का. सुनील पाल 12वीं स्मृति दिवस पर पटना में रैली-सभा व केंद्रीय कन्वेंशन
January 18, 2022मज़दूर वर्ग और पश्चिम बंगाल के ट्रेड यूनियन आंदोलन के क्रांतिकारी नेता कामरेड सुनील पाल की 12वीं शहादत दिवस के अवसर पर पटना में प्रोलेतारियन रिआर्गनाइज़िन्ग कमिटी, सीपीआई (एमएल) एवं इंडियन फेडरेशन ऑफ़ ट्रेड यूनियंस (सर्वहारा) द्वारा अपने संगठन तथा विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन के सभी शहीदों की याद में 29 दिसंबर 2021 को एक शहीद रैली व सभा एवं 30 दिसंबर को आई.एम.ए. हॉल में एक केंद्रीय कन्वेंशन का सफलतापूर्वक आयोजन किया गया।
कन्वेंशन का विषय था – “कृषि कानूनों की वापसी, एमएसपी गारंटी कानून और किसानों की मुक्ति का सवाल” – जिसका आधार पत्र ‘यथार्थ’ के इस अंक में ऊपर प्रस्तुत किया गया है।
पीआरसी, सीपीआई (एमएल)
पृष्ठभूमि
29 दिसंबर कॉमरेड सुनील पाल का शहादत दिवस है। जैसा कि सबको ज्ञात है, आज से 12 साल पहले 2009 में इसी दिन शाम में तत्कालीन सत्तारुढ़ सीपीएम के बाहर से भाड़े पर बुलाये गये हत्यारों द्वारा उनकी हत्या कर दी गयी थी। जिस समय हत्यारों ने उनके शरीर में गोलियां दागीं उस समय वे हरिपुर स्थित आईएफाटीयू के नवनिर्मित कार्यालय में थे। वे टाइपराइटर मशीन के टेबल पर झुक कर खड़े हो कुछ टाइप करवा रहे थे। हत्यारों ने, जो स्वचालित स्टेनगनों से लैस थे, सुनील पाल के शरीर में एक ही साथ और पलक झपकते कई दर्जन गोलियां दाग दीं जिससे उनकी तत्काल मौत हो गयी। गौरतलब है कि घटना से चंद मिनट पहले पूरे इलाके में बिजली काट दी गई थी। कोयला खदान क्षेत्र में यह एक असामान्य बात थी। यही नहीं, घटना के कुछ देर पहले से दो घंटे बाद तक पुलिस ने पूरे इलाके की नाकेबंदी कर रखी थी। क्यों? इसलिये कि मजदूरों का हुजूम और हमारी पार्टी के साथीगण घटनास्थल पर तुरंत नहीं पहुंच सकें और हत्यारों को इलाके से सुरक्षित भाग निकलने के लिए महफूज रास्ता और समय मिल सके। मारने के पहले इतनी बारीक तैयारी सरकार और सीपीएम के ऊपरी नेताओं की मिलीभगत के बिना संभव नहीं थी। इसलिए शुरू से ही किसी को भी सुनील पाल को मारने के षडयंत्र में वामफ्रंट सरकार के शामिल होने के बारे में संदेह नहीं था। इसके अलावे सुंनील पाल की हत्या सीपीएम के द्वारा की गई या कराई गयी पहली हत्या नहीं थी। इसके पहले, सुनील पाल के जिंदा रहते ही, हमारे कई मजदूर व युवा साथियों की हत्या वह करवा चुकी थी, वह भी सीधे हमारे यूनियन कार्यालय पर चढ़कर बमों से हमला कर के, जो कि बंगाल में सीपीएम के द्वारा जारी संत्रास के एक तरीके के रूप में आम बात बन चुकी थी। जब कोई कम्युनिस्ट पार्टी संशोधनवादी-अवसरवादी बन जाती है और शासक वर्ग की सत्ता में हिस्सेदार बनती है तो उसका क्या परिणाम होता है हम इसे पूरी दुनिया में देख चुके हैं। बंगाल में सीपीएम के 34 सालों के शासन के शुरूआती वर्षों में जरूर कुछ सुधार के कदम उठाये (जैसे भूमि सुधार के रूप वर्गा आंदोलन) और कुछ अलग से ऐसे कानून भी मौजूद रहे जो क्रांतिकारी