हरियाणा राज्य स्थानीय अभ्यर्थी रोजगार कानून, 2020 देश में बेरोजगारी भयानक है; बेरोजगारों से धोखाधड़ी और भी भयानक

March 20, 2022 0 By Yatharth

एस वी सिंह

निजी क्षेत्र में, जहां 10 से अधिक मजदूर काम करते हों, प्रति माह 30,000 रु से कम वेतन वाली नौकरियों में स्थानीय मतलब हरियाणवी युवाओं को 75% आरक्षण देने वाली हरियाणा सरकार का, प्रदेश में बेरोजगारी का ‘सफाया’ कर डालने वाला ‘मील का पत्थर’ कानून 15 जनवरी 2022 को लागू हुआ। लेकिन, बगैर बेरोजगारी दूर किए ही, ये कानून पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय के 3 फरवरी 2022 के आदेशानुसार स्थगित हो गया। देश में बेरोजगारी भयानक है, अभूतपूर्व है और उसमें भी हरियाणा में सर्वाधिक है। ऐसे में हरियाणा सरकार, हरियाणा के युवकों को रोजगार देने के मामले में ‘कुछ करते दिखना’ चाहती थी और वो अपने मकसद में कामयाब हो गई। करते दिख गई और कुछ करना भी नहीं पड़ा!! ‘धरती पुत्रों’ को रोजगार देने का पाखंड करने के लिए आरक्षण लाने वाला, हरियाणा पहला राज्य नहीं है। बिल्कुल ऐसा ही कानून तेलंगाना, आन्ध्रा, झारखण्ड भी ला चुके हैं और वहां भी इस कानून का बिल्कुल यही अंजाम हुआ है। इसलिए इस कानून को लाने के पीछे सरकार की मंशा, नीयत पर शक नहीं होता, बल्कि ये निस्संदेह है कि सरकार बेरोजगारों के साथ एक तरह की धोखाधड़ी कर रही है। सरकारें निवेश लाने के लिए सरमायेदारों के सामने, जिस तरह गिड़गिड़ाती हैं, बिछ जाती हैं, तमाम तरह की टैक्स रियायतें देती हैं, मजदूरों का खून निचोड़ने की खुली छूट देती हैं, उन्हें भलीभांति मालूम है कि उद्योगपति इस कानून का कार्यान्वयन अदालतों से रुकवा लेंगे क्योंकि ये कानून, संविधान की धाराओं 19 (1/जी) और 16, जो हर व्यक्ति को देश में कहीं भी काम करने का अधिकार देती हैं, का खुला उल्लंघन है। अगर ऐसा नहीं भी हुआ, तो जब उद्योगपति अपना उद्योग दूसरे राज्य में ले जाने की धमकी देंगे तो राज्य के लोग खुद ही चिल्लाएंगे कि इसे भागने से रोको!! इस तरह कुछ फाइलें इधर-उधर जरूर घूमेंगी, अखबारों में खबरें छपेंगी लेकिन नेताजी को युवकों को ये कहकर ठगने का अवसर मिल जाएगा कि देखो भाइयों, मैं तो आप बेरोजगारों के दुख में दुबला हुआ जाता हूं, ‘अपने बच्चों’ को रोजगार देना चाहता हूं लेकिन ये अदालतें बीच में आ जाती हैं, या फिर ये उद्योगपति कुलबुलाने लग जाते हैं!! अब तुम ही बताओ, मैं क्या करूं? ना केंद्र सरकार, ना किसी भी राज्य सरकार की नीयत रोजगार देने की है और ना ही पूंजीवाद में आज रोजगार सृजन की गुंजाइश बची है। सरकारों का शोध आज सिर्फ एक बिंदु पर केन्द्रित है कि कौन सा ऐसा नया, अनोखा हथकंडा अपनाया जाए, कौन सी तिकड़म की जाए कि वे बेरोजगारों की आंखों में धूल झोंकने में कामयाब हो जाएं!! लोगों को ये यकीन हो जाए कि हम उनके हितैषी हैं!! ‘मानेसर औद्योगिक कल्याण संघ’, जिसकी याचिका पर चंडीगढ़ उच्च न्यायालय ने इस कानून का कार्यान्वयन रोका है और जिसके विरुद्ध हरियाणा सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई है, के अतिरिक्त भी, गुडगांव, फरीदाबाद और रिवाड़ी के उद्योगपतियों की प्रभावशाली संघों द्वारा डाली गईं 8 याचिकाएं विभिन्न अदालतों में लंबित हैं। ये बिल्कुल अप्रत्याशित नहीं है इसीलिए हरियाणा के किसी नागरिक को कोई गलतफहमी भी नहीं है कि ये सारी कवायद ‘अपने प्यारे भाइयों’ को मूर्ख बनाने की है, जिससे जब नेताजी वोट मांगने जाएं तो लोग लट्ठ लेकर उनके पीछे ना दौड़ें। नेता काइयां हैं, ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि प्रदेश में बेरोजगारी भयानक है और यदि बेरोजगारों को गुमराह ना किया गया तो ये फौज बेकाबू भी हो सकती है।                   

