नई श्रम संहिताएं और मज़दूर वर्ग

January 18, 2022 0 By Yatharth

मासा

मज़दूर अधिकार संघर्ष अभियान (मासा) – देश भर के 16 क्रांतिकारी ट्रेड यूनियन महासंघों व मज़दूर संगठनों का साझा मंच – द्वारा दिसंबर 2021 में अंग्रेजी व हिंदी में जारी की गई नई पुस्तिका


भूमिका

            भारत की मौजूदा केंद्र सरकार ने पूंजी के हित में नव-उदारवादी व साम्राज्यवादी नीतियों को परवान चढ़ाते हुए मजदूर वर्ग पर तीखा हमला बोला है और 44 केंद्रीय श्रम कानूनों को समाप्त करके पूरी तरह मजदूर विरोधी 4 श्रम संहिताओं में तब्दील कर दिया है। केंद्र व कुछ राज्य सरकारों ने इनकी नियमावली भी तैयार कर ली है। सभी राज्यों द्वारा चारों संहिताओं की नियमावली तैयार करते ही श्रम संहितायें लागू भी हो जायेंगी।

            देखा जाए तो आज से कई दशक पूर्व से ही श्रम कानूनों को निष्प्रभावी किये जाने की प्रक्रिया चल रही है।  श्रम कानूनों को निर्रथक बनाने के लिए इनमें अनगिनत संशोधन किये गये। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों द्वारा श्रम कानूनों की व्याख्या में भी मज़दूर विरोधी प्रवृत्ति हावी रही है। कई श्रम कानूनों को जमीनी स्तर पर प्रयोग में अनदेखा किया गया, निष्प्रभावी कर दिया गया। स्थायी प्रकृति के कामों पर ठेका मजदूर व संविदा मज़दूरों को रखा जाने लगा। 1998 में द्वितीय श्रम आयोग का गठन किया गया जिसकी सिफारिशें 2002 में आईं। ये पूर्णतः मजदूर विरोधी सिफारिशें थीं। 2004 के बाद सत्तासीन हुई यूपीए सरकार इन सिफारिशों को तेजी से लागू करने में हिचकिचाती रही, हालांकि वह टुकड़ों में इन्हें लागू करने में लगी रही और सफल भी रही। पूंजीपति वर्ग, खासकर एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग को पूंजीपक्षीय सुधारों की यह धीमी गति मंजूर नहीं थी और वह लगातार इन सिफारिशों के अतिरिक्त अन्य पूंजीपरस्त नीतिगत परिवर्तनों को भी एक झटके में लागू करने व कराने की मंशा व्यक्त कर रहा था। उसके सामने “गुजरात मॉडल” और इस मॉडल का फासीवादी नायक नरेन्द्र मोदी दोनों कांग्रेसी शासन के मनमोहनीय मॉडल का सशक्त तथा जांचे-परखे विकल्प के तौर पर प्रकट हो चुका था।

            इस तरह हम पाते हैं कि पूंजीपति वर्ग 2014 में फासिस्ट मोदी सरकार को सत्तारूढ करने का फैसला लेता है और कामयाब भी हो जाता है, और हम पाते हैं कि एकाधिकारी पूंजीपतियों की आशा के अनुरूप मोदी सरकार ने पहले ही कार्यकाल में मजदूर वर्ग पर ताबड़तोड़ हमले शुरू कर दिये थे। फिक्स्ड टर्म एंप्लॉयमेंट, नीम परियोजना, कौशल विकास योजना के तौर पर अधिकारविहीन मजदूर उपलब्ध कराने जैसे मजदूर विरोधी कानून बनाए गए। इसी तरह अपने दूसरे कार्यकाल में इसने रही-सही कसर निकाल ली। कोरोना महामारी के दौरान “आपदा को अवसर में तब्दील करो” के नारे के साथ मेहनतकश अवाम पर चौतरफा हमला बोल दिया गया, इनमें श्रम संहिताओं का हमला सबसे बड़ा है। इस हमले के जरिये पूंजीपति वर्ग ने मौजूदा सत्ता के बल पर पहले की तुलना में मजदूर वर्ग को गुलामी की और भी ज्यादा मजबूत बेड़ियों में बांधने का प्रबंध कर दिया है। दुर्भाग्य से देश में राष्ट्रीय स्तर पर सही दिशा में मजबूत जुझारु मजदूर आंदोलन की अनुपस्थिति के कारण वह इसमें सफल भी होता जा रहा है। 

            श्रम कानूनों में किये जा रहे इन बदलावों का एक ऐतिहासिक संदर्भ है। जब दुनिया में और हमारे देश में श्रम कानून बनाए जा रहे थे, तो वह दौर दुनिया भर में मजदूर वर्ग के आन्दोलन के उभार और विजय का दौर था। सन् 1917 में रूस देश में मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में हुए क्रांतिकारी बदलाव के बाद दुनिया भर में समाजवाद की तरफ मजदूर आंदोलन के आगे बढ़ने की प्रक्रिया तेज हो रही थी। पूरे विश्व के मजदूर-मेहनतकश वर्ग व उत्पीड़ित जनता का वह प्रेरणास्रोत और उनकी आशाओं का केंद्र बन गया था। इतना ही नहीं, यह वह दौर था जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एक तिहाई दुनिया में मजदूर वर्ग का विजयी परचम लहरा रहा था। तब पूरी दुनिया में पूंजीपति वर्ग मजदूर वर्ग से भयाक्रांत था और वह मजदूर वर्ग के शोषण-दमन के स्रोत पूंजीवादी व्यवस्था को मजदूर वर्ग के गुस्से से बचाना चाहता था। पूंजीपतियों की जरूरत थी कि विभिन्न श्रम कानूनों के जरिये मजदूर आंदोलन को पूंजीवादी व्यवस्था की चौहद्दी में ही नियंत्रित रखा जाए। इस कारण पूंजीपति वर्ग कल्याणकारी राज्य का चोला ओढ़कर मजदूर वर्ग को कुछ सामाजिक-आर्थिक सुविधायें, कानूनी अधिकार एवं रियायतें देने को मजबूर हुआ था। लेकिन सोवियत संघ, चीन और उसके बाद एक-एक कर सभी समाजवादी देशों में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना हो जाने के बाद पूंजीपति वर्ग फिर से आक्रामक हो गया। भूमंडलीकरण के नाम पर नव-उदारवादी पूंजीवाद और साम्राज्यवाद ने मज़दूर वर्ग पर हमला बोल दिया। न सिर्फ पूंजी और श्रम के बीच अघोषित समझौता टूट गया, अपितु विश्व-पूंजीवाद के अंदर सतत गहराते संकट ने भी पूंजीपति वर्ग को मजदूर वर्ग पर ज्यादा से ज्यादा सघन रूप से हमले तेज करने के लिए प्रेरित और मजबूर किया। जाहिर है, तथा इसमें आश्चर्य की किसी बात की कोई गुंजाइश नहीं है कि आज एकमात्र मजदूर वर्ग ही नहीं, किसान सहित अन्य सभी मेहनतकश तबके इजारेदार वित्तीय पूंजी के सीधे हमलों का सामना कर रहे हैं।   

