कृषि मालों पर इजारेदार पूंजी के आधिपत्य का अर्थ, इजारेदाराना कीमतों के सीमित संदर्भ में
May 23, 2021पहले कड़कड़ाती सर्दी, जानलेवा गर्मी, और अब आंधी, तूफान तथा बारिश के कहर को झेलते कॉरपोरेट के विरुद्ध संघर्षरत किसानों के हौसले को सलाम! गजब के धैर्य और शक्ति का परिचय दिया है किसानों ने!
एक बात यहां दुहराना जरूरी है कि किसानों का यह संघर्ष जिस हद तक कार्पोरेट की कृषि में निर्णायक चढ़ाई और उसकी स्थापित होने वाली इजारेदारी के विरुद्ध है उस हद तक यह लड़ाई मजदूर वर्ग सहित पूंजी से पीड़ित अन्य सभी वर्गों की लड़ाई भी है। इस अर्थ में यह किसान आंदोलन एक जनांदोलन है और इसमें देश की व्यापक जनता के हित समाहित हैं।
भारतीय कृषि में नए कृषि कानूनों के माध्यम से इजारेदार वित्तीय पूंजीपतियों यानी बड़ी पूंजी व कारपोरेट की निर्णायक जीत के बाद खाद्यान्नों के व्यापार में इजारेदारी कायम होगी। इसी के साथ खाद्यान्नों सहित तमाम तरह के कृषि मालों की इजारेदाराना कीमतें जनता पर थोपी जाएंगी। कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव के बावजूद अंततः खाद्यान्नों के बाजार दाम आज के मुकाबले और ऊंचे होंगे। इनके कम होने की उम्मीद का आज के एकाधिकारी पूंजीवाद के युग में कोई आधार नहीं है।
मार्क्स कहते हैं कि अगर इजारेदाराना कीमतों का प्रवेश मजदूर वर्ग की जरूरी खपत में शामिल वस्तुओं (वेज गुड्स) में भी होता है, तो इससे मजदूरी में वृद्धि होगी। इसलिए अगर यह मान लिया जाए कि मजदूर वर्ग को पहले की तरह ही अपनी श्रमशक्ति का मूल्य प्राप्त हो रहा है तो इसका अर्थ यह होगा कि कि बेशी मूल्य की मात्रा पहले से कम होगी, यानी जिससे पूंजीपति वर्ग का मुनाफा बनता है उसकी मात्रा में कमी आएगी। इसलिए यह माना जाता है कि वेज गुड्स में इजारेदारी कीमतें स्वयं पूंजीपति वर्ग के खिलाफ हैं और इसीलिए यह भी मान लिया जाता है कि पूंजीपति वर्ग आम तौर पर खाद्यान्नों के मामले में इजारेदारी कीमतें लागू नहीं करता है।
अगर हम इजारेदाराना कीमतों की वसूली कैसे की जाती है इस पर विचार करें तो हम पाते हैं कि मार्क्स के अनुसार कुछ मालों की इजारेदाराना कीमतों का अर्थ दूसरे माल उत्पादकों यानी दूसरे पूंजीपतियों के मुनाफे के एक हिस्से का इजारेदाराना कीमतों वाले मालों के स्वामी पूंजीपतियों की जेब में स्थानांतरण भर है, क्योंकि बेशी मूल्य की सीमाओं का अतिक्रमण कोई भी इजारेदाराना कीमत नहीं कर सकती है। इसका अर्थ यह है कि अगर इजारेदाराना कीमत थोपी जाएगी, तो यह अन्य पूंजीपतियों की जेब पर भी डाका होगा, क्योंकि अगर पूंजीपतियों को मजदूरों से काम लेना है तो उसकी मजदूरी को उसकी