‘सरकार की नीयत स्थानीय युवाओं को रोजगार देने की नहीं बल्कि उन्हें धोखा देने की है’; ऐसा सोचने के ठोस कारण मौजूद हैं

•  लाखों सरकारी पद खाली क्यों पड़े हैं? हरियाणा के सरकारी विभागों में भी लाखों पद रिक्त पड़े हैं। इस छोटे से राज्य में अकेले स्कूल शिक्षकों के 30,000 पद रिक्त हैं। प्रदेश के सबसे पिछड़े,अल्पसंख्यक बहुल मेवात जिले में स्कूल शिक्षकों के 49% पद खाली हैं। सरकार जब चाहे, ये भर्तियां कर सकती है। उसे कोई अदालत नहीं रोकेगी। लेकिन, सरकार इस दिशा में एक कदम भी बढ़ाने को तैयार नहीं। 30,000 स्कूल शिक्षक भर्ती होंगे तो जाहिर है, उनमें 90% स्थानीय अपने ‘प्यारे हरियाणवी भाई’ या उनके बच्चे ही होंगे। ये सारा काम हरियाणा सरकार को ही करना है, कहीं कोई अड़चन नहीं है, ये पूरा काम दो महीने में पूरा हो सकता है, फिर ये कई साल से क्यों नहीं हो रहा है? रिक्त सरकारी पद अकेले हरियाणा या किसी एक महकमे में नहीं हैं बल्कि सर्वत्र हैं, सबसे ज्यादा केंद्र सरकार में हैं। हर राज्य के हर महकमे में हैं, और इनकी संख्या निरंतर तेज गति से बढ़ती जा रही है। प्रमुख समाचार प्लेटफार्म ‘द लीफलेट’ द्वारा जारी 21 जुलाई 2021 की रिपोर्ट के अनुसार ये आंकड़े इस तरह हैं। (आंकड़े अगले पृष्‍ठ पर दिये गये टेबल में देखें)

केंद्र और राज्य सरकारों में खाली पड़े पद –

केंद्र सरकार, केन्द्रीय विभाग एवं केंद्र सरकार के निकायकेंद्र सरकार के मंत्रालय एवं विभाग सरकारी बैंक9,10,153 2,00,000
स्वास्थ्य विभागस्वास्थ्य विभाग ………………………………………….. आंगनवाडी1,68,480 …………………………… 1,76,057
प्राथमिक शिक्षाकेन्द्रीय एवं नवोदय विद्यालय   राज्य सरकार के आधीन प्राईमरी स्कूल  16,329 ………………………… 8,37,592
उच्च शिक्षा संस्थानकेन्द्रीय विद्यालय आई आई टी/आई आई आई टी /आई आई एम /एन आई टी ……………………………………….. दूसरे केन्द्रीय शिक्षण संस्थान18,647 ……………………………… 16,687 ……………………………… 1662
फौज एवं पुलिसफौज   केन्द्रीय सशस्त्र बाल   राज्य पुलिस1,07,505 ……………………………… 91,929 ……………………………… 5,31,737
अदालतेंसुप्रीम कोर्ट …………………………………… उच्च नयायालय   ज़िला एवं निम्न अदालतें4 …………………………… 419 ……………………………… 4,929
राज्यों मेंउपर्युक्त के अतिरिक्त कुल खाली पद30,00,000
 कुल रिक्तियां60,82,130

