विश्व अर्थव्यवस्था का संकट, फासीवाद एवं विश्वयुद्ध

May 25, 2023 0 By Yatharth

अजय सिन्हा

विश्व-अर्थव्यवस्था की मौजूदा सेहत के बारे में विश्वपूंजीवाद की सिरमौर संस्थाओं (जैसे कि वर्ल्ड बैंक, आदि) और थिंक टैंकों द्वारा 2023 के शुरुआती महीनों (मार्च और अप्रैल) में आंकड़ों की भरमार के साथ कई महत्वपूर्ण व उपयोगी शोध रिपोर्टें (जैसे कि वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी ”ग्लोबल इकोनॉमिक प्रॉस्पेक्ट्स” और ”फॉलिंग लांग टर्म ग्रोथ प्रॉस्पेक्ट्स” और अमेरिका के ‘द कांफ्रेंस बोर्ड’ द्वारा जारी ”ग्लोबल इकोनॉमिक आउटलुक” आदि) जारी की गई हैं जो विश्व-अर्थव्यवस्था की अत्यंत बुरी, लगभग लाइलाज एवं स्थाई रूप से बीमार हो जाने की हद तक खराब हो चुकी सेहत, के बारे में बताती हैं और इसलिए इसके संचालकों के अलार्म मोड में चले जाने की ओर इशारा भी करती हैं। इसने मुख्य रूप से वित्तीय पूंजी की परजीविता की प्रवृत्ति के शिखर पर पहुंच जाने और इस कारण विश्वपूंजीवाद और पूंजीवादी जनतंत्र में पैदा हो चुकी अपूरणीय (irreparable) सड़न को पूरी तरह उजागर करने का काम किया है! इसका संपूर्ण और सम्‍यक विश्‍लेषण एवं मूल्‍यांकन जरूरी है जिसके लिए इस लेख को आगे किश्तों में जारी रखना होगा। यह एक कष्टसाध्य, लेकिन एक जरूरी काम है, क्योंकि इसी से इस चीज का आंकलन होगा कि आखिर माौजूदा समय में फासीवादी शक्तियों का उभार पूरे विश्व में क्यों हो रहा है जबकि सर्वहारा क्रांति तात्कालिक रूप से किसी भी देश में पूंजीपति के भयाक्रांत होने का कारण नहीं है। जाहिर है, इससे यह समझने में भी मदद मिलेगी कि आज के फासीवाद का चरित्र एवं खतरा पिछली सदी के फासीवाद के चरित्र और खतरे से, और इसलिए इसे पराजित करने का रास्ता और तरीका भी तब से किस मायने में और किस तरह से भिन्न होगा; यानी, यह समझने में मदद मिलेगी कि आज के फासीवाद को पराजित करने के क्रांतिकारी कार्यक्रम में पूंजीवाद को हमेशा के लिए इतिहास के रंगमंच से तिरोहित करने का कार्यभार भी आपस में किस तरह गुंथा हुआ या घुला-मिला है।

द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद से अब तक पूंजीवाद में आये संकट के परिदृश्‍य को संपूर्णता में देखें, तो 1970 के दशक में जिस आर्थिक संकट और मंदी ने पूंजीवाद के तथाकथित स्वर्ण काल को ध्वस्त किया, वह किसी न किसी रूप में आज तक जारी है, विस्तारित और गहरे स्‍वरूप में ही नहीं, पहले की तुलना में कई गुणा ज्यादा तीव्रता से जारी है। मतलब 1970 के दशक से ही विश्वपूंजीवादी अर्थव्यवस्था क्षयग्रस्त और क्षतिग्रस्त है। बीच-बीच में मरम्मत भी हुई, लेकिन हर मरम्मत के बाद, थोड़े ही दिनों के बाद, वह पहले की तुलना में और ज्यादा क्षतिग्रस्त होती गई। क्षतिग्रस्त तो वह थी ही, 1982 से 1990 और फिर 1991 से 2000 के आते-आते नवउदारवादी नीतियों के माध्‍यम से (मूल्‍य-उत्‍पादन के विस्‍तार से प्राप्‍त मुनाफे के बदले वित्‍तीय माध्‍यमों से होनेवाले मुनाफे के आधार पर पूंजी संचय की निर्भरता वाले माध्‍यमों से) ग्रोथ तथा पूंजी संचय के तरीकों की क्रमश: होने वाली असफलता, जो 2008-09 की महान मंदी के फूट पड़ने की पृष्‍ठभूमि या पूर्व पीठिका थी, ने इसे एक नयी लाइलाज बीमारी से क्षयग्रस्‍त भी हो गई। 2008-09 के बाद इसका यह क्षय रोग विकराल स्‍वरूप ले चुका है। क्षयग्रस्‍ता की लंबी अवधि‍ से  विश्वपूंजीवाद के संचालक यह समझ चुके हैं कि विश्‍वपूंजीवाद की बस सांसें ही चल रही हैं, बाकी इसके अंग-प्रत्‍यंग बेकार हो चुके हैं। इसलिए यह स्‍वाभाविक है कि पूरे पूंजीपति वर्ग का आत्मविश्वास डोल चुका है। खासकर बड़ा पूंजीपति वर्ग एक खास किस्म की भयग्रस्‍त मानसिकता का शिकार हो चुका है। विशेष रूप से इस बात को लेकर कि विश्‍व-अर्थव्‍यवस्‍था के मंद विकास, लगातार गिरती मुनाफा दर और बीच-बीच में आर्थिक मंदी के भंवरजाल से बाहर निकलने की उम्‍मीद करना बेकार है। लाभ दर में ही नहीं, पूंजीपति वर्ग के इस आत्मविश्वास में भी भारी गिरावट आयी है कि वह फिर से पहले की तरह ग्रोथ और प्रगति के युग में लौट सकता है। उसे डर हो गया है कि शासन करने की ऐति‍हासिक वैधता तो पहले ही खत्‍म हो चुकी थी, राजनीतिक वैधता भी खत्‍म हो जाने वाली है। फासीवाद की शरण में जाने की मजबूरी इसलिए ही आ पड़ी है। इससे भी बढ़कर भय इस बात को लेकर है कि क्‍योंकि संकट स्‍थाई हो चुका है और इसलिए फासीवाद की शरण में रहने की मजबूरी भी स्‍थाई है। जनतंत्र का न्‍यूनतम दिखावा भी मुश्‍कल हो रहा है। उसे यह भी पता है कि फासीवाद के स्‍थाई उभार, इससे पैदा होने वाले दमघोंटू (हर तरह से स्‍वतंत्रताविहीन ) वातावरण में जनता को लगातार कैद रखने की बढ़ती मजबूरी, ऊपर से बेतहाशा बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई, दरिद्रता, आदि से जनाक्रोश किसी भी समय, बिना चेतावनी और किसी पूर्व सूचना  के अनियंत्रित हो जा सकता है। इससे निश्चित ही सर्वहारावर्गीय जनक्रांति का खतरा बढ़ जाता है। इतिहास में जाने की जरूरत नहीं है। नजदीक में श्रीलंका का ताजा उदाहरण सामने है। पूरे यूरोप व  अमरीका में मजदूर वर्ग एवं जनता का फूट रहा आक्रोश सबके सामने है। दूर दिखने वाली क्रांति,  आत्मगत शक्तियों के कमजोर होने के बावजूद, काफी नजदीक दिखाई देने लगी है। इसका अहसास पूंजीपति वर्ग को है। उसकी हताशा का तीव्र होना और साथ में फासीवाद या उग्र दक्षिणपंथ की तरफ उसका तेजी से बढ़ना, जनवादी अधिकारों का हनन और जततंत्र को धीरे-धीरे खत्‍म करना उसकी मजबूरी है। पूंजीवादी तानाशाही का नया दौर उग्र अति दक्षिणपंथ और फासीवाद के मिले-जुले उभार का दौर होने वाला है। लेकिन किसी भी हालात में, पुराने, एक दशक पुराने जनतांत्रिक वातावरण की पुनर्बहाली एक दिवास्‍वप्‍न है। निश्चित ही यह कुछ मायने में नयी चारित्रिक विशेषताओं वाले फासीवाद के उभार का प्रतीक है जो विश्‍व-अर्थव्‍यवस्‍था के स्‍थाई संकट और इससे उत्‍पन्‍न सर्वहारा क्रांति की सुदूर संभावनाओं से भयग्रस्त हो चुके पूंजीपति वर्ग की हताशा का, यानी दोनों का मिला-जुला नतीजा है। इसलिए इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि 21वीं सदी का फासीवाद कुछ मायनों में पिछली सदी के दूसरे व तीसरे दशक के फासीवाद से भिन्न है, और भिन्‍न होना भी चाहिए।

पूंजीवादी-साम्राज्यवादी थिंक टैंकों के बीच भी अब एक आम सहमति सी बन चुकी है कि विश्व पूंजीवाद में लंबे अरसे से पैर जमाये संकट के खत्म होने की संभावना क्षीण ही नहीं काफी क्षीण है। इसलिए इस सीमित दृष्टि से, यानी सर्वहारा क्रांति की आमद की संभावना को दूर रख कर भी देखें, तो भी हम इसी निष्‍कर्ष पर पहुंचेंगे कि अत्यंत सुस्त, मंद, बूढ़ा, बीमार और मरणासन्न विश्वपूंजीवाद ऐतिहासिक पश्चगमन के लिए ही बाध्य होगा। क्‍या सच में किसी को इसमें आश्चर्य होना चाहिए? 

वैश्विक अर्थव्‍यवस्‍था के मौजूदा संकट को हम स्‍थाई क्‍यों कह रहे हैं? हम ऐसा अर्थव्यवस्था में कार्यरत तमाम आर्थिक कारकों व शक्तियों का अध्ययन करने के बाद कह रहे हैं और यह जानते हुए कह रहें कि ऐतिहासिक एवं द्वंद्ववादी भौतिकवाद के अनुसार दुनिया की कोई भी चीज हमेशा के लिए स्थाई या स्थिर नहीं हो सकती है। लेकिन हम द्वंक्ष्‍वाद की अपनी समझ के आधार पर ही इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि विश्वपूंजीवाद का संकट द्वंद्वात्मक अर्थ में एक स्थाई संकट बन चुका है। द्वंद्ववाद जिस तरह सापेक्षिक सत्‍य और परम सत्‍य के बीच के संबंध की व्‍याख्‍या करता है ठीक वैसे वह स्‍थाई और अस्‍थाई के बीच संबंधों पर भी लागू होता है। जैसे, यह सच है कि सत्‍य सापेक्षिक होता है, लेकिन मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी परम सत्‍य के अस्तित्‍व से इनकार नहीं करते हैं। वैसे ही हमें किसी चीज के स्‍थाई होने से इनकार नहीं करना चाहिए। लेनिन कहते हैं – ”To be a materialist is to acknowledge objective truth, which is revealed tous by our sense-organs. To acknowledge objective truth, i.e. truth not dependent upon man and mankind, is, in one way or another, to recognise absolute truth. And it is this “one way or another” which distinguishes the metaphysical materialist Dühring from the dialectical materialist Engels..We must learn to put, and answer, the question of the relation between absolute and relative truth dialectically.” (Materalism and Empirio-criticism)

हम मानते हैं, कि ठीक इसी तरह, हमें ”स्‍थाई” और ”अस्‍थाई” एवं ”स्थिर” और ”अस्थिर” के बीच के संबंध के प्रश्‍नों का जवाब भी द्वंद्वात्‍मक तरीके से देने आना चाहिए तथा देना सीखना चाहिए। द्वंद्ववादी होना और सापेक्षतावादी होना अलग-अलग चीजें हैं। एक द्वंद्ववादी के लिए सत्‍य के सापेक्षि‍क अस्तित्‍व को मानने का अर्थ परम सत्‍य के अस्तित्‍व से पूरी तरह इनकार करना नहीं है। लेनिन लिखते हैं – For Bogdanov (as for all the Machists) recognition of the relativity of ourknowledge excludes even the least admission of absolute truth. For Engels, absolute truth is compounded from relative truths. (ibid)  

