फासिस्ट चंगुल के दौर में उ.प्र. विधान सभा चुनाव

फासिस्ट चंगुल के दौर में उ.प्र. विधान सभा चुनाव

September 11, 2021 0 By Yatharth
फासिस्ट चंगुल के दौर में उ.प्र. विधान सभा चुनाव ‘नो वोट टू बीजेपी’ काफी नहीं, जन आंदोलनों का उफान जरूरी
एम. असीम

यह एक ऐतिहासिक सीख है कि फासीवाद आता तो जरूर है चुनाव के जरिये और बुर्जुआ संसदीय जनतंत्र के अन्य संस्थाओं-औजारों का प्रयोग करते हुये मगर जब एक बार यह सत्ता प्राप्त कर लेता है तो यह उन सभी संस्थाओं को अंदर से खोखला कर अपने हित में पलट लेता है और उन्हें अपने शासन को सशक्त और दीर्घकालिक बनाने में प्रयोग करता है। अतः इसे बुर्जुआ संसदीय व्यवस्था की उन्हीं संस्थाओं और चुनावों के सहारे ही पराजित नहीं किया जा सकता। उत्तर प्रदेश की मौजूदा स्थिति एक बार फिर इस सीख की सच्चाई को ही साबित करती है। आम तौर पर विपक्षी नेता और बहुत से नेकनीयत पर भलेमानुस लोग यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि राज्य में बीजेपी शासन के बहुत से कुकर्मों और अपराधों के कारण प्रदेश की जनता में जो असंतोष, विक्षोभ एवं गुस्सा पनप रहा है सिर्फ उसके बल पर ही वे अगले विधानसभा चुनावों में इसे सत्ता से बेदखल करने में कामयाब हो जायेंगे। किन्तु हालिया जिला परिषद चुनाव का तजुरबा बताता है कि सिर्फ इतने पर टिकी उम्मीदें कमजोर आधार पर खड़ी हैं।

3 जुलाई को उप्र के जिला परिषद अध्यक्षों के चुनाव नतीजे घोषित हुये तो बीजेपी ने 75 में से 67 जिलों में जीत हासिल की। ये अप्रत्यक्ष चुनाव थे जिनमें मतदाता जिला परिषदों में कुछ समय पहले निर्वाचित हुये सदस्य थे। किन्तु लगभग दो महीने पहले ही हुये जिला परिषद सदस्यों के इन चुनावों में बीजेपी की स्थिति बहुत खराब रही थी क्योंकि इसके कुशासन, कोरोना महामारी के आपराधिक कुप्रबंधन और फिलहाल जारी किसान आंदोलन के प्रभाव से विक्षुब्ध जनता ने बड़े पैमाने पर इसके खिलाफ वोट दिया था। बीजेपी को एक भी जिले में बहुमत हासिल नहीं हुआ था और अधिकांश जिलों में इसके सदस्य अत्यंत अल्पसंख्या में थे, कुछ जिलों में तो 17 में से सिर्फ 2 बीजेपी सदस्य जैसे हालात थे। फिर भी जिला परिषद चुनावों में यह 75 में से 67 अध्यक्ष पद जीतने में कामयाब रही जबकि समाजवादी पार्टी (सपा) को 6, राष्ट्रीय लोकदल को 1 और 1 निर्दलीय को जीत हासिल हुई।

