फीफा विश्व कप 2022: लाखों मजदूरों के शोषण के तांडव एवं हजारों की लाशों के अंबार पर आयोजित हुआ
December 20, 2022मुनाफे का ‘खेल’
सिद्धांत
दुनिया के सबसे प्रचलित व लोकप्रिय खेल – फुटबॉल – का अंतर्राष्ट्रीय विश्व कप उर्फ “फीफा वर्ल्ड कप” इस साल 20 नवंबर से शुरू हो अब समाप्ति पर है। हर चार सालों में आयोजित होने वाली महीने भर की इस विराटतम खेल प्रतियोगिता की मेजबानी इस साल गल्फ देश कतर कर रहा है। मुख्यधारा की मीडिया की मानें तो पूरे विश्व को अभी ‘फुटबॉल फीवर’ यानी फुटबॉल का बुखार चढ़ा हुआ है, लेकिन इस भव्य आयोजन की चकाचौंध के पीछे इसके निर्माणकर्ता – मजदूर वर्ग – के साथ घटित हुई दिल दहला देने वाली कुछ काली सच्चाइयां दफना दी गई हैं जिन्हें उजागर करना और याद रखना जिम्मेदारी ही नहीं हमारा कर्तव्य भी है।
सबसे पहली बात, इस फीफा विश्व कप के आयोजन के लिए निर्माण कार्य 2010 से शुरू हुआ जिसे पूरा करने में 7 हजार से अधिक नौजवान प्रवासी मजदूर (3 हजार भारतीय सहित) अत्यधिक शारीरिक श्रम से पैदा हुई बिमारियों और मानसिक तनाव व अवसाद के कारण बिना किसी इलाज, मुआवजे एवं मदद के आश्वासन के मर गए, यानी मार दिए गए। खेल के मैदान में इस बार कौन सी टीम विश्व कप जीतेगी यह हम अभी नहीं जानते लेकिन पूरी तरह से बाजार की चपेट में आ चुके फुटबॉल, जो कि अन्य सभी खेलों की तरह एक उद्योग बन चुका है, के सबसे विशाल आयोजन के जरिए श्रम की अमानवीय लूट एवं मुनाफे के खेल में जीत बड़े पूंजीपतियों व उनके संस्थानों की हो चुकी है। इसका अंदाजा इस बात से लग जाता है कि फुटबॉल को संचालित करने वाली प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय संस्था ‘फीफा’ (FIFA), जो कागज पर एक “गैर-लाभकारी” संस्था होने के बावजूद एक मुनाफाखोर कारपोरेशन से कम नहीं है, की तिजोरी में केवल इस विश्व कप के आयोजन से 7.5 अरब डॉलर (करीब ₹ 62 हजार करोड़) आ चुके हैं। इस विश्व कप में कुल पुरस्कार राशि 44 करोड़ डॉलर (करीब ₹ 3700 करोड़) रखी गई है जो विजयी टीमों अर्थात उनके खिलाड़ियों (को कम) और बड़े पूंजीपति निवेशकों (को अधिक) मिलेगी। यहां तक कि फीफा ने प्रख्यात पूर्व खिलाड़ी डेविड बेखम को इस विश्व कप का ‘राजदूत’ रखने हेतु 28 करोड़ डॉलर (करीब ₹ 2300 करोड़) की फीस दी है! सही मायने में इस खेल का दायरा कितना बड़ा है वो इससे पता लगता है कि मेजबान देश कतर ने इस विश्व कप के आयोजन में 220 अरब डॉलर (करीब ₹ 19 लाख करोड़) खर्च किए हैं! [स्रोत : फोर्ब्स मैगजीन] यही नहीं, अरबों के इस खर्च को उठाने का अवसर पाने (और इसके जरिए खरबों कमाने) के लिए कतर के अधिकारियों व कंपनियों ने फीफा के सर्वोच्च अधिकारियों, जिसमें फीफा का तत्कालीन अध्यक्ष तक शामिल था, को करोड़ों डॉलर रिश्वत तक दी थी। इस भ्रष्टाचार के मामले की पूरी पोल पट्टी एक उच्च-स्तरीय जांच के बाद 2015 में ही खुल चुकी है।
