”दस दिन जब दुनिया हिल उठी” के प्रकाशक की टिप्पणी से झांकती दो छवियां
October 19, 2022एक मजदूर वर्ग की जीत में भरोसा रखने वाले दृढ़निश्चयी लेनिन की, और दूसरी सदा की तरह ढुलमुल ट्रॉट्स्की की
अजय सिन्हा
इस लेख के प्रस्तुतकर्ता की तरफ से चंद शब्द
ट्रॉट्स्कीवादी बड़े निर्लज्ज भाव से लेनिन और ट्रॉट्स्की को एक ही तराजू पर रखने की कोशिश करते रहे हैं। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि वे लेनिन को अंतत: ट्रॉट्स्की की दिशा अपनाने के लिए मजबूर होने वाले नेता के रूप में पेश करते हैं। स्तालिन की तो बात ही करना बेकार है। उन्हें ट्रॉट्स्कीवादी निकृष्टतम भाषा में गालियां देते हैं। ट्रॉट्स्की और ट्रॉट्स्कीवादियों के झूठे दावों की पोल खोलते न जाने कितने लेख पूरी दुनिया में अब तक छप चुके हैं। उन्हीं में से एक यह लेख भी है जिसकी खूबसूरती यह है कि यह उस पुस्तक में वर्णित तथ्यों पर आधारित है जिन्हें अमेरिकी कम्युनिस्ट पत्रकार जॉन रीड ने अपनी पुस्तक में एक रनिंग कमेंटरी की तर्ज पर दर्ज किया हुआ है। इसे सभी मजदूर कार्यकर्ता साथियों को अवश्य पढ़ना चाहिए, ताकि वे यह समझ सकें कि अक्टूबर क्रांति के पीछे किसी तरह के दृढ़निश्चयी क्रांतिकारी व्यक्तित्व का दिमाग बिजली की गति से काम कर रहा था। यह निस्संदेह लेनिन थे और उनके नेतृत्व में ऊंचे दर्जे के और बोल्शेविक नेता व कार्यकता थे। लेनिन एक अद्भूत तीक्ष्ण बुद्धि वाले सिद्धांतकार के साथ-साथ क्रांति के एक ऐसे जमीनी रणनीतिकार भी थे जो किसी खास कालखंड में ठोस परिस्थितियों के ठोस मूल्यांकन के मामले में सबसे सिद्हस्त व्यवहारिक नेता भी थे। क्रांति की सफलता के बाद भी अक्टूबर क्रांति को एक जोखिम से भरा काम मानने वालों की कमी नहीं थी। लेनिन ने दिखाया कि वे ऐसे जाखिम भरे काम को करने में कितनी निपुणता से सर्वहाराओं की एक पूरी सेना का नेतृत्व कर सकते थे। जहां तक जोखिम की बात है तो ”दस दिन जब दुनिया हिल उठी” के शुरूआती पन्नों में हम इसे इस तरह व्यक्त होते देख सकते हैं –
”स्मोल्नी में इतनी उत्तेजना कभी नहीं देखी गई – यह थी उत्तेजना की पराकाष्ठा। अंधेरे गलियारे में वे ही दौड़ते-भागते आदमी, बंदूकें लिए मजदूरों के दस्ते, भारी ठसाठस भरे पोर्टफोलियो लिए परेशान नेता, जो मित्रों तथा सहायकों से घिरे हुए बहस करते, समझाते और हुक्म सुनाते एक ओर या दूसरी आरे भागे जा रहे थे। ये लोग जिन्हें अपनी सुध-बुध नहीं थी, जिन्हें अपने तन-बदन का होश न था, जो एक झपकी सोये बिना रात काम करके के अतिमानवीय श्रम के जीते-जागते उदाहरण बने हुए थे, मैले-कुचैले, दाढ़ी बढ़ी हुई, आंखें जलती हुई – ये लोग अपने प्रचंड उत्साह के बल पर अपने निश्चित लक्ष्य की ओर उद्दाम वेग से धावमान थे। उनके लिए अभी कितना काम पड़ा हुआ था! सरकारी मशीनरी अपने हाथ में लेना, नगर में व्यवस्था स्थापित करना, गैरिसन को वफादार बनाये रखना, दूमा से और उद्धार समिति से संघर्ष करना, जर्मनों को घुसने नहीं देना, केरेंस्की से लड़ने की तैयारी करना, यहां जो घटनाएं हुईं हैं उनकी सूचना प्रांतों में पहुंचाना, पूरे देश में धुंआधार प्रचार करना, … हालत यह थी कि सरकार और नगरपालिका के कर्मचारी कमिसारों (मजदूरों की सत्ता व सरकार के मंत्री एवं प्रभारी) का हुक्म मानने से इनकार कर रहे थे, डाक-तार कर्मचारी उन्हें संचार की सुविधाएं देने से इनकार कर रहे थे, रेल कर्मचारी रेलगाड़ियों के लिए उनकी अपीलों को निष्ठुर होकर अनसुनी कर रहे थे। केरेंस्की बढ़ते आ रहे थे, गैरिसन पर पूरा पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता था, कज्जाक मौके का इंतजार कर रहे थे, बोल्शेविकों के खिलाफ संगठित पूंजीपति वर्ग ही नहीं था, बल्कि