पूंजीवाद के डूबते जहाज का कप्तान चिल्ला रहा है; बचाओ, बचाओ!!
September 11, 2021एस वी सिंह
असलियत में, पिछले कुछ सालों से अमेरिका आयातित वस्तुओं पर जो अधिक सुरक्षात्मक कर लगा रहा है, यह कदम, अमेरिका के बड़े उत्पादक जो कार्टेल और ट्रस्ट बना रहे हैं उनके दबाव में देश के छोटे उत्पादक को तहस-नहस करने के उद्देश्य से किया जा रहा है, साथ ही यह कदम इन कार्टेल और ट्रस्ट को इसे, मतलब संगठित एकाधिकारी पूंजी को पूरे उपभोक्ता बाज़ार को लूटने के लिए प्रस्तुत करने जैसा है |
“प्रतियोगिता ना रहे तो पूंजीवाद, पूंजीवाद नहीं रहता। ये शोषण बन जाता है”, कम्युनिस्ट शब्दावली में कही गई ये बात ऐसा लगता है जैसे शोषित वर्ग के किसी सच्चे हितैषी ने जन मानस को पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के ज़ुल्म से आगाह करने के लिए कही है। ये एक छलावा है। ये वाक्य कम्युनिज्म के सबसे बड़े दुश्मन और पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के मौजूदा गढ़ अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाईडेन के हैं। वह व्यक्ति जिसे पूंजीवाद के मौजूदा अवसान काल में जर्जर हो डूबते जा रहे पूंजीवादी जहाज को डूबने से बचाए रखने की ज़िम्मेदारी अमेरिका के शासक वर्ग ने सौंपी है। दरअसल, 9 जुलाई 2021 को अमेरिकी राष्ट्रपति ने एक प्रशासनिक आदेश (ई ओ 14036) ज़ारी किया जिसका उद्देश्य है “अमेरिकी अर्थ व्यवस्था में प्रतियोगिता को बढ़ावा देना”, और जिसे 21 वीं शताब्दी का एंटी-ट्रस्ट क़ानून कहा जा रहा है। अमेरिका के इस क़ानून की सारी दुनिया में खूब चर्चा हुई। छोटी-मझौली पूंजी को लगातार निगलते-निगलते एकाधिकारी वित्तीय पूंजी आज उस दैत्याकार अवस्था में पहुँच चुकी है कि पूंजीवाद के कुशल मेनेजर भी दहशत में हैं। बेलगाम हो चुके पूंजी के इसी घोड़े पर अंकुश लगाने के लिए या उसका दिखावा करने के लिए पहले से मौजूद एंटी-ट्रस्ट क़ानून को और कड़ा बनाया गया है। कुल 72 नए उपायों की व्यवस्था की गई है, ऐसा अमेरिका में पहले कभी नहीं हुआ। ये उपाय सुचारू रूप से लागू हों और टटपूंजिया पूंजी को इन राक्षसी कंपनियों जैसे अमेज़न, एप्पल, गूगल, फेसबुक का निवाला बनने से रोका जा सके, ये सुनिश्चित करने के लिए खुद राष्ट्रपति की अध्यक्षता में सारे विभागों के सचिवों को सम्मिलित कर सर्वोच्च शक्तिशाली ‘वाइट हाउस प्रतियोगिता कौंसिल’ का गठन किया गया है। साथ ही लीना खान की अध्यक्षता में ‘फ़ेडरल ट्रेड कमीशन’ का भी गठन किया गया है।
बड़ी मछली, छोटी मछली को ही नहीं, सब कुछ निगल जाना चाहती है
अमेज़न- 2020 में इस दैत्याकार अमेरिकन कंपनी की आय 37% की दर से बढ़कर $386 बिलियन हो गई। मुनाफ़ा बढ़ने की दर 84% रही। एक साल में ही उसकी आय में $100 बिलियन की बढ़ोत्तरी हुई। पिछले एक साल में ही इस कंपनी ने कुल 11 हवाई जहाज ख़रीदे जिन्हें माल ढोने के काम में लगाया गया। अगले साल तक इस कंपनी के पास कुल 85 हवाई जहाज समान ढोने के काम में लगे होंगे। अमेज़न नाम का मगरमच्छ अब तक कुल 108 कंपनियों को निगल चुका है। ब्यौरा जानने के लिए इस लिंक पर जा सकते हैं।
