खोरी बस्ती ढह चुकी है, मी लॉर्ड!!

खोरी बस्ती ढह चुकी है, मी लॉर्ड!!

September 11, 2021 0 By Yatharth

  एस वी सिंह

“जंगल की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने वाले क़ानून से किसी राहत की उम्मीद नहीं कर सकते”

“जंगल की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने वाले क़ानून से किसी राहत की उम्मीद नहीं कर सकते”, खोरी गाँव में रहने वाले लगभग डेढ़ लाख ग़रीब मज़दूरों ने 23 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट से जो आधी-अधूरी आस लगाई हुई थी, उस पर जस्टिस खानविलकर की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने इस एक वाक्य से पानी फेर दिया। नगर निगम फरीदाबाद तो जुलाई के पहले सप्ताह से ही दर्ज़नों बुलडोज़र लेकर और पूरी खोरी बस्ती को फौजी छावनी में तब्दील कर ‘अपना कानूनी फ़र्ज़’ पूरा करने में लग ही चुका था। तब तक कुल 15000 घरों में से लगभग आधों को तो मलबे के ढेर में बदला जा चुका था। उसे ‘बाक़ी काम’ को पूरा करने, वहाँ से घरों और लाखों मज़लूमों के अरमानों, आंसुओं का नामोनिशान मिटाने के लिए चार सप्ताह का समय और दे दिया गया जिसे उसने समय सीमा से पहले ही पूरा कर दिखाया। असंगठित, असहाय, सरकारी मशीन गनों से भयभीत लोगों ने कुछ विरोध ज़रूर किया, बुलडोज़रों के आगे एक-दो दिन ज़रूर बैठे लेकिन पुलिस ने डंडे मार- मार कर खदेड़ दिया। कुछ को गिरफ्तार भी किया लेकिन सरकारी अमले के ही शब्दों में ‘सब कुछ शांति से निबट गया कोई कैजुअल्टी नहीं हुई!! मज़दूरों की कितनी भी तादाद हो और असंगठित रहे तो सब कुछ ‘शांति’ से निबटना ही होता है। मज़दूरों को उजाड़ना हो तो सरकारी अमले का उत्साह देखते बनता है, फिर उन्हें ‘अपना फ़र्ज़’ पूरा करने में ना बारिश रूकावट डाल सकती है, ना कोई महामारी। बेहाल मज़दूरों को ‘राहत’ के नाम पर राधा स्वामी सत्संग में पोलिथीन के टेंट लगा दिए गए थे। पुनर्वास की योजना तो मानो उनकी ग़रीबी का मखौल बनाने के लिए ही थी जिसे बड़ी-बड़ी प्रेस कांफ्रेंस करके प्रचारित किया गया था। डबुआ कालोनी जो खोरी गाँव से लगभग 15 किमी दूर है, वहाँ के ज़र्ज़र ‘फ़्लैट’ लगभग 4 लाख की क़ीमत में इन भूखे मज़दूरों को ‘ऑफर’ किए गए थे जिसमें 18000 रुपये का भुगतान तो 15 दिन में ही करना था। ये हकीक़त जानने के लिए कोई सामाजिक वैज्ञानिक होना ज़रूरी नहीं कि खोरी में मज़दूर इसलिए रह रहे थे क्योंकि वहाँ से पैदल या साइकिल से जाने की रेंज में प्रल्हादपुर, तुग़लकाबाद, बदरपुर, ओखला आदि जगह पर अनेकों गारमेंट कारखानों में महिलाओं को भी सिलाई का काम मिल जाता था और कारीगरों के हाथों को अनेकों काम, पटरी-ठेलों पर फल-सब्जी-चने-मूंगफली बेचकर किसी तरह पेट भरने का जुगाड़ हो जाता था। जो पैसे हाथ में आते थे उसमें से कुछ अपना पेट काटकर खोरी में ज़मीन बेचने वाले ‘एजेंटों’ को भी दिए जा सकते थे लेकिन डबुआ में आस-पास जब कोई काम ही नहीं मिलेगा, हाथ में कुछ आएगा ही नहीं तो उस फ़्लैट में खाएँगे क्या और उस फ़्लैट की किस्तें कहाँ से चुकाएँगे?? फरीदाबाद सिविल कोर्ट में खोरी से बे-घर किए गए मज़दूरों की ओर से न्यायोचित पुनर्वास के लिए केस ज़रूर दर्ज हुआ है लेकिन अदालतों से गरीबों को राहत मिलेगी, इस बात का भरोसा अब किसी को नहीं रहा। रोटी की ज़रूरत घर से भी पहले आती है। यही वज़ह है कि उजड़े मज़दूरों ने इस ‘सरकारी आवास योजना’ को, जो थी भी सिर्फ़ बताने के लिए ही, कोई महत्त्व नहीं दिया और अपने बच्चों को लेकर दिल्ली की विभिन्न झुग्गियों में ही किराए पर आसरा ढूंढ लिया। कुछ अपने ‘वतन’ लौट गए जहाँ से उजड़कर यहाँ पहुंचे थे। उजड़ना, बसना, फिर उजाड़ना; मुसीबतें ही तो मज़दूरों की साथी हैं जो पैदा होने से मरने तक साथ निभाती हैं। खोरी बस्ती का मलबा भी साफ हो गया। जंगल बच गया। वातावरण शुद्ध हो गया!!