1970 के दशक के मध्‍य में शुरू हुआ विश्व पूंजीवाद का संकट यूं तो विकसित यूरोप के दशों, अमेरिका एवं जापान की अग्रणी  अर्थव्यवस्थाओं में आया संकट था, लेकिन बाद में वह पूरे विश्व में फैल गया और आज तो किसी भी तरह से टलने का नाम नहीं ले रहा है। अति संक्षेप में कहें, तो 2008-09 की महान मंदी की आमद का कारण था – पहले, 1970 के मध्‍य में आयी आर्थिक मंदी द्वारा मूल्‍य के उत्‍पादन के विस्‍तार के आधार पर पूंजी संचय की प्रक्रिया का बाधित होना, और फिर इसकी जगह 2000 के आसपास से मुख्‍य से वित्‍तीय परिसंपत्तियों के माध्‍यम से प्राप्‍त वित्‍तीय मुनाफे के विस्‍तार के आधार पर शुरू हए पूंजी संचय की नयी प्रक्रिया का दुबारा से बाधित हो जाना। 2008-09 में फूटा संकट इस बात का प्रतीक था कि वित्‍तीय मुनाफे के आधार पर शुरू हुआ नये तरीके के पूंजी संचय का भी भविष्‍य नहीं है। यहां यह बताना आवश्‍यक है कि इसका मतलब यह नहीं है कि मूल्‍य का उत्‍पादन बंद हो गया था, और मूल्‍य के उत्‍पादन के आधार पर मुनाफा का पैदा होना और उस पर आधारित पूंजी संचय पूरी तरह बंद हो गया था। सवाल यह है कि मुख्‍य और बढ़ती प्रवृत्ति क्‍या थी या है। 2008-09 के संकट के फूटने के बाद भी पहले वाली प्रवृत्ति की प्रमुखता से वापसी नहीं हो सकती है। इसे समझना ही आज सबसे ज्‍यादा जरूरी है। दूसरे, अगर वित्‍तीय मुनाफे के आधार पर पूंजी संचय का रास्‍ता पर निरापद नहीं है तो यह समझना पड़ेगा कि इसके बाद क्‍या होगा। इस प्रश्‍न का जवाब कठिन है, लेकिन इतना निश्चित है कि इसके बाद विकसित देशों में ऑटोमेशन में हुए बहुत तेज विकास ने उत्‍पादों में जीवित श्रम की मात्रा इतनी कम कर दी है, तथा आगे और इतना कम कर देगा कि मूल्‍य, श्रम और मूल्‍य के नियम, आदि, यानी पूंजीवाद का मूलाधार ही खत्‍म हो जाएगा। पूंजी संचय की प्रक्रिया के पूरी तरह बंद हो जाने का खतरा उपस्थित हो चुका है। ऐसे में मूल्‍य के उत्‍पादन के आधार पर पूंजी संचय की प्रक्रिया प्रमुखता ग्रहण करेगी इसमें पूरा संदेह है। जो बाकी बचता है वह है वित्‍तीय पूंजी का पूर्ण वर्चस्‍व और इससे प्राप्‍त होने वाले मुनाफे के विस्‍तार के लिए रास्‍ता निकालना। वह रास्‍ता है सट्टेबाजी का, शेयर मार्केट के माध्‍यम से डेराइवेटिव्‍स बाजार के विस्‍तार का और वित्‍त पूंजी के आधिक्‍य का सरकारी कर्ज या निजी कर्ज के बाजार में अवशोषित होने और बढ़ते ब्‍याज दरों के माध्‍यम से मुनाफा कमाने का। लेकिन इससे होने वाला हर पूंजी संचय उत्‍तरोत्‍तर भविष्‍य में होने वाली स्‍वयं की अपनी अर्थात पूंजी संचय की प्रक्रिया को बाधित करने वाले कारकों को पैदा करता जाएगा। यह सही है कि इसे विस्‍तार से ही नहीं महीनी से समझना होगा। इस लेख की सीमा को देखते हुए अभी तो यह शायद ही संभव हो।

पूंजीवाद के तथाकथित स्वर्णकाल (1948 से 1973 के बीच के काल) को पूरी तरह ध्वस्त करने वाले आर्थिक कारकों की उत्‍पत्ति स्वर्ण काल में ही हो चुकी थी। 1970 के मध्‍य में आये संकट के हल के पुराने रास्‍ते की सीमाओं के उजागर होने के बाद अतिरिक्‍त पूंजी वित्‍तीय परिसं‍पत्तियों में लगने में और उसके माध्‍यम से मुनाफा कमाने की ओर बढ़ी। यह बिल्कुल ही नयी तरह की परिस्थिति और चीज थी। इसने, और इसके पहले ही पैदा ले चुके यूरो डॉलर बाजार की विलक्षण परिघटना और उसके बाद गोल्‍ड स्‍टैंडर्ड के खात्‍मे ने जो परिस्थिति पैदा की उन सबने एक साथ मिलकर एकाधिकारी वित्तीय पूंजी की काया और शक्ति में विशालकाय विस्तार एवं इजाफा किया। बाद में इंटरनेट और कंटेनराइजेशन के विकास ने यूरो डॉलर को एक गर्म मुद्रा में और वित्‍त पूंजी को एक पल में उड़नछू होने वाली वाष्‍पशील वित्‍त पूंजी में बदल दिया और इस तरह वित्‍तीय पूंजी के ‍विश्वअर्थव्यवस्था पर पूर्ण नियंत्रण कायम करने में काफी मदद की। इस तरह विश्वअर्थव्यवस्था का बड़े पैमाने पर वित्तीयकरण हुआ और उससे होने वाले मुनाफे के आधार पर होने वाले पूंजी संचय की प्रक्रिया पूंजी संचय की मुख्‍य प्रवृत्ति बनी जिसने उद्योगों में ऑटोमेशन को काफी तेज गति से आगे बढ़ाया। पूंजी में प्राविधिक पूंजी (टेक्‍नोलॉजिकल पूंजी) का इजाफा अकल्‍पनीय तौर पर आगे बढ़ा। दूसरी तरफ, वित्तीय पूंजी का कर्ज बाजार से मुनाफा कमाना एक मुख्‍य प्रवृत्ति बन कर उभरा जिसने वित्‍त पूंजी की परजीविता को और आगे बढ़ाया। आज परजीविता की प्रवृत्ति जिस शिखर (cliff) बिंदु पर जा पहुंची है और यह जिस तरह के महाविनाश की तरफ पूरे विश्व को ले जा रही है उसकी पूरी तस्वीर रखने, और पूरी मानवजाति को उससे पूरी ताकत से मुकाबला करने एवं अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए पूंजीवाद की क्षितिज को लांघने के लिए जीवंत आह्वान करने का काम आज सबसे ज्यादा जरूरी है। यह आज के फासीवाद को परास्त करने के काम से पूरी तरह गुंथा हुआ कार्यभार है। लेनिन ने अपनी थीसिस में एकाधिकारी वित्तीय पूंजी में निहित जिस परजीविता की प्रवृत्ति के बारे में बताया था आज वह प्रवृत्ति इतनी अधिक प्रबल और विकसित हो चुकी है कि इसने विश्वपूंजीवादी अर्थव्यवस्था को वास्तव में एक आम संकट की हालत में पहुंचा दिया है।

जब लेनिन और स्तालिन ने एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के उदय और सोवियत क्रांति की विजय के बाद पूंजीवाद के आम संकट में फंसने की बात की थी, तब साम्राज्यवाद सर्वहारा क्रांति और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों से घिरा था, तथा दुनिया के एक बड़े हिस्से में समाजवाद की विजय के कारण विश्व बाजार भी बंट चुका था। लेकिन आज वैसी परिस्थिति नहीं है। इसके बावजूद विश्वपूंजीवाद चौतरफा घिर चुका है, पूंजी संचय के तरीकों में अंतर्भूत अंतर्विरोधों के कारण उत्पन्न आर्थिक संकट के लक्षणों के उत्तरोत्तर उग्र होते जाने के कारण यह बुरी तरह अंदरूनी अंतर्विरोधों में फंस चुका है। हालांकि यह सही है कि इसने समाजवाद और सर्वहारा क्रांति की संभावना को भी आसन्‍न और तीव्र कर दिया है।

इसलिए आज जो आर्थिक संकट को ठीक से समझ नहीं पा रहे हैं, वे न तो फासीवाद को समझ पा रहे हैं और न ही उस क्रांतिकारी परिस्थिति को ही ठीक से समझ पा रहे हैं जो लगातार आदमकद शक्ल लेती जा रही है। जाहिर है, हमारा आंदोलन इन कारणों से अपने कार्यभारों को भी ठीक से समझने व प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं हो पा रहा है। वे अक्सर कहते पाये जाते हैं कि लेनिन और फिर स्तालिन के काल में साम्राज्यवाद-पूंजीवाद उत्तरोत्तर समाजवाद और सर्वहारा क्रांति के विस्तार की संभावना द्वारा ही नहीं राष्ट्रीय मुक्ति संग्रामों की बाढ़ से भी घिर चुका था और इसलिए उनका यह कहना सही था कि विश्वपूंजीवाद एक आम संकट में फंस चुका था। लेकिन आज स्थिति बिल्कुल विपरीत है और हम साम्राज्यवाद एवं पूंजीवाद के चौतरफा हमलों से घिरे हुए हैं। लेकिन ऐसे लोग यह देखना भूल जाते हैं कि विश्वपूंजीवाद आज किस तरह अपने अंदर से ही पैदा हुए एक असमाधेय व अनुत्क्रमणीय संकट से घिर चुका है जिससे फासीवाद का उभार भी हल नहीं कर पा रहा है। अपितु और तेज कर दे रहा है।

यहां एक और बात समझना बेहद जरूरी है। आम संकट में फंसने के बाद भी विश्वपूंजीवाद में तीव्र विकास की संभावना की बात लेनिन ने की थी। उस बात को लोग आज हू-ब-हू दुहराते रहते हैं। यह काबिलियत का परिचायक तो नहीं ही है, एक हद के बाद यह बड़ी मूर्खता का भी द्योतक है। हमें लेनिन की बातों को कठमुल्लावादी तरीके से, यानी देश व समय के निरपेक्ष, बस दुहराते नहीं रहना चाहिए। अपितु उनकी कही बातों का आज के विश्वपूंजीवाद में पैदा हो चुके नये तरह के ठोस नकारात्‍मक एवं प्रति‍गामी कारकों के संदर्भ में उसका ठोस मूल्यांकन करना चाहिए। यानी, लेनिन की शिक्षाओं के सार को हमें उचित संदर्भ में रख कर समझना चाहिए। आज सौ सालों बाद अगर कोई यह कहता है कि पूंजीवाद में तीव्र विकास की संभावना ठीक वैसे ही मौजूद है जैसे कि लेनिन के वक्‍त थी, तो यह निस्‍संदेह गलत और मूर्खतापूर्ण दोनों है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, साम्राज्यवाद के चारो तरफ पड़ा घेरा कमजोर हुआ। और स्‍तालिन की मृत्‍यु के तुरंत बाद समाजवाद ही उसके घेरे में आ गया। लेनिन व स्‍तालिन के सोवियत यूनियन में संशोधनवाद, पराजयवाद और अवसरवाद की विजय तथा उसकी वजह से पूरे विश्व की कम्युनिस्ट पार्टियों में घुस आये संशोधनवाद और अवसरवाद तथा उसकी विजय, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के पूरी तरह बिखर जाने, तथा नवोदित आजाद मुल्कों के पूंजीपति वर्ग में तीव्र पूंजीवादी विकास की चाहतों व जरूरतों ने तथा विश्वपूंजीवाद के विकास के अमेरिकी मॉडल (मुख्यत: ब्रेटेन वुड्स के फिक्स्ड विनिमय दर और संरक्षणवादी नीतियों के अधीन पूंजी और श्रम के बीच सौदेबाजी, मजदूर वर्ग की संगठित राजनीतिक शक्ति के आधार पर खड़े कल्याणवाद के द्वारा वित्त पूंजी को मुनाफा पहुंचाने वाले मॉडल जिसके द्वारा मजदूर वर्ग को पूंजीवाद का सहचर बनाया गया) के तहत अमेरिका के नेतृत्व में विश्वयुद्ध द्वारा किये गये महाविनाश के मलबे की ढेर पर विकास की एक स्वर्ण-गाथा लिख पाने की हासिल सक्षमता ने मजदूर वर्ग को एक ऐतिहासिक विपर्यय के लिए मजबूर कर दिया था। यह एक तथ्य है जिसे कोई झुठला नहीं सकता है। यूरोप, अमेरिका तथा जापान जैसे विकसित मुल्‍कों में पूंजीवादी विचारधारा के सहचर के रूप में समाजवाद की कई वैचारिक धारायें मजदूर वर्ग को धोखा देने के लिए पैदा हुईं।

