ग्लासगो कॉप26: पर्यावरण की मंडी, सौदागरों का रेला

December 15, 2021 0 By Yatharth

एम असीम


पिछले 31 अक्तूबर से 12 नवंबर 2021 तक ग्लासगो में यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) की कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (COP) अर्थात पर्यावरण ‘रक्षकों’ के सम्मिलन या मेले का 26वां संस्करण आयोजित हुआ। पर इसे पर्यावरण कारोबारियों की मंडी कहना ज्यादा उचित होगा क्योंकि इसके अधिकांश कार्यक्रम स्थल ठीक उन्हीं बड़े कॉर्पोरेट पूंजीपतियों द्वारा स्पॉन्सरशिप के पैसे से आयोजित किये गए थे और इन कार्यक्रमों में उन्हीं पर्यावरण कारोबारियों व सौदागरों की भीड़ थी जो दुनिया भर की नदियों, जंगलों, झीलों-तालाबों, पहाड़ों, मैदानों को अपनी निजी संपत्ति बना न सिर्फ इनमें रहते आए समुदायों की जीविका छीन रहे हैं बल्कि उन्हें पर्यावरण की दृष्टि से बरबाद भी कर रहे हैं। इस पर्यावरण मंडी में भी ये सौदागर, इनके चुने ‘राष्ट्रीय’ राजनीतिक या सरकारी प्रतिनिधि और इनके ‘दान’ के पैसे से चलने वाले तमाम एनजीओ समाजसेवी/बुद्धिजीवी इसी बात पर बहस कर रहे थे कि पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर किन तकनीकों को आगे बढ़ाया जाए और किनको पीछे धकेल दिया जाए, इसमें किसका कितना पूंजी निवेश होगा, कौन किसको कितना कर्ज देगा और मुनाफा कितना होगा तथा यह किनके बीच और कैसे बंटेगा।


सालाना होने वाला ये सम्मेलन जिसमें पर्यावरण परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के आधारभूत समझौते पर दस्तखत करने वाले 197 देश/भूखंड शामिल होते हैं, वैश्विक पर्यावरण राजनीति पर चर्चा का मुख्य केंद्र है। इसका पहला संस्करण बर्लिन में 1995 में हुआ था। इसमें पर्यावरण परिवर्तन पर सरकारों के पैनल (IPCC) की रिपोर्टों व पर्यावरण परिवर्तनजनित प्राकृतिक आपदाओं पर चर्चा की जाती है। पर इस सालाना पर्यावरण कारोबारी मेले में दुनिया भर के मीडिया में खबर बनने लायक सनसनीखेज भू-राजनीतिक ड्रामा तो खूब होता आया है मगर वास्तव में इससे पर्यावरण संकट से बचाव के लिए अब तक क्या हासिल हुआ है इसका पता सिर्फ इस एक तथ्य से लग जाता है कि 1995 में बर्लिन के पहले मेले के वक्त वायुमंडल में कार्बन का स्तर 10 लाख में 358 हिस्सा ही था जो ऐसे 26 मेलों के बाद बढ़कर अब 441 हिस्से हो गया है।


लेकिन यह भी सच्चाई है कि पर्यावरण पर खतरे का सवाल एक वास्तविक सवाल है और इसमें हुए हानिकारक परिवर्तन वास्तव में ही पृथ्वी पर जीवन के लिए बड़ा खतरा बन चुके हैं। पर्यावरण परिवर्तन पर अंतर्सरकारी पैनल की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक अगर हालात व मौजूद रुझान जैसे ही रहे तो आगामी कुछ दशकों में हमारी धरती पर सैंकड़ों करोड़ आबादी वाले इलाके जीवन जीने लायक हालत में न रहेंगे। अगर कुछ वास्तविक प्रभावी कदम न उठाए गए तो औसत वैश्विक तापमान में विनाशकारी वृद्धि होगी जिसका नतीजा होगा मौसम के आम पैटर्न में भारी फेरबदल, अत्यंत सर्दी-गर्मी की लहरें, सूखा, बाढ़, आदि जिनके प्रभाव अत्यंत अस्थिरता जनक होंगे।


इस बड़ी समस्या पर ग्लासगो मेले में क्या हुआ? वास्तव में पर्यावरण परिवर्तन को रोकने के लिए तो कुछ खास नहीं। जो पेरिस, कोपनहेगन, क्योटो, आदि में हुआ था लगभग वही – कुछ बड़े ऐलान जो अनुमानतः 3.3 से 4.7 अरब टन कार्बन डाई ऑक्साइड में कमी के ‘समकक्ष’ हैं। इनमें शामिल हैं मीथेन गैस उत्सर्जन में कमी के कुछ वादे, 2030 के बाद कोयला इस्तेमाल घटाने व बंद करने की घोषणाएं, शून्य उत्सर्जन वाले सड़क वाहनों को अपनाने में तेजी का ऐलान, 2030 तक जंगलों के विनाश व भूमि की गुणवत्ता में गिरावट को रोकना व इस प्रक्रिया को उलट इनमें सुधार शुरू कर देना शामिल है। बताया जाता है कि इससे 2.2 अरब टन कार्बन डाई ऑक्साइड के ‘समकक्ष’ की कटौती होगी। इसके अतिरिक्त ग्लासगो पर्यावरण समझौते में कार्बन व्यापार के नियम भी तय हुए और पर्यावरण सुरक्षा के लिए नई तकनीकें अपनाने हेतु कर्ज देने के लिए पूंजी उपलब्ध कराने के कुछ वादे भी किये गए।


