गृह मंत्रियों का ‘चिंतन शिविर’:

November 15, 2022 0 By Yatharth

फासीवादी एजेंडा को आगे बढ़ाने का एक और कदम

एम असीम

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की अध्यक्षता में 27 और 28 अक्टूबर को फरीदाबाद के सूरजकुंड में राज्यों के गृह मंत्रियों के दो दिवसीय ‘चिंतन शिविर’ का आयोजन हुआ। प्रधानमंत्री मोदी ने भी इसे अंतिम दिन वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से संबोधित किया। यह ‘चिंतन शिविर’ भारतीय पूंजीपति वर्ग व उसके विश्वस्त संघ/बीजेपी के फासीवादी एजेंडा को आगे बढ़ाने की दिशा में एक और कदम है। इस तथाकथित ‘चिंतन शिविर’ का घोषित उद्देश्य पुलिसिंग के संदर्भ में राष्ट्रीय महत्व से संबंधित नीति के बेहतर नियोजन, समन्वय और कार्यान्वयन के लिए एक मंच का निर्माण करना था। लेकिन इसका असल उद्देश्य तो मौजूदा संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत राज्य सूची के प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए संघीय पुलिस व्यवस्था के बजाय राज्यों पर एक केंद्रीकृत अखिल भारतीय पुलिसिंग प्रणाली थोपने की परिकल्पना को साकार बनाना था। चिंतन शिविर के निर्णयों में राज्यसत्ता के फासीवादी टेकओवर के लक्ष्य को पूरा करने की दिशा में मोदी द्वारा पहले से लाए गए एनआईए और यूएपीए अधिनियमों में कठोर संशोधनों के अलावा उन्हें और ज्यादा निरंकुश व आक्रामक बनाना शामिल था।

पंजाब और केरल के मुख्यमंत्रियों को छोड़कर, विपक्षी शासित राज्यों के सभी मुख्यमंत्री, जैसे बंगाल, बिहार, ओडिशा, राजस्थान और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री (जिनके पास गृह विभाग भी हैं) इस कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए। पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान की उपस्थिति निश्चय ही आश्चर्यजनक नहीं थी, क्योंकि आप द्वारा स्वयं को भाजपा की तुलना में हिंदुत्व के एजेंडे के प्रति अधिक प्रतिबद्ध साबित करने का प्रयास किया जा रहा है। उसी तरह, सीपीआई (एम) के मुख्यमंत्री पिनरायी विजयन के पहले कार्यकाल के दौरान, केरल में भी 145 यूएपीए मामले दर्ज किए गए थे। और यही स्थिति केरल में अब भी बिना किसी रुकावट के जारी है। केरल के मुख्यमंत्री, जिनके पास गृह विभाग भी है, ने राज्यों के गृह मंत्रियों की इस बैठक में भाग लिया, जिसमें यूएपीए की प्रशंसा की गई।

चिंतन शिविर में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कानून और व्यवस्था पर एक समान अखिल भारतीय नीति के साथ “एक डेटा, एक प्रविष्टि” के सिद्धांत के आधार पर 2024 तक प्रत्येक राज्य में एक एनआईए कार्यालय बनाने का आह्वान किया। इसी तारतम्य में मोदी ने ‘एक राष्ट्र, एक पुलिस वर्दी’ का प्रस्ताव रखा और “आतंक के खिलाफ लड़ने के लिए प्रोत्साहन” प्रदान करने के लिए यूएपीए की प्रशंसा की। यूएपीए पर मोदी का यह बयान ऐसे समय में आया है जब सुप्रीम कोर्ट में उस याचिका की सुनवाई लंबित है, जिसमें यूएपीए कानून की वैधता को ही चुनौती दी गई है। 2018-20 के दौरान, जब यूएपीए के तहत 4690 लोगों को गिरफ्तार किया गया था, अंततः केवल 3 प्रतिशत को ही दोषी ठहराया गया। अर्थात औपचारिक रूप से सबूत आधारित सजा सुनाए बगैर ही सजा दे देने की पूरी व्यवस्था इस कानून में है। यह यूएपीए की कठोर सारवस्तु का प्रमाण है जो राज्य को बिना किसी जवाबदेही के बेलगाम शक्ति देता है, ताकि अपने राजनीतिक विरोधियों, असंतुष्टों और अलग या असहमत लोगों को जेल में डाला और प्रताड़ित किया जा सके। वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से मोदी का भाषण, जिसमें “कलम के नक्सलियों” से खतरे और उनके दमन की बात की गई है और उसे बंदूक से सरकार के विरोध के समान बताया गया है, सरकार की आलोचना करने वाले प्रगतिशील व जनपक्षधर बुद्धिजीवियों के दमन में वृद्धि का स्पष्ट निर्देश है। यह स्वतंत्र राय और अभिव्यक्ति पर ‘देशद्रोही’ और ‘राष्ट्र-विरोधी’ होने की मुहर लगाने के उनके फासीवादी इरादों को प्रकट करता है। यूएपीए के साथ ही अब आईपीसी में भी गैर-औपनिवेशिकरण के नाम पर किए जाने वाले ‘सुधारों’ के जरिए इसी मकसद को पूरा किया जाएगा।