यह सत्य है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्वपूंजीवाद में, खासकर विकसित देशों में तेज विकास हुआ तथा साथ में नये आजाद हुए देशों में भी पूंजीवाद का कमोबेश तेजी से विकास हुआ। लेकिन विकसित देशों में हुए इसी तेज विकास ने एक बार फिर से उन देशों को और विश्वपूंजीवाद को संकट में धकेल दिया। 1970 के दशक में जो संकट आया, वह विश्वयुद्ध के पहले के संकटों और यहां तक कि 1950 तथा 1960 के दशक में आये छोटे-मोटे संकटों से भी पूरी तरह भिन्न था। इस बार का संकट पहले के संकटों से खासकर इस मायने में भिन्न था कि इसने पारंपरिक तरीके से होने वाले पूंजी संचय के रास्ते में बाधायें खड़ी कर दीं। इसकी सबसे बड़ी मिसाल तो यही है कि पूरी दुनिया में कम्युनिस्ट पार्टियों तथा समाजवाद की ठोस रूप से पराजय हो जाने के बाद भी यह संकट 1973 में एक बार प्रकट होने के बाद कभी दूर नहीं हुआ। इसके बारे में हमने ऊपर भी चर्चा की है।

कोरोना महामारी ने आम तौर पर 1970 के दशक से और खासकर 2008-09 से जारी आर्थिक को काफी गहरा बना दिया। अटल और स्‍थाई तो वह पहले से ही था। कोरोना महामारी के खत्म होने के बाद दिखे ग्रोथ के लक्षणों ने कुछ उत्‍साह व उम्‍मीद पैदा किया, लेकिन जैसी कि उम्‍मीद थी, उम्‍मीदें क्षणिक साबित हुईं। 2023 में आयी रिपोर्टें बताती हैं कि असली बात असल में इसके ठीक उलट हो रही थीं। लांग टर्म ग्रोथ संभावनाओं के धराशायी होने की घोषणा की जा रही है, खासकर अग्रणी और उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के संदर्भ में। साथ में यह भी कहा जा रहा है कि उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं वाले देशों का हाल भी जल्‍द ही बुरा हो जाने वाला है। पूंजीवाद के शीर्ष के थिंक टैंकों के बीच यह आम सहमति है कि लांग टर्म ग्रोथ संभावनाओं के धराशायी होने की बात लगभग आम व स्‍थाई बन चुकी है। ग्‍लोबल इकोनॉमिक आउटलुक 2030 के दशक में भी इन्‍हें धराशायी अवस्‍था में ही देखता है।

दरअसल, गिरती लाभ दर का इतने सालों तक जारी रहना और अवसाद काल का इतना लंबा होना घातक साबित हुआ है। इसने विश्व की अर्थव्यवस्था को मंद विकास के दीर्घकालीन चक्रव्यूह में धकेल दिया है। मुनाफा को पुन: उत्पादन के क्षेत्र में निवेश के लिए लगाना मुश्किल हो गया। पूंजीवादी संबंधों की सीमा के कारण पूंजी संचय की चलने वाली सतत प्रक्रिया और इस तरह उत्पादकता में हुई सतत वृद्धि एक चोटी (cliff) तक पहुंचने के बाद उत्पादों में जीवित श्रम की मात्रा को इतना कम कर दिया है कि पूंजी संचय की आगे की प्रक्रिया ने ही मूल्य, मूल्य के नियम और श्रम के खात्‍मे की स्थिति पैदा कर दी है। यानी, पूंजीवाद का वह आधार ही खत्म होने की स्थिति में आ चुका है जिस पर वह खड़ा है। Ben Reynold अपनी किताब The Coming Revolution में लिखते हैं – ‘In a segment of his notes called “The Fragment on Machines,” Marx wrote that the development of technology would push capital beyond the premises of the law of value. As automated machinery became increasingly productive, he argued, direct labor would occupy an increasingly unimportant role in production. Ultimately, surplus labor would no longer be required in the development of wealth and could no longer be applied to produce value. At this point, labor time could no longer serve as the measure of value. Production based on exchange value would break down and the law of value would collapse. By expelling labor from the production process, capital was not building a foundation for its continued development. It was creating “the material conditions to blow this foundation sky high.” ‘

Ben further writes – ”This was a remarkable prediction. Marx argued that capitalism would collapse as a result of its own internal development. As the amount of living labor embodied in commodities approached zero, the law of value would no longer be able to function. The collapse of commodity production did not depend on a revolution of the working class. It was as inevitable as the progress of automation and the development of technology itself.” As implausible as this may sound in our own time, when the first ”lights out” factories have already been developed, one can imagine how shocking this prediction would have been in the middle of the 19th century.’’

इससे अंतत: पूंजी संचय भी बाधित हो जाने के कगार पर पहुंच गया है। उत्‍पादों में जीवित श्रम अगर खत्म होने की स्थिति में चला गया है, तो जाहिर है मूल्य का उत्पादन ही अंतत: बंद हो जाएगा। इस संबंध में हम मार्क्स की Grundrisse में दर्ज On Fraction Of The Machines कही बातों को आज विकसित देशों में बड़े पैमाने पर हुए ऑटोमेशन के संदर्भ में देखा और समझा जा सकता है। मार्क्स लिखते हैं – “The exchange of living labour for objectified labour – i.e. the positing of social labour in the form of the contradiction of capital and wage labour – is the ultimate development of the value-relation and of production resting on value. Its presupposition is – and remains – the mass of direct labour time, the quantity of labour employed, as the determinant factor in the production of wealth. But to the degree that large industry develops, the creation of real wealth comes to depend less on labour time and on the amount of labour employed than on the power of the agencies set in motion during labour time, whose ‘powerful effectiveness’ is itself in turn out of all proportion to the direct labour time spent on their production, but depends rather on the general state of science and on the progress of technology, or the application of this science to production.

“Real wealth manifests itself, rather – and large industry reveals this – in the monstrous disproportion between the labour time applied, and its product, as well as in the qualitative imbalance between labour, reduced to a pure abstraction, and the power of the production process it superintends. Labour no longer appears so much to be included within the production process; rather, the human being comes to relate more as watchman and regulator to the production process itself. No longer does the worker insert a modified natural thing as middle link between the object and himself; rather, he inserts the process of nature, transformed into an industrial process, as a means between himself and inorganic nature, mastering it. He steps to the side of the production process instead of being its chief actor. In this transformation, it is neither the direct human labour he himself performs, nor the time during which he works, but rather the appropriation of his own general productive power, his understanding of nature and his mastery over it by virtue of his presence as a social body – it is, in a word, the development of the social individual which appears as the great foundation-stone of production and of wealth. The theft of alien labour time, on which the present wealth is based, appears a miserable foundation in face of this new one, created by large-scale industry itself. As soon as labour in the direct form has ceased to be the great well-spring of wealth, labour time ceases and must cease to be its measure, and hence exchange value [must cease to be the measure] of use value. The surplus labour of the mass has ceased to be the condition for the development of general wealth, just as the non-labour of the few, for the development of the general powers of the human head. With that, production based on exchange value breaks down…

“Capital itself is the moving contradiction, [in] that it presses to reduce labour time to a minimum, while it posits labour time, on the other side, as sole measure and source of wealth. Hence it diminishes labour time in the necessary form so as to increase it in the superfluous form; hence posits the superfluous in growing measure as a condition for the necessary. On the one side, then, it calls to life all the powers of science and of nature, as of social combination and of social intercourse, in order to make the creation of wealth independent (relatively) of the labour time employed on it. On the other side, it wants to use labour time as the measuring rod for the giant social forces thereby created, and to confine them within the limits required to maintain the already created value as value. Forces of production and social relations – two different sides of the development of the social individual – appear to capital as mere means, and are merely means for it to produce on its limited foundation. In fact, however, they are the material conditions to blow this foundation sky-high.”

इसलिए आज न सिर्फ स्‍थाई संकट है, अपितु पूंजीवादी संचय के मूलाधार ”मूल्य”, ”मूल्य के नियम” और ”श्रम” आदि की मृत्यु हो जाने के खतरे के संकट की आमद होने वाली है।

इसने एक नयी परिस्थिति पैदा कर दी है। अमेरिका में, जो वित्तीय पूंजी का पितृ देश (होम लैंड) है, 1980 के दशक से ही, वित्तीय क्षेत्र में लगी पूंजी से आने वाले मुनाफे का हिस्‍सा कुल मुनाफे की तुलना में लगातार बढ़ता रहा है। वहां स्वयं गैर-वित्तीय क्षेत्रों ने, जैसे कि मैनुफैक्‍चरिंग ने ही वित्तीय क्षेत्र को आगे बढ़ाने का काम किया। आज कुल मुनाफे की तुलना में वित्तीय क्षेत्र से आने वाले मुनाफे की मात्रा काफी बढ़ चुकी है, लगभग पचास फीसदी से ज्‍यादा। पूरे विकसित देशों में यही स्थिति है। उनकी अर्थव्‍यवस्‍थाओं का लगभग पूरी तरह वित्‍तीयकरण हो चुका है, लेकिन इसकी जकड़न विश्‍व की उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं पर भी कायम हो चुकी है, जिसका अर्थ है कि वित्‍तीय पूंजी की परजीविता के प्रभाव में ये अर्थव्‍यवस्‍थायें भी मंद पड़ जायेंगी। वर्ल्‍ड बैंक की रिपोर्ट में इसे बखूबी माना गया है। यह सच है कि पूरी विश्व-अर्थव्यवस्था वित्तीय पूंजी के प्रतिक्रियावादी हितों से जकड़ दी गई है।

सरकारी कर्ज का मसला लें। वह अतिशय पूंजी जिसका ज्‍यादातर निवेश संभव नहीं है, की खपत सरकार स्‍वयं कर्ज लेकर कर, मुख्यत: युद्ध के लिए खर्च वहन करने में, कर रही है। इसके अलावे आम जनता को भी जीवन-जीविका के लिए कर्ज लेने की ओर प्रेरित करने की नीति बढ़ रही है। मुफ्त सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थय के लिए बजट में प्रावधान करने के बदले शिक्षा बीमा और स्वास्थ्य बीमा की नीतियों का प्रचलन, माइक्रो फिनांश के जरिये बेरोजगारी और गरीबी को मिटाने की नीतियां, स्टैगफ्लेशन की तरफ अर्थव्यवस्था को धकेलने वाली नीतियों की प्रमुखता, तमाम सामाजिक सुरक्षा के कानूनों को खत्म करना, वित्तीय पूंजी की आवाजाही के लिए तमाम नियम बनाना,  वित्तीय पूंजी के हित में और उसके वर्चस्व में चलने वाले कर्ज बाजार, स्टॉक निवेश और रियल स्टेट व्यापार का इतना अधिक विस्तार, बीमा बाजार का इतना अधिक विस्तार – यह सब पल में उड़नछू होने वाली वित्तीय पूंजी की अर्थव्यवस्था पर कायम हो चुकी जकड़न को ही दिखाता है। इससे वास्तविक मुनाफा की दर ही नहीं, स्‍वयं मुनाफा की मात्रा भी गिर रही है, जबकि कुल मुनाफे में वित्तीय चैनेल से आने वाले फर्जी मुनाफे की मात्रा काफी बढ़ गई है। अर्थव्यवस्था में शेयरों के बाजार मूल्य में हेराफेरी के माध्यम से भ्रामक तथा आभासी पूंजी की मात्रा और डेरावेटिव्स बाजार की मात्रा इतनी अधिक बढ़ गई है कि वित्तीय मठाधीशों को तो विशाल रिटर्न होता है लेकिन छोटे निवेशक बर्बाद हो रहे हैं और इसका सीधा असर अर्थव्यवस्था के मंद विकास पर पड़ा रहा है और यह इसे पहले की तुलना में और भी अधिक नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है। इससे भयंकर बेरोजगारी और कंगाली पैदा हो रही है। संपत्तिहण हो रहा है। वास्तविक मजदूरी में भारी गिरावट हो रही है। यहां तक कि नॉमिनल वेज में भी गिरावट देखी जा रही है।

