अक्‍टूबर क्रांति और इस रास्‍ते पर चलने की जरूरत के बारे में चंद बातें

संपादकीय, सर्वहारा, 30 अक्टूबर 2025

अक्‍टूबर क्रांति – मजदूर-मेहनतकश वर्ग की समाजवादी क्रांति – 25 अक्‍टूबर 1917 को शुरू हुई और अगले दिन यानी 26 अक्‍टूबर की शाम तक संपन्‍न भी हो गई थी। मजदूर-मेहनतकश वर्ग ने पूंजीपति वर्ग की सत्ता उलट दी थी और लेनिन द्वारा निर्मित बोल्‍शेविक पार्टी के नेतृत्‍व में सत्ता अपने हाथ में ले ली थी। 26 अक्‍टूबर की शाम में स्‍मोलनी भवन (जहां से लेनिन अन्‍य साथियों के साथ मिलकर क्रांति का संचालन कर रहे थे) में जीत पर सभा होनी थी। जाहिर है, वातावरण में उत्‍तेजना व्‍याप्‍त थी। अगुआ मजदूर और सैनिक लेनिन की आगे की योजना को लेकर उत्‍सुक थे। जब लेनिन मंच पर आये तो उनका स्‍वागत व अभिनंदन तालियों की उत्‍तेजक गड़गड़ाहट से हुआ। लेनिन ने बिना किसी उत्‍तेजना के शांत तरीके से और हमेशा की तरह अपने दृढ़ इरादे के साथ अपनी बात रखनी शुरू की। लोगों को शांत करते हुए उन्‍होंने अपने संबोधन की‍ शुरूआत इस वाक्‍य से की – ”साथियो! अब हमें समाजवादी राज्‍य (मजदूर वर्ग के राज्‍य) की रचना का काम अपने हाथ में लेना चाहिए।” इस क्षण के प्रत्‍यक्ष गवाह और ”अक्‍टूबर क्रांति और लेनिन” के लेखक अमेरिकी पत्रकार अल्‍बर्ट रीस विलियम्‍स ने इस वाक्‍य के बारे में यह लिखा है – ”यह वाक्‍य सहज स्‍वाभाविक ढंग से कहा गया था, और उस उत्‍तेजित सभा में कुछ ही व्‍यक्तियों ने उस क्षण इन शब्‍दों के पूरे महत्‍व को समझा था। किंतु मेरी बगल में बैठे जॉन रीड ने .. ठीक ही भांप लिया था कि उस वाक्‍य में विश्‍व को हिला देने के लिए पर्याप्त विस्‍फोटक शक्ति है, और हम यह कह सकते हैं कि आज भी यह वाक्‍य दुनिया को हिला रहा है।” 

इस वाक्‍य में दुनिया को हिला देने वाली बात आखिर क्‍या थी? वह बात यह थी कि 1872 में पेरिस में मजदूर वर्ग की क्रांति, यानी छोटे समय के लिए कायम पेरिस कम्‍यून के बाद यह दूसरी बार था जब मजदूर वर्ग के राज्‍य की रचना की बात हो रही थी, और इस बार का मुख्‍य फर्क यह था कि इसका नेतृत्‍व लेनिन कर रहे थे जिनकी कार्यनीति व रणनीति की वजह से ही इसे रूस के लाखों-करोड़ों मेहनतकश किसानों का अटूट समर्थन प्राप्‍त था और पूंजीपति वर्ग को मजदूर वर्ग ने आंशिक तौर पर नहीं पूरे तौर पर पराजित करते हुए सत्ता पर कब्‍जा किया था। यानी, रूस में मजदूर वर्ग का राज्‍य पेरिस कम्‍यून की तरह क्षणभंगुर साबित नहीं होने वाला था। अल्‍बर्ट रीस विलियम्‍स लिखते हैं – ”वर्ष 1917 में सामान्‍य जन-समुदाय, जो अब निष्क्रिय और निश्‍चेष्‍ट नहीं था, संघर्ष में कूद पड़ा। अपने शासकों एवं उनके अनुचरों का अंत करते हुए बाल्टिक सागर से प्रशांत महासागर तक फैले यूरोप और एशिया के विस्‍तृत मैदानों में रहने वाले लोगों ने दीर्घकाल से ऊंघते हुई अपनी योग्‍यताओं एवं शक्तियों का प्रयोग किया।” कहने का अर्थ है, अक्‍टूबर क्रांति मजदूर वर्ग की ऐसी मजदूर-क्रांति थी जो जनसाधारण को समेटे हुए थी और इसलिए अत्‍यंत कठिन परिस्थितियों से गुजरते हुए भी इसमें अंतिम विजय की शक्ति निहित थी। साथ ही, यह दीर्घजीवी साबित होने वाली थी।    

