एनएसओ सर्वेक्षण रिपोर्ट, 2019

एनएसओ सर्वेक्षण रिपोर्ट, 2019

October 17, 2021 0 By Yatharth

किसानों का सर्वहाराकरण
नए कृषि क़ानून इसे और प्रचण्ड बनाएँगे

एस वी सिंह


कुछ सरकारी विभाग अभी भी ऐसे बचे हैं जिन्होंने अपनी प्रतिष्ठा धूमिल नहीं होने दी है, ‘राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय’ (National Statistical Office, NSO) वैसा ही एक महकमा है। हालाँकि, मोदी सरकार द्वारा इसकी भी बांह मरोड़ी गई। पंच वर्षीय योजनाओं के लिए आवश्यक डेटा उपलब्ध कराने के मक़सद से सन 1950 में योजना मंत्रालय के अंतर्गत ‘राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण विभाग’ (National Sample Survey Organization, NSSO)  की प्रस्थापना हुई थी। यही वो विभाग है जिसने मोदी शासन में 2019 में अपने सर्वेक्षणों के आधार पर देश के सामने ये सच्चाई प्रस्तुत करने की ‘हिमाक़त’ (दुस्साहस) की कि देश में इस वक़्त बेरोज़गारी इतनी भयंकर है जितनी पिछले 45 साल में कभी नहीं रही। अख़बारों, टी वी चैनलों में अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ हेड लाइन देखने की आदि मोदी सरकार स्वाभाविक रूप से आग-बबूला हो गई। ‘जो सत्तर साल में नहीं हुआ वो हमने कर दिखाया’ जुमले की तर्ज़ पर जब लोग सोशल मीडिया पर मखौल बनाने लगे तो सरकार ने सरकारी अफ़सरों के सामने गुर्राना और मरोड़ने के लिए उनकी बांह टटोलना शुरू किया। ‘बे-रोज़गारी कम दिखाने वाले आंकड़े चाहिएं’, इस सरकारी फ़रमान के जवाब में ये कहते हुए कि बेरोज़गारी के आंकड़े तो लोगों को रोज़गार मिलने से ही कम होते हैं, पी सी मोहनन और जे. वी. मीनाक्षी ने जनवरी 2019 में अपने पदों से इस्तीफे सामने रख दिए। उनके जाने के बाद ‘राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग’ में कुल दो ही ‘शुद्ध सरकारी (दरबारी!) लोग बचे, अमिताभ कान्त और प्रवीन श्रीवास्तव!! साथ ही, मोदी सरकार ने  23 मई, 2019 को ‘राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण विभाग (NSSO) को ‘केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय (CSO) में मिला दिया और इसका नाम ‘राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय NSO) कर दिया और इस विभाग को ‘सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MOSPI) के आधीन कर दिया। इस सब के बावजूद भी इस विभाग द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों की विश्वसनीयता बरक़रार है जिनपर भरोसा किया जा सकता है।     

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा उनके 77वें दौर के जुलाई 2018 से जून 2019 अवधि के बीच “ग्रामीण क्षेत्र में कृषक परिवारों की स्थिति और परिवारों की भूमि एवं पशुधन सम्पदा का मूल्यांकन, 2019” विषय पर किए गए सर्वेक्षण की विस्तृत  रिपोर्ट 10 सितम्बर 2021 को प्रकाशित की गई, जो एक महाकाव्य जैसी, कुल 4264 पेज की है और जिससे देश के ग्रामीण भाग की असलियत सामने आई। सर्वेक्षण के पहले दौर में, अंडमान निकोबार को छोड़कर देश के कुल 58035 किसान परिवार और दूसरे दौर में कुल 56894 किसान परिवारों को सर्वे के लिए इस प्रकार चुना गया जिससे उसमें ग्रामीण समाज के सभी आर्थिक-सामाजिक खण्डों का समावेश हो सके। इस सर्वेक्षण का उद्देश्य था, कृषक परिवारों की आमदनी, उत्पादक संपत्तियों तथा उनके क़र्ज़ की स्थिति का पता लगाना, कृषक परिवारों द्वारा अपनाई जा रही खेती की पद्धतियों को जानना, किसानी के क्षेत्र में तकनीकी विकास की जानकारी का पता लगाना।

‘कृषक परिवार’ की परिभाषा?

वह परिवार जिसे खेती द्वारा, मतलब अनाज, फल, पशुओं का चारा, बाग, पशु पालन, मुर्गी पालन, मछली पालन, सूअर पालन,मधु मक्खी पालन, कृमि (Vermiculture), रेशम के कीड़े पालन आदि से प्रति माह कुल ₹ 4000 की आय होती हो अथवा परिवार का कोई एक सदस्य साल भर कृषि अथवा सहायक कार्य में लिप्त रहा हो, किसान है।  ग्रामीण भारत में कुल 17.2 करोड़ परिवार हैं जिनमें 9.3 करोड़ कृषि परिवार हैं तथा 7.9 करोड़ ग़ैर कृषि परिवार हैं।

खेती व्यवसाय एवं गाँव- देहात में इतनी कंगाली क्यों है?