इस तरह, आज पर्याप्त रूप से पूंजी संचय, खासकर अमेरिका, जापान और यूरोप की विकसित व उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में, न तो माल उत्पादन के माध्यम से प्राप्त बेशी मूल्य से हो पा रहा है और न ही वित्तीय माध्यमों से प्राप्त वित्तीय मुनाफा के माध्यम से। दोनों ही माध्यमों की सीमा उजागर हो चुकी है। विकसित तथा उन्नत एवं अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं में तो माल या मूल्य उत्पादन के माध्यम से प्राप्त मुनाफे या बेशी मूल्य के माध्यम से पूंजी संचय जिस हद तक हो चुका है, वह मानो उसका शिखर बिंदु है जिसके आगे पूंजी संचय की स्थिति ही नहीं बची है।

1980 के दशक में, अमेरिका जैसे देश में इसके कुल मुनाफे में वित्तीय मुनाफे की मात्रा 15 प्रतिशत के आसपास पहुंच चुकी थी। 1990 के दशक में वित्तीय मुनाफा कुल मुनाफे के 40 प्रतिशत के आसपास पहुंच चुका था। लगभग ऐसी ही स्थिति जी-7 और ओईसीडी देशों की थी। 21वीं सदी के पहले दशक के पूर्वार्ध में वित्तीय बाजार में शेयर मार्केट के जरिये, उम्मीदों व आशाओं की बनावटी गणना को आधार बनाकर, वित्तीय जुआबाजी इतनी अधिक बढ़ चुकी थी और फर्जी पूंजी (fictitious capital) और डेरिवेटिव्स का बाजार साइज में इतना अधिक विस्तारित हो चुका था कि इसका आकार कुल वैश्विक जीडीपी से भी कई गुणा अधिक हो चुका था। [On the eve of the crisis of 2008-09 AIG had placed $3 trillion in bets, with no assets to cover potential losses. By the peak of this orgy of fake value production in 2007, the “value” of the derivatives market was estimated to be three times the size of the global economy. (Ben Reynold’s Coming Revolution)]

आज पूंजी संचय के ऊपर छाये संकट के स्‍वरूप को अंति संक्षेप में व्‍यक्‍त करना चाहें, तो हम कह सकते हैं कि 2008-09 में संकट के फूटने के पहले, विकसित देशों में पूंजी संचय वित्तीय, परिसंपत्तियों, तथा इसके बाजार के अन्‍य माध्यमों व औजारों से प्राप्त मुनाफे के आधार पर कुछ सालों तक बढ़ता दिखता है। लेकिन 2008-09 में आयी महान मंदी ने सब कुछ धराशायी कर दिया और वित्तीय मुनाफे के आधार पर पूंजी संचय के बढ़ने की प्रक्रिया ऐसे बंद हुई कि दुबारा ठीक से चालू नहीं हो पाई, आज तक बड़े पैमाने पर बाधित है। इस तरह विकसित देशों में मूल्यों के उत्पादन से प्राप्त मुनाफे के आधार पर तथा वित्तीय माध्यमों व चैनलों से प्राप्त होने वाले मुनाफे के आधार पर होने वाली पूंजी सचंय की प्रक्रिया – यानी दोनों माध्यमों से होने वाली पूंजी संचय की प्रक्रिया, जिसे जब तक पूंजीवाद है लगातार चलती रहनी है– बुरी तरह बाधित हो चुकी है।

पूरे विश्‍व में पूंजीवाद के विकास और वित्‍तीय पूंजी के प्रभुत्‍व को लें। 1980 के दशक में ही वित्तीय पूंजी ने अपना साम्राज्‍य विस्तार संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम (Structural Adjustment Program – SAP) के माध्यम से पूरे विश्व में कर चुकी थी। आज पूरी दुनिया में और विश्व के सभी देशों में एवं सभी क्षेत्रों में वित्तीय पूंजी ने अपना प्रभुत्व कायम कर लिया है। उभरती अर्थव्यवस्थाओं में भी वित्तीय पूंजी ने मंद विकास और संकट की लगभग वैसी ही स्थिति पैदा कर दी है (या जल्द ही एक ऐसी परिस्थिति पैदा कर देने वाली है) जैसी कि इसने विकसित देशों में पहले ही कर दी है। इसे पूरे तौर पर समझने के लिए हमें द्वितीय विश्वयुद्ध उपरांत कायम नयी वैश्विक साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था (अमेरिका के अधीन चलने वाली ब्रेटेन वुड्स की पूंजी और श्रम के बीच की सौदेबाजी पर आधारित व्यवस्था, जिसके तहत नियत विनिमय दर के अधीन  सरकारी संरक्षण के तहत और पूंजी एवं श्रम के बीच मोलभाव की छूट के आधार पर वित्तीय पूंजी का शासन कायम था) के पतन से लेकर 2008-09 के संकट के फूटने के साथ नवउदारवादी व्यवस्था (जिसमें भूमंडलीकरण, निजीकरण और श्रम पर सीधा हमला, आदि शामिल था, लेकिन वास्तव में उसका मुख्य अभिप्राय मूल्य उत्पादन के आधार पर होने वाले पूंजी संचय की प्रक्रिया में आयी बाधाओं पर पार पाना था जिसमें मुख्य रूप से वित्तीय माध्यमों व चैनलों के माध्यम से प्राप्त मुनाफे के आधार पर पूंजी संचय की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की व्यवस्था शामिल थी) के भी पतन का और फिर उसके बाद से लेकर आज तक की साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था का एक पूरा समेकित एवं तथ्यगत विश्लेषण करना चाहिए।

आइए, संक्षेप में गोल्‍ड स्‍टैंडर्ड के खात्‍में के कारणों और प्रभावों पर बात करें। हम यह पाते हैं कि रोजगार व मांग को बनावटी तरीके से सपोर्ट करने से लेकर ग्रोथ को बनावटी तौर पर टिकाये रखने का माध्यम कर्ज और वित्तीय पूंजी का जोड़तोड़ (manipulation of debt and finance, as Ben Reyonod says) बना। बड़े पैमाने पर खपत की वस्तुओं के उत्पादन के लिए जड़ पूंजी में निवेश की जगह; पूंजी और श्रम के बीच की सौदेबाजी के द्वारा मांग बढ़ाने और सरकारी संरक्षणवाद की नीतियों की जगह पूंजी आधिक्य से निपटने हेतु मुनाफे और बेशी मूल्य को सरकारी और निजी कर्ज के चैनलों में लगाने की नीति ली गयी। लेकिन पूंजी आधिक्य के संकट के निपटारे हेतु लिए गये कर्ज तथा इस कर्ज पर टिकी बनावटी खपत, मांग और ग्रोथ की एक सीमा है, खासकर तब जब विश्व की रिजर्व करेंसी डॉलर का मूल्य गोल्ड की एक नियत मात्रा में निहित मूल्य से जुड़ा है। सवाल यह खड़ा था कि कर्ज की पूर्ति आखिर कैसे होगी अगर यह कोई नया मूल्य नहीं पैदा करता है? इसका मतलब है कि अगर कर्ज और वित्तीय हेराफेरी, सट्टेबाजी और वित्‍तीय पूंजी के जोड़तोड़ के आधार पर वित्तीय मुनाफा प्राप्‍त करना है और इसके आधार पर आगे पूंजी संचय होना है, न कि मुख्य रूप से मूल्य के उत्पादन के आधार पर, तो मतलब साफ है कि इसके लिए सर्वप्रथम ब्रेटेन वुड्स पद्धति के फिक्स्ड एक्सचेंज रेट के शासन के तहत गोल्ड स्टैंडर्ड को खत्म करके डॉलर के मूल्य को गोल्ड में निहित मूल्य से उन्मुक्त करना जरूरी था। और ठीक यही किया गया, जिसके बाद ही वह संरचनात्मक बाधा दूर हो गयी या दूर कर दी गई, जिसे मुद्रास्फीति (जो स्वाभाविक तौर पर सरकारी कर्ज पर आधारित ग्रोथ कराने की नीति का परिणाम थी) पूंजीवादी राज्‍य के समक्ष, कर्ज लेकर ग्रोथ को बनाये रखने और ग्रोथ दर के लगातार गिरने की स्थिति में वित्‍त पूंजी का मुनाफा सुनिश्चित करने के रास्ते में, पैदा कर रही थी।

माइकेल रॉबर्ट के ग्राफ की नजर से बहस

अगर हम जीडीपी ग्रोथ और ट्रेड (व्‍यापार) ग्रोथ के ट्रेंड को लें, तो विश्व की अर्थव्यवस्था का यह अवसाद काल 2008-09 से जारी है, जिसके कारक, जैसा कि पहले भी कहा गया है, 1990 के दशक के मध्य के ठीक बाद से ही, यानी 1996-97 के समय पैदा ले चुके थे। इसके बारे में अर्थशास्त्री माइकेल रॉबर्ट विस्तार से लिखते हैं। हम इन कारकों में सबसे महत्वपूर्ण कारक विश्व की अर्थव्यवस्था की वित्तीय पूंजी के निर्णायक नियंत्रण की ओर हुए शिफ्ट को मानते हैं। लेख के अंत में दिया गया ग्राफ (ग्राफ नंबर 1) ग्लोबल ग्रोथ और ग्लोबल ट्रेड में आयी गिरावट को एक साथ दिखाता है जिससे हमें आसानी से विश्व-अर्थव्यवस्था की आज की पूरी तस्वीर का और इसलिए मौजूदा स्थिति की भयावहता का अंदाजा लग जाता है।

इसके अतिरिक्त, हम अगर गिरती मुनाफा दर को को देखें, तो मौजूदा संकट की शुरुआत को हम 1970 के दशक से ही शुरू हुआ मान सकते हैं। अर्थशास्त्री दिपंकर बसु द्वारा तैयार ग्राफ (ग्राफ नंबर 2), जिसे माइकेल रॉबर्ट अपने एक ब्लॉग में पेश करते हैं, इसकी पूरी तरह पुष्टि करता है।  

दीपंकर बसु द्वारा तैयार उपरोक्त ग्राफ सबसे पहले तो यह इंगित करता है कि संकट ने एक लांग डिप्रेशन के रूप में एक स्थायी स्‍वरूप ग्रहण कर लिया है और आज के विश्वपूंजीवाद में इसकी प्रासंगिक व्याख्या दोनों तरीके से, यानी सैद्धांतिक और अनुभवसिद्ध (empirical) तरीके से, और मार्क्स द्वारा ‘लाभ दर की गिरने की प्रवृत्ति के नियम’ (LTRPF) के सिद्धांत के आधार पर की जा सकती है। इस चर्चा में आगे बढ़ने से पहले, आइए हम माइकल रॉबर्ट्स द्वारा तैयार किए गए इसी तरह के एक और ग्राफ को, यानी ग्राफ नंबर 3 को देखें।

