जंगखोर धनपशु-ओलिगार्क और युद्ध की तबाही मचातीं उनकी ताबेदार सरकारें

April 1, 2022 0 By Yatharth

रूस-यूक्रेन युद्ध

एस वी सिंह

“हमारा मकसद है कि पुतिन पर दबाव अधिकतम हो जाए। ये लोग रूसी जनता की कीमत पर अमीर बने हैं। हम इन रूसी धनपशुओं-ओलिगार्क को, जो इस खूनी युद्ध से मालामाल होते जा रहे हैं, जिम्मेदार ठहराने के लिए अपने सहयोगियों और साझेदारों के साथ मिलकर अपना काम करते जाएंगे…हम इन धन पशुओं को नहीं छोड़ेंगे जिन्होंने इस खूनी रूसी शासन के दौरान रूसी जनता से लाखों करोड़ डॉलर लूट लिए हैं।” पढ़कर लगता है, ये महान विचार किसी युद्ध विरोधी, शांति और खुशहाली प्रेमी किसी महामानव, शांतिदूत के हैं!! शर्म इन्हें मगर नहीं आती!! विडम्बना देखिए, ये बयान उस अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाईडेन का है जो अगर एक महीना कहीं जंग ना हो तो तड़प उठता है। प्रचंड विध्वंसक हथियार लेकर किसी भी दिशा में निकल पड़ता है, जिसने खुद ही खुद को दुनिया का लठैत ‘चुना’ हुआ है। उसके हमलों का शिकार होने वाले देश का कोई कसूर होना जरूरी नहीं। उसके युद्धों का बयान किया जाए तो एक ‘महाकाव्य’ बन जाएगा। द्वितीय विश्व युद्ध में फासिस्ट धुरी की हार सुनिश्चित हो जाने के बाद, जापान के लोगों पर प्रलयकारी दो-दो परमाणु बम गिराए और दो महानगरों को राख के ढेर में बदल दिया। एक दशक तक वियतनाम के गरीब, बेकसूर, मेहनतकश अवाम पर इसी अमेरिका ने विनाशकारी रासायनिक हथियारों के प्रयोग किए। लेटिन अमेरिका के सभी देशों में अपनी ताबेदार सरकारें बनवाने के लिए लाखों लोगों को जिसकी खुफिया एजेंसी ने बेरहमी से भून डाला। क्यूबा पर घेराबंदी आज तक जारी है। इसी अमेरिका के झूठ के कारखाने ने इराक में ‘नरसंहार के विनाशकारी हथियारों’ का वाह्यात बवंडर खड़ा कर खाड़ी के सबसे प्रगतिशील देश इराक को तबाह कर डाला। अल कायदा, ओसामा पैदा किए और फिर उन्हें खत्म करने के नाम पर अफगानिस्तान को बरबाद किया। लीबिया, सीरिया, ईरान, फिलिस्तीन कहां तक गिनाएं, अमेरिका दुनिया के कुल 193 देशों में से 84 पर हमले कर चुका है। संयुक्त राष्ट्र संघ की मूल भावना को बेरहमी से कुचलकर सुरक्षा परिषद को दमन के औजार में बदलते हुए जिस भी देश को निशाने पर लिया उस पर आर्थिक प्रबंध लगाकर घुटने टेकने पर मजबूर कर देना अमेरिका का दैनंदिन का काम है। ‘कम्युनिज्म से बचाना है’, यूरोप के साम्राज्यवादी लुटेरों को डराकर उन्हें अपना बगल- बच्चा बनाते हुए नाटो का गठन किसी सामाजिक कल्याण या शांती के मकसद से नहीं बल्कि दुनियाभर में अपनी मनमानी चलाने और ‘अपने’ साम्राज्यवादी लुटेरों-ओलिगार्क के मुनाफे के पहाड़ को विशाल बनाने के लिए ही किया।

