खोरी बस्ती ढह चुकी है, मी लॉर्ड!!
देश के सारे संसाधन चंद हाथों में सिमटते जा रहे हैं, पूंजी के पहाड़ संख्या में कम लेकिन दैत्याकार होते जा रहे हैं। अर्थनीति के अनुरूप ही सत्ता का राजनीतिक स्वरूप भी तेज़ी से राज्यों के हाथों से निकलकर केंद्र के हाथों में केंद्रीकृत होता जा रहा है। ‘हम दो – हमारे दो’ का नारा संसद से सडकों, किसान आन्दोलनों तक फैलता जा रहा है। क्रांतिकारी राजनीति का दावा करने वालों का, लेकिन, इस वस्तुस्थिति से बे-खबर, वही ‘अपनी ढपली-अपना राग’ यथावत ज़ारी है।