भौतिक रूप से न्यूनतम सीमा के नीचे नहीं गिराया जा सकता है। इससे यह अर्थ निकाला जा सकता है कि इसीलिए खाद्यान्नों आदि सहित अन्य वेज गुड्स आदि पर इजारेदाराना कीमत कायम करना कोई पूंजीपति नहीं चाहेगा। किसी एक पूंजीपति को या फिर पूंजीपतियों के गुट को, जो ऐसा करना चाहेगा भी, तो उसे पूरे पूंजीपति वर्ग के हितों का ध्यान रखते हुए ऐसा करने से पीछे हटना पड़ेगा। यानी, इजारेदाराना कीमतें लादी नहीं जाएंगी। लेकिन याद रखना चाहिए कि मार्क्स ऐसा कोई निष्कर्ष नहीं निकालते हैं, बल्कि इसके विपरीत वे यह कहते हैं कि ‘इस प्रसंग में एकाधिकारी दाम वास्तविक मजदूरी से और दूसरे पूंजीपतियो के लाभ से कटौती से अदा किया जाएगा।’
लेकिन हम जानते हैं, एक खास संदर्भ में जो बात सही है उसे अलग संदर्भ में हू-बहू प्रतिस्थापित करके अक्सर गलत निष्कर्ष निकाला जाता है। मार्क्स की इस संबंध में कही गई उपरोक्त सही बात से भी कुछ लोग इसी तरह यह गलत निष्कर्ष निकालते हैं ‘क्योकि खाद्यानों में इजारेदाराना कीमतें अन्य पूंजीपतियों की जेब पर भी डाका होगा, इसलिए कृषि मालों के मामले में इजारेदाराना कीमतें लागू ही नहीं होगीं। फिर इसी ‘गलत निष्कर्ष’ के आधार पर ही भारत के बारे में बात करते हुए कुछ लोग यह मान बैठते हैं कि अडानी व अंबानी की पूरे भारतीय कृषि पर कब्जा करने की मुहिम के पीछे का मकसद इजारेदाराना कीमत लादना नहीं अपितु एमएसपी के कारण खाद्यानों की ऊंची कीमतों को नीचे लाना है तथा पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग की जेब पर जो डाका जा रहा है उसे रोकना है। या, यह कहें कि अगर कृषि कानून लागू होंगे तो इसका यही परिणाम होगा।
जाहिर है एकमात्र इस दृष्टि से देखें, तो किसान आंदोलन जनविरोधी दिखता है और कॉर्पोरेट बड़ी इजारेदार पूंजी (तमाम छोटी-मंझोली पूंजियों सहित) जनता का मित्र। जाहिर है, यह गलत निष्कर्ष है।
वास्तविकता क्या है? वास्तविकता यह है कि इजारेदार पूंजी अगर सचमुच ऐसी होती, यानी सारी पूंजियों का ख्याल रखने वाली होती, तो वह भला इजारेदार क्यों होती, एकाधिकारी क्यों कहलाती! ठीक वैसे ही जैसे अगर पूंजीवाद में बेशी पूंजी का उपयोग यानी उत्पादन और पूंजी के संकेंद्रण में हुई अपार वृद्धि का उपयोग जनता के हित के लिए होता न कि इजारेदारी कायम करने के लिए, तो स्वयं पूंजीवाद पूंजीवाद नहीं होता। अगर इजारेदार पूंजी ऐसी होती कि वह सारे पूंजीपतियों के हितों का ख्याल रखती, तो फिर भला लेनिन को इस पर अलग से थीसिस क्यों लिखना पड़ता, यानी एकाधिकारी पूंजीवाद तथा साम्राज्यवाद को पूंजीवाद की एक सर्वथा अलग विकसित अवस्था के रूप में चित्रित क्यों करना पड़ता?