 ‘यूक्रेन के नि:शस्त्रीकरण और नाजीकरण को पलटने’ के नाम पर रूस द्वारा यूक्रेन पर 24 फरवरी को बोला गया बर्बर हमला निस्संदेह एक साम्राज्यवादी युद्ध है जिसका निश्चित प्रतिरोध होना चाहिए लेकिन इस जंग की जांच-पड़ताल अगर गहराई से नहीं की गई तो हम समानांतर चल रहे सूचना युद्ध के शिकार हो जाएंगे और युद्ध-बर्बरता के सारे खूनी खिलाड़ियों को नहीं पहचान पाएंगे। रूस के मजदूरों की बे-इन्तेहा कुर्बानियों की बदौलत तामीर हुई अनोखी दुनिया, सोवियत संघ के पतन की शुरुआत स्तालिन की मौत के दो सालों में ही हो गई थी। उसके बाद समाजवाद के सतत होते गए पतन का मतलब ही था, पूंजीवादी शोषण की चक्की की पुनर्स्थापना। उसी दिशा में निरंतर पतन का अवश्यम्भावी नतीजा था, पूंजी के गढ़ों का निर्माण होते जाना। अमेरिकी साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी की गटर गंगा की तर्ज पर ही रूसी गटर गंगा का निरंतर व्यापक और गहरा होते जाना। रूसी धनपशुओं (ओलिगार्क) के पैदा होने और दैत्याकार बनते जाने की दास्तां और भी घिनौनी और गद्दारी भरी है। रूस की जो सेना आज यूक्रेन में तबाही मचा रही है उसके राजनीतिक-सामरिक प्रमुख और उसके संचालक रूस के रक्षा मंत्री का नाम सरगे शोइगू है। सरगे शोइगू के पिता का नाम कोईजूगेट शोइगू है जो सोवियत ‘कम्युनिस्ट’ पार्टी के पतन के काल 1960 के दशक में अमेरिकी लुटेरों के सबसे चहेते बोरिस येल्तसिन के साथ उसका सदस्य बना। सोवियत खुफिया एजेंसी, केजीबी के भूतपूर्व अधिकारी रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने भी उसी समय सोवियत ‘कम्युनिस्ट’ पार्टी ज्वाइन की। 1991 के बाद जब येल्तसिन ने रूसी संसद को बर्खास्त किया और उसका विरोध हुआ तब इसी शोइगू ने अपनी निजी गुंडा वाहिनी ‘रूसी रेस्क्यू कोर’ से उसका समर्थन किया और येल्तसिन का सबसे विश्वासपात्र बन गया। ‘समाजवाद खत्म हुआ’, पश्चिमी मीडिया को पड़ा मिरगी का दौरा जैसे ही शांत हुआ और रूसी लोगों ने, जिन्हें पूंजीवादी लूट का तजुर्बा नहीं था, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा मांगनी शुरू की तो बेवड़े येल्तसिन की असलियत उजागर हुई। रूसी धनपशुओं ने येल्तसिन को दूर फेंक, पुतिन नाम का नया घोड़ा तैयार कर लिया। शोइगू, पुतिन के साथ हो लिया क्योंकि उसने इस बीच अपनी गुंडा वाहिनी रूसी रेस्क्यू कोर की जगह 1999 में अपनी ‘यूनिटी पार्टी’ बना ली थी। पुतिन खुद को आजीवन राष्ट्रपति ‘चुन’ चुका है और शोइगू ‘स्वाभाविक’ रूप से उसका सबसे विश्वासपात्र मंत्री है। उसका प्रमुख काम है रूस के पास मौजूद प्रचंड युद्ध के जखीरे तथा उत्पादन तकनीक को बेचने के लिए दुनियाभर में ग्राहक तलाशना, ‘डील’ करना। भारत रूस के हथियारों का सबसे बड़ा ग्राहक है और यहां भ्रष्टाचार अपार है। हथियार खरीदी में कमीशनखोरी हमारे देश की परंपरा रही है जो लगातार फलती-फूलती जा रही है।

               सेना का बजट विशालकाय होता है, इसलिए ये कमीशन भी विशालकाय ही होता है!! भारत की एस-400 मिसाइल खरीदी की मौजूदा डील भी शोइगू ही देख रहा है। शोइगू अक्सर भारत आता रहता है।