आइए, ग्लासगो मेले के इन फैसलों-वादों-ऐलानों को हम पृथ्वी के औसत तापमान में इजाफे को 1.50C तक रोकने के पूर्व निश्चित मकसद के मुकाबले तौलते हैं। इस लक्ष्य को 1.50C तय करने के पीछे भी IPCC की रिपोर्ट थी जिसके अनुसार 1.50C के मुकाबले 20C के लक्ष्य का वास्तविक असर मात्रात्मक नहीं गुणात्मक रूप से अधिक हानिकारक होता। उपरोक्त तय मकसद को पूरा करने हेतु 2030 तक दुनिया भर में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन 26 अरब टन कार्बन डाई ऑक्साइड ‘समकक्ष’ तक सीमित करना था। पर अगर ग्लासगो के सारे ऐलानों को पूरी तरह सच और अमल होने लायक मान लिया जाए तब भी 2030 में ग्रीन हाउस गैसों का संभावित उत्सर्जन 45-50 अरब टन कार्बन डाई ऑक्साइड ‘समकक्ष’ होगा अर्थात इस पूर्व निश्चित मंजिल को हासिल करने में वास्तव में कोई खास प्रगति नहीं होगी। पर इन ऐलानों में भी समझने लायक बात यह ‘समकक्ष’ शब्द है जो कार्बन डाई ऑक्साइड की वास्तविक मात्रा के बजाय समस्या को रुपये-पैसे की मात्रा में बदलकर पूंजीवादी सटोरियों के ‘खेल’ में बदलने का मौका बनाता है। इसका मतलब है कि इन सब पर्यावरण मेलों के सारे कानफोडू शोर-शराबे, नए-नए ‘नेट ज़ीरो’ ऐलानों और मोदी, मैक्रोन, बाइडेन, जॉनसन, शी, आदि के बड़े-बड़े मनोहारी कसमों-वादों के बावजूद इनसे पर्यावरण विनाश को रोकने के काम में वास्तव में हासिल लगभग शून्य है। हम अपनी भावी पीढ़ियों को अति गरम-सर्द लू व शीत लहरों, बारंबार सूखे-बाढ़, लंबे वक्त बिना बारिश के बाद किसी दिन जल प्रलय, तटीय इलाकों में समुद्री खारे पानी के भरने, तूफ़ानों-चक्रवातों के बढ़ते प्रकोप से बचाने में कोई असली तरक्की नहीं कर पाए हैं।


फिर इन पर्यावरण मेलों की मंडियों में इकट्ठा सौदागरों की भीड़ आखिर करती क्या है? पर्यावरण राजनय की भाषा में यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) में ‘सामान्य लेकिन विभेदीकृत जिम्मेदारी’ का सिद्धांत तय हुआ है पर्यावरण की हिफाजत वास्ते। पर इसमें सामान्य क्या है और विभेदीकृत क्या है? हमारी मौजूदा दुनिया पूंजीवाद की दुनिया है। पूंजीवाद की दुनिया अर्थात माल, मुद्रा, बाजार, मुनाफे की दुनिया। यह दुनिया भौतिक आवश्यकता से नहीं समतुल्य के विनिमय से संचालित होती है अर्थात यहां आवश्यकता का पैमाना विनिमय हेतु उपलब्ध समतुल्य के परिमाण से तय होता है। व्यक्ति को भोजन की आवश्यकता है यह उसकी भूख और पोषण की भौतिक मात्रा नहीं, उसके पास चुकाने के लिए उपलब्ध समतुल्य माल जिसका सामान्य व्यवहार का पैमाना मुद्रा है उससे तय होता है, जितना माल अर्थात रुपया जेब में है, बाजार के लिए तो वैसी भूख, वैसा पोषण, वैसा भोजन ही व्यक्ति की वास्तविक आवश्यकता है। सर्दी लग रही है, जेब में कितना रुपया है बाजार के लिए व्यक्ति को वैसे ही वस्त्र व जूतों की आवश्यकता है, बीमार को क्या और कितनी गंभीर बीमारी है उसके बजाय उसकी खरीदने की क्षमता ही बाजार के लिए उसकी एकमात्र वास्तविक आवश्यकता है। पूंजीवादी अर्थतन्त्र में आवश्यकता व जिम्मेदारी आदि को मापने का दूसरा कोई पैमाना नहीं होता। यह हर आवश्यकता को खरीदने की क्षमता में बदलकर ही मापता है। पर्यावरण के क्षेत्र में ही कुछ अलग कैसे मुमकिन है?


