खेतिहर आबादी की जमीनों का अपहरण

September 18, 2022 0 By Yatharth

कार्ल मार्क्स की ‘पूंजी’ (खंड 1) की 155वीं प्रकाशन वार्षिकी पर प्रस्तुत है

अजय सिन्हा

इंगलैंड में, जहां पूंजीवादी विकास सबसे पहले हुआ, पूंजीवादी खेती का विकास खेतिहर आबादी को किस निर्ममता के साथ उजाड़कर किया गया है, इसका वर्णन हमें कार्ल मार्क्स की कृति ‘पूंजी खंड 1’ में पढ़ने को मिलता है जिसका पहली बार प्रकाशन 14 अगस्त 1867 को हुआ। आइए, इसकी 155वीं वर्षगांठ के अवसर पर इस वर्णन की संक्षेप में याद ताजा की जाए कि कितनी बुरी तरह किसानों को उनकी जमीनों से उजाड़कर पूंजीवादी आदिम संचय किया गया था जिसके आधार पर इंगलैंड में पूंजीवादी विकास की आधारशिला रखी गई। बाकी देशों में इसने अलग रूप लिया, जिसमें कई देशों में किसानों के सर्वहारा में परिणत होने का एक संक्रमणकालीन दौर भी शामिल रहा, लेकिन किसानों को उजाड़ने की कहानी किसी भी देश में हुए पूंजीवादी विकास की एकसमान कहानी ही है।    

मार्क्स पूंजी खंड 1 के इस अध्याय में लिखते हैं – ”इंगलैंड में 14वीं शताब्दी के अंतिम भाग में कृषिदास प्रथा का वस्तुतः अंत हो गया था। उस समय – और 15वीं शताब्दी में तो और अधिक – आबादी की प्रबल बहुसंख्या अपनी भूमि के मालिक स्वतंत्र किसानों की थी, भले ही उनके स्वामित्व को कैसा भी सामंती नाम क्यों न दिया गया हो।”1 मार्क्स कहते हैं कि ”इंगलैंड की जमीन बड़ी-बड़ी जागीरों में बंट गयी थी, जिनमें से एक-एक में अकसर नौ-नौ सौ पुरानी एंग्लो-सेक्सन जमींदारियां शामिल थीं, फिर भी सारे देश में किसानों की छोटी-छोटी भूसंपत्तियां बिखरी हुई थीं और बड़ी-बड़ी जागीरें केवल उनके बीच-बीच में जहां-तहां पायी जाती थीं और इन परिस्थितियों के रहते पूंजीवादी धन का बढ़ना यानी पूंजीवादी विकास असंभव था।” हमें आज पता है कि किसानों को, खासकर छोटे किसानों को, उनकी जमीनों एवं निवास स्थान से उजाड़े बिना पूंजीवाद के विकास का अंतिम लक्ष्य, यानी कृषि में बड़ी पूंजी के प्रवेश का काम पूरा हो ही नहीं सकता है। मोदी सरकार के तीनों कृषि कानून इसी को ध्यान में रखकर लाए गए थे, जिनको हालांकि किसानों के प्रतिरोध के द्वारा रद्द करवा दिया गया।  

इंगलैंड में जिस पूंजीवादी प्रणाली की नींव डाली गई, उसकी प्रक्रिया छोटे किसानों की दृष्टि से अत्यंत निर्मम और निष्ठुर थी। मार्क्स कहते हैं – ”उसकी प्रस्तावना 15वीं शताब्दी की आखिरी तिहाई में और 16वीं शताब्दी के पहले दशक में लिखी गयी थी। इस काल में सामंतों के भृत्यों और अनुगामियों के दल भंग कर दिये गये और इसके फलस्वरूप स्वतंत्र सर्वहारा मजदूरों की एक बहुत बड़ी संख्या श्रम की मंडी में झोंक दी गयी।” लेकिन इससे कहीं अधिक बड़ा सर्वहारा वर्ग किसानों को जबर्दस्ती उनकी जमीनों से खदेड़कर और सामूहिक एवं सामुदायिक भूमि को छीनकर पैदा किया गया। माक्र्स लिखते हैं – ”नया अभिजात वर्ग अपने युग की संतान था, जिसके लिए पैसा ही सबसे बड़ी ताकत थी। इसलिए उसका नारा था कि खेती की जमीनों को भेड़ों के बाड़ों में बदल डालो!” Description of England Prefixed to Holinshed’s Chronicles के रचनाकार हैरिसन, जैसा कि मार्क्स बताते हैं, लिखते हैं कि किस तरह किसानों के घर और मजदूरों के झोंपड़े या तो गिरा दिये गये या सड़-गलकर गिर जाने के लिए छोड़ दिये। हैरिसन ने लिखा है “मैं ऐसे कस्बों के बारे में कुछ बता सकता हूं, जिनको गिराकर भेड़ों के बाड़े बना दिये गये हैं।” 