देश भर में कुल स्वीकृत, भरी हुई एवं रिक्त नौकरियों का आनुपातिक विवरण-

वर्षस्वीकृत पदभरे हुए पदखाली पदकुल पदों में खाली पड़े पदों का अनुपात
2014-1536,45,58432,23,9264,21,65811.57%
2015-1636,49,46832,28,9214,20,54711.52%
2016-1736,33,935322,21,1834,12,75211.36%
2017-1838,02,77931,18,9566,83,82317.98%
2018-1939,99,14530,88,9929,10,15322.76%

•   कर्मचारियों की भर्तियां निकलती भी हैं तो सालों-साल लटकी क्यों पड़ी रहती हैं? नव उदारवादी हमले से पहले भी पूंजीवादी व्यवस्था ही थी लेकिन हर साल बैंकों, बीमा कंपनियों, रेलवे, सारे मंत्रालयों में भर्तियां चालू रहती थीं। मजेदार बात ये है कि उस वक्त कुछ भी ऑनलाइन नहीं था। ‘रोजगार समाचार’ में नौकरियों के विज्ञापन छपते थे। उस के लिए फॉर्म मंगाना, प्रतियोगिता परीक्षा का बुलावा पत्र, परीक्षा का परिणाम, इंटरव्यू का बुलावा पत्र और अंत में नियुक्ति पत्र; सब डाक से आते-जाते थे, फिर भी विज्ञापन से नियुक्ति तक की सारी प्रक्रिया 6 महीने में पूरी हो जाती थी। आज जब सब कुछ ऑनलाइन है, ये प्रक्रिया एक महीने में पूरी हो सकती है, फिर ये प्रक्रिया सालों साल क्यों लटकी रहती है? और अंत में रद्द क्यों हो जाती है? तीन-तीन साल तक करोड़ों युवाओं को इंतजार करते हुए क्यों बिठाया जाता है? क्या ये देश के युवाओं को भटकाने, मूर्ख बनाने, ठगने, उन्हें मानसिक रोगी बनाने की कवायद नहीं है? क्या हरियाणा, देशभर में चल रही इस ठगी से अलग है? क्या हरियाणा सरकार को, जो ‘अपने भाइयों’ की बेरोजगारी के प्रति इतनी संवेदनशील है, भर्ती की प्रक्रिया को चुस्त-दुरुस्त बनाकर देश के सामने एक मिसाल नहीं क़ायम करनी चाहिए? अगर सरकारी भर्तियों को भरने के लिए कुछ भी ना किया जा रहा हो और निजी क्षेत्र में 75% आरक्षण की बात की जा रही हो तो क्या ये प्रदेश के बेरोजगार युवकों से धोखाधड़ी नहीं है?

