एमएसपी पर सरकारी ख़रीद गारंटी के लिए ‘राजनीतिक अर्थव्यवस्था’ बदलना क्यों ज़रूरी है?

December 15, 2021 0 By Yatharth

किसानी का संकट, तेलंगाना राज्य

एस वी सिंह


तेलंगाना में मुलुगु ज़िले के शिवापुर गाँव के रहने वाले 45 वर्षीय किसान, बी कुमार 10 नवम्बर को मेहनत से कमाई अपनी धान की फसल को बेचने के लिए सरकारी धान ख़रीद केंद्र लेकर पहुंचे. वे पूरे 20 दिन तक सरकारी ख़रीद अधिकारीयों को उनका धान ख़रीदने की गुहार लगाते रहे लेकिन वे नहीं माने. बी कुमार की हिम्मत जवाब दे गई और उन्होंने 30 नवम्बर को सरकारी ख़रीद केंद्र पर ही कीट नाशक पी लिया. 1 दिसम्बर को उनकी मौत हो गई. इस फ़सल को कमाने के लिए उन्होंने 4 लाख का क़र्ज़ लिया हुआ था और ट्रेक्टर की किश्त भी बाक़ी थी. अकेले नवम्बर महीने में तेलंगाना राज्य में आत्म हत्या (संस्थागत हत्या) करने वाले बी कुमार चौथे किसान हैं.


एक ज़माना बीत गया जब एन टी रामाराव ने ग़रीबों को लुभाने के लिए 2 रु किलो के हिसाब से चावल देने की योजना बनाई थी. उसी राह पर तेज़ी से चलते हुए मौजूदा मुख्यमंत्री ने उस योजना को और आकर्षक बना दिया; रु 1 प्रति किलो. ज़ाहिर है इसके लिए धान की अधिक सरकारी ख़रीद करनी होगी. सरकारी ख़रीद मतलब एमएसपी पर ख़रीद, मतलब निश्चित दाम. पिछले कुछ सालों में वहाँ बारिश भी अच्छी हुई, तेलंगाना के किसान अधिक धान उगाने के लिए पिल पड़े. तेलंगाना राज्य में धान की पैदावार 2015 -16 में कुल 29.6 लाख टन से बढ़कर 2020-21 में 2.26 करोड़ टन पहुँच गई जिसके इस साल 3 करोड़ टन तक पहुँचने की उम्मीद है. भारतीय खाद्य निगम (FCI) तेलंगाना राज्य से अभी भी, लेकिन, पहले जितनी ही, सिर्फ़ 60 लाख टन धान की ही ख़रीदी कर रहा है. बल्कि इस साल उसने अभी तक 45 लाख टन की ही ख़रीदी की है और उसने अभी तक राज्य भर में मौजूद कुल 65000 सरकारी धान ख़रीदी केन्द्रों में से आधे ही खोले हैं. मौजूदा किसान संकट का दूसरा कारण है कि कई राज्यों खासतौर पर तमिलनाडू और केरल में पसीजे हुए चावल (Parboiled rice) जिसका इस्तेमाल इडली बनने में होता है, की मांग को देखते हुए तेलंगाना के किसानों ने उसका उत्पादन अत्यधिक बढ़ा दिया था जिसे खरीदने से भारतीय खाद्य निगम ने साफ़ इंकार कर दिया है. तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव को चंद ग़रीबों को सस्ते दामों पर चावल बांटने की सिर्फ नौटंकी ही करनी है, राज्य की पूरी आबादी 3.9 करोड़ के लिए खाद्य ज़रूरतों से उनका कोई लेना-देना है नहीं इसलिए उन्होंने अपने राज्य का धान खरीद कोटा 25 लाख टन ही रखा हुआ है, उसे नहीं बढाया. मुख्यमंत्री ने बाक़ी सब काम किए; हैदराबाद के धरना स्थल (दिल्ली के जंतर मंतर जैसा) पर धरने पर बैठे, प्रधानमंत्री और खाद्य आपूर्ति मंत्री पियूष गोयल से मिले, चिट्ठियां लिखीं, अपनी पार्टी के एमपीओं को संसद में हल्ला करने पर लगाया, संसद में और बाहर गाँधी मूर्ति के पास धरने पर बैठाया लेकिन अपना कोटा 25 लाख टन से आगे बिलकुल नहीं बढाया. मुख्यमंत्री चाहते हैं कि केंद्र सरकार एफसीआई को अपना ख़रीद कोटा 60 लाख टन से बढाकर 90 लाख टन कराए, केंद्र सरकार कह रही है कि राज्य सरकार अपने राज्य का ख़रीद कोटा 25 लाख टन से बढाकर 50 लाख टन करे. नतीज़ा ये है कि राज्य के धान ख़रीद केन्द्रों पर अफरातफरी, दंगों जैसे हालात बन गए हैं. अब तक नवम्बर महीने में 4 किसान आत्म हत्या कर चुके हैं आगे स्थिति और भयावह होने की आशंका है. दूसरी तरफ अनाज व्यापारी ज़बरदस्त माल कूट रहे हैं क्योंकि किसान सरकारी एमएसपी मूल्य 1940 रु प्रति क्विटल की जगह 1100 रु प्रति क्विंटल या जो भी मिल जाए उस दाम पर अपनी फसल बेचने को मज़बूर हैं. एक और आफत हालात को और संगीन बना रही है. अभी तक वहाँ मानसून की बारिश हो रही है. मंडियों में बिकवाली ना हो पाने के कारण और वहाँ महीनों तक लाइन में लगने के कारण किसानों ने अपनी फसल खेतों में ही जमा की हुई थी. वहाँ नमी होने के कारण धान अपने आप उगना शुरू कर चुके हैं जिससे पूरी की पूरी फसल ही चौपट होने के हालात बन चुके हैं.