पतित कम्युनिस्ट पार्टी से पतित कुछ नहीं होता

कम्युनिज्म के कुख्यात गद्दार निकिता ख्रुश्चेव को 1964 में हटा दिया गया लेकिन तब तक वह सोवियत संघ की लेनिन और स्तालिन जैसे नेताओं वाली महान कम्युनिस्ट पार्टी से क्रांतिकारी तत्वों का सफाया कर उसका बेड़ा गर्क कर चुका था। जिस सोवियत संघ ने दुनियाभर की खूनी साम्राज्यवादी ताकतों की आक्रामक घेराबंदी के बावजूद, समाजवादी क्रांति को शहरों से शुरू कर सुदूर देहात तक समझौतारहित तरीके से कामयाब किया, पूंजीवादी लुटेरों-कुलकों का सफाया किया, प्रचंड नाजी खूनी युद्ध मशीनरी को परास्त कर समूची दुनिया को फासीवादी भट्टी में जाने से बचाया, वो सोवियत संघ और उसकी वो महान कम्युनिस्ट पार्टी अपने भीतर के गद्दारों से हार गई। प्रतिक्रांति का विध्वंसकारी प्रोजेक्ट उसके बाद भी जारी रहा। सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी अब पूरी तरह पतित हो चुकी थी और पतित कम्युनिस्ट पार्टी से पतित कुछ नहीं होता। उसके गिरने की कोई सीमा नहीं होती। उसे तो मजदूर जितनी जल्दी ध्वस्त कर डालें उतना ही अच्छा होता है। पश्चिमी देशों में जनवाद का खोल अभी भी बचा हुआ है। वहां अभी भी कोई व्यक्ति रूस और चीन की तरह खुद को आजीवन राष्ट्रपति नहीं ‘चुन’ सकता। कभी ना चूकने वाले रूस के मजदूर यहां चूक गए। मेहनतकशों के खून से तामीर वो महल ढह गया, वो सपना बिखर गया, मजदूरों की हसीन दुनिया लुट गई। इस ऐतिहासिक पतन की वस्तुपरक, वैज्ञानिक विवेचना और उससे सबक लेने का ऐतिहासिक कार्य मौजूदा कम्युनिस्ट आन्दोलन की जिम्मेदारी है जो अभी पूरी नहीं हुई है। 

               ख्रुश्‍चेव के बाद आए ब्रेजनेव के 18 साल के लम्बे कार्यकाल में ही रूस के ये सारे मौजूदा ठग ओलिगार्क ‘कम्युनिस्ट’ पार्टी के सदस्य बने क्योंकि उसके बगैर उत्पादन व उत्पादन के साधनों, संसाधनों की नंगी और वीभत्स लूट इतनी जल्दी नहीं हो सकती थी। मिखाइल गोर्बाचेव, बोरिस येल्तसिन, रूस का ‘आजीवन’ राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन, उसका सचिव दमित्री पेश्कोव, रक्षा मंत्री सरगे शोइगू, विदेश मंत्री सरगेई लावरोव, शासन प्रमुख दमित्री मेदवेदेव, उप प्रमुख विक्टर जुबकोव और उनका सारा मौजूदा फासिस्ट ठग गिरोह इसी सड़ी हुई ‘कम्युनिस्ट’ पार्टी की पैदाईश हैं। दुनियाभर के सबसे बड़े 100 साम्राज्यवादी-पूंजीवादी लुटेरों, मजदूरों और मानवता के दुश्मनों की लिस्ट में रूसी धनपशुओं-ओलिगार्कों की स्थिति इस प्रकार है; व्लादीमिर पोतनिन (62), आंद्रे मेल्निचेंको (66), लियोनिद मिकेल्सन (74), अलेक्सी मोर्दाशोव (81), व्लादीमिर लिसिन (85), अलीशेर उस्मानोव (95)।

