‘सबसे बड़ा बैंक घोटाला’ –  पूंजीवादी लूट का एक और उदाहरण

March 20, 2022 0 By Yatharth

एबीजी शिपयार्ड घोटाला

एम असीम

22,842 करोड़ रु अर्थात अब तक का सबसे बड़ा ‘बैंक घोटाला’ बताया जा रहा है एबीजी शिपयार्ड व एबीजी इंटरनेशनल नामक कंपनियों द्वारा, जिसके खिलाफ सीबीआई ने रिपोर्ट दर्ज की है। रिपोर्ट में इसके निदेशक ऋषि अग्रवाल (ये एस्सार समूह के रूईया बंधुओं के रिश्तेदार हैं, जिनकी वजह से बैंकों के बहुत कर्ज पहले ही डूबे हुए हैं) व संतानम मुथुस्वामी को नामजद आरोपी बनाया गया है। दर्ज प्राथमिकी के अनुसार यह ‘धोखाधड़ी’ अप्रैल 2012 में शुरू होकर जुलाई 2017 तक चली। नवभारत टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार कंपनी ने “एसबीआई से 2,925 करोड़ रु का कर्ज लिया, लेकिन चुकाया नहीं। उन्होंने कई और बैंकों से भी कर्ज लिया और कभी भुगतान नहीं किया। उन्होंने शुरू में एसबीआई से कर्ज लिया और उनका विश्वास जीत लिया।” पीएनबी – 1,244 करोड़, इंडियन ओवरसीज बैंक – 1,228 करोड़, बैंक ऑफ बड़ौदा – 1,614 करोड़, आईडीबीआई बैंक – 3,634 करोड़, आईसीआईसीआई बैंक – 7,089 करोड़ जैसे 28 सार्वजनिक-निजी क्षेत्र के बैंकों से 22,842 करोड़ रु का कर्ज लेकर चुकाने के बजाय उसे दूसरे नामों-खातों पर ट्रांसफर कर लिया गया। कर्ज दबा लेने वाला यह समूह गुजरात का है जहां यह दहेज व सूरत में जहाज निर्माण व मरम्मत के लिए शिपयार्ड चलाता है।

सोचने की बात है कि जिस कंपनी ने कभी कर्ज नहीं चुकाया, उसने बैंक का विश्वास कैसे जीता, उसे 2012 से 2017 अर्थात मनमोहन सिंह नीत यूपीए से मोदी सरकार तक एक के बाद एक बैंकों से कर्ज मिलते कैसे रहे, और उसके खिलाफ बैंकों द्वारा नवंबर 2019 में शिकायत के बावजूद रिपोर्ट अब 2022 में जाकर क्यों दर्ज हुई? जितनी जानकारी अभी सामने आई है, उसके अनुसार 2014 में पहले इसके 11 हजार करोड़ रु के कर्ज पुनर्गठित किये गए, फिर 2017 में इसे दिवालिया मानकर बैंकरप्‍सी कोर्ट में भेजा गया, मगर इसके लिए लगी अकेली बोली में कोई नगद भुगतान न होने से वह नामंजूर कर दी गई। अर्थात, बैंकिंग प्रणाली के ऐसे ‘घोटालों’ के इतिहास की तरह ही पहला कर्ज न चुकाने के बावजूद बैंक इसे हर साल नए कर्ज देकर पुराने को चुकता या ब्याज वसूली दिखाकर ‘भरोसेमंद’ कर्जदार बताते रहे जिसे एवरग्रीनिंग कहा जाता है। इस बीच बैंकों द्वारा दिए गए कर्ज की कुछ रकम को शेयर पूंजी में बदलकर बैंकों को शेयर भी दिए गए जिनकी कीमत भी अब जीरो हो चुकी है। फिर बैंकों ने इसे यह वक्त भी दिया कि वह सारी रकम को ठिकाने लगा ले। उसके बाद ही धोखाधड़ी की रिपोर्ट लिखाई गई जिस पर कार्रवाई करने में सीबीआई ने और दो साल से अधिक का वक्त लिया। क्या बिना राजनीतिक सत्ता में बैठे लोगों के संरक्षण के ऐसा मुमकिन है?

