28 सितंबर                                                       प्रथम इंटरनेशनल के स्‍थापना दिवस के अवसर पर

28 सितंबर प्रथम इंटरनेशनल के स्‍थापना दिवस के अवसर पर

September 14, 2021 0 By Yatharth

शेखर

“मजदूर वर्ग की मुक्ति स्‍वयं मजदूर वर्गों द्वारा हासिल की जानी चाहिए” – ये शब्‍द प्रथम इंटरनेशनल की आम नियमावली बनाते समय मजदूर वर्ग के महानतम नेता और शिक्षक कार्ल मार्क्‍स ने लिखे थे। मजदूर वर्ग के मुक्ति आंदोलन को जिन बेहद जरूरी बातों को ध्‍यान में रखना चाहिए उनमें से यह सबसे प्रमुख बात है जिसे मार्क्‍स ने प्रथम इंटरनेशनल के गठन के समय कही थी। इन शब्‍दों का महत्‍व आज भी बरकरार है और इसकी अनुगूंज आज भी उतनी ही प्रेरणादायक है जितनी उस समय। मजदूर वर्ग की राजनीति में सक्रिय अगुवा लोगों के लिए यह काफी ध्‍यान देने योग्‍य बात है। इसमें सबसे खास महत्‍व की बात यह है कि मजदूरों को ये शब्‍द अपनी मुक्ति के लिए किसी और की दया पर निर्भर होने के बदले खुद सक्रिय होने के लिए प्रेरित करते हैं।

28 सितंबर 1864 को लंदन के सेंट मार्टिन हॉल में प्रथम इंटरनेशनल का गठन हुआ था। इसका सर्वाधिक महत्‍व इस बात में निहित है कि इसने अलग-अलग पंथों में विभक्‍त मजदूर वर्ग को एक मंच और एक संगठन में संगठित कर दिया और इससे मजदूर वर्ग बहुत जल्‍द ही एक व्‍यवहारिक राजनैतिक ताकत बन गया। मार्क्‍स ने इसके माध्‍यम से उचित ही मजदूर वर्ग के वास्‍तविक तथा व्‍यवहारिक आंदोलनों पर जोर दिया था। यह जल्‍द ही मजदूर वर्ग के अंतराराष्‍ट्रीय भाईचारे की जीती-जागती मिशाल बन गया, मजदूरो के वर्ग सहकार का एक हथियार बन गया। इसके लिए इंटरनेशनल ने बड़े पैमाने पर हड़तालों में भाग लिया और उनकी सफलता के लिए सभी देशों के मजदूरों के सहयोग को सुनिश्चित करने का काम किया। परिणाम स्‍वरूप सभी देशों के अगुवा मजदूरों और क्रांतिकारी तत्‍वों को इसने आकर्षित किया।

प्रथम इंटरनेशनल ने अंतरारष्‍ट्रीयतावाद का परचम पूरे जोर-शोर से लहराया। अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर हासिल भाईचारा और वर्ग सहयोग के बल पर ही इसने उस समय के सभी देशों के शासक वर्गों की आपराधि‍क विदेश नीति का विरोध और राष्‍ट्रीय मु‍क्ति आंदोलनों का भी साथ दिया। इसने अमेरिका में काले लोगों के साथ किये जा रहे उत्‍पीड़न का विरोध किया और साथ में दास प्रथा के उन्‍मूलन की मांग की और उसके लिए चल रही लड़ाई का समर्थन किया। इन सबका वैचारिक तथा राजनीतिक प्रभाव पूरी दुनिया में अत्‍यधिक पड़ा, जबकि इंटरनेशनल की सांगठनिक पहुंच तुलनात्‍मक रूप से बहुत अधिक नहीं थी। हम इससे आज भी सीख सकते हैं।

इस तरह, मार्क्‍स के वैचारिक व राजनीतिक निर्देशन में इंटरनेशनल ने तमाम विजातीय प्रवृतियों तथा पंथों को एक-एक कर के शिकस्‍त दी। यह बहुत महत्‍वपूर्ण बात है कि इंटरनेशनल में बकुनिनपंथियों और प्रुदोपंथियों की भरमार या बहुमत होते हुए भी मार्क्‍स और एंगेल्‍स ने इसमें सफलता पाई थी। हम सभी जानते हैं कि पेरिस कम्‍यून कायम करने वाले वीर कम्‍युनार्डों में सबसे अधिक‍ और आगे बकुनिनपंथी अराजकतावादी और प्रूदोंपंथी ही थे, लेकिन वैचारिक व राजनैतिक रूप से देखें तो वह सीधे-सीधे मार्क्‍स-एंगेल्‍स द्वारा ऐसे तमाम विजातीय पंथों पर हासिल विजयों की बौद्धिक संतान था, जबकि इंटरनेशनल की पेरिस कम्‍यून कायम करने में या इसकी व्‍यवाहारिक विजयों में कोई प्रत्‍यक्ष भुमिका नहीं थी। हां, इसने पेरिस कम्‍यून को हर संभव मदद की और जरूरी व्‍यवहारिक सलाहें (खासकर मार्क्‍स के माध्‍यम से) भी दीं, जिनमें से अधिकांश को ‘स्‍वाभाविक’ रूप से  माना गया। जिन्‍हें नहीं माना गया, वे पेरिस कम्‍यून के पतन का कारण बनीं। इनमें से तीन का‍ संक्षेप में नाम लिया जा सकता है। एक, किसानों का समर्थन हासिल करने तक तथा पूरे फ्रांस में क्रांति को फैलाने तक इंतजार करना, पेरिस पर कब्‍जे के बाद तुरंत वर्साय पर कब्‍जे के लिए कूच करना और केंद्रीय बैंक ‘बैंक ऑफ फ्रांस’ पर कब्‍जा कर उसे अधिग्रहित करना। लेकिन, तमाम कमियों के बावजूद एक बार जब वीर कम्‍युनार्डों ने कदम आगे बढ़ा दिया तो, मार्क्‍स के निर्देशन में इंटरनेशनल ने बिना किसी हिचक के हर संभव तरीके से इसकी मदद की, खासकर के तब जब इसके पतन के बाद वीर कम्‍युनार्डों के साथ वर्साय के शासक थियेर ने खून की होली खेली।