            हम पाते हैं कि 80 के दशक के बाद से ही हरेक देश के शासक वर्ग ने कल्याणकारी राज्य का चोला उतार फेंकना शुरू कर दिया था और मजदूर वर्ग द्वारा हासिल किए गए कानूनी अधिकारों में कटौती करनी शुरू कर दी थी। उन्हें निष्प्रभावी कर दिया गया या फिर कुछ मामलों में पूरी तरह खत्म कर दिया गया। इसके साथ ही आर्थिक नीतियों में भी तदनुरूप बुनियादी बदलाव आये। जाहिर है, भारत के शासक वर्ग ने भी नई आर्थिक नीति के नाम पर कल्याणकारी राज्य के चोले को उतार फेंका और सत्ता के प्राचीर से घोषणा की गई कि “सरकार कोई धर्मशाला नहीं” जो खैरात बांटे। परिणामतः विरोध में उठने वाले हर प्रतिरोध को शासक वर्ग ने न सिर्फ दमन के द्वारा बल्कि प्रतिक्रियावादी विचारों के प्रचार व प्रसार के बल पर भी रोकने की कोशिश की। भाजपा जैसी अतिप्रतिक्रियावादी व फासीवादी ताकतों को एकाधिकारी पूंजीपतियों द्वारा सत्ता में बैठाया जाना शुरू हुआ। जिसका परिणाम है कि आज मजदूर वर्ग की आवाज़ ही नहीं, मजदूर-मेहनतकश वर्ग के हितैषी बुद्धिजीवियों, यहां तक कि पूंजीवादी-उदारवादी बुद्धिजीवियों की भी, आवाज को सुनने वाला वर्तमान शासन व सरकार में कोई नहीं है। उल्टे, उन्हें देशद्रोही और आतंकी बता प्रताड़ित किया जा रहा है और जेलों में बंद किया जा रहा है।

साथियो!

            श्रम संहिताओं के खिलाफ लड़ाई ने अन्य सभी मुद्दों की तुलना में पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध हमारी लड़ाई को अधिकाधिक रूप से राजनीतिक लड़ाई बना दिया है। यह लड़ाई न तो हमारी किसी अन्य तात्कालिक आर्थिक मांग की तरह है जिसे मजदूर वर्ग का एक हिस्सा पूंजीपति वर्ग के एक हिस्से यानी किसी फैक्ट्री मालिक के विरुद्ध लड़कर मनवा सकता है, और न ही यह किसी पूंजीवादी दल या पार्टी को शासन व सरकार से हटाने की लड़ाई मात्र ही रह गयी है ताकि मौजूदा सरकार को हटाकर बनने वाली आगामी सरकार से इन श्रम संहिताओं को वापस कराया जा सके। हालांकि इसका कतई यह अर्थ नहीं है कि वर्तमान फासिस्ट सरकार को परास्त करने की मजदूर वर्ग की चाहत व कोशिश गलत है या इसका कोई महत्व नहीं है। वर्तमान संदर्भ में जो बात मजदूर वर्ग के लिए समझना सबसे ज्यादा जरूरी है, वह यह कि श्रम संहिताओं के विरुद्ध लड़ाई एक ऐसी राजनीतिक लड़ाई को सामने ला रही है जो चिरकालिक रूप से संकटग्रस्त पूंजीपति वर्ग और उसकी शोषण-दमनकारी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की लड़ाई के मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक कर्तव्य से गहरे रूप से जुड़ी हुई है। हर संकट पूंजीवादी सत्ता के हमलों की नयी खेप लाता है और मजदूर वर्ग की पहले से हासिल सुविधाओं व रियायतों को छीनता है। इसीलिए पूंजीवाद का हर संकट मजदूर वर्ग को राजनीतिक लड़ाई व संघर्ष की अहमियत को गहराई से समझा जाता है। पूंजीपति वर्ग के हमलों का वर्तमान दौर विश्व पूंजीवाद की असाध्य प्रतीत होती संकटग्रस्तता से निकला हुआ दौर है। इसलिए इस दौर की हर छोटी-बड़ी राजनीतिक लड़ाई पूंजीपति वर्ग सहित समस्त शोषक-शासक वर्गों के विरुद्ध फैसलाकुन लड़ाई की ओर ही अग्रसर हो सकती है जिसके बारे में मजदूर वर्ग को विशेष रूप से सचेत होना जरूरी है। 

            इस पुस्तिका के माध्यम से मजदूर अधिकार संघर्ष अभियान (MASA) का यह प्रयास है कि देश के मजदूर मौजूदा केंद्र की मोदी सरकार द्वारा हाल ही में पारित 4 श्रम संहिताओं के ज़रिए किये गए मज़दूर विरोधी बदलावों को समझ सकें। हमनें इन मजदूर विरोधी श्रम संहिताओं के बारे में संक्षेप में तथा सरल भाषा में बताने की कोशिश की है। हमें उम्मीद है कि देश के मज़दूर साथी इन खतरनाक श्रम संहिताओं के स्वरूप को समझेंगे, इन्हें फ़ौरन रद्द करवाने और श्रम कानूनों में मज़दूर पक्षीय बदलाव करवाने के लिए मजबूत एकता बनाकर निरंतर, जुझारू और निर्णायक संघर्ष को आगे बढ़ाएंगे! इन घोर मजदूर विरोधी श्रम संहिताओं का विरोध करना मजदूर वर्ग के अस्तित्व के लिए अपरिहार्य हो गया है। इसके लिए हमें अपनी सम्पूर्ण वर्गीय एकता को मजबूती से कायम रखते हुए पूरी ताकत के साथ काम करना होगा, ताकि इस बार का शासक वर्ग को दिया जाने वाला हमारा मुंहतोड़ जवाब पूंजीपति वर्ग को सीधे अर्श से फर्श पर ला पटके, हमारी जीत न सिर्फ फैसलाकुन हो अपितु विश्व-ऐतिहासिक विपर्यय को उलटने में भी कामयाब हो सके।

नई श्रम संहिताएं और मजदूर वर्ग

यह केन्द्र सरकार द्वारा पेश की जा रही नई श्रम सहिंताओं के जरिये लाये जा रहे बदलावों के बारे में श्रमिकों को सूचित करने हेतु एक संक्षिप्त पर्चा है। केन्द्र सरकार द्वारा तर्क दिया जा रहा है कि केंद्र के 44 श्रम कानूनों के साथ राज्य सरकारों के अन्य बहुत से श्रम कानून हैं, और इन कानूनों के कारण कारपोरेट जगत देश में निवेश करने को तैयार नहीं है। इसलिये ‘व्यवसाय की सुगमता’ को बढ़ावा देने के लिये इन कानूनों को चार संहिताओं में समेकित किया जा रहा है, जो हैं –