हरियाणा के पीटीआई शिक्षकों का बहादुराना संघर्ष और सरकारी आपराधिक निकम्मापन बेमिसाल हैं।  क्या कोई सोच सकता है कि कोई नियुक्ति प्रक्रिया इतनी लम्बी भी चल सकती है? 1983 पीटीआई शिक्षकों की नियुक्ति का विज्ञापन 28.12.2006 को निकला, परीक्षा की तारीख थी, 21.01.2007 जिसमें कुल 20,636 युवकों ने भाग लिया। परीक्षा में बड़े स्तर पर धांधली हुई और हरियाणा कर्मचारी चयन बोर्ड ने परीक्षा रद्द कर दी। उन्हीं भर्तियों के लिए दूसरा विज्ञापन 20.07.2008 को निकला। बोर्ड ने परीक्षा में अंकों के मूल्यांकन के बारे में फिर घोटाला किया, प्रस्तावित परीक्षा को फिर रद्द कर दिया गया। ये मानते हुए कि वो नियमानुसार परीक्षा लेने में असमर्थ हैं, सरकार ने, परीक्षा के बगैर ही, शैक्षणिक योग्यता के 60 अंक और इंटरव्यू के 30 अंक के आधार पर 10.04.2010 को  नियुक्तियां कर डालीं। 1983 पीटीआई शिक्षकों ने अपनी ड्यूटी ज्वाइन कर ली। अनुत्तीर्ण युवक, सुप्रीम कोर्ट पहुंचे और अदालत ने फैसला सुनाया, ‘आप बगैर लिखित परीक्षा नियुक्ति नहीं कर सकते।’ पीटीआई शिक्षकों ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डाली और अपनी ड्यूटी करते रहे। 2014 में हरियाणा में कांग्रेस की जगह भाजपा सरकार आ गई। भाजपा की सरकार ने इन सभी 1983 पीटीआई शिक्षकों को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देकर बर्खास्त कर दिया जबकि उनकी ही सरकार, उसके द्वारा नियुक्त अतिथि शिक्षकों की नौकरी, सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द कर दिए जाने के बाद भी, बचा सकी है। बर्खास्त पीटीआई शिक्षक तब से ही बहुत बहादुरी से अपना संघर्ष चला रहे हैं। हरियाणा के हर जिले में डी सी ऑफिस के सामने उनका धरना तीन साल से लगातार जारी है, लेकिन हरियाणवी युवाओं के रोजगार के लिए निजी क्षेत्र में 75% रिजर्वेशन कर, बेरोजगारों को हरियाणवी-गैर-हरियाणवी में बांटकर लड़ाने वाली, बगुला भगत बनी सरकार को इन बर्खास्त पीटीआई शिक्षकों से बात करने का भी वक्त नहीं है। बिल्कुल बेकसूर, बर्खास्त पीटीआई शिक्षकों की दुर्दशा का आज ये आलम है; 70% शिक्षक 45 वर्ष से ज्यादा आयु के हो चुके हैं जिन्हें अब कहीं भी  नौकरी नहीं मिलेगी, इन 16 सालों में 35 शिक्षक जिन्दगी की ये कठिन जंग से हार कर मर गए, 50 शिक्षक ऐसे हैं जिन्होंने इस नौकरी के लिए अपनी पहली सरकारी नौकरी छोड़ी थी। इनमें अधिकतर शिक्षक वे हैं जो बेहतरीन खिलाड़ी रहे हैं, विभिन्न मैडल जीत चुके हैं। इतनी ‘चिंता’ करती है ये ‘भाजपा-जजपा’ सरकार प्रदेश के अपने प्यारे हरियाणवी भाइयों के रोजगार की!! कितने भर्ती घोटालों का ये हाल है कि शिक्षकों के एक दूसरे भर्ती घोटाले में हरियाणा के दो दिग्गज नेता सजा काटकर अभी जेल से छूटे हैं।