मार्क्स हेनरी सातवें की जीवनी लिखने वाले बेकन के हवाले से कहते हैं कि “उस समय (1479 में) सामूहिक जमीन को घेरकर अपनी व्यक्तिगत संपत्ति बना लेने का चलन बहुत बढ़ गया, जिसके फलस्वरूप खेती की जमीन (जिसे लोगों और उनके बाल-बच्चों के अभाव में जोतना-बोना संभव नहीं था) चारागाह में बदल दी गयी, जिसपर चंद गड़रिये बड़ी आसानी से ढोरों के रेवड़ की देखभाल कर सकते थे; और जिन जमीनों पर किसानों को एक निश्चित अवधि के लिए, जीवन भर के लिए या अस्थायी तौर, पर अधिकार मिला हुआ था” (और अधिकतर स्वतंत्र कृषक इसी प्रकार की जमीनों पर रहते थे), “वे सामंतों की सीर बन गयीं।” मार्क्स लिखते हैं कि छोटे काश्तकारों और किसानों के संपत्तिहरण के विरुद्ध लोगों ने बहुत शोर मचाया और हेनरी सातवें के बाद डेढ़ सौ वर्ष तक इस संपत्तिहरण को रोकने के लिए अनेक कानून भी बनाये गये। लेकिन दोनों ही चीजें व्यर्थ सिद्ध हुई। … पूंजीवादी व्यवस्था के लिए यह आवश्यक था कि जनसाधारण पतन और लगभग दासत्व की स्थिति में हों, उनको भाड़े के टट्टुओं में परिणत कर दिया जाये और उनके श्रम के साधनों को पूंजी में बदल दिया जाये। 

”लोगों की संपत्ति का बलपूर्वक अपहरण कर लेने की प्रक्रिया को 16वीं शताब्दी में रोमन चर्च के सुधार से और उसके फलस्वरूप चर्च की संपत्ति की लूट से एक नया और जबर्दस्त बढ़ावा मिला। चर्च-सुधार के समय कैथोलिक चर्च इंगलैंड की भूमि के एक बहुत बड़े हिस्से का सामंती स्वामित्व था। जब मठों आदि पर ताले डाल दिये गये, तो उनमें रहनेवाले लोग सर्वहारा की पांतों में भर्ती हो गये। चर्च की जागीरें अधिकतर राजा के लुटेरे कृपा-पात्रों को दे दी गयीं या नाम मात्र के दाम पर सट्टेबाज काश्तकारों के हाथ बेच दी गयीं, जिन्होंने सारे के सारे पुश्तैनी शिकमीदारों को जमीन से खदेड़ दिया और उनकी जोतों को मिलाकर एक कर लिया।”      

मार्क्स आगे लिखते हैं – ”17वीं शताब्दी के अंतिम दशक में भी स्वतंत्र किसानों का वर्ग काश्तकारों के वर्ग से संख्या में अधिक था। … 1750 के लगभग स्वतंत्र किसानों के इस वर्ग का लोप हो गया था, और उसके साथ साथ 18वीं शताब्दी के अंतिम दशक में खेतिहर मजदूरों की सामूहिक भूमि का भी आखिरी निशान तक गायब हो गया था। यहां हम खेती में होने वाली क्रांति के विशुद्ध आर्थिक कारणों पर विचार नहीं कर रहे हैं। यहां तो हम केवल जोर-जबर्दस्ती के तरीकों की चर्चा कर रहे हैं।”

