किसान आंदोलन के अगले दौर की चुनौतियां
March 20, 2022ए सिन्हा
एक साल से अधिक समय तक चले ऐतिहासिक किसान आंदोलन के (दिल्ली बॉर्डरों पर से) खत्म हुए तीन महीने निकल गए हैं। इस बीच मोदी सरकार बजट लेकर आ चुकी है जिसमें किसानों के प्रति व्यक्त संदेश को हम अगर एक पंक्ति में लिखना चाहें तो यह लिख सकते हैं कि मोदी सरकार इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन के बावजूद अपने एजेंडे से एक इंच भी पीछे नहीं हटी है। ठीक ही कहा जा रह है कि मोदी सरकार किसानों से बदला ले रही है। इस भाषा में बोलने का लालच हम अगर नहीं त्याग सकते तो इसमें हमें यह भी जोड़ देना चाहिए कि मोदी सरकार सिर्फ किसानों से ही नहीं, बड़ी इजारेदार पूंजी को छोड़ हर तबके एवं वर्ग के लोगों से, यानी पूरे समाज से बदला ले रही है। आखिर इसे यूं ही तो फासिस्ट नहीं कहा जाता है! मध्ययुगीनता में पश्चगमन का ही दूसरा नाम फासिज्म है। यह बड़ी वित्तीय इजारेदार पूंजी के सबसे खूंखार हिस्से द्वारा जनता पर चलाया जाने वाला अनवरत युद्ध है। यह जब तक रहेगा पूरी मानवजाति द्वारा अब तक हासिल की गई तमाम महान उपलब्धियों के विरुद्ध विनाशकारी युद्ध चलाता रहेगा। दूसरे शब्दों में, मोदी सरकार देश नहीं चला रही है जनता से युद्ध कर रही है।
लेकिन इसे महज मोदी की सनक मानना भारी भूल होगी। यह मोदी की सनक नहीं संकटग्रस्त तथा अधिकतम मुनाफा की हवस में अंधी और पागल हो चुकी वित्तीय पूंजी की सनक है; उसके द्वारा चलायी जा रही आज के दौर की पूंजीवादी व्यवस्था की मानवहंता तथा सनक भरी कार्रवाई है। मोदी तो बस उसका निमित्त मात्र है। मोदी की जगह मोदी जैसा या उससे भी ज्यादा शातिर कल कोई और आ सकता है। इससे बहुत फर्क नहीं पड़ने वाला है कि सरकार (जो पूंजीपति वर्ग की प्रबंध कमिटी होती है) में वित्तीय इजारेदार पूंजी की नुमाइंदगी कौन कर रहा है। शर्त बस इतनी है कि वह इजारेदार पूंजी के हितों को आंख मूंदकर स्वीकार करे और उसे लागू करने के लिए जो कुछ भी संभव है करने को तैयार हो।
आज जब मोदी सरकार का फासीवादी चेहरा बेनकाब हो चुका है, तो लोगों को पुरानी बदनाम सरकारें भी अच्छी लगने लगी हैं। नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी ही नहीं, वित्तीय पूंजी के कल के सबसे बड़े लाडले और भारत में आज के फासीवाद की आर्थिक नींव रखने वाले मनमोहन सिंह जैसे प्रधानमंत्री भी लोगों को बहुत याद आने लगे हैं। आम लोग शायद भूल चुके हैं कि मोदी की आर्थिक नीतियां दरअसल मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों का ही जारी और पूर्ण विकसित रूप हैं। यह एक आम मानवीय प्रवृत्ति है कि बड़े दुख के समक्ष छोटा दुख याद नहीं रहता है। लेकिन ऐसा करना हमें विकल्प तक नहीं पहुंचाता है, महज एक झूठे सांत्वना के मोह में फंसाये रखता है।
चिरकालिक आर्थिक संकट ने इजारेदार पूंजीपति वर्ग को पूंजीवादी जनतंत्र से ही विमुख कर दिया है। अपने मुनाफे को अधिकतम सीमा तक निचोड़ने के लिए उसे जनता के श्रम और देश की संपदा को बुरी तरह से नोचना-खसोटना है। ऐसे में शासक वर्ग का जनवादी अधिकारों पर भयंकर हमला स्वाभाविक है। सारे जनतांत्रिक अधिकारों में कटौती और इसके परिणामस्वरूप पूंजीवादी जनतंत्र का उतरोत्तर क्षरण आम बात है। इसलिए आज का पूंजीवाद तमाम तरह की घोर जनतंत्र विरोधी एवं पतित प्रवृत्तियों की विचरण भूमि बन चुका है। अब यह पुराने जमाने की प्रगतिशीलता का कभी वरण नहीं कर सकता है। वित्तीय पूंजी आर्थिक तौर पर इजारेदाराना प्रवृत्ति रखती है और इसलिए राजनीतिक तौर पर इसका शासन घोर रूप से मध्ययुगीन बर्बरता तथा निरंकुशता की तरफ ही उन्मुख होगा। फासीवादी पार्टियों का सत्ता में आना एवं उसका समाज में उत्थान इसी चीज की अभिव्यक्ति मात्र है। यहां गौरतलब बात यह है कि संकट के स्थाई रूप से पैर जमा लेने के बाद पुराने दिनों वाले पूंजीवादी जनतंत्र की वापसी संभव नहीं है और गंवा चुके जनवादी अधिकारों की पुनर्बहाली और जनता के जीवन में खुशहाली की उम्मीदें खत्म हो गई हैं। इजारेदार पूंजी की लूट-खसोट इतनी अधिक सार्विक और गहरी हो चुकी है कि आम जनता के नागरिक होने तक का अहसास भी खत्म होने के कगार पर जा पहुंचा है। इसलिए फासीवाद का विकल्प आज पुराने दिनों की वापसी में खोजना सही नहीं है। आम विपक्षी पार्टियों, जो इजारेदार पूंजी की ही दुकानें अर्थात व्यवस्थापक्षीय पार्टियां हैं, से जनता की खुशहाली के लिए काम करने की उम्मीद पालना छलावा के अतिरिक्त कुछ और नहीं है। सच्ची बात तो यह है कि इजारेदार पूंजी की मुनाफे की भूख पर अंकुश लगाने का एकमात्र रास्ता इसकी सत्ता को ही समाप्त कर देना है, जिसके लिए मजदूर वर्ग की कोई क्रांतिकारी पार्टी ही कमर कस सकती है। विपक्षी पार्टियों का इस तरह का चरित्र ही नहीं हैं कि वे इजारेदार पूंजी के आगे तन कर खड़ी भी हो सकती हैं। किसान सरकारें बदल अपनी जिंदगी की समस्यायें खत्म करना चाहते हैं तो यह आज संभव नहीं है।