गूगल- गूगल ब्रांड नाम की मूल कंपनी का नाम ‘अल्फाबेट’ है। इस कंपनी की आय पिछले साल 23% बढ़ी और $ 320 बिलियन पहुँच गई। मुनाफ़ा 47% से बढ़ा। अल्फाबेट कंपनी अप्रैल 2021 तक कुल 243 कंपनियों को हज़म कर चुकी है। निगली गई मछलियों की लिस्ट यहाँ उपलब्ध है।
फेसबुक- 2020 में आय वृद्धि 43% तथा मुनाफ़ा वृद्धि 29%। 2005 से अब तक 92 कंपनियों को निगल चुकी है और भूख शांत होने की बजाय बढ़ती ही जा रही है। दिलचस्प बात ये है कि कौन सी कंपनी कितने में खरीदी उसका ब्यौरा नहीं दिया जाता।
एप्पल- ये दैत्याकार कंपनी भी पिछले साल 2 ट्रिलियन डॉलर वाली कंपनी बन गई। कंपनी के मालिक टीम कुक का कहना है कि उनकी कंपनी हर दो से तीन सप्ताह में दुनियाभर में कोई ना कोई कंपनी खरीद लेती है।
भारतीय परिदृश्य: ‘हम दो हमारे दो’
छोटी पूंजी का बड़ी पूंजी में विलय होते जाना, इस प्रक्रिया की गति तीव्र होते जाना, इसका दायरा व्यापक होते जाना, ना सिर्फ़ एक उत्पाद में प्रतियोगिता को समाप्त करना बल्कि अनेकों वस्तुओं का समस्त उत्पादन संगृहीत कर सारे उत्पादन पर ही एकाधिकार प्रस्थापित करना, इस प्रक्रिया को सुगम बनाने के लिए राज सत्ताओं को अपने जेबों में रखते जाना और राज सत्ताओं का छोटी पूंजी से हमदर्दी का पाखंड करना, ये सब पूंजीवादी विकास के मौजूदा अन्तिम चरण की विशिष्टताएं हैं। ये किसी विशेष देश की खासियत नहीं है। हमारे देश में ये खेल पिछले कुछ सालों से पूरी नग्नता के साथ चालू है। नंगई का प्रतिरोध ना हो इसलिए विरोध में उठने वाली हर आवाज़ को कुचल डालने के लिए ही सत्ता का चरित्र फासीवादी होता जा रहा है। इसीलिए देश में ‘हम दो हमारे दो’ नारा संसद से सडकों तक गूंज रहा है।
अडानी-अम्बानी: अडानी-अम्बानी की आय पिछले साल, राक्षसी आकार की ऊपर वर्णित अमेरिकी कंपनियों से कहीं ज्यादा तीव्र गति से बढ़ी है। 2020 में जब लॉक डाउन की वज़ह से कोई उत्पादन नहीं हुआ तब भी अडानी-अम्बानी की आय डबल हो गई।
कंपनियों का शिकार : मौत या विलय; क्या भारत क्या अमेरिका!!
छोटी कंपनी बड़ी कंपनी में विलीन हो गई, ये प्रक्रिया सुनने में जितनी सरल, अहिंसक लगती है वैसी नहीं है। लूटमार, शोषण, दमन कभी भी शांतिपूर्वक नहीं हो सकता, ना लूट के माल का बंटवारा शांतिपूर्वक होता है। सतह पर जब सब शांत नज़र आता है तब भी सतह के नीचे ख़ूनी खेल चल रहा होता है। छोटी मछली कभी भी खुद को बड़ी मछली का निवाला बनने के लिए स्वेच्छा से प्रस्तुत नहीं करती। शुरू में तो उसे मालूम भी नहीं होता कि वो बड़ी मछली के पेट में जाने वाली है और जब पता चलता है तब कोई विकल्प नहीं होता। पूंजी जैसे जैसे विशाल होती जाती है वैसे ही बाज़ार में अपना प्रभुत्व ज़माने की उसकी हैसियत बढ़ती जाती है। वित्तीय पूंजी का तो मूल चरित्र ही है, डोमिनेट करना, प्रभुत्व ज़माना। एकाधिकारी सट्टेबाज़ वित्तीय पूंजी और उसके द्वारा सत्ता को ही अपनी जेब में ले लेने के बाद, खुली नंगई के मौजूदा काल खण्ड में तो ये खेल बहुत ही घिनौना रूप ले चुका है। इसका सबसे ताज़ा उदहारण है अडानी कंपनी द्वारा सत्ता का इस्तेमाल करते हुए मुंबई एअरपोर्ट प्रबंधन के ठेके में जीवीके कंपनी से 74% हिस्सा ऐंठ लेना। बांह