लेनिन की थीसिस ”क्या करें” के आलोक में

November 15, 2022 0 By Yatharth

मजदूर वर्ग की राजनीति चेतना को बढ़ाने के तरीकों के बारे में लेनिनवादी समझ पर एक चर्चा

अजय सिन्हा

लेनिन अपने विख्यात थीसिस के एक अध्याय में (‘जनवाद के लिए सबसे आगे बढ़कर लड़नेवाले के रूप में मजदूर वर्ग’ में) मजदूर वर्ग के बीच राजनीतिक कामकाज करने और उसकी राजनीतिक चेतना बढ़ाने के तौर-तरीकों के संबंध में न सिर्फ पुराने पड़ गये एवं भूला दिये गये मार्क्सवादी शिक्षा व ज्ञान को पुनर्जीवित करते हैं, अपितु कुछ नये सिद्धांतों व नीति को भी प्रस्थापित करते हैं, तथा इस तरह के कामकाज में हमारे बीच व्यापकता में मौजूद कमियों पर विस्तार से प्रकाश डालते हैं। वे लिखते हैं–

”हम देख चुके हैं कि अधिक से अधिक व्यापक राजनीतिक आंदोलन चलाना और इसलिए सर्वांगीण राजनीतिक भंडाफोड़ का संगठन करना गतिविधि का एक बिलकुल जरूरी और सबसे ज्यादा तात्कालिक ढंग से जरूरी कार्यभार है, बशर्ते कि यह गतिविधि सचमुच सामाजिक जनवादी ढंग की हो। परंतु हम इस नतीजे पर केवल इस आधार पर पहुंचे थे कि मजदूर वर्ग को राजनीतिक शिक्षा और राजनीतिक ज्ञान की फौरन जरूरत है। लेकिन यह सवाल को पेश करने का एक बहुत संकुचित ढंग है, कारण कि यह आम तौर पर हर सामाजिक जनवादी आंदोलन के और खास तौर पर वर्तमान काल के रूसी सामाजिक जनवादी आंदोलन के आम जनवादी कार्यभारों को भुला देता है।’’

लेनिन आगे इसके व्यवहारिक पहलू पर अर्थवादियों की मजम्मत करते हुए कहते हैं कि –

”हर आदमी यह मानता है कि मजदूर वर्ग की राजनीतिक चेतना को बढ़ाना जरूरी है। सवाल यह है कि यह काम कैसे किया जाये, इसे करने के लिए क्या आवश्यक है? आर्थिक संघर्ष मजदूरों को केवल मजदूर वर्ग के प्रति सरकार के रवैये से संबंधित सवाल उठाने की “प्रेरणा देता है” और इसलिए हम “आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देने” की चाहे जितनी भी कोशिश करें, इस लक्ष्य की सीमाओं के अंदर रहते हुए हम मजदूरों की राजनीतिक चेतना को कभी नहीं उठा पायेंगे, कारण कि ये सीमाएं बहुत संकुचित हैं।”

फिर वे मेंशेविकों के नेता मार्तीनोव की आलोचना करते हुए लिखते हैं –

”उनका यह विश्वास है कि मजदूरों की राजनीतिक वर्ग चेतना को उनके आर्थिक संघर्ष के अंदर से बढ़ाया जा सकता है, अर्थात इस संघर्ष को एकमात्र (या कम से कम मुख्य प्रारंभिक बिंदु मानकर उसे अपना एकमात्र या कम से कम मुख्य आधार बनाकर) राजनीतिक वर्ग चेतना बढ़ायी जा सकती है। यह दृष्टिकोण बुनियादी तौर पर गलत है।”

ऐसी गलती भारत में कुछ क्रांतिकारी अकसर करते हैं जो लेनिन की इस संबंध में कहीं और दी गयी किसी उक्ति को बिना संदर्भ में समझने की गलती करते हैं। वे मानने लगते हैं कि आर्थिक संघर्ष से ही मजदूर वर्ग की राजनीतिक चेतना पैदा लेती है और आर्थिक संघर्ष से ही राजनीतिक संघर्ष अवश्यंभावी रूप से पैदा लेता है। जबकि लेनिन मानते हैं कि मजदूर वर्ग की राजनीतिक चेतना उसके आर्थिक संघर्ष के अंदर से नहीं बाहर से लायी जा सकती है। लेनिन लिखते हैं कि ”मजदूरों में राजनीतिक वर्ग चेतना बाहर से ही लायी जा सकती है।” वे आगे लिखते हैं कि मजदूरों के अंदर राजनीतिक चेतना ”मजदूरों और मालिकों के संबंधों के क्षेत्र के बाहर से, यानी वह जिस एकमात्र क्षेत्र से आ सकती है वह राज्यसत्ता तथा सरकार के साथ सभी वर्गों तथा स्तरों के संबंधों का क्षेत्र है, सभी वर्गों के आपसी संबंधों का क्षेत्र है।”