इतिहास की गति कोल्हू के बैल वाली गति नहीं है जो एक ही जगह पर चक्कर काटते रहता है। इस दुनिया को पूंजीवाद ने भौतिक तौर पर इतना बदल दिया है कि यह आगे की मंजिल में अपने पैर रख चुकी है। बस शरीर ही बाहर है। इसे रोकने के लिए बड़ा पूंजीपति वर्ग हर कुकर्म करने के लिए तैयार है। आरएसएस और भाजपा जैसी फासीवादी ताकतों को ये ही प्रश्रय देते हैं। बड़े पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने शासन को बचाये रखने का यह सबसे पतित और जनविरोधी तरीका है। यह पूरी सभ्यता को नष्ट कर देगा। पैर अंदर और शरीर बाहर – इस तरह का असंतुलन अत्यंत विनाशकारी है। इसलिए ही उपादान व उपलब्धियां नष्ट हो रही हैं। हमें आगे के बजाय पीछे ले जाया जा रहा है। आगे ले जाने वाली शक्ति कौन है इसका निर्धारण आज हर उस वर्ग को करना चाहिए जो इजारेदार पूंजीवाद की लूट से बर्बादी के कगार पर पहुंच चुके हैं। हमें पीछे जाने से इनकार कर देना चाहिए और इतिहास की गति में इसके अगले पड़ाव की तरफ कूच करना चाहिए। मानवजाति का अगला पड़ाव समाजवाद ही है। इसलिए यह तय करना होगा कि पूंजीवाद के अंतर्गत मानवजाति ने जो सकारात्मक भौतिक व अन्य तरह के विकास किए हैं उसे बिना क्षति पहुंचाए हम पूंजीवाद के उस चौखटे से बाहर कैसे निकलें जिसमें कैद हो मानवजाति चीत्कार कर उठी है; जिसकी कैद में घुट कर उत्पादक शक्तियां नष्ट हो रही हैं; जिसकी कैद में पड़ा हर भौतिक विकास मजदूर वर्ग ही नहीं पूरी मानवजाति के विरुद्ध ही चलाये जा रहे युद्ध का साधन बन चुका है; और जिसकी तुच्छता आज हर क्षेत्र में भयंकर पश्चगमन का कारण बन रही है। जहां तक पार्टियों का सवाल है, हम स्वयं आंख उठाकर यह देख सकते हैं कि चाहे किसी पार्टी की सरकार हो, जनता का दमन करने और वित्तीय इजारेदारों को मुनाफा कमाने के अवसर सुनिश्चित करने में पीछे नहीं है। अब मजदूरों व किसानों को उनमें से किसी एक को चुनना भर रह गया है जो अलग दिखने के बावजूद वास्तव में अलग नहीं हैं। विपक्षी पार्टियों द्वारा शासित राज्यों में जनता के हितों पर कुठाराघात क्या कम होता है? क्या जनवादी अधिकारों का दमन वहां नहीं होता है? मजदूरपक्षीय तथा जनपक्षधर पत्रकारों पर हमले क्या वहां नहीं होते हैं? जहां तक राष्ट्रवाद और संप्रदायवाद जैसे जहरीली विचारधाराओें का इस्तेमाल करने की क्षमता में अंतर का सवाल है, तो वो अपनी जगह मौजूद है और वह एक महत्वपूर्ण अंतर है, लेकिन उसके आगे, आर्थिक नीतियों तथा अन्य चीजों में कोई अंतर नहीं है। उप्र चुनाव में संप्रदायवाद और राष्ट्रवाद के अप्रत्याशित रूप से हो रहे विषवमन के बावजूद आम जनता जिस तरह से अप्रभावित रह रही है और भाजपा का मुकाबला कर रही है, उससे यह अंतर और ज्यादा स्पष्ट हो रहा है और इसीलिए शायद जल्द ही मिट भी जाएगा। हम यहां सिर्फ इतना कहने की कोशिश कर रहे हैं कि चुनावों में फासिस्ट भाजपा को सजा देते वक्त और सजा देने के बाद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मोदी को हराने से ही न तो फासिज्म पराजित होने वाला है, और न ही किसानों एवं मजदूरों के जीवन की समस्याओं का अंत होने वाला है।
फासिज्म का जनक पूंजीवाद है। उसकी जड़ें सार्विक माल उत्पादन की पूंजीवादी व्यवस्था में है जो आज विकसित होकर वित्तीय पूंजी की अति विशालकाय वृद्धि के साथ एकाधिकारी पूंजीवादी व्यवस्था में तब्दील हो चुकी है। आज का फासिज्म वित्तीय पूंजी के भी एक खास बिंदू के आगे हुए विकास से निकली एक (आम और स्थाई प्रतीत होने वाली) राजनीतिक व सामाजिक प्रवृत्ति है जो वैश्विक पूंजीवाद के असमाधेय संकट के कारण लगातार ज्यादा से ज्यादा हावी बने रहने वाली है। इसलिए संसद और संसदीय जनतंत्र को अंदर से ही सतत रूप से खोखला बनाने की प्रवृत्ति एक आम प्रवृत्ति है। खोखली और कमजोर संसद कभी भी एक झटके में खत्म की जा सकती है। लेकिन अगर बनी रहती है, तो उसके कारण हड्डियों के मात्र ढांचे के रूप में बचे पूंजीवादी जनतंत्र का अर्थ कम और ज्यादा पतित एवं तानाशाह पार्टियों में से किसी एक का चुनाव करने का नाम भर रह जाएगा। उदारवादी बुर्जुआ पार्टियों के लिए भी ऐसे संसद