रॉबर्ट्स का उपरोक्‍त ग्राफ 1982 से 1996 की अवधि को लाभ दर की रिकवरी की नवउदारवादी अवधि को दर्शाता है। रिकवरी के इस नव-उदारवादी चरण को हम अर्थव्यवस्था के वित्तीयकरण के कारण और वित्तीय पूंजी के निणंत्रण की ओर हुए निर्णायक शिफ्ट के आधार पर हुई रिकवरी की अवधि कहना चाहते हैं जिस दौरान पूंजी संचय की प्रक्रिया वित्तीय मुनाफे के आधार पर आगे बढ़ती है। इसके बारे में बारे में बेन रिनॉल्ड अपनी पुस्‍तक ‘कमिंग रिवोल्‍यूशन’ में विस्तार से लिखते हैं।

इस नवउदारवादी चरण में लाभ की दर में वृद्धि क्यों हुई इसका जवाब हम बेन रिनॉल्ड के द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के साथ ऊपर ही दिखा चुके हैं कि इसमें एक बड़ा हिस्सा वित्तीय माध्यमों से आया है। यह एक ऐसा प्रश्न है जो लंबे समय से अपेक्षित है और एक पूर्ण स्पष्टीकरण की मांग करता है। हम इसे अगले अंक में पूरा करने की कोशिश करेंगे। साथ में, हमें यहां यह भी उल्लेख करना चाहिए कि पूंजी का अंतर्राष्ट्रीयकरण (1950 के उत्तरार्ध से यूरो-डॉलर के उदय और इंटरनेट के माध्‍यम से इसके अंतर्रार्ष्‍टीय स्‍तर पर विचरण में हुए इजाफा को हमें याद रखना चाहिए) और वित्तीय पूंजी के नियंत्रण की ओर शिफ्ट का निर्णायक कदम इस नवउदारवादी रिकवरी के चरण के पहले ही शुरू हो गया था, या माइकेल की मानें, तो ठीक इसी अवधि (1982-1996) में हुआ था। हमें वित्तीय पूंजी के नये संस्करण वाष्पशील पूंजी की भूमिका को भी याद रखना चाहिए कि इसने किस तरह विश्व अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण की स्थिति में पहुंचने हेतु उत्तरोत्तर बढ़ाए जा रहे कदमों के साथ-साथ ब्रेटन वुड्स संस्थानों के पतन को आगे बढ़ाया था। अतः नवउदारवादी चरण में लाभ दर की रिकवरी निश्चित रूप से एक अलग प्रकार की रिकवरी थी जिसके पीछे मुख्य रूप से वित्तीय पूंजी का प्रभुत्व और विश्व अर्थव्यवस्था पर वित्तीय पूंजी के प्रभुत्व की दिशा में निर्णायक शिफ्ट है। इसका मतलब है, इस दौर के पूंजी संचय में वित्तीय मुनाफे की भूमिका के अग्रणी होने के दौर की कहानी शामिल है। यह हमारे सामने 1982 के बाद की अवधि में वित्तीय पूंजी की भूमिका की ठोस समझ भी पेश करता है।

इसके अलावा, नवउदारवादी चरण में लाभ दर में वृद्धि, जो हालांकि 1960 के दशक के मध्य में हुई वृद्धि की तुलना में बहुत मामूली वृद्धि थी, के पीछे का कारण स्वयं माइकेल रॉबर्ट्स द्वारा दिया गया है। उनका कहना है कि नवउदारवादी चरण में लाभ दर में वृद्धि का एक कारण वित्तीय क्षेत्रों या अनुत्पादक (unproductive) क्षेत्रों से आने वाला लाभ है। संक्षेप में कहें तो, 1990 के दशक के पूर्वार्द्ध में वित्तीय क्षेत्र के उदय की तरफ हुए निर्णायक शिफ्ट और वित्तीय क्षेत्र से आने वाले लाभ ने जी-20 देशों के प्रभुत्व वाली विश्व अर्थव्यवस्था को अपने आगोश में ले लिया था। रॉबर्ट खुद निष्कर्ष निकालते हैं कि, लाभ दर के एक शिखर पर पहुंचने के बाद, हालांकि जो 1960 के दशक के मध्य के शिखर की तुलना में कुछ भी नहीं था, वित्तीय क्षेत्र से आने वाले लाभ दर की प्रवृत्ति की दिशा में एक निर्णायक शिफ्ट परिपक्व हो गया और फिर उल्टा पड़ गया, यानी इस परिपक्वता ने ही विश्व अर्थव्यवस्था को अंतत: एक और नये व लंबे अवसाद के काल में धकेल दिया जिसकी शुरुआत वे 2008-09 मानते हैं।

इसमें मुख्‍य तथ्य यह है कि वैश्वीकरण और नवउदारवादी चरण के पतन, जिसे माइकेल संभवतः 1990 के दशक के अंत में हुआ मानते हैं, से पहले लाभ दर में रिकवरी की मुख्य प्रवृत्ति वित्तीय क्षेत्र (यानी अनुत्पादक क्षेत्र) से आने की थी। माइकल रॉबर्ट ने खुद इसे स्वीकार किया है। वे लिखते हैं – “हालांकि, नवउदार काल के दौरान, वैश्विक डेटा (जो उत्पादक और अनुत्पादक क्षेत्रों में अंतर नहीं करता है) के आधार पर अमेरिका की लाभ दर, बसु-वासनर गणनाओं का उपयोग करके निकाली गयी गैर-वित्तीय क्षेत्र की लाभ दर से कहीं अधिक बढ़ जाती है। इससे पता चलता है कि लाभप्रदता में नवउदारवादी रिकवरी ज्यादातर पूंजी द्वारा वित्तीय क्षेत्र में स्विच कर जाने पर आधारित थी – यह उस अवधि में अमेरिका में प्रदर्शित उत्पादक निवेश (productive investment) में गिरावट के लिए एक और स्पष्टीकरण भी प्रदान करता है।”

रॉबर्ट आगे लिखते हैं –  “बसु और वासनर ने अमेरिका में लाभ दर के लिए एक लाभप्रदता डैशबोर्ड भी तैयार किया, जो गैर-वित्तीय कॉर्पोरेट लाभप्रदता को कॉर्पोरेट लाभप्रदता से अलग करता है। मैंने बसु और अन्यों के अमेरिकी लाभ दर के (वैश्विक) परिणामों की तुलना उनके अमेरिकी गैर-वित्तीय कॉर्पोरेट लाभ दर के परिणामों से की। दोनों श्रृंखलाएं एक ही प्रवृत्ति और टर्निंग पॉइंट्स का अनुसरण करती हैं (देखें ग्राफ नंबर 2 और 3 )। इसलिए इस स्तर पर विचलन एक महत्वपूर्ण समस्या नहीं है।”

पेज 27 पर दिया ग्राफ नंबर 4 इस बिंदु को और स्पष्ट करता है कि लाभ की गैर-वित्तीय दर में गिरावट के साथ विस्तारित पीडब्ल्यूटी (PWT) के आधार पर आई अमेरिकी लाभ दर भी नीचे गिरती है। इस ‘दिखाए गए’ और खुले रहस्य की खोज के साथ कि दोनों के बीच एक अंतर है, जिसमें गैर-वित्तीय सेक्टर के लाभ दर की तुलना में अमेरिकी समग्र लाभ दर ज्यादा है, के बारे में मैंने पहले ही रॉबर्ट को यह कहते हुए उद्धरित किया है कि ”लाभप्रदता में नवउदारवादी रिकवरी ज्यादातर पूंजी द्वारा वित्तीय क्षेत्र में स्विच कर जाने पर आधारित थी – यह उस अवधि में अमेरिका में प्रदर्शित उत्पादक निवेश (productive investment) में गिरावट के लिए एक और स्पष्टीकरण भी प्रदान करता है।” 

इसलिए सैद्धांतिक प्रस्तुति के साथ-साथ अनुभवजन्य साक्ष्य दोनों, क्वालिटी डेटा और डेटाबेस की उपलब्धता के बाद, मौजूद हो गये हैं। इसलिए, मार्क्सवादी मंडली के कुछ हिस्सों में दिया जाने वाला यह प्रमुख तर्क कि यदि हम विश्व पूंजीवाद की मौजूदा खराब स्थिति और विनाश के लिए विश्व अर्थव्यवस्था में वित्तीयकरण के प्रभुत्व को या उसकी ओर शिफ्ट को जिम्मेदार मानते हैं तो यह मार्क्स के LTRPF के सिद्धांत के खिलाफ जाता है, गलत है। असल में यह LTRPF को उसके तार्किक परिणति की ओर ले जाता है, यानी पूंजीवाद के अंत की ओर या लंबे अवसाद के रूप में एक ऐसे दौर के आगमन की तरफ जहां गिरती लाभ दर अपरिवर्तनीय हो जाएगी, जो कि अभी से हो गई मालुम पड़ती है। इस दौर में कुछ हल्की और अस्थायी रिकवरी होगी, लेकिन वो भी लंबे अंतरालों के बीच, जो ग्राफ पर नीचे की ओर जाती एक ढलान पर कम से कमतर होती हुई चोटियों के रूप में दिखाई देंगी।

मार्क्स ने अपनी रचना ‘पूंजी’ खंड III में जिन विरोधी कारकों (counteracting factors) की चर्चा की है, उनमें से अधिकांश परिरक्षित (शील्ड) हो गए हैं और बाकी भी वित्तीय पूंजी के अनियंत्रित प्रभुत्व के कारण परिरक्षित (शील्डेड) होते जा रहे हैं। विश्व पूंजीवाद जहां प्रवेश कर चुका है वहां से वह एक खतरनाक डेड एंड या ब्लैक होल की ओर जाएगा, या कहें कि जा चुका है (इसके सभी संकेत मौजूद हैं), हालांकि इसे द्वंद्वात्मक रूप से देखना चाहिए। लंबे अवसाद का मौजूदा दौर एक बहुत लंबी और गिरती अंतहीन सुरंग की तरह है जिसमें प्रकाश का कोई संकेत नहीं है, या जो संकेत है भी वो लगातार लुप्त हो रहा  है। दरअसल, यहां हमें माइकेल रॉबर्ट के Contradictions in the 21st Century Capitalism, मार्क्‍स के Grundrisse (Fractions of the Machines) और बेन रिनॉल्ड के Coming Revolution को एक साथ पढ़ना चाहिए।  बेन रिनॉल्‍ड अपनी उपरोक्‍त पुस्तक में लिखते हैं – ”As economist Greta Krippner has shown, financial profits assumed an increasingly dominant role as a portion of all US profits from the mid-1980s onward. In 1985, financial profits only accounted for around 15 per cent of US profits. By the mid-1990s, profits from FIRE investments surpassed manufacturing as the largest share of corporate profits in the US economy, reaching over 40 per cent of the total before 2008. By contrast, profits from the service industries -the main source of employment in the post-industrial economy- never exceeded 10 per cent.”