मार्क्‍स और एंगेल्‍स के नेतृत्‍व में इंटरनेशनल इतना प्रतिष्ठित और ताकतवर हो चुका था कि सभी देशों के शासक वर्ग इसके बारे में मनगढंत किस्‍से बनाकर इसे बदनाम करने के द्वारा इससे पैदा होने वाले भय को भगाने की कोशिश किया करते थे। इसकी ऐसी प्रतिष्‍ठा के ही कारण अराजकतावादी बकुनिन ने इस पर षडयंत्रों के जरिये अपना प्रभुत्‍व कायम करने और इसे कब्‍जाने की लगातार असफल कोशिश की। पेरिस कम्‍यून के पतन के बाद शुरू हुई प्रतिक्रिया के दौर में आई शिथिलता के दौरान इसीलिए मार्क्‍स ने अपने विशेष अधिकार का प्रयोग करते हुए इसे भंग भी कर दिया। जाहिर है, तब तक कार्ल मार्क्‍स और प्रथम इंटरनेशनल का नाम एक दूसरे का पर्याय बन चुके थे।

इस तरह एकमात्र वास्‍तविक आंदोलनों के मैदान में ही मार्क्‍स–एंगेल्‍स के विचारों की पुष्टि हुई और उनकी ग्राहयता बढ़ी है। इससे भी हमारे लिए महान सबक प्राप्‍त होते हैं। इसलिए मजदूर वर्ग के बीच में मार्क्‍स के विचारों के प्रभाव के विस्‍तार में प्रथम इंटरनेशनल का बड़ा योगदान था। विजातीय पंथों से मार्क्‍सवाद का पूर्ण अलगाव अब एक ऐतिहासिक तथ्‍य बन चुका था और मजदूर वर्ग के आंदोलन के हर विकास के साथ मार्क्‍सवादी उसूलों की स्‍वीकारोक्ति भी मजदूर वर्ग में बढ़ती गई। इसमें सबसे बड़ी भूमिका इस बात की थी कि व्‍यवाहारिक मजदूर आंदोलन के ठोस अनुभवों के आलोक में और उससे जोड़ते हुए मार्क्‍स के समाजवादी विचारों का प्रचार-प्रसार किया गया। और, यही कारण था कि जल्‍द ही समाजवाद के बारे में मार्क्‍स की विचारधारा पंथवादी समाजवादी विचारों से बिल्‍कुल अलग एक वैज्ञानिक विचारधारा के रूप में, मानव समाज के ज्ञान के अब तक के प्रशस्‍त मार्ग के विकास की एक अहम मंजिल और कड़ी के रूप में स्‍वीकार हुई और प्रतिष्‍ठि‍त हुई।

प्रथम इंटरनेशनल के उदघाटन भाषण में मार्क्‍स ने मजदूर वर्ग को राजनीतिक सत्‍ता हासिल करने की सलाह दी थी। उन्‍होंने लिखा था –  ” …..1848 से 1864 के बीच की अवधि के अनुभव ने बिना किसी संदेह के यह सिद्ध कर दिया है कि सहकारी श्रम एक सिद्धांत रूप में चाहे कितना ही उत्‍तम क्‍यों न हो, व्‍यवहार में कितना ही उपयोगी क्‍यों न हो, जब तक उसे अलग-अलग मेहनतकशों के अनियत प्रयत्‍नों के संकीर्ण दायरे से बाहर नहीं लाया जाएगा वह इजारेदारी की द्रुत वृद्धि को रोकने, जनसाधारण को मुक्‍त करने, यहां तक कि उनकी गरीबी के बोझ में कोई प्रत्‍यक्ष कमी लाने में कभी समर्थ नहीं हो सकेगा। संभवत: ठीक यही करण है कि सदाशयी अभिजात लोग, पूंजीवादी वाचाल-परोपकारी, यहां तक कि प्रखर अर्थशास्‍त्री भी… सब के सब घृणास्‍पद तरीके से तुरंत ठीक उसी सहकारी श्रम के पक्ष में हो गये जिसे उन्‍होंने कभी स्वप्‍नद्रष्‍टा का कल्‍पनाविलास बताकर, समाजवादी ईश्‍वरनिंदा बताकर आरंभ से ही नष्‍ट करने का विफल यत्‍न किया था। श्रमिक‍ जन साधारण की मुक्ति के लिए सहकारी श्रम को राष्‍ट्रीय पैमाने और फलस्‍वरूप राष्‍ट्रीय साधनों के आधार पर विकसित किया जाना चाहिए। परंतु, भूमि के स्‍वामी तथा पूंजी के मालिक अपनी आर्थिक इजारेदारी की रक्षा करने तथा उन्‍हें बरकरार रखने के लिए सदैव अपने राजनीतिक विशेषाधिकारों का उपयोग करते रहेंगे। इसीलिए, श्रम की मुक्ति को बढ़ावा देना तो दूर वे उसकी राह में हर प्रकार के बाधा पैदा करते रहेंगे ….. इसीलिए राजनीतिक सत्‍ता हासिल करना मजदूर वर्ग का महान कर्तव्‍य बन गया है।”

मार्क्‍स ने उपरोक्‍त निष्‍कर्ष पूंजीवादी उत्‍पादन व्‍यवस्‍था के वैज्ञानिक विश्‍लेषण के आधार पर निकाले थे यह सही है, लेकिन इंटरनेशनल के उदघाटन भाषण में कही ये बातें महज वैज्ञानिक विश्‍लेषण का निष्‍कर्ष भर नहीं थीं, अपतिु ठोस और वास्‍तविक आंदोलन के धरातल पर प्राप्‍त अनुभवों से जोड़ कर पेश की हुई बातें थीं। और यही इसका सवार्धिक महत्‍व है। इसके इस तरह पेश किये जाने के महत्‍व को समझना चाहिए। मार्क्‍स यह मानते थे कि मजदूर आंदोलन को वास्‍तविक बातों और अनुभवों पर आधारित होना चाहिए, न कि मनगढ़ंत और बनी-बनायी बातों के आधार पर या भव्‍य दिखने वाली ‘अच्‍छी बातों’ के आधार पर। यह एक बहुत बड़ा सबक है जिसकी जरूरत आज भी है, खासकर उनके लिए जो मजदूरों के बीच क्रांतिकारी करने या संगठन बनाने में जुटे हैं।