साम्राज्यवादी युद्धों की तबाही के भूखे; मानवता के असली दुश्मनों का परिचय

दुनिया के सबसे बड़े राक्षसी धनपशुओं की लिस्ट यहां (https://www.bloomberg. com/billionaires/?sref=fDPa8NQZ) पढ़ी जा सकती है। यही वो लोग हैं जिन्हें आमतौर पर कोई भी तबाही और खासतौर पर युद्ध की तबाही मालामाल कर देती है। यही गढ़ते हैं सारे युद्ध। यही हैं मानवता के सबसे बड़े दुश्मन। वैसे तो इनका कोई देश नहीं क्योंकि इनकी प्रचंड पूंजी देश की सीमाओं को लांघ चुकी है फिर भी तकनीकी दृष्टि से, पासपोर्ट की शक्ल में इनका जो कोई भी देश है, उस देश की सरकारें इनकी ताबेदार हैं, इनकी प्रबंध कमेटियां हैं जो इनके इशारों पर नाचती हैं। श्रम की अधिकतम लूट के मकसद से ये भले एक हो जाएं, इनके परस्पर बैर जान लेवा हैं। एक-दूसरे की गर्दन पर पैर रखकर ही ये निरंतर ऊपर चढ़ते हैं। इनकी ये आपसी जंग छुपे रूप में हमेशा जारी रहती है लेकिन ये जंग कभी इतनी तीखी हो जाती है कि ये ‘अपनी-अपनी’ सरकारों को टैंकों-तोपों-मिसाइलों को लेकर एक दूसरे पर टूट पड़ने को बोल देते हैं और इनकी ताबेदार सरकारें चीख पड़ती हैं; ‘दूर हट जाओ वरना एटम बम से सारी दुनिया को फूंक डालूंगा। जानते नहीं, मेरे पास कितने विनाशक हथियार हैं!!’ “युद्ध अन्यथा जारी राजनीति का ही प्रसार है”, प्रशिया के प्रख्यात युद्ध विशेषज्ञ कार्ल वॉन क्लौज्वित्ज, जिनका उद्धरण लेनिन ने साम्राज्यवाद पर अपनी थीसिस में भी दिया है, का ये कथन कितना सटीक है जो युद्धों के चरित्र की बिलकुल सही और सटीक व्याख्या करता है। भले धुंआ नजर ना आए, गोले फटने के धमाके ना

सुनाई पड़ें, चीखें ना निकलें लेकिन साम्राज्यवादी लुटेरों के बीच युद्ध सतत जारी रहता है। लूटमार कभी भी शांतिपूर्वक हो ही नहीं सकती। दमन के बगैर लूट नहीं होती और दमन का प्रतिरोध ना हो, ये मुमकिन नहीं। जहां दूसरे को निगलकर ही बड़ा होना हो और सापेक्ष रूप से छोटा रह जाने पर मौत का खतरा हो, आज की ब्लू चिप का कल पिद्दी बन जाना हो, तो ये द्वंद्व प्रेमपूर्वक, प्यार-मोहब्बत के नगमे गाते हुए नहीं सुलझता। ये आग जानलेवा, तबाही लाने वाली होती है।