लेकिन पूंजीपति वर्ग और अवसरवादी मजदूर पार्टियों की राय इससे भिन्‍न थी। वे मानते थे कि यह क्रांति और मजदूरों की सत्ता बस कुछ हफ्तों या ज्‍यादा से ज्‍यादा कुछ महीनों तक टिकने या रहने वाली थी। ऐसा मानने वालों में सिर्फ पूंजीपति वर्ग के भाड़े के दुष्‍प्रचाकर ही नहीं थे, अपितु कुछ ईमानदार पत्रकार और विशेषज्ञ तथा मजदूर वर्ग के समर्थक लोग भी थे। दरअसल, वे यह नहीं जानते थे कि इस क्रांति को करने वाली वास्‍तविक शक्ति जनता ही थी, भले ही इसका नेतृत्‍व लेनिन और बोल्शेविकों ने किया था। अल्‍बर्ट रीस विलियम्‍स लिखते हैं कि इनमें से ”अधिकांशत: रूसी जनता को नहीं जानते थे। और मैं इस बात को पुन: कहना चाहता हूं कि क्रांति की थी जनता ने ही। इसी कारण से ये तथाकथित विशेषज्ञ क्रांति-संबंधी मूल्‍यांकन में बार-बार गलती करते रहे – वे लगातार इसकी पराजय, इसके संकट और इसके अंत की भविष्‍यवाणी करते रहे। .. जब प्रथम पंचवर्षीय योजना तैयार की गई, तो इसे ‘संख्‍याविदों का स्‍वप्‍न’, ‘लंबे-चौड़े आंकड़ों का प्रारूप’ कहकर विदेशों में मजाक उड़ाया गया। मगर जिन्‍हें सोवियत जनता की वास्‍तविक जानकारी थी, उन्‍होंने विश्‍वास के साथ घोषणा की कि योजनाएं चाहे जितनी भी वृहत (बड़ी) क्‍यों न हों, सावियत जनता इस महान चुनौती के अनुरूप सिद्ध होगी और वह इस सपने को साकार करेगी ।” 

जब द्वितीय विश्‍वयुद्ध शुरू हुआ और हिटलर की नाजी सेना ने यूरोप को रौंदते हुए विजय-दर-विजय हासिल करने के बाद और जीत के नशे में चूर मजदूर-किसान की वास्‍तविक सत्ता वाले और अब तक साम्राज्‍यवादी देशों के खूनी मंसूबों के समक्ष अविजित साबित हुए सोवियत यूनियन के तरफ मुड़ी, तो एक बार फिर से विशेषज्ञों द्वारा कहा गया कि ”जैसे छुरी मक्‍खन में घुस जाती है, वैसे ही नाजी फौजें लाल सेना को चीर डालेंगी और तीन-चार सप्‍ताह में क्रेमलिन के बुर्जों पर नाजी झंडा लहराता दिखाई देगा।” अल्‍बर्ट रीस आगे कहते हैं – ”लेकिन हम में से जो लोग सोवियत जनता को जानते थे, उन्‍हें इस बात की बेहतर जानकरी थी कि क्‍या होने वाला है।” 

दरअसल, जब भी सोवियत सत्ता को बाहर से चुनौती मिली, चाहे वह जितनी भी बड़ी क्‍यों न हो, सोवियत जनता ने अपना फौलादी चरित्र व ताकत दोनों का बेमिसाल प्रदर्शन किया। वे इन बाहरी दुश्‍मनों के षड्यंत्रों और चालबाजियों को बखूबी समझते थे। पूंजीपति वर्ग के साथ अपने तीखे, नुकीले और कार्यनीतिक व रणनीतिक रूप से अक्‍सर पेचीदे संघर्षों में उन्‍होंने वह सब कुछ सीख लिया था जो वर्ग-दुश्‍मनों को पहचानने के लिए जरूरी होता है।