वामपंथी समाजवादी क्रांतिकारियों, मुट्ठी भर मेंशेविक-अंतरराष्ट्रीयतावादियों और सामाजिक जनवादी अंतरराष्ट्रीयतावादियों को छोड़कर – और ये लोग भी डांवांडोल थे और यह निश्चय नहीं कर पा रहे थे कि बोल्शेविकों का साथ दें या नहीं – इन्हें छोड़कर बाकी सभी समाजवादी पार्टियां उनके खिलाफ थीं। (हालांकि) यह सच है कि मजदूर और सैनिक जन समुदाय इनके साथ थे; जहां तक किसानों का सवाल था, यह पता नहीं था कि ऊंट किस करवट बैठेगा; बोल्शेविकों का राजनीतिक दल ऐसा नहीं था कि उसमें अनुभवी और शिक्षित लोगों की भरमार हो …”
जॉन रीड एक बाहरी पर्यवेक्षक की तरह दुनिया की महानतम क्रांति की घटनाओं को आंखों-देखा तथ्य के रूप में दर्ज कर रहे थे, इसलिए उनके द्वारा दर्ज तथ्यों व घटनाओं, जो ऊपरी सतह पर प्रकट हो रहे थे और घट रहे थे, के ठीक-ठीक सही होने की एक सीमा हो सकती है। पाठकों को यह सीमा समझते हुए उन्हें पढ़ना चाहिए। वे स्वयं यह लिखते हैं कि –
”यह पुस्तक, जैसा मैंने देखा, इतिहास का – जब उसकी चाल बहुत तेज हो गई हो – एक छोटा सा कतरा है। वह उस नबंवर क्रांति (नये पंचांग के अनुसार) का एक तफसीलवार बयान होने के अलावा और कुछ होने का दावा नहीं करती है, जब मजदूरों और सैनिकों का नेतृत्व करते हुए, बोल्शेविकों ने रूस में राज्य-सत्ता पर कब्जा कर लिया और उसे सोवियतों के हाथों में सौंप दिया।”
लेकिन उपरोक्त पंक्तियां इतना तो बता ही देती हैं कि स्थितियां असामान्य थीं और हर पल अनिश्चितता से भरा और नुकीले मोड़ों से पटा पड़ा था। लेनिन ने एक ऐसे कठिन और अविश्वसनीय रूप से असाधारण क्रांति का नेतृत्व किया था। हम देखेंगे कि ट्रॉट्स्की इन पलों के दौरान और इनके पहले भी कितना दृढ़निश्चयी था! वह हमेशा और हर पल इधर-उधर लुढ़कने के लिए तैयार रहता था, एक ऐसा अवगुण जो उसके व्यक्तित्व के अलावे उसके सिद्धांत में भी अंतर्भूत था। दूसरी तरफ, लेनिन थे जिनकी नजर इन अराजकताओं को चीरती हुई आने वाले उस मजदूर वर्ग के द्वारा निर्मित होने वाली एक ऐसी आकर्षक, शोषणविहीन तथा व्यवस्थित नई दुनिया पर टिकी थी जो मजदूर वर्ग को इसके लिए पल-पल इस अराजकता पर जीत दर्ज करने के लिए, सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रेरित कर रही थी और उन्हें ठीक वैसे ही दृढ़निश्चयी बना रही थी जैसे कि स्वयं उन्हें बना रही थी। इन्हीं तूफानी पलों में जॉन रीड लेनिन की एक छवि उकेरते हैं जो मजदूर वर्ग के लिए जी-जान लगाने वाले साथियों को पढ़ना चाहिए। वे लिखते हैं –
“ठीक आठ बजकर चालीस मिनट हुए थे, जब तालियों की गड़गड़ाहट के साथ सभापति मंडल के सदस्यों ने प्रवेश किया। उनमें लेनिन – महान लेनिन भी थे। नाटा कद, गठा हुआ शरीर, भारी सिर, गंजा, उभरा हुआ और मजबूती से गर्दन पर बैठा हुआ। छोटी-छोटी आंखें, चिपटी सी नाक, काफी बड़ा, फैला हुआ मुंह और भारी ठुड्डी; दाढ़ी फिलहाल सफाचट, लेकिन पहले के और बाद के वर्षों की उनकी मशहूर दाढ़ी अभी से उगने लगी थी। पुराने कपड़े पहने हुए, जिनमें पतलून उनके कद को देखते हुए खासकर लंबी थी। चेहरे-मोहरे से वह जनता के आराध्य नहीं लगते थे, फिर भी उन्हें जितना प्यार और सम्मान मिला, उतना इतिहास में विरले ही नेताओं को मिला होगा। एक विलक्षण जन-नेता, जो केवल अपनी बुद्धि के बल पर नेता बने थे। तबियत में न रंगीनी न लताफत, न ही कोई ऐसी स्वाभावगत विलक्षणता, जो मन को आकर्षित करती हो। वह दृढ़, अविचल, तथा अनासक्त आदमी थे, परंतु उनमें गहन विचारों को सीधे-सादे शब्दों में समझाने की और किसी भी ठोस परिस्थिति को विश्लेषित करने की अपूर्व क्षमता थी। और उनमें सूक्ष्मदर्शिता के साथ-साथ बौद्धिक साहसिकता कूट कूट कर भरी थी।”
तो जॉन रीड की नजरों में ऐसे थे महान लेनिन!
