भारत में गरीबी के आंकड़ों की दरिद्रता

October 16, 2022 0 By Yatharth

एम असीम

1960 के दशक से अब तक भारत में गरीबी के स्तर को लेकर कई विशेषज्ञ कमेटियां बनीं। कई बार बड़े सर्वेक्षण हुए। बहुत से विद्वत्तापूर्ण विश्लेषण व रिपोर्ट भी प्रकाशित हुए। मगर गरीबी का पैमाना व इसकी तादाद अत्यंत विवाद का विषय ही बना रहा। किसे गरीब माना जाए और गरीबों की गणना कैसे की जाए यह तय करने पर ही बहुत सी बहसें हुईं हैं। पूंजीपतियों के थिंक टैंक व सरकारी प्रतिष्ठानों के करीबी विद्वान हमेशा यह सबूत इकट्ठा करते रहे हैं कि सरकारी नीतियों की वजह से हुए तीव्र विकास से गरीबी में भारी कमी आ रही है। लेकिन जीवन की वास्तविकताओं पर आधारित तथ्य सामने लाते हुए इस दावे पर हमेशा सवाल भी उठाए जाते रहे हैं। हम सभी जानते हैं कि पिछले कुछ सालों में संगठित-असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, मेहनतकश किसानों व सभी छोटे काम-धंधे करने वालों के जीवन में भारी आर्थिक संकट है, नौकरियों में कटौती हुई है, प्रवासी मजदूरों को काम के अभाव में वापस गांवों में लौटना पड़ा है, मजदूरी घटी है, बेरोजगारी व महंगाई तेजी से बढ़ी है, भूख सूचकांक तक में भारत नीचे की ओर लुढ़क रहा है। किंतु पिछले दिेनों आए दो ‘विद्वत्तापूर्ण’ अध्ययनों में गरीबी में बड़ी कमी या गरीबी के लगभग समाप्त हो जाने के दावे किये गए हैं। इस ने इस बहस को फिर से गर्म कर दिया है।

भारत में गरीबी संबंधित आधिकारिक अध्ययनों का मुख्य आधार नेशनल सैम्पल सर्वे द्वारा किये गए उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण (सीईएस) रहे हैं। पर इसके अंतिम उपलब्ध आंकड़े 2011-12 के ही हैं। 2017-18 के सर्वेक्षण के आंकड़ों को सरकार ने ही गलत कहकर रद्द कर दिया। उन्हें आधिकारिक तौर पर सार्वजनिक तक नहीं किया गया। हालांकि इनके बारे में जो खबरें आईं उनके अनुसार ये गरीबी की अत्यंत बदतर तस्वीर पेश कर रहे थे, जो सरकार को नापसंद था। अतः सरकार ने खुद अपने ही सर्वेक्षण की पद्धति को गलत कहकर इसके नतीजों को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। 2011-12 पश्चात आंकड़ों के अभाव में गरीबी के स्तर पर नए अध्ययन भी रुक से गए थे, हालांकि नोटबंदी व कोविड के दौर में मजदूरों-किसानों व अन्य छोटे कम-धंधे करने वालों के जीवन में आर्थिक विपदा व उनकी आय में कमी की खबरें आतीं रही हैं। कोविड के बाद तो 23 करोड़ से अधिक व्यक्तियों तक के गरीबी में धकेल दिए जाने का अनुमान लगाया जा चुका है। कोविड के बाद से k के आकार की आर्थिक ‘वृद्धि’ की चर्चा जोरों से होती रही है अर्थात जो पहले से अमीर हैं वे और ऊपर की ओर जा रहे हैं तथा गरीब और भी अधिक नीचे की ओर। 