इन्हीं सवालों के जवाब में इस या ऐसे ही तमाम ‘घोटालों’ का राज छिपा है जो हर बार पहले से अधिक बड़े होते हैं। क्योंकि असल में इन्हें ‘घोटाले’ या धोखाधड़ी कहना भी गलत है क्योंकि इनमें धोखा जैसा कुछ होता नहीं है। ये तो पूंजीवादी व्यवस्था की सामान्य लूट प्रणाली है जिसके जरिए बैंकों व औद्योगिक पूंजीपतियों की मिलीभगत के जरिए करोड़ों व्यक्तियों से जमा राशि के रूप में एकत्र रकम को कुछ पूंजीपतियों के निजी मालिकाने में ट्रांसफर कर दिया जाता है। बाद में इसे घोटाला या धोखाधड़ी कहकर वास्तविकता को छिपाया जाता है। मौजूदा घटना का यह विस्तृत विवरण आना अभी बाकी है कि इस वक्त रिपोर्ट दर्ज कर जांच किये जाने की वजह क्या है। मगर चार साल पहले के ‘सबसे बड़े घोटाले’ के वक्त के अपने एक लेख के कुछ चुने हुए अंश पेश हैं जो इन घोटालों के पीछे की वास्तविक सच्चाई बताते हैं।        

“उदारीकरण के पिछले 25 वर्षों के इतिहास को ही देखा जाये तो बैंक बीसियों लाख करोड़ रुपये कॉर्पोरेट सेक्टर को दिए कर्जों और फ्रॉड में डुबा चुके हैं, कई बैंकों का तो दिवाला ही निकल गया| कितने पूंजीपति इन कर्जों के बल पर ही खरबों की संपत्ति के मालिक बन गए हैं। पर कर्ज न चुकाने के कारण इनमें से किसी सरमायेदार, सेठ-महाजन का आज तक कुछ न बिगड़ा, बल्कि उनके पास और दौलत इकट्ठी होती गई। कुछ दिन पहले पंजाब नेशनल बैंक में नीरव मोदी-मेहुल चोकसी समूह द्वारा किया गया फ्रॉड सामने आने के बाद से इस किस्म की लूट के सामने आने का एक नया दौर ही शुरू हुआ है। इस फ्रॉड की कुल रकम बढ़ते-बढ़ते अब 13,900 करोड़ रुपये तक पहुंच गई है, साथ ही इनकी कंपनियों द्वारा लिए गए अन्य कर्जों को जोड़ा जाए तो कुल रकम 21 हजार करोड़ रुपये से भी अधिक होने का अनुमान है। इसके अतिरिक्त रोटोमैक के विक्रम कोठारी द्वारा 4,290 करोड़, द्वारकादास सेठ नामक फर्म द्वारा 390 करोड़ रु, आदि कई फ्रॉड के मामले सामने आये हैं। पर इससे पहले के सालों में भी स्थिति यही रही है। कांग्रेसी शासन के आखिरी दो वित्तीय वर्षों में 6 हजार करोड़ रुपये सालाना कर्ज फ्रॉड के मामले सामने आये थे। मोदी सरकार आने के पहले वित्तीय वर्ष में 15 हजार करोड़, दूसरे साल 16 हजार करोड़ और तीसरे साल 18 हजार करोड़ रुपये के ऐसे ही फ्रॉड सामने आये हैं। यह चौथा साल अभी पूरा हुआ ही है, पूरे आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं है मगर पिछले दिनों खबरों में रहे मामले ही 30-35 हजार करोड़ रुपये के ऊपर जा पहुंचे हैं। …

मामला सिर्फ इतना ही नहीं हैं। एक और किस्‍म  का भी फ्रॉड है जिसे करने वाले को विलफुल डिफाल्टर अर्थात इरादतन गबनकर्त्ता कहा जाता है। रिजर्व बैंक ने कर्ज न चुकाने वालों में भी यह एक खास श्रेणी बनाई है जिसमें बैंक मजबूरीवश तभी किसी को डालते हैं जब कर्ज लेने वाला खुद ही सुसाइडल कदम उठा कर उनके सामने और कोई विकल्प न छोड़े। इसका मतलब, यह प्रमाणित और जगजाहिर हो चुका है कि उसने लिए हुए कर्ज का गबन कर लिया, चुकाने की हैसियत है, फिर भी इरादतन नहीं चुकाता। पिछले साल 30 सितम्बर को ही ऐसे इरादतन गबन की रकम भी बढ़कर 1 लाख 11 हजार 739 करोड़ पहुंच चुकी थी। इनमें 11 तो 1 हजार करोड़ से ऊपर का कर्ज हजम करने वाले हैं; उनमें से भी सबसे बड़ा विनसम डायमंड का मालिक जतिन मेहता है जो भागकर सेंट किट्स का नागरिक बन गया है। …