असलियत यह है कि इतनी बड़ी तादाद में बीजेपी की जीत की वजह अपनी सत्ता के बल पर किया गया चुनावी फर्जीवाड़ा, भारी मात्रा में धनबल का इस्तेमाल और इसके अपराधी फासिस्ट गुंडागिरोहों द्वारा द्वारा विपक्षियों को डराना-धमकाना थे। इसने सभी जिलों में विपक्षी उम्मीदवारों को धनबल और अन्य लालच देकर खरीदने या डराने-धमकाने की पूरी कोशिश की ताकि वे अपना नामांकन ही दाखिल न कर पायें। जहां इससे काम नहीं चला वहां उन्हें चुनाव कार्यालयों तक पहुंचने और नामांकन दाखिल करने से शारीरिक रूप से रोका गया। पुलिस व प्रशासन की खुली सक्रिय मिलीभगत या जानबूझकर की गई निष्क्रियता का लाभ उठाकर संघी गुंडों द्वारा विपक्षी उम्मीदवारों और उनके समर्थकों को धमकाया और पीटा गया। यहां तक कि कुछ स्थानों पर विपक्षी महिला उम्मीदवारों, प्रस्तावकों, समर्थकों के साथ यौन दुर्व्यवहार और सार्वजनिक रूप से उनकी साड़ी खींचने-फाड़ने जैसी शर्मनाक आपराधिक हरकतों को अंजाम दिया गया। कुछ स्थानों पर अगर वे विपक्षी नामांकन दाखिल करने से रोकने में कामयाब नहीं हुये तो चुनाव अधिकारी का काम देख रहे जिला अधिकारियों ने कुछ भी तकनीकी खामी निकालकर उनके नामांकन रद्द तक कर दिये।

मुरादाबाद में सपा उम्मीदवार के प्रस्तावक को चुनाव दफ्तर पहुंचने से रोक दिया गया और प्रस्तावक के अभाव में उम्मीदवार अपना पर्चा दाखिल नहीं कर पाईं। मेरठ में सपा उम्मीदवार सलोनी गुर्जर का नामांकन तकनीकी खामियाँ निकाल रद्द कर दिया गया। वाराणसी में खुद उप्र के कैबिनेट मंत्री अनिल राजभर नामांकन पत्रों की जांच पड़ताल में मौजूद थे और यह सुनिश्चित किया कि सिर्फ बीजेपी उम्मीदवार का नामांकन ही स्वीकृत हुआ। मऊ में नामांकन की पूर्व संध्या पर एडीएम ने पुलिस सहित सपा उम्मीदवार के घर जाकर उसे धमकाया। भयभीत सपा उम्मीदवार गायब हो गया और अंतिम दिन की हड़बड़ी में सपा दूसरा वैकल्पिक उम्मीदवार उतारने में नाकाम रही और बीजेपी उम्मीदवार की निर्विरोध जीत हो गई। गाजियाबाद में सपा/रालोद उम्मीदवार के प्रस्तावक को एक होटल में बंद का दिया गया और सपा/रालोद समर्थकों द्वारा उस होटल के बाहर विरोध प्रदर्शन के बावजूद उसे चुनाव दफ्तर नहीं जाने दिया गया। नतीजा यह कि 14 में से 2 ही बीजेपी जिला परिषद सदस्य होने के बावजूद उसका उम्मीदवार निर्विरोध जिला परिषद अध्यक्ष निर्वाचित घोषित हो गया। झांसी में भी इसी तरह सपा उम्मीदवार, प्रस्तावक और समर्थक को नामांकन दाखिल करने से जबर्दस्ती रोक दिया गया। गोरखपुर में तो सपा उम्मीदवार को चुनाव कार्यालय पहुंच नामांकन भरने से रोकने के लिए बीजेपी कार्यकर्ताओं ने जिला अधिकारी कार्यालय का फाटक ही बंद कर दिया और इस पर बीजेपी-सपा समर्थकों के बीच झड़प होने पर पुलिस निष्क्रिय तमाशबीन बनी रही।

इस प्रकार, अंततः 75 में से 17 जिलों में तो बीजेपी के अलावा किसी उम्मीदवार को पर्चा ही दाखिल नहीं करने दिया गया और उसके उम्मीदवार बिना चुनाव ही निर्विरोध विजयी घोषित हो गए। कुछ और जिलों में विपक्षी दलों के प्रथम पसंद के उम्मीदवार या तो खरीद लिए गए या डराने-धमकाने के डर से वे खुद ही पीछे हट गए। अतः अंतिम क्षण पर विपक्षी दलों को जैसे-तैसे कोई भी उम्मीदवार मैदान में उतारने के लिए मजबूर होना पड़ा।