राजनीतिक कार्यकताओं व नेताओं को एक हद तक राजनीतिक स्वतंत्रता देते थे और पूरे देश में प्रतिबंध के रहते हुए भी गिरफ्तारी से राहत देते थे, लेकिन जो लोग वामफ्रंट सरकार के जमाने में मौजूद जमीनी हकीकत जानते हैं वे यह मानेंगे कि सीपीएम का एक श्वेत संत्रास पूरे बंगाल में कायम था और मुख्य रूप से कम्युनिस्ट क्रांतिकारी इसके शिकार होते थे। यह भी सच है कि वामफ्रंट में शामिल अपेक्षाकृत छोटे संगठन भी सीपीएम के इस संत्रास के यदाकदा शिकार होते रहते थे । सिंगुर और नंदीग्राम में क्या हुआ यह इतिहास बन चुका है।
लेकिन यह भी सही है देश के पूंजीपति वर्ग को अब इनकी सेवा की जरूरत नहीं रह गई थी। मौजूदा सदी के पहले दशक में ही यह स्पष्ट हो चुका था जब नवउदारवादी नीतियों की दूसरी खेप के बाद बड़ी वित्तीय पूंजी देश की अर्थव्यवस्था पर पूर्ण नियंत्रण हेतु छटपटाने लगी थी। वित्तीय पूंजी की तरफ हुए इस बीच निर्णायक शिफ्ट ने असमाधेय आर्थिक संकट को जन्म दिया, लेकिन पीछे मुड़ने का सवाल नहीं था, इसके विपरीत संकट के बावजूद अधिकतम मुनाफा हासिल करने हेतु भारत का नवोदित बड़ा वित्तीय पूंजीपति वर्ग दूसरे दशक में फासीवाद की तरफ निर्णायक रूप से मुड़ने का निर्णय कर चुका था। इसका अर्थ था कि मजदूर व किसान तथा अन्य मेहनतकश जनता सहित सभी दरमियानी वर्गों पर खुला हमला होगा और जनपक्षीय सुधारों के लिए तथा पूंजी की आवारागर्दी पर नकेल कसने वाली संशोधनवादियों की नीतियों के लिए अब कोई जगह नहीं रहेगी। हम पाते हैं कि दूसरा दशक आते-आते बड़ा पूंजीपति वर्ग कांग्रेस जैसी पुरानी शासक वर्ग की विश्वस्त पार्टी से भी छुटकारा पाने का मन बना चुका था। दूसरी तरफ, इसके कई दशक पूर्व ही मजदूर आंदोलन की धार को इनके हाथों ही कुंद कराने में पूंजीपति वर्ग सफल हो चुका था। ऐसे में, भारत के पूंजीपति वर्ग को अब संसदीय वाम की क्या जरूरत है? हो सकता है, भविष्य में जरूरत हो, खासकर जब जनता पूंजीपति वर्ग को उखाड़ फेंकने की तैयारी वास्तव में कर लेगी। तब एक बार फिर से इनकी सेवा की जरूरत पूंजीपति वर्ग को होगी। तब इन्हें ही आगे कर के जनता को व्यवस्था बदलने की राह से भटका कर सरकार परिवर्तन की राह में फंसाये रखने का प्रयास पूंजीपति वर्ग करेगा। ये कहेंगे, ‘हम लाल झंडे वाले हैं हमें वोट दो, हमारी सरकार का मतलब समाजवाद आज जायेगा, हम पूंजीपति वर्ग पर नकेल कसेंगे, क्रांति और व्यवस्था परिवर्तन की, यानी पूंजीपति वर्ग को वर्ग के रूप में खत्म करने की, यानी पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था को खत्म करने और इसे इतिहास के कुड़ेदान में फेंकने की जरूरत नहीं है। कॉमरेड सुनील पाल की हत्या करने या करवाने वाली पार्टी के इस संशोधनवादी चरित्र को समझना जरूरी है, सिर्फ आक्रोश व्यक्त करना काफी नहीं इै।
कॉमरेड सुनील पाल के पीआरसी सीपीआई (एमएल) से जुड़ाव पर एक संक्षिप्त चर्चा