महानगरों के केंद्र बिन्दू से जैसे ही बाहर चलें, कुछ दूर चलने पर ही पहले मज़दूरों की झुग्गी बस्तियों की अनंत श्रंखला और उसके बाद उजड़े और कंगाल देहात का महासागर शुरू हो जाता है, मानो सदियों से कुछ बदला ही ना हो। देहात की विपन्नता की वजह क्या है? किसानों के आक्रोश की वजह क्या है? वे कौन से कारक एवं कारण हैं जो मौजूदा किसान आन्दोलन को गहरा करते जा रहे हैं? 610 से भी अधिक किसान शहीद हो चुके हैं, पुलिस की लाठी-गोली की आशंका हर वक़्त बनी रहती है फिर भी किसान, कड़कड़ाती ठण्ड, झुलसाने वाली गर्मी, बारिश की परवाह किए बगैर किसान मोर्चे छोड़ने को तैयार क्यों नहीं हैं? मौजूदा रिपोर्ट के आलोक में हम इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने की कोशिश करेंगे।

टेबल-1 से हमें एक बुनियादी हकीक़त का पता चलता है। ग्रामीण भाग के कुल परिवारों में, भूमिहीन 8.2%, सीमांत किसान 76.5% और लघु किसान 9.3% हैं। मतलब कुल मिलाकर 94% परिवार ज़मीन के उस टुकड़े में मर-ख़प रहे हैं जिसमें वे कुछ भी क्यों ना कर लें,  कोई भी अधिशेष- आमदनी होना संभव ही नहीं है। जैसे-जैसे कष्ट बढ़ते जाते हैं, वे अपनी ज़रूरतें कम करते जाते हैं, ज्यादा से ज्यादा देर तक हाड़ घिसाऊ मेहनत करते जाते हैं। बस उम्मीद की वही कमजोर डोर, कि आगे ‘अच्छे दिन’ आएँगे, नहीं टूटती। इन लोगों का रहन-सहन मध्य काल से सुधरा है, यकीन नहीं होता। इस लगभग सारे समूह (94%) का पूरा परिवार बे-इन्तेहा श्रम करता है, इनमें से कुछ के बच्चे बस नज़दीक के स्कूल में ही पढ़ पाना वहन कर पाते हैं। हर सीजन की हर बीमारी में मरने वालों में ये ही लोग होते हैं। 4264 पेज की इस विस्तृत रिपोर्ट में आत्म हत्या के आंकड़े नज़र नहीं आए, लेकिन देश में हर रोज़ औसत 28 किसान आत्म हत्या करते हैं वे सभी इसी समूह से होते हैं। वैसे भी इनकी ज़िन्दगी और मौत का फासला बहुत ही कम होता है। सीमांत किसानों की हालत मज़दूरों से भी दयनीय है क्योंकि ना इनकी कोई छुट्टी होती है और ना काम के घंटे। शाम को भी वे यही सोचते हैं, काश दिन कुछ और लम्बा होता। इस विशाल आबादी की कंगाली, बरबादी को मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था में, किसी भी परिस्थिति में रोका या टाला  नहीं जा सकता। पूंजीवादी विकास के पहले चरण में इस आबादी को उनके ग्रामीण नरक से निकलकर शहरों में, उद्योगों में औद्योगिक मज़दूरों के रूप में काम मिलता जाता था जो अब किसी भी सूरत में मुमकिन नहीं। विपरीत विस्थापन (reverse migration) मतलब गाँव से विस्थापित हुए श्रमिकों के वापस अपने गाँव प्रस्थापन के इस दौर में जो भी व्यक्ति या दल इन लोगों को मौजूदा व्यवस्था में अच्छे दिनों का आश्वासन देता है वो इनके साथ निश्चित रूप से ठगी कर रहा होता है। ये तो जिंदा इसीलिए बचे हुए हैं क्योंकि मानव शरीर अत्यल्प भोजन मिलने पर भी तुरंत नहीं मरता, धीरे-धीरे मरता है। जिस समाज का 94% हिस्सा कंगाली के दावानल में दहक रहा हो वहाँ खुशहाली कैसे नज़र आ सकती है? इसीलिए देश के देहात एक दम बियाबान नज़र आते हैं।

टेबल-1 : ग्रामीण क्षेत्र में कृषि ज़मीन की मिल्कियत और उसके अनुरूप घरों की संख्या

ज़मीन की मिल्कियत के अनुसार 6 श्रेणी के परिवार (एकड़ में)परिवारों का %ज़मीन की मिल्कियत का %
2018-20192012-20132002-20032018-20192012-20132002-2003
(1)(2)(3)(4)(5)(6)(7)
भूमिहीन (0.05 तक) 8.27.410.00.00.00.0
सीमांत (0.05 से 2.5 तक) 76.575.469.634.529.823.0
लघु (2.5 से 5.0 तक)9.310.010.824.923.520.4
अर्द्ध-मध्यम (5.0 से 10.0)4.45.06.022.022.122.0
मध्यम (10.0 से 25.0)1.41.93.014.718.823.1
बड़े (25.0 से अधिक) 0.20.20.53.95.811.6
कुल 100.0100.0100.0100.0100.0100.0

अर्द्ध मध्यम, मध्यम तथा धनी किसानों के परिवारों की कुल तादाद 2002-03 में कुल ग्रामीण आबादी का 9.5% थी जो 2018-19 में घटकर मात्र 6% रह गई। ये लोग कहाँ गए? ये सब नीचे खिसक गए। रिपोर्ट हमें बताती है कि हमारे देश में हर रोज़ औसत 2052 किसान खेती से बेदखल होकर मज़दूर बनते जा रहे हैं। सीमांत किसान और फिर भूमिहीन मज़दूर परिवारों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। ये प्रक्रिया समूचे कृषि क्षेत्र को बड़े मगरमच्छ कॉर्पोरेट को अर्पित करने की नीयत से लाए जा रहे कृषि कानूनों से और भयानक होगी। तब किसान 2052  की दर से मज़दूर नहीं बनेंगे बल्कि लाखों के हिसाब से ज़मीनों से बेदखल होंगे और धनी किसान भी होंगे। एक दम कंगाल किसानों की तुलना में धनी किसान सापेक्ष रूप से बड़ी पूंजी वाले हैं लेकिन औद्योगिक पूंजी के बैंकिंग पूंजी में विलय होने से जो पूंजी के विशालकाय पहाड़ों पर बैठे कॉर्पोरेट हैं उनकी तुलना में वे समंदर में एक बूंद के बराबर ही हैं। कृपया याद रहे कुल ग्रामीण परिवार 17.2 करोड़ हैं, इनका 94% हुआ 16.17 करोड़ परिवार, मतलब लगभग 80 करोड़ लोग यदि एक झटके में या चंद सालों में ज़मीनों से बे-दखल हो जाएँगे तो क्या होगा? पूंजीवाद आज नाक तक आर्थिक संकट में डूबा है और वो आगे का कुछ भी सोच पाने की स्थिति में नहीं है।

किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सारी उपज की खरीद की गारंटी का क़ानून क्यों चाहते हैं?