यहां से आगे ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ के प्रकाशक की टिप्पणी से
अमरीकी कम्युनिस्ट लेखक जॉन रीड की पुस्तक ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ 1919 में संयुक्त राज्य अमरीका में प्रकाशित हुई थी और सोवियत संघ में रूसी भाषा में वह सबसे पहले 1923 में निकली थी, जिसके बाद उसका पुनः प्रकाशन किया गया है।
अमरीकी संस्करण की अपनी प्रस्तावना में लेनिन ने इस पुस्तक की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उसमें अक्टूबर (नवंबर) समाजवादी क्रांति का, जिसे जन-साधारण की सच्ची जन-क्रांति के रूप में प्रस्तुत किया गया है, यथार्थ वर्णन किया गया है। उसमें जनता की युगविधायक सृजनात्मक क्षमता का तथा मजदूर वर्ग, किसानों और आम सिपाहियों के संकल्प के वाहक बोल्शेविकों की उस क्रांति में प्रमुख भूमिका का ज्वलंत चित्रण किया गया है।
महान अक्तूबर क्रांति मानव इतिहास में अपने ढंग की पहली क्रांति थी, जिसको, व्लादीमिर इल्यीच लेनिन के नेतृत्व में, बोल्शेविक पार्टी तथा उसकी केंद्रीय समिति ने प्रेरित, अनुप्राणित तथा संगठित किया था।
बोल्शेविक पार्टी तथा उसके नेता, लेनिन ने क्रांति के प्रक्रम का, उसके सभी संभाव्य पेंच और खम का, क्रांतिकारी जन-साधारण के तथा विरोधी वर्गों और पार्टियों के आचरण का अचूक पूर्वानुमान किया था। विद्रोह का पथ-प्रदर्शन करने वाले विभिन्न निकायों-बोल्शेविक पार्टी का राजनीतिक ब्यूरो तथा पार्टी केंद्र, पेत्रोग्राद सोवियत तथा उसका सामरिक केंद्र, सैनिक क्रांतिकारी समिति, जिसके हाथ में विद्रोह की बागडोर थी – के क्रिया-कलाप लेनिन के विचारों द्वारा दीप्त तथा अनुप्राणित थे।
लेनिन के विचार उन अवसरवादियों के साथ भीषण मुठभेड़ों के दौरान कार्यान्वित किये गये थे, जिनका सर्वहारा क्रांति की क्षमता में तथा रूस में उसकी विजय की संभावना में विश्वास न था। ये लोग पराजयवादी थे और उन्होंने या तो लेनिन की सशस्त्र जन-विद्रोह की योजना का प्रत्यक्ष विरोध किया, या विद्रोह के विचार को स्वीकार करने का दम भरते हुए, एक ऐसी कार्यनीतिक योजना का सुझाव दिया, जो क्रांति को निश्चित रूप से सर्वनाश के मुंह में डाल देती।
विद्रोह के पूर्व (सितंबर और अक्टूबर में) लेनिन ने जो लेख और पत्र लिखे, उनमें जनता की विजय में गहनतम विश्वास व्याप्त है, जिस विश्वास का आधार क्रांति के, तथा क्रांति के शत्रुओं के शिविर में मौजूद परिस्थिति का उनका धीर-गंभीर मूल्यांकन था। उनमें क्रांति की संगीन घड़ी में दुश्मन के सामने हथियार डाल देने की प्रवृत्ति रखने वाले कायरों और गद्दारों की कलई खोली गई थी और उनकी लानत-मलामत की गई थी।
29 सितंबर (12 अक्टूबर)1 को ‘संकट परिपक्व हो चुका है’ शीर्षक लेख में लेनिन ने बोल्शेविक पार्टी की केंद्रीय समिति के सदस्य, जिनोव्येव, कामेनेव और ट्रॉट्स्की की तथा पार्टी की ऊपरी परतों में उनके मुट्ठीभर अनुयायियों के रुख की आलोचना की थी। लेनिन ने जिनोव्येव तथा कामेनेव को आड़े हाथों लिया, जिन्होंने इस बात के लिए आग्रह किया था कि बोल्शेविकों को पूर्व-संसद में भाग लेना चाहिए। इसका अर्थ यह होता कि क्रांतिकारी शक्तियां सैद्धांतिक दृष्टि से निहत्थी हो जातीं और विद्रोह के लिए तैयारी करने के काम से उनका ध्यान हट जाता। लेनिन ने ट्रॉट्स्की जैसे नेताओं का भी पर्दाफाश किया, जो “सोवियतों की कांग्रेस के लिए इंतजार करने की हिमायत करते हैं और अविलंब सत्ता हाथ में लेने का विरोध करते हैं, तत्काल विद्रोह करने का विरोध करते हैं,” जो कि सभी व्यावहारिक कार्यभारों में सबसे ज्यादा जरूरी है।