गरीबी के स्तर पर पुरानी बहस हाल के दिेनों में फिर से उठ खडी हुई है। वजह है आईएमएफ व विश्व बैंक से संबंधित कुछ अर्थशास्त्रियों के इस संबंधी दो शोधपत्र का प्रकाशन। इन दोनों में विश्व बैंक के 1.9 डॉलर के समान (लगभग 150) रुपया से कम रोजाना खर्च को गरीबी का पैमाना माना गया है। इनमें से एक आईएमएफ बोर्ड में भारतीय प्रतिनिधि सुरजीत भल्ला, यूपीए दौर में आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद विरमानी व करन भसीन का है। भल्ला पिछले 20 साल से कहते चले आ रहे हैं कि गरीबी के आधिकारिक आकलन वास्तविकता से अधिक गरीबी दिखाते हैं और असल में भारत में इतनी गरीबी है ही नहीं। इस बार तो उनका दावा है कि 2004 में 31.9% रही तीक्ष्ण गरीबी 2019 में ही लगभग समाप्त हो चुकी थी (मात्र 0.8%)। उनके अनुसार आय पर कोविड लॉकडाउन का दुष्प्रभाव भी सरकार ने मुफ्त अनाज बांट कर समाप्त कर दिया। अतः इससे भी गरीबी बढ़ी नहीं।  

पर श्रीमान भल्ला, आदि भारत में तीक्ष्ण गरीबी की समाप्ति के इस आश्चर्यजनक निष्कर्ष पर आखिर पहुंचे कैसे? भल्ला मुताबिक सीईएस के खर्च आंकड़े सैम्पल सर्वे आधारित होने से वास्तविकता से नीचे होते हैं। अतः वे गरीबी की मात्रा अधिक दिखाते हैं। उनके अनुसार इसकी जगह राष्ट्रीय आय या सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) गणना के लिए एकत्र निजी उपभोक्ता खर्च को गरीबी की गणना का आधार बनाना चाहिए। हालांकि अध्ययन बताते हैं कि दुनिया भर में ही राष्ट्रीय आय गणना के व्यय आंकड़े उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण से अधिक पाए जाते हैं। (क्या इसलिए कि सभी सरकारें अर्थव्यवस्था में वृद्धि की सुनहरी तस्वीर पेश करना चाहती हैं?) पर भारत में तो यह अंतर न सिर्फ बहुत ही ज्यादा है बल्कि बढ़ता ही जा रहा है – 2004-05 में यह अंतर दो गुने का था तो 2017-18 के अनाधिकारिक आंकड़ों के अनुसार जीडीपी आंकड़ों के अनुसार उपभोक्ता खर्च सैंपल सर्वे की तुलना में तीन गुना था। अर्थात जीडीपी आंकड़ों के अनुसार आय भी सैंपल सर्वे से तीन गुना थी। अब इस आधार पर श्रीमान भल्ला को अगर देश में कोई गरीबी रेखा से नीचे नहीं मिला तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? यह तो जांचा-परखा वैज्ञानिक सत्य है कि अगर कोई व्यक्ति अपनी पसंद के आंकड़ों को ही निष्कर्ष का आधार बनाए तो उससे उसकी पसंद की बात को सिद्ध किया ही जा सकता है!

सवाल उठता है कि सकल घरेलू उत्पादन या जीडीपी के आंकड़े सैंपल सर्वे की तुलना में अधिक आय क्यों दिखाते हैं? सर्वविदित है कि 2015 में जीडीपी गणना की जो नई पद्धति अपनाई गई उस पर देश-विदेश के बहुत से अर्थशास्त्रियों द्वारा पहले ही प्रश्न उठाए जा चुके हैं। हम उनके विस्तार में जाए बगैर बस एक मुख्य बात के जिक्र तक ही सीमित रहेंगे। राष्ट्रीय आय या जीडीपी गणना असल में देश भर में कुल आर्थिक गतिविधि की गणना पर आधारित है ही नहीं। इसमें औपचारिक क्षेत्र या उसमें भी कहें तो कंपनी के तौर पर पंजीकृत व्यवसायों को ही आधार बनाया गया है। उनमें से ही जितनी कंपनियां सरकारी डेटाबेस में अपनी आर्थिक गतिविधि की रिपोर्ट देती हैं सिर्फ उनके आंकड़ों को ही पूरी अर्थव्यवस्था के पैमाने पर गुणा-भाग के जरिए विस्तारित कर जीडीपी की गणना कर ली जाती है। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था का लगभग आधा हिस्सा आज भी अनौपचारिक क्षेत्र में है जिसके लिए कोई आधिकारिक आंकडा उपलब्ध नहीं होता। साथ ही हमें यह भी मालूम है कि पिछले दशक में खास तौर पर नोटबंदी, जीसटी व लॉकडाउन में अनौपचारिक क्षेत्र की स्थिति लगातार कमजोर हुई है जबकि बड़े इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के मुनाफे व दौलत में वृद्धि हुई है। ऐसे में इस कॉर्पोरेट पूंजी की आय को ही पूरे देश की आय की गणना का आधार बनाने से जो नतीजा निकल सकता था, वह मिल जाता है। इसके विपरीत जब सर्वेक्षण करने वाले कुछ सैंपल परिवारों में पता करने जाते हैं तो वहां खर्च व आय इसकी तुलना में काम मिलता है। किंतु इस गलत राष्ट्रीय आय (जीडीपी) से श्रीमान भल्ला आदि (और उनके राजनीतिक आकाओं) को इच्छित नतीजा मिल गया है। अतः वे इसके आधार पर तीव्र आर्थिक वृद्धि व गरीबी की समाप्ति के अपने दावे का ढोल पीटने में लग गए हैं।