कम्युनिस्ट क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास में एकता और टूट दोनों की प्रवृतियां रही हैं, लेकन इसमें टूट की प्रवृति ही मुख्य प्रवृत्ति रही है। 70 के दशक के अंत में सुनील पाल इस कम्युनिस्ट क्रांतिकारी धारा से जुड़े। उनके बड़े भाई गणेश पाल, जो सुनील पाल के पहले सीपीएम की गुंउा वाहिनी के द्वारा ही शहीद हो चुके थे, भी इस धारा से, उनके पहले ही, जुड़ चुके थे। उसके बाद के एक लंबे ऐतिहासिक कालखंड में कॉमरेड सुनील पाल मुत्युपर्यंत जिस परंपरा और धारा के साथ मजबूती से बने रहे, वह गोदावरी घाटी प्रतिरोध संघर्ष के प्रणेता तथा महान क्रांतिकारी कॉमरेड चंद्रपुल्ला रेड्डी की परंपरा वाली धारा थी। हम सभी उसी धारा व परंपरा के वारिस रहे हैं। बंगाल में इसके मुख्य स्तंभ कॉमरेड फनी बागची थे और बाद में सुनील पाल रहे। इस परंपरा व धारा वाले बिहार धड़े में जो नौजवान साथी आंदोलन व पार्टी के नेतृत्व में थे वे सभी के सभी कॉमरेड चंद्रपुल्ला रेड्डी की परंपरा के पूरी तरह कायल और इस धारा व परंपरा को आगे विकसित करने के पक्षधर थे और इसके लिए अपना जीवन ही नहीं सर्वस्व दांव पर लगाने के हामी थे। लेकिन जिस महान परंपरा को द्वंद्वात्मक तरीके से आगे विकसित करना था एवं जिसे मौजूद क्रांतिकारी धाराओं में सबसे सही धारा के रूप में आगे और विकसित किया जाना जरूरी था, यानी जो उसमें जीवन से भरपूर, सक्षम और सही पक्ष था उसे आगे विकसित करना और जो गलत, कालातीत तथा अक्षम बन चुका पक्ष था उसकी क्रांतिकारी तरीके से कपाल क्रिया कर देना जरूरी था, उसका एक ही जगह खड़े रहकर कदमताल करते हुए महज पूजा-अर्चना की गई और इस तरह एक महान क्रांतिकारी परंपरा का दुखद अंत हो गया या होने दिया गया। जो इसके लिये जिम्मेवार थे वे सभी बेहतरीन तथा इमानदार क्रांतिकारी थे और मृत्यु के वक्त तक बने रहे, लेकिन वे अपने युग की सीमा से बंधे थे और इसीलिए वे उस महान धारा को आगे नहीं ले जा सके जिसकी वास्तविक हकदार पुल्ला रेड्डी की वह क्रांतिकारी धारा थी। पीआरसी सीपीआई (एमएल) का जन्म इस दुखद अंत की कसक और उसे रोकने की कोशिश का ही परिणाम है, जिसमें कॉमरेड सुनील पाल भी 2008-09 में शामिल हो चुके थे। यह सही है कि बिहार के साथियों ने कॉमरेड चंद्रपुल्ला रेड्डी की परंपरा को पुनर्जीवित करने के बारे में ठोस रूप से विचार करने की शुरूआत की, लेकिन कई दौर की वार्ता के बाद सुनील पाल भी मूल बिंदु से सहमत हो चुके थे। वे सहमत हो चुके थे कि एक नये तरह के क्रांतिकारी हस्तक्षेप की जरूरत है। हम सभी एक ही धारा के होने की वजह से आंदोलन के संकट के एक महत्वपूर्ण मोड़ पर हमें एक दूसरे को समझने में काफी सहायता हुई। एक लेनिनवादी पार्टी के गठन की जरूरत को लेकर वे बिहार के साथियों की इस बात के कायल थे कि कॉमरेड चंद्रपुल्ला रेड्डी की परंपरा में इसके तत्व प्रमुखता से शामिल हैं, लेकिन उन्हें पुनर्जीवित करने के लिए हम सबकों उस युग की सीमा व अंधता से बाहर आना होगा जिसके शिकार इस महान परंपरा के क्रांतिकारी स्वयं थे और जीवन पर्यंत बने रहे, ठीक उसी तरह बने रहे जिस तरह दुनिया के सभी महान लोग अपने युग के