में कोई जगह बची रहने वाली नहीं है। इसलिए फासिज्म से मुक्ति का प्रश्न अब पूंजीवाद के विपरीत चरित्र वाली समाज व्यवस्था, निजी स्वामित्व की व्यवस्था के ठीक विपरीत सामाजिक स्वामित्व कायम करने वाली व्यवस्था के लिए, यानी समाजवाद के लिए होने वाली लड़ाई से जुड़ गया है। हालांकि यह भी सच है कि इस लड़ाई में होने वाली जीत की गारंटी एकमात्र इस तरह ही हो सकती है कि मौजूदा दौर में आम जनवाद की रक्षा के लिए होने वाली व्यापक जनता की लड़ाई में हम विजयी हों, यानी फासीवाद को जितना संभव हो पीछे हटाया जाए। इसमें हमारी जीतों और उसके एक लंबे सिलसिले के बाद ही हम पूंजीवाद से समाजवाद की ओर कूच कर सकेंगे। पैर अंदर और शरीर बाहर के उपरोक्त असंतुलन को हम एकमात्र तभी दूर कर पाएंगे। अर्थात, फासिस्टों के खिलाफ और समाजवाद के लिए होने वाली लड़ाई में जीत की गारंटी कई स्तरों व चरणों में होने वाली जनवाद की लड़ाइयों में होने वाली हमारी दर्जनों जीतों के सिलसिले से अकाट्य रूप से जुड़ी है।
मौजूदा दौर में, किसान आंदोलन उपरोक्त लड़ाई की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इस कड़ी को हाथ में पकड़े रहने के लिए किसानों द्वारा जीतों का एक सिलसिला कायम करना आज सबसे ज्यादा जरूरी है। कहने का अर्थ है, किसान आंदोलन के अगले दौर में अगर किसान या किसान नेता शासक वर्ग की उन पेचिदगियों से आगे नहीं बढ़ते हैं जिनका सफलतापूर्वक सामना वे पहले कर चुके हैं या जिन्हें वे फतह कर चुके हैं; मौजूदा व्यवस्था की उस सीमा को नहीं पहचानते हैं जिससे वे पहले दौर में ही टकराकर देख चुके हैं; विपक्षी पूंजीवादी पार्टियों की तुच्छता के प्रभाव से मुक्त नहीं होते हैं जिससे मुक्त होने के लिए ही वे और भी तुच्छ भाजपा की गोद में जा बैठे थे, तो यह संभावना है कि किसान आंदोलन का उसी तरह पुराने रंग में आना शायद मुश्किल हो जाए। कहने का अर्थ यह है कि वे अपनी मांगों की विराटता और उनका पूंजीवादी राज्य की तुच्छ सीमा से टकराना, दोनों देख चुके हैं। वे देख चुके हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था में खेती को अंतत: बड़ी पूंजी के कब्जे में जाने से नहीं रोका जा सकता है। वे यह भी देख चुके हैं कि एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग पूंजीवादी राज्य अगर मान भी ले तो उसे अमल में नहीं ला सकता है। इसलिए, यह नहीं हो सकता है कि किसान पूंजीवादी राज्य द्वारा हर बार ठगे जाने के लिए तैयार बैठे रहें और लोग पहले की तरह ही उसे समर्थन देने के लिए तैयार हों।
इसलिए अब यह पूरी तरह संघर्षरत किसानों पर निर्भर है कि पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के संपन्न हो जाने और उनके परिणाम आ जाने के बाद अपने आंदोलन को कौन सा रूप और क्या दिशा देते हैं। उप्र चुनावों के बाद देश की राजनीतिक परिस्थिति में आने वाले बदलावों के बारे में उनका आंकलन क्या है यह एक अहम बात है।
किसान फिलहाल विधान सभा चुनावों में किसान विरोधी भाजपा को सजा देने के अपने आह्वान को जमीन पर उतारने में लगे हैं ताकि भाजपा को करारी पराजय का मुंह देखना पड़े। इनमें से उप्र चुनाव के परिणाम का महत्व निस्संदेह भाजपा के लिए सबसे अहम है। लेकिन जहां तक देश पर इसके पड़ने वाले प्रभावों का सवाल है, भाजपा की हार हो या जीत, दोनों ही स्थितियों में, मजदूर वर्ग और इसकी अगुआ शक्तियों के सामने विकट चुनौतियां आने वाली हैं। दोनों स्थितियों में हमले और बढ़ेंगे।
अगर उप्र में भाजपा हारती है, तो किसान आंदोलन सहित अन्य सभी जनवादी तथा क्रांतिकारी आंदोलनों को काफी बल मिलेगा। यह जीत जनांदोलन का एक विस्फोट पैदा कर सकती है और तब केंद्र की मोदी सरकार आगे बढ़कर भारी दमन करेगी और इसमें उस सीमा को भी पार करेगी जिसका सम्मान वह कल तक किसानों के संदर्भ में करती रही है। तब यह देखने लायक बात है कि किसान आंदोलन इसका सामना कैसे करता है या करेगा। आम जनता का गुस्सा भी किस तरह फूटता है यह भी देखने लायक बात होगी। दूसरी तरफ, उप्र में आने वाली नई सरकार से उम्मीदों का एक महाविस्फोट होगा। लेकिन हमें यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि बहुत जल्द ही किसानों की ये उम्मीदें भी टूटेंगी। तब क्या होगा, इसका भी इंतजार रहेगा और यह देखने लायक बात होगी।
