ऑक्सफैम सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्टरिपोर्ट

January 24, 2023 0 By Yatharth

गैर बराबरी के आकड़ो से झांकती संकटग्रस्त पूंजीवादी व्यवस्था की हकीकत

आकांक्षा

अंतर्राष्ट्रीय संस्था ‘ऑक्सफैम’ द्वारा 16 जनवरी 2023 को ‘सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट’ नाम से जारी की गयी रिपोर्ट में पूरी दुनिया में गैरबराबरी की बढ़ती खाई को उजागर करते आकड़े पेश किये गए। ये रिपोर्ट बताती है कि कोरोना महामारी की शुरुआत से नवंबर 2022 तक निर्मित सारी नई संपत्ति (42 ट्रिलियन डॉलर) का 63% (लगभग दो-तिहाई हिस्सा यानी 26 ट्रिलियन डॉलर) दुनिया के सबसे अमीर 1% लोगों के पास गया। ऑक्सफैम के अनुसार पिछले 25 सालों में पहली बार ऐसा हुआ है कि एक तरफ धन-सम्पदा में अत्यधिक वृद्धि हुई है और दूसरी तरफ गरीबी और कंगाली भी अभूतपूर्व गति से बढ़ी है। इस एक प्रतिशत में आने वाले ‘सबसे अमीर लोग’ और कोई नहीं, देश और दुनिया के बाजार पर कब्जा जमाए बैठे एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के मालिक हैं, जो कभी ना शांत होने वाली अपने मुनाफे की भूख के लिए आकाश से ले कर पाताल तक की सारी संपत्ति हड़प लेना चाहते हैं और इस होड़ में सिर्फ गरीब मेहनतकश जनता ही नहीं, बल्कि तमाम अंतरवर्ती तबकों को भी, उन्हें भी जो कल तक उनके ही कैंप में हुआ करते थे, लूटने पर तुले हैं। और इसके परिणामस्वरूप अमीरी और गरीबी की खाई और गहरी होती जा रही है।

गैर बराबरी की तीक्ष्णता को और बेहतर समझने के लिए ऑक्सफैम की रिपोर्ट आगे बताती है कि निचले 90% आबादी के किसी व्यक्ति द्वारा कमाए गए 1 डॉलर के बदले हर अरबपति ने लगभग 1.7 मिलियन डॉलर (13.76 करोड़ रूपए) कमाए हैं। 2022 में मामूली गिरावट के बावजूद, अरबपतियों की संयुक्त संपत्ति में प्रतिदिन 2.7 बिलियन डॉलर (22 हजार करोड़) की वृद्धि हुई। महामारी में हुए मुनाफे के बाद, लगभग एक दशक के उपरांत, अरबपतियों की संख्या और संपत्ति, दोनों ही दोगुने हो गए हैं। कोरोना महामारी में पूरी दुनिया की सरकारों ने गरीब और बेसहारा जनता को बचाने की नहीं, बल्कि पूंजीपतियों के मुनाफे को सुनिश्चित करने की चिंता की। महामारी से निपटने के लिए “जनता को राहत” देने के नाम पर ली गयीं आर्थिक नीतियों, जैसे ब्याज दरों में कटौती, क्वांटिटेटिव ईजिंग द्वारा मुद्रा की मात्रा बढ़ाना, आदि, ने संपत्ति और शेयरों के दाम बढ़ा दिये, और इसका सीधा लाभ संपत्तिवान वर्ग को मिला।