मानवों की तुलना में महामानव होने के बावजूद अपने युग की सीमा में कैद रहे हैं और उसके शिकार रहे हैं। यह युग की अंधता है, लेकिन कॉमरेड पुल्ला रेड्डी इसमें भी बाकियों की तुलना में कई कदम आगे थे, क्योंकि उनमें इस युग की अंधता के प्रति एक अंतर्विरोध मौजूद था जो बढ़ते समय के साथ फट पड़ने की संभावना तक परिपक्व हो चुका था। इसके बारे में यहां चर्चा करना संभव नहीं है, लेकिन कुल मिलाकर सुनील पाल और बिहार के साथी एक नयी शुरूआत को लेकर तथा इससे जुड़ी सभी मुख्य बातों पर सहमत थे। इस बात पर भी सहमत हो चुके थे कि हमें जल्द से जल्द इसे आगे बढ़ाना चाहिए। यही कारण है कि 2009 में बिहार के साथियों से उनकी कई बार बातचीत हुई जिसकी अगली कड़ी के रूप में रूसी अक्टूबर क्रांति पर 22 नवंबर 2009 को गांधी संग्रहालय में बिहार के साथियों के द्वारा आयोजित एक दिवसीय सम्मेलन में कॉमरेड सुनील पाल (कॉमरेड कन्हाई के साथ) पटना आये थे और उन्होंने मुख्य वक्ता के तौर पर भाषण भी दिया था। बिहार के साथियों के द्वारा इस सम्मेलन में पेश किये गये प्रपत्र से भी उनकी पूर्ण सहमति थी।
लेकिन इस पूरे प्रयास को तब बहुत बड़ा धक्का लगा, जब 2009 के ही 29 दिसंबर को उनकी शहादत हो जाती है। पूरी प्रक्रिया एक दो सालों के लिए ठहर जाती है, क्योंकि बंगाल की नयी परिस्थिति में संगठन को किसी भी तरह से शासक वर्गीय हमलों से बचाना मुख्य काम बन चुका था। जब संगठन को बचा लिया गया तो फिर से यह प्रक्रिया शुरू हुई जिसकी परिणति पीआरसी, सीपीआई(एमएल) के 2013 में संपन्न हुए प्रथम ऑल इंडिया कांफ्रेंस में होती है। इसमें कोई शक नहीं है कि अगर कॉमरेड पाल की शहादत नहीं हुई होती, तो हम आज जितना आगे बढ़े हैं उससे कहीं ज्यादा आगे निकल चुके होते।
पीआरसी के प्रथम सम्मेलन में इस पर लिखित प्रस्ताव भी पारित किया गया कि क्यों यह महान धारा कॉमरेड पुल्ला रेड्डी की शहादत के बाद तेजी से सूखने लगी। यहां इस पर विशद रूप से चर्चा करना हालांकि संभव नहीं है, लेकिन इतना कहना जरूरी है कि 1980 के बाद मजबूती से पैर पसारते दक्षिणपंथी तथा वामपंथी भटकावों के समक्ष यह धारा अपने को न सिर्फ विकसित नहीं कर सकी, अपितु उसके समक्ष टिक भी नहीं सकी, कम से कम अपने पुराने रूप में। खासकर (पुराने) आंध्रप्रदेश में जिस तरीके से क्रांतिकारी आंदोलन पर दक्षिणपंथ का, अंदर और बाहर दोनों तरफ से, हमला हुआ, यह धारा वहां नगण्य स्थिति में जा पहुंची। इस धारा से जुड़े आंध्रा के नेताओं को “राज्य” के द्वारा खत्म कर दिये जाने की इसमें भूमिका रही है। जो बचे, इसे आगे ले लाने में बिल्कुल ही सक्षम नहीं थे। इस तरह अपने उदगम स्थल पर ही यह धारा पूरी तरह सूख गयी। आंध्रा ही नहीं, बिहार और बंगाल को छोड़ दिया जाये, तो देश में कहीं भी कॉमरेड चंद्रपुल्ला रेड्डी की परंपरा से जुड़े धड़े का कहीं कोई अस्तित्व नहीं बचा था। हम यहां कहना चाहते हैं कि पीआरसी सीपीआई (एमएल) अपनी सीमित ताकत के बल पर ही सही, लेकिन पूरी हिम्मत से कॉमरेड चंद्रपुल्ला रेड्डी की