इसलिए, हमें मानना ही होगा कि 1982 के बाद की अवधि के नवउदारवादी चरण के दौरान लाभप्रदता प्राप्त करने या वित्तीय क्षेत्र पर आधारित लाभ दर को बनाए रखने में वित्तीय पूंजी की आसान, तेज और प्रमुख भूमिका ने विश्व पूंजीवाद के पूरे परिदृश्य को बदल दिया है, दुनिया की आर्थिक स्थिति को कुछ इस तरह से संतृप्त (saturate) कर दिया है कि उसका वापस लौटने की कोई संभावना नहीं दिखती है। गैर-वित्तीय क्षेत्र के आधार पर लाभ दर का पुनरुद्धार (revival) अब असंभव है। और यह LTRPF के खिलाफ नहीं जाता है। बल्कि बात इसके उलट है। यह LTRPF को उसके तार्किक परिणति की ओर ले जाता है जहां हम यह ठोस निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बुर्जुआ व्यवस्था ने पुनरुद्धार की हर उम्मीद खो दी है जो कभी उसमें निहित थी। 

इसलिए, हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि विश्व अर्थव्यवस्था के वित्तीयकरण, जो निर्णायक रूप से संभवतः नवउदारवादी चरण में हुआ, का सिद्धांत LTRPF को उलटता नहीं है। हमें यह कहने में कोई सैद्धांतिक हिचक नहीं है कि यह अर्थव्यवस्था का उत्तरोत्तर वित्तीयकरण ही है जिसने आज के पूंजीवाद के लिए अत्‍यंत निराशाजनक स्थिति पैदा कर दी है। सैद्धांतिक रूप से हमें इसे स्थापित करने में कभी कोई कठिनाई नहीं हुई लेकिन यह सच है कि हमें साक्ष्यों की कमी का सामना करना पड़ा। इसलिए अब इस निष्कर्ष को सामने लाने में और ज्यादा वक्त नहीं लगना है कि विश्व पूंजीवाद ऊपर बताए गए तरीके से लंबे अवसाद के कभी न खत्म होने वाले चरण में प्रवेश कर चुका है।

हम इस नतीजे पर भी पहुंचते हैं कि निरंतर मंदी, युद्ध, विनाश और दिवालियेपन की चाहे जितनी भी श्रृंखलाएं हों, वे कभी भी आर्थिक रूप से विकासात्मक या ग्रोथ कारकों के ‘क्लस्टरिंग’, जो एक दिन इस लंबे अवसाद को समाप्त कर दे, की ओर नहीं ले जा सकती। केवल द्वितीय विश्व युद्ध की तरह का एक बेहद विनाशकारी निर्णायक विश्वयुद्ध (जो साथ में संभवत: आणविक युद्ध भी होगा) ही ऐसा कर सकता है। लेकिन इसकी संभावना नजर नहीं आ रही है, क्योंकि इस तरह के युद्ध से वित्तीय पूंजीपतियों और दुनिया के सबसे अमीर लोगों का स्वर्ग भी नष्ट हो जायेगा, क्योंकि आज तीसरे विश्व युद्ध के परमाणु युद्ध में तब्दील हो जाने का खतरा मौजूद है जो उन्हें यानी विश्वयुद्ध को नजदीक लाने वित्तीय पूंजीपतियों को भी सता रहा है। यह रूस-यूक्रेन युद्ध और पुतिन की परमाणु हमले की खुली धमकियों का सबसे संभावित परिणाम या परिदृश्य है जो बड़ी पूंजियों के स्वर्ग को भी खतरे में डालने और नष्ट करने की क्षमता रखता है। अतः जो संभव है वह है – एक अनिर्णायक लेकिन गलाकाटू, लंबी अवधि का और थका देने वाला विश्वयुद्ध जिसमें पहले से ही डगमगाते विश्व पूंजीवाद और पूंजीवादी विकास को काफी घिसाई-पिटाई झेलनी पड़ेगी। वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय भू-राजनीतिक परिदृश्य और रूस-चीन व आंग्ल-अमरीकी साम्राज्यवाद के बीच की प्रतिद्वंद्विता मुख्य रूप से इस संभावना को ही जन्म देती हैं। एक अनिश्चित या अनिर्णायक विश्वयुद्ध में एक द्वारा दूसरे को हराने का लक्ष्य रखने का मतलब है कि किसी भी प्रतिद्वंद्वी समूह को अंततः कोई जीत नहीं मिलेगी। इसलिए, लंबे डिप्रेशन से उबरने का पुराना तरीका (जिसमें विश्वयुद्ध शामिल है) अब पहले की तरह काम नहीं कर सकता है।

यह परिदृश्य भी हमें अंततः किस ओर ले जाएगा? क्या इससे हमें यह सोचने की कोई उम्मीद मिलती है कि विश्व पूंजीवाद चल रहे लंबे अवसाद के काल से कभी उबर पाएगा? हमारा जवाब है नहीं, कतई नहीं।

‘द कांफ्रेंस बोर्ड’ के आंकड़े

‘द कांफ्रेंस बोर्ड’ द्वारा अगले एक दशक के लिए जारी ग्रोथ आउटलुक भी यही साबित करता है कि ऊपर जो कहा जा रहा है पूरी तरह सच है। इसने पुरी दुनिया के देशों के लिए 2035 तक का एक ग्रोथ आउटलुक जारी किया है। हम पाते हैं कि विश्व की अग्रणी एवं परिपक्व अर्थव्यवस्थाएं तो डिप्रेशन (depression) में हैं ही, अन्य दूसरी अर्थव्यवस्थाएं भी उनकी जैसी बनने वाली है, यानी बहुत जल्द ही अवसाद में जाने वाली हैं। यह भी स्पष्ट दिखता है कि विश्वपूंजीवाद की बुरी तरह खराब हो चुकी सेहत निकट भविष्य में ठीक नहीं होने वाली है।

यह सच है कि ये संस्थाएं इस नग्न सच्चाई को छुपा नहीं पा रही हैं और इसलिए ‘खुलकर’ स्वीकार कर रही हैं। हालांकि यह भी सच है कि लुका-छिपी का खेल वे आज भी कर रही हैं। हां, पहले से ज्यादा सावधानी उन्हें बरतनी पड़ रही है, यह सच है। इसलिए अमेरिकी शोध संस्था ‘कांफ्रेंस बोर्ड’ अपने ग्लोबल इकोनॉमिक आउटलुक (मार्च 2023)[1], सबसे पहले विश्व-अर्थव्यवस्था का एक गुलाबी चित्र पेश करना चाहता है। वह  कहता है –

“उम्मीद है कि, वैश्विक वास्तविक जीडीपी ग्रोथ 2024 में गति पकड़ कर 2.5 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी और सभी क्षेत्रों के बीच समान रूप से बंट जाएगी। 2024 में विकास के लिए गतिशीलता (टेलविंड्स) काफी हद तक महामारी, उच्च मुद्रास्फीति, और मौद्रिक नीति को कसने से जुड़े झटकों के कम होने से आएंगी। हालांकि, 2024 और उसके बाद की वृद्धि दर महामारी के पहले के ट्रेंड्स से नीचे रहने की संभावना है … 10 साल का आर्थिक दृष्टिकोण (इकनोमिक आउटलुक) व्यवधानों और अनिश्चितताओं की एक लंबी अवधि का संकेत देता है…” (बोल्ड जोड़ा गया)

यह उद्धरण एक ही रिपोर्ट के एक ही पैराग्राफ का एक टुकड़ा है लेकिन इसके ऊपर और नीचे (बोल्ड) की बातों में अंतर्विरोध या अंतर साफ दिखता है। इसके ऊपरी हिस्से में उम्मीदें हैं, लेकिन बाद वाले में, जैसे ही वह अगले दशक के पूर्वक्षण (projection) पर आता है, सच्चाई सामने आ जाती है। वस्तुगत सच्चाई (objective truth) का नैराश्य शब्दों के माध्यम से प्रकट होने लगता है जैसा कि उद्धरण के अंतिम वाक्य में हुआ है जिसमें संकट के लंबे काल तक बने रहने की बात खुलकर की गई है : “हालांकि, 2024 और उसके बाद की वृद्धि दर महामारी के पहले के ट्रेंड्स से नीचे रहने की संभावना है … 10 साल का आर्थिक दृष्टिकोण (इकनोमिक आउटलुक) व्यवधानों और अनिश्चितताओं की एक लंबी अवधि का संकेत देता है…”

नीचे का टेबल देखें जिसमें 2035 तक के सभी क्षेत्रों के महत्वपूर्ण देशों के सालाना औसत रियल जीडीपी ग्रोथ के बारे में एक आउटलुक पेश किया गया है। ये टेबल, जो ग्लोबल इकोनॉमिक आउटलुक का ही हिस्सा है, ग्लोबल रियल जीडीपी ही नहीं, अलग-अलग क्षेत्रों के देशों के रियल जीडीपी ग्रोथ (याद रखें, जिसमें उत्पादकता वृद्धि और रोजगार वृद्धि घटक के रूप में शामिल होते हैं) अगले एक दशक में क्या रहने वाला है, इसकी क्या उम्मीद या संभावना है, आदि के बारे में एक इकट्ठा तस्वीर पेश करता है। इसमें मुख्य योगदान अमेरिका (1.6 प्रतिशत), फ्रांस (1.0 प्रतिशत) और जर्मनी (1.0 प्रतिशत) का है। EMDEs का रिपोर्ट कार्ड यह है: 3.6, 3.8, 3.6, 3.4 (सभी प्रतिशत में)। भारत का रिपोर्ट कार्ड भी इसी तरह का है यानी क्रमश: 5.0, 4.8, 4.7, 4.3 (सभी प्रतिशत में) है। चीन का भी देख लें जो क्रमश: 5.1, 4.7, 4.4, 4.1 (सभी प्रतिशत में) है। इसी तरह ग्लोबल विकास दर क्रमश: 2.3, 2.5, 2.6, 2.6 (सभी प्रतिशत में) है। यहां हम 2023 से लेकर 2024, 2024-29 और फिर 2030-35[2] में परिपक्व और अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं, उभरती अर्थव्यवस्थाओं तथा खासकर चीन और भारत की ग्रोथ रेट के बारे में पूर्वेक्षण पर गौर कर सकते हैं। परिपक्व अर्थव्यवस्था का रिपोर्ट कार्ड क्रमश: 0.7, 1.।, 1.4, 1.3 प्रतिशत का है। (ग्राफ 5 देखें)

वर्ल्ड बैंक सहित वैश्विक वित्तीय पूंजीवाद की अन्य सिरमौर संस्थायें मानती हैं कि अगले एक दशक तक इस स्थिति में बदलाव की कोई उम्मीद नहीं है। लेकिन वे फिर भी असली बात नहीं स्वीकारती हैं कि वित्तीय पूंजी के निर्णायक नियंत्रण में चले जाने के बाद से (1990 के दशक के मध्य के बाद से, यानी 1996-97 के बाद से) और खासकर 21वीं सदी के पहले दशक के बाद से विश्व-अर्थव्यवस्था में पुनर्जीवन या नवजीवन की उम्मीदें पूरी तरह खत्म या ध्वस्त हो चुकी हैं। जहां यूरोप व अमेरिका तथा जापान एवं चीन की परिपक्व और उन्नत अर्थव्यवस्थाओं (matured and advanced economies) के लिए यह आज भी सोलह आना सच है, वहीं उभरते बाजारों एवं उदीयमान अर्थव्यवस्थाओं ( Emerging Markets and Developing Economies; EMDEs in short) वाले देशों के लिए भी यह कल को आने वाला सच है। हालांकि इन रिपोर्टों में EMDEs पर (विश्व पूंजीवाद के पहिए को घुमाये रखने में सक्षम होने का) भरोसा व्यक्त किया गया है, लेकिन ऐसी हर पंक्ति के बाद की अगली ही पंक्ति उन बाधाओं का जिक्र करने लगती है जो अग्रणी और परिपक्व अर्थव्यवस्थाओं में ग्रोथ की सतत एवं स्थाई गिरावट और इन सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्थाओं की पनाह में पल रही पत्थरदिल वित्तीय पूंजी की हद दर्जें के मुनाफाखोर और मनमाने रवैये से उपजी सख्त और निर्मम वित्तीय स्थिति के कारण पैदा ले रही हैं और उभरती अर्थव्यवस्थाओं की विकास दर को रोके खड़ी हैं या पीछे ले जा रही हैं। तो फिर सवाल उठता है कि EMDEs से यह भरोसा किस बल पर किया जा रहा है कि बुरी तरह से डगमगा रहीं उभरती अर्थव्यवस्थाएं विश्वपूंजीवाद की डूबती नाव को बचा लेंगी? दरअसल ये सब कहने की बाते हैं और इनमें कोई दम नहीं है। भावी खतरों का अलार्म बजाने के अलावा ये रिपोर्टें ऐसी ही कुछ बेतुकी आशाओं से भरी बातें करती हैं जिसका आज कोई मायने नहीं बचा है। उपाय के तौर पर ये रिपोर्टें कहती हैं कि विकासमान अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में और तेजी से सुधार किये जायें – यानी वे ही सारे पूंजीपक्षीय सुधार जिन्होंने दुनिया के सभी देशों (अग्रणी से लेकर उभरते या कम आय वाले अल्प विकसित देशों में) की अर्थव्यवस्थाओं में वित्तीय पूंजी की निर्णायक विजय को सुनिश्चित किया और 2000 के बाद नये सिरे से आये आर्थिक व वित्तीय संकट को स्थाई बना दिया। इसमें आश्चर्य करने वाली कोई बात नहीं है। पूंजीवादी थिंक टैंक के विद्वान अर्थशास्त्री और शोधकर्ता विश्व-पूंजीवाद के टुकड़ों पर पलने वाले लोग हैं। इसलिए आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि वे अंतिम दम तक मरते व सिसकते विश्व-पूंजीवाद को कुछ-न-कुछ कर जिंदा करने की कोशिश करेंगे। और कुछ नहीं, तो वे मरे को जिंदा साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे।