               अमेरिका के ‘डेमोक्रेट’ राष्ट्रपति बाईडेन साम्राज्यवादी राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं। अमेरिकी कॉर्पोरेट मगरमच्छ और उनकी दैत्याकार कंपनियों की सेवा करने का उनका लम्बा तजुर्बा है। उनके जिस बयान से ये लेख शुरू हुआ है, उसे बहुत बारीकी से पढ़े जाने की जरूरत है। ‘हमारा मकसद है पुतिन पर दबाव अधिकतम हो जाए’, मतलब, साम्राज्यवादी वित्तीय इजारेदार कॉर्पोरेट, ओलिगार्क के हितों पर अगर चोट पहुंचाई जाए तो उनकी ताबेदार सरकारों पर दबाव अधिकतम हो जाता है। ये बात वो अपने तजुर्बे से जानते हैं। इराक को तबाह कर डालना, पेट्रोल सम्पदा को हड़पने वाले उनके कॉर्पोरेट के हित में था तो पूरी बेशर्मी के साथ ‘जनसंहार के विनाशकारी हथियारों’ वाली झूठी कहानी गढ़ी गई, दरबारी मीडिया द्वारा उसे प्रसारित-प्रचारित किया गया, संयुक्त राष्ट्र संघ को अपने कॉर्पोरेट हितों को साधने के औजार में तब्दील कर करोड़ों बेकसूर लोगों को मार डाला, लाखों अमेरिकी सैनिकों को तोपों का चारा बना डाला। अफगानिस्तान में जब युद्ध उनकी राक्षसी कंपनियों के हित में नहीं रहा तो मार खाने, जलील होने के बाद भी ‘इस्लामी आतंक के विरुद्ध युद्ध’ को छोड़, सत्ता उन्हीं ‘आतंकियों’ के हाथों में सौंप, दुम दबाकर भाग खड़े हुए!! ‘ये लोग (रूसी ओलिगार्क) रूसी जनता की कीमत पर ही अमीर बने हैं’, इस वाक्यांश से ‘रूसी’ शब्द हटा दिया जाए तो ये जुमला एक दम सत्यवचन बन जाता है। आप सोलह आने सही हैं, मिस्टर बाईडेन। ये सारे परजीवी, मुफ्तखोर जिनके नाम ब्लूमबर्ग की इस लिस्ट में हैं, किसी भी देश का पासपोर्ट क्यों ना रखते हों, अपने देश के मजदूरों के श्रम को लूटकर ही बने बड़े हैं। एक दिन इस लूट का हिसाब होना निश्चित है और वो दिन अब दूर नहीं, ये हकीकत आप भी जानते हैं। पूरा सच बोलने की आपकी हिम्मत नहीं बाईडेन साहब लेकिन चिंता मत कीजिए, मजदूर सच्चाई जानते हैं। ‘हम अपना काम करते जाएंगे…हम इन धन पशुओं को नहीं छोड़ेंगे जिन्होंने इस खूनी रूसी शासन के दौरान रूसी जनता से लाखों करोड़ डॉलर लूट लिए हैं।’ यही है इस युद्ध की असली वजह, और यही होती है हर साम्राज्यवादी खूनी जंग की हकीकत। आप हमेशा से जो करते आए हैं, रूसी लठैत पुतिन बिलकुल वही कर रहा है। इसीलिए तो मिसाइल गरज रहे हैं और आप दूर सात समंदर पार बैठे तमाशा देख रहे हैं। ‘यूक्रेनी जनता रूसी सेना से आखरी दम तक लड़ेगी’, कहकर ये सुनिश्चित करने का अक्षम्य अपराध कर रहे हैं कि ये युद्ध जल्दी समाप्त ना हो जाए, यूक्रेन के गैस के अपार भंडार को रूसी ओलिगार्क अकेले ना लूट लें, आपके अमेरिकी कॉर्पोरेट माई-बाप का हिस्सा ना मारा जाए।

यूक्रेन युद्ध किसने गढ़ा है?

दुनियाभर में विनाशकारी हथियार एक्सपोर्ट करने वाले बड़े देश ये हैं।

अमेरिका अकेला जितने हथियार बेचता है, बाकी 9 देश मिलकर भी उतने नहीं बेचते। हथियार व्यापार का बड़ा हिस्सा चोरी-छुपे होता है उसमें भी अमेरिका का हिस्सा सबसे बड़ा है। इतना ही नहीं ऊपर दी गई लिस्ट में अमेरिका के अलावे 9 देशों में भी 6 नाटो के सदस्य देश हैं। युद्ध किस के हित में है? दुनियाभर में युद्ध के बीज कौन बोता है? स्टिंगर मिसाइल बनाने वाली अमेरिकी कंपनी रेथियन और लोकहीड के शेयर पिछले 15 दिनों में 16% से बढ़ गए हैं। ब्रिटिश हथियार निर्माता कंपनी बीएई सिस्टम के शेयरों में 26% का उछाल आया है। यूरोपियन यूनियन 45 करोड़ यूरो के हथियार खरीदकर यूक्रेन को देने वाला है। मौत के सौदागरों के इतने अच्छे दिन तो बहुत दिन से नहीं आए।