अरावली को तबाह खनन-माफ़िया, भू-माफ़िया, शिक्षा-माफिया, दारू-माफ़िया, योग-माफिया और धर्म-माफिया कर रहे हैं, सर  

इससे पहले, खोरी बस्ती को उजाड़ने के सुप्रीम कोर्ट के अप्रैल 5, 2021 के आदेश को स्थगित रखने के लिए अपर्णा भट की याचिका पर 7 जून को अदालत ये फैसला सुना ही चुकी थी कि “इस याचिका पर कोई ध्यान देने की ज़रूरत नहीं। हम आदेश दे चुके हैं। आप वहाँ अपने जोखिम पर ही रह रहे हैं। ये कोई साधारण ज़मीन नहीं बल्कि फारेस्ट की ज़मीन है।” जो लोग दिल्ली-फरीदाबाद-गुडगाँव त्रिकोण के बीच मौजूद अरावली फारेस्ट की हकीक़त जानते हैं उन्हें सुप्रीम कोर्ट के आदेश का ये वाक्य, ‘ये कोई साधारण ज़मीन नहीं बल्कि फारेस्ट की ज़मीन है, बहुत पीड़ादायक कटाक्ष महसूस होता है। इस ‘असाधारण फारेस्ट ज़मीन’ का हरियाणा के खनन-माफ़िया, भू-माफिया, बुर्जुआ-राजनीतिक-ज़बर-माफिया, शिक्षा-माफिया, दारू-माफिया, धर्म-माफिया, संत-माफिया, गुरुकुल-माफिया, योग-माफिया ने जिस बेदर्दी से सामूहिक बलात्कार किया है वो शायद ही कहीं किसी ‘साधारण’ ज़मीन का भी हुआ हो!! इस जगह की सुप्रीम कोर्ट से दूरी मात्र 15 किमी है, बहुत बेहतर होता यदि इतना अहम फैसला सुनाने से पहले न्यायमूर्ति खुद या किसी विशेष टीम द्वारा इस क्षेत्र का मौक़ा मुआयना कराते। फरीदाबाद से प्रकाशित साप्ताहिक ‘मज़दूर मोर्चा’ अखबार ने इस क्षेत्र का शोध कर रिपोर्ट छापी है। इस उम्मीद के साथ की सुप्रीम कोर्ट जंगल को सुरक्षित करने के लिए अरावली की ‘असाधारण फारेस्ट ज़मीन’ से सभी अतिक्रमणों को हटवाएगी, अतिक्रमण सम्बन्धी निम्नलिखित आंकड़ों को हम मज़दूर मोर्चा से साभार प्रस्तुत कर रहे हैं।