इसलिए लेनिन कहते हैं कि मजदूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने के लिए “मजदूरों के बीच जाओ” का नारा उतना सही नहीं है जितना दिखता है। इस नारे के प्रति झुकाव को लेनिन अर्थवाद की तरफ झुकाव मानते थे। वे यह मानते हैं कि अर्थवादी दिमाग केवल ”यह जवाब देकर संतोष” कर लेता है कि ”मजदूरों के बीच जाओ।” इसलिए लेनिन के अनुसार ”मजदूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने के लिए सामाजिक जनवादी कार्यकर्त्ताओं को आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना चाहिए और अपनी सेना की टुकड़ियों को सभी दिशाओं में भेजना चाहिए।” ट्रेड यूनियन राजनीति और कम्युनिस्ट क्रांतिकारी राजनीति के बीच यह एक मुख्य विभाजन रेखा है।

लेनिन यह भी कहते हें कि ”मजदूरों के साथ उसका संपर्क” रहना ही क्रांतिकारी बनने के लिए काफी नहीं है। यही नहीं, लेनिन कहते हैं कि सामाजिक जनवादी राजनीति में पारंगत होने के लिए मजदूरों के विशुद्ध मसलों पर ”परचे निकालना”, यानी ”कारखानों में होनेवाले अनाचारों और पूंजीपतियों के साथ सरकार के पक्षपात और पुलिस के जुल्म की निंदा करना” ही काफी नहीं है। वे लिखते हैं कि ”मजदूरों की सभाओं में जो बहस होती है, वह इन विषयों की सीमा के बाहर कभी नहीं जाती या जाती भी है तो बहुत कम। ऐसा बहुत कम देखने में आता है कि क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास के बारे में, हमारी सरकार की घरेलू तथा वैदेशिक नीति के प्रश्नों के बारे में, रूस तथा यूरोप के आर्थिक विकास की समस्याओं के बारे में और आधुनिक समाज में विभिन्न वर्गों की स्थिति के बारे में भाषणों या वाद-विवादों की तैयारी की जाती है और जहां तक समाज के अन्य वर्गों के साथ सुनियोजित ढंग से संपर्क स्थापित करने और बढ़ाने की बात है, उसके बारे में तो कोई सपने में भी नहीं सोचता। वास्तविकता यह है कि इन अध्ययन मंडलों के अधिकतर सदस्यों की कल्पना के अनुसार आदर्श नेता वह है, जो एक समाजवादी राजनीतिक नेता के रूप में नहीं, बल्कि ट्रेड यूनियन के सचिव के रूप में अधिक काम करता है, क्योंकि हर ट्रेड यूनियन का, मिसाल के लिए, किसी ब्रिटिश ट्रेड यूनियन का सचिव आर्थिक संघर्ष चलाने में हमेशा मजदूरों की मदद करता है, वह कारखानों में होनेवाले अनाचारों का भंडाफोड़ करने में मदद करता है, उन कानूनों तथा पगों के अनौचित्य का पर्दाफाश करता है जिनसे हड़ताल करने और धरना देने की स्वतंत्रता पर आघात होता है, वह मजदूरों को समझाता है कि पंच-अदालत का जज जो स्वयं बुर्जुआ वर्गों से आता है, पक्षपातपूर्ण होता है, आदि, आदि।”

लेकिन लेनिन कहते हैं कि इतना सब करना भी काफी नहीं है। इसलिए वे लिखते हैं कि सामाजिक जनवादी का आदर्श ट्रेड यूनियन का सचिव नहीं, बल्कि एक ऐसा जन नायक होना चाहिए, जिसमें अत्याचार और उत्पीड़न के प्रत्येक उदाहरण से, … ऐसी प्रत्येक घटना का, चाहे वह कितनी ही छोटी क्यों न हो, लाभ उठाकर अपने समाजवादी विश्वासों तथा अपनी जनवादी मांगों को सभी लोगों को समझा सकने और सभी लोगों को सर्वहारा के मुक्ति संग्राम का विश्व ऐतिहासिक महत्व समझा सकने की क्षमता होनी चाहिए।” इसलिए यदि कोई सामाजिक-जनवादी यानी कोई कम्युनिस्ट क्रांतिकारी सचमुच सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक चेतना को सर्वांगीण रूप से विकसित करना आवश्यक समझता है, तो “उसे आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना चाहिए”, ऐसा लेनिन कहते हैं।