दूसरी स्थिति की बात करें। अगर उप्र में भाजपा चाहे जैसे भी जीत जाती है, तो क्या होगा? किसानों में ही नहीं सभी जनांदोलनों में एक निराशा फैलेगी। मोदी सरकार का मन बढ़ेगा और वह एक बार फिर कॉर्पोरेट की सेवा में बिना किसी डर के तल्लीन हो जाएगी। जनता के प्रति मोदी सरकार का और भाजपा का अनादर और ऊंचाइयों तक बढ़ेगा। उसे तब और ज्यादा दमन करने से भी डर नहीं लगेगा। जाहिर है, वह ऐसी ही हेराफेरी करके 2024 में भी चुनाव जीत लेने के आत्मविश्वास से भरी होगी।
लेकिन यह जनता के गुस्से के फट पड़ने का एक कारण बन सकता है। अगर जनता को यह महसूस होता है कि उसके वोटों की हेराफेरी हुई, तो इससे जनता के गुस्से में विशाल विस्फोट हो सकता है। अगर जनता ने और खासकर किसानों ने शिद्दत से मोदी-योगी के कुशासन से मुक्ति के लिए वोट किया है, और फिर भी वह इस सरकार को अगर नहीं हटा पाती है, तो यह असंभव बात नहीं है कि जनता के अंतर्मन में यह बात बैठ सकती है कि अब चाहे जो कुछ कर लो ये सरकार तो हटने वाली नहीं है। तब वह विद्रोह पर उतारू हो सकती है। यह अत्यंत गंभीर बात होगी। जनता की ताकतों की अग्निपरीक्षा होगी। यह देखना सबसे दिलचस्प होगा कि कौन उनका नेतृत्व करने के लिए आगे आता है। अगर पहले की तरह किसान आंदोलन इसकी मुख्य धुरी बनता है, तो फिर इस बात का इंतजार करना होगा कि किसान आंदोलन अपने आप को पूंजीवाद के बरक्स कहां खड़ा करता है। कहने का अर्थ है, वास्तव में परिस्थितियां आज की तुलना में पूरी तरह से भिन्न रहने वाली हैं। किसान आंदोलन को न सिर्फ एक बड़ा राजनीतिक कदम उठाना होगा, बल्कि उसे उन सवालों से भी रूबरू होना पड़ेगा, जिससे वे पहले बचते रहे हैं – यानी सीधा फासीवाद को उसके जड़मूल सहित उखाड़ फेंकने का सवाल।
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हम पहले भी लिख चुके हैं कि बड़ी से बड़ी जीत के भी सही में कुछ मायने तभी होते हैं जब इस जीत को आगे ले जाया जा सके। अर्थात, इसे आगे ले जाने वाले तत्व या कारक इसके भीतर मौजूद हों। किसान आंदोलन पर इसका परीक्षण करें, तो हम पाते हैं कि जहां कृषि कानूनों की वापसी की मांग कृषि क्षेत्र व गांवों को बलपूर्वक बड़ी पूंजी के हवाले करने की पूंजीवादी राज्य की कार्रवाई पर रोक लगाने की मांग है, वहीं एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग किसानों की सारी फसलों की, बाजार दाम से अलग, सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद गांरटी की मांग है। यह दोनों मांगें एकाधिकारी पूंजी के द्वारा व्यापक किसानों को निवाला बनाने की प्रक्रिया पर रोक लगाने वाली मांगें है, यानी उनके त्वरित संपत्तिहरण को रोकने वाली मांगें है। इन मुद्दों पर जीत का मतलब एकाधिकारी पूंजी की लूट को आगे बलपूर्वक विस्तार करने पर रोक लगाने में सफलता से है, इसलिए ये मांगें जनांदोलन के दबाव में युद्धनीति के तहत भले ही मान ली जायें, लेकिन आज के दौर के पूंजीवादी राज्य के लिए एकाधिकारी पूंजी के विरुद्ध जाने वाली इन मांगों पर वास्तव में अमल करना ठीक उसी तरह असंभव है जिस तरह वित्तीय पूंजी की इजारेदारी के युग वाले पूंजीवाद को स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा के युग में ले जाना या उसमें बदलना है; ठीक उतना ही नामुमकिन है जितना नवउदारवाद के युग की आर्थिक नीतियों को नेहरू के युग की आर्थिक नीतियों से प्रतिस्थापित करना है। कहने का तात्पर्य यह है कि ये दोनों मांगें चंद सुधारों में सिमटने वाली मांगें नहीं हैं। हम यह शुरू से कहते आये हैं कि बड़ी इजारेदार पूंजी के अधीन पूंजीवादी राज्य में बड़ी पूंजी के कृषि क्षेत्र में वर्चस्व को रोकना स्वयं पूंजीवादी राज्य को खत्म किये बिना संभव नहीं है। इसी तरह, जहां एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग बाजार की मार से बर्बाद और हताश हो चुके किसानों को कुछ देर तक सहारा देने का अंतिम उपाय है (गरीब तथा निम्न मध्यम किसान भी ऐसा मानते हैं, भले ही यह इनका भ्रम है), वहीं पूंजीवादी राज्य के अंतर्गत इसे वास्तव में लागू करना बुरी तरह संकटग्रस्त पूंजीवाद की उखड़ती सांसों को तत्काल खतरे में डालने जैसी बात है। और इसलिए ही पूंजीवादी राज्य यह जोखिम नहीं ले सकता है। और ठीक यही वह चीज है जो इस जीत को आगे ले जाने की क्षमता से लैस करती है, क्योंकि दूसरी तरफ इन मांगों के वास्तव में पूरा हुए बिना किसानों की आसन्न बर्बादी को चंद दिनों के लिए भी, जैसा कि किसान सोचते हैं, रोकना आज मुश्किल है। अगर इन दोनों मुद्दों पर किसानों की हार बड़ी पूंजी के हाथों उनकी पूर्ण बर्बादी की आसन्न आमद है, तो इन मुद्दों पर किसानों को मिलने वाली जीत के स्थायी होने की शर्त ही यह है कि इस जीत के आगे और जीतें हासिल की जायें, यानी अंतिम जीत तक इसे जीतों के एक सिलसिले में बदला जाये। खासकर फासीवादी शासन को देखते हुए कहा जाए, तो यहां यह स्पष्ट है कि किसानों की बर्बादी लाने वाली बड़ी पूंजी यानी कॉर्पोरेटपक्षीय नीति के विरुद्ध जीती गई कोई भी लड़ाई आगे और जीतों की जरूरत को रेखांकित किये बिना नहीं रह सकती है। खेती किसानी की आज की यह एक खासियत ही है जो इसे अन्य आंदोलनों से अलग करती है। किसानों के लिये मानो बीच के सारे रास्ते ही बंद हो चुके हैं।