#अतिक्रमणक्षेत्रफल (एकड़ में) / मालिक का नाम
1.रिवाज़ फार्म हाउस6, करतार भडाना
2.गोल्डन सर्विस फार्म हाउस0.3,
3.राजस्थानी फार्म हाउस3
4.बिन्दे फार्म हाउस2.5, विवेक भडाना
5.महिपाल फार्म हाउस (कुल 3 फार्म हाउस)8, महिपाल मलिक
6.प्रमोद गुप्ता फार्म हाउस2.5, प्रमोद गुप्ता
7.रॉयल गार्डन फार्म हाउस4
8.एक्स्पोर्मा ग्रीन फार्म हाउस3
9.डावर फार्म हाउस5
10.करतार फार्म हाउस2, मनमोहन भडाना
11.अमृत ग्रीन फार्म हाउस3
12.लोटस गार्डन फार्म हाउस3
13.विकी फार्म1.5, विकी
14.इन्तेज़ार गार्डन3
15.ड्रीम जेड फार्म हाउस3.5 कृष भडाना
16.आनंद वन फार्म हाउस7
17.सुतार फार्म हाउस3
18.विनोद फार्म हाउस2, विनोद पुत्र ऋषिपाल
19.वीरेंद्र फार्म हाउस3, वीरेंद्र बिधूड़ी
20.आर्चिड वैली फार्म हाउस3, सत्ते महाशय
21.किंग वैली फार्म हाउस5, रिंकू
22.आइकॉन फार्म हाउस2, कपिल
23.देवेन्द्र भडाना फार्म हाउस1.5 देवेन्द्र भडाना
24.आशु भडाना फार्म हाउस1, आशु भडाना
25.सांगवान फार्म हाउस14, जयदीप सांगवान
26.देवेन्द्र फार्म हाउस2, देवेन्द्र
27.कालूराम फार्म हाउस2.5 कालूराम
28.नरेश कुमार फार्म हाउस1, नरेश कुमार
29.सत्ते फार्म हाउस1, सत्ते
30.सुरेन्द्र फार्म हाउस1.5, सुरेन्द्र
31.जीतराम फार्म हाउस3.5 जीतराम
32.ऋषिपाल फार्म हाउस2, ऋषिपाल
33.मुकेश फार्म हाउस1, मुकेश
34.जीतू फार्म हाउस1, जीतू
35.टीटू फार्म हाउस 1, टीटू
36.प्रशांत फार्म हाउस6, प्रशांत
37.हेमचंद फार्म हाउस1, हेमचंद
38.बिल्लू फार्म हाउस1, बिल्लू
39.सुनील फार्म सूरजकुंड वाटिका2, सुनील
40.सूरजकुंड वाटिका 290.5, विजय
41.सूरजकुंड वाटिका 300.75, बालकिशन
42.बलराज फार्म सूरजकुंड वाटिका0.6, बलराज
43.अश्विनी नागर फार्म हाउस1, अश्विनी नागर
44.सूरजकुंड वाटिका 611, देवेन्द्र भडाना
45.मनीष फार्म सूरजकुंड वाटिका0.25, मनीष शर्मा
46.देवन फार्म हाउस2, देवन
47.धर्मेन्द्र खटाना फार्म हाउस सूरजकुंड वाटिका1, धर्मेन्द्र खटाना
48.गुलाब सिंह होम सूरजकुंड वाटिका0.25 गुलाब सिंह
49.जीवन बोहरा होम सूरजकुंड वाटिका0.25 जीवन बोहरा

विशेष उल्लेख: सूरजकुंड वाटिका के नाम पर अरावली में 23 ऐसे भी फार्म हैं जिनके मालिक या उनके मालिकाना हक स्पष्ट नहीं हैं। इसलिए इस सूची में सिर्फ़ सूरजकुंड वाटिका नम्बर दिए गए हैं। ये नम्बर हैं- 19, 20, 21, 23, 28, 31, 32, 33, 34, 35, 36, 37, 38, 39, 40, 41, 42, 43, 44, 45, 46, 47, 48, 49, 50, 51, 52, 53, 54।  इसी तरह ऊपर की सूचि में कुछ फार्म हाउसों के नाम के साथ सूरजकुंड वाटिका भी लिखा गया है। सरकारी दस्तावेजों में ये नाम इसी तरह दर्ज हैं। इस सूचि में वे बैंक्वेट हाल शामिल नहीं हैं जो मूल रूप से फार्म हाउस थे, जिन्हें बैंक्वेट हाल, क्रिकेट अकादमी आदि में बदल दिया गया है। इसमें उज्जवल फार्म जैसे नाम नहीं हैं जिन्हें राजनीतिक संरक्षण में कोरोना काल में विकसित किया गया और अब उसे बैंक्वेट हाल में बदला जा रहा है। ये सभी पीएलपीए ज़मीन यानी वन विभाग या फिर ग़ैर मुमकिन पहाड़ की ज़मीनें हैं, जिन पर न तो निर्माण हो सकता है और न इसे बेचा-ख़रीदा जा सकता है।