”सामुदायिक संपत्ति, जिसे हमें उस राजकीय संपत्ति से सदा अलग करके देखना चाहिए, जिसका अभी-अभी वर्णन किया गया है, एक पुरानी ट्यूटोनिक प्रथा थी, जो सामंतवाद की रामनामी ओढ़कर जीवित थी। हम यह देख चुके हैं कि किस प्रकार 15वीं शताब्दी के अंत में इस सामुदायिक संपत्ति का बलपूर्वक अपहरण आरंभ हुआ था और 16वीं शताब्दी में जारी रहा था और किस तरह उसके साथ-साथ आम तौर पर खेती की जमीनें चरागाहों की जमीनों में बदल दी गयी थीं। परंतु उस समय यह प्रक्रिया व्यक्तिगत हिंसक कार्यों के द्वारा संपन्न हो रही थी, जिनको रोकने के लिए कानून बना-बनाकर डेढ़ सौ वर्ष तक बेकार कोशिशें होती रहीं। 18वीं शताब्दी में जो प्रगति हुई, वह इस रूप में व्यक्त होती है कि कानून खुद लोगों की जमीनें चुराने का साधन बन जाता है। … इस लूट का संसदीय रूप सामुदायिक जमीनों की बाड़ाबंदी से संबंधित कानूनों या उन अध्यादेशों की शक्ल में सामने आता है, जिनके द्वारा जमींदार जनता की जमीन को अपनी निजी संपत्ति घोषित कर देते हैं और जिनके द्वारा वे जनता की संपत्ति का अपहरण कर लेते हैं।” 

“एक ओर, स्वतंत्र किसानों का स्थान कच्चे असामियों, साल-साल भर के पट्टों पर जमीन जोतनेवाले छोटे काश्तकारों और जमींदारों की दया पर निर्भर रहनेवाले दासों जैसे लोगों की भीड़ ने ले लिया। दूसरी ओर, राजकीय जागीरों की चोरी के साथ-साथ सामुदायिक जमीनों की सुनियोजित लूट ने खास तौर पर उन बड़े फार्मों का आकार बढ़ाने में मदद दी, जो 18वीं शताब्दी में कैपीटल फार्म या सौदागरों के फार्म कहलाते थे, और साथ ही खेतिहर आबादी को कल कारखानों वाले उद्योगों में काम करने के लिए “उन्मुक्त करके” सर्वहारा में परिणत कर दिया।”

लेकिन माक्र्स यह याद दिलाते हैं कि ”18वीं शताब्दी ने अभी तक 19वीं शताब्दी की भांति पूरे तौर पर यह बात नहीं स्वीकार की थी कि राष्ट्र का धन और जनता की गरीबी – ये दोनों एक ही चीज हैं। चुनांचे उस जमाने के आर्थिक साहित्य में “सामुदायिक जमीनों की बाड़ाबंदी” के प्रश्न के संबंध में हमें बड़ी गरम बहसें सुनने को मिलती हैं। … कुल मिलाकर निचले वर्गों के लोगों की हालत लगभग हरेक दृष्टि से पहले से ज्यादा खराब हो जाती है। पहले वे जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों के मालिक थे; अब उनकी हैसियत मजदूरों और भाड़े के टट्टुओं की हो जाती है, और साथ ही उनके लिए इस अवस्था में अपना जीवन-निर्वाह करना और अधिक कठिन हो जाता है। बल्कि सच तो यह है कि सामुदायिक जमीनों के अपहरण का और उसके साथ-साथ खेती में जो क्रांति आ गयी थी, उसका खेतिहर मजदूरों पर इतना बुरा प्रभाव पड़ा था कि 1765 और 1780 के बीच उनकी मजदूरी आवश्यक अल्पतम मजदूरी से भी कम हो गयी थी और वे गरीबों के कानून के मातहत सार्वजनिक सहायता लेने लगे थे। … जीवन के लिए नितांत आवश्यक वस्तुएं खरीदने के लिए जो रकम जरूरी होती थी खेतिहर मजदूरों की मजदूरी उससे अधिक नहीं होती थी।”