कृषि कानूनों को मोदी सरकार ने एक युद्धनीति के तहत वापस ले लिया है। लेकिन यह निर्विवाद है कि इसके बावजूद सरकार पूंजीवादी-कॉर्पोरेट खेती को ही और आगे बढ़ाएगी, यानी सरकार खेती में पूंजीवादी बाजार, जिस पर आज कॉर्पोरेट का एकाधिकार होता जा रहा है, के तर्कों से ही आगे बढ़ेगी। छोटी जोतें कृषि के विकास में बाधक होती हैं और इसलिये पूंजीवाद में कृषि से छोटे किसानों की आबादी को हटाने और निकाल बाहर करने की हिमायत की जाती है। यहां तक कि देहातों से उन्हें खदेड़ने और शहरों में बिना किसी उपाय के ला पटकने की नीति बनाई जाती है। छोटे उत्पादकों के संपत्तिहरण की प्रक्रिया पूंजीवादी व्यवस्था में कोई नई बात नहीं है। यह हमेशा चलती रहती है, जिसमें बाजार की एक बहुत बड़ी भूमिका है। यह गौरतलब बात है कि बाजार पूरे विश्व में ज्यादा से ज्यादा कॉर्पोरेट यानी बड़ी औद्योगिक तथा वित्तीय पूंजी के मठाधीशों के अधीन आ चुका है।1 इसलिए जिस देश का कृषि क्षेत्र अभी तक उनके पूर्ण नियंत्रण से बचा हुआ है (भारत का कृषि क्षेत्र उनमें से एक है, यहां कृषि में लगी बड़ी पूंजी की मात्रा 2 से ३ प्रतिशत तक ही सीमित है। उसे भी तेजी से इनके अधीन लाने की कोशिश लगातार जारी है।
पिछले तीन दशक से भारत की कृषि पर कॉर्पोरेट की नजरें गड़ी हैं। कृषि क्षेत्र के उत्पादन, भंडारण और कृषि मालों के विपणन तथा व्यापार – तीनों पर इनकी नजरें हैं। आज राज्यसत्ता और अर्थ व्यवस्था पूरी तरह इनके अधीन आ चुकी है। ऐसे में कृषि में बड़ी पूंजी यानी कॉर्पोरेट के निर्णायक वर्चस्व को अंतत: कैसे रोका जा सकता है? इसका जबाव क्या है, सिवाय इसके कि एकमात्र पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंक कर ही इसे रोका जा सकता है। इसी के साथ यह सवाल भी तेजी से उठता है कि तब इसकी जगह कौन सी सत्ता स्थान लेगी? ये दोनों चुनौतियां किसान आंदोलन की मुख्य चुनौतियां हैं। इसे हर हाल में हल करना होगा, तभी किसान आंदोलन वास्तव में अगले दौर में और पुराने रंग में आ सकेगा। किसानों को यह समझना ही होगा कि उपरोक्त हालातों के आलोक में किसानों को मिली कोई एक जीत एक ठहरी हुई जीत के रूप में बहुत अधिक मायने नहीं रखती है। इस बात को खासकर किसानों को नये दौर के आंदोलन शुरू करने से पहले अवश्य समझ लेना चाहिए, या कम से कम इस पर विचार जरूर कर लिया जाना चाहिए।
यह सही है, एक लंबी लड़ाई में युद्धविराम के पल आते हैं। किसानों के लिए भी जरूरी था कि किसानों को सतत आंदोलन से कुछ आराम करने का मौका मिले। बड़ी लड़ाइयां इसके बिना संभव नहीं होती हैं। किसानों से चूक इस बिंदू पर नहीं हुई। चूक यह हुई कि एक गंभीर मोड़ पर युद्धविराम को ही जीत मानने की आश्चर्यजनक भूल की गई। जरा याद कीजिए, किस तरह 8, 9, 10 दिसंबर को जब सरकार से किसान नेता व्हाट्सएप पर समझौता वार्ता कर रहे थे, तो उन दिनों गफलत और भ्रम का आलम यह था कि एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग को सरकारी कमिटी के रहमोकरम पर छोड़ देने की बात को भी जीत मान लिया गया, जबकि प्रस्तावित कमिटी एमएसपी की कानूनी गारंटी पर विचार या निर्णय करने आदि के लिये अधिकृत ही नहीं की गई थी। ऐसा प्रतीत होता है, मानो मोदी और मोदी सरकार के शातिराना चरित्र के बारे में पिछले दिनों कही गई बातें एकाएक काफूर हो गईं। हमें आज इस गलती को स्वीकारना जरूरी है। तभी आगे की लड़ाई की मजबूत नींव रखी जा सकती है।
मोदी सरकार जब युद्ध जीतने के लिए (फासीवाद जनता पर एक थोपा गया युद्ध ही है) एक अहम मोड़ पर एक जरूरी युद्धनीति का पालन कर रही थी, तो ‘हम’ समझ रहे थे कि मोदी सरकार वास्तव में हार मान चुकी है। अब जरा पीछे मुड़कर सोचिये, आज कैसा लगता है? मोदी सरकार ने युद्धविराम होते ही युद्ध शुरू कर दिया। क्या इससे इनकार किया जा सकता है? क्या कृषि कानूनों को फिर से लाने तथा लागू करने की खुलेआम घोषणा करना किसानों के साथ युद्ध की फिर घोषणा करना नहीं है? कुछ लोग कह सकते हैं कि इसके लिए फिर से संसद में कानून बनाना होगा। लेकिन ऐसे लोग एक साल पहले की बात भूल जाते हैं कि यह कानून किस तरह आया था और संसद की इसमें क्या भूमिका थी। वैसे भी संसद मोदी सरकार के इरादों के आड़े कब आयी है? दरअसल, संसद में फिर से नये कानून पारित करवाने की कवायद होती रहेगी, लेकिन जहां तक युद्ध की बात है तो यह युद्धविराम की घोषणा के तुरंत बाद ही शुरू हो चुका था।