लेनिन ने गुस्से से लिखा, “इस प्रवृत्ति अथवा मत पर काबू पाना होगा, नहीं तो बोल्शेविक लोग अपने को सदा के लिए कलंकित कर लेंगे और एक पार्टी के रूप में अपना सर्वनाश कर लेंगे। क्योंकि ऐसी घड़ी को हाथ से जाने देना और सोवियतों की कांग्रेस के लिए ‘इंतजार करना’ घोर मूर्खता या सरासर गद्दारी होगी … सोवियतों की कांग्रेस के लिए ‘इंतजार करने’ … का अर्थ होगा एक ऐसे वक्त कई हफ्ते गंवा देना, जब एक एक हफ्ता, यहां तक कि एक एक दिन हर चीज के लिए निर्णायक है … इसी घड़ी सत्ता हाथ में लेने से परहेज करना, ‘इंतजार करना’, केंद्रीय कार्यकारिणी समिति में बातें बघारना, (सोवियत के) ‘मुखपत्र के लिए संघर्ष करने’ तक, ‘कांग्रेस के लिए संघर्ष करने’ तक अपने को महदूद रखना, क्रांति को विनाश के हवाले कर देना है” (‘संकट परिपक्व हो चुका है’)।
केंद्रीय समिति के अंदर पराजयवादियों के खिलाफ लेनिन के अविरत संघर्ष की परिणति विजय में हुई। 10 (23) अक्तूबर को केंद्रीय समिति ने मौजूदा परिस्थिति के बारे में लेनिन की रिपोर्ट को सुना और लेनिन द्वारा सूत्रबद्ध प्रस्ताव को स्वीकृत किया, जिसमें यह माना गया था कि विद्रोह अनिवार्य तथा आसन्न है और यह सुझाव दिया गया था कि पार्टी के सभी संगठन अपने व्यावहारिक क्रिया-कलाप में इसी विचार पर अमल करें। जिनोव्येव और कामेनेव ने प्रस्ताव के खिलाफ वोट दिया। ट्रॉट्स्की भी अपने मोर्चे पर डटे रहे और उन्होंने सुझाव दिया कि दूसरी कांग्रेस के उद्घाटन से पहले विद्रोह शुरू नहीं करना चाहिए, जिसका अर्थ वास्तव में सरासर टालमटोल होता और विद्रोह के मुहूर्त को दुश्मन पर जाहिर कर देना होता।
ट्रॉट्स्की ने 23 अक्टूबर (5 नवंबर) को हुए पेत्रोग्राद सोवियत के पूर्ण अधिवेशन में तथा अन्यत्र अपने इस दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया था। अपनी पुस्तक में जॉन रीड ट्रॉट्स्की के वक्तव्य को निम्नलिखित रूप से प्रस्तुत करते हैं। यह पूछे जाने पर कि बोल्शेविक कब कदम उठाने का इरादा रखते हैं, ट्रॉट्स्की ने उत्तर दिया: “सत्ता का यह अंतरण अखिल रूसी कांग्रेस द्वारा संपन्न किया जायेगा … हम आशा करते हैं कि अखिल रूसी कांग्रेस अपने हाथों में वह सत्ता और अधिकार ग्रहण करेगी, जिसका आधार है जनता की संगठित स्वतंत्रता” (इस पुस्तक का पृ० 114)।