मार्क्स उस समय के पूंजीवादी टिप्पणीकारों के बौद्धिक दिवालियापन और झांसे की पोल खोलते हुए हमें यह बताते हैं कि ”15वीं शताब्दी की अंतिम तिहाई से लेकर 18वीं शताब्दी के अंत तक जनता की संपत्ति का जिस तरह बलपूर्वक अपहरण होता रहा और उसके साथ-साथ जो चोरियां और अत्याचार होते रहे और जनता पर जो मुसीबत का पहाड़ टूटता रहा, उस सबका अध्ययन करने के बाद सर एफ. एम. ईडन केवल इस सुविधाजनक परिणाम पर ही पहुंचते हैं कि “खेती की जमीन और चरागाह की जमीन के बीच एक सही अनुपात कायम करना जरूरी था। … 19वीं शताब्दी में, जाहिर है, इस बात की किसी को याद तक नहीं रह गयी कि खेतिहर मजदूर का सामुदायिक जमीन से भी कभी कोई संबंध था। अभी हाल के दिनों की बात जाने दीजिये; 1801 और 1831 के बीच जो 35,11,770 एकड़ सामुदायिक जमीन खेतिहर आबादी से छीन ली गयी और संसद के हथकंडों के जरिये जमींदारों के द्वारा जमींदारों को भेंट कर दी गयी, क्या उसके एवज में खेतिहर आबादी को एक कौड़ी का भी मुआवजा मिला है?” 

मार्क्स हमें बताते हैं कि ”बड़े पैमाने पर खेतिहर आबादी की भूमि के अपहरण की अंतिम क्रिया वह है, जिसका नाम है “जागीरों को साफ करना”, अर्थात् उनको जनविहीन बना देना। इंगलैंड में भूमिहरण के जितने तरीकों पर हमने अभी तक विचार किया है, वे सब मानो इस “सफाई” के रूप में अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाते हैं। … जहां उजाड़े जाने के लिए स्वतंत्र किसान नहीं रह गये हैं, वहां झोंपड़ों की “सफाई” शुरू हो जाती है, जिससे खेतिहर मजदूरों को उस भूमि पर, जिसे वे जोतते-बोते हैं, रहने के लिए एक चप्पा जमीन भी नहीं मिलती।” 

”लेकिन ‘जागीरों की सफाई’ का असल में और सही तौर पर क्या मतलब होता है, यह हमें केवल आधुनिक रोमानी कथा-साहित्य की आदर्श भूमि, स्कॉटलैंड के पर्वतीय प्रदेश में ही देखने को मिलता है। वहां इस प्रक्रिया की विशेषता यह है कि वह बड़े सुनियोजित ढंग से संपन्न होती है; एक ही चोट में बड़े भारी इलाके की सफाई हो जाती है (आयरलैंड में जमींदारों ने कई-कई गांव एक साथ साफ कर दिये हैं, पर स्कॉटलैंड में तो जर्मन रियासतों जितने बड़े इलाके एक ही बार में साफ कर दिये जाते हैं); और अंतिम बात यह कि गबन की हुई जमीनें एक विचित्र प्रकार की संपत्ति का रूप धारण कर लेती हैं।”

सर्वहारा मजदूर वर्ग के रूप में किसानों के परिवर्तन को वास्तव में अमल में कैसे लाया गया इसके बारे में मार्क्स हमें बताते हैं कि ”18वीं शताब्दी में अपनी जमीनों से खदेड़े हुए गेल लोगों को देश छोड़कर चले जाने की भी मनाही कर दी गयी, ताकि उनके सामने ग्लासगो तथा अन्य औद्योगिक नगरों में जाकर रहने के सिवा और कोई चारा न रह जाये।” 

