‘सोफी शोल – द फाइनल डेज’

March 23, 2022 0 By Yatharth

फासीवाद-विरोधी योद्धा व छात्र नेता की 79वीं शहादत दिवस  के अवसर पर

एम असीम

जर्मन नाजियों ने लाखों की तादाद में यहूदियों का जनसंहार तो किया ही था, साथ ही 1933 से 1945 के दौरान हिटलर के फासिस्ट शासन का प्रतिरोध करते हुए 77 हजार अन्य जर्मन नागरिकों को भी कोर्ट मार्शल और नाजियों की तथाकथित विशेष या ‘जन अदालतों’ द्वारा मौत की सजा दी गई थी। इनमें से ज्यादातर को हम नहीं जानते लेकिन म्यूनिख विश्वविद्यालय के छात्रों के ‘व्हाइट रोज’ नामक नाजी विरोधी भूमिगत प्रतिरोध समूह और उसकी अप्रतिम वीर नायिका सोफी शोल और उसके सहयोद्धाओं के संघर्ष और बलिदान से दुनिया परिचित है। जीव विज्ञान और दर्शन की 21 वर्षीय छात्र सोफी और उसके भाई हांस द्वारा विश्विद्यालय में हिटलर और युद्ध के खिलाफ पर्चे बांटने, गिरफ्तारी, लम्बी तफ्तीश, मुकदमे और तीसरे साथी क्रिस्टोफ प्रोब्स्ट सहित मौत की सजा की कहानी है 2005 की जर्मन फिल्म – ‘सोफी शोल – द फाइनल डेज’ में जो न्याय के लिए उनके बहादुराना संघर्ष की भी गाथा दर्शाती है। यह फिल्म गेस्टापो और नाजी अदालत की फाइलों में इस मामले की पूछताछ और मुकदमे के रिकॉर्ड के आधार पर सोफी शोल और साथियों द्वारा फासिस्टों के विरुद्ध जर्मन जनता को जगाने के प्रयास की इस शौर्यपूर्ण ऐतिहासिक घटना का चित्रण बहुत सुन्दर ढंग से करती है।  

सोफी और उसके भाई हांस की तरह ‘व्हाइट रोज’ ग्रुप के अधिकांश नौजवान सदस्य जनवादी, उदार, मानवतावादी परिवारों से आये थे लेकिन इन्होंने भी शुरू में जोश के साथ हिटलर के नाजी युवा संगठन में काम किया था। उस समय के जर्मन समाज का वर्णन इस समूह के ही एक जीवित बचे सदस्य ने ऐसे किया था, “हर चीज पर हुकूमत का नियंत्रण था – मीडिया, शस्त्र, पुलिस, सेना, अदालत, संचार, यात्रा, हर स्तर की शिक्षा, सब सांस्कृतिक-धार्मिक संगठन। कम उम्र से ही नाजी विचार सिखाने का काम शुरू हो जाता था, और ‘हिटलर युवा’ के जरिये पूर्ण दिमागी जकड़ हासिल करने के लक्ष्य तक जारी रहता था।” लेकिन मेडिकल छात्र हांस और दो अन्य दोस्तों ने सोवियत संघ में पूर्वी मोर्चे पर फौजी अस्पताल में काम करते हुए युद्ध की असली विभीषिका को देखा था और उन्हें पोलैंड और सोवियत संघ आदि में किये गए यहूदियों तथा अन्यों के निर्मम जनसंहार की खबरें भी पता चलीं थीं। इस सबने उन्हें युद्ध और नाजीवाद के खिलाफ जर्मन जनता में प्रचार करने और प्रतिरोध संगठित करने की प्रेरणा दी।

जून 1942 में उन्होंने पर्चे छापकर और दीवारों पर लिखकर अपना काम शुरू किया। ये लोग पर्चों को हाथ से चलने वाली साइक्लोस्टाइल मशीन पर छापते थे और डाक से म्यूनिख और उसके आस-पास के क्षेत्र में छात्रों, शिक्षकों और बुद्धिजीवियों को भेजकर, पब्लिक टेलीफोन बूथ और ऐसी जगह किताबों में रखकर, आदि तरीकों से बांटते थे। इनमें वे नाजी शासन के अपराधों और अत्याचारों के बारे में बताते थे और प्रतिरोध की अपील करते थे। अपने दूसरे पर्चे में इन्होंने यहूदियों पर भयंकर अत्याचार-उत्पीड़न की निंदा की थी, “पोलैंड पर विजय से 3 लाख यहूदियों को पाशविक ढंग से कत्ल किया गया है। जर्मन लोगों की मूर्ख, बेवकूफाना नींद फासीवादियों के जुर्मों को प्रोत्साहन दे रही है। हम में से हरेक इस जुर्म के दोष से मुक्त रहना चाहता है, अपने जमीर में जरा भी चुभन महसूस किये बगैर चैन से अपना जीवन जी रहा है। लेकिन हम इस गुनाह से दोषमुक्त नहीं हो सकते; हम सब दोषी हैं, दोषी हैं, दोषी हैं!”