पर्यावरण और जलवायु संकट पर आम जनता को पाठ पढ़ाया जाता है कि अपने जीवन में पर्यावरण को बचाने के मद्देनजर बदलाव करें, यानी आराम और सस्ती चीजों का ‘त्याग’ करें। जलवायु को हो रहे नुकसान का ठिकरा उस आम इंसान पर फोड़ दिया जाता है जो हर रोज जद्दोजहद कर किसी तरह अपने जीवनयापन के साधन जुटा पाता है, जबकि उनकी दिनचर्या की आदतों से वातावरण को होने वाला नुकसान या प्रदुषण तुलनात्मक रूप से नगण्य होता है। असल में, इस पूरे डिस्कोर्स का मकसद प्रदुषण फैलाने और पर्यावरण से खिलवाड़ करने के असली दोषियों, यानी उन्हीं एकाधिकार वित्तीय पूंजी के स्वामियों, को दोषमुक्त करना और उनके मुनाफे को किसी भी आंच से बचाना होता है। ऑक्सफैम चैरिटी की रिपोर्ट भी पुष्ट करती है कि एक अरबपति ने किसी औसत व्यक्ति की तुलना में एक लाख गुना अधिक कार्बन का उत्सर्जन किया। औसत निवेशक की तुलना में प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों में उसके निवेश करने की संभावना भी दोगुनी थी। 

भारत में गैर बराबरी की गहराती खाई

ऑक्सफैम इंडिया की नवीनतम रिपोर्ट “सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट: द इंडिया स्टोरी” के अनुसार, केवल पांच प्रतिशत भारतीयों के पास देश की 60 प्रतिशत से अधिक संपत्ति है, जबकि भारत की निचली 50 प्रतिशत आबादी के पास केवल तीन प्रतिशत संपत्ति है। केवल 2022 में ही, भारत के सबसे अमीर आदमी, गौतम अदानी, की संपत्ति में 46 फीसदी का इजाफा हुआ है। ऑक्सफैम ने कहा कि कोरोना महामारी के शुरू होने से नवंबर 2022 तक, भारत में अरबपतियों की संपत्ति में वास्तविक रूप से 121 प्रतिशत या 3,608 करोड़ रुपये प्रति दिन (लगभग 2.5 करोड़ रुपये प्रति मिनट) की बढ़ोतरी हुई है। और तो और भारत में अरबपतियों की कुल संख्या भी 2020 में 102 से बढ़कर 2022 में 166 हो गई है। जबकि दूसरी तरफ अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट [1] बताती है कि महामारी के एक साल में 23 करोड़ लोग गरीबी में धकेल दिए गए।

ऑक्सफैम इंडिया के सीईओ, अमिताभ बेहर का कहना है कि “एक तरफ देश भूख, बेरोजगारी, मुद्रास्फीति और स्वास्थ्य आपदाओं जैसे कई संकटों से पीड़ित है, लेकिन इस दौरान भारत के अरबपतियों के मुनाफे में दिन दोगुनी रात चौगुनी बढ़ोतरी हो रही है। इस बीच भारत में गरीब जनता जीवित रहने के लिए मूलभूत आवश्यकताओं को भी वहन करने में असमर्थ हैं। भूख से पीड़ित भारतीयों की संख्या 2018 में 19 करोड़ से बढ़कर 2022 में 35 करोड़ हो गयी है। 2022 में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में 69 प्रतिशत मौतें भूख से हुई है, जैसा कि केंद्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पेश की गयी रिपोर्ट में लिखा है। कोविद महामारी के दौरान भयानक तकलीफ और मौत देखने के बाद यह बेहद जरूरी था कि केंद्र सरकार अन्याय और गरीबी से लड़ने के लिए कदम उठाती। लेकिन अफसोस, उनके जहन में ये बात है ही नहीं। भारत, दुर्भाग्यवश, केवल अमीरों का देश बनने की ओर तेजी से अग्रसर है।”

करों के बोझ तले दबती गरीब जनता

ऑक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट से पता चलता है कि जीएसटी व अन्य अप्रत्यक्ष करों का गरीब लोगों पर कितना अधिक बोझ पड़ता है। राष्ट्रीय सैंपल सर्वे संगठन (NSSO) की घरेलू उपभोग की वस्तुओं-सेवाओं के उपभोग की रिपोर्ट में जो खाद्य व गैर खाद्य पदार्थ आते हैं, उन पर लगने वाले जीएसटी पर समाज की निचली 50% आबादी को अपनी आय का 6.7% टैक्स चुकाना पडता है, मंझली 40% आबादी अपनी आय का 3.3% जीएसटी चुकाती है। जबकि शीर्ष 10% अमीर उन पर अपनी आय का मात्र 0.4% ही टैक्स के रूप में चुकाते हैं। आम मेहनतकश जनता के उपभोग की इन खाद्य व गैर-खाद्य पदार्थों पर सरकार जितना टैक्स वसूलती है उसमें से 64.3% इस 50% गरीब आबादी से ही वसूल किया जाता है।