मार्क्स एक दिलचस्प लेकिन बहुत ही निर्मम और घिनौनी प्रक्रिया का जिक्र यह बताने के लिए करते हैं कि किसानों अथवा मूल निवासियों को उनकी जगहों व जमीनों से बेदखल करने के लिए 19वीं शताब्दी में किस तरह के हथकंडे इस्तेमाल किए गए। मार्क्स लिखते हैं – ”इसके एक उदाहरण के रूप में केवल सदरलैंड की डचेस द्वारा की गयी “सफाई” का जिक्र कर देना काफी होगा। यह महिला अर्थशास्त्र में पारंगत थी। इसलिए अपनी जागीर की बागडोर संभालते ही उसने उसमें एक मौलिक सुधार करने का निश्चय किया और तय कर दिया कि वह अपनी पूरी काउंटी को, जिसकी आबादी इसी प्रकार की अन्य कार्रवाइयों के फलस्वरूप पहले ही केवल 15,000 रह गयी थी, भेड़ों की चरागाह में बदल देगी। 1814 से 1820 तक इन 15,000 निवासियों के लगभग 3,000 परिवारों को सुनियोजित ढंग से उजाड़ा और खदेड़ा गया। उनके सारे गांव नष्ट कर दिये गये और जला डाले गये। उनके तमाम खेतों को चरागाहों में बदल दिया गया। उनको बेदखल करने के लिए अंग्रेज सिपाही भेजे गये, जिनकी गांवों के निवासियों के साथ कई बार मार-पिटाई हुई। एक बुढ़िया ने अपने झोंपड़े से निकलने से इनकार कर दिया था। उसे उसी में जलाकर भस्म कर दिया गया। इस प्रकार इस भद्र महिला ने 7,94,000 एकड़ ऐसी जमीन पर अधिकार कर लिया, जिसपर बाबा आदम के जमाने से कुल का अधिकार था। … मूलवासियों में से बचे-खुचे लोग समुद्र के किनारे पर पटक दिये गये, जहां वे मछलियां पकड़कर जिंदा रहने की कोशिश करने लगे। एक अंग्रेज लेखक के शब्दों में, ये लोग जलस्थलचर बन गये थे और आधे धरती पर और आधे पानी में रहते थे, और फिर भी दोनों जगह अर्धजीवित अवस्था में ही रह पाते थे। … अंत में भेड़ों की चरागाहों का एक हिस्सा हिरनों के जंगलों में बदल दिया जाता है। जिन घाटियों में कभी छोटे काश्तकारों की बस्तियां बसी हुई थीं, उनमें भेड़ों को बसा दिया गया था और काश्तकारों को ज्यादा खराब और कम उपजाऊ जमीन पर भोजन तलाश करने के लिए खदेड़ दिया गया था। अब भेड़ों का स्थान हिरन ले रहे हैं, और अब हिरन छोटे काश्तकारों का घर-द्वार छीनते जा रहे हैं। इन काश्तकारों को अब पहले से भी ज्यादा खराब जमीन पर जाकर बसना होगा और पहले से भी अधिक भयानक गरीबी में जीवन बिताना पड़ेगा। हिरनों के जंगलों और मनुष्यों का सह-अस्तित्व असंभव है। दोनों में से एक न एक को हट जाना पड़ेगा। पिछले पचीस साल से जंगल संख्या और विस्तार में जिस तरह बढ़ रहे हैं, उसी तरह अगले पचीस साल तक उन्हें और बढ़ने दीजिये, तो पूरी की पूरी गेल जाति अपने देश से निष्कासित हो जायेगी… पर्वतीय प्रदेश के भूस्वामियों में से कुछ के लिए हिरनों के जंगल बनाने की इच्छा ने एक महत्त्वाकांक्षा का रूप धारण कर लिया हैं… कुछ शिकार के शौक के कारण यह काम करते हैं…और दूसरे, जो अधिक व्यावहारिक ढंग के लोग हैं, केवल मुनाफा कमाने की दृष्टि से हिरनों का धंधा करते हैं। कारण कि बहुत सी पहाड़ियों को भेड़ों की चरागाहों के रूप में ठेके पर उठाने की अपेक्षा उनको हिरनों के जंगलों के रूप में इस्तेमाल करने में मालिकों को अधिक लाभ रहता है.. शिकार के लिए हिरनों का जंगल चाहनेवाला शिकारी उसके लिए कोई भी रकम देने को तैयार रहता है। अपनी थैली के आकार के सिवा वह इस मामले में और किसी चीज का खयाल नहीं करता…. हिरनों के निवास स्थानों का विस्तार अधिकाधिक बढ़ता जाता है, जब कि मनुष्यों को एक अधिकाधिक संकुचित घेरे में बंद किया जा रहा है… जनता के एक के बाद दूसरे अधिकार की हत्या हो रही है. अत्याचार दिन प्रति दिन बढ़ते ही जा रहे हैं… लोगों को उनकी जमीनों से हटाना और इधर-उधर बिखेर देना मालिकों के लिए एक निर्णीत सिद्धांत और खेती की आवश्यकता बन गया है। वे इन्सानों की बस्तियों का उसी तरह सफाया करते हैं, जिस तरह अमरीका या आस्ट्रेलिया में परती जमीन पर खड़े हुए पेड़ों या झाड़ियों को हटाया जाता है, और यह कार्य बहुत ही खामोशी के साथ और बड़े कामकाजी ढंग से किया जाता है, इत्यादि।”