  1. श्रम संहिता
  2. औद्योगिक संबंध संहिता
  3. सामाजिक सुरक्षा संहिता
  4. व्यवसायगत सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य स्थितियां संहिता

            इस तर्क में अनेक झूठ शामिल हैं। पहला, यह दर्शाने के लिये कोई सबूत नहीं है कि कानूनों की संख्या ज्यादा होने से व्यवसाय की सुगमता कम होती है। यूनाइटेड किंगडम, जिसमें तीन देश हैं (इंग्लेंड, स्कॉटलंड और वेल्स् मिलकर ग्रेट ब्रिटेन बनाते हैं) तथा उत्तरी आयरलेंड नामक एक अन्य क्षेत्र है, में श्रम को विनियमित करने हेतु 65 से ज्यादा क्राउन कानून (केंद्रीय कानून) हैं। यह उन विभिन्न कानूनों के अतिरिक्त हैं जो इसके अलग-अलग देशों/क्षेत्रों में श्रमिकों के लिये बनाये गये हैं। जहां भारत में समान काम-समान वेतन के सिद्धांत को लागू करने के लिये केवल एक कानून (समान पारिश्रमिक अधिनियम) है, वहीं संयुक्त राज्य अमेरिका में दिव्यांग व्यक्तियों के लिए सहित इस सिद्धांत पर 7-8 कानून हैं। ब्रिटेन व अमेरीका में व्यवसाय की सुगमता के बारे में कभी किसी ने शिकायत नहीं की।

            इस झूठ का दूसरा हिस्सा यह है कि 44 केंद्रीय कानूनों को 4 संहिताओं में समेकित किया जा रहा है। यदि सिर्फ यही बात होती तो इतना प्रतिरो नहीं होना चाहिये था। वास्तव में, स्थाई कार्यबल को समाप्त करने के लिये, भविष्य के कार्यबल को फिक्स टर्म कार्यबल में बदलने के लिये, सामूहिक सौदेबाजी को समाप्त करने के लिये, छंटनी-लेऑफ-तालाबंदी के विरुद्ध सुरक्षा को समाप्त करने के लिये, ठेका श्रमिकों के अधिकारों को कुतरने के लिये तथा जुझारू यूनियनों को अमान्य करने के लिये कानूनों को बदला जा रहा है।

            हम इन मजदूर विरोधी संशोधनों को एक-एक करके समझेंगे। सबसे पहले हम फिक्स टर्म कॉन्ट्रैक्ट (नियत अवधि अनुबंध) के बारे में संशोधन को लेते हैं क्योंकि इससे श्रम कानूनों में बदलावों के पीछे के पूरे दर्शन को समझने में मदद मिलेगी। परन्तु इस मजदूर विरोधी कदम पर बात करने से पहले, हमें इन सुधारों के ऐतिहासिक संदर्भ को समझना चाहिये।

ऐतिहासिक संदर्भ

            1970 के दशक तक उत्पादन के अलग-अलग विभागों का एकीकरण करके बड़े उद्योग बनाना एक आम प्रवृति थी। इसे “असेम्बली लाईन” या “फोर्ड प्रणाली” के रूप में जाना जाता था। हालांकि 1970 के दशक तक इस व्यवस्था में बदलाव होने लगा। यह कहा जाता है कि यह नयी प्रणाली जापान में जन्मी, जहां पर जमीन पर भारी दबाव था और इसलिये बड़े उद्योग स्थापित करना मुस्किल था। इसको “टोयोटा प्रणाली” या “जीरो इन्वेंटरी प्रणाली” या “जस्ट इन टाइम प्रणाली” कहा जाता है। इस व्यवस्था में ज्यादातर काम को आउटसोर्स कर दिया जाता है। अंतिम उत्पाद को अलग-अलग भागों या पुरजों में बांट दिया जाता है और इन अलग-अलग पुरजों का उत्पादन अलग-अलग निर्माताओं (वेंडर्स) को आउटसोर्स कर दिया जाता है जो अंतिम आर्डर की स्थिति के अनुसार प्रतिदिन केवल एक विशिष्ट संख्या में पुरजे सप्लाई करते हैं।

            मान लें किसी खास दिन 300 कारों का ऑर्डर है। उस दिन अलग-अलग निर्माताओं द्वारा 1500 (300 गुणा 5) पहिये, टायर, ट्यूब आदि उपलब्ध करवाये जाएंगे। 600 वाईपर, हेडलाइटें आदि की आवश्यकता होगी। उसी दिन 300 कारें बनाने के लिये सभी पुरजे सही समय पर पहुंच जाते हैं। अब बड़े कारखाने आवश्यक नहीं हैं। अलग-अलग पुरजे अलग-अलग छोटे कारखानों में बनाये जा सकते हैं।

            हालांकि, किसी दिन विशेष को केवल 100 कारों की आवश्यकता हो सकती है और अगले सप्ताह 600 कारों की आवश्यकता हो सकती है। इसका मतलब है कि अलग-अलग निर्माताओं (और मुख्य प्लांट) को रोजगार में “लचीलेपन” की आवश्यकता होगी। उनको एक दिन 1000 श्रमिक चाहिये होंगे, अगले दिन 500 और अगले सप्ताह 6000। ऐसा केवल “हायर एंड फायर” (रखो और निकालो) की व्यवस्था में ही किया जा सकता था, यानी नियोक्ता के पास सभी (स्थायी या अस्थायी) श्रमिकों को एक निश्चित अवधि के लिये अनुबंध (कॉन्ट्रैक्ट) के आधार पर काम पर रखने की क्षमता होनी चाहिये।

            इस नयी व्यवस्था ने शहरों में जमीनों के बड़े हिस्सों को मुक्त किया। मुंबई में कपड़ा मिलें बंद हो गयी और कपड़ा निर्माता तिरुपुर और भिवंडी की छोटी-छोटी श्रमिक स्वेटशॉप में चले गये। बड़े शहरों में भारी उद्योग बंद होने लगे हैं तथा विनिर्माण कार्य छोटे शहरों व कस्बों के छोटी इकाईयों में होने लगा है। इससे नियोक्ताओं को भारी मुनाफा हुआ है।

            परन्तु यही नियोक्ताओं के लिए मुख्य लाभ नहीं था। उत्पादन के बंट जाने से श्रमिकों की एकता भी बंट गई। बड़े कारखानों में बड़ी यूनियनें होती थी। अब मजदूर पूरे भारत में फैले छोटे-छोटे स्वेटशॉप में बिखर गये हैं, जिससे यूनियनों को संगठित करना बहुत मुश्किल हो गया है।

            उत्पादन न केवल भारत में बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी ऑउटसोर्स किया गया है। कुछ विनिर्माण गतिविधियां जैसे कार, स्टील और आईटी व आईटीईएस जैसी सेवायें भारत को भी आउटसोर्स की जाने लगी। 1991 की नई आर्थिक नीतियों ने इस प्रवृति को कई गुणा बढ़ावा दिया है। स्थाई रोजगार की मौजूद व्यवस्था को समाप्त करने और “हायर एंड फायर” की व्यवस्था शुरू करने के लिये भारतीय निर्माताओं की मांग प्रति वर्ष तेजी से बढ़ती गई।