इतिहास में इंटरनेशनल का स्थान और इसका व्यवस्थित क्रम

पूंजीपति वर्ग जब भी और जहां भी अस्तित्‍व में आता है और खासकर जब वह सत्‍ता की लड़ाई में जीत हासिल कर सत्‍तासीन होता है, तो वह पूरी दुनिया को तेजी से अपनी इमेज में ढालने का यत्‍न करता है और ढालना शुरू कर  देता है। शुरू से लेकर अभी तक पूंजीवाद के विकास के इतिहास पर गौर करें, तो हम पाते हैं कि पूंजी के उतरोत्‍तर विस्‍तार और विकास की जरूरतों ने उत्‍पादन साधनों में सतत क्रांति पैदा की है। नई मशीनों ने उत्‍पादन को काफी बढ़ा दिया। उत्‍पादन के औजार लगातार बदलते गये।

पूंजीपति वर्ग ने बिखरी हुई उत्‍पादक शक्तियों का हमेशा से ही एकत्रित करने और एकसूत्र में पिरोने का काम किया है। तैयार मालों के बाजार और कच्‍चे मालों की खरीद के लिए इसने दुनिया के कोने-कोने की खाक छानी है जिससे वाणिज्‍य और विश्‍व व्‍यापार का विश्‍व के स्‍तर पर विकास हुआ और परिणामस्‍वरूप वास्‍तविक जीवन की नई जरूरतों और अवस्‍थाओं ने मिलकर देशों के बीच के राष्‍ट्रीय अलगाव को भी खत्‍म कर दिया। साम्राज्‍यवाद और इजारेदारी के विकास ने केंद्रीकरण की प्रक्रिया को तीखे रूप से तेज करते हुए इसे और पुख्‍ता किया। आज पूंजी और खासकर वित्‍तीय पूंजी का अंतरराष्‍ट्रीयकरण हो चुका है और इसी के साथ पूरी दुनिया के मजदूर विश्‍व स्‍तर पर एक दूसरे से सभी मायनों में अभिन्‍न रूप से जुड़ गये हैं। राष्‍ट्र की चौहद्दी आज कोई मायने नहीं रखती है। हालांकि मार्क्‍स के समय में इसका इतना विकास नहीं हुआ था, लेकिन फिर भी अंतरराष्‍ट्रीयता की भावना मजदूर वर्ग के प्रादुर्भाव (जन्‍म) के साथ साथ ही प्रकट हो चुकी थी और उसको समेटने तथा विकसित करने के लिए मार्क्‍स शुरू से ही संकल्‍पबद्ध थे।

कम्‍युनिस्‍ट लीग, मजदूर वर्ग की प्रथम पार्टी

हम पाते हैं कि 1847 में कम्‍युनिस्‍ट लीग की स्‍थापना होती है जिसमें अंतरराष्‍ट्रीयतावाद की भावना को ठोस रूप व आकार दिया जाता है। मजदूर वर्ग की यह प्रथम पार्टी थी जिसमें जर्मनी सहित कई देशों के मजदूर शामिल थे। मार्क्‍स पत्राचार के माध्‍यम से विभिन्‍न देशों के मजदूर वर्ग के अगुआ तत्‍वों से संपर्क बनाये रखते थे। कम्‍युनिस्‍ट लीग ने ही मार्क्‍स और एंगेल्‍स को संयुक्‍त रूप से एक विस्‍तृत सैद्धांतिक तथा व्‍यवहारिक कार्यक्रम (कम्‍युनिस्‍ट मैनीफेस्‍टो या घोषणापत्र) तैयार करने की जिम्‍मेवारी सौंपी थी। हम पाते हैं कि इस कम्‍युनिस्‍ट घोषणापत्र में पहली बार मार्क्स-एंगेल्‍स द्वारा अंतरराष्‍ट्रीयतावाद की अवधारणा व इसके महत्‍व की विशद विवेचना की गई और ”दुनिया के मजदूरो, एक हो” के नारे का शंखनाद मजदूर वर्ग की पार्टी कम्‍युनिस्‍ट लीग के मंच से किया गया। इसी घोषणा पत्र में राजनीतिक सत्‍ता पर कब्‍जा करने को मजदूर वर्ग का ध्‍येय और एजेंडा बनाने की घोषणा भी की गई।

1848 में जर्मनी और फ्रांस में पूंजीवादी (जनवादी) क्रांति का आगाज होता है। जहां जर्मनी में सामंती तथा प्रतिक्रियावादी शक्तियों का पलड़ा भारी था और क्रांति पराजित होती है, वहीं फ्रांस में विजयी पूंजीपति वर्ग ने संग-संग उठ खड़ा हुए हथियारबंद सर्वहारा वर्ग को पराजित करने के लिए क्रांति की जीत के बाद भी सांमती ताकतों से समझौता कर लेता है और उसे सत्‍ता भी सौंप देता है। इस तरह दोनों देशों में क्रांति की हार हो जाती है। यूरोप में क्रांति असफल हो जाती है। ध्‍यान देने वाली बात यह है कि इन दोनों पूंजीवादी जनवादी क्रांतियों में कम्‍युनिस्‍ट लीग के नेतृत्‍व में मजदूर वर्ग ने बढ़-चढ़ कर हिस्‍सा लिया था।