               आइए देखें, यूक्रेन युद्ध कैसे गढ़ा गया? शुरुआत सीरिया से हुई। इराक और लीबिया के बाद अमेरिका सीरिया में राष्ट्रपति असद की जगह अपना पिट्ठू बिठाना चाहता था। आतंकवाद वाला पाखंड उन्मादी मीडिया जमा चुका था लेकिन रूस युद्ध में कूद गया और अमेरिकी मंसूबों पर पानी फिर गया। इसके बाद 2008 में रूस के पड़ोसी देश जॉर्जिया को नाटो में शामिल करने की पेशकश हुई लेकिन रूस ने तुरंत वहां सैनिक हस्तक्षेप कर दिया लेकिन खूनी जंग नहीं छिड़ी। उसके बाद से ही रूस के दूसरे बड़े पड़ोसी देश यूक्रेन को अमेरिका ने अपनी घिनौनी हरकतों का केंद्र बनाना शुरू कर दिया। यूक्रेन के प्रायद्वीप क्रीमिया के काले सागर में रूसी समुद्री बेड़ा तैनात था इसलिए रूस ने 2014 में हमला कर अपने कब्जे में ले लिया। उसके बाद अमेरिका से लिखित समझौता हुआ कि नाटो का पूरब में विस्तार नहीं किया जाएगा। 1991 से आज तक अमेरिका लाटविया, लिथुआनिया, एस्टोनिया समेत कुल 7 देशों को, जिनकी सीमाएं रूस से लगी हुई हैं, नाटो में शामिल कर चुका है। इसके बावजूद भी युद्ध नहीं भड़का तब ये जानते हुए भी कि यूक्रेन को नाटो में शामिल करने को रूसी लठैत बर्दाश्त नहीं कर पाएगा, अमेरिका यूक्रेन के अपने पिट्ठू राष्ट्रपति जेलेंस्की को नाटो में शामिल करने के काम में तब तक लगा रहा जब तक यूक्रेन युद्ध का अखाड़ा नहीं बन गया।        

               समाजवादी खेमे को वारसा संधि के नाम से जाना जाता था। उसे समाप्त हुए 32 साल हो चुके, अभी तक अमेरिकी सामरिक दादागिरी का प्रतीक, नाटो क्यों मौजूद है? पहले आपको कम्युनिस्टों से डर लगता था, अब किस का डर है? भले आज सोवियत संघ ना बचा हो, चीन भी पूंजीवादी-साम्राज्यवादी गटर का हिस्सा बन गया हो लेकिन क्या अभी भी आप कम्युनिस्टों से भयभीत नहीं हैं? सारे पूर्वी यूरोपीय देशों को आप क्यों उस जकड़बंदी में शामिल कर लेना चाहते हैं? यूक्रेन को नाटो का सदस्य बनाने का मकसद क्या यूक्रेनी जनता का कल्याण करना है? ‘हम नाटो की सीमाओं को एक इंच भी पीछे करने को तैयार नहीं’ का क्या मतलब है? अमेरिका अपने बगल-बच्चे राष्ट्राध्यक्षों, राष्ट्रों से कैसा सलूक करता है, क्या ये बात दुनिया नहीं जानती? डोनाल्ड ट्रम्प पर अभियोग (Impeachment) का मुकदमा पूरी दुनिया ने देखा। क्या उन पर एक गंभीर आरोप ये नहीं था कि उन्होंने अमेरिका द्वारा यूक्रेन को दी जाने वाली विशालकाय ‘आर्थिक मदद’ को यूक्रेन के खजाने में जमा करने के बजाए मौजूदा राष्ट्रपति जेलेंस्की को चुनाव जिताने में इस शर्त के साथ मदद की कि उनकी चहेती कंपनियों को यूक्रेन में ‘कारोबार’ की छूट मिलेगी? यूक्रेन के संबंध में ट्रम्प पर लगे इस आरोप का क्या मतलब है? क्या जेलेंस्की अमेरिका का बगल-बच्चा नहीं है? क्या यूक्रेन की जनता दो लठैतों की लड़ाई में नहीं पिसती जा रही है?

पूंजीवाद-ओलिगार्कवाद की मुद्दत पूरी हुई; लौ बुझने से पहले भड़क रही है

युद्ध, राजनीति पर पड़ा छद्म-फरेब का आवरण हटाकर उसे नंगा कर डालते हैं। अमेरिकी लठैत कह रहा है कि ये रूसी साम्राज्यवादी लुटेरों ‘ओलिगार्क’ के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध है। रूसी लठैत कह रहा है कि अमेरिकी दादागिरी, एकतरफा अमेरिकी ओलिगार्कवाद के दिन लद चुके। अमेरिका को इस सच्चाई को हम उसी भाषा में समझाने निकले हैं जिसे अमेरिका समझता है। जिससे वो आज तक दूसरों को समझाता आया है। ये सबक ठीक से समझाए बगैर हम वापस नहीं जाने वाले। ये निर्विवाद है कि ये जंग साम्राज्यवादी लुटेरों की आपस की लड़ाई है।

