अर्थव्यवस्था: किसकी हरियाली, किसका सूखा?

December 15, 2021 0 By Yatharth

एम असीम


कॉर्पोरेट मीडिया में लगातार खबरें आ रही हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था कोरोना जनित मंदी से पूरी तरह उबर चुकी है और हर ओर उत्पादक गतिविधियों में तेजी आ रही है। सरकार भी इसके लिए अपने कामयाब आर्थिक प्रबंधन की दाद दे रही है। इसकी पुष्टि के लिए बिजली आपूर्ति व खदानों से लेकर औद्योगिक उत्पादन, सेवा क्षेत्र व यातायात की संख्या तक में वृद्धि के आंकड़े पेश किए जा रहे हैं। उधर निफ्टी और सेंसेक्स जैसे शेयर बाजार के बडे सूचकांकों में शामिल कंपनियों के मुनाफे, और मुनाफा दर में भी, बडी वृद्धि की बातें अर्थव्यवस्था में जबरदस्त सुधार की गवाह के तौर पर बताई जा रही हैं। हाल के दिनों में बैंकों द्वारा दिये जाने वाले कर्ज की मात्रा भी लंबे अरसे बाद बढने लगी है, यह तथ्य भी उत्पादन व कारोबारी गतिविधियों में तेजी के प्रमाण बतौर पेश किया जा रहा है।


उधर खुद रिजर्व बैंक का हाल ही में जारी उपभोक्ता मनोभाव सूचकांक कह रहा है कि उपभोक्ता खर्च करने से पीछे हट रहे हैं। उनकी खर्च करने की मनोवृत्ति कोरोना से पहले के दिनों से बहुत नीचे है। यह सूचकांक जो आम दिनों में अक्सर 90 से 100 के बीच रहता था, अभी 63 के स्तर पर है अर्थात आम उपभोक्ता खर्च में पहले के मुकाबले भारी कटौती कर रहा है, जीवन के लिए अति आवश्यक चीजें ही खरीदता है और उनमें भी ढूंढ़ रहा है कि सस्ती कौन सी और कहां मिलेगी। रोजमर्रा के उपभोग के तेज गति से बिकने वाले उपभोक्ता माल बनाने वाली यूनिलीवर, डाबर, पार्ले, ब्रिटेनिया, मरीको, आदि कंपनियों के हालिया बयान भी यही बताते हैं कि बिक्री धीमी है, खरीदार आ भी रहे हैं तो पहले के मुकाबले छोटे और सस्ते पैक खरीद रहे हैं।


आम लोगों से बात कर जमीनी हकीकत की जो रिपार्टें भी मीडिया/सोशल मीडिया में आ रही हैं वे भी पुष्टि कर रही हैं कि आसमान छूती महंगाई के चलते बहुसंख्यक मेहनतकश व निम्न मध्य वर्गीय जनता का जीवन अत्यंत दुरूह हो गया है और उन्हें भोजन जैसे अति आवश्यक उपभोग में भी कटौती करनी पड़ रही है। अधिकांश मेहनतकश व निम्न मध्य वर्ग द्वारा खर्च कटौती की बात वास्तविक भी है क्योंकि पिछले कुछ सालों में रोजगार की संख्या में भारी कमी (सीएमआईई के अनुसार 5 करोड़) हुई है और वास्तविक मजदूरी भी गिरी है। 


सवाल है कि जब यह दोनों बातें – अधिकांश उपभोक्ताओं द्वारा खरीदारी में कटौती और आर्थिक गतिविधियों में तेजी – तथ्यात्मक सूचनाओं/सर्वेक्षणों पर आधारित हैं तो इनमें इस तीक्ष्ण विरोधाभास की वजह क्या है? इसके लिए हमें एकपक्षीय या आंशिक तथ्यों के बजाय सर्वांगीण विश्लेषण की आवश्यकता है जो सरकारी व मीडियाई रिपोर्टों में नहीं मिलता। 


वास्तविकता यह है कि कोरोना के पहले से अर्थव्यवस्था में जो सुस्ती आई थी उसकी वजह से अधिकांश उद्योगों और व्यापारिक पूंजीपतियों के पास उत्पादित माल का बड़ा स्टॉक इकट्ठा हो गया था। यह स्टॉक पूंजीपति के लिए लागत होता है क्योंकि इसे रखने के लिए बैंक से कर्ज पर ली गई चालू पूंजी पर ब्याज चुकाना पड़ता है। इतनी अधिक मात्रा में अनबिके स्टॉक के कारण उद्योग स्थापित उत्पादन क्षमता से कम पर (औसतन 70% से नीचे) पर काम कर रहे थे। अतः इससे औद्योगिक मुनाफा दर भी गिर गई थी। 