(उपरोक्त आंकडे फरीदाबाद से प्रकाशित लोकप्रिय साप्ताहिक मज़दूर मोर्चा से साभार)

अरावली पर अतिक्रमण करने वाले ऊपर वर्णित महानुभाव राजनीतिक रूप से सशक्त और दबंग हैं जिनके सूत्र सत्ता प्रतिष्ठान के शीर्ष से गुथे हुए हैं। इन्हें भी, हालाँकि, ज़मीन को खाली करने के नोटिस दिए जा चुके हैं और 4 जुलाई के फैसले में सुप्रीम कोर्ट की उसी बेंच ने इन सारे अतिक्रमणों को पूरी तरह हटाने के लिए 23 अगस्त तक का समय दिया है लेकिन दबंगों के मामले में बात नोटिस से बुलडोज़र तक पहुँच नहीं पाती वहीँ फुस्स हो जाती है। सरकारी अमले का उत्साह ज़बर लोगों के इन कब्जों को हटाने में शून्य नज़र आ रहा है। इन दबंगों के अतिरिक्त निम्न लिखित चार मामले अति- दबंगों के हैं और देखना है कि सुप्रीम कोर्ट इस ‘साधारण ज़मीन नहीं बल्कि फारेस्ट की ज़मीन’ को इन मगरमच्छों से खाली करा पाती है या नहीं। अगस्त अंत की वस्तु स्थिति का अपडेट ‘यथार्थ’ के अगले अंक में दिया जाएगा।

  1. मानवरचना विश्वविद्यालय- शिक्षा माफ़िया भी आजकल खनन माफ़िया से कम रसूखदार नहीं है। कम से कम 10 एकड़ में फैला ये विश्वविद्यालय बिलकुल खोरी कॉलोनी जैसी ही फारेस्ट ज़मीन पर है। इसके मालिकों ने अपनी जागीर को बचाने के लिए अभी 17 जुलाई को ही यहाँ विश्व हिन्दू परिषद् का महा सम्मलेन कराया है जिसका पूरा खर्चा इसी संस्थान के मालिकान भल्ला बंधुओं ने उठाया। इस सम्मलेन में वही महाशय चम्पतराय भी पधारे हुए थे जिन्होंने हाल ही अयोध्या में 4 करोड़ की ज़मीन को 18 करोड़ में ख़रीदकर राम-नाम के चंदे में कथित फर्जीवाड़ा किया है। इस संस्थान को सुप्रीम कोर्ट से बचाने की ज़िम्मेदारी इन्हीं चम्पतराय को दे दी गई सुनाई पड़ती है। फरीदाबाद में लोगों में ये चर्चा आम है कि ‘इन दिनों सुप्रीम कोर्ट से भी बड़ी है आरएसएस की अदालत और देखना भल्ला जी की मानव रचना युनिवेर्सिटी को कुछ नहीं होगा!!’ सच्चाई क्या है, सामने आ जाएगी।
  2. कुख्यात योग ‘गुरु’ रामदेव- देशभर में ‘असाधारण फारेस्ट ज़मीन’ हथियाने में योग कलाबाजियां करने वाले और फर्जी कोरोना औषधि के निर्माता, मौजूदा फासिस्ट मोदी सरकार के लाड़ले, जिनके  कोरोनिल नाम के फर्जीवाड़े को प्रोमोट करने के अपराध में दो मंत्री सीधे संलिप्त रहे हैं, ठग रामदेव का नाम सबसे अग्रणी लोगों में आता है। 2014 में हरियाणा में भाजपा की सरकार बनते ही अरावली जंगल में बसे कोट गाँव में लगभग 400 एकड़ ज़मीन रामदेव ने ‘खरीद’ ली!! ख़रीदी ‘हेर्बो वेद ग्राम प्रा लि’ के नाम पर हुई, अगले ही साल 2016-17 में इस कंपनी के शेयर रामदेव के व्यवसायिक हिस्सेदार ‘आचार्य बालक्रिशन’ ने खरीद लिए। सवाल ये है कि फारेस्ट ज़मीन की ख़रीदी हो ही नहीं सकती, हो गई है तो निरस्त मानी जाएगी। इस मामले में पता चलेगा कि क़ानून के हाथ लम्बे हैं या रामदेव के!! कृपया विदित हो, खोरी बस्ती जिसमें लगभग डेढ़ लाख मज़दूर रहते थे उस ज़मीन का कुल रक़बा 174 एकड़ है।
  3. सिद्धादाता आश्रम- शुरुआत में किसी भी ब्रांड का धार्मिक स्थल बनाओ फिर उसे फैलाते जाओ। सरकारी ज़मीनों को हथियाने का ये एक लोकप्रिय हथकंडा है। इस फर्जीवाड़े में ‘धार्मिक भावनाएं दुःख जाने’ वाला फार्मूला इस्तेमाल होता है और ठगी के इस प्रचलित हथियार की कहीं कोई अपील नहीं है!! खोरी बस्ती में भी सभी ब्रांड के धर्मों के कुल 17 धार्मिक स्थल थे जिनको बुलडोज़रों ने रौंदकर मिटटी में मिला दिया, किसी की भी धार्मिक भावनाओं को ज़रा सी ठेस भी ना पहुंची!! भगवान-खुदा भी हमेशा से अमीर वर्ग के ही उपक्रम रहे हैं, मज़दूरों को याद रखना चाहिए। फरीदाबाद अनखीर चौक से मात्र 1 किमी की दूरी पर फरीदाबाद-दिल्ली शूटिंग रेंज वाली रोड पर लगभग 25 साल पहले अरावली जंगल में एक झोंपड़ी से इस मंदिर की शुरुआत हुई थी। ये कुटीर उद्योग बहुत तेज़ी से विकसित होता है हमारे देश में!! आज यहाँ आलीशान संगमरमर का विशाल मंदिर है जिसका आकार हर साल बढ़ता जा रहा है। सारे नेता यहाँ मत्था टेकते हैं।  इस बेशकीमती संपत्ति को लेकर दो बार पुजारियों के बीच फायरिंग की भी वारदात हो चुकी हैं। क़ानून भी यहाँ आकार मत्था टेक देगा ऐसी चर्चा आम है। हकीक़त सामने आ जाएगी।