टेबल-2 : न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) का छलावा

फसलMSP के बारे में जानते है, %MSP कौन सी एजेंसी कर रही है ये जानते हैं, %MSP पर फसल की बिक्री की, %कुल बिक्री में MSP पर हुई बिक्री का %
धान 52.840.318.524.7
ज्वार 14.37.30.70.5
मक्का 22.717.76.04.0
गेहूं 37.127.29.720.8
चना 29.018.85.58.2
अरहर (तूर)41.227.91.40.8
मूंग 27.220.45.514.6
मसूर 24.213.81.82.6
गन्ना 56.951.040.740.2
 सरसों 39.222.25.18.3
नारियल 12.06.20.30.1
कपास 35.824.712.817.8

फसलों की खरीद का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) घोषित करने की व्यवस्था 1966-67 में शुरू हुई। तब से, लेकिन, कोई भी सरकार रही हो, न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित कर देना और वहीँ पल्ला झाड़ लेना, बस ये ही दस्तूर रहा है। एमएसपी की जानकारी ज्यादा से ज्यादा किसानों को हो ही ना पाए, मानो ये सुनिश्चित किया गया है। उसकी दो वजह नज़र आती हैं। पहली- मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था में पूरे शासन तंत्र का पहला धर्म है औद्योगिक पूंजी के हितों के लिए समर्पित हो जाना। बाक़ी जो काम किए जाते हैं, वे करने पड़ते हैं। काम करने और करना पड़ने में अंतर हमेशा रहता है। दूसरा- किसी भी वस्तु के सारे के सारे उत्पादन की खरीदी की गारंटी देना पूंजीवादी व्यवस्था का काम होता ही नहीं है, हो ही नहीं सकता क्योंकि वहाँ समाज के कल्याण का नहीं बल्कि ‘बाज़ार का नियम’ चलता है। बाज़ार की ही तो मुख्य लड़ाई है। उसी के लिए तो दो भयानक विश्व युद्ध हुए हैं। जो बाज़ार में टिक सकता है टिके वरना अंतर्ध्यान हो जाए!!

ऐसा ना होता तो कोई सोच सकता है कि, एमएसपी लागू होने के पूरे 55 साल बाद भी  जिस अरहर दाल को हमारे देश में इन्सान हर रोज़ खाता है जिसके आयात पर मोटे-मोटे घोटाले होते हैं, उस अरहर दाल की सरकारी खरीद, कुल उत्पादन का मात्र 0.8% हिस्सा है!! सरसों, जिसे स्टॉक करके इस वक़्त देश के ‘प्रथम नागरिक’ अडानी ने लाखों करोड़ रुपये भूखे-बेरोज़गार लोगों की जेबों से निकाल लिए उसकी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर, मतलब सरकारी ख़रीद कुल उत्पादन का मात्र 8.3% है!! दालों और तिलहनों को तो मानो सरकार बहादुर ने व्यापारियों-धन्ना सेठों की कमाई के लिए ही छोड़ रखा है। तब ही तो वे लोग गुपचुप चुनाव बांड ख़रीदकर सत्ता पक्ष की जेबें भरते हैं जिससे आवश्यक संख्या में ‘जनमत’ मतलब विधायक-सांसद ख़रीदे जा सकें। शुकर है अब तक सरकार ने विधायकों-सांसदों का न्यूनतम खरीदी मूल्य घोषित नहीं किया है!! न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सबसे ज्यादा ख़रीदा जाने वाला कृषि उत्पाद गन्ना है वह भी मात्र 40.2%। गेहूं मात्र 20.8%, धान 24.7%। दरअसल, सीमांत किसानों की फसलों की बिक्री हमेशा ‘संकटकालीन बिक्री (Distress Sale) ही होती है। इसलिए उनकी फसलों की बिक्री एमएसपी पर ना होने का मतलब है उससे बहुत कम। हमेशा ही उन्हें अपनी ज़रूरतों को पूरी करने के लिए अथवा किसी से लिए क़र्ज़ को चुकता करने के लिए धान या चावल की पूरी की पूरी फसल ही बेच देनी पड़ती है, भले अपने घर के उपभोग के लिए बाद में डबल भाव पर ही ख़रीदना क्यों ना पड़े। एमएसपी पर खरीदी बिक्री तो जाने दीजिए, कुल आबादी का औसत एक चौथाई ही ये जानते हैं कि एमएसपी किस बला का नाम है। कहाँ खरीदी होती है, उसका क्या सिस्टम है, वहाँ कैसे पहुंचना है। दरअसल, पूंजीवाद की सड़न अब उस स्तर पर पहुँच चुकी है कि लोगों का अंजान होना, अँधेरे में होना; शासन चलाने के लिए मुफ़ीद है, फायदे की बात है वरना ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’, ‘हिन्दू धर्म ख़तरे में है’ का नाम आते ही लोग पेट की भूख भूलकर नशे में कैसे झूम जाएँगे, कैसे एक दूसरे को बे-वजह मारने के लिए टूट पड़ेंगे? लोगों को मूर्ख और जाहिल बनाए रखने के लिए सरकार काफी निवेश करती है!!