कोरोना के कारण हुई तालाबंदी का अधिक प्रभाव लघु-मध्यम उद्योगों पर पड़ा जिनमें से बहुत सारे लंबे अरसे तक बंद रहे या पूरी तरह ठप हो गये। इसके विपरीत बड़े उद्योगों पर उतना असर नहीं हुआ जो जल्दी ही काम करने लगे। प्रतिद्वंद्वी लघु-मध्यम उद्योगों के बाजार से बाहर हो जाने का सीधा लाभ बड़े उद्योगों को मिला जिनका पहले से एकत्र स्टॉक अधिक तेजी से बिक्री में बदल गया। इस प्रकार उनका उत्पादित माल वापस मुद्रा पूंजी में बदल गया और वे इसे जमाकर अपने बैंक कर्ज का बोझ भी कम कर पाये जिससे उनका ब्याज खर्च भी घट गया। यह ब्याज उन्हें होने वाले लाभ में से ही चुकाया जाता है। अतः ये उद्योग लाभ का पहले से अधिक हिस्सा अपने पास रखने में सफल हुए। यही वजह थी कि कोरोना काल में बैंक कर्ज की मात्रा में वृद्धि नहीं हुई।


साथ ही कोरोना काल में अधिकांश उद्योग मजदूरों की संख्या कम करने में भी सफल रहे। विभिन्न राज्यों द्वारा श्रम कानूनों से पूंजीपतियों को दी गई छूट के कारण भी पूंजीपति काम मजदूरों से अधिक उत्पादन कर उनके शोषण की दर अर्थात उत्पादित बेशी मूल्य या मुनाफे की दर को बढ़ा पाए। भारत में लघु-मध्यम उद्योग ही अधिक रोजगार प्रदान करते हैं अतः उनमें संकट की वजह से बेरोजगारी भी तेजी से बढ़ी। मजदूरों की आपूर्ति में वृद्धि की इस वजह से मजदूरी दर भी गिर गई। अतः कोरोना महामारी के विनाशकारी दौर में बड़े कॉर्पोरेट पूंजीपतियों की लाभ दर तेजी से बढी है।


फिर जनसंख्या के ऊपरी 8-10% हिस्से को कोविड़ से लाभ भी हुआ है। बढ़ती लाभप्रदता से इस मालिक/प्रबंधक वर्ग की आय बढ़ी है। शेयर बाजार के उठने से भी इन्हें बढ़ती अमीरी का अहसास हो रहा है। लॉक डाउन के दौरान इनकी बचत भी बढ़ी है। इसलिए लॉकडाउन के बाद इन्होंने भी टिकाऊ उपभोक्ता सामानों की खरीदारी बढ़ाई है। साथ ही पुराने स्टॉक के निकल जाने की वजह से इन उद्योगों को फिर से स्टॉक इकट्ठा करने हेतु उत्पादन बढाने का अवसर भी मिला है। इस स्टॉक या इनवेंट्री की भी पूरी श्रृंखला होती है – कारखानों से डिस्ट्रीब्यूटर, होलसेलर व रिटेलर तक जो बाजार उधार व बैंक कर्ज के आधार पर जमा होता है। जब कारखाने से माल डिस्ट्रीब्यूटर के पास जाता है तो औद्योगिक सर्वेक्षण के नजरिये से बिक्री हो जाती है। अतः जब इनवेंट्री बढ रही होती है तो बिक्री में वृद्धि की रिपार्टें आती हैं चाहे अंतिम फुटकर विक्रेता या रिटेलर के पास उतनी बिक्री न भी हो रही हो। रिटेलर के पास बिक्री धीमी होने से पूरी श्रृंखला के जरिए यह सूचना उत्पादक औद्योगिक पूंजीपतियों के पास पहुंचने में भी एक समयांतराल रहता है। क्योंकि कोरोना काल के पहले एकत्र इनवेंट्री इस बीच क्लीयर हो चुकी थी अतः अभी रिस्टॉकिंग या इनवेंट्री के फिर से इकट्ठा होने का दौर है और उद्योग पहले के मुकाबले तुलनात्मक रूप से अधिक क्षमता पर काम कर रहे हैं हालांकि बढी बेरोजगारी और अधिकांश जनता की आय में कमी की वजह से वास्तविक बिक्री की गति धीमी पड़ रही है। 


यही वजह है कि एक और उपभोक्ता द्वारा खरीदारी में कमी की रिपार्टें आ रही हैं तो वहीं दूसरी ओर औद्योगिक गतिविधियों के तेज होने की ठीक विपरीत रिपार्टें भी आ रही हैं। किंतु युद्ध व महामारी आदि के विध्वंस के बाद होने वाली पहले की अन्य कई वृद्धियों  की तरह ही औद्योगिक गतिविधियों में यह मौजूदा तेजी भी अस्थायी है। यह पूंजीवादी संकट का कोई टिकाऊ समाधान नहीं दे सकती। चुनांचे कुछ समय बाद यह पूंजीवादी आर्थिक संकट और भी गंभीर होकर सामने आयेगा।