• हरियाणा की आंगनवाड़ी महिलाएं 8 दिसम्बर 2021 से लगातार हड़ताल पर हैं, सरकार को वादा याद दिलाया तो उन्हें उल्टा बर्खास्त किया जा रहा है। सितम्बर 2018 में मोदी ने, गुडगांव में हाथ लहराकर अपने शोखिबाज अंदाज में घोषणा किया कि सभी आंगनवाड़ी महिलाओं का मानदेय प्रति माह 1500रु और सहायकों का मानदेय 700रु बढ़ाया जाता है, तालियां गूंज उठीं। मोदी जी अपने अंदाज में तालियां स्वीकार कर, उस घोषणा को वहीं छोड़, दूसरी सभा में दूसरी घोषणाएं कर, दूसरी तालियां बटोरने उड़ गए!! इसके बाद जब सभा समाप्त हुई और महिलाओं ने अपना बढ़ा मानदेय मांगा। प्रशासन ने मुंगेरीलाल टाइप लुक दिया और कहा कैसी बढ़ोत्तरी, वे तो घोषणाएं थीं!! घोषणाएं तो घोषणा करने के लिए और तालियां बजवाने के लिए ही होती हैं, उनसे मानदेय नहीं बढ़ा करते!! महिलाएं अड़ गईं, बढ़ा मानदेय चाहिए। प्रशासन अड़ गया, नहीं मिलेगा। महिलाएं 8 दिसम्बर 2021 से प्रदेश के हर जिला लघु सचिवालय पर अनिश्चितकालीन हड़ताल पर बैठी हैं। हरियाणा के मुख्यमंत्री ने महिलाओं को 29 दिसम्बर 2021 को मीटिंग के लिए बुलाया और उन्होंने भी साहिब-ए-मसनद की तरह घोषणाएं कर डालीं; ‘आपका मानदेय 2019 से बढ़ेगा और पिछले दो सालों 2019-20 और 2020-21 का बढ़ा हुआ भुगतान भी किया जाएगा। इतना ही नहीं कोरोना महामारी में आंगनवाड़ी महिलाओं द्वारा किए गए शानदार काम हेतु उन्हें 1000 रु वित्तीय पुरस्कार भी मिलेगा। आप लोग हड़ताल वापस लेकर काम में जुट जाईये।’ महिलाएं सिर्फ घोषणाएं नहीं बल्कि घोषणाकृत रकम द्वारा अपने खातों में हलचल देखना चाहती थीं। वे जान चुकी थीं कि फासिस्टों की घोषणाएं लफ्फाजियां होती हैं इसलिए बोल दिया, पहले भुगतान करो, उसके बाद ही हड़ताल वापस होगी। ठीक ही किया क्योंकि सरकार अपने वादे को भूल चुकी है। महिलाएं डटी हुई हैं और चीख रही हैं, वे सरकार को कुछ भुलाने नहीं देंगी। बहादुर आंगनवाड़ी महिलाओं की हड़ताल 70 दिन से जारी है। सरकार उन्हें बर्खास्त करने लगी है। पलवल प्रशासन तीन महिला कार्यकर्ताओं उर्मिला, कृष्णा देवी और शशिबाला को बर्खास्त कर चुकी है लेकिन महिलाओं की हिम्मत बुलंद है। हरियाणा सरकार द्वारा, अपने भाई-बहनों के रोजगार के लिए बहाए जा रहे आंसू कितने घड़ियाली हैं!! बेरोजगार नौजवान व महिलाएं जाग चुके हैं और वो इस धोखाधड़ी में फंसने से दृढ़ता से इंकार कर रहा हैं।

•   हरियाणा बेरोजगारी में ‘नंबर वन’ बन गया, सरकार ने बिल्कुल कुछ नहीं किया। सीएमआईई (Centre for Monitoring of Indian Economy) के मई से अगस्त 2021 के आंकड़ों के अनुसार हरियाणा में बेरोजगारी दर 35.7% रही, जो देश में सबसे ज्यादा है। हरियाणा सरकार का स्टेट स्लोगन है जो हर बस पर लिखा नजर आता है; ‘नंबर वन हरियाणा’! बेरोजगारी में हरियाणा सचमुच नंबर वन बन गया लेकिन सरकार द्वारा बेरोजगार-बेहाल युवाओं को भ्रमित करने और उन्हें लोकल बनाम बाहरी में बांटकर लड़ाने के मकसद से लाए गए इस कानून के अतिरिक्त कुछ भी तो नहीं किया गया। हरियाणा के एक प्रमुख विपक्षी नेता ने इस कानून को देशी हरियाणवी अंदाज में बिल्कुल सही समझाया है, ‘युवाओं को कोहनी पर रखकर गुड़ दिया जा रहा है जिसे वे कभी खा नहीं सकते।’ हरियाणा, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को तीन दिशाओं से घेरे हुए है। उद्योगों को दिल्ली से बाहर करने की राष्ट्रीय नीति है। इसीलिए हरियाणा के कुछ क्षेत्रों में पूंजीवादी प्रगति की चमक-दमक नजर आती है। परन्तु,जरा-सी सतह कुरेदिये और नीचे बिल्कुल वही आलम है जो देशभर में है। हर घर में युवा बेरोजगार हैं। खेती-किसानी का संकट बिल्कुल उसी तरह कहर ढा रहा है। हरियाणा में सीमांत किसानों की तादाद 76% तक पहुंच चुकी है। इस विशाल समुदाय के लिए खेती करना एक मजबूरी है, सब के सब न्यूनतम मजदूरी वाला रोजगार मिलने पर भी खेती छोड़ देने को तैयार हैं।