स्थायी रोजगार व्यवस्था व उसका विध्वंस

            यदि श्रमिकों को अपने अधिकारों के लिये लड़ना है, खासकर भारत जैसे भारी बेरोजगारी वाले देश में, तो रोजगार की सुरक्षा होना महतवपूर्ण है। “हायर एंड फायर” की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये, नहीं तो श्रमिकों के लिये लड़ाई बेहद कठिन हो जायेगी। इसके लिये, वर्षों के संघर्ष के परिणामस्वरूप द्वितीय विश्व युद्ध के बाद श्रमिकों के लिये पहला कानून, औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) अधिनियम, 1946 बनाया गया था। इसने रोजगार को स्थायी, अस्थायी, कैजुअल व प्रोबेसनर (परिवीक्षाधीन) प्रकारों के रूप में परिभाषित किया, जिसका आधार स्थाई था।

            वे सभी श्रमिक जिनका काम स्थायी प्रकृति का था, स्थायी श्रमिक होते थे। काम का स्वरूप मुख्य पैमाना था। अस्थायी श्रमिक वे होते थे जिनको अस्थायी प्रकृति के कार्य पर या स्थायी प्रकृति के काम में अस्थायी बढ़ोतरी के लिये लगाया जाता था। कैजुअल श्रमिक एक आकस्मिक प्रकृति के काम के लिये थे (अनियोजित, अचानक आए काम – जैसे तुफान के बाद सफाई करना)। बदली श्रमिक वे होते थे जिनको बीमारी या छुट्टी आदि के कारण हुई रिक्तियों को भरने के लिये लगाया जाता था। यहां तक कि उनको भी कार्ड दिया जाना और वरिष्ठता व हाजिरी के आधार पर काम दिया जाना ज़रूरी था।

            अवधारणा यह थी कि उपक्रमों में स्थायी प्रकृति के काम करने वाले सभी श्रमिक स्थायी श्रमिक होंगे। इसके बावजूद यह पाया गया कि वर्षों तक श्रमिकों को अस्थायी, कैजुअल और बदली के रूप में ही काम कराया जाता था। न्यायमूर्ति गजेंद्रगडकर के नेतृत्व में प्रथम श्रम आयोग ने 1969 की अपनी रिपोर्ट में इस पर टिप्पणी की थी। लगभग उसी समय 1968 में महाराष्ट्र सरकार ने अनुचित श्रम प्रथाओं पर एक समिति का गठन किया था। उन्होनें सिफारिश की थी कि श्रमिकों को पक्के होने के अधिकार से वंचित करने के मकसद से उनको अस्थायी, कैजुअल और बदली के रूप में वर्षों तक लगाये रखना एक अनुचित श्रम प्रथा थी। न्यायमूर्ति गजेंद्रगडकर ने इन अनुचित श्रम प्रथाओं को नोट करते हुए सिफारिशों का अनुमोदन किया था। उनकी रिपोर्ट कहती है कि श्रमिकों को कृत्रिम अवकाश देकर वर्षों तक कैजुअल रखना एक घातक प्रथा है।

            इसके जवाब में, महाराष्ट्र के अंदर यूनियनों के दबाव से (उस समय सबसे मजबूत यूनियन आंदोलन मुंबई में था) महाराष्ट्र सरकार ने दो कानून बनाये।

            पहला, उन्होंने यह स्पष्ट करने के लिये औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) अधिनियम में संशोधन किया कि श्रमिक को अस्थायी, कैजुअल या बदली किसी भी नाम से पुकारें, यदि उन्होंने 240 दिन काम पूर्ण कर लिया है (कृत्रिम अवकाश को गिनती में लिए बिना) तो ऐसे श्रमिकों को स्थायी करना होगा।

            दूसरा, अनुचित श्रम प्रथाओं के खिलाफ एक कानून पास किया गया जिसमें श्रमिकों को अस्थायी, कैजुअल और बदली के रूप में वर्षों तक पक्के होने के लाभों से वंचित करने के मकसद से रखना एक अनुचित श्रम प्रथा मानी गई। अन्य राज्यों ने भी इसका अनुसरण किया तथा कई राज्यों में इसी तरह के कानून बनाये गये। अंततः केंद्र सरकार ने भी महाराष्ट्र के कानून के तर्ज पर अनुचित श्रम प्रथाओं पर रोक लगा दी।

            निःसंदेह सुप्रीम कोर्ट ने कुछ भ्रमित करने वाले फैसले दिये हैं परन्तु आज जो कानून है वह मोटे तौर पर यह है कि श्रमिक 240 दिनों की निर्बाध सेवा पूरी करने पर पक्का होने का हकदार है।

            1984 में ही उलटफेर शुरू हो गया था। छंटनी की परिभाषा को बदलकर यह बनाया गया कि यदि एक श्रमिक को एक निर्धारित अवधि के लिये नियोजित किया गया हो और उस अवधि के अंत में उसके रोजगार का नवीनीकरण नहीं हुआ हो तो उसे छंटनी नहीं माना जायेगा। लेकिन श्रमिक अभी भी 240 दिन बाद पक्का होने का हकदार था। दूसरे श्रम आयोग की रिपोर्ट आने तक यह स्थिति बनी रही। श्री रवींद्र वर्मा के नेतृत्व में दूसरे श्रम आयोग ने 2002 में अपनी रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट ने पूर्ण रूप से नियोक्ताओं के पक्ष में आत्म समर्पण कर दिया। हाल ही में किये जा रहे बहुत से बदलाव दूसरे श्रम आयोग द्वारा ही सुझाये गये हैं।

            इस रिपोर्ट में दूसरे श्रम आयोग ने स्वीकार किया है कि सभी औद्योगिक व वाणिज्यिक संस्थानों के लिये सभी नौकरियों के कार्यकाल के आधार को स्थायी व अस्थायी से अनुबंध या फिक्स टर्म में बदलना एक आर्थिक आवश्यकता बन गयी है। यह रिपोर्ट कहती है कि ऐसे बदलावों की सामाजिक आवश्यकता है और इसके लिए उचित सामाजिक स्वीकृति की जरूरत है। अतः पहले इसके और ऐसे बदलावों के परिणामों के लिये सामाजिक संस्थाओं का निर्माण किया जाना चाहिये।

            आयोग नियोक्ताओं की इस मांगों को भी दर्ज करता है कि औद्योगिक विवाद अधिनियम के अध्याय वीबी, जिसमें छंटनी, लेऑफ या तालाबंदी के लिये सरकार की अनुमति को आवश्यक किया गया है, को समाप्त कर देना चहिये या इसको लागू करने की सीमा बढ़ा कर केवल उन उपक्रमों तक की जानी चाहिये जहां 300 या इससे ज्यादा श्रमिक काम करते हो।