जनवरी 1943 में ‘व्हाइट रोज’ के पांचवे पर्चे ‘जर्मन जनता से अपील’ की 6 हजार प्रतियां छापी गईं और इन्हें समूह के सदस्यों-समर्थकों ने म्यूनिख ही नहीं पूरे दक्षिण जर्मनी के शहरों में वितरित किया। गेस्टापो द्वारा पूछताछ के दौरान सोफी ने बाद में बताया था कि 1942 की गर्मियों से ही समूह का मकसद व्यापक जर्मन जनता तक पहुंचना था, इसलिए इस पर्चे में समूह ने अपना नाम बदलकर ‘जर्मन प्रतिरोध आंदोलन’ कर लिया था। इस वक्त तक वे निश्चित थे कि जर्मनी युद्ध नहीं जीत सकता था; इसलिए उन्होंने कहा कि ‘हिटलर युद्ध जीत नहीं सकता, सिर्फ लम्बा खींच सकता है।’ उन्होंने नाजी अमानवीयता, साम्राज्यवाद और प्रशियाई सैन्यवाद पर प्रहार किया और अभिव्यक्ति की आजादी तथा अपराधी तानाशाही राजसत्ता से नागरिकों की हिफाजत के लिए जर्मन प्रतिरोध आंदोलन में शामिल होने का आह्वान किया।

जनवरी 1943 के अंत में स्‍तालिनग्राद की लड़ाई में जर्मन फौज की विनाशक हार और आत्मसमर्पण ने युद्ध की दिशा बदल दी थी और जर्मनों के कब्जे वाले सब देशों में प्रतिरोध आंदोलन खड़े होने लगे थे। 13 जनवरी 1943 को म्यूनिख के नाजी पार्टी के नेता द्वारा छात्रों को कायर कहे जाने पर छात्र उपद्रव तक कर चुके थे। इसने ‘व्हाइट रोज’ के सदस्यों का जोश बढ़ा दिया था। स्‍तालिनग्राद की हार की खबर आने पर इन्होंने अपना अंतिम, छठा पर्चा निकाला – ‘छात्र साथियों’। इसमें ऐलान किया गया कि ‘हमारी जनता के लिए सबसे घृणित आततायी शासक’ के लिए ‘फैसले की घड़ी’ आ पहुंची थी और ‘हमें स्‍तालिनग्राद  के मृतकों की सौगंध है!’ 3, 8 और 15 फरवरी को इन लोगों ने म्यूनिख विश्वविद्यालय और अन्य इमारतों पर टिन के स्टेंसिल से ‘डाउन विद हिटलर’ और ‘आजादी’ जैसे नारे भी लिखे। इस बार इनके पास डाक से भेजने के बाद पर्चे बच गए थे और लिफाफे खत्म हो गए थे और कागज की कमी से और मिल भी नहीं रहे थे। इसलिए और सदस्यों के मना करने के बावजूद सोफी और हांस शोल ने 18 फरवरी को अपनी जिम्मेदारी पर इन्हें विश्वविद्यालय में बांटने का फैसला किया। उस दिन सुबह दोनों एक सूटकेस में पर्चे लेकर गए और क्लास के दौरान कमरों के बंद दरवाजों के सामने पर्चे रख दिए। लेकिन कुछ पर्चे बच जाने पर इसे ऊपर की मंजिल पर बांटने गए। वहां अचानक कुछ आखिरी पर्चों को सोफी ने ऊपर से हॉल में फेंक दिया जिसे एक कर्मचारी ने देख लिया और इन्हें बाहर जाते हुए रोककर गेस्टापो द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। सातवें पर्चे का मजमून भी उस समय हांस के पास था जिसे उसने नष्ट करने की कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हुआ, हालांकि सोफी अपने पास के सारे सबूत नष्ट करने में कामयाब हो गई थी। गेस्टापो में इस मामले की तफ्तीश रोबर्ट मोर नाम के जांचकर्ता ने की थी और शुरू में उसने सोफी को निर्दोष मानकर रिहा करने का आदेश दिया था। लेकिन हांस द्वारा सब कबूल कर लेने और अन्य सबूत मिलने के बाद सोफी ने भी कबूल कर लिया और अपने समूह के अन्य सदस्यों को बचाने के लिए सारी जिम्मेदारी खुद लेने की कोशिश की।