•   इस कानून के बनने की प्रक्रिया में सरकार के बदलते पैंतरे उसके ही मंसूबों को नंगा कर देते हैं। पहले तय हुआ कि ये कानून उन सभी नौकरियों पर लागू होगा जिनका मासिक वेतन 50,000रु तक है। सरकारी ‘थिंक टैंक’ को तुरंत समझ आ गया कि ऐसा करने से तो निजी क्षेत्र के टॉप मैनेजमेंट वाले भी लपेटे में आ जाएंगे क्योंकि इससे ज्यादा पगार तो निजी क्षेत्र में बस डायरेक्टर को ही मिलती है। उद्योगपति तुरंत मानेसर से भिवाड़ी भाग जाएंगे। वेतन सीमा को घटाकर 30000रु प्रति माह कर दिया गया। फिर सवाल आया, लोकल किसे माना जाए? पहले तय हुआ, जो लोग हरियाणा में स्थाई रूप से पिछले 15 साल से रह रहे हैं, उन्हें माना जाए। ‘थिंक टैंक’ ने फिर लाल झंडी दिखाई, इस तरह तो 80% से भी ज्यादा मजदूर निकल जाएंगे और सारे उद्योगपति अन्यत्र निकल लेंगे क्योंकि इन परजीवियों का माई-बाप तो मुनाफा है, वो जरा भी कम हो जाए तो इनकी नसों में रक्त जमने लगता है। तुरंत सरकार ने लोकल की परिभाषा बदल डाली और हरियाणा में स्थाई निवास की अवधि को 15 साल से घटाकर 5 कर दिया। इतना ही नहीं सरकार ने ये भी इशारा किया हुआ है कि जरूरी नहीं कि ये कानून हर उद्योग में लागू हो। नए उद्योग (स्टार्ट अप), इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी, लघु उद्योग, खेत मजदूर, घरेलू श्रमिक, अल्पावधि रोजगार को इसके दायरे से बाहर भी रखा जा सकता है। सरकार खूब खेली-खाई है। मकसद किसी को नौकरी देना है ही नहीं। असल मकसद तो है अपने राज्य के युवाओं को बस नजर आए कि सरकार उनकी कितनी परवाह करती है। साथ ही लोकल और बाहरी मजदूरों में एकता टूटे, यूनियनें टूटें और ट्रेड यूनियन आन्दोलन चौपट हो जाए।

देश में बेरोजगारी की भयावहता :                      

2018-19 के बाद, खासतौर पर कोरोना महामारी के दौरान बेरोजगारी प्रचण्ड राक्षसी रूप ले चुकी है। बेरोजगारों के बजाए अब रोजगारयाफ्ता लोगों को गिनना आसान है। देश में काम करने लायक, मतलब, 15 से 65 वर्ष उम्र के बीच के लोगों की तादाद 94 करोड़ है। बजट पूर्व आर्थिक सर्वे के अनुसार, कुल कार्यशील लोगों में काम कर रहे लोगों का अनुपात, मतलब मौजूदा ‘श्रम शक्ति भागीदारी दर’ (Labor Force Participation Rate, LFPR) 37.5% है। अर्थात, इस वक्त देश में बेरोजगारों की कुल संख्या 35.25 करोड़ है। इस तादाद में सीमांत किसानों के रूप में छुपी बेरोजगारी के लगभग 30 करोड़ लोगों को जोड़ा जाए तो यह आंकड़ा भयावह हो जाता है। पहले नोटबंदी फिर जीएसटी और बाद में कोरोना से करोड़ों रेहड़ी -पटरी वाले स्व-रोजगार लोगों के धंधे चौपट हो गए। करोड़ों के रोजगार चले गए। जिनके रोजगार बच गए उनके भी वेतन में भारी कटौतियां हुईं। कम या ज्यादा, देश के कुल 84% लोगों की आय घटी है। सरकारी निकायों को भूसे के भाव थोक में कॉर्पोरेट को बेचा जा रहा है। इस तरह हुई हर बिक्री में औसत लगभग आधे लोगों के रोनगार चले जाते हैं। इस साल के बजट में सरकार ने अगले पांच सालों में कुल 60 लाख रोजगार पैदा करने की घोषणा की है, मतलब हर साल 12 लाख। फासिस्ट सरकारों के आंकड़े भरोसे लायक नहीं होते और मोदी सरकार के ‘हर खाते में 15 लाख जमा’ और ‘हर साल दो करोड़ रोजगार’ वाले तजुर्बे के बाद किसी भी आंकड़े पर अब लोग भरोसा करना छोड़ चुके हैं। फिर भी यदि स्वीकार भी कर लिया जाए, तब भी बेरोजगारी आगे बहुत विकराल रूप लेने जा रही है। हर साल 37.5 लाख अतिरिक्त युवा, रोजगार मांगने वाली लिस्ट में जुड़ जाते हैं। अर्थात, हर साल 37.5-12=25.5 लाख युवा बेरोजगारों की तादाद में जुड़ते जाने वाले हैं। देश में एक छोर पर कंगाली और दारिद्रीकरण का महासागर विशाल से विशालतर होता जा रहा है, वहीं दूसरे छोर पर इसी देश के कुल 142 व्यक्तियों की कुल सम्पदा 53 लाख करोड़ पहुंच चुकी है। दारिद्रीकरण को और विकराल बनाने के लिए ही, मानो इस बजट में किसानों और मजदूरों को मिलने वाले विभिन्न अनुदानों में 27% की कटौती की गई है!!