सुतीर्थ सिन्हा रॉय एवं रॉय वेन डेर वेड लिखित विश्व बैंक का शोधपत्र कहता है, “पिछले दशक में भारत में गरीबी घटी है, पर उतनी नहीं जितनी पहले सोचा गया था।” इनके अनुसार 1993 में गरीबी 47.6%, 2004 में 39.9% तथा 2011 में 22.5% थी (सभी सीईएस पर आधारित) जबकि 2019 में यह घटकर 10.2% रह गई। इन्होंने अपने अध्ययन का आधार सीएमआईई के कंज्‍यूमर पिरैमिड हाउसहोल्ड सर्वे (सीपीएचएस) को बनाया है। पर सीपीएचएस के बारे में पहले ही कई विशेषज्ञ यह कहते आए हैं कि इस सर्वेक्षण के आंकडों में अति-गरीबों को उपयुक्त जगह मिलती ही नहीं, क्योंकि इसके सर्वेक्षणकर्ता मुख्य सड़कों से अंदर की गलियों में जाते ही नहीं, जबकि वास्तविक गरीब लोग ऐसी अंदर व पीछे की जगहों पर ही रहते हैं। स्वाभाविक भी है क्योंकि इस सर्वेक्षण के आंकड़ों के लिए भुगतान करने वाली कंपनियां इनका इस्तेमाल ग्राहकों की आय व संख्या का अनुमान व तदनुरूप बिक्री की अपनी रणनीति बनाने हेतु करती हैं, और अति गरीब उनके उत्पादों के ग्राहक न होने से उनके लिए कोई महत्व नहीं रखते। वैसे यह भी गौरतलब है कि विश्व बैंक की ही एक और रिपोर्ट ‘पावर्टी एंड शेयर्ड प्रास्पेरिटी 2022’ के अनुसार 2020 में कोविड दौरान 7 करोड़ और लोग अत्यंत गरीबी में गए। इसमें से 80% या 5.6 करोड़ सिर्फ भारत के हैं।

अगर हम इन दोनों अध्ययनों के आंकडों की इस दौरान हुए कुछ अन्य सर्वेक्षणों के आंकडों से तुलना करें तो इनकी विश्वसनीयता पर बड़े ही गंभीर सवाल उठ खड़े होते हैं। प्यू, प्राइस, ऑक्सफैम, आदि एजेंसियों या खुद विश्व बैंक के 2021 के सर्वे बताते हैं कि कोविड महामारी के दौरान आय में असमानता तेजी से बढ़ी है और 84% परिवारों की आय घटी है। 2016 में नोटबंदी के पहले जहां काम की उम्र वालों में रोजगार दर 46% थी, अब वह घटकर 36% ही रह गई है। सभी सर्वेक्षण कहते हैं कि 2012 के बाद से ग्रामीण व शहरी दोनों इलाकों में नियमित व दिहाड़ी दोनों प्रकार के श्रमिकों की मजदूरी घटी है या स्थिर रही है। 2017-18 से 2019-20 की अवधि में स्वरोजगार के 52%, दिहाड़ी मजदूरों के 30% तथा नियमित मजदूरों के 21% की दैनिक आय 200 रु से कम थी। साथ ही इनमें से क्रमशः 16, 36 व 19% की आय 200 से 300 रु रोजाना थी। फिर इसी दौर में महंगाई भी तेजी से बढ़ी है जिसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव सबसे अधिक गरीबों पर ही पड़ता है। खुद श्रीमान भल्ला 5 किलो मुफ़्त राशन के महत्व को स्वीकारते हैं। ऐसे में कौन उनके अध्ययन के इस निष्कर्ष को विश्वसनीय मान सकता है कि भारत में गरीबी समाप्त प्राय है?

