यात्रावृत्तांत | बर्लिन
June 20, 2022‘मार्क्स से दीवार तक’: जर्मनी के मजदूरों से उम्मीदें बाकी हैं
(From Marx to the Wall: Communist & Socialist Free Tour)
एस वी सिंह
कम्युनिस्ट जर्मनी (GDR) की ये परंपरा अभी भी जारी है। मुझे भी 10 मई को इस टूर का हिस्सा बनने का अवसर मिला। कुल 15 बन्दे थे। गाइड नवयुवक विलियम इंग्लैंड के रहने वाले हैं। शेयर करने लायक बातें, जिन्हें पहली बार सुना, इस तरह हैं;
1) पहले विश्व युद्ध में हुई शर्मनाक हार की बदौलत रूस की तरह ही जर्मन सेना में भी भयानक हताशा थी। एक लाख से भी ज्यादा सैनिक फौज छोड़कर उस समय की रोजा और कार्ल लिब्नेख्त की कम्युनिस्ट पार्टी केपीडी के साथ थे। उनके अलावा 2018 में बर्लिन शॉप वर्कर यूनियन के भी एक लाख से ज्यादा सदस्य थे, वे भी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ थे। बर्लिन पैलेस के सामने, जहां कार्ल लिब्नेख्त की बड़ी पट्टिका आज भी लगी हुई है, वहां नवम्बर 2018 में हुई सभा में कार्ल लिब्नेख्त ने अपना भाषण फौजी टैंक पर खड़े होकर दिया था। उस मीटिंग में एक लाख से ज्यादा फौजी और वर्कर मौजूद थे। लोग धावा बोलने को चिल्ला रहे थे। कार्ल लिब्नेख्त ने समाजवाद की घोषणा तो कर दी लेकिन रूसी बोल्शेविकों की तरह, जर्मन संसद पर धावा बोलने का ऐलान करने का साहस नहीं जुटा पाए। नतीजा ये हुआ कि कई दिन तक ऐसा लगा मानो जर्मनी में समाजवाद आ गया, फौज न्यूट्रल बनी रही लेकिन बाद में सब कुछ बिखरता चला गया। उसी दिन से उनके और रोजा के कत्ल की योजनाएं बनने लगीं। उनके कत्ल भी हुए और ‘समाजवाद’ भी बिखर गया।
2) रोजा और कार्ल लिब्नेख्त को वहां टियर गार्डन से गिरफ्तार नहीं किया गया था जहां उनके स्मारक स्थल हैं। प्रथम विश्व युद्ध की शर्मनाक हार के बाद, नाजियों से पहले, एक और नस्लवादी संगठन बना था, फ्राईकोल। उसका निशान भी स्वास्तिक ही था और वह बाद में हिटलर की पार्टी में मिल गया। फ्राईकोल के गुंडों ने कार्ल और रोजा को एक होटल से गिरफ्तार किया था। उन्हें अलग-अलग गाड़ियों में टियर गार्डन ले जाया गया था। रोजा को रास्ते में राइफल की बटों से मार डाला गया था और कार्ल को भी बहुत पीटा गया था। उन्हें टियर गार्डन में ले जाकर छोड़ दिया और कहा भाग जाओ, तुम्हें छोड़ देंगे। वे भागे नहीं लेकिन चलने लगे तो उन्हें पीछे से गोली मार दी गई।
3) जर्मन मजदूरों में राजनीतिक चेतना काफी थी, उन्हें नाजियों ने अपने चंगुल में कैसे लिया? इस सवाल का उत्तर जानना बहुत दिलचस्प था। हिटलर म्यूनिख में रहता था। वहीं और न्यूरेम्बर्ग में, मतलब, बावेरिया राज्य में ही उसका दबदबा था। हिटलर ने 1924 में गोएबेल को बर्लिन भेजा और कहा जैसे भी हो, जितने पैसे चाहिएं लो लेकिन बर्लिन के मजदूरों को अपने कब्जे में लिए बगैर जर्मनी पर कब्जा नहीं हो सकता। गोएबेल की कई जगह मजदूरों ने पिटाई भी की लेकिन उसने मजदूरों की एक कमजोरी नोट की। मजदूरों को बियर की लत है। जर्मनी में आज भी सभी को बियर की लत है। सरकार ने इस लत को बढ़ाने के लिए ही बियर की कीमतें इतनी कम रखी हुई हैं। एक बार पेशाब करने में 70 सेंट लगते हैं और बियर की एक बोतल 80 सेंट की आती है!! फैक्ट्री में कैंटीन में कुछ मिले ना मिले बियर जरूर मिलती है। कॉर्पोरेट की मेहरबानी से गोएबेल के पास पैसे की कमी नहीं थी। उसने फैक्टरियों में बियर मुफ्त देनी शुरू कर दी और मजदूर उसके साथ हो गए। अभी भी जर्मन सरकार ने बियर इसीलिए इतनी सस्ती की हुई है।
4) रूस समेत सारे यूरोप में आज भी जर्मनी में सबसे ज्यादा कम्युनिस्ट हैं। ये बात सरकार भी जानती है। लेकिन यहां कोई क्रांतिकारी पार्टी नहीं है। (काउत्स्की की लगाई बीमारी ने कम्युनिज्म की जड़ें ऐसी उखाड़ीं कि अभी तक नहीं जमी)। मजदूर जब भी हड़ताल करते हैं, हमेशा सरकार झुक जाती है कभी कम कभी ज्यादा। क्रांतिकारी पार्टी नहीं है लेकिन मजदूरों को बे-खौफ लड़ने की आदत है। इसलिए ट्रेड यूनियन की कॉल होते ही मजदूर अपना काम छोड़कर निकल लेते हैं और मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं। सरकार द्वारा मांगें मान लेते ही आन्दोलन स्थगित हो जाता है क्योंकि क्रांति अजेंडे पर है ही नहीं। बर्लिन में मजदूरों के रुतबे का एक बहुत दिलचस्प उदाहरण मई दिवस पर होने वाले झगड़े-मारामारी है। 