लेकिन यह कैसे किया जाये? क्या यह करने के लिए हमारे पास शक्ति है? क्या इस प्रकार का काम करने के लिए हमारे पास कोई आधार मौजूद है? लेनिन इन सवालों को ऐसे उठाते हैं, मानो वह भारत के क्रांतिकारी ग्रुपों और यहां की ठोस परिस्थितियों के बारे में बात कर रहे हों। लेनिन लिखते हैं कि एक सिद्धांतकार, एक प्रचारक, एक आंदोलनकर्ता और एक संगठनकर्ता के रूप में हर क्रांतिकारी को आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना चाहिए, क्योंकि क्रांतिकारियों के सैद्धांतिक काम का लक्ष्य विभिन्न वर्गों की सामाजिक तथा राजनीतिक स्थिति की सभी विशेषताओं का अध्ययन करना ही है। लेनिन कहते हैं कि ऐसे कार्यकर्ता कम हैं जो ”देश के सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन के किसी ऐसे तात्कालिक प्रश्न के संबंध में विशेष रूप से सामग्री” एकत्रित करने में लगते हैं, जिसका उपयोग आबादी के अन्य हिस्सों में भी सामाजिक जनवादी काम करने का साधन” बन सके और उनके क्रांतिकारीकरण का भी औजार बन सके।

लेनिन यहां उपरोक्त ढंग के प्रशिक्षण के अभाव का सवाल भी उठाते हैं। उनका मानना था कि जहां संसद होती है वहां इस ढंग के राजनीतिक प्रशिक्षण का अकसर मौका मिलता है। और इसीलिए संसदीय संघर्षों को पूरी तरह तिलांजलि दे देना कोई क्रांतिकारी काम नहीं है। लेनिन ”आबादी के उन सभी वर्गों के प्रतिनिधियों की सभाएं बुलाने में भी समर्थ” होने की बात करते हैं ”जो किसी सामाजिक जनवादी की बातों को सुनना चाहते हैं।” इसलिए लेनिन कहते हैं कि ”हमारा कर्त्तव्य है कि अपने समाजवादी विश्वासों को एक क्षण के लिए भी नहीं छिपाते हुए हम समस्त जनता के सामने आम जनवादी कार्यभारों की व्याख्या पर जोर दें। ..”वह आदमी सामाजिक जनवादी नहीं है जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि सभी आम जनवादी समस्याओं को उठाने, तीक्ष्ण बनाने और हल करने में उसे और सब लोगों से आगे रहना है।” इसलिए लेनिन कहते हैं कि ”अपने को ‘अग्रदल’ या आगे बढ़ा हुआ दस्ता कहना ही काफी नहीं है; हमें इस तरह काम करना होगा, जिससे अन्य सभी दस्ते हमें देखें और यह मानने के लिए मजबूर हों कि हम सबके आगे-आगे चल रहे हैं।”

यह अर्थवादियों की खास पहचान है कि वे आर्थिक संघर्ष के ‘दस्ते’ को ही राजनीतिक रूप देने की बात करते हैं। लेनिन कहते हैं कि वे आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देना चाहते हैं। वे मजदूरों को राजनीति में खींचना चाहते हैं, परंतु ट्रेड यूनियनवादी राजनीति में, न कि सामाजिक जनवादी राजनीति में। और ट्रेड यूनियनवादी राजनीति क्या है? ट्रेड यूनियनवादी राजनीति इसके सिवाये और कुछ नहीं है कि वह मजदूर वर्ग द्वारा की जाने वाली बुर्जुआ राजनीति है।

लेनिन इस लेख में जनता की क्रियाशीलता को बढ़ाने की क्रांतिकारियों की अत्यधिक चिंता को भी आड़े हाथ लेते है। लेनिन कहते हैं कि ”यदि हम अग्रदल बनना चाहते हैं, तो विरोध-पक्ष के अलग-अलग स्तरों की सक्रिय गतिविधियों का नेतृत्व करना” सीखना होगा। लेनिन लिखते हैं कि ”बल्कि उनका नेतृत्व करना हमारा कर्तव्य है।” लेनिन कहते हैं कि यदि हम सच में कम्युनिस्ट क्रांतिकारी बनना चाहते है, तो हमें विरोध पक्ष के तमाम लोगों को ”यह बात सोचने की प्रेरणा” देना चाहिए कि ”पूरी राजनीतिक व्यवस्था बेकार है।” लेनिन यह भी कहते हैं, और यह बहुत महत्वपूर्ण बात है, कि ”हमें अपनी पार्टी के नेतृत्व में एक सर्वांगीण राजनीतिक संघर्ष इस तरह संगठित करने का काम अपने हाथ में लेना होगा” कि इस संघर्ष को विरोध-पक्ष के सभी हिस्सों से अधिक से अधिक समर्थन मिले।” हमारे पास ऐसे योग्य व्यावहारिक कार्यकर्ता होने चाहिए जो ”सर्वांगीण संघर्ष के प्रत्येक रूप” का नेतृत्व दे सकने में सक्षम हों, और तमाम नाराज लोगों को एक सकारात्मक कार्यक्रम के तहत ला सकें।”