  4. अरावली इंटरनेशनल स्कूल- फरीदाबाद के सबसे मंहगे स्कूलों में से एक, यह आलीशान स्कूल फारेस्ट की ज़मीन पर बहुत ही प्राइम लोकेशन पर शान से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है। बुलडोज़र का पीला पंजा यहाँ कितना असरदार होगा इससे तय होगा कि सबके लिए क़ानून समान है, ये हकीक़त है या एक सुखद भ्रम जिसे शासक वर्ग ने ग़रीबों के गुस्से को पंक्चर करने के लिए फैलाया हुआ है।

विकराल होती जा रही मज़दूरों की आवास समस्या

कारखाने चलाने, निर्माण करने, उत्पादन करने के लिए मज़दूर का ज़िन्दा रहना ज़रूरी है और जिंदा रहने के लिए रोटी चाहिए। भोजन के बाद दूसरे नंबर की ज़रूरत घर की है। ‘घर’ को परिभाषित करना कठिन कार्य है। एक तरफ़ तो सैनिक फार्म, डिफेन्स कॉलोनी, ज़ोरबाग़ में दो-दो हज़ार गज की दस-दस बेड रूम की कोठियां हैं जहाँ दो मालिक लोग और चार जर्मन शेफ़र्ड कुत्ते रहते हैं। सेवा करने के लिए चार नौकर, माली आदि भी रहते हैं लेकिन दिन में, रात में उन्हें कहीं किसी झुग्गी में लौट जाना होता है। दूसरी तरफ़ 10 फुट गुणा 8 फुट की खोली में 8-8 लोगों का परिवार रहता है, साथ में बहता है गन्दा सीवर-नाला और दिन-रात के साथी होते हैं, असंख्य मच्छर। उसी खोली में ही रसोई और गुसलखाना भी होता है। पहली श्रेणी की कोठी वैध होती है हालाँकि किसी भी कोठी की जड़ें कुरेदिए, आप बैंकों से लम्बे-चौड़े क़र्ज़ लेकर डकार जाने, घपला-घोटाला करने, फर्जीवाड़ा, कर-चोरी, लोगों से पैसे हड़प लेने के कंकाल ज़रूर पाएँगे। दूसरी श्रेणी वाली खोली हमेशा अवैध होती है जहाँ दिन भर हाड़ तोड़ मेहनत करने वाला, उत्पादन-सृजन करने वाला श्रमिक रहता है।  