महान क्रांतिकारी परंपरा को द्वंद्वात्मक तरीके से आगे बढ़ाने और उसे कभी नहीं खत्म होने देने के प्रति कटिबद्ध है। इतना ही नहीं, हम इस परंपरा को अपनी क्रांतिकारी विरासत के अटूट हिस्से के रूप में देखते हैं, और कॉमरेड चंद्रपुल्ला रेड्डी हमारी क्रांतिकारी विरासत के एक सर्वमुख्य तथा सबसे महत्वपूर्ण कड़ी मानते हैं। (कॉमरेड चंद्रपुल्ला रेड्डी की विरासत पर पीआरसी द्वारा एक दस्तावेज़ पारित किया जा चुका है जो 2013 के पार्टी दस्तावेज़ में एक चैप्टर के रूप में शामिल है।)
पाल की शहादत के कई सालों बाद तथा पीआरसी सम्मेलन के ठीक बाद, हमने यह फैसला लिया कि 29 दिसंबर के दिन ही हम अपनी पार्टी के तमाम शहीदों को याद करने के लिए रैली व सभा का आयोजन करेंगे। बाद में 2020 में हमने यह भी फैसला लिया कि उनकी शहादत के दिन आयोजित होने वाली केंद्रीय रैली व सभा को हम बंगाल के बदले अन्य राज्यों में करेंगे। इसमें एक लक्ष्य यह भी था और है कि कॉमरेड सुनील पाल जैसे कॉमरेड की शहादत को बंगाल तक कैद नहीं रखा जाना चाहिए। 2020 में ही हमने यह भी फैसला लिया था कि हम न सिर्फ शहीद रैली व सभा करेंगे, अपितु राष्ट्रीय महत्व के उस समय के सबसे ज्वलंत मुद्दे व विषय पर सम्मेलन भी करेंगे जिसमें उक्त विषय पर बाजाप्ता दस्तावेज (प्रस्ताव) जारी करके उस पर बहस व विमर्श के लिए आंदोलन के बिरादराना संगठनों को आमंत्रित व शामिल भी किया जाएगा। इसी फैसले के तहत हम तब से पटना में दो कार्यक्रम (सम्मेलन) आायोजित कर चुके हैं।
कॉमरेड सुनील पाल की शुरूआती कर्मभूमि रानीगंज-आसनसोल शिल्पांचल थी जहां वे कॉलेज के दिनों से ही जुझारू मजदूर आंदोलन खड़ा करने में जुट गये थे, लेकिन बाद में वे पूरे बंगाल के मशहूर मजदूर नेता बने और अंत में वे पूरे देश में सक्रिय हुये। उनका पूरा जीवन एक पेशेवर क्रांतिकारी का जीवन था। कॉलेज में पहुंचते ही वे पेशेवर क्रांतिकारी बनने का फैसला ले चुके थे। बहुत सारी गलतियों, जिन्हें वे खुलकर स्वीकार करते थे, और ट्रेड यूनियन में हद से ज्यादा सक्रिय रहने के बावजूद वे एक गंभीर और चिंतनशील क्रातिकारी थी। उन्होने हमेशा ट्रेड यूनियन के दायरे को तोड़ कर काम किया और इस फ्रंट पर वे कई बड़े आंदोलन चलाने और जीतने में भी सफल रहे। कोयला श्रमिकों की महिला आश्रितों की नौकरी के लिए लड़ी गई सफल लड़ाई ने उन्हें अमर बना दिया। कोल इंडिया के ईस्टर्न कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड (ईसीएल) को नया कानून बनाना पड़ा। दरअसल वे ‘ना’ बोलना नहीं जानते थे, चाहे लड़ाई जितनी भी कठिन और दुरूह हो। निर्भीक इतने कि बमों के हमले के बीच मजदूरों से मिलने पहुंच जाते थे। लेकिन इन सबके बीच, अंत में, वे यह समझने लगे थे कि आंदोलन की धारा को नये सिरे से, दिशा में कुछ बुनियादी परिवर्तन करते हुए और पुराने युग की क्रांतिकारी अंधता से बाहर निकलकर पुन: निर्मित करना होगा।