ऊपर जिन छुपी सच्चाइयों की बात कही गई थी, यह तथ्य मात्र उसकी भूमिका भर है। दरअसल पेट्रोल व प्राकृतिक गैस के विशाल भंडारों के बल पर ‘वित्त पूंजी का एक खिलाड़ी देश’ बन चुके कतर ने इस फीफा विश्व कप की मेजबानी करने की बोली 2010 में जीती थी। हालांकि तब उसके पास ऐसी विशाल अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता का आयोजन करने का इंफ्रास्ट्रक्चर नदारद था। यानी 12 सालों के अंदर कतर में यह पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार होना था जिसमें 8 स्टेडियम, नए रोड व रेल लाइनें, मेट्रो नेटवर्क, सैकड़ों होटल, हवाई अड्डा आदि का निर्माण व विस्तार का कार्य था, यानी लगभग एक पूरा शहर बसाने का कार्य था। कतर महज 30 लाख आबादी वाला एक गल्फ देश है जहां केवल 3 लाख आबादी ही स्थानीय है तथा बाकी 27 लाख आबादी प्रवासी है। इस प्रवासी आबादी में से 20 लाख प्रवासी मजदूर हैं जो भारत, नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान व अन्य दक्षिण एशियाई व अफ्रीकी देशों से आते हैं।
विश्व कप इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने के इस काम को ‘युद्धस्तर’ पर पूरा करने हेतु 2010 से ही भारत, नेपाल, बांग्लादेश आदि देशों से लाखों प्रवासी मजदूरों को बुलाकर काम पर लगवाया जाने लगा। और यहां से 12 सालों तक कतर इन मजदूरों के भयंकर असीम शोषण व उत्पीड़न का एक खुला अड्डा बना रहा। मजदूरों को विभिन्न कंपनियों, एजेंसियों व ठेकेदारों के जरिए कतर लाया गया। कतर व अन्य गल्फ देशों में मान्य घोर मजदूर-विरोधी ‘कफाला’ प्रथा के तहत हर प्रवासी मजदूर के वीजा और अन्य दस्तावेजों व कानूनी जरूरतों के लिए एक देशी (कतरी) प्रायोजक होना अनिवार्य है, जो स्वाभाविक तौर पर उनके नियोक्ता यानी यही एजेंसियां बनती हैं। कफाला प्रथा का फायदा उठा कर ठेकेदारों/एजेंसियों व कंपनियों द्वारा मजदूरों का पासपोर्ट, वीजा, आईडी प्रूफ जैसे जरूरी दस्तावेज जब्त कर लेना आम बात बन गई है। यहां तक कि नियोक्ता की अनुमति के बिना मजदूरों के लिए कहीं और काम पर लगना एवं अपने देश भी लौटना गैर-कानूनी है, क्योंकि बिना अनुमति के मजदूरों को एग्जिट वीजा व पर्मिट तक मुहैया नहीं किया जा सकता है। अर्थात 21वीं सदी के विश्व पूंजीवाद में कफाला प्रथा लगभग बंधुआ मजदूरी प्रथा का ही दूसरा नाम है जिसमें मजदूरों को दूर विदेश में जबरन रख कर उनके मेहनत की अमानवीय लूट को अंजाम दिया जा रहा है।