जैसे-जैसे बेरोज़गारों की फौज बढ़ती जा रही है उत्पादन के सारे साधन हथियाकर बैठे कॉर्पोरेट को ये चिंता सताना बंद करती जाती है कि मज़दूर भूख से या फुट-पाथ पर सोने से मर जाएगा तो क्या होगा? दूसरा आ जाएगा!! अस्पताल के शव गृह में साफ सफ़ाई के जॉब के लिए भी पोस्ट ग्रेजुएट लाइन लगाए खड़े हैं। दिल्ली नगर निगम ने बन्दर भगाने के लिए जिन युवाओं को हूबहू  लंगूर बनाकर काम पर लगाया हुआ है उनमें भी कई ग्रेजुएट हैं, असली लंगूर उनसे मंहगे पड़ते हैं! फिर चिन्ता क्यों करना!! खोरी के डेढ़ लाख लोग एक महीने में बे-घर, बे-दर हो गए, अदृश्य हो गए, कौन सा कारखाना बंद पड़ा?? वैसे भी आज के पूंजीवाद को उत्पादन चाहिए ही कहाँ? मसलन, फरीदाबाद में हर ब्रांड के पंखे बनाने के कारखाने हैं लेकिन किसी भी ‘कारखाने’ में पंखे नहीं बनते। माल चीन से आता है और वहाँ सिर्फ़ अस्सेम्बल होता है वो भी उतना ही जो बिक जाए!!

2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 8 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हैं और लगभग 50 लाख लोग बे-घर हैं। 2021 की जनगणना तो कोरोना की वज़ह से 2022 में ही होगी। तब ये आंकड़े निश्चित रूप से डबल हो चुके होंगे। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 2017 से 2019 के बीच देश में कुल 5.68 लाख लोगों को सरकार द्वारा उजाड़ दिया गया। यानी हर साल क़रीब 2 लाख लोगों की झुग्गियां तोड़कर उन्हें बे-घर कर दिया जाता है। ये अधिकारिक आंकड़े हैं, हकीक़त कहीं ज्यादा संगीन है। पूंजीवादी चक्की की क्रूर विडम्बना देखिए कि अकेले राष्ट्रिय राजधानी क्षेत्र में ही लाखों फ़्लैट खाली पड़े हैं, अनेकों प्रोजेक्ट अधूरे पड़े हैं क्योंकि डिमांड नहीं है!! भले आपका पूरा परिवार हर रोज़ सड़क किनारे पटरी पर सोता हो लेकिन यदि आपकी जेब में घर ख़रीदने के लिए लाखों रुपये नहीं है तो आपको घर की ‘आवश्यकता’ नहीं है!!

मज़दूर जो यदि उस वक़्त एक दिन भी हड़ताल कर दे जब उद्योगपति के हाथ में बड़ा सा आर्डर है तो मालिक की धमनियों में रक्त जम जाता है। जिनकी श्रम शक्ति को लूटकर ही पूंजी के ये विशाल पहाड़ खड़े किए गए हैं, क्या उसे इंसानों के रहने लायक घर नहीं मिलना चाहिए? ‘जहाँ झुग्गी वहाँ घर’, ‘2022 तक सबको पक्का घर’, चुनावों के वक़्त ऐसे वादे करने वाले इन फासिस्ट ठगों से क्या इसका जवाब तलब नहीं किया जाना चाहिए कि अब तक कितने लोगों को पक्के घर बनाकर दिए? मज़दूरों को संगठित हो इस अन्याय के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करनी होगी। झांसेबाज़ हुक्मरानों की ठगी में आने से, लगातार, बार-बार ठगे जाने से सख्ती से इंकार करना होगा। मज़दूरों की मुक्ति कोई और नहीं करने वाला। इस निज़ाम में आने वाली कोई भी सरकार उन्हें घर नहीं देने वाली। उसे खुद क्रांतिकारी गोलबंदी कर सारे शोषित पीड़ित समाज की मुक्ति की रहनुमाई की तैयारी करनी होगी और वो भी बिना वक़्त गंवाए। सारा राड़ा सामूहिक उत्पादन पर व्यक्तिगत मालिकाने का है, अन्याय के इस स्रोत को ही मिटा डालना होगा।