लेकिन क्या वास्तव में इन मामलों को फ्रॉड कह देना सही है? फ्रॉड कहने से ऐसा आभास होता है जैसे कि यह बैंकिंग प्रबंधन की कमजोरियों का फायदा उठाकर कुछ जालसाजों-गबनकर्ताओं द्वारा किये गये अपराध हैं जिसके खिलाफ सरकार, बैंकिंग और पुलिस-न्याय व्यवस्था जांच और सजा के लिए कदम उठा रही है। वित्त और अन्य मंत्री, प्रशासक भी यही बयान दे रहे हैं कि रिजर्व बैंक तथा अन्य संस्थाओं के नियामकों, प्रबंधकों, ऑडिटरों की लापरवाही या मिलीभगत से ये अपराध हुए हैं और अब इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जा रही है। परंतु सारी प्रणाली और घटनाक्रम पर ध्यान दें तो वास्तव में ऐसा नहीं है। पहली बात तो यह कि यह सब बैंकों, सीबीआई, रिजर्व बैंक, सरकार को आज से नहीं बल्कि बहुत पहले से मालूम था। जैसे पीएनबी ने खुद स्टॉक एक्सचेंज को सूचना दी है कि गीतांजलि का फ्रॉड 2 मार्च 2017 को ही मालूम हो चुका था। कोठारी के बारे में भी कर्ज पंचाट (डेट ट्रिब्यूनल) ने 1 जुलाई 2017 को ही फ्रॉड की घोषणा कर दी थी। द्वारकादास सेठ के मामले में भी 2015 से ही खबर थी, पर सीबीआई ने रिपोर्ट ही नहीं लिखी।

अन्य सभी मामलों में भी ऐसी ही सूचनाएं हैं कि यह सब वर्षों से बैंक, रिजर्व बैंक, सीबीआई, सरकार तक सबकी जानकारी और सहमति से जारी था लेकिन अब जबकि मोदी, चौकसी, माल्या, मेहता, द्वारकादास, आदि विदेश भाग गए या रकम विदेश या देश में ही ठिकाने लगाई जा चुकी, सुबूत नष्ट किये जा चुके, तो अब इन्हें फ्रॉड घोषित कर कार्रवाई की नौटंकी जारी है। दूसरी बात यह कि ये तो वह मामले हैं जहां खुद कर्ज लेने वालों ने भागकर सब वैकल्पिक रास्ते बंद कर लिए अन्यथा भूषण, एस्सार, विडिओकोन, यूनिटेक, आदि तमाम पूंजीपति इनसे भी बड़ी रकमें दबाकर आराम से भारत में ही मौजूद हैं, उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की जाती है, उन्हें कोई फ्रॉड भी घोषित नहीं करता, बल्कि वे पहली कंपनियों को ‘बीमार’ बनाकर, नए कारोबार शुरू कर खुद अपनी सेहत और दौलत को और ऊंचाइयों पर पहुंचा रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि फ्रॉड की खबर जाहिर होने पर खुद पीएनबी ने 30 बैंकों को एक पत्र भेजकर कहा कि यह फ्रॉड अकेले उनके ही बैंक में नहीं हुआ, शेष बैंक भी इसमें शामिल थे और यह सब 7 साल से चल रहा था! इसका अर्थ है कि नीरव मोदी-मेहुल चोकसी की कंपनियों द्वारा बैंक कर्ज लेने के लिए अपनाया गया तरीका कोई अजूबा नहीं था न ही चोरी छिपे चल रहा था, बल्कि यह एक सामान्य कारोबारी तरीका था जिसका चलन पूरे बैंकिंग उद्योग में है।