मरोड़कर घुटने टेकने को मज़बूर कर देने का ये खेल चूँकि अडानी द्वारा नंगई के साथ हुआ इसलिए ज़बरन वसूली सा नज़र आता है लेकिन अपने संभावित प्रतियोगी को भांपकर, नुकसान/ विपत्ति झेलने की उसकी क्षमता का मूल्यांकन कर, उसे समाप्त करने के लिए वस्तुओं के दामों में आवश्यक फेरबदल कर अपने शिकार को विलय के लिए मज़बूर कर देना मौजूदा समय में पूंजी के पहाड़ पर बैठा हर लुटेरा पूंजीपति कर रहा है। दवाई उद्योग में ऐसी व्यवसायिक हत्याएं करना सबसे आसान है इसका ब्योरा इस लिंक में पढ़ा जा सकता है। अम्बानी की जिओ कंपनी द्वारा साल भर तक लगभग मुफ़्त मोबाइल सेवा उपलब्ध कर मोबाइल उद्योग में दो कंपनियों को छोड़ बाक़ी सभी को निगल जाना और बची दो कंपनियों में से भी वोडाफोन का क़रीब क़रीब भट्टा बैठा देना, कंपनी हत्याकांड की श्रेणी में आता है। ₹74000 करोड़ के घाटे के बोझ में दबी वोडाफोन कंपनी के आधे मालिक कुमार मंगलम बिड़ला का सरकार से दया की अपील करते हुए गुहार लगाना कि हमारी कंपनी ले लो, हमें डूबने से बचाओ, कोई साधारण घटना नहीं है। इसके बाद वही होना है जो हर बार होता है, ₹74000 करोड़ का क़र्ज़ आम आदमी के सिर पर डाल दिया जाएगा!! उसके बाद मोबाइल मार्केट में जिओ और एयरटेल की डूओपोली ही बचेगी। मोबाइल की ज़रूरत आज ऑक्सीजन के बाद दूसरे नंबर पर है, ग्राहकों की तादाद 100 करोड़ से भी ऊपर निकल चुकी है। जब मर्ज़ी जितना मर्ज़ी दाम बढाकर लोगों की जेब में जो कुछ भी बचा है उसे हड़पना कितना आसान हो जाएगा। किसी भी बड़ी कंपनी का पेट चीरकर देखा जाए तो उसमें अनेकों कंपनियों के कंकाल नज़र आ जाएँगे। प्रतियोगिता को नेस्तनाबूद करने के बाद ही उपभोक्ताओं से अधिकतम मुनाफ़ा निचोड़ा जा सकता है और उसके बाद ही मज़दूरों का अधिकतम शोषण किया जा सकता है। इस ख़ूनी खेल का उद्देश्य ही है; ग्राहक और मज़दूर के पास दूसरा विकल्प नहीं बचना चाहिए।
पूंजीवाद की ऐतिहासिक गति
सामंतवाद के गर्भ से पैदा होकर जब तक पूंजीवादी बाज़ार का आकार विस्तृत होता गया, बाज़ार में प्रतियोगिता और बुर्जुआ जनवाद विकसित होता गया। उन्नीसवीं शताब्दी समाप्त होने से पहले ही, लेकिन, पूंजी का संकेन्द्रण, ट्रस्ट, कार्टेल बनाकर प्रतियोगिता को नियंत्रित करने की पूंजी की प्रवृत्ति मुखर होने लगी थी। सबसे पहली ट्रस्ट का निर्माण 1882 में अमेरिका में ही हुआ जब जॉन रौकफेलर स्टैण्डर्ड ऑइल कंपनी ने तत्कालीन कंपनी नियमों को धता बताते हुए और सीनाज़ोरी से कर चोरी करते हुए अमेरिका में और विश्व व्यापार में तेल की आपूर्ति नियंत्रित कर तेल के दाम को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक नियंत्रित करने के लिए अमेरिका के कई तेल शोधक उद्योगों को मिलाकर एक कार्टेल/ ट्रस्ट का निर्माण किया। उसके बाद उन्नीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में ही अनेकों एकाधिकारी पूंजीवादी कार्टेल और ट्रस्ट निर्मित होते गए जिनका परिणाम क़ीमतों में तीव्र वृद्धि में हुआ और जिससे जन असंतोष तीखा होने लगा। जन असंतोष के मद्देनज़र अमेरिका में एकाधिकारी पूंजी के रास्ते में रूकावट डालने के लिए 1890 में पहला क़ानून बना