लेकिन चलिए स्वयं मार्क्स पर ही विचार कीजिए। वे जिस समय इजारेदारी कीमतों पर लिख रहे होते हैं, तो वह समय इजारेदारी पूंजी का नहीं था। फिर भी वे यह तो लिखते हैं कि इजारेदाराना कीमत मजदूर वर्ग की वास्तविक मजदूरी और साथ ही दूसरे पूंजीपतियों के मुनाफे में से कटौती करके अदा की जाएगी, लेकिन वे यह नहीं लिखते हैं कि ऐसा किया ही नहीं जा सकता है, जबकि उस समय तक इजारेदार पूंजीवाद का विकास नहीं हो सका था। जाहिर है एकाधिकारी पूंजीवाद के विकास के बाद ऐसा कहना और भी संभव नहीं रह गया।
हमें पता है, हम न सिर्फ इजारेदार पूंजी के युग में जी रहे हैं, अपितु जिस समय इसका जन्म हुआ था उससे सवा सौ साल बाद के समय में हम जी रहे हैं। लेनिन के समय में एकाधिकारी पूंजी संक्रमणकालीन चीज थी जो आज पूरी तरह विकसित होकर परिपक्व अवस्था में जा पहुंची है। स्वयं भारत में वित्त पूंजी का बड़े पैमाने पर विकास हो चुका है। इतना ही नहीं, वह अर्थव्यवस्था का नियामक तथा नियंता भी बन चुका है। वैसी स्थिति में यह मानना पूरी तरह गलत है कि इजारेदार पूंजी तमाम दूसरे सारी पूंजियों का ख्याल रखेगी। इजारेदार पूंजी के चरित्र को देखते हुए हमारे लिए यह बात समझ से परे है। यह बात दरअसल इजारेदार पूंजी को उसकी मरणासन्न पूंजी से छवि से एक पूरी तरह अलग छवि, कुल मिलाकर गैर-इजारेदार पूंजी की प्रगतिशील छवि बनाती है, जो न सिर्फ लेनिन के विचारों से पूरी तरह भिन्न है, बल्कि उनके खिलाफ है।
इसलिए अगर लेनिन की इजारेदार पूंजी के चरित्र के बारे में की व्याख्या को हम सही मानते हैं तो हमें यह भी मानना पड़ेगा कि अगर कृषि क्षेत्र पर आज इजारेदार पूंजी अपना वर्चस्व कायम करती है, तो वह निश्चय ही इजारेदाराना कीमत भी वसूलेगी, भले ही इसका अर्थ अन्य दूसरे पूंजीपतियों की जेब पर डाका डालने के समान हो। इसी के साथ, जैसा कि मार्क्स कहते हैं, मज़दूर वर्ग की वास्तविक मज़दूरी में और भी ज्यादा गिरावट आएगी। मज़दूर-मेहनतकश वर्गों की माली हालत आज के मुकाबले और भी ज्यादा खराब होगी। उसके खाने के लाले पड़ जाएंगे और वह बस किसी तरह जिंदा रह पाएगा।
दूसरी तरफ, यह इजारेदार पूंजी उत्पादक किसानों, खास तौर पर छोटे-मध्यम किसानों को कम से कम दाम पर अपने उत्पादों को बेचने के लिए विवश कर उन्हें दिवालिया कर देगी और अंततः किसानों की व्यापक आबादी को अपनी जमीन से भी हाथ धोना पड़ेगा। उनकी जमीनें कॉर्पोरेट कंपनियों के कब्जे में चली जाएंगी।
जहां तक इजरेदाराना कीमतों की ज्यादा से ज्यादा वसूली का सवाल है (अधिकतम मुनाफे के निमित्त), तो स्पष्ट है कि इसके लिए पूंजीपति वर्ग के गैर-इजारेदार हिस्से के मुनाफे के ही ज्यादा से ज्यादा हिस्से पर इजारेदार पूंजीपतियों द्वारा हाथ साफ करके किया जाएगा। यही नहीं, अन्य सेक्टरों में भी इजारेदार पूंजी इसी तरह अन्य पूंजियों को अपने अधीन आने या फिर कच्चे मालों के बाजार तथा अन्य