मुख्यमंत्री ने 10 नवम्बर को प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में शिकायत की है और दिलचस्प रूप से, उनकी भाषा बिलकुल किसान आन्दोलनकारियों जैसी हो गई है. उन्होंने लिखा है कि अनाज ख़रीद की कोई निश्चित राष्ट्रीय नीति नहीं है इसलिए सरकार फसलों की कोई योजना नहीं बना पाती. सरकार किसानों का उचित मार्ग दर्शन नहीं कर पाती. दालों और तिलहनों की फसलों की बुआई का क्षेत्र कम होता जा रहा है क्योंकि इनकी सरकारी ख़रीद की कोई योजना नहीं है जबकि इनकी राज्य में बहुत कमी है. उन्होंने ये भी आरोप लगाया कि उनके राज्य के साथ पक्षपात किया जा रहा है, पंजाब में सरकार सारा धान खरीदती है फिर उनके राज्य का कोटा क्यों नहीं बढ़ रहा? हैदराबाद के प्रगथी भवन में 28 नवम्बर को अपनी पार्टी के संसद सदस्यों को तेलंगाना में धान की सरकारी ख़रीद के बारे में केंद्र के पक्षपात पूर्ण रवैये के ख़िलाफ़ संसद में विरोध की रणनीति के बनाते हुए मुख्यमंत्री ने कहा, “केंद्र को देश भर के लिए एक समान खाद्यान्न ख़रीद नीति बनानी होगी. जब तक केंद्र बिलकुल स्पष्ट रूप से उसकी घोषणा नहीं करता, हमारे सांसद केंद्र से हर तरीक़े से लड़ते रहेंगे. केंद्र की सरकारी खाद्यान्न ख़रीद नीति भ्रामक और पक्षपातपूर्ण है”. 29 नवम्बर को जैसे ही संसद सत्र शुरू हुआ टीआरएस के सदस्यों ने ज़बरदस्त हंगामा खड़ा कर दिया था लेकिन इसके बावजूद केंद्र ने तेलंगाना के बेहाल किसानों की धान ख़रीदी के लिए अपना कोटा नहीं बढाया और ना ही कोई आश्वासन दिया. उसके बाद वहाँ किसानों में आक्रोश और हताशा बेहद बढ़ते जा रहे हैं. पाठकों को याद होगा कि तेलंगाना की टीआरएस ने अभी तक केंद्र सरकार की हर जन विरोधी नीति का आँख मूंदकर समर्थन करती आई है.