इसी के साथ हम पाते हैं कि प्रतिक्रिया का एक लंबा दौर आता है और कम्‍युनिस्‍ट लीग भी बिखर कर विलोपित हो जाता है। मजदूर वर्ग की प्रथम सं‍गठित चिनगारी बुझ जाती है। लेकिन, दरअसल यह न तो खत्‍म हुई, न ही बुझी। यह क्रांति की हार की राख के नीचे दब गई थी। जब 1860 के दशक के आगमण के साथ यह प्रतिक्रियावादी दौर खत्‍म होने लगता है और क्रांतिकारी ताकतों की हलचल और सरगर्मियां तेज होने लगती हैं, तो मजदूर वर्ग की यह चिनगारी फिर से धधक उठती है। अनुकूल परिस्थितियों में यह चिनगारी आग की लपट के रूप में पुन: सतह पर प्रकट हो जाती है। मजदूर वर्ग राजनीतिक मैदान में पुन: आने लगता है और विभिन्‍न देशों में इसके संगठन बनने लगते हैं। इस तरह 1860 के दशक की शुरूआत में ही मजदूर वर्गीय अंतराराष्‍ट्रीयतावाद फिर से राजनीतिक रंगमंच पर आसीन हो अपनी क्रांतिकारी छटा बिखेरने लगा था। प्रथम इंटरनेशनल के गठन के ठीक पूर्व की संक्षिप्‍त में यही कहानी है।

हम कह सकते हैं, कम्‍युनिस्‍ट लीग का बनना, कम्‍युनिस्‍ट घोषणापत्र का लिखा जाना व तैयार होना और जर्मन तथा फ्रांसिसी क्रांति में कम्‍युनिस्‍ट लीग के नेतृत्‍व में मजदूर वर्ग की महती भूमिका आदि प्रथम इंटरनेशनल की पूर्वपीठिका थे।  

हम जिसे प्रथम इंटरनेशनल का स्‍थापना दिवस कहते हैं उस दिन दरअसल लंदन स्थित सेंट मार्टिन हॉल में ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, बेल्जियम, पौलेंड तथा इटली के अगुवा मजदूर प्रतिनिधियों की एक अंतरराष्‍ट्रीय सभा हुई थी जिसमें अंतर्राष्‍ट्रीय मजदूर संघ की स्‍थापना हुई। यही आगे चलकर प्रथम इंटरनेशनल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मार्क्‍स इसके जेनरल कौंसिल (शुरू-शुरू में इसे सेंट्रल कौंसिल कहा जाता था) के सदस्‍य चुने गये। उन्‍हें ही इसके उदघाटन भाषण और संघ की नियमावली का मसविदा तैयार करने को कहा गया था। ज्ञातव्‍य हो कि एंगेल्‍स इस सभा में मौजूद नहीं थे।

प्रथम इंटरनेशनल में मजदूर वर्ग के बीच सक्रिय लगभग सभी तरह के पंथों के अनुयायी (जैसे इंगलैंड के चार्टिस्‍टवादी, ट्रेड युनियनवादी, प्रूदोपंथी, मैजिनी के अनुयायी आदि‍) शामिल हुए थे। सभी के बीच गहरे मतभेद थे जो कभी हल नही हुए, लेकिन मुख्‍य बात यह थी कि ये उस समय के मजदूर वर्ग में कार्यरत वास्‍तविक ताकते थीं। मार्क्‍स के प्रयासों ने इन सबको एक मंच पर ला खड़ा किया था जो अपने आप में एक विश्‍व ऐतिहासिक महत्‍व की बात थी और है। बाद में जब एंगेल्‍स ने मार्क्‍स को पत्र लिखकर अपनी इस भावना से अवगत कराया कि ‘यह अच्‍छी चीज है कि हम फिर उनलोगों के साथ मिला रहे हैं जो अपने वर्ग का प्रतिनिधित्‍व करते हैं और अंतत: यह सबसे महत्‍वपूर्ण चीज है’ तो यह और भी साफ हो गया कि मार्क्‍स की यह कोशिश कितने महत्‍व की चीज थी।

मार्क्‍स का प्रथम इंटरनेशनल में हालांकि सबसे कठिन काम था कम्‍युनिस्‍ट घोषणापत्र में प्रतिपादित विचारों के लिए संघर्ष करना और उन्‍हें ग्राह्य तथा स्‍वीकार बनाना, क्‍योंकि मजदूर वर्ग का भविष्‍य इन्‍हीं विचारों पर निर्भर करता था। विजातीय बहुरंगी विचारों वाले लोगों के साथ एक ही संगठन में काम करना, उनके साथ-सा‍थ चलना और साथ ही साथ उनके विचारों के खिलाफ संघर्ष करना, यह था इंटरनेशनल में मार्क्‍स द्वारा किया जाने वाला कष्‍टसाध्‍य कार्यभार जिसे मार्क्‍स ने बखूबी कर दिखाया। इसीलिए हम पाते हैं कि प्रथम इंटरनेशनल के हर क्रिया कलाप पर तथा इसके हर लिखित दस्‍तावेज में मार्क्‍स के विचारों व प्रतिभा की छाप अंकित है। इस काम को करने में हुई कठिनाई को समझने में हमें यह बात मदद देगी कि एंगेल्‍स इंटरनेशनल में सदेह उपस्थित नहीं थे। बावजूद इसके मार्क्‍स ने अकेले यह कठिन व दुष्‍कार कार्य संपन्‍न किया। यह अपने आप में गर्व करने की बात है। सदस्‍यता अभियान चलाने से लेकर छापाखाना स्‍थापित करने और हड़तालों के लिए पूरी दुनिया के पूंजीवादी देशों के मजदूरों के बीच आर्थिक सहायता की मुहिम चलाने तक मार्क्‍स ने सभी काम पूरी सफलता से किये।

ज्ञातव्‍य है कि मार्क्‍स द्वारा तैयार किये गये उदघाटन भाषण को इंटरनेशनल की जेनरल कौंसिल ने स्‍वीकृति दे दी थी जो कि मार्क्‍स के लिए शुरूआत में ही मिली एक बड़ी जीत का परिचायक थी। इस भाषण में मूलत: वही बातें प्रतिपादित की गई थीं जो कि कम्‍युनिस्‍ट घोषणापत्र में लिखी हुई थीं; जैसे कि मजदूर वर्ग के द्वारा राजनीतिक सत्‍ता पर विजय प्राप्‍त करने की बात; वै‍ज्ञानिक समाजवाद के बारे में विचार; मजदूर वर्ग के राजनीतिक प्रभुत्‍व आदि की बातें; मजदूर वर्ग के राजनीतिक संगठन की जरूरत की विवेचना; मजदूर वर्ग के संगठन के लिए क्रांतिकारी सिद्धांत की जरूरत और उसके महत्‍व आदि की बातें। मुख्‍य रूप से यह कहा गया है कि ‘राजनीतिक सत्‍ता हासिल करना मजदूर वर्ग का महान कर्तव्‍य बन गया है।’