बेरोजगारों से धोखाधड़ी के तरीके अनेक हैं; बेरोजगारी दूर करने का तरीका सिर्फ एक है; पूंजीवाद को दफन करो:

पूंजीवाद का सबसे बड़ा किला अमेरिका हो या जर्मनी, जापान, रूस, चीन या फिर भारत; पूंजीवाद का मतलब है, सबको काम नहीं मिलेगा। हर तरफ शोकेस वाले बाहरी चमचमाते मुखौटे के ठीक पीछे घना अंधेरा, अभाव, असमानता की सतत बढ़ती खाई और बेरोजगारों की विशाल फौज खड़ी है जो लगातार प्रचंड होती जा रही है। विकसित राज्य और पिछड़े-बीमारू राज्य वाला विभाजन भी एक फ्रॉड है। सबसे अमीर लोग मुंबई, ‘विकसित’ महाराष्ट्र में रहते हैं लेकिन उसी मुंबई में दुनिया की सबसे विशाल झोंपड़-पट्टी धारावी है जहां लोग कीड़े मकौड़े की तरह रहने को मजबूर हैं। 

पूंजीवाद का एक प्राणघातक, असाध्य रोग जो इसे कब्र में लेकर ही जाता है, वो है मुनाफा, अधिकतम मुनाफा। ये रोग पनपता है पूंजीवाद की दूसरी मूलभूत बीमारी से, जो है सामाजिक उत्पादन पर व्यक्तिगत मालिकाना। जब पूंजीवाद फल-फूल रहा था तब भी हर वैज्ञानिक खोज ने मजदूरों की उत्पादकता बेतहाशा बढ़ाई लेकिन उसका परिणाम करोड़ों मजदूरों की छंटनी के रूप में ही आया। हर वैज्ञानिक अविष्कार से उत्पादन कई गुना बढ़ा लेकिन साथ ही वो अंततोगत्वा करोड़ों मजदूरों की रोजी-रोटी का काल बनी क्योंकि उस वैज्ञानिक ज्ञान का इस्तेमाल काम को सरल व सुविधाजनक बनाकर, उत्पादन को अधिकतम करने, सारे समाज के उपभोग के लिए उत्पादों का अम्बार लगाने में नहीं बल्कि प्रति मजदूर उत्पादकता बढ़ाकर, मजदूरों पर खर्च होने वाली पूंजी घटाकर, मालिक का अधिशेष (surplus value) अधिकतम केरके उनकी तिजोरियां भरने के लिए ही हुआ। यही है पूंजीवादी दस्तूर, उसकी अन्तर्निहित बीमारी, विध्वंसकारी द्वंद्व, जो हर देश में, हर राज्य में, हर जिले में एक समान है, जहां भी पूंजीवाद है। आज पूंजीवाद उत्पादन बढ़ाना ही नहीं चाहता क्योंकि पहले से ही ‘अतिउत्पादन’ है, जरूरतों के हिसाब से नहीं, लोगों की कंगाली की वजह से। एक मात्र विकल्प समाजवादी व्यवस्था है जहां उत्पाद और उत्पादन के साधनों पर मालिकाना पूरे समाज का होता है। इसमें अति-उत्पादन का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि उत्पादन योजनाबद्ध तरीके से समाज की वास्तविक और संभावित जरूरतों के अनुरूप ही होता है। जहां वैज्ञानिक-तकनीकि विकास का मतलब है, काम करने में आसानी, श्रम का एक आनंददायक क्रिया बन जाना, बढ़ी उत्पादकता