मतदान के वक्त भी ऐसे ही कुत्सित चालबाजियों और बेईमानी का सहारा लिया गया और सदस्य मतदाताओं को खरीद या डरा-धमका कर वोट देने से रोका गया, और, या तो शासक पार्टी के दबाव में या खुद ही आरएसएस-बीजेपी राजनीति से संबद्ध होने के कारण चुनाव अधिकारी का जिम्मा निभा रहे अफसरों ने उन्हें छिछली-थोथी वजहों से वोट देने की अनुमति नहीं दी। लगभग हर जिले में निर्दलीय और यहां तक कि विपक्षी जिला परिषद सदस्यों के वोट भी खरीदे गए। कुछ मामलों में बीजेपी द्वारा खरीदे जाने से इंकार करने पर उन पर कई-कई मामले दर्ज कर लिए गए, यहां तक कि कुछ को गिरफ्तार भी कर लिया गया।

इन सब में एक जिला जो सबसे अलग था वह था बागपत। भाजपा ने इस जिले में चुनाव जीतने के लिए अपनी सत्ता की शक्ति के बल पर सब चालें आजमाईं, राष्ट्रीय लोक दल के जिला परिषद सदस्यों को खरीदने की कोशिश से लेकर रालोद के उम्मीदवार के खिलाफ बहुत गंभीर मामले दर्ज करने तक। अंत में, यहां तक कि चुनाव अधिकारी द्वारा एक नकली दस्तावेज प्रस्तुत किया गया जिसमें दावा किया गया था कि रालोद के उम्मीदवार ने अपना नामांकन वापस ले लिया था। हां, आपने सही पढ़ा – रालोद उम्मीदवार के नामांकन को वापस लेने की कोशिश करने के लिए एक नकली, जाली दस्तावेज का इस्तेमाल किया गया था। उम्मीदवार (जो उस समय राजस्थान में, बागपत से 400 किलोमीटर दूर, थीं) ने तुरंत एक वीडियो जारी किया जिसमें कहा गया कि पर्चा वापसी का दस्तावेज नकली था। कई हजार रालोद समर्थकों की भारी भीड़ जिलाधिकारी कार्यालय पर अनायास उमड़ पड़ी और पीठासीन अधिकारी को यह स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा कि दस्तावेज फर्जी तथा अमान्य था। रालोद उम्मीदवार ने आखिरकार 20 में से 12 वोट पाकर आराम से चुनाव जीत लिया। इसी तरह सीतापुर में भी सीपीआईएमएल (लिबरेशन) जिला परिषद सदस्य पर केस दर्ज किए गए जिसका  जिले में इसी तरह का स्वतःस्फूर्त विरोध हुआ।

पूर्व मुख्यमंत्री और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कई जिलों में भाजपा पर प्रशासन की मदद से बदसलूकी का आरोप लगाते हुए कहा, “आज जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में सत्ताधारी दल ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव का मजाक उड़ाया है। सत्ता का इतना घिनौना चेहरा आपने कभी नहीं देखा होगा। अपनी हार को जीत में बदलने के लिए, भाजपा ने पुलिस और प्रशासन की मदद से मतदाताओं का अपहरण करने, उन्हें मतदान करने से रोकने के लिए बल प्रयोग किया और सदस्यों को उनके पक्ष में वोट देने के लिए मजबूर किया। भाजपा की धांधली के खिलाफ आवाज उठाने पर समाजवादी कार्यकर्ताओं के साथ मारपीट की गई। अजीब बात है कि जिला पंचायत सदस्यों के चुनाव में जहां ज्यादातर नतीजे समाजवादी पार्टी के पक्ष में आए और भाजपा को हार का सामना करना पड़ा, वहीं अब सत्ता के बल पर धांधली कर जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में भाजपा बहुमत में आ गई है। प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत भी सामने आई है।“ सपा प्रमुख ने यह भी आरोप लगाया कि राज्य चुनाव आयुक्त, पंचायती राज को ज्ञापन देने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की गई, “सत्तारूढ़ दल की तानाशाही उत्तर प्रदेश में जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में दिखाई दे रही है। समाजवादी पार्टी समर्थक पंचायत सदस्य अरुण रावत का राज्य की राजधानी लखनऊ में अपहरण कर लिया गया। समाजवादी पार्टी की अध्यक्ष पद की उम्मीदवार विजय लक्ष्मी को डीएम के कार्यालय में बैठाया गया और उनके पति विधायक अंबरीश पुष्कर को भी उनसे मिलने से रोका गया। विरोध करने पर समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं और महिलाओं के साथ मारपीट की गई। प्रयागराज के जिला पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव में भाजपा के लोगों ने मतदान केंद्र पर इलेक्ट्रॉनिक उपकरण लगाकर मतदान की गोपनीयता का उल्लंघन किया। जिला फिरोजाबाद में कोर्ट के आदेश के बावजूद 6 वोटरों को रोका गया।“