जब सुनील पाल कम्युनिस्ट क्रातिकारी आंदालन से जुड़े तब, और यह सच है, बंगाल में वामफ्रंट सरकार थी और इसके सबसे बड़े हिस्सेदार – सीपीएम – का श्वेत संत्रास कायम था जिसके निशाने पर अक्सर कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ही होते थे। कॉमरेड सुनील पाल सहित हमारे अनेकों साथियों पर कई जानलेवा हमले हुये। हमारे यूनियन कार्यालयों पर बमों से हमला आम बात थी। हमारे कई मजदूर व युवा कार्यकर्ता (जैसे दयामय मंडल, बालेश्वर भुइयां, गौर गड़ी और महादेव अंकुड़िया आदि) उस दौर में शहीद हुये। अंतत: वे कॉमरेड सुनील पाल को भी मारने में सफल हो गये। कॉमरेड सुनील पाल हमेशा हमारी यादों और संघर्षों में जिंदा रहेंगे। उनकी विरासत हमारे साथ है जिसे हम द्वंद्वात्मक रूप से आगे बढ़ाने हेतु प्रतिबद्ध हैं।
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बारिश के बावजूद संपन्न हुई शहीद रैली व सभा
आई.एफ.टी.यू. (सर्वहारा)
पीआरसी सीपीआई (एमएल) और आईएफटीयू (सर्वहारा) द्वारा संयुक्त रूप से संयुक्त रूप से पटना में 29 दिसंबर (बुधवार) को एक शहीद दिवस रैली व सभा का आयोजन किया गया। सतत बारिश के बावजूद सैंकड़ों की संख्या में लोगों ने इस रैली-सभा में हिस्सा लिया जो कि बिहार के भिन्न जिलों (पटना, गया, मोतिहारी, गोपालगंज आदि) के साथ-साथ देश के भिन्न राज्यों (दिल्ली, प. बंगाल, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड) से आए थे। बिहार से पटना के भिन्न मजदूर चौकों व बस्तियों (कंकरबाग मुन्नाचक, मलाहीपकड़ी, हनुमान नगर, कनौजी, के-सेक्टर, कुर्थोल, सिपारा, रामकृष्ण नगर), गया के भिन्न इलाकों (परैया, डिहुरी, नावा, बाराचट्टी, बलिया) से आए मजदूरों ने इस कार्यक्रम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।
एक दिन पहले से लेकर कार्यक्रम के दिन की सुबह तक और बीच-बीच में भी होने वाली बुंदाबादी से रैली व सभा में शामिल होने वालों की संख्या आधी से ज्यादा प्रभावित हुई, खासकर गया से आने वाली संख्या पर इसका सबसे ज्यादा बुरा असर पड़ा। वहां एक दिन पहले से ही मुसलाधार बारिश हो रही थी। गया शहर से दूर के गांवों के साथियों को कार्यक्रम के पिछले दिन शाम में ही निकल कर गया से रात में पटना के लिये ट्रेन पकड़नी होती है, साथ में रास्ते में खाने के लिए कुछ सुखा भोजन आदि का उपाय करना होता है, इसलिये उनमें से किसी का भी आना असंभव हो गया। जो गांव नये तौर से जुड़े थे वह गया शहर से सड़क के रास्ते टेंपो के जरिये कुछ मिनटों की दूरी पर थे, इसलिये वहीं से कुछ लोग भिंगते हुए स्टेशन पर आये और फिर पूरी रात इंतजार करते हुए सुबह पांच बजे कड़ाके की ठंड में पटना पहुंचे। इसी तरह मोतिहारी से आने वालों की संख्या भी इससे काफी प्रभावित हुई। दरअसल पटना में इस साल बड़े पैमाने पर शहीद रैली व सभा करने की तैयारी की गई थी जिसमें पटना शहर सहित पटना के आसपास के जिलों के कई गांवों तथा गया एवं मोतीहारी जिले से भी साथियों की अच्छी-खासी भागीदारी होनी थी। खासकर गया एवं पटना शहर एवं पटना के आसपास के इलाकों से भारी संख्या में लोगों की भागीदारी होनी थी।