अर्थवादी यह नहीं समझते हैं कि क्रांतिकारी अग्रदल की असल में क्या भूमिका होती है। लेनिन की नजर में क्रांतिकारी अग्रदल की वास्तविक भूमिका मजदूर वर्ग की ट्रेड यूनियनवादी राजनीति को क्रांतिकारी राजनीति के स्तर पर उठा लाने की होती है। जबकि अर्थवादी क्रांतिकारी राजनीति को ट्रेड यूनियनवादी राजनीति के स्तर तक नीचे गिराना चाहता है।

लेनिन आबादी के सभी वर्गों के बीच अपना प्रचार करने और आंदोलन चलाने के लिए पर्याप्त शक्ति होने का प्रश्न गंभीरता से उठाते हैं। लेनिन कहते हैं कि जब हमारे पास शक्ति का अभाव हो तो उस समय यह उचित होगा कि हमें केवल मजदूरों के बीच ही काम करना चाहिए। लेनिन साफ-साफ कहते हैं कि “ऐसे में हमारा सारा कार्यभार मजदूर वर्ग में अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाने का कार्यभार होना चाहिए। लेकिन परिस्थितियां बेहतर हों और हमारे पास काफी संख्या में योग्य कार्यकर्ता हों, शिक्षित वर्गों की नयी पीढ़ी हमारे पास आ रही हो, तब हमें निश्चय ही अन्य सभी वर्गों के बीच भी अपना भंडाफोड़ अभियान तथा प्रचार करना चाहिए। लेकिन इसके लिए हमें यह जानना होगा कि हमसे जुड़ रही शक्तियों का कैसे उपयोग किया जाये और उन्हें उचित काम कैसे दिया जाये, खासकर तब जब हमारे पास काफी लोग हों।”

लेनिन प्रश्न करते हैं, क्या आबादी के सभी वर्गों के बीच काम करने का आधार है? हम खास भारत की बात करें तो फासीवाद के उदय और इसके हमलों ने इसके लिए उचित आधार प्रदान किया है जो पहले से कहीं बेहतर आधार है और हमें सभी वर्गों के बीच काम करने के लिए पहले की तुलना में ज्यादा अवसर प्रदान कर रहा है। लेनिन के शब्दों में, जिन लोगों को यह नहीं दिखायी देता, वे अपनी चेतना के मामले में जनता की स्वयंस्फूर्त जागृति से भी बहुत पिछड़े हुए हैं। फासीवादी शासन जैसे-जैसे असहनीय होता जा रहा है वैसे-वैसे हमारा आंदोलन फासीवादियों के द्वारा दबाये और प्रताड़ित किये गये सभी वर्गों में समर्थन हासिल करता जाएगा। दूसरी तरफ, फासीवादी निरंकुशता का आज न कल पतन निश्चित है और मजदूर वर्ग और उसकी हरावल को इसका वास्तविक श्रेय लेने से हिचकिचाना नहीं चाहिए। हमें इसे सुनिश्चित करना होगा कि ”हमारा काम असंतोष की प्रत्येक अभिव्यक्ति का इस्तेमाल करना और यहां तक कि प्रारंभिक विरोध के भी प्रत्येक कण को एकत्रित करके उसका सर्वोत्तम उपयोग करना है।” आज के फासीवादी दौर में वस्तुतः आबादी का एक भी ऐसा वर्ग नहीं है जिसमें अधिकारों के हो रहे हनन और ऐसे न जाने कितने ही अत्याचार से चौतरफा असंतोष और आक्रोश व्याप्त है। इसलिए यह जरूरी है कि उन सब तक हमारी आवाज की पहुंच कायम हो। इस काम का ठोस रूप निस्संदेह  राजनीतिक भंडाफोड़ है, व्यापक अर्थों और रूपों वाला राजनीतिक एवं वैचारिक भंडाफोड़, जो क्रमश: एक राजनीतिक आंदोलन का रूप लेता जाएगा।