लेकिन वे पार्टी के अंदर घुस आये साम्राज्‍यवादी दलालों को पहचानने में और सही समय पर पार्टी के भीतर और बाहर संघर्ष तेज कर उन्‍हें पार्टी से निकाल बाहर करने के काम में चूक गये। हालांकि समाजवाद की अंतिम विजय से संबंधित ऐतिहासिक सीमाओं का सवाल सबसे महत्‍वपूर्ण चीज है जिसे हमें ठीक से समझना चाहिए। इस ऐतिहासिक सीमा की समझ के साथ समाजवाद को विजय की ओर ले जाने का काम एकमात्र लेनिन और स्‍तालिन जैसा सक्षम नेतृत्‍व ही कर सकता था जो दुर्भागय से दुनिया के मजदूर वर्ग के पास नहीं रहा।  

कॉमरेड स्‍तालिन की संभवत: पार्टी के अंदर शीर्ष कमिटियों में बैठे साम्राज्‍यवादपरस्‍त गद्दारों के हाथों हुई मौत के बाद पहले पार्टी, फिर सोवियत सत्ता और कालांतर में पूरे सोवियत जीवन पर बड़ी चालांकी से इन्‍हीं गद्दारों के सरगनाओं – निकिता ख्रुश्‍चेव से लेकर मिखाइल गोर्बाचोव तक – द्वारा कब्‍जा लिया गया। स्‍तालिन के बाद दूसरे कतार के अनुभवी लाखों पार्टी नेताओं की द्वितीय विश्‍वयुद्ध में हुई मौत ने एक तरह से पार्टी को वैचारिक-राजनीतिक रूप से पंगु और असहाय बना दिया था और परिणामस्‍वरूप अक्‍टूबर क्रांति की धरती दुनिया के मजदूरों के लिए अजनबी बन गयी। 1991 में ऊपरी आवरण के तौर पर जो समाजवाद बचा था उसे भी सोवियत नेताओं द्वारा ढहा दिया गया और इस तरह ख्रुश्‍चेव के सत्तारोहन के साथ मजदूर वर्ग के खिलाफ शुरू हुई वैश्विक (अंतरराष्‍ट्रीय) प्रतिक्रांति का एक चक्र पूरा व सफल हुआ। तब से नवउदारवाद (निजीकरण, उदारीकरण और ग्‍लोबलाइजेशन) का नया और भयानक हमला पूरे विश्‍व में चल रहा है। दरअसल सोवियत यूनियन के पतन से इनका मनोबल आसामान छू रहा है। मजदूर वर्ग एवं आम मेहनतकश अवाम पर साम्राज्‍यवादी पूंजीपतियों द्वारा हमला तो हो ही रहा है, फासीवाद-नाजीवाद का दौर भी फिर से वापस लौट आया है। 

लेकिन यह भी सही है कि पूरे विश्‍व की मजदूर व सामान्‍य जनता इन हमलों से जाग रही है। ऐसी स्थिति में, उनके सामने रास्‍ते की स्‍पष्‍टता होनी चाहिए और इसके लिए अक्‍टूबर क्रांति और इससे पैदा हुए मजदूर वर्ग के समाजवादी राज्‍य की साहसिक कहानियों को मजदूर वर्ग व आम जनता को अवश्‍य पढ़ना व जानना चाहिए, ताकि वह सोवियत मजदूरों की बहादुरी का अनुकरण कर सके और समाजवाद को और मजबूत बनाने के क्रम में आने वाली बाधाओं को शुरू से ही समझ सके। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि पूंजीवाद-साम्राज्‍यवाद और खासकर इसके फासीवादी शासन के स्‍वरूप ने, मजदूर वर्ग ही नहीं, पूरी मानवजाति की मुक्ति के रास्‍ते को अवरूद्ध कर रखा है। इतना ही नहीं, इसने पूरी दुनिया में एक ऐसा दमघोंटू वातावरण बना दिया है जिसमें सांस लेना मुश्‍कि‍ल है। जरूरत है पूरी दुनिया के मेहनतकशों व जन-सामान्‍य द्वारा अक्‍टूबर क्रांति के दिखाये रास्‍ते को समझने एवं इस पर चलने की। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि अक्‍टूबर क्रांति का रास्‍ता सिर्फ मजदूर-मेहनतकश वर्ग की ही नहीं, पूरी मानवजाति की मुक्ति का रास्‍ता भी है। इस रास्‍ते को त्‍याग कर मानवजाति कभी ऐसी जगह नहीं पहुंच पाएगी जहां वास्‍तविक शांति और खुशी उसे नसीब होगी।                     

अल्बर्ट रीस विलियम्स की पुस्तक “लेनिन और अक्टूबर क्रांति” के अग्र पृष्ठ से। यह अक्टूबर क्रांति की पूर्व संध्या के अवसर पर स्मोलनी भवन में हुई सभा का दृश्य है।

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