ग्लासगो मेले के दौरान ही संयुक्त राष्ट्र के मुख्य पर्यावरण दूत डेविड बॉयड ने हिंदुस्तान टाइम्स को दिये साक्षात्कार में सच ही बयान किया कि, “पर्यावरण हानि का मूल्यांकन मौद्रिक पैमाने पर किया जाना चाहिए।” और “प्रदूषण करने वाला शुल्क चुकाये” का नियम लागू होना चाहिए। क्योटो, पेरिस, ग्लासगो, वगैरह के पर्यावरण सुरक्षा के प्रहसनों की असलियत वास्ते क्या इससे अधिक कुछ जानने की जरूरत है? इन शिखर सम्मेलनों में इकट्ठा होने वाले बाइडेन, बोरिस, मैक्रोन, मोदी, आदि से लेकर तमाम ‘दुनिया बचाओ माल बनाओ’ एनजीओ इस काम में क्या कमाया जा सकता है, किसे कितना मुनाफा हो सकता है, इस हिसाब-किताब, जोड़-तोड़ व सौदेबाजी के लिए ही वहां इकट्ठा होते हैं। पर्यावरण का सवाल अरबों लोगों के जीवन में वास्तविक जिंदगी में बेघरी, भूख, बीमारी, मौत, आदि का भौतिक सवाल है, यह बात पर्यावरण सौदागरों के इन ‘सम्मिलनों’ की चिंता का विषय नहीं। बल्कि वास्तव में जब कहीं हवा-पानी से भोजन-दवाओं तक में जहर फैलाने वाले पूंजीपतियों के खिलाफ आम लोग विरोध करते हैं तो इनके पूंजीवादी राज्य अपनी पुलिस फौज के जरिए सैंकड़ों-हजारों का कत्ल करने से भी नहीं हिचकते। ‘उदारवादी’ जनतंत्र के सिद्धांत मुताबिक आखिर उस कंपनी का भी तो मानव अधिकार है जहर फैलाने का, है न! भला आप उसकी इस स्वतंत्रता का हनन कैसे कर सकते हो? यह तो जनतंत्र पर सीधा हमला है! आप तानाशाही कायम करना चाहते हो? अगर किसी पूंजीपति ने प्रदूषण फैला ही दिया, उससे दो-चार हजार लोग मर ही गए, लाखों लोग बीमार हो ही गए तो क्या हुआ, चलो दो-चार लाख रुपये जुर्माना लगा लो, मान लो कुछ ज्यादा ही हुआ तो चलो कुछ करोड़ रुपये ले लो, पर तुम उसका जहर फैलाने का कारोबार तो बंद नहीं करा सकते ना, उसे जेल में तो नहीं डाल सकते न। भोपाल गैस जनसंहार की यूनियन कार्बाइड (अब डाऊ केमिकल्स) से लेकर थुथुकुडी की वेदांता तक याद है न? सरकारों, अदालतों, मीडिया, ‘विद्वानों’ सबका क्या कहना था? इन शिखर सम्मेलनों में एकत्र होने वाले शिखर स्त्री-पुरुषों के लिए किसके अधिकार मानवाधिकार होते हैं? कातिलों के या मकतूलों के?

कार्बन व्यापार

हर चीज को माल में परिवर्तित करने के पूंजीवादी अर्थतन्त्र के इस बुनियादी चरित्र की ही वजह है कि इस पर्यावरण बचाओ मेले में भी एक प्रमुख मुद्दा कार्बन व्यापार बन गया है – इसके नियम क्या हों, बाजार पर किसका नियंत्रण हो, कौन दलाली करे, उससे कमीशन-मुनाफा कमाए, कीमतें तय करने का तरीका क्या हो, पूरी दुनिया में एक ही दाम रहे या बाजार में मांग-आपूर्ति के आधार पर दाम तय हों, वगैरह। पर ये कार्बन व्यापार क्या है?

जिस गतिविधि से भी यह माना जाता है कि ग्रीन हाउस गैस में कमी होगी उसे कार्बन सकारात्मक मान क्रेडिट दिए जाते हैं – एक टन ग्रीन हाउस गैस कम करने वाली गतिविधि पर एक क्रेडिट। यह गतिविधि सौर या वायु ऊर्जा का उत्पादन हो सकती है, पेड़-जंगल लगाना हो सकती है, विद्युत कार बनाना हो सकती है, बायो-डीजल या एथानॉल वाली फसलों का उत्पादन हो सकता है, ऐसी फसलों का उत्पादन हो सकता है जिन्हें माना जाता है कि उनकी जड़ें इन गैसों को अवशोषित करती हैं या जमीन के नीचे दफन कर देती हैं। उत्पादन में ऐसी कोई नई तकनीक या प्रक्रिया हो सकती है जिससे ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन घटे। इस क्रेडिट को वह पूंजीपति खरीद सकते हैं जो ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन बढ़ा रहे हैं अर्थात एक क्रेडिट के बदले में उन्हें एक टन गैस उत्सर्जन का परमिट हासिल हो जाता है।