राजनीतिक भंडाफोड़ के संबंध में लेनिन की शिक्षा हमें बताती है कि भंडाफोड़ करनेवाली आवाजें यदि आज कमजोर हैं तो इसका सर्वप्रमुख कारण किसी उचित मंच का अभाव है, न कि कोई और कारण। यही कारण है कि एक तरफ बोलनेवालों को जनता में कोई सुनने वाला नहीं दिखाई देता है, तो दूसरी तरफ, सुनने को इच्छुक लोगों को सही से भंडाफोड़ करने और बोलने वाला नहीं दिखाई देता है। इसलिए एक उचित मंच या माध्यम का होना जरूरी है। समुचित मंच (जिसके बारे में ठोस बात करना अभी इस लेख में संभव नहीं है) के माध्यम से शुरू किया जाने वाला भंडाफोड़ आंदोलन जितना व्यापक और शक्तिशाली होगा, वह समाज के सभी शोषित व उत्पीड़ित वर्गों के लोगों को उतनी तेजी से अपनी ओर आकर्षित करेगा। इसलिए राजनीतिक भंडाफोड़ अपने आप में मौजूदा व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने की ताकत रखता है और उसका एक शक्तिशाली साधन है।

लेनिन भंडाफोड़ आंदोलन के वर्ग स्वरूप का सवाल भी उठाते है औेर उत्तर देते हैंकि यह हमारे आंदोलन से उठने वाले सारे प्रश्नों के स्पष्टीकरण के तरीके से जुड़ा है, और इस बात पर निर्भर करता है  कि ऐसे प्रश्नों का सच्ची कम्युनिस्ट भावना के साथ और मार्क्सवाद के ज्ञान के आधार पर दिया जाता है या नहीं। इसलिए वे इसका संचालन करने वाली शक्ति का प्रश्न भी उठाते हैं। लेनिन स्पष्टता से कहते हैं कि इन सबका संचालन एक ऐसी पार्टी ही कर सकती है जो सर्वहारा वर्ग के सदर मुकाम के रूप में पेशेवर क्रांतिकारियों से बनी होगी, जिसके जिम्मे सर्वहारा वर्ग को शिक्षित करने से लेकर उसे वर्ग-युद्ध की कला में निपुण करने का काम है, खासकर समाज में पहले से संचित ज्ञान और साथ ही नये अनुभवों द्वारा प्राप्त ज्ञान के आधार पर।

लेनिन यह साफ-साफ कहते हैं कि यह अर्थवादी और समझौतावादी लोगों का ही गुण है कि वे अपने पिछड़ेपन का दोष मजदूरों के मत्थे मढ़ते हैं और वे स्वयं अपनी सक्रियता व शक्ति के अभाव को यह कहकर उचित ठहराते हैं कि मजदूरों में संगठन व चेतना की कमी है। जब अर्थवादी यह कहते हैं कि ”इस तरह के संघर्ष के लिए मजदूरों को और शक्ति बटोरना होगा” तो लेनिन इसे अर्थवादियों का जुमला घोषित करते हुए कहते हैं कि इसका अर्थ व्यर्थ के शब्द-जाल में मजदूर वर्ग को फंसाये रखना है, क्योंकि यह वास्तव में इस तरह के संघर्ष चलाने के लिए जो ज्ञान प्राप्त करना है वह ऐसी कोई पेचीदी प्रक्रिया नहीं है जिसे समझना वास्तव में इतना अधिक कठिन हो।

लेनिन यह भी कहते हैं कि सामाजिक जनवादियों के लिए गैर सर्वहारा वर्गों में से समर्थक और प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष सहयोगी पाने की समस्या का हल प्रधानतया इस बात से निकलेगा कि खुद सर्वहारा वर्ग के अंदर प्रचार कार्य किस तरह से चलाया जाता है। वे कहते हैं कि यह अच्छी बात नहीं है कि कई बार कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की संगठन करने की चेतना मजदूरों की स्वयंस्फूर्त चेतना से भी पिछड़ जाती है!

इस तरह लेनिन मजदूर वर्ग की राजनीतिक चेतना से संबंधित सभी पुरानी आम तथा अर्थवादी मान्यताओं और चलन को ध्वस्त कर देते हैं, और इसके बारे में पुराने पड़ गये और अकसर भूला दिये गये मार्क्सवादी ज्ञान व शिक्षा को एक नयी आधारशिला पर स्थापित करते हैं।