मार्क्‍स ने बताया कि ‘मजदूरों के पास सफलता प्राप्‍त करने का एक महान तत्‍व है, और वह है संख्‍या। लेकिन संख्‍या तभी निर्णायक होती है जब जन साधारण संगठन में एकबद्ध हों और क्रांतिकारी सिद्धांत उनका पथ आलोकित करता हो तथा ज्ञान उनका नेतृत्‍व करता हो।’

लासालपंथ से संघर्ष

ज्ञातव्‍य है कि जर्मनी का सबसे बड़ा और सबसे क्रियाशील मजदूर संगठन आम जर्मन मजदूर संगठन था जो कि लासालवादी था। इसीलिए हम पाते हैं कि मार्क्‍स-एंगेल्‍स को लासालपंथ के खिलाफ कड़ा और निर्मम संघर्ष करना पड़ा। लासालवाद से संघर्ष के दौरान ही मार्क्‍स एक स्‍वतंत्र मजदूर पार्टी के गठन की आवश्‍यकता पर बल देते हैं और सर्वहारा वर्ग के संघर्ष की कुछेक कार्यनीतियों का भी खुलासा करते हैं। मार्क्‍स कहते हैं कि मजदूर वर्ग की भूमिका पूंजीपति वर्ग के महज एक उपांग की भूमिका नहीं हो सकती है जैसा कि लासाल समझते थे। इसलिए मार्क्‍स मजदूर वर्ग की एक स्‍वतंत्र पार्टी की आवश्‍यकता का प्रश्‍न उठाते हुए कहते हैं कि ‘मजदूर वर्ग की पार्टी को हमेशा अपनी स्‍वतंत्रता बरकरार रखनी चाहिए और पूंजीपति वर्ग का पिछलग्‍गू नहीं बनना चाहिए।’ हमें यह पता होना चाहिए कि लासाल प्रशा के शासक बिस्‍मार्क के करीबी थे। यही नहीं, विचारों व राजनीति में भी वे उनके बेहद करीबी थे। मार्क्‍स ने बार-बार मजदूरों को इस बारे में चेताया था। लासाल की मुख्‍य और बड़ी गलती यह थी कि वे प्रतिक्रियावादी भूधारी अभिजात वर्ग के शासन तंत्र, जिसे तत्‍कालीन जर्मनी में युंकरशाही कहते थे, के साथ (और उदार पूंजीपति वर्ग के विरूद्ध) समझौते करने के हिमायती थे और इस कारण बार-बार मार्क्‍स को इसके विरूद्ध जर्मन मजदूर वर्ग को चेतावनी जारी करनी पड़ी। लासाल मजदूरो की रक्षा, सार्विक मताधिकार तथा ऐसे ही अन्‍य सुविधाओं व लाभों, जिन्‍हें बिस्‍मार्क ने प्रदान किये थे, के मद्देनजर सर्वहारा वर्ग की ‘युंकरशाही सरकार’ के साथ सांठगांठ की पैरवी करते थे, जिसका अर्थ यह था कि सर्वहारा वर्ग बोनापार्तवादी शासन के साथ सहयोग करे और प्रतिक्रियावाद को मजबूत बनाने में मदद करे। मार्क्‍स का मानना था कि लासाल की यह नीति मजदूर वर्ग की मुक्ति के विरूद्ध थी और उसके गुलामी के बंधनों को और भी मजबूत बनाने वाल नीति थी। यह सच है कि बिस्‍मार्क ने मजदूरों को सार्विक मताधिकार प्रदान किया था, लेकिन मार्क्‍स बताते हैं कि इससे मजदूर वर्ग के दु:खदर्द का अंत नहीं हो जाएगा, बल्कि यह एक फंदे की तरह है जो मजदूर वर्ग के गले में हमेशा लटकता रहेगा, जब तक कि मजदूर पूंजी के जुए को उतार नहीं फेंकते हैं।

लासाल की दूसरी बड़ी गलती यह थी कि वे औद्योगिक मजदूर वर्ग के बहाने पूंजीपति वर्ग पर तो हमला करते थे, लेकिन ग्रामीण सर्वहारा का शोषण करने वाले युंकरो और इसके समर्थकों के खिलाफ कुछ भी नहीं बालते थे। मार्क्‍स-एंगेल्‍स ने इसे नीचतापूर्ण चुप्‍पी कहा है। लासालपंथ के खिलाफ मार्क्‍स-एंगेल्‍स के संघर्ष का यह नतीजा निकला कि लासालपंथी मजदूर संगठन प्रथम इंटरनेशनल के शुरूआती जीवन काल में ही समाप्‍त हो जाता है और फिर 1869 में सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी का गठन होता है। इसे उचित ही प्रथम इंटरनेशनल की एक बड़ी जीत माना जाता है।