खैर, बारिश की संभावना के बीच शहीद रैली प्रस्थान की जगह से लगभग 12 बजे शुरू हुई, जब कि प्रस्तावित समय साढ़े दस से ग्यारह बजे था। शहीद रैली गगनभेदी और जोशीले नारों के साथ शुरू हुई आर ब्लौक और विधान सभा होते हुए गर्दनीबाग पुल से होते हुए धरणा स्थल तक पहुंची और इसमें लगभग एक घंटे का समय लगा। आम सभा की शुरूआत लगभग डेढ़ बजे हुई।
सभा का संचालन कामरेड कन्हाई बरनवाल व आकांक्षा द्वारा संयुक्त रूप से किया गया। अध्यक्ष मंडल में कामरेड अजय सिंहा (महासचिव, पीआरसी सीपीआई (एमएल)), मुकेश असीम (संपादक, ‘द ट्रुथ’ पत्रिका), सत्यवीर सिंह (संपादक, ‘यथार्थ’ पत्रिका), अमित (‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका), उपेन राउत (मजदूर क्रांति परिषद), वशिष्ठ तिवारी (सीपीआई (एमएल) रेड स्टार), शुमेंदु गांगुली (लाल झंडा मजदूर यूनियन (समन्वय समिति)), रामजी सिंह (इंकलाबी मजदूर केंद्र), संजय सर्वहारा (इफ्टू (सर्वहारा)) उपस्थित थे जिन्होंने सभा को संबोधित किया।
सभा में बिहार व दिल्ली की जन-संगीत मंडलियों, जिसमें साथी विंदव्यास, राजू, विदुषी, आशु, अर्जुन, आकांक्षा, धनंजय, उमेश निराला, व सत्येंद्र शामिल थे, ने मजदूर-वर्गीय व क्रांतिकारी गीतों की भी प्रस्तुति की।
शहीद कामरेड सुनील पाल व हमारे सभी क्रांतिकारी शहीदों को क्रांतिकारी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए मजदूर-वर्ग द्वारा इस पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंक एक नए शोषण-विहीन समाज को स्थापित करने के उनके सपने को पूरा करने के लिए पूरे जोश व दृढ़ता के साथ हर संभव कदम उठाने का संकल्प लेते हुए गगनभेदी नारों के साथ सभा का अंत किया गया।
सभा के अंत में आई.एफ.टी.यू. (सर्वहारा) की केंद्रीय कमेटी की ओर से राष्ट्रपति महोदय को पटना मुख्य श्रमायुक्त के मार्फ़त एक ज्ञापन सौंपा गया जिसमें मजदूर-वर्ग के ज्वलंत मुद्दों व समस्याओं पर आधारित एक मांग-पत्र सम्मिलित था. ज्ञापन कि मुख्य मांगों में से कुछ थे :
- देश में बढ़ती महंगाई और खाद्यानों व अन्य सभी चीज़ों के बढ़ते दामों को देखते हुए न्यूनतम वेतन भी उसी अनुरूप बढ़ाई जाए, जो कि न्यूनतम ₹25,000 प्रति माह हो।
- महंगाई पर अविलंब लगाम लगाईं जाए।
- 4 मजदूर-विरोधी लेबर कोड रद्द किया जाए। आवश्यक रक्षा सेवा कानून 2021 वापस लिया जाए. बिजली संशोधन विधेयक 2021 रद्द किया जाए।
- निजीकरण-निगमीकरण-मौद्रिकरण पर तत्काल रोक लगाईं जाए. राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन योजना रद्द की जाए।
- सभी को योग्यता पूर्ण सम्मानजनक रोजगार सुनिश्चित हो। रोजगार नहीं मिलने पर सभी मजदूरों को प्रतिमाह ₹15000/- बेरोजगारी भत्ता दिया जाए।
- 8 घंटे का कार्य दिवस सख्ती से लागू किया जाए। ठेकेदारी प्रथा ख़त्म किया जाए, और सामान काम के लिए सामान वेतन लागू किया जाए।
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केंद्रीय कन्वेंशन में किसान आंदोलन व किसानों की मुक्ति के सवाल पर हुआ गहन विमर्श
पी.आर.सी.