            इनमें से परवर्ती मांग को आयोग ने मोटे तौर पर स्वीकार कर लिया है। आयोग ने यह भी सिफारिश की कि 19 या इससे कम श्रमिकों को काम पर रखने वाले उपक्रमों पर आमतौर पर कोई श्रम कानून लागू नहीं होना चाहिये। इसके बजाय छोटे उपक्रमों के लिये एक विशेष कानून बनाया जाना चाहिये। इसका मतलब यह है कि फैक्ट्री अधिनियम, ईएसआई अधिनियम, शॉप्स एंड एस्टैब्लिशमेंट अधिनियम आदि कानून छोटे उपक्रमों पर लागू नहीं होंगे। मोटे तौर पर हम समझ सकते हैं कि वर्तमान श्रम संहिताओं में डाले गये प्रावधन दूसरे श्रम आयोग की सिफारिशों के अनुरूप हैं।

श्रम संहिताओं में हालिया बदलाव

            सन् 2002 में सरकार दूसरे श्रम आयोग की सिफारिशों को तुरन्त लागू करने में सक्षम नहीं हो पाई। 2004 तक सरकार बदल गयी और यूपीए गठबंधन की सरकार बनी। इस सरकार ने भी दूसरे श्रम आयोग की सिफारिशों के आधार पर श्रम कानूनों में बदलाव करने की कोशिश की। हालांकि विरोध की वजह से यूपीए सरकार ने इन सिफारिशों को संयुक्त संसदीय समिति के पास भेज दिया। कुछ प्रस्तावित बदलावों पर इस समिति की रिपोर्ट ने दिखाया कि यदि ये श्रम कानूनों में ऐसे बदलाव किये गये तो वर्तमान में श्रम कानूनों का संरक्षण प्राप्त करने वाले श्रमिकों का 70% इस सुरक्षा से वंचित हो जायेगा।

            इसके बावजूद 2014 में सत्ता संभालने के एक सप्ताह के भीतर मोदी सरकार ने अपनी पहली केबिनेट मिटिंग में श्रम कानूनों में इन बदलावों के साथ आगे बढ़ने के अपने फैसले की घोषणा कर दी। इसका जबरदस्त विरो हुआ। मोदी सरकार के पास विपक्ष की सहमति के बिना इस तरह के बदलाव करने के लिये राज्यसभा में अपेक्षित बहुमत भी नहीं था। इस वजह से इसने संविधान के साथ धोखाधड़ी की।

            हमारा संविधान श्रम कानून बनाने के लिये केन्द्र व राज्य सरकार दोनों को अनुमति देता है। यदि दोनों द्वारा बनाये गये कानूनों के बीच विवाद पैदा हो जाये, तब केन्द्र सरकार द्वारा बनाया गया कानून मान्य होता है। हालांकि किसी राज्य की विशेष परिस्थिति में, यदि राज्य के कानून को राष्ट्रपति द्वारा सहमति दी गई है, तो उस राज्य में वही कानून लागू होगा।

            एनडीए व सहयोगी सरकारों ने श्रम कानूनों में बदलाव राज्यों के स्तर पर करने शुरू किये। पहले इसका आरम्भ राजस्थान और फिर हरियाणा, एमपी आदि जैसे राज्यों में किया गया, जिसके बाद महाराष्ट्र, ओडिशा आदि में इसका विस्तार हुआ। एनडीए व सहयोगी सरकारों ने राज्य स्तर पर बदलाव किये जिसको वे केन्द्रीय स्तर पर नहीं कर सकते थे और भारत के राष्ट्रपति ने इन बदलावों पर अपनी मोहर लगा दी।

            परन्तु यह भी काफी नहीं था, कारपोरेट जगत चाहता था कि केन्द्रीय कानूनों में भी बदलाव होने चाहिये और ये सारे भारत में लागू होने चाहिये। इसी वजह से प्रचंड बहुमत की मोदी-2 सरकार ने सारे विरोधों को दरकिनार करके 8 अगस्त 2019 को पहला लेबर कोड ‘मजदूरी संहिता संसद में पारित कर दिया। आखिरकार उपयुक्त मौका देखते हुए कोविड महामारी के बीच और जब पूरा विपक्ष संसद में मौजूद नहीं था, 23 सितंबर 2020 को बाकी तीन संहिताओं को भी पारित कर दिया गया और इसी के साथ चारों लेबर कोड को कानून में तब्दील कर दिया गया

            हम वकीलों की तरह विस्तार से इन संहिताओं का विश्लेषण नहीं करेंगे। हम इस परचे में जो करना चाहते हैं, वह उन मुख्य बिंदुओं को इंगित करना है जो नयी श्रम संहिताओं के कारण श्रमिकों को प्रभावित करेंगे।

नियत अवधि (फिक्स्ड टर्म) सेवा अनुबंध

            नौकरी के एक कार्यकाल के रूप में “फिक्स टर्म को मान्यता प्रदान करना नयी संहिताओं के सबसे खतरनाक प्रभावों में से एक है। जैसा कि पहले 5 किस्म के रोजगार थे – स्थायी, अस्थायी, कैजुअल, बदली और प्रोबेशनर – अब पूरे भारत में सभी श्रमिकों के लिये छठी किस्म जोड़ी गयी है “फिक्स टर्म या निश्चित (नियत) अवधि। इसके तहत, यदि आप एक फिक्स टर्म या नियत अवधि (मान लो एक या दो वर्ष) के लिये लगाये गये हैं तो आप पक्के नहीं हो सकेंगे। आपको पक्के मजदूर के समान वेतन और अन्य लाभ दिये जायेंगे लेकिन आपको छंटनी, लेऑफ, तालाबंदी, मनमर्जीपूर्ण डिसचार्ज आदि के विरुद्ध सुरक्षा नहीं मिलेगी। यदि आपका कार्यकाल पूरा हो गया तो प्रबंधन आपको वापस लेने के लिये कतई बाध्य नहीं होगा। यह हायर एंड फायर का ही एक रूप है।

            इसमें अवधि का नवीनीकरण कितनी भी बार किया जा सकता है। इसलिये संभवतः एक श्रमिक अपना सारा जीवन एक फिक्स टर्म श्रमिक के रूप में व्यतीत कर देगा। इसका नतीजा यह होगा कि श्रमिकों की एकता की शक्ति को गंभीर क्षति पहुंचेगी। नियत अवधि (फिक्स्ड टर्म) के श्रमिक यूनियनों में आने से डरेंगे। यदि वे नेतृत्वकारी भूमिका निभायेंगे तो उनके अनुबंध का नवीनीकरण नहीं किया जायेगा।

“समझौते” की नई परिभाषा

            अब तक के कानून के तहत एक औद्योगिक विवाद (बर्खास्तगी, डिस्चार्ज आदि को छोड़कर) सामूहिक होना चाहिये। एक विवाद, मान लें वेतन पर, कोई यूनियन या बड़ी संख्या में मजदूरों द्वारा समर्थित होना चाहिये ताकि प्रबंधन के खिलाफ मजदूरों की एकता बनी रहे। इसलिये एक समझौता, जो एक विवाद को सुलझाता है, भी सामूहिक ही होता है।