मामूली तौर पर देखा जाए तो पर्यावरण बचाने की दिशा में यह बहुत सकारात्मक कदम प्रतीत होता है क्योंकि लगता है कि इससे ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन रोकने वालों को प्रोत्साहन मिलेगा और अन्य उत्पादक भी ऐसा करने के लिए प्रेरित होंगे। पर थोड़ी पड़ताल की जाए तो कुछ और पता चलता है। असल में देखें तो इससे ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन एवं अन्य जहरीला प्रदूषण बढ़ने वाला है। असल में पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन का मकसद पूंजी लगाने वाले मालिक का मुनाफा होता है। अगर कोई पूंजीपति सौर ऊर्जा या विद्युत कार या एथानॉल या नाइट्रोजन अवशोषक दलहन फसलों का उत्पादन करता है तो इसलिए नहीं कि इससे पर्यावरण संरक्षण होगा बल्कि इसलिए कि विभिन्न वजहों से बाजार में इनकी मांग है और इनके उत्पादन-बिक्री से उसे लाभ होगा। अतः ऐसी स्थिति में इनका उत्पादन सामान्य स्थिति में भी होना ही था, कार्बन व्यापार होता या नहीं। किंतु कार्बन व्यापार की वजह से इनमें दिखाई गई कार्बन बचत से कुछ दूसरे पूंजीपतियों को ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन की छूट मिल जायेगी अर्थात उन्हें ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन करने के लिए अब बस एक शुल्क देना होगा, वह भी उनके ही जैसे किसी दूसरे पूंजीपति की जेब में ही जाएगा, अक्सर तो एक ही पूंजीपति एक जगह इसके सहारे ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन भी करेगा और दूसरी जगह उसे घटाने के नाम पर यह शुल्क या प्रोत्साहन प्राप्त करेगा। अतः इससे कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन घटने के बजाय बढ़ जाएगा। बस यह ऐसा ही है जैसे कोई अमीर आदमी जुर्म करे और जेल जाने से बचने के लिए किसी गरीब आदमी को पैसे का लालच देकर जुर्म अपने सिर ओट कैद काटने के लिए तैयार कर ले। साफ है कि इससे जुर्म घटते नहीं, बढ़ते हैं। इसीलिए अब इन मेलों में शून्य ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के बजाय नेट ज़ीरो उत्सर्जन का महामंत्र जाप किया जा रहा है। शून्य उत्सर्जन के लिए ग्रीन हाउस गैस की वास्तविक मात्रा को घटाना पड़ता किंतु कार्बन क्रेडिट खरीद लेने से बिना ग्रीन हाउस गैस घटाए ही नेट ज़ीरो हासिल हो जाता है।

हम विद्युत कार का उदाहरण लेते हैं। क्या वास्तव में इससे पर्यावरण संरक्षण होने वाला है। नहीं। निश्चय ही विद्युत कार परिचालन के वक्त पेट्रोल-डीजल की तरह प्रदूषण नहीं करेगी, अमीर लोगों को इससे मानव-कल्याण का पुण्य हासिल करने का गर्व करने का मौका भी हासिल होगा। पर वास्तविकता क्या है? प्रदूषण अब कार चलने के वक्त के बजाय बिजली उत्पादन के वक्त होगा पर उसे प्रदूषण माना नहीं जाएगा क्योंकि विद्युत कार बनाने वाले पूंजीपति से बिजली उत्पादन करने वाले पूंजीपति ने कार्बन क्रेडिट खरीदे होंगे! फिर यह प्रदूषण अमीर लोगों के आसपास न होकर कहीं दूर-दराज की जगह होगा जैसे हमने देखा था कि प्रदूषण करने वाले उद्योगों को दिल्ली से कहीं बाहर स्थानांतरित कर सुप्रीम कोर्ट के जजों ने पर्यावरणविदों की वाहवाही लूटी थी, या मुंबई में अस्पताली कचरे को जलाने वाले संयंत्र को मानखुर्द-गोवंडी के मजदूर वर्गीय झोंपड़-पट्टी इलाके में शिफ्ट कर प्रदूषण बचाया गया था। पर क्या प्रभावी तौर पर उससे पर्यावरण कम होता है?

दूसरी बात है कि विद्युत कार के प्रति किलोमीटर परिचालन का खर्च कम होने से सार्वजनिक यातायात के बजाय संपन्न लोगों द्वारा निजी ट्रांसपोर्ट वाहनों के प्रयोग को और बढ़ावा मिलेगा जिससे न केवल गरीब जनता की मुश्किलें बढ़ेंगी बल्कि इन वाहनों और इनमें लगने वाले धातु/प्लास्टिक/रसायनों आदि के गैर जरूरी तौर पर बढ़े उत्पादन से वास्तव में पर्यावरण का और भी अधिक विनाश होगा। तीसरे, विद्युत कारों में प्रयोग होने वाली बैटरियाँ और इनमें प्रयुक्त रसायन भविष्य में पर्यावरण के लिए भारी समस्या बनेंगे और अमीरों द्वारा प्रयोग समाप्त होने के पश्चात इनका कचरा गरीब आबादी के लिए भयंकर जहर बन जाएगा क्योंकि यह उनके रहने के स्थानों के पास ही फेंका जाएगा।