जिसे ‘शेर्मन एंटी ट्रस्ट क़ानून’ कहा जाता है। पूंजीवादी सरकारों को हमेशा ही कहना कुछ और करना कुछ और होता है, काम पूंजी के ताबेदार के रूप में करना होता है और लोगों को मूर्ख बनाने के लिए कहना और करते हुए दिखना कुछ और होता है। इस तथ्य को विश्व सर्वहारा के महान नेता फ्रेडेरिक एंगेल्स ने अपने लेख से उसी वक़्त उजागर किया जब अमेरिका में 1892 के राष्ट्रपति चुनाव में मेकिनले के चुनाव जीतने पर अपनी समीक्षा में उन्होंने ये टिपण्णी की जिसे बाईडेन भूल जाने का ढोंग कर रहे हैं। “असलियत में, पिछले कुछ सालों से अमेरिका आयातित वस्तुओं पर जो अधिक सुरक्षात्मक कर लगा रहा है, यह कदम, अमेरिका के बड़े उत्पादक जो कार्टेल और ट्रस्ट बना रहे हैं उनके दबाव में देश के छोटे उत्पादक को तहस-नहस करने के उद्देश्य से किया जा रहा है, साथ ही यह कदम इन कार्टेल और ट्रस्ट को इसे, मतलब संगठित एकाधिकारी पूंजी को पूरे उपभोक्ता बाज़ार को लूटने के लिए प्रस्तुत करने जैसा है”।
इसके बाद एकाधिकारी पूंजी के लिए कार्टेल और ट्रस्ट निर्बाध गति से बनते गए, छोटे उद्योग उनका निवाला बनते गए और उन्हें बचाने का ढोंग भी समान गति से बढ़ता गया। औद्योगिक पूंजी और बैंकिंग पूंजी के विलय से वित्तीय पूंजी वजूद में आई। असीमित वित्तीय पूंजी के दम पर लगभग सारे बाज़ार पर चंद वित्तीय मगरमच्छों का क़ब्ज़ा हो गया। पूंजी की इस तूफानी गटर गंगा को रोकने के ढोंग के क्रम में अमेरिका में और भी कई क़ानून बने; क्लेटन एक्ट 1914, फ़ेडरल ट्रेड कमीशन एक्ट 1914, अमेरिका के न्याय मंत्रालय में एंटी ट्रस्ट विभाग का निर्माण हुआ और 1933 में इंडस्ट्रियल रिकवरी एक्ट पास हुआ लेकिन इन सबका क्या परिणाम हुआ, असलियत क्या थी, साम्राज्यवाद का आज का स्वरूप क्या है, एकाधिकारी वित्तीय पूंजी क्या है, ये सब अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य जानने हैं तो सर्वहारा के महान नेता कॉमरेड लेनिन का लेख, “साम्राज्यवाद पूंजीवाद की चरम अवस्था (1916)” पढ़ने, विचार करने के सिवा पर्याय नहीं। “एकाधिकारी पूंजीवादी एसोसिएशन, कार्टेल, सिंडिकेट और ट्रस्ट पहले देश के पूरे बाज़ार को आपस में बाँट लेते हैं और अपने देश के कमोबेश पूरे बाज़ार पर अपना क़ब्ज़ा जमा लेते हैं। पूंजीवाद में, लेकिन, देसी और विदेशी बाज़ार एकीकृत हो जाता है। पूंजीवाद बहुत पहले ही विश्व बाज़ार स्थापित कर चुका है। जैसे जैसे पूंजी का निर्यात बढ़ता जाता है और विदेशी तथा औपनिवेशिक संबंधों द्वारा प्रभाव क्षेत्र बढ़ता जाता है, विशालकाय एकाधिकारी एसोसिएशन का और विस्तार होता जाता है, परिस्थितियां ‘स्वाभाविक’ रूप से अंतर्राष्ट्रीय एसोसिएशन की ओर बढ़ती हैं और अंतर्राष्ट्रीय कार्टेल अस्तित्व में आते हैं। पूंजी और उत्पादन के वैश्विक स्तर पर संगृहीत होने की ये एक नई अवस्था है, पहले की सभी अवस्थाओं से अकल्पनीय रूप से कहीं आगे।” अब देशों को गुलाम बनाकर को लूटने की ज़रूरत नहीं रह जाती। अपने देश में रहते हुए ही ‘सार्वभौम’ राज्यों को पूंजी के निर्यात और कार्टेल/ ट्रस्ट के मध्यम से लूटा जाना मुमकिन हो जाता है। इससे आगे की अवस्था की विवेचना करते हुए