हमारे दखल का आधार ही क्या बचता है? आखिर यह प्रमाणित कैसे होगा कि मकान मालिक ने जाति की वजह से ही मकान किराए पर नहीं दिया। वह तो हमेशा तर्क दे सकता है कि उसने किसी अन्य वजह से ऐसा नहीं किया। अतः, अगर हम निजी संपत्ति आधारित इस व्यवस्था की सर्वोच्चता को स्वीकार करते हैं तो आखिर हमारे पास कुछ करने के विकल्प क्या बचते हैं?

एक विकल्प है कि हम गांधीवादी विचार के अनुरूप जातिगत नफरत को दिलों से निकालने और संपत्ति मालिकों के हृदय परिवर्तन हेतु उनके मानवीय सद्गुणों के आधार पर भावनात्मक अपील करें, इसके लिए सत्याग्रह करें या अनशन करें या उन्हें गुलाब के फूल भेंट करें? या एनजीओवादी शैली में बड़े दानदाताओं से फंड प्राप्त कर अपने लिए अच्छा वेतन लेते हुए कुछ सवेतन कार्यकर्ताओं के जरिए कुछ इलाकों में जातिगत भेदभाव मिटाने की वर्कशॉप करें, इनकी रिपोर्ट दानदाताओं को भेज कर इसके लिए और भी अधिक फंड जुटाएं?

पर हम पाते हैं कि ये हृदय परिवर्तन का अभियान चलाने या एनजीओ की जाति भेद विरोधी वर्कशॉप कराने के लिए फंड देने वाले दानदाता तो ठीक उसी मालिक वर्ग के हैं जो रियल एस्टेट के भी छोटे-बड़े मालिक हैं और जिनका हृदय परिवर्तन किया जाना है। तब इस बात का क्या रहस्य है कि जिस मालिक वर्ग का हृदय परिवर्तन किया जाना है वह खुद ही तो हृदय परिवर्तन के इस अभियान के खर्च का दानदाता है, मगर फिर भी उसका हृदय परिवर्तन कभी होता ही नहीं है? असल में खुद मालिक लोगों के दिए गए दान से ये एनजीओ अभियान चलाए ही इसलिए जाते हैं जिससे समाज के तमाम परिवर्तनकामी युवा इस बंजर, भ्रामक और कुछ के लिए करियर बनाने वाले इस काम में जुटकर वास्तविक एवं ठोस सामाजिक परिवर्तनकामी कार्यक्रम से दूर रहें। मालिक वर्ग जानता है कि इन कार्यक्रमों से उसका कोई अहित नहीं होकर उसके हित में मौजूदा संपत्ति संबंधों की हिफाजत होती है और जाति धर्म आदि के भेदभाव के खिलाफ जनवादी अभियान के लिए सामाजिक परिवर्तन की जिम्मेदारी के अगुवा होने की सनद भी उसे मिलती रहती है।

इस रहस्य को समझना है तो हमें आवासों की बढ़ती कीमतों व आसमान छूते मकान भाड़ों की वजह से एक ओर इनके शहरों में आने वाली अधिकांश कामकाजी जनता की जेब की क्षमता से बाहर निकल जाने तो दूसरी ओर शहरों में बड़े पैमाने पर खाली तालाबन्द करके रखे गए दसियों लाख घरों की वजह जाननी होगी। इसका अध्ययन करते ही हम पाएंगे कि 1970 के दशक में विभिन्न राज्यों/शहरों में जो डीडीए, सिड़को, हुडा, नोएडा, जीडीए, बीडीए, एलडीए, आदि तमाम डेवलपमेंट अथॉरिटी बनाईं गईं उन्होंने ही बड़े पैमाने पर जमीन को किसानों या अन्य जमीन मालिकों से कौडियों के दाम खरीदकर उन पर अपना एकाधिकार कायम कर लिया और उन पर योजनाबद्ध तरीके से बड़े पैमाने पर गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक आवास बना जरूरत अनुसार शहरों में आने वाली कामकाजी जनता को किफायती भाड़े पर उपलब्ध कराने के बजाय कृत्रिम अभाव पैदाकर ऊंचे दामों पर मकान/फ्लैट व निजी बिल्डरों को बेचना शुरू किया। इसी नीति के तहत लगातार मकानों की कीमतों व भाड़ों को तेजी से ऊपर ले जाया गया है। इससे न सिर्फ बड़े कॉर्पोरेट बिल्डरों ने अकूत मुनाफे लूट विराट पूंजी संचयन किया है बल्कि संपन्न व मध्य वर्गीय मकान मालिकों का भी इसे समर्थन मिला है क्योंकि इससे न सिर्फ नए बल्कि उनके मालिकाने के मकानों/प्लाटों की कीमतें बढ़ जाती हैं जिससे उनकी आंकलित संपदा या कहें फर्जी पूंजी (fictitious capital) भी कुछ दशकों में महंगाई दर से बहुत अधिक तेजी से अर्थात सैंकड़ों गुना बढ़ गई है। जमीनों व इमारती संपत्ति की बढ़ती कीमतों के जरिए हुए इस पूंजी संचयन में जूट व कपड़ा मिलों वाली पुरानी कॉर्पोरेट पूंजी से आईटी सेक्टर की नवीन कॉर्पोरेट पूंजी, बुर्जुआ नेताओं-अफसरशाही व अपराधी गिरोहों तक का पूरा गठजोड़ शामिल है जो चुनावी राजनीति में भी अहम दखल रखता है।