क्षेत्रों से बाहर धकेलती है। वित्तीय पूंजी के एकाधिकार व इजारेदारी का यही तो मतलब है, खासकर तब जब संकट टला नहीं हो और मुनाफा कमाना अब हर तरह से इजारेदारी (जिसमें वित्तीय इजारेदारी प्रमुख है) कायम करने के अतिरिक्त किसी और तरीके से संभव ही न हो, जैसा कि आज कल दिखाई दे रहा है। आज पूंजी के इजारेदारी चरित्र का अर्थ एकमात्र यही हो सकता है जो लेनिन के समय की तुलना में और भी ज्यादा प्रबलता तथा मुखरता से काम कर रहा है – यानी निरंतर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए “बलपूर्वक” यत्न करना, सभी तरह के तिकड़मों को अंजाम देना (जिसमें प्रतिस्पर्धियों को बाजार से बाहर धकेलने के लिए कुछ समय के लिए दाम कम करना भी शामिल है), इजरेदाराना कीमतों की वसूली के लिए मज़दूर वर्ग की मजदूरी को उसके भौतिक रुप से न्यूनतम सीमा तक गिराना और साथ में पूंजीपति वर्ग के एक बड़े हिस्से के मुनाफे को तथा स्वयं उन पूंजीपतियों को भी अपने अधीन करने के लिए तमाम तरह के छल-कपट, तिकड़म और “राज्य” के साथ अपने खुले व गुप्त संबंधों का इस्तेमाल करना, इस तरह पूरे समाज पर अपना आधिपत्य करना और जनवाद व जनतंत्र का गला घोंट देना। आज हम अपने चारो तरफ ये सब होते देख रहे हैं और इससे आंख नहीं मूंद सकते हैं।
हम यह भी देख सकते हैं कि किस तरह न सिर्फ कृषि मालों के, अपितु कृषि उत्पादन के ही वित्तीयकरण की प्रक्रिया तेज हुई है। इस अतिप्रतिक्रियावादी दौर के उदय के पीछे इसका सबसे बड़ा हाथ है। भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में, कृषि में ही नहीं सभी उत्पादन सेक्टरों में विस्तारित उत्पादन बाधित और सीमित है। चिरस्थायी बने संकट ने विस्तारित उत्पादन कर के यानी ‘स्वस्थ’ पूंजी संचय के जरिए मुनाफे के अवसरों में भारी कमी पैदा की है। ऐसे में इजारेदार वित्तीय पूंजी के पास अपने चरित्र के अनुसार अधिकतम मुनाफे को सिक्योर करने हेतु चौतरफा वित्तीयकरण की ओर बढ़ने के अलावे और कोई चारा या उपाय भी कहां है? आज पूरी दुनिया के साथ-साथ भारत में भी (मोदी के केंद्र में राजकीय उत्थान के साथ-साथ और क्यों कांग्रेस का सत्ता से बाहर किया गया इसके व अन्य जुड़ी चीजों के कारणों को हम जानते हैं) वित्तीयकरण की यह प्रक्रिया द्रुत गति से तेज हुई है जिसे हम अडानी व अम्बानी की पूंजी में हुई अप्रत्याशित वृद्धि के रुप में भी देख सकते हैं। वित्तीयकरण की प्रवृत्ति की बढ़त के इस सबसे बुरे दौर में, जब कृषि में उपज की बिक्री का संकट लगातार बना हुआ है और पूंजीवाद का चौतरफा आम संकट भी पूरे शबाब पर है, और इसलिए विस्तारित उत्पादन के जरिये मुनाफा कमाने के अवसर में भारी संकुचन हुआ है जो संकट की दीर्घजीविता के कारण और बढ़ेगा, उस दौर में कृषि क्षेत्र में वित्तीयकरण की प्रवृत्ति की ओर जोर-शोर से मुड़ने के अलावा इजारेदार पूंजी के पास और कोई रास्ता कहां बचा है?