खोरी बचाओ आन्दोलन की विफलता के सबक़

  • खोरी ध्वस्त करने का सुप्रीम कोर्ट का पहला फैसला 5 अप्रैल, 2021 को आया था। लेकिन 7 जून 2021 को जब सुप्रीम कोर्ट ने फरीदाबाद नगर निगम को पूरी बस्ती को उजाड़ने के लिए 6 सप्ताह का समय दे दिया, मज़दूरों के सारे हिमायती उसके बाद ही क्यों हरक़त में आए? 05.04.2021 से 07.06.2021 के बीच पूरे 63 दिन खोरी गाँव में कोई गतिविधि नहीं हुई। कोई लाल झंडे वाला वहाँ क्यों नहीं पहुंचा? 7 जून के बाद जब खोरी को पुलिस- सीआरपीएफ की छावनी बना दिया गया, मीडिया को रोक दिया गया, प्रशासन बुलडोज़रों का इन्तेजाम करने लगा, पुलिस कार्यकर्ताओं को उठा-उठा कर सूरजकुंड थाने ले जाने का इन्तेजाम करने लगी, उसी वक़्त सब लोगों को खोरी की याद क्यों आई? हाथ में लाल झंडे लेकर मज़दूरों के लिए लड़ने का दावा करने वाले पूरे 63 दिन क्यों सोते रहे? क्या उन्हें मालूम नहीं कि अदालत का फैसला अगर मज़दूरों के विरुद्ध होता है तब उसे लागू करने में प्रशासन अति उत्साहित रहता है? उस वक़्त जाग जाने से उजड़ने, बे-घर होने वाले लोगों को प्रतिरोध में जन आन्दोलन के लिए संगठित किया जा सकता था। कम से कम न्यायोचित पुनर्वास की लड़ाई तो सफलतापूर्वक लड़ी ही जा सकती थी। चूँकि खोरी फरीदाबाद-दिल्ली सीमा पर है इसलिए स्थानीय राजनीतिक कार्यकर्ता इस विफलता के लिए ज्यादा ज़िम्मेदार हैं।
  • शहर से दूर बबूल की बड़ी-बड़ी झाड़ियों के बीच इतनी विशाल मज़दूर आबादी का वहाँ निवास है, ये तथ्य बहुत ही कम लोगों को मालूम था। जिन्हें मालूम था वे या तो भाजपा के नेता थे जो वहाँ इसलिए मास्क बाँटने आते थे क्योंकि उन्हें उनके सिर्फ़ वोट चाहिए थे या फिर एनजीओ वाली राजनीति करने वाले ‘बंधुवा मुक्ति मोर्चा’ और ‘ह्यूमन राईट लीगल नेटवर्क’ चलाने वाले वकील थे जो किसी भी जन आक्रोश को सिर्फ़ कानूनी रास्ते से शांत करना जानते हैं। मज़दूरों के जीवन की किसी भी मुसीबत के विरुद्ध लड़ाई एक राजनीतिक लड़ाई है। सिर्फ़ आर्थिक मांगों तक सीमित रखकर ट्रेड यूनियन चलाने वाले या सिर्फ़ अदालत- क़ानून के रास्ते मज़दूरों की समस्याओं को हल करने का झांसा देने वाले असलियत में मज़दूरों को उनके असली मुक्ति संग्राम से विमुख कर रहे होते हैं। इस संघर्ष का मूल स्वरूप ही राजनीतिक है। कौन लोग कोठियों में रहेंगे और किन्हें झुग्गियों में भी नहीं रहने दिया जाएगा; ये राजनीति तय करती है। इसलिए मज़दूरों को भले कानूनी रास्ते से कभी कुछ हांसिल हो भी जाए तब भी अगर उन्हें मौजूदा राजनीति, राज-सत्ता का चरित्र समझाते हुए सडकों पर संघर्ष के लिए प्रेरित नहीं किया गया तो ये उनके साथ बहुत बड़ा धोखा है। खोरी बस्ती में शुरुआत में लगभग 40 साल पहले खदान मज़दूरों को बसाया गया था। कई लोगों के पास ‘खदान मज़दूर यूनियन’ के सदस्यता कार्ड अभी भी हैं लेकिन आज खदान प्रतिबंधित है, मालिकों को अब उनकी ज़रूरत नहीं। उस वक़्त जब वे फारेस्ट की चट्टानें खोद-खोद कर बहुमूल्य भवन निर्माण सामग्री निकाल रहे थे जिससे मालिकों की तिजोरियां भरी जा रही थीं और जिससे ये सब महल-चौबारे और ये अदालतें बन रही थीं, तब वे जंगल के लिए खतरा नहीं थे लेकिन अब खदान बंद है तो बहुत गंभीर खतरा बन गए हैं। इसलिए उन्हें यहाँ नहीं रहने दिया जा सकता!! राजनीति के इस रहस्य को यदि उन्हें समझाया गया होता तो आज वो बाहर से आकार कोई उनके घर बचा देगा, बिलखते हुए ये इन्तेज़ार करते बैठने की बजाए  प्रखर जन प्रतिरोध आन्दोलन में कूद जाते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसीलिए एनजीओ के जंजाल का पर्दाफ़ाश होना बहुत ज़रूरी है।