लेनिन ने इस घातक कार्यनीति का विरोध किया और 24 अक्टूबर (6 नवंबर) को केंद्रीय समिति के सदस्यों के नाम एक पत्र में अपील की कि सरकार के मंत्रियों को उसी शाम को, बहरसूरत उसी रात को गिरफ्तार कर लिया जाये और सत्ता पर अविलंब अधिकार स्थापित किया जाये। “हमें हर्गिज इंतजार नहीं करना चाहिए! हम सब कुछ गंवा सकते हैं! … इतिहास उन क्रांतिकारियों को इसके लिए क्षमा नहीं करेगा, जो ऐसे वक्त, जब वे आज विजयी हो सकते हैं (और वे आज निश्चय ही विजयी होंगे), जब वे कल पर टाल कर बहुत कुछ गंवा बैठने का खतरा मोल लेंगे, वास्तव में सब कुछ गंवा बैठने का खतरा मोल लेंगे, टालमटोल करते हैं और देर लगाते हैं … यदि हम आज सत्ता पर अधिकार करते हैं, तो हम ऐसा सोवियतों की मर्जी के खिलाफ नहीं, उनके नाम पर करेंगे … 25 अक्टूबर (7 नवंबर) के दोलायमान मतदान की प्रतीक्षा करना अनर्थ होगा, अथवा कोरी औपचारिकता होगी। जनता का यह अधिकार है और वह इसके लिए कर्त्तव्यबद्ध है कि वह ऐसे प्रश्नों का निर्णय मतदान द्वारा नहीं, बल्कि बल-प्रयोग द्वारा करे, क्रांति की नाजुक घड़ियों में उसका यह अधिकार है और वह इसके लिए कर्त्तव्यबद्ध है कि वह अपने प्रतिनिधियों को निर्देश दे … और उनका मुह न जोहे” (‘बोल्शेविक पार्टी के सदस्यों के नाम पत्र’)।
24-25 अक्टूबर(6-7 नवंबर) की रात को स्मोल्नी पहुंचने पर लेनिन ने विद्रोह का पूर्ण नेतृत्व ग्रहण किया। 25 अक्टूबर (7 नवंबर) की रात को दर्जनों मजदूरों और सिपाहियों ने, लाल गार्डी दस्तों के मुखियों और संदेशवाहकों ने, जो वार्डों, कारखानों और सैनिक टुकड़ियों का प्रतिनिधित्व करते थे, स्मोल्नी आकर लेनिन से मुलाकात की। सैनिक क्रांतिकारी समिति ने जबरदस्त पैमाने पर काम करना शुरू किया, और लेनिन द्वारा व्यापक भाव से प्रेरित मजदूरों और सिपाहियों के क्रांतिकारी उपक्रम ने उसे भरोसे लायक ताकत पहुंचाई।
लेनिन की अद्भुत कार्यनीति विजयी हुई।
लेनिन की दृढ़, निष्कंप शक्ति इस बात में निहित थी कि वह संगठन की प्रतिभा के साथ, प्रचुर बौद्धिक तथा सैद्धांतिक साधनों से संपन्न थे। सितंबर और अक्टूबर में कार्यनीति-संबंधी अपने पत्रों में लेनिन ने जो योजना प्रस्तुत की थी, पार्टी केंद्र तथा सैनिक क्रांतिकारी समिति ने उसका अक्षरश: पालन किया।
जॉन रीड ने लेनिन का एक असाधारण नेता के रूप में चित्रण किया है। और सचमुच ही वह एक असाधारण नेता थे! वह पश्चिम यूरोपीय प्रकार के सामाजिक-जनवादी नेता के आडंबरपूर्ण ढोंग से घृणा करते थे और वह अपने आचरण तथा विचारों में असाधारण सादगी के साथ असाधारण बुद्धिमत्ता रखते थे। जॉन रीड के शब्दों में उनमें “गहन विचारों को सीधे-सादे शब्दों में समझाने की और किसी भी ठोस परिस्थिति को विश्लेषित करने की अपूर्व क्षमता थी। और उनमें सूक्ष्मदर्शिता के साथ-साथ बौद्धिक साहसिकता कूट-कूट कर भरी थी।” इन सब गुणों का स्रोत जनता के साथ महान लेनिन का घनिष्ठ सम्बंध था। जनता को ही वह इतिहास का निर्माता मानते थे और उसकी सृजनात्मक, रचनात्मक क्षमता में उन्हें अगाध विश्वास था।
विजयी जन-विद्रोह के बाद अपने पहले ही भाषण में, जो 25 अक्टूबर (7 नवंबर) को तीसरे पहर पेत्रोग्राद सोवियत के पूर्ण अधिवेशन में दिया गया था, लेनिन ने अपना यह निश्चित विश्वास प्रगट किया कि जनता अंतिम रूप से विजयी हुई है। नये सोवियत रूस के भविष्य की ओर दृष्टिपात करते हुए, उन्होंने बोल्शेविकों, मजदूर वर्ग और शेष जन-साधारण के सम्मुख उपस्थित ऐतिहासिक कार्यभार की सीधे-सादे और स्पष्ट शब्दों में परिभाषा की। लेनिन ने कहा कि अब यह उन्हीं लोगों का काम है कि वे समाजवादी सर्वहारा राज्य का निर्माण करें और रूस में समाजवाद की विजय को सुनिश्चित बनायें।