जाहिर है, कॉर्पोरेट यानी एकाधिकारी पूंजी की कृषि क्षेत्र में आज कोई प्रगतिशील या विकासपरक भूमिका नहीं हो सकती है। पूंजीवादी कृषि के दूसरे चरण की शुरुआत एकमात्र इसी तरह यानी बड़ी एकाधिकारी पूंजी की वित्तीयकरण की इन्हीं प्रवृत्तियों से ओतप्रोत आदमखोर वित्तीय पूंजी की बढ़त वाली व्यवस्था को आगे बढ़ाकर ही हो सकती है, इसलिए कृषि क्षेत्र में एकाधिकारी बड़ी पूंजी अथवा दूसरे शब्दों में कॉर्पोरेट की निर्णायक जीत का एक ही अर्थ है – गरीब व मध्यम किसानों सहित मज़दूर वर्ग और साथ में छोटी व मंझोली पूंजियों का भी सर्वनाश।
छोटी-मंझोली पूंजियों का पूंजीवाद के अंतर्गत नाश की घटना कोई नई बात नहीं है, लेकिन आज यह जितने बड़े पैमाने पर, जितने बड़े दायरे में और जितनी तेज गति से यह हो रहा है उसके कारण पूंजीवाद की खोल में एक विस्फोट की स्थिति पैदा हो गई है जो (अगर भारत के संदर्भ में बात करें तो) गहराई और क्षैतिज विस्तार में अभूतपूर्व स्थिति की ओर बढ़ रही है। पूंजीवाद के खोल के अंदर पूर्णता की ओर बढ़ चले सामाजीकरण का इसके बाह्य आवरण (निजी हस्तगतकरण) के साथ अंतर्विरोध इतना तीखा हो चला है कि कभी भी यह विस्फोट एक वास्तविक सच्चाई का रूप ले सकता है। यह स्थिति साफ-साफ बता रही है कि बीच का कोई रास्ता नहीं बचा है।
इसमें सवाल छोटी पूंजियों को बचाने का नहीं है, क्योंकि इसे बचाया ही नहीं जा सकता है। मुख्य सवाल यह है कि आज की स्थिति जिस विस्फोटक परिणाम की ओर बढ़ रही है उसको देखते हुए मजदूर वर्ग की मुक्ति का रास्ता क्या हो सकता है? हमारी नजर में, यह रास्ता सर्वहारा क्रांति के अतिरिक्त और कोई दूसरा रास्ता नहीं हो सकता है। समाज के पुनर्गठन और समाजवाद की पूर्ण विजय के लक्ष्य को सामने रखते हुए ही आगे के रास्तों का क्रांतिकारी तरीके से अनुसरण किया जा सकता है। इसलिए जहां संघर्षरत तबकों (किसानों सहित) को यह बात बतानी जरूरी है, वहीं उनके निर्धनतम हिस्से को इस रास्ते पर ले आना जरूरी है, और इसलिये खास किसान आंदोलन की बात करें, तो इस दिशा से उनके बीच हस्तक्षेप अत्यावश्यक है। अन्य छोटी व मंझोली पूंजियों के साथ भी यही बात है। उन्हें भी खुलकर सर्वहारा वर्ग की अधीनता में आने की बात बतानी होगी। उन्हें यह बताना होगा कि एकमात्र तभी उनके जीवन का सार बचेगा और जहां तक उनकी वर्तमान उत्पादन पद्धति का सवाल है उसका सर्वहारा वर्ग का राज्य निश्चित ही अंत कर देगा, क्योंकि उसके अंत में ही मानवजाति के सार को बचाने का मूलमंत्र छिपा है। पूंजीवादी उत्पादन संबंध के नाश में उन सबका बचाव है जिसमें बड़ी पूंजी की मार से तबाह होते सारे तबके व संस्तर भी शामिल हैं। अन्यथा, न सिर्फ यह बात है कि उनका अस्त्तिव नहीं बचेगा, अपितु यह बात भी निर्विवाद रूप से सही है कि पूंजीवाद में उनके जीवन का कोई सार भी नहीं रह जाएगा।