एक और बात प्रचारित करने का प्रयास जोरों पर है कि पीएनबी, ओबीसी जैसे बैंकों में अधिक फ्रॉड की वजह इनका सरकारी बैंक होना है क्योंकि सरकारी बैंकों में प्रक्रियाएं कमजोर हैं, भ्रष्टाचार और राजनीतिक दखलंदाजी अधिक है। इसके आधार पर कई विश्लेषक इनके निजीकरण के लिए इन घटनाओं को सशक्त तर्क के रूप में प्रयोग कर रहे हैं। किंतु तथ्य इस तर्क की पुष्टि नहीं करते। पहले फ्रॉड की ही बात लें तो संसद में वित्त मंत्रालय ने स्वयं बताया कि 2014 से 2017 के तीन सालों में बैंकों में कुल 12778 फ्रॉड हुए जिनमें से एक तिहाई अर्थात 4156 निजी बैंकों में हुए, शेष सरकारी बैंकों में। मतलब बैंक सरकारी हैं या निजी क्षेत्र में, इससे फ्रॉड में कोई कमी-बेशी नहीं होती। फिर चोकसी के गीतांजलि समूह को कर्ज देने वाले बैंकों के समूह का नेतृत्वकारी बैंक निजी क्षेत्र का आईसीआईसीआई बैंक ही है। फिर भी गीतांजलि समूह को मात्र 100 करोड़ रुपये की जमानत पर लगभग 6000 करोड़ रुपये का कर्ज मिला था। उसके पास पिछले साल मार्च से ही ऑडिटरों द्वारा इसके पूरे कारोबार के संदेहास्पद होने की जानकारी भी थी लेकिन उससे भी कोई फर्क नहीं पड़ा। थोड़ा अतीत में जाएं तो हर्षद मेहता से लेकर केतन पारीख के शेयर बाजार फ्रॉड एवं अन्य मामलों में देशी-विदेशी बैंकों की लिप्तता की जानकारी भी जगजाहिर है जिनके विरुद्ध भारतीय सरकार और वित्तीय नियामकों ने कभी कोई कार्रवाई नहीं की है। पिछले दिनों ही सामने आये आईसीआईसीआई बैंक और विडिओकोन के मालिक धूत परिवार के बीच मिलीभगत और बैंक से मिले कर्ज के बदले कंपनी द्वारा बैंक की मुख्य कार्याधिकारी के परिवार को पहुंचाए गए भारी फायदे के आरोप उपरोक्त विचार की पुष्टि करते हैं, हालांकि बैंक और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा तुरंत इस मामले की सफाई देने, इसमें कुछ भी गलत न होने और निजी बैंकों में प्रबंधन के उच्च नैतिक सिद्धांतों-नियमों के प्रचार-बखान में जुट गया है। इसी तरह एयरटेल बैंक द्वारा 40 लाख से अधिक फोन ग्राहकों के फर्जी खाते खोलकर उनका सैंकड़ों करोड़ रुपया उनकी जानकारी-सहमति के बगैर हासिल कर लेने के वक्त हुआ था और एयरटेल पर लगाए गए दिखावटी प्रतिबंध भी जल्दी ही चुपके से हटा लिए गए थे। …