हमें यह सब कुछ ही महीनों में 2022 की शुरुआत में होने वाले उप्र विधानसभा चुनावों के संदर्भ में देखना चाहिए। कोई भी बहुत अच्छी तरह से कल्पना कर सकता है कि भाजपा और चुनाव आयोग कैसे इन चुनावों का संचालन करने जा रहे हैं क्योंकि वे बढ़ते असंतोष और यूपी में अजय सिंह बिष्ट उर्फ ​​योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली आपराधिक और फासीवादी सरकार के खिलाफ गुस्सा दोनों से अच्छी तरह वाकिफ हैं। इन जिला परिषद चुनावों के अलावा, हमने यह भी देखा है कि कोविड महामारी के क्रूर कुप्रबंधन, बढ़ती बेरोजगारी और मूल्य वृद्धि के कारण आम लोगों के जीवन में भारी दर्द, महिलाओं के खिलाफ बड़ी संख्या में अपराध, विशेष रूप से दलितों, आदि उत्पीड़ित समुदायों के लोगों के खिलाफ बढ़ते अपराध, राज्य द्वारा अपराधियों को संरक्षण, उदाहरण के लिए हाथरस में, अल्पसंख्यकों और समाज के अन्य कमजोर वर्गों की फर्जी मुठभेड़ों, किसानों की पीड़ा, आदि के कारण लोगों में असंतोष बहुत बढ़ गया है।

और जैसे ही चुनाव करीब आ गए हैं आरएसएस व भाजपा ने एक बार फिर से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के अपने जहरीले अभियान को तेज कर दिया है। हाल के महीनों में राज्य के विभिन्न हिस्सों में बीफ, धर्मांतरण और ‘लव जिहाद’ के नाम पर अल्पसंख्यकों पर हमले और लिंचिंग की घटनाएं हुई हैं। इस तरह के हमलों के बारे में विभिन्न रिपोर्टों से यह देखा जा सकता है कि संघ के फासीवादी गिरोह एक समानांतर राज्य बन गए हैं जो औपचारिक बुर्जुआ राज्य के साथ मिलकर काम करते है और इन जघन्य अपराधों को अंजाम देते और गुंडागर्दी करते हैं। उदाहरण के लिए, हिंदुत्व फासीवादी समूहों ने कई वर्षों तक अंतर्धार्मिक विवाह संबंधों को विफल करने के लिए गैर-कानूनी रूप से काम किया है, एक निराधार मुस्लिम विरोधी साजिश की अफवाह को फैलाकर जिसे वे “लव जिहाद” कहते हैं कि मुस्लिम पुरुष हिंदू महिलाओं को इस्लाम में धर्म परिवर्तित करने के लिए उनका पीछा करते हैं ताकि अंततः भारत से हिंदू बहुमत को खत्म कर सकें। पर अब तो ये गिरोह राज्य मशीनरी की पूरी मिलीभगत से और उसके संरक्षण में ही काम करते हैं। स्थिति इतनी गम्भीर है कि 4 जुलाई को गाजियाबाद के पास मुरादनगर में एक 22 वर्षीय युवक की इस शक में हत्या कर दी गई कि वह मांसाहारी भोजन कर रहा है।