दरअसल आज किसान आंदोलन पर फिर से बात करते हुए इस जीत पर एकतरफा ढंग से बात करने का समय बीत चुका है। इसके विपरीत आज इस पर बात करना जरूरी है कि इस जीत को आगे की अन्य छोटी-बड़ी जीतों के एक अटूट सिलसिले में कैसे बदला जाये, यानी इसे पक्का कैसे बनाया जाये। जाहिर है, किसानों को वित्तीय पूंजी और इसकी रक्षा में खड़ी पूंजीवादी विचारधारा और इसकी व्यवस्था से अपने को अलग करने का ऐलान करते हुए इसे हमेशा के लिए दफनाने की घोषणा करनी होगी। यह किसान आंदोलन के अगले दौर की चुनौतियों में से ही एक अहम चुनौती है।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि आंदोलन के नये दौर में, जैसे किसानों को मोदी सरकार की कारगुजारियां, अपनी गलतियां और उसके सबक आदि याद रहेंगे, वैसे ही मोदी सरकार भी किसानों द्वारा उसे हराये जाने के लिए की गई चेष्टा याद रखेगी। कल तक ये शासक वर्ग के सहयोगी तथा अवलंब थे, और इसीलिए ये नहीं छिटकें यह सोच कर मोदी ने दमन करने का कदम नहीं उठाया। अगले दौर में यह स्थिति शायद नहीं रहेगी, जिसकी झलक आज ही कई मौकों पर मोदी सरकार लगातार दिखाती जा रही है। आगे यह चीज किधर करवट लेगी आज यह कहना मुश्किल है, लेकिन इसका अंदाजा लगाना उतना भी कठिन नहीं है।
दूसरी तरफ यह भी सच है कि शासक वर्ग का असमाधेय संकट तेजी से किसानों के बहुत बड़े हिस्से को पूंजीवादी शासकों से निर्णायक संबंध विच्छेद के लिए विवश कर रहा है, और उतनी ही तेजी से मजदूर वर्ग की हिरावल शक्तियों को देशव्यापी तौर पर इसमें क्रांतिकारी हस्तक्षेप करने का सुयोग भी पैदा कर रहा है। किसानों को इस दोनों हालातों को एक ही मानकर चलना चाहिए। पूंजीवाद से संबंध विच्छेद और मजदूर वर्ग से समन्वय एवं एकता, दोनों ही जरूरी चुनौतियां हैं जिस पर किसानों को जीत हासिल करनी होगी।
राज्यसत्ता और समाज व्यवस्था के संदर्भ में पूंजीवादी व्यवस्था का विकल्प कोई किसान व्यवस्था नहीं हो सकती है। पूंजीवादी व्यवस्था का वास्तविक विकल्प समाजवाद ही हो सकता है। किसानों का पूरी तरह से स्वतंत्र वर्ग के बतौर अस्तित्व संभव नहीं है। उसे या तो पूंजीपति वर्ग के साथ या फिर मजदूर वर्ग के साथ जाना होगा। पहले की स्थिति खत्म हो रही है, तो इसका मतलब है दूसरी स्थिति आ रही है, भले ही वह इतना अधिक स्पष्टता से मजदूर वर्ग की मौजूदा कमजोरियों की वजह से दिखती नहीं हो। अगर अन्य परिस्थितियां अनुकूल होंगी, तो हम अगले दौर में लेनिन के पदचिन्हों पर चलते हुए और असीम क्षमता से लचीलापन का प्रदर्शन करते हुए क्रांतिकारी मजदूर-किसान संश्रय के आधार पर जीत का एक अटूट सिलसिला भी कायम कर सकते हैं। यह भी एक बड़ी चुनौती है।
किसानों को यहां यह भी समझना होगा कि मजदूर वर्ग से ठीक वैसे ही संघर्ष में उतरने को कहना गलत होगा जैसे किसान उतरे। मजदूर छोटे मालिक किसानों से भिन्न पूंजीपतियों के उजरती गुलाम हैं। उनके दम पर पूंजीवादी मुनाफे का पहाड़ खड़ा है जिसमें एक हिस्सा स्वयं किसानों के धनी और संपन्न हिस्से को भी जाता है। इसलिए मजदूर वर्ग का संघर्ष में उतरने का अर्थ पूंजीवादी मुनाफे के भरभराकर गिर जाना और इसके पहिये का पूरी तरह रुक जाना होगा जिसका मतलब पूंजीपति वर्ग के सर पर खून सवार हो जाना भी होगा। राज्य मशीनरी मजदूर वर्ग के ऊपर खूनी भेड़िये की तरह टूट पड़ेगा। जब मालिक वर्ग के विरुद्ध मजदूर वर्ग की छोटी से छोटी कार्रवाई में भी वर्ग-संघर्ष का एक अंश होता है, तो जाहिर है इतने बड़े आंदोलन के वर्ग-संघर्ष में परिवर्तन की संभावना सौ फीसदी से भी अधिक होगी। इसका मतलब यह है कि मजदूर वर्ग को खूब सोच-समझ कर और देशव्यापी वर्ग-संघर्ष को जीतने की तैयारी कर के इस तरह के संघर्ष में उतरना होगा। इसलिए ”किसानों की तरह का मोर्चा” अगर मजदूर वर्ग किसी दिन लेगा, तो यह सोचकर लेना होगा कि वे पूंजीवादी सत्ता से निर्णायक लड़ाई में जा रहे हैं। लेकिन ऐसी कोई निर्णायक लड़ाई एकमात्र मजदूर वर्ग के चाह लेने से ही नहीं, अपितु बीच के अन्य वर्गों में व्याप्त बेचैनी तथा व्यवस्था के विरुद्ध पैदा ले रही आम सरगर्मी के साथ-साथ अन्य कई दूसरी परिस्थितियों के इसके प्रति अनुकूल हो जाने पर निर्भर करता है। इसलिए किसान आंदोलन के आगे बढ़ने के साथ-साथ मजदूर वर्ग की ताकतों को भी अपनी निर्णायक भूमिका की तैयारियों में लगना चाहिए यह बात तो ठीक है, लेकिन मजदूर वर्ग से आनन-फानन में किसानों की तरह संघर्ष में उतरने की मांग करना और एकमात्र इस आधार पर उसकी ऐतिहासिक भूमिका को कमतर समझना एक भारी भूल होगी।