            नई संहिताओं में समझौते की परिभाषा बदल दी गई है। इसका मतलब है कि एक अकेला श्रमिक भी वेतन, या छुट्टी, या किसी भी विषय के बारे में प्रबंधन के साथ समझौता कर सकता है। फिक्स टर्म अनुबंध के साथ मिलकर यह और भी घातक संयोजन बन जाता है। अब एक नियोक्ता को कानूनन श्रमिकों को फिक्स टर्म अनुबंध पर रखने एवं हर फिक्स टर्म श्रमिक से अलग-अलग समझौते करने की अनुमति होगी।

            अखबार उद्योग में इस व्यवस्था को आजमाया व परखा जा चुका है। ज्यादातर पत्रकार आज व्यक्तिगत अनुबंधों में आ गये हैं और अपने अकेले के समझौते कर रहे हैं। शुरू में यह प्रणाली लुभावनी लगी थी परन्तु अब ज़्यादातर वेतन बोर्ड के अवार्ड पर वापस जाना चाहते हैं। लेकिन क्योंकि इस प्रक्रिया में उनकी यूनियनों को खत्म कर दिया गया, तो इस पर आवाज़ उठाने के लिये कोई सामूहिक आवाज या आंदोलन नहीं बची है।

            इस नयी परिभाषा से युनियनों को भी नुकसान होगा। इससे प्रबंधन के चहेतों को बेहतर अनुबंध हासिल होंगे और जो अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करते हैं, उन्हें न केवल बदतर अनुबंध स्वीकार करने होंगे बल्कि उनके अनुबंधों का नवीनीकरण भी नहीं होगा और उन्हें इससे लड़ने का कोई अधिकार भी नहीं मिलेगा।

ले-ऑफ, छंटनी और तालाबंदी

            1984 के बाद से कोई भी नियोक्ता, जिसके उपक्रम में 100 से ज्यादा श्रमिक हों, सरकार की पूर्व अनुमति के बिना किसी श्रमिक की छंटनी या लेऑफ और उद्योग की तालाबंदी नहीं कर सकता है। सरकार को मजदूरों की सुनवाई भी करनी होती है। अब नई श्रम संहिताओं में 100 की संख्या को 300 से बदल दिया गया है। इसका मतलब है कि अब तक इस प्रावधान का संरक्षण पाने वाले करीब 70% श्रमिक अब इसके पात्र नहीं रहेंगे। अब श्रमिकों की छंटनी व लेऑफ करना व उद्योग में तालाबंदी करना आसान हो जायेगा।

            दूसरे श्रम आयोग ने ऐसी सिफारिशें की थी लेकिन यह भी सिफारिश की थी कि कम से कम लेऑफ, छंटनी व तालाबंदी के मुआवजे में बढ़ोतरी की जाये। यह इन संहिताओं के शुरूआती मसौदों में शामिल था। हालांकि संहिताओं के अंतिम मसौदे में, इसे भी छोड़ दिया गया है।

            श्रमिकों के कुल कार्यबल के 90% से अधिक की अब छंटनी या उनका लेऑफ किया जा सकता है और उद्योगों की एक छोटी अल्पसंख्या (जिनमें 300 से ज्यादा श्रमिक काम करते हैं) को छोड़कर सभी को बिना किसी अनुमति के बंद किया जा सकता है। यह हायर एंड फायर से भी बढ़कर है।

ठेका मज़दूर

            “हायर एंड फायर” को बढ़ावा देने का एक अन्य तरीका ठेका श्रमिकों को लगाना है। इसका मतलब है कि मजदूरों को वास्तविक नियोक्ताओं के खिलाफ कोई अधिकार न मिलकर, केवल तथाकथित ठेकेदारों, जो ज्यादातर दिखावटी व फर्जी होते हैं, के खिलाफ अधिकार मिलेगा। आज तक मज़दूर कम से कम अदालतों में जा कर ठेकेदार को दिखावटी व फर्जी बता सकते थे और अदालतों को सबूतों के आधार पर इसका यकीन दिला देने पर असली नियोक्ता के खिलाफ अधिकार का दावा भी कर सकते थे।

            संहिताओं में  ठेकेदार की परिभाषा बदल दी गई है। आज इसका मतलब है कोई भी व्यक्ति जो वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति के अलावा भी कोई निर्धारित परिणाम मुहैया कराने का ठेका ले। नयी संहितायें कहती हैं कि “मानव श्रम की आपूर्ति मात्र” भी “ठेकेदार” की परिभाषा में शामिल है। अतः अब एक फर्जी ठेकेदार भी परिभाषित ठेकेदार बन जायेगा और श्रमिक व्यापार की वस्तु बन जायेंगे। अब मानव श्रम का खुले तौर पर व्यापार किया जा सकेगा जो कि दास प्रथा का ही दूसरा रूप है। हायर एंड फायर को अपने अंतिम लक्ष्य पर ले जाया गया है।

            नियोक्ता की परिभाषा फिर से बदली गई है। इसमें अब ठेकेदार भी शामिल होंगे। इस प्रकार संविदा श्रमिक के अब दो मालिक होंगे- प्रमुख नियोक्ता और ठेकेदार। इसका मतलब यह होगा कि ठेका श्रमिक को अपने अधिकारों को लागू करने में और भी परेशानी होगी। उदाहरण के लिये, पीएफ के भुगतान की जिम्मेदारी “नियोक्ता” की है। यानी दोनों मालिक, प्रधान नियोक्ता और ठेकेदार, श्रमिक को उसकी हक़ की देय राशि के लिये एक-दूसरे के चक्कर कटवाते रहेंगे। अगर उसे अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा, तो उसे दोनो को पार्टी बनाना होगा और दोनों के खिलाफ एक साथ ही लड़ना होगा।

            अंततः जो संकुचित संरक्षण भी एक ठेका मजदूर को ठेका श्रम अधिनियम, 1971 के तहत दिया गया था, वह एक विशाल बहुसंख्या के लिये मिट जायेगा। अभी यह कानून वहां लागू है जहां कम से कम 20 ठेका श्रमिक काम करते हैं। नयी संहिता के अनुसार यह केवल वहीं लागू होगा जहां कम से कम 50 ठेका श्रमिक काम पर लगे हैं। वैसे भी, नियोक्ता प्रत्येक ठेकेदार के अधीन केवल 19 श्रमिको को दिखाने और लाइसेंसिंग प्रावधनों से बचने जैसे संदिग्ध साधनों का उपयोग करके अपने पास 20 से कम श्रमिकों ही दिखाते थे। अब ठेका श्रमिकों का शोषण और भी आसान हो जायेगा। “हायर एंड फायर” की यात्रा में यह एक और कदम है।