फीफा विश्व कप आयोजन के कारण दुनिया की नजर में आई इस कफाला प्रथा को कतर सरकार को अततः 2019 में जाकर कानूनी रूप से रद्द करना पड़ा, हालांकि मजदूर-पक्षीय समूहों का कहना है कि जमीन पर यह प्रथा अभी भी व्याप्त है। कतर में पिछले साल तक न्यूनतम मजदूरी को ले कर एक कानून तक नहीं था और कार्यरत मजदूरों को महज 750 कतरी रियाल (₹ 17,000) वेतन के रूप में दिया जाता था। 2021 में ही जाकर कतर में न्यूनतम मजदूरी पर पहली बार कोई कानून बना, जिसके तहत मजदूरी दर महज 1000 कतरी रियाल (₹22,000) पहुंचा। हालांकि मजदूर-पक्षीय समूहों का कहना है कि कतर में महंगी होती जा रही जीवनयापन की लागत के मद्देनजर यह वेतन मजदूरों के जीवन-जीविका की जरूरतों को पूरा करने के लिए नाकाफी है। इसके अतिरिक्त इन ठेकेदारों के द्वारा अच्छे वेतन व सुविधाओं का झांसा देकर मजदूरों से शुरुआत में ही “भर्ती फीस” के नाम पर ₹ 3 लाख तक ले लिए गए थे जिससे वे कर्ज में आकर पूरी तरह इन ठेकेदारों/एजेंसियों के गुलाम हो गए। इसका फायदा उठा कर मजदूरों को मनमाना वेतन भुगतान किया गया जो तय दर से काफी कम था। इतना ही नहीं, महीनों तक उनका वेतन भी रोक कर भी रखा गया जिससे वे भूख और बीमारी से मरते रहे। यही नहीं, मजदूरों के सभी जनवादी अधिकारों तक को इन देशी-विदेशी कंपनियों व कतर सरकार ने रौंद डाला। अगस्त 2022 में ही, एक बड़ी कंपनी ‘अल बंदारी इंटरनेशनल ग्रुप’ के अंतर्गत कार्यरत प्रवासी मजदूरों का सात महीनों से वेतन भुगतान नहीं होने के कारण, 500 मजदूरों ने एकजुट होकर राजधानी दोहा स्थित कंपनी कार्यालय के बाहर शांतिपूर्ण प्रदर्शन आयोजित किया था। यह करते ही उनमें से 60 अगुआ मजदूरों को पुलिस ने जेल में डाल दिया और फिर उन्हें कतर से निर्वासित कर दिया गया। गौरतलब है कि पुलिस ने अपना हक मांग रहे मजदूरों पर ‘जनता की सुरक्षा’ भंग करने का आरोप लगाकर दमन किया, जो भारत सहित सभी देशों में शासक वर्गों की पुलिस द्वारा मजदूर आंदोलन को दबाने हेतु अपनाया जाने वाला एक मॉडल बन चुका है। एक और उदाहरण लें तो अफ्रीकी देश केन्या के पूर्व प्रवासी मजदूर मैल्कम बिदाली, जो कतर फाउंडेशन की बिल्डिंग में सिक्योरिटी गार्ड का काम करते थे, ने बीबीसी को एक इंटरव्यू में बताया कि चिलचिलाती गर्मी में पसीने से तरबतर हो चुके मजदूरों को अमानवीय ढंग से घंटों खड़े रह कर काम करवाने की प्रथा पर रौशनी डालते हुए जब उन्होंने एक लेख सोशल मीडिया पर डाला था, तो उन्हें न केवल काम से निकाल दिया गया बल्कि पुलिस ने उन्हें विदेशी ताकतों के साथ मिलकर “देशद्रोही” गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जिसके पश्चात उन्हें क्रूरतापूर्वक एक महीने तक एकांत कारावास (सोलिटरी कन्फाइनमेंट) में रखा गया और 6800 डॉलर (₹ 5.6 लाख) का जुर्माना वसूला गया!