लेकिन सवाल है, मजदूर वर्ग की ताकतों को अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने के लिए आवश्यक तैयारी करने से कौन रोक रहा है? इसका उत्तर कड़वा है, क्योंकि इसमें सबसे बड़ी बाधा स्वयं उनकी अपनी है; कई कारणों से चले लंबे शांतिकाल के दौरान उत्पन्न आलस्य के अतिरिक्त एक बहुत बड़ी बाधा हमारे आंदोलन में मौजूद है। वह है वैचारिक व राजनीतिक दिवालियापन, जिसकी वजह से हम व्यवस्था के विरुद्ध उठ रहे मध्यवर्ती वर्गों के आंदोलन का या तो निपट बेवकूफाना तरीके से विरोध करने बैठ जाते हैं या फिर ऐसे तरीके से समर्थन करने लगते हैं जिसको हम पीछे-पीछे घिसटना कह सकते हैं। देश में चले ऐतिहासिक किसान आंदोलन में यह खुलकर देखने को मिला है। किसान आंदोलन के पीछे-पीछे घिसटने को ही समर्थन मान लिया गया, जिसका सबसे खराब पहलू मजदूर वर्ग को और स्वयं अपने को किसान आंदोलन के खूंटे से बांध देना है। इसके परिणामस्वरूप हम मजदूर वर्ग की ही नहीं, मेहनतकश किसान वर्ग की मुक्ति के ऐतिहासिक हितों के साथ भी अनाचार करते हैं, क्योंकि किसानों की मुक्ति अंतिम तौर पर इस बात में निहित है कि मजदूर वर्ग उसका नेतृत्व करे। सिद्धांत में इसे मानना और व्यवहार में इसे लागू करना अलग-अलग चीजें हैं। बड़ी इजारेदार पूंजी के खिलाफ लड़ाई में मजदूर वर्ग की ताकतों का किसान आंदोलन के पीछे-पीछे घिसटना सभी किस्म के मुक्तिकामी वर्गों व तबकों के मुक्ति अभियान को नुकसान पहुंचाने वाली रणनीतिक गलती है।
किसान आंदोलन की पिछले दिनों हुई जीत ने मजदूर वर्ग को ही नहीं अन्य उत्पीड़ित वर्गों को भी ऊर्जावान बनाया है। लेकिन इस ऊर्जा का क्रांतिकारी उपयोग करने की जिम्मेवारी मजदूर वर्ग पर है जिसकी अहम कड़ी स्वयं मजदूर वर्ग की अगुआ ताकतों को महान कष्ट झेलकर अपनी सांगठनिक कमजोरियों पर विजय पाते हुए अपने को एक महान भूमिका के लिए तैयार करना है। अगर हम किसान आंदोलन के समकक्ष एक क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन तथा देशव्यापी वर्ग-संघर्ष की मौजूदगी की कल्पना करें, तो हमें अपनी उस महान भूमिका का अहसास होगा, जिसे किसान आंदोलन ने अपनी ताकत के बल पर भावी क्रांतिकारी संकट काल की एक झलक दिखाकर हमारे सामने हमारे द्वारा ही विचार करने हेतु पेश कर दिया है।
अगले दौर में यह समझना भी जरूरी है कि अगर किसान आंदोलन ने कॉर्पोरेट और इसकी दलाल सरकार को ‘हॉल्ट’ की अवस्था में ला खड़ा किया था, तो यह संभव है कि किसान और मजदूर वर्ग एक साथ मिलकर कॉर्पोरेट को सत्ता से हटा सकते हैं और इसके हितों को आगे बढ़ाने वाली पूंजीवादी व्यवस्था को पलट भी सकते हैं। शासक वर्ग गंभीर और असमाधेय आर्थिक संकट में फंसा हुआ है जो अतिविकसित पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था का अवश्यंभावी परिणाम है। इसलिए शासक वर्ग किसानों के साथ कोई असाधारण ‘डील’ करके उनकी बर्बादी को रोक पाने की स्थिति में नहीं है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है, या तो किसान पीछे हटें और अपनी ही बर्बादी के मूक दर्शक बनना पसंद करें, या नहीं तो आगे बढ़कर जो चीज उनकी मार्ग में बाधा है उसे पलट दें। शासक वर्ग किसानों के साथ अगर कोई कारगर ‘डील’ करना भी चाहेगा तो नहीं कर पाएगा, क्योंकि उससे संकट में फंसी पूंजीवादी व्यवस्था और बड़ी मुसीबत तथा दलदल में धंस जाएगी। यही कारण है कि आज शासक वर्ग जनाक्रोश मैनेजमेंट जैसी चीज करने की स्थिति में नहीं है। वर्तमान संकटग्रस्त परिस्थिति में मोदी ही नहीं कोई भी होगा तो उसका जनाक्रोश मैनेजमेंट इसी तरह का झूठ-फरेब होगा जैसा कि फासिस्ट मोदी के शासन में हो रहा है। अगर उप्र में योगी की सरकार की जगह सपा के अखिलेश यादव की सरकार आएगी, जिसकी लोग उम्मीद किये बैठे हैं, तो हम देखेंगे कि उनके वायदों का भी कमोबेश वैसा ही हस्र निकलेगा जैसा कि मोदी-योगी के वायदों का निकला है। इसीलिए हम लगातार यह कहते आ रहे हैं कि शासक वर्ग का नुमाइंदा कोई भी हो, इससे आज बहुत फर्क नहीं पड़ने वाला है। वह बस झूठ-फरेब ही कर सकता है। कॉर्पोरेट के हितों को आज कुछ दिनों के लिये भी स्थगित या मुल्तवी करना कठिन दिखता है। अगर मजबूरी में शासक वर्ग ऐसा करता