हर तरह के उत्‍पीड़न के विरूद्ध संघर्ष की नीति

प्रथम इंटरनेशनल ने शोषितों-उत्‍पीड़ि‍तों के आंदोलन के प्रति बेरोकटोक समर्थन की नीति अपनाई। मार्क्‍स ने यह हमेशा माना और इंटरनेशनल ने इसका अनुमोदन किया कि अगर मजदूर वर्ग किसी भी तरह के उत्‍पीड़न का समर्थन करता है, तो वह अपने गुलामी के बंधनों को ही मजबूत बनाता है। अगर मजदूर वर्ग अपनी मुक्ति का रास्‍ता प्रशस्‍त करना चाहता है तो उसे हर तरह के उत्‍पीड़न का विरोध करना होगा। यह प्रथम इंटरनेशनल की एक महत्‍वपूर्ण क्रांतिकारी अवस्थिति थी जिस पर उचित ही अत्‍यधिक गर्व किया जा सकता है और इसमें मार्क्‍स की भूमिका सर्वोपरि थी। मजदूर वर्ग अपनी विरासत पर यह सोचकर फक्र कर सकता है कि अमेरिकी गृह युद्ध में प्रथम इंटरनेशनल ने एक बड़ी भूमिका निभाई थी। पूरी दुनिया में दासता विरोधी राजनीतिक माहौल बनाने में प्रथम इंटरनेशनल की एक बड़ी भूमिका थी। इंगलैंड तथा फ्रांस में सरकारों की दासता के पक्ष में की जाने वाली चालबाजियो को परास्‍त करने में भी इसने बड़ी भूमिका निभाई थी। मार्क्‍स के ये शब्‍द आज भी पूरी दुनिया में दासता विरोधी संघर्ष के सबसे ओजस्‍वी शब्‍दों में शुमार किये जाते हैं। उन्‍होंने कहा था, – ”जहां काली चमड़ी के श्रम के माथे पर गुलामी की मुहर अंकित है वहां सफेद चमड़ी का श्रम अपने को मुक्‍त नहीं कर सकता।”

राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के साथ एकजुटता की नीति

इसी तरह हम पाते हैं कि पोलैंड के राष्‍ट्रीय मुक्ति आंदोलन (1863-64) के समय भी इंटरनेशनल की जेनरल कौंसिल ने पोलैंड के विद्रोहियों के साथ बेरोकटोक एकजुटता का प्रदर्शन की नीति का अनुसरण किया था। राष्‍ट्रीय प्रश्‍न पर मार्क्‍स ने जेनरल कौंसिल की ओर से (और जेनरल कौंसिल के लिए) एंगेल्‍स को लिखने का अनुरोध किया था। यहां मुख्‍य संघर्ष पूद्रोपंथियों से था। एंगेल्‍स ने जहां राष्‍ट्रीय प्रश्‍न पर प्रूदोपंथि‍यों की आलोचना करते हुए यह लिखा कि ‘मजदूर वर्ग को हर राष्‍ट्रीय उत्‍पीड़न का दृढ़तापूर्वक विरोध करना चाहिए और गुलाम जनगण के राष्‍ट्रीय मुक्ति आंदोलन के आगे रहना चाहिए’, वहीं उन्‍होंने प्रतिक्रियावादी ताकतों के द्वारा प्रतिक्रियावादी उद्देश्‍यों के लिए राष्‍ट्रीय मुक्ति आंदोलन का इस्‍तेमाल किये जाने के खतरों के प्रति आगाह भी कि‍या और चेतावनी भी जारी की। आयरलैंड का उदाहरण लीजिए। आयरलैंड में सिनफिनों की षडयंत्रकारी कार्रवाइयों को गलत ठहराते हुए भी वे उनके आंदोलन के प्रति सहानुभूति और समर्थन रखते थे। इसलिए मार्क्‍स ने हमेशा ही इंगलैंड के मजदूरों को आयरलैंड के राष्‍ट्रीय आंदोलन का समर्थन करने के लिए प्रेरित किया। ज्ञातव्‍य है कि अराजकतावादियों ने ठीक इसके उलट व्‍यवहार किया। उन्‍होंने राष्‍ट्रीय मुक्ति आंदोलन को समर्थन देने की जेनरल कौं‍सिल की नीति पर यह कहते हुए हमला बोला कि यह मजदूर वर्ग को रास्‍ते से भटकाने की नीति है। यह इस बात का परिचायक है कि अराजकतावादी राजनीतिक संघर्ष से कितने विमुख थे और राजनीतिक संघर्ष को नकारने का ही परिणाम था कि वे राष्‍ट्रीय मुक्ति आंदोलन के विरोध में खड़े हुए। हमें नहीं भूलना चाहिए कि अजराजकतावादी हर प्रकार के राजनीतिक संघर्ष के विरोधी रहे हैं और मजदूर आंदोलन के लिए यह इसीलिए एक अत्‍यंत घातक प्रवृति है।

बकुनिनपंथ के विरूद्ध संघर्ष

1871 में जब लंदन में मजदूर वर्ग द्वारा राजनीतिक सत्‍ता पर विजय प्राप्‍त करने की आवश्‍यकता के बारे में प्रस्‍ताव पारित किया जा रहा था तो बकुनिनपंथि‍यों ने इसकी पुरजोर मुखालफत की। वे स्‍वायत्‍तता के विचार को सामने लाये जिसका मतलब यह था कि वे राज्‍यसत्‍ता पर विजय प्राप्‍त करने को गलत मानते थे। वे किसी भी तरीके के राज्‍य सत्‍ता के पक्ष में नहीं थे, यहां तक कि मजदूर वर्ग की राज्‍यसत्‍ता के भी नहीं। वे तत्‍काल इसके संपूर्ण तहस-नहस के साथ क्रांति की शुरूआत करने में विश्‍वास करते थे। इसके अतिरिक्‍त वे केंद्रीकृत पार्टी की अवधारणा के भी विरोधी थे। वे किसी भी प्राधिकार के विरोधी थे, उसे नहीं मानते थे, चाहे वह स्‍वैच्छिक ही क्‍यों न हो। एंगेल्‍स ने इसके विरूद्ध संघर्ष किया। इन्‍होंने कहा कि ‘जब कोई पार्टी अनुशासन नहीं होगा, तो किसी खास बिंदु पर शक्तियों का भी कोई केंद्रीकरण नहीं होगा और इस तरह संघर्ष का कोई हथियार नहीं होगा।’ यह भी मुख्‍यत: राजनीति से दूर रहने की नीति तथा राजनीतिक संघर्ष के प्रति अलगाव की भावना की वजह से ही उत्‍पन्‍न होने वाली प्रवृति थी जिससे कि वे मजदूर वर्ग की पार्टी में केंद्रीकरण की आवश्‍यकता के विरोधी बन बैठे। इसकी भारी कीमत स्‍पेन में हुए विद्रोह में चुकाई गई जहां विद्रोह को भारी नुकसान उठाना पड़ा। बकुनिनपंथी यह मानते थे कि मजदूर वर्ग की तत्‍काल और पूर्ण मुक्ति से कम किसी भी राजनीतिक कार्रवाई का कोई महत्‍व या अर्थ नहीं है, क्‍योंकि उनके अनुसार इससे राज्‍यसत्‍ता को मान्‍यता मिलती है जो कि उनके सिद्धांत के अनुसार सारी बुराइयों की जड़ है। इसीलिए वे किसी भी चुनाव में भाग लेने से इनकार करते थे और इसे मौत के बराबर मानते थे। स्‍पेन में बकुनिनपंथियों के चलते हुई शर्मनाक हार का सार प्रस्‍तुत करते हुए ही एंगेल्‍स ने कहा था कि ‘किस तरह क्रांति नहीं की जानी चाहिए।’ एंगेल्‍स ने बखूबी दिखाया कि ‘प्राधिकार की या किसी भी तरह के मार्गदर्शक सिद्धांत की अराजकतावादी अस्‍वीकृति के सिद्धांत का वास्‍तविक जीवन से कोई संबंध नहीं है, क्‍योंकि इसके बिना आधुनिक जीवन असंभव है।’ एंगेल्‍स ने ‘राज्‍य के उन्‍मूलन’ के इनके अराजकतावादी सिद्धांत के विपरीत सर्वहारा वर्ग की राज्‍यसत्‍ता की अनिवार्यता के बारे में बताते हुए कहा कि ‘यदि पेरिस कम्‍यून ने पूंजीपति वर्ग के विरूद्ध सशस्‍त्र जनता की सत्‍ता का इस्‍तेमाल नहीं किया होता तो क्‍या वह एक दिन भी टिक पाता? इसके विपरीत क्‍या हमें कम्‍यून की इसलिए भर्त्‍सना नहीं करनी चाहिए कि उसने सत्‍ता का पर्याप्‍त उपयोग नहीं किया?’ यहां यह बताना समयानुकूल होगा कि एंगेल्‍स के विचार में बल प्रयोग क्रांति का उत्‍तोलक होता है और सशस्‍त्र संघर्ष इसका एक अनिवार्य अंग या हथियार।