वैसे तो उपरोक्‍त से ही यह जाहिर हो गया होगा कि गरीबी के ये तमाम अध्ययन, आंकड़े और विश्लेषण सामाजिक वास्तविकता की नुमाइंदगी नहीं करते। कहा जाए तो इनमें आंकड़ों की बाजीगरी ही अधिक है। ऐसे अध्ययनों का मकसद सरकार विशेष की नीतियों का समर्थन या विरोध ही अधिक है। अतः हमारे समाज की शोषित-पीड़ित गरीब मेहनतकश जनता के जीवन में सुधार या गिरावट, कि‍स दिशा में परिवर्तन आ रहा है, ये आंकड़े उसे बताने में पूरी तरह व्यर्थ हैं।

असल में रोजाना व्यय की अधिकतम सीमा जैसे 29 या 35 रु, 74 रु, 150 रु, आदि या कुछ विशिष्ट वस्तुओं के मालिकाने के आधार पर गरीबी को तय करना ही अतार्किक है। अगर ऐसे ही विचार किया जाए तो आज के अधिकांश लोगों के मुकाबले अकबर या चन्द्रगुप्त को गरीब सिद्ध किया जा सकता है – उनके पास वह बहुत कुछ नहीं था जो आज के जीवन की सामान्य वस्‍तुएं हैं! वास्तव में गरीबी का अध्ययन करना है तो हमें देखना चाहिए कि आज जो सामाजिक संपदा है उसमें समाज के विभिन्न तबकों की हिस्सेदारी या उपभोग की क्षमता कितनी है। समाज के जिन लोगों के पास आज उपलब्ध सामाजिक संसाधनों के उपभोग में हिस्सा लेने का समुचित अधिकार नहीं है उन सभी को गरीब-वंचित मानना चाहिए। जो लोग पर्याप्त व संतुलित भोजन का खर्च वहन नहीं कर सकते, बेघर हैं, न्यूनतम शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते, समान स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाएं प्राप्त नहीं कर सकते, उन्हें गरीब ही मानना चाहिए। 29, 35, 74, 150 रु, आदि रोजाना खर्च की क्षमता को गरीबी का पैमाना बनाना बुनियादी रूप से ही गलत है। अगर ऐसा पैमाना बनाना ही है, तब भी सरकार के वेतन आयोग ने एक परिवार को चलाने हेतु जरूरी पोषण, निवास, वस्त्र, शिक्षा, दवा, मनोरंजन, आदि की जितनी जरूरत निर्धारित की है और जिसके आधार पर एक सरकारी कर्मचारी का न्यूनतम जीवन योग्य वेतन तय किया गया है, उससे कम व्यय की क्षमता को ही गरीबी का आधार मानना तार्किक होगा क्योंकि खुद सरकारी तर्क से वह मानवीय जीवन की न्यूनतम आवश्यकता है। जो भी इस न्यूनतम मानवीय आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकता, उसे गरीब मानना ही तार्किक है।