इस बड़ी मात्रा में डूबे कर्जों और फ्रॉड की परिघटना को न तो निजी-सरकारी बैंकों के अंतर के आधार पर समझा जा सकता है, न ही कांग्रेस-बीजेपी की नीतियों में भेद के आधार पर, और न ही इन्हें कुछ अपराधियों द्वारा किये गए फ्रॉड कहकर। इसे समझने के लिए हमें वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था में बैंक, बीमा, आदि वित्तीय क्षेत्र और उद्योग-व्यापार क्षेत्र के पूंजीपतियों के परस्पर संबंधों को समझना चाहिए। पूंजीवादी व्यवस्था में प्रत्येक पूंजीपति को प्रतिद्वंद्विता में टिके रहने, अधिक से अधिक बाजार हासिल करने और अपना अधिकतम मुनाफा सुनिश्चित करने के लिए निरंतर अधिक से अधिक चल-अचल पूंजी के निवेश की आवश्यकता होती है। आज एक ओर तो उत्पादन के प्रत्येक क्षेत्र में पहले ही पूंजी की जकड़बंदी होने से बाजार के विस्तार की संभावनाएं बहुत सीमित हो चुकी हैं, दूसरी ओर हर उद्योग में कुछ पूंजीपतियों का एकाधिकार कायम हो चुका है। इसलिए दूसरे को पछाड़कर आगे बढ़ने की यह होड़ अत्यंत गलाकाट हो चुकी है। इसलिए सभी पूंजीपतियों के लिए वित्तीय पूंजीपतियों से अधिकाधिक पूंजी प्राप्त कर अपने कारोबार को निरंतर विस्तारित करने का दबाव हमेशा बना रहता है। फिर स्वयं बैंक, बीमा, आदि वित्तीय पूंजीपतियों में भी एकाधिकार की होड़ है और उन्हें भी आवश्यकता रहती है कि वे अपना बाजार हिस्सा बढ़ाने हेतु ज्यादा से ज्यादा कारोबारियों का वित्तीय पोषण कर उनके द्वारा हस्तगत अधिशेष में अपनी हिस्सेदारी और मुनाफा सुनिश्चित करें। दोनों का यह परस्पर हित सुनिश्चित करता है कि बैंक उद्योग-व्यापार की अधिक से अधिक कंपनियों को लगातार कर्ज और निवेश के विभिन्न रूपों में अधिकाधिक वित्तपोषण करते रहें।

इस प्रक्रिया को नीरव मोदी के कारोबार के उदाहरण के जरिये भी समझा जा सकता है। मोदी की तीनों कंपनियों में उसकी अपनी कुल जमा पूंजी मात्र 400 करोड़ रु थी। बैंकों ने उसे 3992 करोड़ का कर्ज दिया हुआ था, ऊपर से अब तक 13 हजार करोड़ से अधिक के एलओयू सामने आये हैं। रायटर्स के मुताबिक कुल 20 हजार करोड़ उसे ‘सरकारी’ बैंकों ने दिया था, जिसके बल पर उसका सारा व्यापार, दौलत खड़ी हुई थी। उसकी कंपनियां इस वित्तीय पूंजी के सहारे ही तेजी से विस्तार कर रही थीं और वह दुनिया भर के देशों में अपने नए-नए स्टोर खोल रहा था। वास्तविकता यह है कि उसने कभी कोई कर्ज वापस नहीं किया। बल्कि वह हर बार पहले से बड़ा कर्ज लेता था, जिससे पिछले कर्ज को जमा दिखाया जाता था। इसके बल पर ही वह बड़ा पूंजीपति बना था; इस पूंजी से ही उसका मुनाफा आता था और बैंकों को रुपये तथा विदेशी मुद्रा के कर्ज पर ब्याज तथा एलओयू आदि पर कमीशन मिलता था। यह चक्र जब तक चला तब तक सब सामान्य था, जब टूटा तो इसे फ्रॉड का नाम दिया जा रहा है। यही हाल अन्य पूंजीपतियों का भी है। नीरव मोदी और पीएनबी के मामले में दोनों पक्षों द्वारा एक दूसरे को लिखे गए और अखबारों में प्रकाशित विभिन्न पत्र यही बता रहे हैं। एक ओर पीएनबी बता रहा है कि नीरव मोदी को दिया गया कर्ज कोई फ्रॉड नहीं बल्कि बैंक-पूंजीपतियों के बीच सामान्य कारोबारी रिश्ता था, वहीं नीरव मोदी को शिकायत है कि उसके कारोबार में कोई दिक्कत नहीं थी अगर पीएनबी उसको जनवरी में फिर से नया कर्ज दे देता तो सब कुछ सामान्य तौर पर ही चलता रहता!