पेरिस कम्‍यून का सार संकलन प्रसतुत करते हुए जब मार्क्‍स ने ‘फ्रांस में गृहयुद्ध’ नामक अपनी कृति में पेरिस कम्‍यून के अनुभवों के आधार पर अपने विचारों को सुदृढ़ करते हुए उसकी पुन: व्‍याख्‍या प्रस्‍तुत की, तो इंटरनेशनल की जेनरल कौंसिल ने इसे अपने भाषण के रूप में स्‍वीकर कर लिया था और इस तरह इंटरनेशनल ने पहली बार मार्क्‍स के कम्‍युनिज्‍म के विचारों को पूरी तरह आधि‍कारिक तौर पर अपनाया था। इस कृति की‍ भूमिका में मार्क्‍स लिखते हैं, – ”सर्वहारा अधिनायकत्‍व को वर्ग प्रभुत्‍व प्राप्‍त करने हेतु चलाये गये सर्वहारा वर्ग के संघर्ष की विजय के बाद विजयी में मिली हुई बुराई कह सकते हैं जिसके निकृष्‍टतम पहलुओं को सर्वहारा वर्ग को कम्‍यून की तरह तुरंत ही काट-छांट कर फेंक देना होगा और उस समय तक ठहरना पड़ेगा जब तक कि नई मुक्‍त सामाजिक अवस्‍थाओं में पली एक पीढ़ी राज्‍य के पूरे कूड़ाकबाड़ को घूर के ढेर में डाल देने में सक्षम नहीं होती है।” वे यह भी बताते हैं कि ”राज्‍य का तब विलोप होगा जब उसे जन्‍म देने वाली भौतिक परिस्थितियां लुप्‍त हो जाएंगी।”

प्रूदोंपंथ, लासालपंथ तथा बकुनिनपंथ के खिलाफ जीत

कम्‍युनार्डों पर प्रूदोंपंथ का भी गहरा असर था। इसीलिए हम पाते हैं कि प्रूदोंवादी आर्थिक विचारों से प्रभावित कम्‍युनार्डों द्वारा ‘बैंक ऑफ फ्रांस’ का अधिग्रहण नहीं किया जाता है या उस पर कब्‍जा नहीं किया जाता है। यह, यानी, उस पर कब्‍जा नहीं करना, कम्‍यून की असफलता का एक बड़ा कारण बना। मजदूरों ने इससे उचित सबक लिया और प्रूदोंवाद एक मजदूर वर्गीय सिद्धांत के रूप में उसके बाद जारी नहीं रह सका।

दरअसल पूंजीवादी गुलामी से मजदूर वग्र की मुक्ति के बारे में प्रूदों, लासाल और बकुनिन द्वारा बताये गये रास्‍तों व नुस्‍खों का सार था उत्‍पादकों के सहकारी संघों की स्‍थापना और उनका वर्चस्‍व। यह मजदूर वर्ग के अंदर व्‍याप्‍त अराजकतावादी-संघातिपत्‍यवादी विचार थे जिसके खिलाफ मार्क्‍स और एंगेल्‍स पूरी उम्र लड़ते रहे और पराजित किये। उन्‍होंने इसकी मुखालफत वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों से की।