पर्यावरण संरक्षण और साम्राज्यवादी लूट

कार्बन क्रेडिट व्यापार, कार्बन ऑफसेट, नेट ज़ीरो के एक विस्तृत उदाहरण के जरिए हमने दिखाया कि कैसे पर्यावरण संरक्षण के इस पूंजीवादी बाजार मॉडल में पर्यावरण बचाना वास्तविक नहीं बस दिखाऊ मकसद है। इसी तरह हम देख सकते हैं कि जिस प्रकृति आधारित समाधान की बात की जा रही है उससे क्या होगा? उससे बस इतना ही होगा कि बड़े पैमाने पर पहाड़ों, जंगलों, नदियों, झीलों को प्रदूषण करने वाले पूंजीपतियों को ही वन रोपण एवं पर्यावरण संरक्षण के नाम पर औने-पौने दामों बेच दिया जाएगा और इनमें रहने वाले पारंपरिक समुदायों को पुलिस और निजी सेनाओं के दमन के बाल पर इनसे खदेड़ दिया जाएगा ताकि इन्हें पूंजीपतियों की निजी संपत्ति बनाकर वे इन्हें अपने मुनाफे हेतु दुह सकें। विभिन्न देशों में पहले ही यह प्रक्रिया तेजी से जारी है। वन्य पशु अभयारण्यों के नाम पर भी इनके परंपरागत निवासियों को बेघर कर यहां से उजाडा जाता रहा है जबकि पर्यावरण संरक्षण के एनजीओ चलाने वालों को यहीं होटलों, जंगल सफारी, आदि पर्यावरण टूरिज़्म कारोबार से खूब मुनाफा कमाते देखा जा सकता है। यहां हम पर ‘सुरम्य ग्राम्य या वन्य जीवन’ का छद्म ग्लैमर रचने का आरोप लगाया जा सकता है। पर हमारा कहना यह नहीं है कि इन वन क्षेत्रों के निवासी ऐसे ही रहते रहें या उनका विकास और आधुनिकीकरण न हो। पर क्या उन्हें पुलिस-फौजी लाठी-गोली के दम पर उजाड़ इन वन्य क्षेत्रों को पूंजीपतियों की निजी संपत्ति बना देने से ही वास्तव में उनके जीवन में विकास होता है? संक्षेप में कहें तो पर्यावरण संरक्षण के यह ‘प्रकृति’ आधारित समाधान वनों व भूभागों का मौद्रिकरण कर उनकी कीमत लगा देता है और उन्हें बहुराष्ट्रीय कृषि-व्यवसायियों के मुनाफे के लिए ‘समर्पित’ कर देता है। बुर्किना फासो के जनपक्षधर नेता थॉमस संकारा ने सही कहा था, “पेड़ों व जंगलों की हिफाजत का यह संघर्ष सर्वोपरि साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष है क्योंकि यह साम्राज्यवाद ही है जो हमारे वनों एवं घास के मैदानों में आगजनी करता है।“ इसकी सजा साम्राज्यवादियों द्वारा उनकी हत्या थी।

साम्राज्यवाद के संदर्भ में ही एक मुद्दा ग्लासगो मेले में गरीब देशों में पर्यावरण बचाने के लिए 100 अरब डॉलर के ‘फंड’ की चर्चा है। अमरीकी प्रतिनिधि जॉन केरी और कनाडा व ब्रिटेन के केंद्रीय बैंकों के प्रधान रहे माइक करनी पर्यावरण संरक्षण के इस काम को अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के जिम्मे छोड़ने का प्रस्ताव कर रहे हैं। करनी ने तो 130 ट्रिलियन डॉलर की पूंजी वाले बैंकों, फंड प्रबंधकों, पेंशन व बीमा फंडों के ग्लासगो फाइनैन्शल अलायंस फॉर नेट ज़ीरो खड़ा कर लेने का भी दावा किया है। मीडिया में ऐसा जताया जा रहा है जैसे अमीर देश व उनके वित्तीय पूंजीपति गरीब देशों को पर्यावरण बचाने के काम वास्ते दान देकर मदद कर रहे हैं। पर केरी ने साफ कर दिया है कि यह 100 अरब डॉलर मदद के तौर पर नहीं, व्यावसायिक कर्ज के तौर पर दिया जाना है, जिसे मय बाजार दर पर सूद और शर्त चुकाना होगा। पर पूंजीवादी साम्राज्यवादी मीडिया तो इस कौशल का पुराना उस्ताद है कि मुनाफा काटने को जनकल्याण कार्य साबित कर दे और जरूरत पडने पर मरी हुई गाय-भैंस को भी पुण्ण करा दिखा दे।

लेकिन यह पूंजी गरीब देशों में लगाई कैसे जाएगी क्योंकि वास्तव में अफ्रीका में सौर ऊर्जा लगाने में इतना ही मुनाफा होने वाला होता तो वित्तीय पूंजीपति इन समझौतों का इंतजार न कर रहे होते? दुनिया के सबसे बड़े वित्तीय पूंजी फंड ब्लैकरॉक के लैरी फिंक ने उपाय सुझाया है – अफ्रीका, लैटिन अमरीका व एशिया के देशों में ऊर्जा संबंधी ये प्रोजेक्ट लगाने पर नुकसान के जोखिम कम करने (“derisk” the lending) की जिम्मेदारी आईएमएफ़ व वर्ल्ड बैंक ले लें अर्थात पहली बार घाटा होने पर ये उसकी भरपाई कर दें। साथ में कार्बन क्रेडिट का भी फायदा मिले तो और भी बल्ले-बल्ले! सुंदर योजना है ना? मुनाफा निजी और घाटा सार्वजनिक, अंततः 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट जैसे बेल आउट!