फीफा विश्व कप के लिए अद्भुत स्टेडियम और चमचमाती इमारतों का निर्माण करने वाले हजारों मजदूर इतने साल जिन परिस्थितियों में रह कर काम कर रहे थे वे अमानवीय ही नहीं जानलेवा भी थीं। गर्मी के मौसम में 45-50 डिग्री तापमान की धूप में छतों पर घंटों लगातार काम करने, जिसमें नाक से खून बहना व बेहोश हो जाना आम बात बन गई थी, से लेकर 50-60 किलो वजन को पीठ पर लाद कर सीढ़ियों से ऊपर ले जाने तक, मजदूरों से लद्दू जानवरों की तरह कमरतोड़ मेहनत करवाया गया। यही वजह है कि विश्व कप की मेजबानी का कामकाज कतर में शुरू होने के दस सालों में 7 हजार से भी अधिक नौजवान प्रवासी मजदूरों की विभिन्न कारणों – कठिन परिस्थितियों में काम करने पर शारीरिक तनाव से पैदा हुई बीमारियों से लेकर मानसिक तनाव के कारण की गई आत्महत्याओं – से मौत हो गई! मृत प्रवासी मजदूरों में सबसे अधिक संख्या (करीब 3 हजार) भारतीय मजदूरों की है। हालांकि कतर की सरकार ने मौत के इन आंकड़ों को नकार दिया है। इसलिए ज्यादातर मृतकों के परिवारों को अभी तक कोई मुआवजा तक नहीं दिया गया है, और न ही भविष्य में देने की कोई योजना या आश्वासन है।
इन छुपा दिए गए तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि बड़ी पूंजी द्वारा मजदूर वर्ग पर ढाए गए सरासर जुल्म व मजदूरों के बेतहाशा शोषण-उत्पीड़न के दम पर ही या यूं कहें कि लाखों मजदूरों के मेहनत की लूट व हजारों मजदूरों की लाशों पर ही इस फीफा विश्व कप का आयोजन हो रहा है, और इस कार्यक्रम को देखते वक्त हमें यह याद रखना चाहिए। हालांकि हमें यह भी कतई नहीं भूलना चाहिए कि कतर से बाहर भी निर्मित सभी स्टेडियम मजदूर वर्ग के ही खून-पसीने के दम पर खड़े हुए हैं, और केवल स्टेडियम ही नहीं, समस्त समाज में सुई से लेकर हवाई जहाज तक उत्पादित की गई हर एक वस्तु को मजदूर वर्ग ने ही अपने खून-पसीने से सींचा है।
मजदूर वर्ग की इसी मेहनत की लूट अथवा शोषण के आधार पर फीफा ही नहीं बल्कि सभी छोटी-बड़ी देशी-विदेशी कंपनियां, और तो और पूरी पूंजीवादी व्यवस्था ही टिकी हुई है। इस बार के विश्व कप आयोजन संबंधित विवादों से अपना बचाव करते हुए ही सही लेकिन वर्तमान फीफा अध्यक्ष के मुंह से एक प्रेस वार्ता में यह कठोर सच ही निकल गया कि कतर जैसे देशों से ही व्यापार कर अरबों कमाने वाली इन बड़ी कंपनियों, जो आज कतर में प्रवासी मजदूरों के लिए चिंतित दिखने का ढोंग कर रही हैं, में से किसी ने भी अपनी जगह पर प्रवासी मजदूरों के हकों को संबोधित या स्वीकार नहीं किया है क्योंकि ऐसा करने के लिए उन्हें अपने मुनाफे में कटौती करनी पड़ जाएगी।
सदियों से चले आ रहे मजदूर वर्ग के शोषण से आज दैत्याकार रूप ले चुकी (परंतु गंभीर रूप से संकटग्रस्त) पूंजी समाज के सभी पहलुओं – चाहे वह खेल-मनोरंजन हो या ज्ञान, कला हो या संस्कृति आदि – को अपनी चपेट में ले चुकी है और इस कारण से ही यह सभी क्षेत्र अपनी आत्मा खो कर बड़े पूंजीपतियों का मुनाफा पैदा करने वाले उद्योगों में तब्दील हो चुके हैं, जिसका एकमात्र स्रोत (प्रकृति के अलावा) मानव श्रम की लूट है। इन उद्योगों में फैसला योग्यता व सामाजिक जरूरतों के आधार पर नहीं बल्कि मुनाफे के आधार पर होता है, भले ही (और जैसा अक्सर होता है) वह फैसला मानवद्रोही ही क्यों न हो। यही हाल आज जहां फुटबॉल का है वहां विज्ञान का भी है। अतः यदि समाज के इन सभी आयामों की आत्मा को बचाना है अर्थात समस्त समाज को ही बचाना है तो इसे पूंजी के जुए से मुक्त करना ही मानव जाति के पास एकमात्र रास्ता बचा है। क्योंकि यह पूंजी के राज (वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था) को उखाड़ फेके बिना असंभव है, ठीक इसलिए, इसके नेतृत्व का कार्यभार सभ्यता व संस्कृति के असली निर्माता जिसके शोषण पर ही यह व्यवस्था टिकी हुई है, यानी मजदूर वर्ग जैसे सर्वाधिक क्रांतिकारी वर्ग, के कंधों पर है और आज नहीं तो कल उसे अपने इस ऐतिहासिक मिशन को पूरा करना होगा।