पीआरसी सीपीआई (एमएल) और आईएफटीयू (सर्वहारा) द्वारा पटना के आई.एम.ए. हॉल में 30 दिसंबर (गुरुवार) को एक केंद्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसका विषय था “कृषि कानूनों की वापसी, एमएसपी गारंटी कानून और किसानों की मुक्ति का सवाल”।
सभागार में 150 से अधिक संख्या में प्रतिनिधि मौजूद रहे जो बिहार के भिन्न जिलों (पटना, गया, मोतिहारी आदि) के साथ-साथ देश के भिन्न राज्यों (बिहार, दिल्ली, प. बंगाल, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड) से आए थे।
सभा की शुरुआत कामरेड संजय सर्वहारा द्वारा दिए गए स्वागत भाषण से हुई, और उसका संचालन कामरेड कन्हाई बरनवाल, आकांक्षा, और सिद्धांत द्वारा संयुक्त रूप से किया गया। कामरेड अजय सिंहा (महासचिव, पीआरसी सीपीआई एमएल), द्वारा कन्वेंशन का आधार पत्र प्रस्तुत किया गया।
सभा को संबोधित करने वाले वक्ताओं में शामिल थे कामरेड मुकेश असीम (संपादक, ‘द ट्रुथ’ पत्रिका), सत्यवीर सिंह (संपादक, ‘यथार्थ’ पत्रिका), अमित (‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका), अरविंद सिंहा (सीपीआई (एमएल)), अर्जुन प्रसाद सिंह (‘मोर्चा’ पत्रिका), वशिष्ठ तिवारी (सीपीआई (एमएल) रेड स्टार), शुमेंदु गांगुली (लाल झंडा मजदूर यूनियन (समन्वय समिति)), रामजी सिंह (इंकलाबी मजदूर केंद्र), राम नरेश (कम्युनिस्ट वर्कर्स सेंटर), संजय श्याम (नागरिक अधिकार सुरक्षा मंच), सतीश (कम्युनिस्ट सेंटर ऑफ इंडिया)। सर्वहारा एकता मंच राजस्थान से कामरेड प्यारेलाल ‘शकुन’ (संयोजक) और बजरंग लाल (झुंझुनूं संयोजक) ने सम्मेलन की सफलता की कामना करते हुए सकारात्मक संदेश भेजे थे जिन्हें सभा में प्रस्तुत किया गया।
सभा में बिहार व दिल्ली की जन-संगीत मंडलियों, जिसमें साथी विंदव्यास, राजू, विदुषी, आशु, अर्जुन, आकांक्षा, धनंजय, उमेश निराला, सत्येंद्र शामिल थे, ने मजदूर-वर्गीय व क्रांतिकारी गीतों की भी प्रस्तुति की। कामरेड रामबली (क्रांतिकारी सांस्कृतिक संघ) और सुकुमार मजूमदार (लाल झंडा मजदूर यूनियन (समन्वय समिति)) ने भी मंच से क्रांतिकारी गीत प्रस्तुत किए।
सभी वक्ताओं ने एक वर्ष चले ऐतिहासिक किसान आंदोलन के संदर्भ में तीनों कृषि कानूनों की हुई वापसी, एमएसपी की कानूनी गारंटी का मसला, और किसानों की मुक्ति के सवाल पर अपने महत्वपूर्ण विचार रखे। अंत में कामरेड मुकेश असीम द्वारा पूरी चर्चा का एक सारांश प्रस्तुत किया गया।[नोट : कन्वेंशन में सभी वक्तव्यों का वीडियो आईएफटीयू (सर्वहारा) के फेसबुक पेज पर उपलब्ध है।]