दूसरा अहम मौजूदा बदलाव ये है कि भले आधे से अधिक लोग भूखे सोएं लेकिन कृषि उत्पादों में भी अति-उत्पादन की हालत है जिसके चलते खुले बाज़ार में, खास तौर पर फसल के वक़्त अनाजों-दालों के भाव सरकारी मूल्य से हमेशा बहुत कम ही रहते हैं। यही वजह है  किसान सारे के सारे उत्पाद को एमएसपी पर बेचने की गारंटी वाला क़ानून चाहते हैं!! 66 साल में जो काम 25% भी नहीं हुआ, हर रंग-ढंग की सरकार आ चुकी; किसान उस क़ानून के बगैर ‘घर वापसी’ नहीं करेंगे। इरादा नेक है, हौसला क़ाबिल-ए-तारीफ़ है, किसान भाइयों, लेकिन ये इस व्यवस्था में नहीं होगा। ये सिर्फ़ और सिर्फ़ उस समाज में होगा जिसमें लोगों को अंजान नहीं जानकार बनाया जाएगा, जिसमें लोगों को राजनीतिक रूप से निरीह नहीं, सचेत और सशक्त बनाया जाएगा। जिसमें सारे समाज की ज़रूरतों के हिसाब से ही सारा सरकारी ख़र्च होगा, जिसमें अडानी-अम्बानी और उनकी सारी निठल्ली बिरादरी को उनकी सारी लूट की कमाई से दूर हो जाने, उसे हाथ भी ना लगाने के लिए और रोटी खाना है तो काम करने के लिए मज़दूरों की लाइन में पीछे चुपचाप, सीधा खड़ा रहने के लिए सख्ती से कहा जाएगा, और उस व्यवस्था का नाम समाजवाद है जिसमें हुक्म मज़दूरों और मेहनतक़श किसानों का ही चलता है और जो पूंजीवाद को ध्वस्त करके ही तामीर होगा जैसे सामंतवाद के गर्भ से पूंजीवाद जन्मा था। 

फसल बीमा, मतलब किसान की हड्डियों को निचोड़कर बीमा कंपनियों की जेबें भरने की सरकारी कवायद

टेबल-3 : फसल बीमे की हकीक़त

फसलफसल बीमे की जानकारी ही नहींफसल बीमा उपलब्ध है या नहीं, पता नहींइच्छुक ही नहींज़रूरत नहींफसल बीमा उपलब्ध नहींफसल बीमे किश्त भरने को पैसे नहींफसल बीमे की शर्तों से संतुष्ट नहींबीमे की पद्धति मुश्किल हैमुआवजा मिलने में देर होती हैअन्य
धान39.711.926.65.93.51.81.12.60.26.6
ज्वार31.912.623.47.13.37.83.23.60.36.9
मक्का39.017.617.63.95.69.10.30.92.23.7
गेहूं39.813.924.25.73.72.62.92.61.13.5
चना37.412.129.86.71.52.13.42.01.14.0
अरहर (तूर)31.09.324.06.46.910.62.74.41.33.4
मूंग27.318.426.16.86.77.20.86.10.20.4
मसूर43.410.821.73.99.01.72.64.20.02.8
गन्ना35.514.527.69.55.10.52.72.31.01.2
आलू35.814.925.25.37.72.61.23.10.73.4
प्याज़38.39.621.18.19.81.90.42.74.73.5
सफ़ेद सरसों39.216.625.03.93.91.62.42.01.33.5
नारियल21.915.223.222.86.1 1.61.61.94.00.62.7
कपास35.310.024.04.61.111.81.73.11.86.4

‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ किसानों की दृष्टि से पूरी तरह फेल हो चुकी है। हाँ, बीमा कंपनियों की कमाई के लिहाज़ से क़ामयाब योजना है। जैसा की आंकड़े बता रहे हैं, एक तिहाई किसान ही इस योजना को जानते हैं जबकि बैंक द्वारा अक्सर उन्हें बिना बताए ही बीमे की राशी काट ली जाती है। किसानों की अज्ञानता, शातिर बीमा कंपनियों को बहुत भाती है। मार्च 2018 को समाप्त एक वर्ष में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अंतर्गत निजी बीमा कंपनियों ने ₹3000 करोड़ कमाए हैं। फसलों के प्राकृतिक विपदा से नुकसान की परिभाषा इतनी जटिल है, शायद ही किसी किसान को बीमे की राशी मिल पाती है जबकि ऐसी कोई फ़सल नहीं जिसमें किसी ना किसी विपदा से नुकसान ना हुआ हो। यही कारण है कि एक तिहाई किसानों को बीमे का पता ही नहीं और लगभग उतने ही किसानों को बीमा कराने की इच्छा नहीं। खाद, बिजली, डीज़ल, बीज सब बेतहाशा महंगे होते जा रहे हैं। ऐसे में पसीना बहाकर कमाई फसल अगर बाढ़ या सूखे में चौपट हो जाए तो टूट चुके किसान को गले में फांसी का फंदा डालकर सब कुछ समाप्त करने के आलावा रास्ता नज़र आता। यही वजह है कि पंजाब तो प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में कभी शामिल ही नहीं हुआ। बिहार, प बंगाल और ‘गुजरात मॉडल’ वाला गुजरात इससे अलग हो गए। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और झारखण्ड इस योजना से 2020 से अलग होने का नोटिस दे चुके। बाक़ी भी इससे बाहर हो जाने में ही अपनी भलाई सोच रहे हैं। फासिस्टों की कार्य पद्धति की एक खास विशिष्टता होती है। उन्हें जन कल्याण करते हुए दिखने की हेड लाइन मात्र चाहिए होती हैं इसलिए योजना की घोषणा बहुत धमाकेदार रहती है। उस योजना का क्या हस्र हुआ, ये जांचने-परखने की ज़रूरत उन्हें कभी महसूस नहीं होती।    