22 फरवरी 1943 को सोफी और हांस शोल तथा प्रोब्स्ट पर नाजियों की राजनीतिक मुकदमों में नाइंसाफी के लिए बदनाम ‘जन अदालत’ में मुकदमा चलाया गया। गहन पूछताछ और मुकदमें में जज फ्रेसलर की धमकियों के बावजूद सोफी दृढ़ता और वीरता से डटी रही और जवाब दिया, “हमारी तरह तुम भी जानते हो कि युद्ध हारा जा चुका है। लेकिन तुम अपनी कायरता से इसे स्वीकार नहीं करना चाहते।” तीनों को भारी राष्ट्रद्रोह का दोषी घोषित कर जज रोलैंड फ्रेसलर ने मौत की सजा दी। उसी दिन तीनों को गिलोटिन द्वारा गर्दन काटकर मृत्युदंड दे दिया गया जिसका तीनों ने बहादुरी से सामना किया। गिलोटिन का आरा जब गर्दन पर गिरने ही वाला था तब सोफी ने कहा ‘सूर्य अभी भी प्रकाशमान है’ और हांस ने नारा लगाया ‘आजादी जिंदाबाद।’

‘व्हाइट रोज’ समूह के अन्य बहुत से सदस्यों को भी गिरफ्तार कर अलग-अलग मुकदमों में कई को मृत्युदंड और आजन्म कारावास आदि की सजायें दी गईं। यद्यपि इन लोगों को गद्दार और दुष्ट कहकर सजायें दी गईं थीं और जर्मन अखबारों में ऐसी ही रिपोर्टें छपीं थीं लेकिन इनके समर्थकों की संख्या इतनी हो चुकी थी कि जर्मन नाजी अधिकारी इसके बारे में खबरों-अफवाहों को दबाने में कामयाब न हो सके और ये और भी जर्मनों को प्रतिरोध के लिए प्रेरित करते रहे। इनके प्रतिरोध और सजा की खबरें जर्मनी से बाहर आने पर सोवियत लाल सेना ने ‘व्हाइट रोज’ के आजादी के संघर्ष के सम्मान में जर्मन लोगों में प्रचार के लिए एक पर्चा प्रकशित किया और इनके छठे पर्चे को ‘म्यूनिख के छात्रों का घोषणापत्र’ के नाम से प्रकाशित कर मित्र राष्ट्रों के विमानों द्वारा पूरे जर्मनी में गिराया गया। फिल्म आकाश से गिरते पर्चों के इस दृश्य के साथ समाप्त होती है।

सोफी शोल

(9 मई 1921 – 22 फरवरी 1943)

सोफी शोल का जन्म जर्मनी के फोर्चटेनबर्ग में हुआ था और बहुत कम उम्र में वे नाजी-विरोधी राजनीतिक कार्यकर्त्ता बन गई थी। वो और उनके भाई हांस शोल ‘व्‍हाइट रोज’ नाम के नाजी -विरोधी छात्र दल में सक्रिय थे। 1943 में उन्हें और उनके भाई व ‘व्‍हाइट रोज’ के अन्य सदस्यों को युद्ध-विरोधी पर्चे बांटने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया था और उन पर मुकदमे चले जिसके बाद 21 साल की उम्र में ही उन्हें गिलोटिन की सजा देकर मार दिया गया।

सोफी शोल ने कहा था – हम कैसे मानते हैं कि सच्चाई प्रबल होगी अगर किसी सच्चे कार्य के लिए कभी कोई खुद को पूरी तरह समर्पित करने को तैयार ही नहीं हो?” गिलोटिन पर उनके अंतिम शब्‍द – “कितना खूबसूरत दिन है, और मुझे जाना होगा। लेकिन इन दिनों कितने ही लोग रणभूमि में मारे जाते हैं, कितने युवा, होनहार लोग… मेरी मौत का क्या गम अगर इससे हजारों लोग उठ खड़े होते हैं और लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं।”