तेलंगाना में पिछले पांच सालों में धान की बुआई का क्षेत्र पांच गुना बढ़ गया है, 2015-16 में 25.02 लाख एकड़ से बढ़कर 2020-21 में 1.04 करोड़ एकड़ हो गया है. भारतीय खाद्य निगम ने ना सिर्फ़ खरीद का कोटा बढ़ाने से साफ इंकार कर दिया बल्कि रबी के सीजन में ख़रीद से इंकार ही कर दिया. तेलंगाना में धान रबी और खरीफ दोनों सीजन में उगाया जाता है. मुख्यमंत्री हताशा में झल्लाकर किसानों पर ही बिफ़र पड़े, ‘धान उगाना मतलब अपने गले में फांसी का फंदा डालना है’. किसान उत्पादन बढाकर अपराधी जैसा महसूस करने को मज़बूर किए जा रहे हैं. तेलंगाना में किसान सरकार से बेहद नाराज़ हैं. हुज़ूराबाद विधानसभा उपचुनाव में मिली हार से मुख्यमंत्री बौखलाकर किसानों से धान की बुआई ना करने को कह रहे हैं जबकि भाजपा वो चुनाव जीत गई और किसानों को धान की बुआई और ज्यादा करने को कह रहे हैं. किसानों को चुनाव जीतने के लिए मोहरों की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. केंद्र सरकार के सेवानिवृत्त कृषि सचिव सिराज हुसैन ने बताया की सारे फ़साद की वज़ह है कि केंद्र सरकार ने वर्ष 2020-21 में कुल धान उत्पादन, 1222.7 लाख टन के आधे से भी कम 49.12% की ही ख़रीद की है. उसकी वज़ह ये है कि केंद्र धान की ख़रीद 37000 रु प्रति टन ख़रीदकर सस्ते गल्ले की दुकानों (PDS) में उपलब्ध कराने के लिए राज्यों को 5000 रु प्रति टन बेचता आया है. बाक़ी की रक़म बज़ट में उपलब्ध खाद्यान्न सब्सिडी के लिए निर्धारित रक़म से ली जाती थी. अब केंद्र सरकार ने कॉर्पोरेट को दी जाने वाली सब्सिडी के आलावा सारी सब्सिडी बंद करने का फैसला कर लिया है.


“राजनीतिक अर्थव्यवस्था है जो भारत में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) संचालित अनाज खरीद को निर्धारित करती है” , टिकाऊ कृषि केंद्र (Center of Sustainable Agriculture) के प्रबंध निदेशक, डॉ जी वी रमनाजनवेलु की ये टिपण्णी केंद्र सरकार और तेलंगाना सरकार के बीच चल रही झूमा-झटकी के कारण की सही शिनाख्त के बिलकुल नज़दीक है जिसे और स्पष्ट और सरल भाषा में कहा जाना ज़रूरी है. देश में एक कृषि एवं खाद्यान्न नीति का होना बहुत ज़रूरी है क्योंकि जिंदा रहने के लिए रोटी सबसे ज़रूरी है. देश में कुल कितने लोग हैं, उनके अच्छे स्वास्थ्य के लिए कितनी दाल, चावल, गेहूं, तेल, फल, दूध, सब्जी,मांस,अन्डे, मसाले आदि चाहिएं, ये सब जानकारी होनी ज़रूरी है. इसके आधार पर कितने रक़बे में कौन सी फसल बोई जाए, इन सब जीवनावश्यक पदार्थों का उत्पादन अधिकतम करने के लिए किसानों को आवश्यक खाद, बीज, आधुनिक तकनीक उपलब्ध कराए जाएँ और उसके बाद सारे खाद्यान्न उत्पाद की सरकारी ख़रीद और समस्त जन संख्या को उसकी उचित, न्यायपूर्ण उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए विस्तृत योजना बनाना सरकार के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता वाला परम आवश्यक कार्य है. क्या ये मौजूदा व्यवस्था में संभव है? मौजूदा व्यवस्था में निजी ही नहीं सरकारी काम-काज भी मुनाफ़ा कमाने के लिए ही होता है. कुछ लोगों को भ्रम है कि सरकारी निकाय मतलब समाजवादी निकाय!! ये बहुत मान-मोहक झूट है, छलावा है. मुफ़्त में तो यहाँ दम निकलते रोगियों को ऑक्सीजन नहीं मिलती. जिस देश में भात-भात बोलते बच्चे मर जाते हैं वहाँ किसानों को धान की पैदावार बढ़ाने के लिए दण्डित किया जा रहा है, उन्हें ख़ुदकशी करनी पड़ रही हैं!! ये है वो ‘राजनीतिक अर्थव्यवस्था’ जिसका ज़िक्र रमनाजनवेलु साब कर रहे हैं. तेलंगाना के किसानों ने सिद्ध कर दिया कि कृषि उत्पादन अपार बढाया जा सकता है लेकिन पूंजीवाद अपनी जगह रहा तो ‘उत्पादन बढ़ाना गले में फांसी का फंदा डालने जैसा है’!! उत्पादन बढ़ाने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है, ‘राजनीतिक अर्थव्यवस्था’ को बदलना, मुनाफ़ाखोर-आदमखोर राजनीतिक अर्थव्यवस्था की जगह समाज की ज़रूरतों की पूर्तता करने वाली राजनीतिक अर्थव्यवस्था क़ायम करना.
लगता है सीमाओं पर किसानों के तम्बू फिर लगेंगे, जल्द ही लगेंगे और इस बार सबसे बड़ा तम्बू तेलंगाना का रहेगा!!