स्पष्ट है कि अप्रत्यक्ष करों की वास्तविक दरें आमदनी व संपत्ति की स्थिति की ठीक उलटी हैं। जो गरीब हैं उन्हें अपनी आय का अधिक बड़ा हिस्सा सरकार को टैक्स के रूप में चुकाना पड़ता है, जबकि जो जितना अमीर है उस पर टैक्स की दर उतनी कम है। बल्कि पिछले साल सरकार की कुल टैक्स आय में कॉर्पोरेट से मिलने वाले टैक्स का हिस्सा 8% घट गया है।

लेकिन इस घोर अन्यायपूर्ण टैक्स व्यवस्था के बावजूद भी मीडिया व बुर्जुआ ‘विद्वान’ दुष्प्रचार करते रहते हैं कि सिर्फ 3% लोग टैक्स देते हैं और जब भी शिक्षा स्वास्थ्य जैसी सामाजिक सुविधाओं पर खर्च की बात आती है, तभी टैक्स पेयर पर बोझ का शोर मचाया जाता है। पर सच्चाई तो यह है कि टैक्सों का बहुत छोटा सा हिस्सा आम मेहनतकश जनता पर खर्च होता है। बड़ा हिस्सा तो पूंजीपतियों व अन्य अमीर तबके को सबसिडी, प्रोत्साहन, रियायत, कर्ज माफी, वगैरह पर ही खर्च कर दिया जाता है। ऊपर से सिर्फ 2020-21 के साल में ही सरकार ने कॉर्पोरेट पूंजीपतियों को 1 लाख 3 हजार 285 करोड़ रुपये की टैक्स रियायतें दी हैं।

ऑक्सफैम द्वारा दिया गया समाधान और उसकी सीमा

ऑक्सफैम के अनुसार देश में बढ़ती गैर-बराबरी की खाई को पाटने का एकमात्र और कारगर रास्ता है सरकार द्वारा अमीरों से उचित कर की वसूली और उससे आई रकम को जनता के हित में खर्च करना। अमिताभ बेहर कहते हैं, “देश में हाशिये पर रहने वाले – दलित, आदिवासी, मुस्लिम, महिलाएं और अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिक – एक ऐसी व्यवस्था के मारे हैं जिसका लक्ष्य चंद सबसे अमीर लोगों के अस्तित्व को सुनिश्चित करना है। गरीब अमीरों की तुलना में अनुपातहीन रूप से अधिक करों का भुगतान कर रहे हैं, आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं पर अधिक खर्च कर रहे हैं। समय आ गया है कि अमीरों से उचित कर वसूला जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि वे अपने हिस्से का भुगतान करें। हम वित्त मंत्री से ‘संपत्ति कर’ और ‘इन्हेरिटेंस कर’ (विरासत में मिली संपत्ति पर लगने वाला कर) जैसे प्रगतिशील कर उपायों को लागू करने का आग्रह करते हैं जो ऐतिहासिक रूप से असमानता से निपटने में प्रभावी साबित हुए हैं।” इसके समर्थन में ऑक्सफैम कई आंकड़े भी पेश करता है। रिपोर्ट कहती है कि अगर भारत के अरबपतियों की पूरी संपत्ति पर 2 फीसदी की दर से एकमुश्त कर लगाया जाता है, तो इससे देश में अगले तीन साल तक कुपोषित लोगों के पोषण के लिए 40,423 करोड़ रुपये की जरूरत को पूरा किया जा सकेगा। देश के 10 सबसे अमीर अरबपतियों पर 5 प्रतिशत का एकमुश्त कर लगाने से 1.37 लाख करोड़ रुपये आयेंगे, जो स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (86,200 करोड़ रुपये) और आयुष मंत्रालय (3,050 करोड़ रुपये) द्वारा वर्ष 2022-23 के लिए अनुमानित राशी का डेढ़ गुना है। इन आकड़ो द्वारा सुझाया गया मार्ग सतही तौर पर सही लग सकता है, लेकिन क्या आज के परिपेक्ष्य में पूंजीपतियों पर कर बढ़ाने जैसे “नए तरीके” के कीन्सवाद की शरण में जाना कोई समाधान हो सकता है?