फ़सलों की प्राकृतिक आपदा से बरबादी – ग़रीब किसानों की कंगाली और आत्म हत्याएं

टेबल-4 फसल बरबादी की वजह

फसल% परिवारों जिनकी फसल बरबाद हुईवजह: बारिश की कमी %वजह: रोग, कीड़े, जानवर %बाढ़ %दूसरी प्राकृतिक विपदाएँ %अन्य कारण %कुल
धान 24.934.124.97.225.18.7100
ज्वार 53.285.810.51.90.01.8100
मक्का 29.657.825.92.32.012.0100
गेहूं 35.133.652.01.86.66.1100
चना 45.040.933.31.215.29.3100
अरहर (तूर) 60.656.334.50.74.63.9100
मूंग 64.328.919.37.836.07.9100
मसूर  36.844.239.73.710.61.8100
गन्ना 33.019.076.53.00.90.5100
आलू 32.218.955.21.210.514.2100
प्याज़ 29.151.918.90.311.817.1100
कपास 47.464.029.25.70.70.4100
 सरसों 35.431.059.10.82.56.6100
नारियल 32.424.665.40.56.62.9100

हमारे देश ने 75 साल की आज़ादी में खेती-किसानी के मामले में इतनी तूफ़ानी तरक्की की है कि जुलाई 2018 से जून 2019 के एक साल में, ज्वार की 85% और कपास की 64% फसल तो बारिश की कमी से ही बर्बाद हो गई। ये आंकड़े देखकर पहली प्रतिक्रिया ज़हन में ये आती है कि अभी भी कितने किसान हैं जो ज़िन्दगी की डोर छोड़ने को तैयार नहीं वरना सरकार के इरादे तो उन्हें मिटा डालने के ही हैं। जिस किसान की तीन चौथाई फसल बरबाद हो गई हो, वो कैसे जिंदा होगा, सोचकर सिहरन होती है। तब ही तो 2011-12 से 2017-18 का एक आंकड़ा एनएसओ से ‘लीक’ हो गया था जिसे गंभीरता से लेते हुए मोदी सरकार ने विभाग पर कार्यवाही की और कहा आपका काम आंकड़े इकट्ठे करना है उन्हें पब्लिक में ज़ारी करना या नहीं करना, ये सरकार का काम है। वो आंकड़ा ये था कि इस 6 साल की अवधि में लोगों की भोजन की खपत में 9% की गिरावट आई है। मतलब लोग भुखमरी से मर रहे हैं लेकिन धीरे-धीरे। अरहर दाल उगाने वाले 60.6 % किसान परिवारों की फसल किसी ना किसी वजह से बर्बाद हुई है। देश में अरहर की वार्षिक खपत 21 लाख टन है, इसका 60.6% हुआ 12.7 लाख टन। अरहर की दाल का भाव ₹175 प्रति किलो है। एक साल में बरबाद हुई, अकेली अरहर दाल की क़ीमत हुई; ₹22,225 करोड़!! क्या कोई सरकार इसकी भरपाई करेगी? क्या ऐसी ज्यादती कोई उद्योगपति सहन कर सकता है? मोदी सरकार ने, जो खुद को विश्व गुरु कहने-कहलवाने में शर्म महसूस नहीं करती, क्या एक भी सिंचाई योजना शुरू की है? अकेले बारिश की कमी से होने वाले फसलों के नुकसान का प्रतिशत 50% से अधिक है। किसानों के ज़ख्म बहुत गहरे हैं। सवाल उनकी ज़िन्दगी और मौत का है। यही वजह है, वो आन्दोलन के मोर्चे छोड़ने को तैयार नहीं भले 610 से ज्यादा लोग पिछले दस महीनों में शहीद हो चुके हैं, भले सरकार हताशा-कुंठा से पागल हो चुकी है और उन्हें गाड़ियों से कुचल डालना चाहती है।   

किसानों की पशु- पालन से होने वाली आय को हिंदुत्ववादी नीतियों ने तबाह कर डाला

टेबल-5 : सीमांत किसान की आमदनी खेती से तथा मज़दूरी से आ रही है

मिल्कियत में कुल ज़मीन का रक़बा (एकड़ में)मज़दूरी से आयज़मीन को ठेके पर देने से आयफसलों से शुद्ध आयपशुपालन से शुद्ध आयग़ैर कृषि शुद्ध (net) आयकुल औसत मासिक आमदनी
चौथाई एकड़ से कम6435254143510877729982
चौथाई से 144911896573497036388
1 से 2.539067620423565706951
2.5 से 536477443135416139189
5 से 103548146794560075812997
10 से 2542734511691434247222453
25 से अधिक3943581376397087116250412
कुल औसत406313430584416418337

उपरोक्त आंकड़े कई महत्वपूर्ण तथ्य उजागर करते हैं। पहला; भूमिहीन परिवार जिनके पास ना के बराबर (चौथाई एकड़ से भी कम) ज़मीन हैं, उनकी मासिक आय ₹9982 जबकि सीमांत किसान जिन्हें दो श्रेणियों में बांटा गया है; एक एकड़ तक और ढाई एकड़ तक ज़मीन वाले; इनकी आय क्रमश: ₹6388 और ₹6951 है; साथ ही लघु किसान परिवार की मासिक आय ₹9189 है। मतलब शुद्ध खेत मज़दूर परिवार, सीमांत एवं लघु किसान से ज्यादा कमाता है। इतना ही नहीं सीमांत एवं लघु किसान की आय में भी मज़दूरी से प्राप्त आय ही मुख्य है, फसलों से होने वाली आय नगण्य है। एक तरह ये कहा जा सकता हैं कि 5 एकड़ का रक़बा मुनाफ़ा होने का संधि बिंदु (break- even point) है। याद रहे कि 86% किसान इससे नीचे ही आते हैं और पूंजीवाद के अन्तर्निहित नियमानुसार ये तादाद बढ़ती ही जा रही है। कृषि के नए क़ानून लागू हो जाएँ तो ना सिर्फ़ ये सेगमेंट एक झटके में विलुप्त हो जाएगा बल्कि इसके ऊपर वाले सेगमेंट भी नीचे आ जाएँगे और उनका भी वही हश्र होगा जैसा कि हर छोटी पूंजी के साथ हो रहा है।    