बोल्शेविकों की धीर-गंभीर आशावादिता सोवियतों की दूसरी कांग्रेस में ट्रॉट्स्की द्वारा दिये गये पराजयवादी वक्तव्य का प्रबल रूप से खंडन करती है। जॉन रीड ने कांग्रेस में ट्रॉट्स्की के भाषण के इस प्रसंग से संबंधित अंश को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया है: “… अगर यूरोप पर साम्राज्यवादी पूंजीपति वर्ग का शासन बना रहा, तो किसी भी सूरत में क्रांतिकारी रूस का विनाश निश्चित है … हमारे सामने दो ही विकल्प हैं- या तो रूसी क्रांति यूरोप में भी क्रांतिकारी आंदोलन को जन्म देगी, या यूरोपीय शक्तियां रूसी क्रांति का काम तमाम कर देंगी!” (इस पुस्तक का पृ०213)।
ट्रॉट्स्की ऐसा इसलिए सोचते थे कि उन्हें यह विश्वास नहीं था कि मेहनतकश किसान विजयी रूसी सर्वहारा को कभी भी अपना क्रांतिकारी समर्थन देंगे। उन्हें यह विश्वास नहीं था कि सर्वहारा आम किसानों को अपनी ओर लाने की क्षमता रखता है। उनका यह अविश्वास “स्थायी क्रांति” के उनके मेन्शेविक सिद्धांत में अंतर्निहित था, जिसे उन्होंने 1905 में प्रतिपादित किया था। इस सिद्धांत के अनुसार जब तक सर्वहारा प्रमुख यूरोपीय देशों में सत्तारूढ़ न हो जाये, किसी एक देश में समाजवादी क्रांति विजयी नहीं हो सकती। अक्टूबर (नवंबर) क्रांति से कुछ ही दिन पहले ट्रॉट्स्की ने अपने पैम्फ्लेट ‘शांति का कार्यक्रम’ में लिखा था- “जर्मनी में क्रांति के बिना रूस में अथवा इंगलैंड में क्रांति की विजय अकल्पनीय है और इसी तरह रूस और इंगलैंड में क्रांति के बिना जर्मनी में क्रांति की विजय अकल्पनीय है।” यह धारणा कि समाजवादी क्रांति तभी विजयी हो सकती है, जब वह प्रमुख यूरोपीय देशों में सर्वहारा की एकसाथ विजय के रूप में संपन्न हो, ट्रॉट्स्की के उस इंटरव्यू में भी व्यक्त है, जो उन्होंने 17 (30) अक्टूबर को जॉन रीड को दिया था। भावी सरकार की विदेश नीति की चर्चा करते हुए ट्रॉट्स्की ने कहा- “मेरी दृष्टि में इस युद्ध के पश्चात् यूरोप का पुनर्जन्म होगा – कूटनीतिज्ञों के हाथों नहीं, सर्वहाराओं के हाथों। यूरोप का संघात्मक जनतंत्र – यूरोप का संयुक्त राज्य …” (इस पुस्तक का पृ०103)। इस प्रकार ट्रॉट्स्की ने सर्वहारा क्रांति के लेनिनवादी सिद्धांत, जिसमें एक देश में समाजवाद की विजय का विचार निहित था, के विरोध में अपना, यूरोप के संयुक्त राज्य का विचार प्रस्तुत किया, जो “स्थायी क्रांति” के उनके पराजयवादी सिद्धांत से उत्पन्न होता था।
रूस में युगविधायक घटनाओं का कठोर, निर्मम तर्क ऐसा था कि पराजयवादी नीति के प्रतिपादक कभी कभी अपने ही विश्वासों के विरुद्ध बोलते तथा आचरण करते थे। विद्रोह के समय ट्रॉट्स्की के साथ भी यही बात हुई। क्रांति की वास्तविक गतिविधि ने पेत्रोग्राद सोवियत के अध्यक्ष के नाते उन्हें लेनिन की कार्यनीति का अनुसरण करने पर विवश कर दिया। 