ग्लोबल इकोनॉमिक आउटलुट को थोड़ा और गौर से तथा तोड़-तोड कर देखने से साफ पता चलता है कि 1) परिपक्व अर्थव्यवस्थाओं में अच्छी-खासी गिरावट होगी (2022 में 2.7 प्रतिशत से 2030-35 में 1.3 प्रतिशत), और यह गिरावट पूरे दशक में अत्यंत थोड़े बहुत सुधार के साथ बनी रहेगी। यानी, नीचे की ओर अग्रसर मंद विकास की स्थिति रहेगी। 2) EMDEs, जिससे पूरे विश्‍व की अर्थव्‍यवस्‍था को आगे ले जाएगी इतनी अधिक उम्मीद ‘कांफ्रेंस बोर्ड’ को है, की ग्रोथ रेट में भारी गिरावट दर्ज होगी। उसकी ग्रोथ रेट 6.9 (2022) प्रतिशत से 3.4 प्रतिशत (2030-35), यानी आधी से भी थोड़ी कम रह जाएगी। यही नहीं, यह गिरावट पूरे दशक में लगभग एक समान रूप से बनी रहेगी। 3) इसी तरह भारत में 6.8 प्रतिशत (2022) से 4.3 प्रतिशत (2030-35) हो जाएगी, और यह पूरे दशक में क्रमवार तरीके से साल-दर-साल गिरती रहेगी। 4) चीन में ग्रोथ रेट 2022 की 3.1 प्रतिशत की तुलना में 2023 में 5.1 प्रतिशत रहेगी लेकिन फिर उसके बाद लगातार गिरेगी और अंत में (2030-35 में) 4.1 प्रतिशत पर आकर रूकेगी, जो भारत से भी नीचे है।

क्या इन आंकड़ों, जो अमेरिकी पूंजीपति वर्ग की ही एक प्रसिद्ध शोध संस्था (कांफ्रेंस बोर्ड) द्वारा जारी की गई हैं, के आधार पर विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में विकास की कोई उम्मीद की जा सकती है? कोई भी व्यक्ति जो नशे में नहीं होश में है वह यही कहेगा कि नहीं, ऐसी कोई उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। लेकिन ‘कांफ्रेंस बोर्ड’ करता है। उसे विकसित देशों की तुलना में ही सही लेकिन भारत व चीन सहित उभरती अन्य अर्थव्यवस्थाओं में विकासपरक गतिशीलता (tailwinds in growth) दिखती है। इसका कारण वह इन देशों में मुद्रास्फीति के दबाव का कम होना मानता है। इसी आधार पर उसका कहना है कि ऐशिया मे लोगों की क्रयशक्ति ज्यादा रहेगी; इसलिए आर्थिक गतिविधियां ज्यादा होंगी और इससे भारत जैसे एशियाई देशों में विकास होगा। क्या यह सच है? आइए, भारत का उदाहरण लेकर इसकी जांच करें।

भारत में मुद्रास्फीति जनित मंदी का खतरा

22 मार्च के ‘द हिंदू’ में प्रकाशित आरबीआई के डिप्टी गवर्नर एमडी पात्रा के एक लेख के हवाले से और फिर कुछ दिन पूर्व इसी अखबार के संपादकीय लेख ‘Spectre of Stagflation’ के माध्यम से यह समझने की कोशिश करते हैं कि वास्तविकता क्या है। अखबार आरबीआई के डिप्टी गवर्नर माइकेल डी पात्रा की अध्यक्षता में इसके अधिकारियों ने आरबीआई के आधिकारिक बुलेटिन में प्रकाशित एक लेख के एक हिस्से को उद्धृत करते हुए यह लिखते हैं कि भारत में ग्रोथ की रफ्तार धीमी नहीं होगी (“unlike the global economoy, India would not slow down – it would maintain the pace of expansion. .” ), लेकिन अगले ही पल उसी बुलेटिन में सारी आशाओं के बावजूद बढ़ी हुई मुद्रास्फीति को एक बड़ी चिंता के रूप में पेश किया गया है – “consumer price inflation remains high and core inflation continues to defy the distinct softening of input costs”. यानी, पहले वह दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में आती मंदी को स्वीकारते हुए भारत में विकास की रफ्तार कम होने के खतरे से इनकार करते हैं, लेकिन बाद में घरेलू फ्रंट पर मुद्रास्फीति (दोनों ‘हेडलाइन’ और ‘कोर’ मुद्रास्‍फीति ) से निपटने की कठिन चुनौती को रेखांकित करते हुए आगे यह भी कहते हैं कि ”markets are bracing for tightening financial conditions.” आगे वे कहते हैं – ”Fear is creeping back.” तो पूंजीवाद के कर्ताधर्ताओं की ऐसी ही स्थिति बन गई है। कहते हैं न कि ”न निगलते बन रहा है, न उगलते ही बन रहा है।” दअरसल वे जिस खतरे के आने से भयभीत है वह खतरा दरअसल मुद्रास्फीति जनित मंदी का खतरा है जिसका सामना पूरा विश्व कर रहा है और जिसमें वित्तीय पूंजी के थैलीशाहों के नियंत्रणविहीन मनमानेपन का प्रत्यक्ष हाथ है। इस डिप्रेशन में वे अतिमुनाफा के लिए जिस तरह सख्त वित्तीय परिस्थिति व हालात बनाकर पूरी अर्थव्यवस्था के साथ खून की होली खेल रहे हैं उसका खामियाजा जनता और विश्वपूंजीवाद दोनों को उठाना होगा। जनता तबाह हो रही है, आगे और भी अधिक होगी, लेकिन यह भी सही है कि विश्वपूंजीवाद भी जल्द ही ग्रोथ के मामले में पूरी तरह मरणासन्न स्थिति को प्राप्त हो जाएगा। भारत में अगले दशक में अर्थव्यवस्था का कितना फैलाव और विकास होगा, हम ऊपर रियल जीडीपी ग्रोथ के बारे में ग्लोबल इकोनॉमिक आउटलुक में दिखा चुके हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था में विकास 2035 में आज की तुलना में डेढ़ गुणा से भी ज्यादा कम हो जाएगा।

”मुद्रास्फीति जनित संकट की बात चली है” तो 20 मार्च के ‘द हिंदू’ ने बाजाप्ता ”मुद्रास्फीतिजनित मंदी का भूत” (Spectre of Stagflation) नाम से एक संपादकीय लिखा जिसका दूसरा शीर्षक ही था कि ”उच्च ऋण लागत खपत को और कम कर सकती है” जिसके नीचे उसने लिखा कि – ”वैश्विक वित्तीय परिस्थिति में हुए नवीनतम विकास और हाल के आर्थिक आंकड़े इस डर को बढ़ाने के लिए काफी हैं कि भारत सहित दुनिया भर की कई प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं दुर्बल करने वाली मंदी की ओर अग्रसर हो सकती हैं।” उपरोक्त संपादकीय चेतावनी भरे शब्दों में कहता है कि उच्च ऋण लागत (credit cost) खपत को और कम कर सकती है जिसकी वजह वह ”वैश्विक वित्तीय परिस्थिति में हुए नवीनतम विकास और हाल के आर्थिक आंकड़े को मानता है, यानी वित्तीय थैलीशालों की मनमानी करतूतों ने यह डर पैदा कर दिया है कि ”दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं, जिनमें भारत भी शामिल है, मंदी की ओर अग्रसर हो सकती हैं।” (बोल्ड हमारा)

संपादकीय यह चेतावनी खुलेआम जारी करता है कि वह मुद्रास्फीति जनित मंदी में फंस सकता है।[3] संपादकीय के अनुसार भारत में मुद्रास्फीति आरबीआई के पूर्वानुमान के विपरीत लगातार ऊंची बनी रह रही है।[4] इसके 5.57 प्रतिशत तक जाने, यानी 6 प्रतिशत के threshold के नीचे रहने के बारे में अनुमान किया गया था। लेकिन इसके विपरीत 2022 की अंतिम तिमाही में इसके 6 प्रतिशत से ऊपर रहने का अनुमान है। यह आंकड़ा सच्ची तस्वीकर पेश करता है या नहीं इस पर हम जैसे अन्य लोग भी हैं जो शक जाहिर करते होंगे।

NSO के आंकड़े बताते हैं कि फरवरी 2023 के अंतिम सप्ताह में खुदरा मुद्रास्फीति दर 6.44% थी जबकि जनवरी 2023 में यह 6.52% थी। संपादकीय कहता है कि ये दोनों आंकड़े 2022-23 के लिए RBI के अंतिम तिमाही के पूर्वानुमान (5.7%) को झुठलाते हैं, क्योंकि, संपादकीय तर्क देता है, अगर आरबीआई के पूर्वानुमान को सही साबित होना है तो मार्च में खुदरा मुद्रास्फीति दर को 4.1 प्रतिशत तक नीचे गिरनी होगी। यानी, वर्तमान की तुलना में रिपो दर को 230 बेसिस पॉइंट्स से भी ज्यादा नीचे गिरना होगा। दूसरे अर्थों में, वह कहता है, खुदरा कीमतों में काफी ज्यादा और तेजी से नरमी आनी होगी। इसलिए स्थिति इतनी विस्फोटक है कि विकास दर में वृद्धि हेतु जिम्मेवार किसी भी चीज के पूर्वानुमान पर किसी को भरोसा नहीं रह गया है। इसकी ठोस वजह यह है, संपादकीय कहता है, कोर मुद्रास्फीति पिछले तीन महीनों से 6.2% पर बनी हुई है। यही नहीं, मई 2021 से ही कोर मुद्रास्फीति, आरबीआई की अपनी बेंचमार्क ब्याज दर में 250 आधार अंकों की वृद्धि के बावजूद, 6 प्रतिशत के ऊपर या इसके आसपास मंडराती रह रही है। क्रेडिट लागत में लगातार वृद्धि बनी हुई है। साथ में, खपत और मांग में भी कमी बनी हुई है। इस तरह उंचे विकास दर की उम्मीद को धराशायी किये बिना कीमतों में वृद्धि को रोकना असंभव है। जब कोर मुद्रास्फीति ही ऊंचे स्तर पर बनी रह रही है तो खुदरा मुद्रास्फीति को कम करना तो और भी कठिन है। इसलिए भी सख्त मौद्रिक नीति का औचित्य बना हुआ है। अप्रैल के प्रथम सप्ताह में (6 अप्रैल 2023 को) हुई मौद्रिक नीति कमिटी की बैठक में हालांकि मुद्रास्फीति दर बढ़ाने वाला कोई कदम नहीं लिया गया है, लेकिन कम भी नहीं किया। हालांकि गवर्नर शक्तिकांत दास ने नजर रखने की बात कहते हुए भविष्य में जरूरत पड़ने पर और भी सख्त मौद्रिक नीति लागू करने की बात कही है।[5] इसका अर्थ है कि मुद्रास्फीति जनित मंदी में फंसने वाली संकटपूर्ण स्थिति के बने रहने की संभावना बनी हुई है। यानी, मुद्रास्फीति जनित मंदी का भूत कहीं दूर नहीं गया है। वैसे यह अलग से भी खास तौर पर चिंताजनक है कि पिछले महीने कंपाजिट खाद्य मूल्य सूचकांक (composite food price index) में पांच आधार अंकों की मार्जिनल गिरावट के बावजूद खाद्य टोकरी (food basket) में शामिल खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि दर्ज हुई है। ज्ञातव्य है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के पांचवें हिस्से से अधिक के लिए जिम्मेवार खाद्य टोकरी की चार प्रमुख श्रेणियों ने प्रति वर्ष मुद्रास्फीति वृद्धि में तथा उसके बाद होने वाली अनुक्रमिक सख्ती में उल्लेखनीय भूमिका निभाती आई है। फरवरी 2023 में अनाजों (जो हमारे मुख्य खाद्य पदार्थ हैं) और इसके उत्पादों में मुद्रास्फीति 16.7% तक बढ़ गई, तो दूध और इसके उत्पादों के लिए हेडलाइन मुद्रास्फीति रीडिंग[6] भी 9.65% भी बढ़ गई। इसी तरह फलों के लिए 6.38% (जनवरी के 2.93% से) तक बढ़ गई।