नवंबर में, उत्तर प्रदेश बीजेपी सरकार ने गैरकानूनी धर्मांतरण अध्यादेश, 2020 को लागू करना शुरू किया, एक ऐसा कानून जो बल, धोखाधड़ी या विवाह द्वारा धार्मिक रूपांतरणों को प्रतिबंधित करता है। हालांकि कानून स्पष्ट रूप से हिंदू महिलाओं और मुस्लिम पुरुषों के बीच विवाह पर प्रतिबंध नहीं लगाता है, राज्य में हिंदुत्व निगरानी गिरोहों ने पुलिस के सहयोग से “लव जिहाद” जांच का नेतृत्व करने के लिए इसका इस्तेमाल किया है, जो अक्सर हिंसा और हेर-फेर का उपयोग करते हुए, भारत को एक हिंदू वर्चस्ववादी राष्ट्र के रूप में स्थापित करने के अंतिम लक्ष्य के साथ होता है। मोदी सरकार के आधिकारिक बयानों के बावजूद कि ऐसा कोई अपराध कानूनी रूप से मौजूद नहीं है, चौकसी रखने वाले और गुंडे गिरोह “लव जिहाद” के कथित मामलों को आगे बढ़ाते हैं।

ये चौकसी गिरोह और विहिप नेता आमतौर पर स्थानीय मुखबिरों या विवाह रजिस्ट्रार कार्यालयों के माध्यम से किसी अंतर-धार्मिक संबंध के बारे में पता लगाते हैं और फिर पुलिस को फोन करके ‘भागे हुए’ जोड़ों की मोबाइल फोन निगरानी और उनके ठिकाने की जानकारी का आदान-प्रदान करते हैं। ऐसी किसी महिला के मिल जाने के बाद, हिंदू कट्टरपंथी अक्सर उसे अपने मुस्लिम साथी को छोड़ने के लिए मनाने के लिए “परामर्श” देते हैं। अगर वह मना करती है, तो वे अक्सर उसके माता-पिता से भावनात्मक ब्लैकमेल का सहारा लेते हैं, या उसे और उसके साथी को हिंसा की धमकी देते हैं। कुछ मामलों में, कट्टरपंथी महिला के लिए एक हिंदू पुरुष से शादी करने की ‘व्यवस्था’ करते हैं, जो दक्षिणपंथी समूहों से भी जुड़ा हो सकता है। “लव जिहाद” पर हिंदुत्व दक्षिणपंथ की राज्य-स्वीकृत कार्रवाई इसके पीड़ितों के लिए विनाशकारी रही है, जिनके पास एक ऐसे कानून के तहत बहुत कम सहारा है जो भारतीय समाज में पहले से मौजूद बहिर्विवाह संबंधी सामाजिक वर्जनाओं को और भी मजबूत करता है और स्त्रियों से अपने जीवन के बारे में फैसला लेने के सारे अधिकार छीन उन्हें स्वतंत्र नागरिक के बजाय पितृसत्ता का गुलाम बना देता है।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में “लव जिहाद” के मुद्दे के लंबे समय से प्रचारक योगी आदित्यनाथ के 2017 के चुनाव ने मुसलमानों को, जो भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य का लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा हैं, निशाना बनाने के लिए हिंदुत्व के फासीवादी गुंडों गिरोहों को निरंतर प्रोत्साहित किया है, जिसके बहानों में कथित तौर पर गायों का वध करना भी शामिल है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राज्य के धर्मांतरण विरोधी कानून के लागू होने से एक महीने पहले कहा, “मैं उन लोगों को चेतावनी देता हूं जो पहचान छुपाते हैं और हमारी बहनों के सम्मान के साथ खिलवाड़ करते हैं।” “यदि आप अपने तरीके नहीं सुधारते हैं, तो आपकी ‘राम नाम सत्य’ यात्रा शुरू हो जाएगी” – हिंदू अंतिम संस्कार के जुलूस के दौरान मौत की धमकी देने वाले एक मंत्र का आह्वान करते हुए यह और कुछ नहीं बल्कि फासीवादी गिरोहों के लिए अपने जघन्य और जानलेवा अपराधों में शामिल होने का संकेत था।

दक्षिणपंथी समूह के पास पूरे राज्य के शहरों और गांवों में मुखबिरों का एक विशाल नेटवर्क है: स्कूल, कॉलेज, बस, कॉफी शॉप, जिम, होटल, सिनेमा हॉल, कोर्ट और स्कूल के बाद के कोचिंग सेंटर, जैसी जगहों में। छोटे शहरों और भीतरी इलाकों में, जहां विहिप और बजरंग दल का काफी प्रभाव है, कुछ हिंदू अपने परिवारों की महिलाओं तक के बारे में उनके खबरची का काम करते हैं। यहां तक ​​कि कुछ विवाह पंजीकरण अधिकारी भी अंतरधार्मिक विवाह करने वाली महिला के माता-पिता और इन हिन्दू संगठनों को सूचित करते हैं।