25 अक्टूबर (7 नवंबर) को पेत्रोग्राद सोवियत की बैठक में, जब किसी ने अपनी जगह पर बैठे बैठे चिल्लाकर कहा कि क्रांति की विजय की घोषणा गैरकानूनी है, क्योंकि अभी तक कांग्रेस ने अपनी मर्जी को जाहिर नहीं किया है, ट्रॉट्स्की ने लेनिन की कार्यनीति के अनुरूप उत्तर दिया, क्योंकि वह इस हकीकत से मुंह नहीं मोड़ सकते थे कि जनता ने बगावत की थी और जीती थी। उन्होंने कहा, “पेत्रोग्राद के मजदूरों और सिपाहियों के विद्रोह ने सोवियतों की अखिल रूसी कांग्रेस की इच्छा का पूर्वानुमान किया है!” (इस पुस्तक का पृ०146)। जैसा कि हम देखते हैं, उन्हें दो ही दिन पहले 23 अक्टूबर (5 नवंबर) को पेत्रोग्राद सोवियत के पूर्ण अधिवेशन में दिये गये अपने वक्तव्य से बिल्कुल उल्टी ही बात कहनी पड़ी।
परंतु इन युगांतरकारी घटनाओं के तर्क ने ट्रॉट्स्की, उनके पक्के अनुयायियों और अन्य पराजयवादियों के दृष्टिकोण के सार-तत्त्व को नहीं बदला, न ही वह उसे बदल सकता था। इन लोगों ने रूस में समाजवादी क्रांति की तथा समाजवाद की विजय की संभावना से इनकार किया, और वस्तुतः ऐतिहासिक दृष्टि से यह अनिवार्य माना कि इस देश में पूजीवादी जनतंत्र की संसदीय व्यवस्था स्थापित होगी। पार्टी तथा देश के मामलों में उनकी बाद की गतिविधि यह प्रगट करती है कि उन्होंने सोवियत राज्य को संहत करने तथा सोवियत संघ में समाजवादी समाज का निर्माण करने की लेनिनवादी सामान्य नीति के खिलाफ एक के बाद एक कितनी ही विश्वासघातपूर्ण कार्रवाइयां कीं। ब्रेस्त की शांति-वार्ता के समय उन्होंने जो स्थिति ग्रहण की, वह राजद्रोह थी – उससे घट कर कुछ नहीं। उन्होंने नयी आर्थिक नीति के माध्यम से समाजवादी निर्माण करने की लेनिन की कार्यनीति पर शब्दाडंबरपूर्ण प्रहार किये। उन्होंने पार्टी की केंद्रीय समिति की कुत्सा की, जो समाजवादी औद्योगीकरण तथा कृषि के सामूहीकरण की लेनिनवादी नीति को अग्रसर कर रही थी। लेनिनवादी सामान्य नीति के खिलाफ पराजयवादी दलों तथा गुटों के इस अनवरत संघर्ष का यह स्वाभाविक तथा अनिवार्य परिणाम था कि उन्होंने पार्टी से अपना नाता बिल्कुल ही तोड़ लिया और सोवियत-विरोधी रुख अपनाया।
जिस यथार्थ परिस्थिति में जॉन रीड को अपनी पुस्तक के लिए तथ्यों को एकत्रित तथा हृदयंगम करना पड़ा, उसके कारण वह विद्रोह के पहले और उसके दौरान बोल्शेविक पार्टी के केंद्रीय निकायों के कार्य का उतने ठोस और प्रामाणिक रूप से अध्ययन न कर सके, जितना कि वांछनीय था, क्योंकि उस समय विद्रोह की विजय से पहले, बोल्शेविक पार्टी तथा लेनिन ने जो कुछ किया, वह अनिवार्यतः गुप्त रूप से किया। यही कारण है कि लेनिन और उनके घनिष्ठतम सहयोगियों ने पराजयवादियों और ट्रॉट्स्की की कार्यनीति के खिलाफ जो दृढ़, अविरत संघर्ष किया, उसे इस पुस्तक में पर्याप्त रूप से प्रत्यक्ष नहीं किया गया है। यही कारण है कि रीड अक्टूबर (नवंबर) क्रांति के प्रारंभिक दिनों में ट्रॉट्स्की के वक्तव्यों के अंतर्विरोधपूर्ण स्वरूप को देख न पाये।