लेनिन के समय से लगभग सौल बाद हम क्या देख पा रहे हैं? यही कि बड़ी एकाधिकारी वित्तीय पूंजियों के बीच की प्रतिस्पर्धा के रूप में ही मूल रूप से पूंजियों की आम प्रतिस्पर्धा का मैदान बचा रह गया हो, और बहुत पहले ही बहुत हद तक छोटी-मंझोली पूंजियों को वित्तीय पूंजी के मैनीपुलेशन और मैनुवरिंग के जरिए बाजार की प्रतिस्पर्धा से बाहर धकेल दिया गया है। इसलिए यह संभव है कि मांग घटने के बाद भी दाम न गिरे जैसा कि आज कल हो रहा है। आंकड़ों की ही बात नहीं, जमीनी सच्चाई की भी बात करें, तो यह सब साफ-साफ देखा जा सकता है। भारत में यह प्रवृत्ति हमें नयी सदी के पहले दशक के पूर्वार्ध में दिखती है, क्योंकि तब से ही यह देखा जा रहा है कि खाद्याान्नों के दाम भुखमरी, कुपोषण और मजदूर वर्ग की क्रय शक्ति में आये ह्रास और इसलिए मांग में आयी कमी के बावजूद बढ़ते दिखे।
इस तरह साफ है कि कृषि में इजारेदार प्राइस की वजह से ऊंचे दाम बने रहेंगे और इसके परिणामस्वरूप मजदूर वर्ग की वास्तविक मजदूरी न्यनूतम स्तर तक गिर सकती है, वहीं अन्य पूंजीपतियों का मुनाफा भी न्यूनतम सीमा तक गिर सकता है जो कभी-कभी एकाधिकारी पूंजी के तरह-तरह के दबाव में लागत कीमत तक या उससे भी नीचे तक गिर सकता है जो उसके उजड़ने का कारण बनता है, जैसा कि लेनिन साम्राज्यवाद की अपनी प्रसिद्ध थीसिस में कहते हैं। इसके कारण मजूदर वर्ग की भारी तबाही के साथ-साथ छोटी व मंझोली पूंजियों की भी आम बर्बादी का परिदृश्य पेश हो रहा है जिसका नजारा हम पूरे विश्व में देखने के साथ-साथ भारत में भी देख सकते हैं।
लेनिन लिखते हैं, वित्तीय एकाधिकारी पूंजी विशाल और लगातार बढ़ती मात्रा में मुनाफा कमाती हैं (Finance capital concentrated in few hands and exercising virtual monopoly exacts enormous and ever increasing profit…LCW, p.232 Vol 22) और इसके लिए अमेरिका में 1887 में हैवेमेयेर द्वारा 15 सुगर फर्मों को मिलाकर बनायी गयी सुगर ट्रस्ट की चर्चा करते हुए लिखते हैं कि जब उसने इजारेदारी प्राइस कायम की तो इतना अधिक मुनाफा किया कि ट्रस्ट के बनते वक्त इसमें वास्तव में लगी कुल पूंजी का 70 प्रतिशत लाभांश में वितरित किया। 1909 में यानी 22 सालों के अंतराल में इसकी पूंजी दस गुनी बढ़ चुकी थी।
हम यह भी पाते हैं कि स्तालिन मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन, खासकर लेनिन की एकाधिकारी पूंजी के बारे में की गई व्याख्या तथा शिक्षा को सामान्यीकृत करते हुए यह कहते हैं कि आधुनिक पूंजीवाद का बुनियादी आर्थिक नियम महज औसत मुनाफा, सुपर मुनाफा आदि कमाना नहीं बल्कि अधिकतम मुनाफा कमाना है (p.39, Economic Problems In The USSR ) तो वे सौ फीसदी सही थे और आज भी सही हैं। आज मार्क्स और लेनिन की ही नहीं, इस संबंध में स्तालिन की शिक्षा भी सही है और कायम है। यह भी याद रखना चाहिए कि स्तालिन की उपरोक्त बात सिर्फ उपनिवेशों को ध्यान में रखते हुए ही नहीं (जैसा कि कुछ लोग समझते हैं), अपितु अपने देश (इजारेदारी पूंजी के अपने राष्ट्र राज्य) की जनता को ध्यान में रखते हुए भी कही गई है।