वित्तीय पूंजी की जकड़बंदी को समझाते हुए, लेनिन, अपने उक्त लेख में आगे लिखते हैं। “अगर साम्राज्यवाद की सबसे संक्षिप्त संभावित परिभाषा देनी हो तो वो है कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद की एकाधिकार वाली अवस्था है। इस परिभाषा में शामिल करना होगा जो कि सबसे महत्वपूर्ण है कि एक तरफ कुछ बहुत बड़े एकाधिकारी बैंकों की पूंजी जब एकाधिकारी पूंजीवादी एसोसिएशन की पूंजी से मिल जाती है तो वह वित्तीय पूंजी को जन्म देती है, दूसरी तरफ, ये वित्तीय पूरी दुनिया को आपस में बाँट लेने के लिए पुरानी औपनिवेशिक नीति का नया रूपांतरण है जिसमें सीमाएं कोई रूकावट पैदा नहीं करतीं क्योंकि दुनिया का बंटवारा हो चुका होता है।”
विदित हो कि ऊपर वर्णित परिस्थितियां 105 वर्ष पूर्व की हैं। आज वित्तीय पूंजी का आकार दैत्याकार, मानवद्रोही हो चुका है जो जब चाहें किसी भी वस्तु के समस्त विश्व के उत्पादन और विनिमय को नियंत्रित कर मनमानी क़ीमत वसूल कर सकती है। अपने अधिकतम मुनाफ़े के रास्ते में आने वाली किसी भी प्रतियोगी कंपनी का शिकार मात्र ही नहीं कर सकती है बल्कि देशों की सरकारों को या तो ख़रीदकर या उनकी बांह मरोड़कर घुटने टेकने पर मज़बूर कर सकती है उन्हें अपनी धुन पर नाचने को मज़बूर कर सकती हैं।
‘राज सत्ताएँ एकाधिकारी पूंजी का ख़ूनी शिकंजा तोड़ना चाहती हैं’, ये बात झूट है
जो बाईडेन जी, आप पूंजीवाद की अधूरी, अर्धसत्य व्याख्या समझाकर किसे मूर्ख बना रहे हैं? प्रतियोगिता होती थी तब भी और प्रतियोगिता ना रहे तब भी, पूंजीवाद शोषण का ही दूसरा नाम है। पूंजी का निर्माण ही मज़दूर की श्रम शक्ति की लूट से होता है। आप एकाधिकारी वित्तीय पूंजी को रोकना चाहते हैं, छोटी पूंजी को बचाना चाहते हैं, ये बात भी झूट है। जो मर्ज़ी दिखावा कीजिए, ऐसी ना आपकी इच्छा है और ना आपकी हैसियत क्योंकि आप भले वाइट हाउस नाम के आलीशान महल में रहें, हैं इस पूंजी के ताबेदार ही। पूंजीवाद के विकास की अपनी गति है ये बात आपके सलाहकार नहीं जानते, ये मानने को हम तैयार नहीं। हाँ, एकाधिकारी वित्तीय पूंजी जो तबाही ला रही है, मध्यम वर्ग कंगाल होता जा रहा है, बेरोज़गारी बढ़ती जा रही है और पूंजीवाद की क़ब्र खोदने वाली सर्वहारा-सेना विशाल और अजेय होती जा रही है, आप इस बात से भयभीत हैं। आप जिसके कप्तान हैं, अमेरिकी पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का वो जर्जर जहाज दिनोंदिन डूबता जा रहा है। ये आपकी चिंता का असली कारण है। एक बात और बहुत अहम है उसे भी विश्व सर्वहारा के महान नेता लेनिन ने अच्छी तरह समझाया है। वह है कि ये पूंजी और उत्पादन का चंद हाथों में केन्द्रित होते जाना, उत्पादन का उत्तरोत्तर सामाजिक होते जाना और उसका मालिकाना व्यक्तिगत बने रहना, समाज के अंतर्द्वंद्व को बिस्फोटक स्थिति की ओर ले जाता है और फिर वो तंतु ध्वस्त हो जाता है। इसीलिए लेनिन ने साम्राज्यवाद को समाजवादी क्रांति की पूर्व संध्या कहा है। आप उस क्रांति के भय से भले कांप रहे हों, उसे रोक नहीं पाएँगे। लगता है, बुर्जुआ राज सत्ताओं का थिंक टैंक भी मार्क्सवाद-लेनिनवाद को खूब पढ़ रहा है!!