बेतवा शर्मा और अहमर खान की एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘हरदोई जिले में, हमने बजरंग दल के नेता पवन रस्तोगी, एक 34 वर्षीय पिता और व्यवसायी के साथ बात की, क्योंकि उन्होंने एक हिंदू नाबालिग से जुड़े मामले में पुलिस अधिकारियों के साथ काम किया था। “विहिप और बजरंग दल के कार्यकर्ता जो काम अपने दम पर करते थे, उसे अब पुलिस का पूरा समर्थन है।” रस्तोगी ने कहा कि वह शाहाबाद थाने के निरीक्षक के साथ समन्वय कर रहे हैं, जहां परिवार ने शिकायत दर्ज की थी। उन्होंने बजरंग दल के कार्यकर्ताओं की दो टीमों को भेजा: एक पुलिस से मिली निगरानी जानकारी के आधार पर जोड़े का पीछा करने के लिए, और दूसरा मुस्लिम व्यक्ति के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए। “सभी सूचनाओं का आदान-प्रदान किया जाता है। हम अपना सारा काम जनता की मदद से करते हैं, ”सब-इंस्पेक्टर राम सुखारी सिंह ने कहा, जब रस्तोगी थाने के अंदर उनके बगल में खड़ा था।’

इसी तरह का निरंकुश व्यवहार हाल ही में कोविड की दूसरी लहर के दौरान अपने पूर्ण उफान पर था जब परीक्षण, अस्पतालों, दवाओं या ऑक्सीजन के रूप में दर्द से पीड़ित लोगों को चिकित्सा और अन्य आवश्यक मानवीय सहायता प्रदान करने के बजाय, जब सांस के बिना हांफते लोगों के लिए कुछ भी उपलब्ध नहीं था, यह फासीवादी सरकार सार्वजनिक रूप से शिकायत करने वालों पर राज्य की पूरी क्रूरता के साथ शिकंजा कसने में लगी थी। पुलिस द्वारा ऑक्सीजन मांगने वालों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई और ऑक्सीजन की कमी को सार्वजनिक करने वाले अस्पतालों को कानून की सबसे गंभीर धाराओं के तहत लाइसेंस रद्द करने और आपराधिक मामलों की धमकी दी गई। लेकिन अंततः इनमें से कोई भी धमकी मानवता के खिलाफ फासिस्ट शासन के अपराधों को छिपा नहीं सकी क्योंकि मृत शरीर खुद बड़ी संख्या में ‘पवित्र’ नदियों में तैरने लगे और उनके जुर्मों के गवाह बन गए।

इस फासीवादी राज्य के खिलाफ विपक्ष के रूप में उप्र में क्या है? कांग्रेस, सपा और बसपा, जिनमें से किसी का भी भाजपा-आरएसएस का सख्त विरोध करने का कोई खास रुझान या झुकाव नहीं है, क्योंकि वे स्वयं उन्हीं पूंजीवादी और मजदूर विरोधी नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ नहीं हैं और उनके नेता अपनी भूमिका से पूरी तरह से समझौता कर रहे हैं। राज्य में अपने पहले के शासन के दौरान जनता के धन और संसाधनों की लूट की कई योजनाओं की वजह से मायावती के नेतृत्व वाली बसपा भ्रष्टाचार के मामलों में राज्य पुलिस एजेंसियों द्वारा जांच के दबाव में विशेष रूप से अत्यधिक समझौता करती है और उसने सांकेतिक विरोध तक करना भी बंद कर दिया है, हालांकि यह दलित ही हैं जिनके चैंपियन होने का वह दावा करती हैं, जिन्होंने भाजपा शासन में बहुत उत्पीड़न झेला है। बसपा ने न तो अपने दम पर जिला परिषद का चुनाव लड़ा और न ही विपक्षी उम्मीदवारों का समर्थन किया। नतीजतन, बसपा के जिला परिषद सदस्यों ने ज्यादातर अपने वोट भाजपा को बेच दिए। जहां तक ​​उत्तर प्रदेश की मुख्य वामपंथी पार्टियों का सवाल है, तो पिछले 3-4 दशकों में उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के नाम पर एक या दूसरे बुर्जुआ संसदीय दलों, ज्यादातर सपा के खेमे के अनुयायी होने तक और साल में एक-दो अनुष्ठानिक विरोध तक खुद को सीमित कर लिया है। इस प्रकार उन्होने राज्य के उत्पीड़ित मेहनतकश लोगों को पूरी तरह से निशस्त्र कर दिया है। उपर्युक्त जिला पंचायत चुनावों में भी बागपत में भाजपा की साजिशों की सबसे अधिक सक्रिय प्रतिक्रिया देखी गई तो उसकी ऊर्जा किसानों के आंदोलन के प्रभाव से उत्पन्न हुई