खेती अलाभदायक होने पर किसानों की पहली पसंद पशु पालन से गुज़र बसर करने की होती है। 2002-03 में किसानों की कुल आय में पशु पालन से होने वाली आय मात्र 4.3% थी जो 2012-13 में बढ़कर 11.9% हो गई और 2018-19 में और बढ़कर 15.7% हो गई। मतलब 16 साल में साढ़े तीन गुना से भी ज्यादा 365% बढ़ गई। पशु पालन से आय दो प्रकार से होती है; दूध बेचकर और पशु बेचकर। ये व्यवसाय और भी बढ़ सकता था लेकिन मौजूदा भाजपा सरकार के आने के बाद पशु बेचकर होने वाली आय बहुत कम हो गई क्योंकि ‘गौ रक्षा’ के नाम पर बेहूदा क़ानून बनाए गए। साथ ही इस मुद्दे को भाजपा-संघ द्वारा अपनी ध्रुवीकरण की राजनीति चमकाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे एक और बहुत विकराल समस्या खड़ी हो रही है। दूध ना देने की स्थिति में पशु बिक नहीं पा रहे और किसान उन्हें पाल नहीं पा रहे। परिणाम है गांवों-सडकों पर आवारा घूमते पशुओं के झुण्ड जो फसलों को तबाह कर रहे हैं। इस समस्या से किसान बहुत उग्र रूप धारण किए हुए हैं। यहाँ ये उल्लेख करना सामायिक होगा कि 6 सितम्बर को पीलीभीत में जो भयानक दुर्घटना हुई उसकी वजह ये थी कि आवारा घूमती गाय अचानक सड़क पर आ गई जिसे बचाने के चक्कर में बस ट्रक से टकरा गई और 15 लोग मर गए, ज़ख़्मी तो बस के सारे मुसाफ़िर ही हुए। आवारा घूमते पशु जान लेवा दुर्घटनाओं का अहम कारण बन चुके हैं।   

किसान क़र्ज़ में डूबते जा रहे हैं

टेबल-6 : किसानों पर क़र्ज़ की स्थिति

ज़मीन मालिकाना (एकड़)औसत कृषि क़र्ज़ प्रति परिवारक़र्ज़ में डूबे घरों का  %कर्ज़दार घरों का विभिन्न श्रेणियों का % वितरण
चौथाई से कम26,88338.50.5
चौथाई से 133,22040.827.8
1 से 2.551,93348.434.4
2.5 से 594,49857.420.2
5 से 101,75,00969.712.0
10 से 253,26,76679.34.5
25 से अधिक7,91,13281.40.6
सभी श्रेणियों में74,12150.2100

खेती-किसानी से घटती आय का नतीज़ा, किसानों के लगातार क़र्ज़ में डूबते जाने में हो रहा है। मशीनों-ट्रेक्टर में बढ़ती जड़ पूंजी का अनुपात जिसका परिणाम पूंजीवाद के नियमानुसार प्रति यूनिट घटती मुनाफ़ा दर में होता है, वो तो है ही, साथ में कृषि उपज के मूल्य में भयंकर अनिश्चितता, कृषि उपज को जमा कर रखने की अव्यवहारिकता, साथ ही कृषि उपज का प्राकृतिक विपदाओं से भयंकर प्रभावित होने की हकीक़त जिसका आज कोई ईलाज नहीं; ये सब कारक खेती को घाटे का सौदा बनाते जा रहे हैं। हम देख ही चुके हैं (टेबल-2) कि एमएसपी अभी तक सिर्फ़ एक चौथाई से भी कम किसानों को ही मिल रही है और उनसे भी छीनने के लिए, कृषि मंडियां चौपट करने के लिए और पूरे ग्रामीण भारत को कॉर्पोरेट मगरमच्छों की चारागाह बनाने के लिए, मोदी सरकार अड़ी हुई है। यही वजह है कि किसान नए कृषि कानूनों को लागू ना होने देने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं।   

मज़दूर वर्ग की स्थिति

  • मज़दूर/ जनसंख्या अनुपात: इसका अर्थ है कुल जनसँख्या में कितने लोग काम करते हैं; देश का अनुपात 35.3 % है। मतलब लगभग एक तिहाई आबादी से भी कम लोग ही उत्पादन में लगे हैं। ग्रामीण भाग में- पुरुष 52.1% एवं महिलाएं 19.0% जबकि शहरी क्षेत्र में -पुरुष 52.7% एवं महिलाएं 14.5%। इसका अर्थ है कि शहरों के मुकाबले ग्रामीण भाग में महिलाएं अधिक संख्या में काम करती हैं। सभी मज़दूर परिवारों, सीमांत एवं लघु किसान परिवारों में महिलाओं को आवश्यक रूप से काम करना होता है। तब कहीं आधा पेट और आधा नंगा जी पाते हैं।  
  • एक और बहुत दिलचस्प आंकड़ा है: 2018-19 ग्रामीण क्षेत्र में, कुल मज़दूरों में पुरुष 46.8% एवं महिलाएं 53.2% खेती के काम में लगे हुए हैं। मतलब, महिलाएं पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा हैं। इसका अर्थ भी यही हुआ कि खेती अलाभकारी है इसलिए पुरुषों को खेती के आलावा पास के शहर-क़स्बे में कुछ काम करना होता है जबकि महिलाओं को उसी अलाभकारी खेती के अलाभकारी काम में खटते रहना होता है।
  • मज़दूरों की मुसीबतें: ग़ैर कृषि क्षेत्र में भी वेतन भोगी मज़दूरों/ कर्मचारियों में से 53.8% को कोई भी सवेतन छुट्टी नहीं मिलती। मतलब जब भी छुट्टी लेंगे, वेतन कटेगा- इनमें पुरुष 54.7% एवं महिलाएं 50.6% हैं। इसी तरह जिन वेतन भोगियों को कोई भी सामाजिक सुरक्षा, श्रम अधिकार नहीं हैं; उनकी तादाद 51.9% है जिनमें 51.2% पुरुष तथा 48.8% महिलाएं हैं। ग्रामीण क्षेत्र में औसत दैनिक दिहाड़ी पुरुष मज़दूर को मात्र ₹277, महिला मज़दूर को ₹170; वहीँ शहरी क्षेत्र में पुरुष मज़दूर को ₹342 एवं महिला मज़दूर को ₹205 औसत दिहाड़ी मिलती है।   इसका अर्थ ये हुआ कि यदि सही में जवाबदेही लागू हो तो श्रम मंत्री, श्रम आयुक्त समेत सारे श्रम विभाग के अधिकारियों को गिरफ्तार कर लिया जाना चाहिए!!
  • बेरोज़गारी की भयावहता: कृपया नोट किया जाए कि ये आंकड़े जुलाई 2018 से जून 2019 के बीच के हैं, मतलब कोरोना महाकाल से पहले के। कुल बेरोज़गारी दर- 5.8%; पुरुष- 5.6% एवं महिलाएं 7.1% बेरोज़गार हैं। 15 वर्ष से ऊपर आयु में बेरोज़गारी दर 11.0%; पुरुष 11.2% ग्रामीण क्षेत्र तथा 10.8% शहरी क्षेत्र। वहीँ 15-29 के बीच आयु वर्ग में बेरोज़गारी दर ग्रामीण पुरुष 16.6% तथा ग्रामीण महिलाएं  13.8% बेरोज़गार थीं। शिक्षित लोगों में  2017-18 में शहरी पुरुषों में 18.7% और महिलाओं में 25.7% बेरोज़गार थे। 