भी है, तो उसे अमल में नहीं ला पाएगा जिसका अर्थ है वह ऐसा बार-बार नहीं कर सकता है। यही कारण है कि शासक वर्ग फासिज्म की तरफ झुक गया है, ताकि सांप्रदायिक घृणा तथा राष्ट्रवादी उन्माद पैदा करके पूंजीवादी व्यवस्था की इस दुखद नियति और मजबूर स्थिति को जनता से छुपा सके और उसके अंदर उभर रहे आक्रोश को किसी दूसरे समुदाय के खिलाफ मोड़ सके। लेकिन इसकी भी सीमा है जैसा कि इस बार उप्र के चुनाव में दिख रहा है। लोग इस तरह के आक्रोश मैनेजेमेंट को समझ चुके हैं। इसलिए अगर किसान एक जीत को पक्का करने लिए आगे और जीतों के लिए संघर्ष पर उतारू हो जाएं, जैसा कि किसान अपने अगले दौर के आंदोलन में करने की तैयारी कर रहे हैं, तो शासक वर्ग (बड़े पूंजीपति) के लिए भाग खड़ा होने के सिवा और कोई दूसरा रास्ता नहीं बचेगा। इसके बाद अगर मजदूर वर्ग भी इसे आगे ले जाने के लिए तैयार हो, तो पूंजीवाद को इतिहास के कूड़ेदान में डालने की कार्रवाई सफल हो सकती है। इसलिए एक ठहरी हुई जीत नहीं, बल्कि जीतों के एक सिलसिले की जरूरत है।
एक उदाहरण से समझें। एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग अगर किसान जीत लेते हैं तो भी इसे वास्तव में लागू कराने के लिए एक बार फिर से सरकारी खरीद गारंटी या निजी खरीदारों द्वारा खरीद की गारंटी की लड़ाई भी लड़नी होगी, क्योंकि खरीद नहीं होने से यह जीत बेमानी हो जाएगी। किसानों की फसलों की बिक्री अपने आप एमएसपी की कानूनी गारंटी हो जाने मात्र से तो नहीं हो जाएगी। इसकी संभावना कम है कि निजी व्यापारी इसके लिए तैयार होंगे, खासकर के तब जब बाजार में दाम कम होगा। जाहिर है, तब किसानों को सरकार से सारी फसलों की खरीद गारंटी की मांग करनी होगी।
2018 में, महाराष्ट्र में इससे मिलता-जुलता कानून बना था। लेकिन इस बने-बनाये कानून को सरकार ने हटा लिया, क्योंकि निजी व्यापारियों ने एमएसपी पर, जो बाजार से ऊंचा भाव होता है, खरीद से इनकार कर दिया। जाहिर है, किसानों ने इसे लागू कराने के लिये आगे लड़ाई नहीं लड़ी, या कहें कि उस समय इसके लिए इतना दबाव नहीं बना और आगे कैसे लड़ा जाये इसकी कोई स्पष्ट समझ भी किसानों को नहीं थी।
यहां गौर करने वाली चीज यह है कि एमएसपी की लड़ाई की यह जीत आगे और तार्किक परिणाम वाली जीतों के एक लंबे सिलसिले और फिर उसके तार्किक अंतिम परिणाम तक पहुंचे बिना हमें अतार्किकता में ले जाती है। इसका समाधान यहां स्पष्टत: सरकारी खरीद की गारंटी में दिखता है, लेकिन ऐसा कोई पूंजीवादी राज्य कर ही नहीं सकता है। इसकी संभावना एकमात्र सर्वहारा राज्य में दिखाई देती है। वित्तीय पूंजीवाद के ढांचे में यह मांग स्वाभाविक रूप से अतार्किक है और उल्टे परिणाम पैदा करेगी। सरकार सभी अनाजों को खरीद कर आखिर करेगी क्या? सभी गरीबों को मुफ्त अनाज देगी? लेकिन पूंजीवादी राज्य अगर यह करने लगेगा तो वह पूंजीवादी राज्य नहीं रह जाएगा, वह भी वित्तीय एकाधिकार के युग का पूंजीवाद। यानी, यह मांग किसी न किसी रूप में पूंजीवादी राज्य को हटाने और सर्वहारा राज्य की तरफ जाने की पूर्वापेक्षा करता है। तब किसानों को अपनी लड़ाई को वर्ग-संघर्ष की सान पर तेज करना होगा। इसे पूंजीवाद विरोधी आम मजदूर वर्गीय आंदोलन का हिस्सा बनना होगा। हम देख सकते हैं कि इस रूप में यह मांग और लड़ाई अंतत: पूंजीवादी राज्य के खात्मे की मांग में अपना वास्तविक ठौर पाती है। इसके बारे में हम शुरू से ही विस्तार में लिखते व कहते आ रहे हैं। सवाल है, क्या संघर्षरत किसान इसके लिए राजी हैं? आज की बात करें, तो इसका जवाब ‘नहीं’ में है, लेकिन अगर कल की बात करें तो इसका जवाब ‘हां’ में है, क्योंकि किसानों की लड़ाई अगर जारी रहती है या किसान अपनी लड़ाई जारी रखने के लिए मजबूर हैं, तो इसके सिवा किसानों के पास और कोई चारा नहीं है। अगले दौर के किसान आंदोलन में इन सारी चीजों पर सफाई की जरूरत होगी। तभी हम किसान आंदोलन के अगले दौर में वह तेवर और ऊर्जा देख पाएंगे, जो इसका समर्थन करने वाली शोषित व उत्पीड़त जनता इसमें देखना चाहती है। हमें पक्का भरोसा है कि ऐसा ही होगा, क्योंकि कुछ और हो इसकी गुंजाइश वित्तीय एकाधिकार के दौर के पूंजीवाद और इसके अनवरत तथा कभी नहीं हल होने वाले संकट ने ही खत्म कर दिया है। आसन्न तबाही और बर्बादी का जो दौर शुरू होने वाला है वह इस संबंध में उठने वाले हर तरह की हिचकिचाहट को, यानी ‘अगर’ और ‘मगर’ को हमेशा के लिए मिटा देने वाला है। आइए, हम किसानों और उनके आगामी दौर के आंदोलन का खुली बाहों से स्वागत करें।
(फरवरी 2022 अंक से)