क्योंकि किसानों ने रालोद का समर्थन किया। हालांकि इनमें से बहुतेरे किसान पिछले कई चुनावों से बीजेपी-आरएसएस का समर्थन करते रहे हैं, लेकिन नए कृषि कानूनों के मुद्दे पर बीजेपी के साथ उनके थोडी सी टूटन ने बीजेपी की चालबाजी के खिलाफ कुछ हद तक ऊर्जावान प्रतिक्रिया दी है।

इस बीच कुछ वामपंथी जनवादी समूह मिलकर बंगाल की तरह ही उप्र में भी ‘नो वोट टु बीजेपी’ जैसा एक अभियान संगठित करने का प्रयास कर रहे हैं जिसके लिए चर्चायें फिलहाल जारी है। देखना होगा कि इसका वास्तविक स्वरूप क्या होगा – क्या यह मात्र ‘सांप्रदायिक-फासिस्ट बीजेपी को वोट मत दो’ तक के चुनावी कार्यक्रम तक ही सीमित रहेगा या चुनाव में बीजेपी को हराने के अभियान के साथ ही साथ इसके जरिये उप्र की मेहनतकश और निम्न्मध्यवर्गीय जनता को उनके आर्थिक व जनवादी अधिकारों के सवालों को लेकर एक संयुक्त जनआंदोलन में जुटाने का प्रयास भी सम्मिलित होगा। यद्यपि यह सही है कि फासिस्ट सत्ता व राजनीति के विरुद्ध चुनावी-संसदीय संघर्ष के दायरे का पूरा और हरमुमकिन इस्तेमाल करना जरूरी है और भाजपा की चुनावी हार की संभावना को पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए, पर देश और खास तौर पर फासिस्ट राजनीति की सबसे बड़ी प्रयोगशाला बने उप्र में यह काम भी केवल बुर्जुआ संसदीय दलों की सामान्य चुनावी राजनीति तक सीमित रहने के आधार पर पूरा नहीं किया जा सकता। भाजपा-आरएसएस की इस तरह की चुनावी हार की संभावना भी उनकी पूंजीवादी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और फासीवादी राजनीति के विरुद्ध मेहनतकश-वंचित जनता की आर्थिक मांगों और जनवादी अधिकारों के लिए व्यापक एकता के आधार पर संगठित निरंतर जन प्रतिरोध के आधार पर ही कई गुना बढ़ सकती है। ऐसे किसी भी प्रतिरोध की बुनियादी शक्ति भी मजदूर वर्ग को ही बनाना होगा। सिर्फ इस तरह का जन आंदोलन ही उस गति और ऊर्जा को पैदा कर सकता है जो फासीवादी गिरोहों के साथ-साथ राज्य की नौकरशाही की चालबाजियों-तिकड़मों का विरोध और मुकाबला कर सकेगा, और जो न केवल सड़कों पर बल्कि चुनावी क्षेत्र में भी उनके भयावह मंसूबों को शिकस्त देगा। इस तरह के जन प्रतिरोध का निर्माण ही मौजूदा समय की सबसे बड़ी मांग है और सभी फासीवाद विरोधी ताकतों विशेषकर मजदूर वर्ग संगठनों की प्राथमिक व सर्वोच्च जिम्मेदारी है