रिपोर्ट के कुछ महत्वपूर्ण बिन्दू

  • ग्रामीण परिवार जिनके पास 2.5 एकड़ से कम ज़मीन है 83.5% हैं दूसरी ओर धनी किसान परिवार जिनके पास 25 एकड़ से अधिक ज़मीन है मात्र 0.2% हैं।   
  • साक्षरता (7 वर्ष आयु से ऊपर): ग्रामीण भाग- पुरुष 82.2%, महिलाएं 66.3%; शहरी क्षेत्र- पुरुष 91.8%, महिलाएं 83.0%।
  • कृषि परिवारों में ऐसे परिवार जिन्हें नियमित मज़दूरी करनी पड़ती है 7.7% हैं तथा जिन्हें आकस्मिक मज़दूरी के सहारे जीवन यापन करना होता है 14.2% हैं। वहीँ ग़ैर-कृषि परिवार (खेती के आलावा पशु पालन आदि से गुजारा करने वाले) जिन्हें नियमित मज़दूरी करनी होती है 17.7% हैं और जिन्हें आकस्मिक मज़दूरी करनी होती है वे 48.6% हैं।  
  • पूरी तरह भूमिहीन परिवार 17.4% हैं।
  • कुल 16.4% ग्रामीण परिवार अपना गुजारा दूध बेचकर करते हैं।
  •  प्रति परिवार खेती की सभी फसलों से होने वाली वार्षिक आय का औसत 50807 मात्र है.
  • कुल कृषि परिवारों में 42.2% ऐसे हैं जिनके पास आवश्यक तकनीकी सुविधा उपलब्ध नहीं है, ये उन्हें मांगनी पड़ती है।
  • ग़ैर कृषि परिवारों में 6.3% परिवारों का कुल औसत मासिक शुद्ध आय मात्र ₹641, पशु पालन में लगे 15.5% परिवारों कुल औसत मासिक शुद्ध आय ₹1582 तथा 37.2% खेती में लगे किसान परिवारों का औसत मासिक शुद्ध आय ₹3798 मात्र है।  
  • कृषि परिवारों में 50.2% ऋण ग्रस्त हैं तथा प्रति परिवार ऋण ₹74121 है।
  • 2002-03 में किसानों की कुल आय का 45.8% खेती से आया करता था। सन 2018-19 में वह घटकर 37.7% रह गया है। दिलचस्प बात ये है कि इसी अवधि के दौरान प्रति हेक्टेयर उत्पादन काफ़ी बढ़ा है। स्वाभाविक है इसकी वजह उपज के मिलने वाले दामों का कम होना है।
  • किसानों को मज़दूरी से होने वाली आय जो 2002-03 में 38.7% थी जो 2018-18 में बढ़कर 40.3% हो गई है।
  • हर रोज़ देश के 2052 किसान खेती छोड़कर मज़दूर बन जाने के लिए मज़बूर हैं।

खेती-किसानी के असाध्य संकट से निबटने के लिए क्या किया जाए?