1 मई को छुट्टी रहती है। मजदूर घरों से बाहर सड़कों पर भी निकलते हैं लेकिन सड़कों पर हर तरफ बियर पार्टियां होने लगती हैं। सरकार का उस दिन पुलिस को ये हुक्म होता है कि अगर मजदूर आज तुम्हें पीटते भी हैं तो पिटते रहो लेकिन मई दिवस पर मजदूरों से पंगा नहीं लेना है। एक मई उनका दिन है। पुलिस वाले भी मजदूरों की बियर पार्टी में शामिल हो जाते हैं। (शोषण की भट्टी को आज भी जर्मनी में मजदूरों के गुस्से से बहुत हिकमत से बचाकर रखा गया है)।
5) सबसे दिलचस्प स्टोरी कोकाकोला हाउस और कोकाकोला कंपनी की है जो मुझे बिलकुल मालूम नहीं थी। बर्लिन के विशाल कोकाकोला हाउस पर विलियम ने जो बताया वो बहुत ही दिलचस्प है। कोकाकोला कंपनी का अघोषित मिशन स्टेटमेंट है; ROC (ROOT OUT COMMUNISM)। न्यूरेमबर्ग की नाजी परेडों को कोक ही स्पांसर किया करता था। उनकी रैलियों की हर फोटो में कोक के विज्ञापन होते थे। उसने ये भी बताया कि अमेरिका के हर युद्ध के टीवी पर सतत चलते दृश्यों में कोकाकोला लिखा कुछ ना कुछ जरूर रहता है। ऐसा लगता है कि कोक लिखा ये सामान, खाली खोखे या बोतलें या टेंट आदि वैसे ही पड़ा हुआ है। वास्तविकता ये नहीं है। ये सब विज्ञापन होते हैं। कम्युनिस्ट विरोधी हुकूमत कितनी भी बर्बर क्यों ना हो, कोक उसे बहुत मदद करता है। बे-इन्तेहा खर्च करता है। जर्मनी में हमेशा से ही कोक पूर्वी जर्मनी में हुई हर गड़बड़ में मुख्य साजिशकर्ता रहा है। हजारों कैरेट कोक की प्लास्टिक की बोतलें 27 मील लम्बी बर्लिन वाल के ऊपर से पूर्वी जर्मनी में फेंकी जाती थीं। उनके साथ चमचमाते पम्फलेट भी रहते थे कि असली मजेदार जिन्दगी तो ये है जिसे आप लोगों से छुपाया जा रहा है। बर्लिन दीवार की चौकी पर तैनात गार्ड्स तक हर रोज कोक और दूसरे मंहगे पदार्थ की सप्लाई कोक कंपनी ही किया करती थी। गोर्बाचेव को वित्त-पोषण भी कोक ही किया करता था। बर्लिन वाल गिरने पर होने वाले जश्नों को कोक ने स्पांसर किया था। आज भी यूक्रेन युद्ध में कोक पूरी ताकत से सक्रिय है। कोक की उत्पादन लागत कुल कीमत की मात्र 5% होती है इसीलिए इस कंपनी के पास पूंजी के बड़े पहाड़ जमा हैं।
6) हमारे गाइड विलियम का कहना था कि वे कम्युनिस्ट आन्दोलन से जुड़े रहने के लिए गाइड का काम कर रहे हैं। उनकी उम्र 25 के आस-पास रही होगी। टूर की कोई फीस नहीं थी लेकिन सबने दस-दस यूरो दिए। एक कोरियन लड़की ने कहा कि वे पढ़ती हैं तो उन्होंने उनसे पैसे लेने से इंकार कर दिया। उनका हांसिल-ए-महफिल कमेंट जिस पर जोर का ठहाका लगा:
“जर्मनी और फ्रांस की सरकारें कार्ल मार्क्स के पीछे पड़ गईं और वे लन्दन पहुंच गए। अपनी आखरी सांस तक वे वहीं रहे। ऐसा मत सोचिए कि अंग्रेज सरकार बहुत भोली थी और उन्हें अंदाजा नहीं था कि मार्क्स जो कर रहे हैं, उसका परिणाम क्या होगा। दरअसल, अंग्रेजों की नीति ये थी कि दुनियाभर के तोड़-फोड़ करने वालों, आपका यहां स्वागत है। यहां आप अपनी तोड़-फोड़ करने की प्रतिभा को बढ़ाइये, निखारिए और उसके बाद अपने-अपने देशों में जाकर तोड़-फोड़ कीजिए जिससे हमारे प्रतिद्वंद्वी खत्म हों और हमारा राज फैलता जाए!! लेनिन नाम के एक व्यक्ति ने उनकी ये बात अपने दिल पर ले ली और उन्हीं मार्क्स के ज्ञान की बदौलत अंग्रेजों के सबसे बड़े दुश्मन को मिटा डाला!!”
“Karl Marx was hounded by German (Prussian) and French governments and this drove him to reach London where he did all his work and breathed his last. Don’t be under any illusion that British government is very pro-people, very democratic or they didn’t know what Marx was doing over there. Britishers are shrewd people. Their thinking was, ‘Any disrupter from anywhere in the world is welcome here. Hone your skills in disruption and go back to your respective countries, demolish your governments and remove our competitors!! One guy, Lenin, took that quite literally, courtesy Marx and removed the worst enemy of the Britishers!!”