उद्योग” की परिभाषा में परिवर्तन

            अधिकांश औद्योगिक कानून “उद्योग” पर लागू होते हैं। 1947 में औद्योगिक विवाद कानून लागू होने के बाद से यह सवाल हमेशा उठता रहा है कि उद्योग क्या है। 1950 के दशक की शुरूआत से पहला मामला बज-बज नगरपालिका का था, जहां पर नियोक्ताओं ने कहा कि नगर निगम उद्योग नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया था। उन्होंने माना कि नगर निगम एक उद्योग है। फिर एक अस्पताल – सफदरजंग अस्पताल – का मुकदमा आया। 1970 में सुप्रीम कोर्ट के छह न्यायाधीशों ने कहा कि सफदरजंग अस्पताल एक उद्योग नहीं है।

            हालांकि इस विवाद का फैसला अंततः तब हुआ जब सुप्रीम कोर्ट के 7 जजों की बेंच ने बैंगलौर वाटर वर्क्स मामले में उद्योग की एक व्यापक परिभाषा दी। यह परिभाषा उद्योग को श्रमिक के दृष्टिकोण से देखती है। यदि श्रमिक मुख्य रूप से मजदूरी के लिये काम कर रहे हैं, न कि किसी उद्देश्य के लिये, तो संस्थान को एक उद्योग के रूप में माना जाना चाहिये, इस तथ्य के बावजूद कि यह एक संप्रभु या धर्मार्थ उद्देश्य आदि की पूर्ति कर सकता है। दूसरी ओर, यदि श्रमिक मुख्य रूप से किसी उद्देश्य के लिये काम कर रहे हैं तो संस्थान एक उद्योग नहीं होगा, भले ही वह एक वाणिज्यिक उद्यम क्यों न हो। 2005 में फिर से सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की बेंच ने कहा कि बैंगलोर वाटर वर्क्स के फैसले पर पुर्नविचार करने की जरूरत है। हालांकि ऐसा कभी नहीं किया गया।

            अब नयी संहिता में वे सब संस्थान जिनका एक संप्रभु कार्य है या जिनका स्वामित्व या प्रबंधन उन संगठनों द्वारा किया जाता है जो एक धर्मार्थ, सामाजिक या परोपकारी सेवा में काफी हद तक लगे हुए हैं, उन्हें उद्योग की परिभाषा से हटा दिया गया है। इसके कारण सभी सरकारी कर्मचारी व कई अन्य भी अब औद्योगिक कानूनों के दायरे में नहीं आयेंगे। और ‘समाजिक’ व ‘परोपकारी’ ऐसे व्यापक शब्द हैं जो संभावित रूप से कई चीजों को कवर कर सकते हैं, उदाहरण के लिये पूंजीपतियों द्वारा संचालित अपोलो जैसे अस्पताल भी इसके दायरे में आ सकते हैं।

असंगठित क्षेत्र के मजदूरों पर प्रभाव

            2008 में असंगठित क्षेत्र श्रमिक अधिनियम लागू होने के बावजूद भी असगंठित क्षेत्र के मजदूरों के लिये असल में कोई अधिकार नहीं है। यह कानून केवल यह कहता है कि केन्द्र, राज्य व जिला के स्तरों पर बोर्ड गठित किए जाएंगे जो असगंठित क्षेत्र के मजदूरों के लाभ के लिये कुछ कल्याणकारी योजनायें बनायेंगे। इसका कोई वास्तविक अर्थ नहीं है क्योंकि ऐसी योजनाओं के लिये राशि जुटाने का कोई प्रावधन नहीं किया गया है। कोई भी योजना बनाना व लाभ देना बाध्यकारी भी नहीं है। अगर कभी सरकार को लगेगा तो वह ऐसे मजदूरों को इस तरह का लाभ दे सकती है।

            महाराष्ट्र ने पहले मथाड़ी श्रमिक अधिनियम और सुरक्षा गार्ड अधिनियम जैसे कानून बनाये थे। इन कानूनों के तहत बोर्ड भी बने थे और मथाड़ी मजदूरों व सुरक्षा गार्डों के लिये कम से कम न्यूनतम वेतन पाने हेतु नियोक्ताओं को आवश्यक रकम का भुगतान करने के लिये कहा गया था। इसी तर्ज पर 1996 में केन्द्र सरकार ने भवन व अन्य निर्माण कामगार अधिनियम पारित किया था। इसमें भी निर्माण गतिविधि शुरू करने वाले हर व्यक्ति द्वारा श्रमिकों के हितकारी योजनाओं में राशि जुटाने हेतु उपकर का भुगतान करना जरूरी है।

            हालांकि असगंठित क्षेत्र कामगार अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधन नहीं है। असगंठित क्षेत्र के मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिये राशि संग्रह करने का यह एक अच्छा अवसर था। चूंकि संगठित व असगंठित क्षेत्र को सामाजिक सुरक्षा के उद्देश्य से जोड़ा जाना था, इसलिये संगठित क्षेत्र के बड़े नियोक्ताओं को आवश्यक राशि के जुटान के लिये इस्तेमाल किया जा सकता था। दुख की बात है कि इस अधिनियम में ऐसा नहीं किया गया।

            इस बात का बहुत शोर है कि किस प्रकार से सामाजिक सुरक्षा संहिता के दायरे में गिग मजदूर, ठेका मजदूर, यहां तक कि स्वरोजगार करने वाले मजदूरों का भी लाया गया है।इसका अर्थ सिर्फ इतना है कि सरकार की आमदनी बढ़ेगी क्योंकि वह अब लाखों और मजदूरों से भी धन एकत्रित कर पाएगी। हालांकि इसमें सुविधायें बढ़ाने के लिये कोई प्रावधन नहीं है। वैसे भी हम जानते हैं कि ईएसआई अस्पताल किस दशा में है। अब तो उन्हें अपने उतने ही फंड से दोगुनी संख्या में मजदूरों की जरूरत पूरी करनी पड़ेगी। यह स्पष्ट रूप से असगंठित क्षेत्र के मजदूरों के साथ धोखाधड़ी है।

सामाजिक सुरक्षा

            अब हम देखेंगे कि सामाजिक सुरक्षा के कौन से प्रावधन सामजिक सुरक्षा संहिता में असल में प्रदान किये गये हैं। पीएफ की दर 12 से घटाकर 10% की जा रही है। कहा गया है कि इससे मजदूर का टेक-होम (हाथ में मिलने वाला) वेतन बढ़ेगा। दरअसल इसका अर्थ यह हुआ कि मजदूर का पीएफ कम हो जायेगा। मजदूर जो अतिरिक्त रकम घर ले जायेगा, उतनी रकम उसके पीएफ खाते से कम हो जायेगी। नियोक्ता भी मजदूर के पीएफ खाते में जो रकम डालता था, उसे भी वह इसी मात्रा में कम कर देगा। इस तरह हजारों करोड़ रुपए मजदूरों की जेब से निकलकर पूंजीपतियों की जेब में चले जायेंगे।