आज विश्व पूंजीवाद स्थायी प्रतीत होने वाले अभूतपूर्व आर्थिक संकट में फंस चुका है। आज स्वर्णिम युग का वो पूंजीवादी दौर नहीं है जहां मजदूर-मेहनतकश जनता और आम आवाम अपने हक अधिकार के लिए लड़ कर, पूंजीवादी सीमा के अंतर्गत ही सही, कुछ प्रभावी आर्थिक राहत हासिल कर सकती थी; बल्कि आज पूंजीवादी व्यवस्था की बागडोर एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के हाथ में है जो मनुष्य, प्रकृति और इनके द्वारा निर्मित सभी चीजों से मुनाफे का आखरी कतरा तक चूस लेने की होड़ में समाज को मध्ययुगीन बर्बरता की ओर धकेल रही है। हालांकि मजदूर-मेहनतकशों के श्रम की लूट सदियों से जारी थी, लेकिन आज के अभूतपूर्व पूंजीवादी संकट के दौर में वित्तीय पूंजी के मालिकों ने न सिर्फ इस लूट को बेतहाशा बढ़ा दिया है, बल्कि छोटे-मंझोले पूंजीपतियों और दरमियानी वर्गों के पास पहले से संचित पूंजी को भी हड़पने की कवायद शुरू कर दी है। समाज का हर एक तबका वित्तीय पूंजी के जुए के नीचे त्राहिमाम कर रहा है। भारत में भी वित्तीय पूंजी के सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्से के प्रतिनिधि के रूप में आरएसएस-भाजपा के नेतृत्व वाली फासीवादी सरकार सत्ता में बैठ चुकी है और राज्यसत्ता के लगभग हर स्तम्भ को अपने कब्जे में कर चुकी है। ऐसे में जनता के पक्ष में सुधार की कोई प्रभावी नीति सही मायने में लागू हो ही नहीं सकती। आज अगर मजदूर-मेहनतकशों, गरीब-मजलूमों, किसानों, निम्न मध्य वर्ग, मध्य वर्ग, यहां तक कि पूंजीपति वर्ग के एक हिस्से को भी खुद को बर्बाद होने से बचाना है तो यह इस पूंजीवादी व्यवस्था में संभव नहीं है, और ना ही इतिहास के पहिये को पीछे धकेल कर साफ-सुथरी, ‘कम शोषणकारी’ पूंजीवादी व्यवस्था में जाना ही संभव है। पीछे जाने का मतलब होगा उत्पादक शक्तियों में अभी तक हुए अप्रतिम विकास को नष्ट कर देना और पूरी दुनिया को युद्ध और विनष्टीकरण की आग में झोंक देना। इससे बचने का एक ही रास्ता है – इतिहास की गति के साथ आगे बढ़ना और जिस पूंजीवादी व्यवस्था का मर्सिया पढ़ दिया गया है उसे हमेशा के लिए समाज की ड्राइविंग सीट से हटा कर, सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में एक ऐसे समाज का निर्माण करना जहां किसी तरह की अन्यायपूर्ण गैर बराबरी और शोषण की कोई जगह नहीं होगी।

फुटनोट-

[1] 2021 में प्रकाशित रिपोर्ट ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2021: वन इयर ऑफ कोविड-19’ के अनुसार राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम आय पाने वालों की संख्या 23 करोड़ से बढ़ गयी।