प्रधानमंत्री मोदी के बयान में पूरे देश में पुलिस की एकसमान वर्दी के पक्ष में बड़े पैमाने के उत्पादन के जरिए होने वाली बचत (इकॉनमी ऑफ स्केल) का भी तर्क दिया गया अर्थात प्रशासनिक व्यवस्था हेतु होने वाले उत्पादन व खर्च को केंद्रीकृत कर बड़े इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के हाथ सौंपना भी इसके मकसद में से एक है। राजनीतिक मकसद के साथ ही साथ इस आर्थिक उद्देश्य का होना एक बार फिर स्पष्ट करता है कि कैसे अधिनायकवादी राजनीति व कॉर्पोरेट इजारेदार पूंजी के हितों का विलय ही फासीवाद की जमीन तैयार करता है। लगभग अंतहीन व असाध्य पूंजीवादी आर्थिक संकट के चलते जब कॉर्पोरेट पूंजी बाजार मांग की सिकुड़न का सामना कर रही है तब राज्य स्वयं ही अपनी नीतियों से उसके लिए बिक्री के ऑर्डर जुटाता है, उनकी कीमत और प्रोफिट मार्जिन तय करता है और बजट के जरिए जनता से की गई वसूली से उनके दामों का भुगतान भी खुद ही करता है। इस स्थिति में इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के लिए सरकार पर सीधा व सख्त नियंत्रण अत्यंत जरूरी हो जाता है। ‘एक देश, एक कर’ वाली जीएसटी के जरिए अप्रत्यक्ष करों के बड़े भाग को राज्यों व निर्वाचित प्रतिनिधियों के नियंत्रण से केंद्रीय अफसरशाही के नियंत्रण में लाने से लेकर ‘एक देश, एक ….’ वाली नीतियों की पूरी श्रृंखला कैसे सिर्फ अकेले मोदी का दिमागी फितूर नहीं, इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजी के हितों की अनुषंगी भी है। इसीलिए समस्त कॉर्पोरेट मीडिया व विशेषज्ञ इसके समर्थन में जनसम्मति तैयार करने में अपनी सतत भूमिका निभाते हैं।

इसी प्रकार कई कानूनी और संवैधानिक विशेषज्ञ, मानवाधिकार कार्यकर्ता और जागरूक नागरिक पहले ही बता चुके हैं कि कैसे एनआईए भारतीय संविधान में वर्णित बुनियादी जनवादी अधिकारों का हनन करता है। यह राज्य सरकारों के संघीय अधिकारों को छीन लेता है और भारतीय साक्ष्य अधिनियम और आपराधिक प्रक्रिया संहिता की बुनियादी प्रक्रियाओं के भी खिलाफ है। अतः यह मौजूदा न्यायिक प्रणाली को मात्र एक दर्शक बना कर छोड़ देता है और जिला सत्र न्यायालयों की सामान्य प्रक्रिया की अनदेखी करते हुए विशेष न्यायालयों की स्थापना कर सकता है जिनके जरिए मौजूदा सत्ता अपने विरोधियों के दमन की कार्रवाई के रास्ते में से उन बाधाओं को भी हटा दे सकती है जो वर्तमान कानूनी प्रक्रिया उसके सामने खड़ी करती है, उदाहरण के तौर पर मुंबई हाईकोर्ट द्वारा प्रो साईंबाबा व उनके सहयोगियों को रिहा करने का आदेश पुलिस द्वारा इसी प्रक्रिया के उल्लंघन के कारण हुआ था। सरकार अब खुद को इन प्रक्रियाओं के बंधन से भी आजाद करने की कोशिश में है ताकि वह अपने लिए एक ‘प्रतिबद्ध’ अदालती व्यवस्था हासिल कर सके।

संक्षेप में, यह चिंतन शिविर और उस में सामने आए विचार/प्रस्ताव वर्तमान बुर्जुआ संसदीय लोकतंत्र के संस्थानों के दमनकारी चरित्र को भी बहुत पीछे छोड़ देते हैं। यह नवउदारवादी आर्थिक नीतियों, नये मजदूर विरोधी श्रम कानूनों, अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और कश्मीर को टुकड़ों में तोड़ने जैसी नीतियों की निरंतरता में सीएए और अन्य कदमों के माध्यम से होते हुए मेहनतकश जनता द्वारा अपने जनवादी अधिकारों हेतु उठने वाली आवाजों को कुचलने, अल्पसंख्यकों व वंचित समुदायों को द्वितीय श्रेणी के नागरिक बनाने, शिक्षा का कोर्पोरटीकरण व भगवाकरण करने, आदि के व्यापक फासीवादी एजेंडा का ही हिस्सा है।