यहीं मोदी सरकार के बहुमूल्य योगदान पर भी एक छोटी टिप्पणी – भारतीय मीडिया में छाया रहा कि जब अंतिम वक्त तक ग्लासगो में फैसला न हो पाया तो भारत ने आगे बढ़ नेतृत्व संभाला और विवादित पैरा के लिए मंत्री भूपेंद्र यादव ने जो शब्द पेश किए वो आखिर सबने माने। भूपेंद्र यादव ने ऐसा क्या सुझाया? एक तो कोयले का इस्तेमाल बंद करना (phase out) की जगह कम करना (phase down), दूसरे, जीवाश्मी ईंधन पर सबसिडी कम करना। जहां तक ‘फेज डाउन’ की बात है अमरीका-चीन 4 दिन पहले ही यह राजीनामा कर चुके थे पर विश्वनेता बनने की चाहत में मोदी ने इसका अगुआ बनकर इस पर व्यापक आलोचना सहने की जिम्मेदारी अपने सिर ओट ली। वैसे भी अदानी, टाटा, जिंदल सब कोयला खदान खरीद खोल रहे हैं, सरकार बड़े पैमाने पर कोयला खदानों के लाइसेंस बाँट रही है तो मोदी जी और करते भी क्या! पर पूरा पूंजीवाद कैसे खुले आम बेशर्मी व झूठ पर टिका है उसका उदाहरण है – जीवाश्मी ईंधन पर सबसिडी कम करने वाली बात। कोयले के अलावा जीवाश्मी ईंधन क्या होता है? पेट्रोलियम। बताइये पेट्रोलियम को मुनाफे का स्रोत बनाने के बजाय उस पर मोदी, शी, बाइडेन, मैक्रों, जॉनसन, पुतिन या सऊदी शाह कौन सबसिडी दे रहा है, जिसे अब ये कम करेंगे? मतलब सिर्फ यह बताना था कि पर्यावरण की जो भी समस्या है उसके लिए मुनाफाखोर सरमायेदारों के बजाय ‘मुफ्तखोर’ जनता जिम्मेदार है। पर्यावरण संरक्षण के लिए पूंजीवादी मुनाफाखोरी को खत्म कर सामाजिक हित के अनुरूप उत्पादन को संगठित करने के बजाय जनता पर बोझ बढाने की जरूरत है ताकि कोयले का इस्तेमाल कम करने के अहसान के नाम पर अदानी जैसों को और अधिक सबसिडी दी जा सके।

इसी प्रकार अन्य कई उदाहरण भी दिए जा सकते हैं कि कैसे इन पर्यावरण संरक्षण मेलों का असली मकसद पर्यावरण संरक्षण नहीं है बल्कि इनमें होने वाली सौदेबाजी का मकसद पर्यावरण पर बढ़ते खतरे के वास्तविक एवं गंभीर सवाल के इस्तेमाल के जरिए पूंजीवादी, खास तौर पर इजारेदार पूंजीपतियों के मुनाफों को सुरक्षित रखना व बढ़ाना होता है। उसके लिए पूंजीवादी वर्ग के विभिन्न समूहों में होड़ भी होती है जिसके लिए उन पूंजीपतियों के हितों की रखवाली करने वाली उनकी राष्ट्रीय सरकारें भी यहां उन हितों को सुरक्षित करने के अपने प्रतिनिधि भेजती हैं। अमरीका, चीन, जी20, यूरोपीय समुदाय, रूस, भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, पेट्रोलियम-कोयला उत्पादकों, अन्य छोटे अविकसित देशों, वगैरह के बीच जो तमाम सौदेबाजी-दांवपेच-बयानबाजी यहां दिखाई पड़ते हैं उनकी असल वजह यही अपने पूंजीपतियों के पूंजी-मुनाफे के हितों की सुरक्षा है।

निजी संपत्ति और लाभ की व्यवस्था ही पर्यावरण के लिए असली खतरा

वास्तव में देखा जाए तो पर्यावरण संरक्षण का बुनियादी वैज्ञानिक तरीका सुविज्ञात है अर्थात प्राकृतिक चक्र को मनमर्जी से बाधित करने के बजाय उसके नियमों को जान-समझकर सामाजिक उत्पादन में उनका प्रयोग करना। इसके लिए मानस समाज ने न सिर्फ अपने हजारों वर्षों के ऐतिहासिक अनुभव से सीखा है बल्कि आधुनिक तकनीक व विज्ञान के विकास ने भी इसकी गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान की है। आज यह संभव है कि उत्पादन के हर क्षेत्र में पैदा होने वाले पर्यावरण के लिए हानिकारक पदार्थों को समाप्त या रीसाइकल किया जा सके। किंतु यह हर पूंजीपति के लिए एक लागत है जो उसे अपने मुनाफे के कम होने की आशंका से ग्रस्त करती है। एक ओर तो उसे आशंका होती है कि उसका हर प्रतियोगी इस खर्च को बचाकर अपना माल सस्ता बेचकर उसे बाजार से बाहर कर देगा, दूसरी ओर वह खुद ऐसा कर अपने हर प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ने की हर कोशिश में जुटा रहता है। पूंजी संचय का यह अनिवार्य नियम उसे अपने मुनाफे के सामने मजदूरों के स्वास्थ्य और सुरक्षा से लेकर पृथ्वी तथा पर्यावरण के विनाश को नजरंदाज करने को निरंतर प्रेरित व विवश करता है। एक के बाद एक इन पर्यावरण मेलों की अनिवार्य विफलता हमें मार्क्स के मजदूरों के स्वास्थ्य के संबंध में कही गई उस बात की याद दिलाती है जो पर्यावरण की हिफाजत के बारे में भी उतनी ही सच है:

“यदि इंसान की नस्ल खराब होती जा रही है और एक दिन उसके एक दम नष्ट हो जाने की संभावना है तो इसका पूंजी के हृदय पर उतना ही प्रभाव पड़ता है जितना इस बात का कि पृथ्वी के एक दिन सूरज से टकराकर खत्म हो जाने की आशंका है। जब कभी सटोरियों की धोखाधड़ी के कारण शेयरों के भाव तेजी से बढ़ते हैं तो हर आदमी जानता है कि किसी भी समय बाजार यकायक ठप हो जाएगा और भाव एकदम गिर जाएंगे, लेकिन हर कोई यही उम्मीद लगाए रखता है कि यह आने वाली मुसीबत उसके पड़ोसी के सिर पर पड़ेगी, जबकि वह इसके पहले ही अपनी थैली भरकर किसी सुरक्षित स्थान में भाग जाएगा। [मेरे बाद चाहे जल प्रलय] हर पूंजीपति और हर पूंजीवादी राष्ट्र का यही मूल सिद्धांत है। इसलिए पूंजीपति को जब तक समाज बाध्य नहीं कर देता तब तक वह इस बात की कतई कोई परवाह नहीं करती कि मजदूर का स्वास्थ्य कैसा है, या वह कितने दिन तक जिंदा रह पाएगा। जब कुछ लोग मजदूरों के शारीरिक या नैतिक पतन का, उनकी असमय मृत्यु और अत्यधिक काम की यातनाओं का शोर मचाते हैं तो पूंजी उनको यह जवाब देती है: इन बातों से हमें क्यों सिरदर्द हों जब इनसे हमारा मुनाफा बढ़ता है? परंतु यदि पूरी तस्वीर पर गौर किया जाए तो यह सचमुच अलग-अलग पूंजीपतियों की सद्भावना या दुर्भावना पर निर्भर नहीं करता। खुली होड़ पूंजीवादी उत्पादन के मूल नियमों को अमल में लाती है, जो बाह्य एवं अनिवार्य नियमों के तौर पर हर अलग-अलग पूंजीपति पर लागू होते हैं।”

पूंजी, अध्याय 10

खुली होड़ के ये पूंजीवादी नियम एक ओर तो हर पूंजीपति को अपने कारोबार में मुनाफे के लिए सूक्ष्म स्तर की विस्तृत योजना बनाने के लिए बाध्य करते हैं वहीं दूसरी ओर सामाजिक उत्पादन के तौर पर अति-अराजकता को पैदा करते हैं। अतः पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन का सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति से कोई विशेष रिश्ता ही नहीं रहता है। एक ओर बहुसंख्यक मेहनतकश जनता की बुनियादी आवश्यकतायें भी अपूर्ण रहती हैं, तो दूसरी ओर पूंजीवादी उत्पादन का नतीजा असीम व्यर्थ उत्पादन भी होता है। समाज के शीर्ष 1% अमीरों के निजी उपभोग की वजह से ही कुल उत्सर्जन का 15% हिस्सा आता है जबकि निचले 50% लोगों की वजह से इसका आधा। समस्त फौज-पुलिस व जंगी साजो-सामान समाज के लिए व्यर्थ है और मार्के की बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र समझौते में सैन्य क्षेत्र को इन थोड़े बहुत पर्यावरण संरक्षण नियमों से भी पूरी छूट दी गई है। बड़े पैमाने पर निर्माण व ऊर्जा उपभोग के लिए जिम्मेदार बैंक, बीमा, शेयर बाजार सहित सारा वित्तीय क्षेत्र भी किसी वास्तविक भौतिक मानव आवश्यकता को पूरा नहीं करता। आवश्यकता आधारित योजना के बगैर उत्पादित माल को बेचने के लिए कृत्रिम जरूरत पैदा करने वाला विज्ञापन क्षेत्र भी समाज के लिए पूर्णतया अपव्यय ही है। इसी तरह सामाजिक आवास व्यवस्था और यातायात के अभाव में बड़े पैमाने पर लोग रोजाना घंटों बेवजह थकाऊ-उबाऊ, बीमार बनाने वाली यात्राओं के लिए विवश होते हैं और इसके लिए बड़े पैमाने पर निजी वाहन खरीदते हैं जो व्यर्थ उत्पादन और ऊर्जा उपभोग के दुष्चक्र को जन्म देता है जबकि सामाजिक आवास व्यवस्था में कामगारों को कार्य स्थल के पास ही आवास उपलब्ध कराया जा सकता है, गैर जरूरी यातायात, वाहनों, पेट्रोल-डीजल, बिजली उपभोग से बचा जा सकता है और सार्वजनिक यातायात की समुचित व्यवस्था होने से इतनी सड़कों, हाइवे-फ्रीवे-एक्स्प्रेसवे, फ्लाईओवर, एलिवेटिड सड़कों, पुलों की जरूरत भी नहीं होगी, बल्कि इन जगहों का प्रयोग शहरी क्षेत्रों तक में जंगल, खुले पार्क, खेल के मैदान बनाने में किया जा सकता है। यह कल्पना नहीं है, सोवियत दौर में मास्को के हर रिहायशी क्षेत्र में इसी तरह सड़कों के एक ओर आवास तो दूसरी ओर वन क्षेत्रों की योजनाबद्ध व्यवस्था की गई थी। कार्बन व्यापार और नेट ज़ीरो उत्सर्जन के पूंजीवादी सटोरिया बाजार के बजाय ऐसी सामाजिक व्यवस्था ही हमें वास्तविक ज़ीरो उत्सर्जन के करीब ले जाकर पर्यावरण का वास्तविक संरक्षण कर सकती है।