मतलब काम के घंटे कम होते जाना, हर रोज 8 की जगह 6 घंटे ही काम करने की स्थिति। साथ ही उत्पादन की प्रचुरता, मतलब वितरण की सुगमता, कोई मारामारी, छीना-झपटी नहीं। तबाही लाने वाले आर्थिक संकट का समाजवाद में आने का प्रश्न ही नहीं। पिछली शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक में दुनियाभर में तबाही मचाने वाली महामंदी समाजवादी सोवियत संघ में कदम भी ना रख सकी। पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की अंतिम वेला, एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के इस युग में जहां ‘विकास’ रोजगारविहीन हो, सट्टेबाजी से हो रहा हो; वहां बेरोजगारी खत्म हो ही नहीं सकती, बढ़ती ही जाने वाली है। सरकारें हकीकत जानती हैं इसलिए उन्होंने उस दिशा में प्रयास करना ही छोड़ दिया है। अब, दरअसल, देश भर में बेरोजगारों को ठगने, गुमराह करने, खण्ड-खण्ड करने वाली योजनाएं लाने की एक प्रतियोगिता चल रही है।

गुड़गांव, फरीदाबाद, रिवाड़ी और सोनीपत के विभिन्न औद्योगिक संघ इस कानून का विरोध अपने निजी मुनाफे को बढ़ाने, मजदूरों को कम से कम वेतन देकर, आखिरी कतरे तक इनके खून और हड्डियां निचोड़ने के लिए कर रहे हैं। उनसे मजदूर लड़ रहे हैं, लड़ते रहेंगे। ये एक ऐतिहासिक, निर्णायक जंग है जिसे मजदूर निश्चित जीतेंगे। साथ ही, मजदूरों को आपस में लड़ाने, ट्रेड यूनियन आंदोलन को ध्वस्त करने के मंसूबे से लाए गए इस कानून का भी मजदूर विरोध करते हैं। ‘लोकल व बाहरी’ दोनों मजदूर अपनी फौलादी एकता अटूट रखते हुए हरियाणा सरकार को इस मजदूर विरोधी, संविधान विरोधी कानून को वापस कराने के लिए तीखा जन आंदोलन छेड़ेंगे।   

रेलवे भर्ती बोर्ड के ‘एनटीपीसी’ और ‘ग्रुप डी’ के अ‍भ्‍यर्थियों का  पटना में आंदोलन। २०१९ में फॉर्म भरने के बाद से अब तक उनका भविष्‍य अधर में लटका हुआ है। ‘ग्रुप डी’ वालों की तो अब तक परीक्षा ही नहीं हुई है। एनटीपीसी वालों की परीक्षा हुई, लेकिन उनके रिजल्‍ट में रेलवे बोर्ड ने ही धांधली कर दी। उधर ग्रुप डी वालों की दो-दो परीक्षा लेने की घोषणा रेलवे बोर्ड ने कर दी, जिसके बाद उनका धैर्य जवाब दे गया और वे  सड़कों पर आंदोलन  करने निकल गये। सैंकड़ों की संख्‍या में अभ्‍यर्थियों की पुलिस ने पिटाई की और हजारों पर मुकदमें दर्ज हुए। लगभग ढाई से तीन करोड़ अभ्‍यर्थियों का क्‍या होगा, कोई भी नहीं जानता है। 

(फरवरी 2022 अंक से)