खेती के विशाल सामूहिक फार्म बनें, लाखों एकड़ में फैले, विशाल। खेती अत्याधुनिक मशीनों से, अधिकतम और आधुनिकतम यंत्रीकरण से हो, आधारभूत ढांचे का वैज्ञानिक पद्धति से आधुनिकीकरण हो। आलीशान हिमालय से निकलने वाली नदियों में असीम जल सम्पदा उपलब्ध है जिनसे नहरें निकलें जिससे सिचाई के लिए ट्यूब वेल से ज़मीन से पानी निकालने की ज़रूरत ही ना हो। हाँ, ज़रूरत पड़ने पर वैकल्पिक सिंचाई के साधन के रूप में उपलब्ध रहे। खेती श्रमिकों के काम के घंटे प्रति दिन 6 से ज्यादा ना हों। साथ में दो साप्ताहिक छुट्टियाँ और वर्ष में एक महीने की देश-विदेश में घूमने की छुट्टियाँ। 60 की उम्र के बाद पेंशन और सभी सामाजिक सुरक्षाएं। सारी की सारी उपज सरकार पूर्व निर्धारित दामों पर ख़रीदे। सरकार ही आगामी वर्षों के लिए कौन सी फसल बोई जाएंगी, योजना बनाए वैज्ञानिक सलाह उपलब्ध कराए, जिसमें खेती श्रमिकों के प्रतिनिधि शामिल हों। कृषि में लगने वाले खाद, बीज, तकनीकी ज्ञान, दवाई आदि को सरकार मुफ़्त उपलब्ध कराए। कृषि वैज्ञानिक उपज बढ़ाने और मानवीय श्रम को कैसे यंत्रों के उपयोग से कम किया जा सकता है, इसका सतत शोध करें जिससे उत्पादन उत्तरोत्तर बढ़ता जाए और खेती में काम करना सुविधाजनक और आनंददायक बनता जाए। हर प्राकृतिक आपदा का सही तथ्यात्मक मूल्यांकन हो और उसका उचित 100% मुआवजा तत्काल उपलब्ध हो। सारे के सारे 140 करोड़ लोगों को पौष्टिक एवं पर्याप्त भोजन उपलब्ध कराने की ज़िम्मेदारी सरकार की हो। साथ ही विशाल डेरी फार्म, कृषि फार्मों के साथ ही बनाए जाएँ। दूध, फल, सब्जी बिलकुल शुद्ध रूप में शहरों को उपलब्ध कराने के लिए ट्रांसपोर्ट एवं वितरण की ज़िम्मेदारी सरकार की हो जिससे ज़हरीले दूध, पनीर, दही, ताज़ा मट्ठा, फल, सब्जी से मुक्ति मिले और सभी आवश्यक खाद्य पदार्थ भरपूर मात्रा में शहरों की हर कॉलोनी में मौजूद विशाल सामुदायिक खरीद केंद्रों पर उपलब्ध रहें। हर सामूहिक कृषि फार्म के साथ खेल-कूद एवं मनोरंजन के सामुदायिक केंद्र, स्टेडियम, स्वीमिंग पूल हों जहाँ कृषि श्रमिक स्वास्थ्य वर्धन कर पाएं। स्थानीय स्तर पर ही स्कूल, कॉलेज, विश्व विद्यालय ज़रूरत के मुताबिक़ हो जहाँ हर बच्चा जितना चाहे और जो चाहे पढ़ सके। साथ ही एक विशाल पुस्तकालय हो जहाँ दुनियाभर के अखबार, मैगज़ीन तथा पुस्तकें उपलब्ध हों। हर फार्म के साथ अस्पताल और दवाईयां हर वक़्त उपलब्ध रहें। ये सब सुविधाएँ मुफ़्त हों। कुल मिलाकर शहरी एवं ग्रामीण जीवन का भेद मिटता जाए।

ये सपना नहीं है। ऐसा हो चुका है और आगे भी ये ही होना है, देर से हो या जल्दी हो। दुनिया पूंजीवाद के साथ ख़त्म नहीं होने जा रही, भले उसके टुकड़खोरों को ऐसा लगता हो। जाने कितने सामंतवाद के जिल्ले-इलाही और बादशाह सलामतों के वंशज आज चांदनी चौक के कूचों के नुक्कड़ों पर पान-गुटके बेच रहे हैं। ऐसा होगा, कोई सोच सकता था, सोलहवीं शताब्दी में!! हम सोवियत संघ में देख चुके हैं, कैसे 1917 का हमसे भी पिछड़ा देश जहाँ आधे लोग भूख से मरते थे, कैसे 30 साल में दुनिया का अग्रणी कृषि उत्पादक देश बन गया, जहाँ कोई बे-रोज़गार नहीं था, भीख मांगने वाले नहीं थे, कोई अशिक्षित नहीं था, किसी भी महिला को पेट भरने के लिए अपना शरीर बेचना नहीं पड़ता था। जहाँ आधे क्षेत्रफल में साल भर बर्फ जमी रहती थी, वो देश कैसे कृषि उपज का निर्यातक और दुनियाभर में ज़रूरत मंदों को मदद देने वाला देश बन गया। दरअसल बीच का कोई रास्ता बचा ही नहीं। कृषि का संकट व्यवस्थाजन्य है और वो इस मुनाफ़ाखोर व्यवस्था को चकनाचूर किए बिना हल होने वाला नहीं है। कोई पर्याय नहीं है। ये ही है आगे भविष्य का रास्ता। समाजवादी व्यवस्था और कृषि का सामुहिकीकरण ही किसानों के गले से मुसीबतों का फंदा निकाल सकते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था सड़ चुकी है, बदबू फैला रही है। ये मैला गाड़ी अब चिर विश्राम मांग रही है। छोटी पूंजी को वो काफ़ी दिन तक बर्दाश्त करती रही क्योंकि उसके सामने संकट एक निश्चित अवधि के बाद आता था और सीमित तबाही लाकर चला जाता था। अब ये व्यवस्था आकंठ संकट में डूबी है, संकट अब जाता नहीं, गहरा होता जाता है। संकट असाध्य है, असमाधेय है, इसीलिए सत्ता ने नंगे फासीवाद का आख़री हथियार उठा लिया है। ये वित्तीय पूंजी का युग है जिसमें छोटी पूंजी तो छोड़िए तथाकथित बड़ी पूंजियाँ भी उसका निवाला बन जाने वाली हैं। एकाधिकारी वित्तीय पूंजी की भूख, इसकी मौत से ही शांत होती है। अब इसके पास देने के लिए सिर्फ़ तबाही है और कुछ नहीं। अब ये लोगों को गाड़ियों से कुचलकर ही कुछ दिन जी सकती है। इस कठोर सच्चाई को किसानों को स्वीकार करना पड़ेगा। ‘कोई बीच का रास्ता’ जिसे टटपूंजिया वर्ग हमेशा से ढूंढता आया है अब पूरी तरह बंद हो चुका है। मज़दूरों और किसानों को पूंजी से मुक्ति के इस निर्णायक ऐतिहासिक संघर्ष में उतरना ही पड़ेगा और वो ये इंकलाब ला सकते हैं।