किंतु निजी संपत्ति, मुनाफे पर आधारित खुली होड़ वाली पूंजीवादी व्यवस्था ऐसा मुमकिन नहीं होने देती। इस व्यवस्था में शिक्षा कारोबार का मुनाफा विद्यार्थियों के अल्प व कुशिक्षित होने से ही संभव है, स्वास्थ्य कारोबार का लाभ लोगों के बीमार रहने से ही बढ़ता है और न्याय व्यवस्था के कारोबारी तभी फलते-फूलते हैं जब विवादों का निपटारा होने के बजाय उन्हें सालों-दशकों तक लटकाए रखा जाये। निजी संपत्ति और मुनाफे की व्यवस्था भी चाहिए और पर्यावरण की हिफाजत भी? यह न होने वाला कभी। तालाब-झील चाहिए, जंगल चाहिए, नदी-नाले के बहने के रास्ते में रुकावट नहीं चाहिए? पर ये सब किसकी जमीन पर करेंगे? कोयले का धुआं नहीं चाहिए? पर अदानी, जिंदल, टाटा की कोयले की खानें हैं, उससे बिजली बनाने का प्लांट है, मोटा मुनाफा होता है। वो क्यों बंद करे? उसे मुआवजा चाहिए। उद्योग वाला पूंजीपति क्यों अपने हानिकारक उत्सर्जन की सफाई में पैसा खर्च करे? उसे अपना मुनाफा कम क्यों करना है? इन सबको इससे इतना मुनाफा है कि वो अपने लिए कहीं अटलांटिक, प्रशांत महासागर के सुदूर न्यूजीलैंड जैसे द्वीपों के साफ सुथरे वातावरण में रहने का इंतजाम कर सकते हैं, उनकी ओर से बाकी सब जायें भाड में। इसीलिए ग्लासगो में भाषण तो बडे-बडे अच्छे ब सद्भावना भरे थे, पर झगड़ा था तो खर्च का, मुनाफे-हानि का। इस निजी संपत्ति और मुनाफे के सवाल को दरकिनार कर पर्यावरण की बातें सिर्फ धंधा हैं पूंजीपतियों और उनके पैसे से चलने वाले एनजीओ का।

चुनांचे असल सवाल तो यह है कि पर्यावरण को बचाना किससे है? पर्यावरण बचाओ के ‘सामान्य किंतु विभेदीकृत जिम्मेदारी’ वाले सिद्धांत का अर्थ तो हम यही पाते हैं कि वर्ग विभाजित समाज में पर्यावरण पर खतरे की जिम्मेदारी तो सामान्य अर्थात सब पर डाल दी जाए परंतु उसके नाम पर मुनाफा कमाने का विभेदीकृत काम पूंजीपति वर्ग के पाले में रहे। अतः पर्यावरण को बचाना तो इन्हीं साम्राज्यवादी पूंजीवादी शासकों और ग्लासगो मेले के स्पांसर मुनाफाखोर पूंजीपतियों से है, जो मध्यकाल के व्यापारिक मेलों की तरह ही ग्लासगो के इस ‘पर्यावरण’ मेले में अपने कारोबारी हितों को आगे बढाने के वास्ते इकट्ठा हुए थे। असल सवाल तो पृथ्वी, पर्यावरण, जीवन और मानव समाज को पूंजीपति वर्ग के आधिपत्य से मुक्त कराने का है जो मजदूर वर्ग के नेतृत्व में शोषण मुक्ति के वर्ग संघर्ष के जरिए ही मुमकिन है। तभी सामाजिक आवश्यकता आधारित ऐसा योजनाबद्ध उत्पादन मॉडल जमीन पर उतारा जा सकता है जिसमें प्राकृतिक जैवीय चक्र के नियमों का पालन किया जा सकेगा क्योंकि तब पर्यावरण संरक्षण लाभ-हानि के बजाय सामाजिक जीवन की गुणवत्ता की आवश्यकता में शामिल होगा। ब्राजीली श्रमिक कार्यकर्ता और पर्यावरणविद चिको मेंड़ीज ने बिल्कुल सही कहा था कि “वर्ग संघर्ष के बगैर पर्यावरण संरक्षण बस शौकिया बागबानी है।“