यहां बैंकों की कार्यविधि की कुछ जानकारी जरुरी है। बैंक मुख्यतया दो किस्म के कारोबारी कर्ज देते हैं। एक, नया कारखाना लगाने, विस्तार करने, उन्नत तकनीक और मशीनें लगाने, आदि बड़े निर्माण में स्थाई निवेश के लिए दिए गए कर्ज निश्चित अवधि के होते हैं जिन्हें मासिक, त्रैमासिक, छमाही, सालाना, आदि अंतराल पर मूल व ब्याज की किश्तों में चुकाना होता है। दूसरे, उत्पादन के लिए सामग्री, श्रम शक्ति खरीदने, उत्पादित माल के भंडारण और उत्पादक और उपभोक्ता के बीच मध्यस्थ व्यापारियों से माल का भुगतान आने तक उधार देने के लिए बैंक नकद उधार, ओवरड्राफ्ट, गारंटी, लेटर ऑफ क्रेडिट, लेटर  अंडरटेकिंग, पैकिंग क्रेडिट, बिल डिस्कॉउंटिंग, आदि कई रूपों में कारोबारी कर्ज देते हैं, जो कहने के लिए तो 3, 6, 9 महीने या एक-डेढ़ साल में चुकाने होते हैं पर कभी चुकाए नहीं जाते, बस ब्याज चुका दिया जाता है, वह भी अक्सर अगला कर्ज और बड़ी रकम को लेकर। इसी पूंजी के बल पर सभी पूंजीपति अपने उत्पादन और कारोबार का विस्तार करते रहते हैं, दूसरे पूंजीपतियों से प्रतिद्वंद्विता करते हैं। पर पूंजीवादी व्यवस्था के अनिवार्य नियम से सभी पूंजीपतियों द्वारा किया जाने वाला यह निरंतर विस्तार हर कुछ वर्ष में ‘अति-उत्पादन’ का संकट पैदा करता है क्योंकि अधिकांश जनता की क्रय क्षमता सीमित होने से उत्पादन बाजार मांग से अधिक हो जाता है। तब उद्योगों में नया निवेश बंद हो जाता है, पूंजीगत मालों की मांग खास तौर पर नीचे आ जाती है। इस स्थिति में इन विस्तार करते पूंजीपतियों में से कुछ के लिए यह चक्र टूट जाता है, वे दिवालिया हो जाते हैं, उद्योगों की कब्रगाह में उन्हें दफना दिया जाता है और उनके लिए हुए कर्ज एनपीए, विलफुल डिफाल्टर, फ्रॉड, आदि के रूप में सामने आते हैं। कभी-कभी विभिन्न कारणों से किसी बैंक द्वारा किसी पूंजीपति को नया कर्ज नहीं मिले तब भी उसका कारोबार तबाह हो जाता है, कर्ज डूब जाता है। इसलिए बैंकिंग उद्योग का संकट असल में पूंजीवादी व्यवस्था के अन्तर्निहित संकट को ही प्रतिबिंबित करता है। …

पर इस स्थिति से जब बैंकों के लिए संकट पैदा होता है तो वे सरकारी हों या निजी दोनों दौड़कर सरकारी मदद के लिए ही जाते हैं जो अधिक पूंजी, किस्म-किस्म की रियायतों, रिजर्व बैंक द्वारा सस्ते कर्ज, आदि विभिन्न रूपों में दी जाती है। लेकिन हम जानते हैं कि पूंजीवादी अर्थशास्त्र में ‘मुफ्त भोजन’ नाम की कोई चीज नहीं होती। असल में होता यह है कि भोजन कोई करता है और कीमत कोई दूसरा चुकाता है। इस मामले में भी यही हो रहा है। वित्तीय पूंजीपतियों को मिली इन सब रियायतों-राहतों की कीमत, इसका सारा बोझ अधिक टैक्स, बढ़ी कीमतों और सार्वजनिक सेवाओं में कटौती के जरिये मेहनतकश और निम्न मध्यवर्गीय जनता पर डाला जा रहा है। भारत में उदारीकरण के दौर में ही लगभग 6 लाख करोड़ रुपये पुनर्पूंजीकरण के रूप में सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को तो दिए ही हैं, साथ ही जब कोई निजी बैंक भी घाटे में गया है तो उसको या तो सरकारी बैंक में विलय या अन्य माध्यमों के जरिये सरकार ने ही बचाया है जिसका सारा बोझ आम मेहनतकश जनता के सिर पर ही पड़ा है। बैंकों के माध्यम से होने वाली यह लूट पूंजीवाद का अभिन्न, अनिवार्य अंग है।”

(फरवरी 2022 अंक से)