ज्ञातव्‍य है कि 1867 में मार्क्‍स की की महान कृति ‘पूंजी’ का प्र‍थम भाग छप चुका था जिसमें इन्‍होंने दिखाया कि किस तरह पूंजीवादी उत्‍पादन व्‍यवस्‍था ‘पूंजी की गति व इसके विकास के आम नियमों’ के अधीन काम करती है और किस तरह इन नियमों के अधीनता इसे अंतत: नष्‍ट होने के लिए अभिशप्‍त बनाती है। इस कृति से अराजकतावादियों तथा संघाति‍पत्‍यवादियों से निर्णायक रूप से लड़ने और जीत हासिल करने में काफी मदद मिली। सबसे बड़ी सफलता यह है कि प्रथम इंटरनेशनल ने मार्क्‍स की इस युगांतरकारी कृति की आधिकारिक रूप से प्रशंसा की और अपने सदस्‍यों को इसका अध्‍ययन करने के लिए कहा। इतना ही नहीं, इंटरनेशनल के 1868 के ब्रसेल्‍स कांग्रेस में प्रूदोवादियों के विरोध करने के बावजूद उत्‍पादन के साधनों पर सार्वजनिक स्‍वामित्‍व के समाजवादी सिद्धांत को मान लिया गया। एंगेल्‍स ने प्रूदों के इस संबंध में स्‍थापित विचारों के बारे में बताते हुए इसका भंडोफोड़ किया और कहा कि प्रूदों छोटी मिल्कियत के समर्थक हैं और इस नाते सामुदायिक या सामाजिक स्‍वामित्‍व के विरोधी हैं और यह उनके लिए बिल्‍कुल स्‍वाभाविक है कि वे मजदूरों के वास्‍तविक समाजवादी सिद्धांत के विरोधी हैं। वे मुक्‍त ऋण की बात करते थे और इसके जरिये उत्‍पादक संघ को मजबूत और सक्षम बनाने की बात करते थे और इस तरह छोटे उत्‍पादकों की आर्थिक समस्‍याओं व उनके आर्थिक-सामाजिक मसलों का हल निकालने की कोशिश करते थे। यह टूटपूंजिया वग की सोच के अनुरूप था। मार्क्‍स-एंगेल्‍स ने इसका पूरी तरह भंडाफोड़ किया और बताया कि ये सारी चीजें समाज को या किसी वर्ग विशेष को पूंजीवादी उत्‍पादन संबंधों से बाहर नहीं ले जाती हैं और इसीलिए ये सामाजिक मुक्ति के रास्‍ते नहीं हो सकते हैं। बड़ी पूंजी के ये अवश्‍यंभावी शिकार हैं और इनका हमेशा के लिए बना रहना या टिका रहना असंभव है। पूंजीवादी उत्‍पादन की गति इन्‍हें आज न कल अपनी चपेट में ले लेगी।

मार्क्‍स एंगेल्‍स ने यह भी बताया कि सर्वहारा की राज्‍य सत्‍ता कायम करना क्‍यों जरूरी है। सर्वहारा सत्‍ता पर अधिकार कायम करने के बाद सबसे पहले वह उत्‍पादन के साधनों को सामाजिक या राजकीय संपत्ति में बदल देता है। फिर राज्‍य के लोप हो जाने के बाद ”व्‍यक्तियों के शासन का स्‍थान”, जैसा कि सर्वहारा सत्‍ता सहित कोई भी राज्‍य सत्‍ता करती है, ”वस्‍तुओं के प्रबंध तथा उत्‍पादन की प्रक्रियाओं का संचालन ले लेता है।” 

प्रथम इंटरनेशनल को भंग किया जाना

पेरिस कम्‍यून के पतन के बाद पूरे यूरोप में प्रथम इंटरनेशनल पर राजकीय दमनचक्र चला। इसके फलस्‍वरूप 1874 तक प्रथम इंटरनेशनल शिथिल पड़ चुका था और जैसा कि पहले भी लिखा जा चुका है, 1876 में औपचारिक रूप से इसे मार्क्‍स के द्वारा भंग कर दिया गया, क्‍योंकि शिथिलता का फायदा उठाकर बकुनिनपंथी इस पर कब्‍जा करना चाहते थे। हम पाते हैं कि इसके पूरे जीवन काल में मजदूर वर्ग के अंदर फैले विजातीय पंथों व विचारों के खिलाफ चले सतत व निर्मम संघर्ष में ही मार्क्‍सवादी कम्‍युनिस्‍ट सिद्धांतो की जीत हुई। इससे भी हमारे लिए अत्‍यधिक महत्‍वपूर्ण सबक प्राप्‍त होते हैं। 

एक और महत्‍वपूर्ण बात पर चर्चा करके हम इस लेख को अब समाप्‍त करना चाहेंगे।

यूं तो पूरे तौर पर प्रथम इंटरनेशनल कम्‍युनिस्‍ट नहीं था और अगले (द्वितीय) इंटरनेशनल तक इसके लिए हमें इंतजार करना पड़ा, लेकिन यह भी सच है कि प्रथम इंटरनेशनल पर संपूर्णता में मार्क्‍स के विचारों की अमिट छाप अंकित है। यह भी सच है कि इसके जीवन काल में ही इसने मार्क्‍स के अधिकांश विचारों को अपना लिया था और उस हद तक वह कम्‍युनिस्‍ट भी था। बाद में, जैसा कि हम जानते हैं, सर्वहारा वर्गीय जन आधारित समाजवादी या सामाजिक जनवादी पार्टियों का गठन हुआ और पूरी दुनिया में फैले ऐसे संगठनों व पार्टियों ने अपनी ताकत को एकसुत्र में पिरोने के लिए आपस में मिलकर द्वितीय इंटरनेशनल का गठन किया जो पूरी तरह मार्क्‍सवादी विचारों पर आधारित था और कम्‍युनिस्‍ट था।

हम जानते हैं, द्वितीय इंटरनेशनल का वैचारिक व राजनैतिक पतन बेसेल कांग्रेस के बाद प्रथम विश्‍वयुद्ध के ठीक पहले हो गया, जिसके बाद लेनिन के नेतृत्‍व में अक्‍टूबर क्रांति के उपरांत तीसरे इंटरनेशनल का गठन हुआ जिसे द्वितीय विश्‍वयुद्ध के शुरू होने पर कतिपय विशिष्‍ट परिस्थितियों में स्‍तालिन की सिफारिश पर भंग कर दिया गया। द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद कमिनफर्म का गठन हुआ, लेकिन वह इंटरनेशनल का स्‍थान न तो लिया और न ही ले सकता था। स्‍तालिन की मृत्‍यु के बाद यह भी भंग हो गया और फिर इसके बाद किसी और इंटरनेशनल का गठन नहीं हो पाया। जैसा कि सभी को ज्ञात है, माओ ने अपने जीवन काल में इसके लिए कोई पहल नहीं की।

प्रथम इंटरनेशनल इतिहास में अमर है और अमर रहेगा !

सर्वहारा अंतरराष्‍ट्रीयतावाद जिंदाबाद!!