इसलिए लेनिन की इजारेदार पूंजी के बारे में शिक्षा के आलोक में हम कह सकते हैं कि इजारेदार पूंजी अगर कृषि में वर्चस्व यानी एकाधिकार कायम करेगी तो अनाजों के दाम में इजारेदाराना कीमत जरूर वसूलेगी, क्योंकि पूरे पूंजीपति वर्ग का ख्याल रखना उसका ध्येय नहीं है अपितु उसका मुख्य ध्येय छोटी, मंझोली और यहां तक कि बड़ी पूंजियों को भी अपने अधीन करना है। इजारेदार पूंजी के द्वारा पूंजीवादी व्यवस्था का ख्याल अवश्य रखा जाता है लेकिन एकमात्र इसी तरह रखा जाता है। इजारेदार पूंजी के चरित्र और इसकी अब तक की यात्रा-वृतांत को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि इजारेदार पूंजी एकमात्र इसी तरीके से पूंजी के शासन का ख्याल रख सकती है किसी और तरीके से नहीं। तभी तो हम कहते हैं कि एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के उदय ने पूंजीवाद के सभी अंतर्विरोधों का अत्यंत तीव्र कर दिया है, इतना तीव्र कि एकमात्र विश्व ट्रस्ट की ओर अग्रसर इजारेदार पूंजी बीच रास्ते में ही पूंजीवाद के खोल में भयंकर विस्फोट (युद्ध व क्रांति) को जन्म देती है। क्रांति की शानदार परिस्थितियों को पैदा करके इसे समाजवाद में परिणत करने का सुअवसर इजारेदार पूंजी अपने इसी चरित्र की वजह से देती है। लेनिन की इन पंक्तियां पर गौर करना आवश्यक है –
” There is no doubt that the trend of development is towards a single world trust absorbing all enterprises without exception and all states without exception. But this development proceeds in such circumstances, at such a pace, through such contradictions, conflicts and upheavals—not only economic but political, national, etc.— that inevitably imperialism will burst and capitalism will be transformed into its opposite long before one world trust materialises, before the “ultra-imperialist”, world-wide amalgamation of national finance capitals takes place.”
अंत में…
हम अगर यह मानते हैं कि इजारेदार पूंजी का काम पूरे पूंजीपति वर्ग का ख्याल रखना है तो लेनिन की उपरोक्त बातों का कोई मतलब नहीं रह जाता है, और न ही इस बात का कोई मतलब रह जाता है कि पूंजी का सतत विकास एक स्तर की इजारेदाराना स्थिति से और भी ऊंचे स्तर की इजारेदाराना स्थिति की ओर बढ़ते हुए विशाल संकटकालीन विस्फोटों को जन्म देगा। इसलिए हम अगर कॉर्पोरेट के उक्त चरित्र (जो कि गलत तरीके से चित्रित करने की कोशिश है) पर विश्वास करते हैं तो इसका कुल मिलाकर यह अर्थ होगा कि हम सर्वहारा क्रांति की लेनिनवादी रणनीति का परित्याग करने तथा स्वयं क्रांति की परियोजना को ही पीछे छोड़ देने का अपराध करेंगे या करने की ओर अग्रसर होंगे। यह एक नये तरह का खतरनाक संशोधनवादी विचार है। इसलिए इस समझ की मुखालफत अत्यंत जरूरी है।
नोट: ठीक इसी विषय पर यथासंभव एक पूर्ण आलेख (पोलेमिकल लेख नहीं) ”The Truth” तथा ”यथार्थ” के अगले अंक में प्रकाशित किया जाएगा।