इसलिए घरेलू फ्रंट पर ग्रोथ संवेग के रास्ते में काफी खतरे और जोखिम हैं। विकसित अर्थव्यवस्थाओं में मंदी की जोखिमों को देखते हुए ये खतरे काफी अहम बन जाते हैं। अगर मूल्य पर नियंत्रण कायम करने में विफलता हाथ लगेगी तो वित्त पूंजी के दबाव में सख्त मौद्रिक नीति अपनानी पड़ेगी जिससे मुद्रास्फीति जनित मंदी की स्थिति पैदा हो सकती है। इससे वैश्विक वित्तीय परिस्थिति में हुए नवीनतम नकारात्मक विकास से ग्रोथ रेट में गिरावट का आना तय है। हालांकि संपादकीय जीएसटी, ईंधन की कीमतों आपूर्ति आदि पर संकट का ठीकरा फोड़ चैन की सांस लेने की ओर बढ़ता है जबकि संपूर्णता में पूरा व्यापक आर्थिक दृष्टिकोण ही चिंताजनक है। सच्चाई यही है कि आज मंदी और संकट मुख्यत: वित्तीय पूंजी की काया और इसके द्वारा मचायी जा रही अराजकता में है। पूंजी के आधिक्य की जगह खास वित्तीय पूंजी के आधिक्य ने ले ली है। वित्तीय पूंजी के विशालकाय एवं वैश्विक एकाधिकार ने पूरे विश्व को अपने नागफांस में ले लिया है।

लेकिन मुद्रास्फीति जनित मंदी के संकट का डर अकेला ‘द हिंदू’ के संपादक को नहीं लग रहा है। पूरी दुनिया के पूंजीवादी थिंक टैंकों व संस्थाओं को ही डर लग रहा है। 2035 तक के अनुमानित विकास के डरावने आंकड़े देकर वे इसी डर को तो व्यक्त कर रहे हैं। यह अलग बात है कि वे फिर भी इस नंगी सच्चाई को, कि पूरी दुनिया एक अनुत्क्रमणीय मंदी (irreversible) की ओर अग्रसर हो चुकी है, स्वीकारने में किंतु-परंतु करते हैं। हमें यह बात पूरी तरह से समझ लेनी चाहिए कि घुप्प अंधेरे से भरे संपूर्ण ब्रह्मांड में किसी एक छोटे चमकीले स्पॉट के (जैसा कि आज भारत को बताया जा रहा है) कुछ क्षण के लिए प्रकट होने से ब्रह्मांड का अंधेरा खत्म नहीं होने वाला है। 

कुल मिलाकर हम कहना चाहते हैं कि विश्वपूंजीवाद कभी नहीं दूर होने वाले आर्थिक संकट और डिप्रेशन से पीड़ित है और हम एक लंबे आर्थिक डिप्रेशन से गुजर रहे हैं। जिन आर्थिक कारकों ने इसे पैदा किया है वे 1997 में प्रकट हो चुके थे। और ज्यादा सही कहें तो उसकी पृष्ठभूमि पूंजीवादी विकास के स्वर्ण युग को खत्म करने वाले 1973-74 के आर्थिक संकट में ही पड़ चुकी थी। इसलिए आज के लांग डिप्रेशन की नींव बहुत गहरी है और इसलिए इसके खत्म करने वाले सारे उपाय भी एक-एक कर व्यवहार में खारिज तथा असफल साबित हो चुके हैं। 1997 में दुनिया की अग्रणी एवं उन्नत तथा सबसे प्रमुख पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में पूंजी पर लाभ की औसत दर गिरनी शुरू हुई थी। हम पाते हैं कि कुछ छोटे-मोटे सुधारों के बावजूद (मुख्य रूप से आर्थिक मंदी और भारी वित्तीय ऋण इंजेक्शन द्वारा संचालित) पूंजी की लाभप्रदता अब तक के सबसे निचले स्तर के करीब बनी हुई है। वहीं हमारा यह भी कहना है कि मजदूर वर्ग के नेतृत्व में पूंजीवाद और फासीवाद को उखाड़ फेंकने वाली क्रांति एक आसन्न चीज है। इसलिए मजदूर वर्ग और इसकी अगुआ शक्तियों के समक्ष प्रस्तुत कार्यभारों में सबसे प्रमुख कार्यभार इसके अनुरूप कार्यभार प्रस्तुत करना है। सर्वप्रथम कार्यभार निस्संदेह मजदूर वर्ग की सेनाओं के जनरल हेडक्वार्टर के रूप में एक क्रांतिकारी पार्टी का और इसलिए उसकी अनुपस्थिति में फासीवाद विरोधी क्रांतिकारी मोर्चे के कोर व केंद्रक का सही से निर्माण करना है। तीसरी बात, विश्वपूंजीवाद के स्थाई चरित्र वाले संकट के अनुरूप हम फासीवाद की विश्वव्यापी परिघटना को भी हम अपेक्षाकृत स्थायी चरित्र का मानते हैं। इसके कारण आज के फासीवाद में और 1930 के दशक के फासीवाद में अंतर है और इसके विरुद्ध लड़ाई में भी कुछ अंतर करना जरूरी है। इसी तरह हम तीसरे विश्वयुद्ध को भी अनिर्णायक रूप से लड़ा जाने वाला विश्वयुद्ध मानते हैं, जिस पर हम आगे बात करेंगे। कुल मिलाकर इन कारणों की वजह से हम पूंजीवाद के भविष्य का त्वरित अंत देखते हैं तथा क्रांतिकारी शक्तियों की कमजोरियों के बावजूद क्रांति को आसन्न और सन्निकट पाते हैं। पूंजीवाद के संकट का तथा फासीवाद का स्थाई चरित्र आत्मगत शक्तियों को भी मजबूत कर रहा है, क्योंकि यह पूंजीवाद के अंत के वस्तुगत कारकों को अत्यधिक तीव्र कर एक ऐसी परिस्थिति पैदा कर रहा है जो आत्मगत शक्तियों को पहले नैतिक रूप से और फिर भौतिक रूप से भी मजबूत होने में मददगार हो रहे हैं।

 

ग्राफ 1
ग्राफ 2
ग्राफ 3
ग्राफ 4
ग्राफ 5

 


[1] इस रिपोर्ट को तैयार करने वाली संस्था ‘द कांफ्रेंस बोर्ड’ के बारे में यह बताना जरूरी है कि यह जीडीपी ग्रोथ में टोटल फैक्टर प्रोडक्टिविटी के योगदान को शामिल करता है। टोटल फैक्टर प्रोडक्टिविटी के बारे में मार्क्सवादी अर्थशास्त्रियों (जैसे कि माइकेल रॉबर्ट्स) की एक अलग राय है। रॉबर्ट्स इसे निओक्लासिकल अर्थशास्त्र की पसंदीदा लेकिन फर्जी आंकड़ा मानते हैं, (शायद) क्योंकि इसमें प्रबंधन में नये इजाद किये गये तरीकों के योगदान को भी शामिल किया जाता है। जाहिर है, इससे ग्रोथ रेट में ऊपर की ओर एक शिफ्ट होता दिखाई देता है जिससे गिरावट को कम करके दिखाया जा सकता है। माइकेल रॉबर्ट्स लिखते हैं – ” नव शास्त्रीय (neoclassical) अर्थशास्त्र में कुल कारक उत्पादकता (TFP या टोटल फैक्टर प्रोडक्टिविटी) नामक उत्पादकता के अधिक परिष्कृत माप का उपयोग करने का चलन है। माना जाता है कि यह ‘नवाचार’ (innovations) से प्राप्त उत्पादकता को मापता है। दरअसल, यह वास्तविक जीडीपी विकास और श्रम व पूंजी इनपुट की उत्पादकता के बीच के अंतर का अवशिष्ट मात्र है। अतः यह वास्तव में एक फर्जी आंकड़ा है।” लेकिन इस आंकड़े को शामिल करने के बाद भी कहीं कोई उम्मीद की किरण आंकड़ों में दिखाई नहीं देती है। माइकेल रॉबर्ट्स अपने लेख (The Contradictions in 21st Century Capitalism) में ‘द कांफ्रेंस बोर्ड’ के ही पहले के रिपोर्ट का जिक्र करते हुए लिखते हैं – “लेकिन इसे फेस वैल्यू पर लेते हुए, अमेरिका की ‘द कॉन्फ्रेंस बोर्ड’ ने पाया कि 2010 में वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए कुल कारक उत्पादकता शून्य हो गई, जो “इष्टतम (ऑप्टीमल) आवंटन और संसाधनों के उपयोग में दक्षता को टालने (stalling efficiency)” का संकेत देती है (द कॉन्फ्रेंस बोर्ड, 2022)। इसे कुल कारक उत्पादकता (TFP या टोटल फैक्टर प्रोडक्टिविटी) कहा जाता है और यह दर्शाता है कि नई तकनीक और प्रबंधन नवाचारों के कारण श्रम की उत्पादकता में कितनी वृद्धि हुई है। प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में टीएफपी वृद्धि एक टर्मिनल गिरावट में रही है (चित्र 5)। [Revista de Estudios Globales. Análisis Histórico y Cambio Social, 1/2022 (2), 15-37 21, The contradictions of 21st century capitalism]

[2] इसके पहले वाले आंकड़े को छोड़ देते हैं जो थोड़ी बेईमानी से पेश किया गया है। जैसे कि 2008 से 2011 के बीच के ग्रोथ रेट को शामिल नहीं किया गया है, क्योंकि तब औसत ग्रोथ रेट का फिगर कुछ और होता। इसी तरह 2020 के ग्रोथ रेट को शामिल नहीं किया गया है। यानी, यह टेबल अर्थव्यवस्था को कमजोर औसत ग्रोथ रेट, जो कि वास्तविकता है, को जानबूझ कर थोड़ा तंदरूस्त दिखाने की मंशा पर आधारित है। वैसे हमें इससे कोई खास दिक्कत नहीं है, क्योंकि वस्तुगत स्थिति की सच्चाई फिर भी प्रकट हो जाएगी ऐसी स्थिति है जो यहां भी दिखाई दी है।

[3] ”..the rising uncertainty about the growth momentum sustaining in the face of the heightened risks of a recession in advanced economies raised the risk that higher credit costs may further dampen consumption. Yet failure to engender price stability could lead to stagflation” – the editor writes.

[4] अभी दो दिन पहले हुई संपन्न एमपीसी बैठक में भी रिपो रेट को कम नहीं किया गया। 

[5] The RBI Governor, Shashikant Das, said – ”It is now necessary to assess the accumulative impact of actions taken so far.” He continued in the same breadth – ”So, the job is not yet over” meaning thereby that ”the MPC (Monetary Policy Committee), however remains watchful and won’t hesitate in taking further actions in its future actions” – ‘ET Now’ wrote on April 6 2023. 

[6] calculated cost to purchase a fixed basket of goods