            इस प्रकार यह सरकार श्रमिकों की भलाई की योजनाओं के लिये बड़े कारपोरेट से पैसा लेने की बजाय, बड़े कारपोरेट को लाभ पंहुचाने के लिये मजदूरों से पैसा वसुलना उचित समझती है। यही तर्क मजदूर को पीएफ में अपना योगदान कम करने की अनुमति देने के प्रावधन पर भी लागू होता है, जो कि अब खबरों में उछाला जा रहा है। ये सब ऐसे समय में किया जा रहा है, जब जीवन प्रत्याशा (जीवनकाल) में बढ़ोतरी हो चुकी है। इसी पीएफ की रकम से श्रमिक को सेवानिवृत जीवन के और ज्यादा वर्षों को संभालना है। हालांकि सरकार केवल कारपोरेट की मदद करना चाहती है और कारपोरेट के बोझ को कम कर के लिए समाज पर बुजुर्गों का बोझ बढ़ा रही है।

यूनियनों पर प्रभाव

            जैसा कि उल्लेख किया गया है, “हायर एंड फायर” और “आउटसोर्सिंग” का स्पष्ट प्रभाव यूनियनों की ताकत पर पड़ेगा और उसे कम करेगा। यदि सभी श्रमिकों को रोजगार की सुरक्षा और पक्का होने के लाभों से वंचित कर दिया जाता है तो निश्चित रूप से यूनियनें बहुत कमजोर हो जायेंगी और श्रमिकों का उत्पीड़न करना बहुत आसान हो जायेगा। उनके पास कोई कानूनी समाधान नहीं बचेगा और इससे श्रमिकों के पास उचित आजीविका सुरक्षित करने के लिये कानून से बाहर के साधनों का सहारा लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा।

            नयी संहिताओं में यूनियनों व यूनियन गठन पर भी कुछ प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ने वाले हैं। जहां पहले केवल ट्रेड यूनियन अधिनियम के प्रावधन का उल्लंघन करने पर ही यूनियन का पंजीकरण रद्द किया जा सकता था, नयी संहिताओं में औद्योगिक श्रम संहिता (जिसमें औद्योगिक विवाद अधिनियम व स्थायी आदेश के प्रावधन भी शामिल है) के प्रावधनों के उल्लंघन पर भी सजा के तौर पर यूनियन का पंजीकरण रद्द किया जा सकेगा। इसका मतलब यह होगा कि अवै हड़ताल पर जाने तक के लिये भी यूनियन का पंजीकरण रद्द किया जा सकेगा

            कुल मिलाकर नयी संहिताओं का उद्देश्य स्पष्ट रूप से नियोक्ताओं को “हायर एंड फायर” की अनुमति देना, उन्हें बिना किसी प्रतिबंध के “आउटसोर्स” करने की अनुमति देना, और उन्हें श्रमिकों को दास के रूप में उपयोग करने की अनुमति देना ही है। इनसे यूनियनों को कुचल दिया जायेगा और श्रमिकों को अत्यंत गरीबी में धकेल दिया जायेगा।

अंत में …

            नयी श्रम संहिताओं के ज़रिये शासक वर्ग ने मज़दूर वर्ग के लंबे संघर्षों से हासिल किये गए अधिकारों को छीन कर उसे सौ साल पीछे की स्थिति में धकेल देने की कोशिश की है। 1947 के बाद के भारत में मज़दूर वर्ग पर यह सबसे बड़ा सुनियोजित हमला है। पिछले कई दशकों में देश और दुनिया में वर्ग के तौर पर मजदूरों की एकजुटता और उनका संघर्ष कमजोर हुआ है, उत्पादन के तरीके में बदलाव के साथ-साथ मज़दूर वर्ग अपने ही अन्दर विभिन्न श्रेणियों में बंट गया। ‘समाजवादी’ देशों का पूंजीवाद के रास्ते पर चलने और देश व दुनिया के मज़दूर आन्दोलन में क्रांतिकारी प्रवृत्ति के बजाय समझौतापरस्त व पूंजीपरस्त प्रवृत्ति के हावी होने से आज शासक वर्ग और भी हमलावर हो गया है। नवउदारवाद के दौर में विश्व-पूंजीवाद के गहराते संकट का असर इन हमलों के तीखेपन से झलक रहा है। मजदूर वर्ग को इन नयी श्रम संहिताओं को इन परिप्रेक्ष्यों से जोड़ कर देखना होगा।

            भारत में नयी श्रम संहिताओं को लागु करने की प्रक्रिया मज़दूर वर्ग पर फासीवादी हमलों की एक बड़ी प्रक्रिया का हिस्सा बन कर सामने आयी है, जिसके पीछे बड़ी देशी-विदेशी पूंजी का प्रत्यक्ष समर्थन है। स्थापित केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की कमजोरी, समझौतापरस्ती और ‘आन्दोलन’ की रस्म-अदायगी के कारण वे नयी श्रम संहिताओं के खिलाफ देश भर में मज़दूर वर्ग के एक निरंतर, जुझारू और निर्णायक संघर्ष को दिशा देने में नाकाम हैं। देश के किसान कारपोरेट-पक्षीय कृषि कानूनों के खिलाफ पिछले एक साल से जुझारू संघर्ष कर रहे हैं, जिसने फासीवादी सरकार के नाक में दम कर दिया है। नयी श्रम संहिताओं के खिलाफ देश के पैमाने पर ऐसा मज़दूर आन्दोलन अभी तक नहीं उठ पाया है। मगर पिछले कुछ समय में देश भर में मजदूरों के कई जुझारू संघर्ष हमनें देखे हैं जो हमारे लिए उम्मीद के स्रोत बनते हैं। मारुति-हौंडा-प्रिकोल-एलाइड निप्पन आदि सैकड़ों कारखानों में मज़दूरों का जुझारू संघर्ष, बेंगलुरु में गारमेन्ट मज़दूरों का संघर्ष, केरल के चाय बगान मज़दूरों का संघर्ष, ऑर्डनेन्स-खदान सहित कई सेक्टरगत संघर्ष, असंगठित क्षेत्र में आशा-आंगनवाड़ी मज़दूरों का संघर्ष, प्लेटफ़ॉर्म और गिग मज़दूरों का संघर्ष आदि जरी रहे हैं। इन संघर्षों का दायरा स्थानीय या सेक्टरगत रहा, मगर नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ एक जुझारू संघर्ष की अंतर्वस्तु हमें इन संघर्षों में देखने को मिलती हैं।

नयी श्रम संहिताओं के खिलाफ संघर्ष को एक निरंतर, जुझारू और निर्णायक संघर्ष का दिशानिर्देश देना आज अतिआवश्यक बन गया है, असल में मजदूर वर्ग को जिसे उसकी शोषण पर टिकी इस दमनकारी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के संघर्ष में ही तब्दील करना होगा

मासा कर्नाटक कन्वेंशन में पुस्तिका का विमोचन, 19 दिसंबर 2021

मज़दूर वर्ग के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों को छोड़कर और कुछ नहीं है, और जितने के लिए है पूरी दुनिया!