जॉन रीड ने जब यह कहा कि “लेनिन, ट्रॉट्स्की, पेत्रोग्राद मजदूरों और सीधे-सादे सिपाहियों को छोड़ कर, यह बात शायद किसी के दिमाग में नहीं आई होगी कि बोल्शेविक तीन दिन से अधिक सत्तारूढ़ रह सकते हैं,” तब उन्होंने अपने को धोखा ही दिया। लेनिन, केंद्रीय समिति, बोल्शेविक पार्टी के अधिकांश स्थानीय संगठनों को यकीन था कि यह विजय पक्की और पायेदार होगी। दिवालिया मेन्शेविक तथा समाजवादी-क्रांतिकारी पार्टियों, सत्ताच्युत शोषक वर्गों के सदस्यों और उनके पिट्ठूओं, तथा बोल्शेविक पार्टी के अंदर मुट्ठीभर पराजयवादियों को छोड़ कर किसी ने भी यह “भविष्यवाणी” नहीं की थी कि विजयी क्रांति का अनिवार्यतः पतन हो जायेगा। सोवियतों की अखिल रूसी कांग्रेस में रूसी क्रांति के भविष्य के बारे में ट्रॉट्स्की का घोर निराशापूर्ण वक्तव्य इसी काल में दिया गया था। जिन परिस्थितियों में केंद्रीय समिति ने सशस्त्र विद्रोह का निर्णय किया था, उनके बारे में रीड का वर्णन (देखिये, पृष्ठ 84 तथा फुटनोट) ऐतिहासिक तथ्यों के साथ मेल नहीं खाता।
फिर भी पुस्तक की ये सारी कमियां तथा विभिन्न अशुद्धियां इस आधारभूत तथ्य के महत्व को कम नहीं कर सकतीं कि जॉन रीड की पुस्तक महान अक्टूबर (नवंबर) समाजवादी क्रांति का एक बड़ा जंचता हुआ तथा सच्चा वर्णन है।
इस पुस्तक का लेखक लेनिन के, बोल्शेविक पार्टी के विचारों से उद्दीप्त था, जो विद्रोह के कानूनी सामरिक केंद्रों की गतिविधि के, उठ खड़ी हुई जनता के साहस, पराक्रम तथा क्रांतिकारी सृजनात्मकता के रूप में फलीभूत हुए थे। इसी चीज ने जोशीले क्रांतिकारी तथा प्रतिभाशाली लेखक की तीक्ष्ण दृष्टि को ऐसी क्षमता प्रदान की कि वह अपने सामने उद्घाटित घटनाक्रम में निहित सार-तत्त्व का बोध कर सके तथा उसके गहन ऐतिहासिक अर्थ को ग्रहण कर सके। यही इस पुस्तक की खास खूबी है। लेनिन के शब्दों में, “सर्वहारा क्रांति तथा सर्वहारा अधिनायकत्व वास्तव में क्या हैं, इसको समझने के लिए जो घटनायें इतनी महत्त्वपूर्ण हैं, उनका इस पुस्तक में सच्चा और जीता-जागता चित्र दिया गया है।
रूस में अक्टूबर (नवंबर) क्रांति का महान सत्य, जिसके लिए रीड ने अपनी पुस्तक अर्पित की, अमरीकी और दूसरे साम्राज्यवादियों की मूल प्रकृति के ही प्रतिकूल था। उन्होंने अपने अखबारों में बोल्शेविकों के खिलाफ इस गरज से गंदा, कुत्सित प्रचार किया कि उनके द्वारा शोषित जन-साधारण का ध्यान रूसी मजदूरों, किसानों तथा सैनिकों द्वारा प्रस्तुत क्रांतिकारी निर्भयता तथा साहस के संक्रामक आदर्श से विचलित हो जाये। उन्होंने जॉन रीड द्वारा संग्रहीत सामग्री को जब्त कर लेने की कोशिश की। एक के बाद एक छ: बार भाड़े के घुसपैठियों ने उनकी पुस्तक की पांडुलिपि को चुरा लेने और नष्ट कर देने के उद्देश्य से रीड के प्रकाशक के कार्यालय पर छापा मारा।
परंतु सारी विघ्न-बाधाओं तथा कठिनाइयों के बावजूद जॉन रीड की पुस्तक ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ 1919 में संयुक्त राज्य अमरीका में प्रकाशित हुई। यह विदेश में प्रकाशित पहली पुस्तक थी, जिसने संसार को बताया कि मानव-इतिहास में एक नये युग, सर्वहारा क्रांतियों के युग का सूत्रपात करने वाली रूस की विजयी समाजवादी क्रांति के बारे में यथार्थ सत्य क्या है।
नोट –
1 यहां तिथियां पुराने रूसी पंचाग के अनुसार दी गई हैं। कोष्ठकों में नये पंचाग की तिथियां हैं, जिनका जॉन रीड ने अपनी पुस्तक में इस्तेमाल किया। – सं०