अगर हम स्वतंत्रता पश्चात इतिहास का तार्किक विश्लेषण करें तो पाएंगे कि 1950 के बाद जब तक भारतीय पूंजीवाद कुछ हद तक अपना विस्तार कर रहा था, तो आय व संपदा के केंद्रीकरण व असमानता में कुछ हद तक कमी आई थी। इस विस्तार का लाभ शिक्षा, नौकरियों व कृषि-व्यापार आदि में विस्तार के जरिए आम जनता के कुछ हिस्सों तक भी पहुंचा था। परंतु पूंजीवादी विस्तार का यह काल 1980 का दशक आते-आते पूरा हो गया और भारतीय पूंजीवाद ने वह नीतियां अपना लीं जिन्हें आजकल नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के नाम से जाना जाता है। ये नीतियां असल में पूंजीपति वर्ग द्वारा मजदूर वर्ग के खिलाफ छेड़ा गया एक युद्ध हैं। इनमें मजदूर संगठनों को कमजोर करने, मजदूरी घटाने, काम के घंटे बढ़ाने, सुरक्षा उपायों को दरकिनार करने व छंटनी (हायर व फायर) को सुगम बनाने वाली नीतियां लागू की जाती हैं; सभी सार्वजनिक संसाधनों व उद्योगों का निजीकरण कर पूंजीपतियों के हाथों में दे दिया जाता है; पूंजीपतियों की बिक्री से लेकर उनके घाटे तक को पूरा करने की जिम्मेदारी पूंजीवादी राज्य संभाल लेता है; और शिक्षा, स्वास्थ्य, निवास, यातायात, जैसी सेवाओं की सार्वजनिक व्यवस्था पर सार्वजनिक खर्च घटा उन्हें बहुत महंगा कर दिया जाता है। इसके बाद से अब तक आय, पूंजी, संपदा, संसाधनों का कुछ इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के हाथ में तेजी से संकेंद्रण हुआ है और अब तो देश के सभी संसाधन एक-एक कर निजी कॉर्पोरेट पूंजी के हाथ में सौंपे जा रहे हैं। साथ ही आम जनता के लिए जो थोड़ी बहुत सार्वजनिक सेवाएं-सुविधाएं पहले उपलब्ध थीं, उनका भी इतनी तेजी से व्यवसायीकरण कर उनके शुल्कों में भारी वृद्धि की जा रही है कि वे अधिकांश आम लोगों की पहुंच से बाहर होती जा रही हैं।

उपरोक्त नीतियों का नतीजा है कि हाल के सालों में आए लगभग सभी सर्वेक्षण बताते हैं कि जनसंख्या के ऊपरी 10% संस्तर के पास ही देश की कुल संपत्ति में से 80% से अधिक संपदा इकट्ठा हो गई है, जबकि निचले 50-60% के पास कोई संपत्ति (उत्पादन के साधन) नहीं हैं। बल्कि वे कर्ज के बोझ में दबे हैं और हर दिन अपनी मेहनत बेच कर किसी तरह जिंदा रहते हैं। यह अवसर भी निरंतर बढ़ते आर्थिक संकट और बेरोजगारी की वजह से कम होते जा रहे हैं। ऐसे में गरीबी कम होने के आंकड़े एक निर्दय मजाक से अधिक कुछ नहीं हैं। ये तथाकथित अध्ययन कुछ ऐसे करीयरवादी बुर्जुआ विशेषज्ञ कर रहे हैं जो इसी शोषण आधारित पूंजीवादी व्यवस्था में सुधार द्वारा गरीबी दूर होने के छद्म सपने दिखाकर मजदूर वर्ग व अन्य मेहनतकश जनता को भ्रमित कर व उन्हें अपने अधिकारों व शोषण मुक्ति के लिए संघर्ष से भटकाना चाहते हैं। पर मजदूर वर्ग को याद रखना चाहिए कि निजी संपत्ति व मुनाफे पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था में उनका शोषण कभी समाप्त नहीं हो सकता और इस व्यवस्था में जहां चंद पूंजीपति बड़े धन्ना सेठ बनते जाते हैं, वहीं अधिकांश मेहनतकश जनता कंगाली की ओर धकेली जाती रहती है। अतः मजदूरों-मेहनतकशों के पास अपने जीवन में सुधार के लिए पूंजीवाद की समाप्ति व मजदूर वर्ग के राज्य अंतर्गत समाजवादी समाज की स्थापना के अलावा और कोई विकल्प नहीं है।