आवासीय/इमारती संपत्ति में इतने विराट पैमाने पर फर्जी पूंजी के सृजन ने एक ओर मकान किराये पर देने के बजाय कीमतों में वृद्धि के चक्र के जरिए फर्जी पूंजी में वृद्धि को मालिकों के लिए लाभ का मुख्य स्रोत बना दिया है और बहुतेरे मकान मालिक भाड़े पर देने के बजाय उन्हें खाली छोड़ना पसंद करते हैं। पूंजीवादी विकास के इस चरित्र का ही नतीजा है कि मुंबई-दिल्ली जैसे शहरों में एक ओर दसियों लाख की तादाद में कामकाजी लोग ऊंचे भाड़ों की वजह से शहर के बाहरी इलाकों में गंदगी भरी झुग्गी बस्तियों में रहने को मजबूर हैं जबकि वहीं लाखों मकान पूंजी मालिकों द्वारा खाली तालाबन्द कर के रखे गए हैं। दूसरी ओर इससे भाड़े के मकानों की उपलब्धता कम होने से उनके भाड़े आसमान पर पहुंच गए हैं और मकान मालिकों के लिए आसान हो गया है कि मकान भाड़े पर देते हुए ऊंचा भाड़ा मांगने के साथ ही मनमर्जी की शर्तें भी थोप सकें। यही वह स्थिति है जिसमें हानि का डर न होने की वजह से मकान देते वक्त उनके जाति-धर्म के पूर्वाग्रहों व नफरत को व्यवहार में लागू करने का भी पूरा मौका उन्हें हासिल हो गया है क्योंकि यह भी वास्तविकता है कि हमारे देश में भूसंपत्ति का मुख्य हिस्सा अभी भी समाज में ऐतिहासिक रूप से प्रभावी व शोषक स्थिति में रहे हिंदू सवर्ण जाति वालों के पास ही है जिनका बड़ा हिस्सा आज भी सामंती समाज की जाति व्यवस्था की गलीज नफरत व पूर्वाग्रहों से भरा पड़ा है।

निश्चित रूप से जातिगत श्रेष्ठता व शुद्धता आधारित घृणा की भावना को समाप्त कर जाति पूर्वाग्रह एवं भेदभाव को कालातीत बना जाति भावना का उन्मूलन कर देना ही वास्तविक एवं अंतिम लक्ष्य है। पर हम सभी जानते हैं कि एक, यह दीर्घकालिक कार्य है, दूसरे, भावना की समाप्ति या अनुपस्थिति एक मनोगत विषय है जिसका वस्तुगत मापन नहीं हो सकता जब तक कि स्वयं ऐतिहासिक रूप से वंचित रही जातियां ही मनोवैज्ञानिक रूप से इस वंचना की आशंका से मुक्त महसूस नहीं करने लगें। किंतु जातिगत भेदभाव व अत्याचार के वास्तविक मुद्दों को इस दीर्घकालीन लक्ष्य के लिए स्थगित नहीं किया जा सकता। अतः इस दौर में हमें ऐसे ठोस व कार्रवाई योग्य कदमों पर विचार करना होगा जो इस भेदभाव व अत्याचार के वस्तुगत सामाजिक आधार का ध्वंस कर सकें। शहरी आवास में भेदभाव के लिए भी हृदय परिवर्तन जैसी अस्पष्ट बातों के बजाय स्पष्ट लक्ष्य वाले कदम उठाने जरूरी हैं जो इस भेदभाव की संभावना की बुनियाद को ही समाप्त कर दें।

उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि इस समस्या का वास्तविक एवं अंतिम समाधान तो निजी संपत्ति के मौजूदा संबंधों को समाप्त कर एक समाजवादी समाज की स्थापना करना है जिसमें एक ओर किसी के पास भी अपनी वास्तविक आवश्यकता से अधिक आवास पर अधिकार जमाए रखने का अवसर ही समाप्त हो जायेगा, दूसरी ओर राज्य की जिम्मेदारी होगी कि वह सभी के लिए पर्याप्त सार्वजनिक आवास की योजनाबद्ध उपलब्धता सुनिश्चित करे। उस स्थिति में कोई मकानमालिक-किरायेदार संबंध नहीं होगा और सर्वाधिक जरूरत वालों को प्राथमिकता पर आवास उपलब्ध कराने के लिए भी नीति सार्वजनिक स्वीकृति के साथ बनाई जा सकेगी।

परंतु हम समाजवादी व्यवस्था आयेगी तब सब समस्याओं का समाधान हो जायेगा, इस आधार पर तात्कालिक राहत के सवालों पर जनवादी मांगों के लिए संघर्ष को स्थगित नहीं कर सकते। हम यह नहीं कह सकते कि निजी संपत्ति की व्यवस्था रहते इन सभी भेदभाव का अंतिम समाधान संभव नहीं है तो तब तक के लिए हमें इन्हें स्वीकार करना होगा। आज इन समस्त किस्म के भेदभाव के खिलाफ तात्कालिक राहत के लिए जनवादी मांगों पर संघर्ष किये बगैर समाजवाद भी कैसे आ सकता है? अतः निश्चित रूप से ही आज पूंजीवादी व्यवस्था में ही इसके लिए कुछ ठोस जनवादी मांगों को उठाकर उनके लिए संघर्ष छेड़ना जरूरी है। संपूर्ण तो नहीं लेकिन मिसाल के तौर पर ऐसी ठोस कार्रवाई लायक जनवादी मांगों का एक सुझाव नीचे पेश है –

  1)  समस्त सार्वजनिक भूमि का निजीकरण तुरंत बंद करो और उस पर किफायती भाड़ा दर पर उपलब्ध कराने के लिए पर्याप्त संख्या में सार्वजनिक आवासों का निर्माण करो। इनके वितरण में उन्हें प्राथमिकता दो जिनके पास आवास की कोई व्यवस्था नहीं है।

  2)  निजी पूंजी व अन्य संस्थाओं को उद्योग या अन्य मकसद के नाम से जो जमीनें दी गई हैं उनमें से जितनी खाली हैं या उस मकसद से फालतू हैं या ऐसे उद्योग/कार्य बंद हो चुके हैं, उन सबको बिना कोई मुआवजा दिये तुरंत जब्त करो और उन पर सार्वजनिक आवासों का निर्माण करो।

  3)  अपनी व्यक्तिगत आवश्यकता से अधिक जितनी भी आवासीय संपत्ति है उसे सार्वजनिक भाड़ा नियंत्रण के जरिए किफायती दर पर जरूरत के मुताबिक अलॉट किया जाए जिसमें प्राथमिकता की व्यवस्था भी सुनिश्चित हो।

ऐसी सार्वजनिक आवास व्यवस्था में अगर कोई भेदभाव अफसरशाही द्वारा किया जाता है तब उसके विरुद्ध भी संघर्ष संभव है क्योंकि तब मकान मालिक के हृदय परिवर्तन द्वारा जातिगत नफरत से मुक्ति द्वारा भेदभाव की समाप्ति जैसी अस्पष्ट मनोगत बातों पर निर्भर होने के बजाय इन ठोस कार्रवाई वाली जनवादी मांगों पर सार्वजनिक सामाजिक संघर्ष मुमकिन हो सकता है।