देश के सारे संसाधन चंद हाथों में सिमटते जा रहे हैं, पूंजी के पहाड़ संख्या में कम लेकिन दैत्याकार होते जा रहे हैं। अर्थनीति के अनुरूप ही सत्ता का राजनीतिक स्वरूप भी तेज़ी से राज्यों के हाथों से निकलकर केंद्र के हाथों में केंद्रीकृत होता जा रहा है। ‘हम दो – हमारे दो’ का नारा संसद से सडकों, किसान आन्दोलनों तक फैलता जा रहा है। क्रांतिकारी राजनीति का दावा करने वालों का, लेकिन, इस वस्तुस्थिति से बे-खबर, वही ‘अपनी ढपली-अपना राग’ यथावत ज़ारी है। खोरी बचाओ आन्दोलन में भी खुद को अति-क्रांतिकारी साबित करने की प्रतियोगिता साफ नज़र आई। कई संगठन न्यायोचित मुआवजा और पुनर्वास की मांग कर रहे थे, वहीँ एक संगठन झुग्गी वाली जगह ही पक्का मकान वाली मांग पर अड़ बांधता नज़र आया, भले उन परिस्थितियों में वैसा बिलकुल भी संभव ना हो, इससे प्रभावित लोगों में भ्रम पैदा हुआ, वे गुमराह हुए, फजीहत हुई और जो भी एकता बन सकती थी, नहीं बन पाई। प्रशासन यही चाहता था उसने सभी संगठनों के एक-एक दो-दो कार्यकर्ताओं को रस्म अदायगी के रूप में गिरफ्तार किया और साथ ही बस्ती में घर ढहाने का काम बरसात में भी बदस्तूर चलने दिया। मतलब जिस स्तर का विरोध, कम से कम बारिश के सीजन में और कोरोना महामारी के दौरान, बस्ती को ढहाने के अन्याय को थाम सकता था और समय मिलने पर कामयाबी की ओर बढ़ा जा सकता था वो नहीं बन पाया। आज के वक़्त की दरक़ार है कि मज़दूरों पर किसी भी स्थान पर होने वाले दमन, ज़ुल्म का प्रतिकार स्थानीय स्तर पर तो प्रखर हो ही, लेकिन संयुक्त, सशक्त रूप से पूरे देश में भी हो। दिल्ली में ही रेल पटरी के साथ-साथ लाखों मज़दूर बस्तियों को बचाना है तो ‘कार्य की एकता और वैचारिक डिबेट की स्वतंत्रता’ वाले लेनिन के सिधांत के अनुरूप, संयुक्त आन्दोलन चलाना सीखना होगा। अगर सारे संगठनों का संयुक्त मोर्चा ना भी हो तो सेक्टेरियन संगठन को छोड़कर बाक़ी में एकजुटता होना बहुत ज़रूरी है। जो भी संगठन संयुक्त आन्दोलन की प्रक्रिया में दरार डालने की हिमाक़त करता है उसे चिन्हित कर अलग-थलग करना आवश्यक है। ऐसा इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि मौजूदा वक़्त में अलग-अलग मुद्दों पर जन आक्रोश आन्दोलन चलाने के साथ ही देश के स्तर पर एक सशक्त संयुक्त ‘फासीवाद विरोधी क्रांतिकारी जन आन्दोलन’ चलाए जाने की ज़रूरत दिनोंदिन तीव्र होती जा रहा ही। ऐसा करने में हुई नाकामयाबी अथवा देरी से लोगों में व्याप्त क्रोध और छटपटाहट को फासीवादी ताक़तें विनाशकारी-विघटनकारी दिशा में मोड़ दे सकती हैं और उसके लिए इतिहास हमें कभी माफ़ नहीं करेगा।