मार्क्स अंतिम में निष्कर्ष के तौर पर पूंजीवादी विकास के लिए हुए आदिम संचय को इस तरह व्याख्यायित करते हैं – ”चर्च की संपत्ति की लूट, राज्य के इलाकों पर धोखेधड़ी से कब्जा कर लेना, सामूहिक भूमि की डाकाजनी, सामंती संपत्ति तथा कुलों के संपत्तिहरण और आतंकवादी तरीकों का अंधाधुंध प्रयोग करके उसे आधुनिक ढंग की निजी संपत्ति में बदल देना- ये ही वे सुंदर तरीके हैं, जिनके जरिये आदिम संचय हुआ था। इन तरीकों के जरिये पूंजीवादी खेती के लिए मैदान साफ किया गया, भूमि को पूंजी का अभिन्न अंग बनाया गया, और शहरी उद्योगों की आवश्यकता को पूरा करने के लिए एक “स्वतंत्र” और निराश्रय सर्वहारा को जन्म दे दिया गया।” इस तरह उपरोक्त बर्बर तरीके अपनाकर इंगलैंड में आधुनिक सर्वहारा मजदूर वर्ग का उदय हुआ है। 

(कार्ल मार्क्स की रचना पूंजी का प्रथम खंड 14 सितम्बर 1867 को जर्मन भाषा में प्रकाशित हुआ था)

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1. जहां ज्यादा बड़ी जागीरों में पुराने कारिंदे (पहले समय का कृषि दास) का स्थान स्वतंत्र कृषकों ने ले लिया था वहीं मजदूरी लेकर खेती में काम करनेवाले मजदूरों का एक भाग भी किसानों का था जो अवकाश के समय बड़ी जागीरों में काम करने चले आते थे। अन्य भाग वेतनभोगी, मजदूरों के एक स्वतंत्र एवं विशिष्ट वर्ग का था, जिनकी संख्या सापेक्ष एवं निरपेक्ष दोनों दृष्टियों से बहुत कम थी, लेकिन इन्हें भी एक तरह से किसान कहा जा सकता था, क्योंकि मजदूरी के अलावा उनको अपने घरों के साथ-साथ 4 एकड़ या उससे ज्यादा खेती के लायक जमीन भी मिल जाती थी। इसके अतिरिक्त अन्य किसानों के साथ-साथ इन लोगों को भी गांव की सामुदायिक भूमि के उपयोग का अधिकार मिला हुआ था, जिसपर उनके ढोर चरते थे और जिससे उनको इमारती लकड़ी जलाने के लिए लकड़ी, पीट, आदि मिल जाती थी।