बीसवीं शताब्दी के प्रगतिशील कवि दुष्यंत कुमार के 89वें जन्मदिवस पर उनकी कविताएं
September 18, 2022आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख
घर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख
एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख
अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह
यह हकीकत देख लेकिन खौफ के मारे न देख
वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ, उन हाथों में तलवारें न देख
दिल को बहला ले इजाजत है मगर इतना न उड़
रोज सपने देख, लेकिन इस कदर प्यारे न देख
ये धुंधलका है नजर का, तू महज मायूस है
रोजनों को देख, दीवारों में दीवारें न देख
राख, कितनी राख है चारों तरफ बिखरी हुई
राख में चिंगारियां ही देख, अंगारे न देख।
कहां तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए
कहां तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए
कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए
न हो कमीज तो घुटनों से पेट ढंक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए
खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए
तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की
ये एहतियात जरूरी है इस बहार के लिए
जिएं तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।