               1991 याद कीजिए। ‘समाजवाद खत्म हुआ, हर तरफ पूंजी का राज्य ही चलने वाला है, पूंजीवाद ही मानव विकास का अंतिम पड़ाव है’, पूंजी के जमूरों को बदहवासी में मिरगी के दौरे पड़ने लगे थे। वो प्रेत नृत्य, लेकिन ज्यादा दिन चलने वाला नहीं था। पूंजी के चरित्र और उसके ‘नैसर्गिक विकास’ को जानने वाले ये जानते हैं कि पहले साम्राज्यवादी मोनोपोली और फिर औद्योगिक पूंजी में बैंकिंग पूंजी के सम्मिश्रण से तैयार दैत्याकार वित्तीय पूंजी सत्ता संभालती है। विशालकाय कॉर्पोरेट कंपनियों के बहुराष्ट्रीय कार्टेल छोटी-मझौली-बड़ी कंपनियों को निगलकर विकराल बनते जाते हैं। वित्तीय पूंजी के आपसी द्वंद्व टेबल के चारों ओर बैठकर कभी नहीं सुलझते। सरकारें उनकी कठपुतली की तरह व्यवहार करते हुए अपने-अपने देश पर खतरा बताते हुए शरणागत ना होने वाले देश पर टूट पड़ती हैं। रक्षा मंत्रालय रूस की तरह ‘आपातकाल परिस्थितियों का मंत्रालय’ बन जाते हैं। निश्चित रूप से पुतिन ने यूक्रेन पर हमला रूसी धनपशुओं के लिए ही बोला है, इससे पहले 2014 में क्रीमिया पर भी इसीलिए कब्जा किया था लेकिन ये भी उतना ही सही है कि उसके ऐसा करने से अमेरिकी खांटी युद्धोन्मादियों को पहली बार चुनौती मिली है। अभी तक अमेरिकी ओलिगार्क अपनी नंगी लूट के लिए एकतरफा युद्ध करती आई है अब पासा पलट चुका है। बाईडेन के पेट में मरोड़ इसी बात की है। ये बात सही है कि रूसी ओलिगार्क के लिए युद्ध यूक्रेन में तबाही ला रहा है। लेकिन विशालकाय अमेरिकी ओलिगार्क के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध भी खुशहाली नहीं लाता। दुनिया के सबसे विशालकाय 500 धन पशुओं की लिस्ट में सबसे ज्यादा तादाद तो अमेरिकियों की ही है। इन लोगों के पूंजी के पहाड़ इतने विशाल कैसे बने? युद्धों से कौन मालामाल होता है? सबसे ज्यादा घातक हथियार कहां बनते हैं? क्या हथियार पेट की भूख मिटाने के काम आते हैं? इस सवालों के जवाब देने की हिम्मत बाईडेन की नहीं हो सकती। उसी दिन अमेरिकी मीडिया उसे खलनायक बना डालेगा और उसे सत्ता से खींचकर बाहर कर दिया जाएगा। खुद अमेरिका के स्कूलों में आए दिन बिगड़ैल बच्चों द्वारा हथियार ले जाकर गोलीबारी कर हर साल सैकड़ों बच्चों-शिक्षकों को मार डालने की घटनाएं होती हैं। उनके विरुद्ध कई बार लोग सड़कों पर आए हैं लेकिन हर बार अमेरिकी सरकार ने पूरी बेशर्मी के साथ ‘अमेरिकन राइफल एसोसिएशन’ नाम के हथियार निर्माताओं के गिरोह का ही साथ दिया है!! बाईडेन किसे मूर्ख बना रहे हैं?

               वित्तीय पूंजी इसी तरह फलती-फूलती है, इसी तरह तबाही लाती है। उसका स्वभाव ही है प्रभुत्व जमाना, डोमिनेट करना। प्रभुत्व प्रेम से नहीं जमा करता। भारत को ही ले लीजिए, सबसे बड़े मगरमच्छ धनपशुओं-ओलिगार्क की इस कुख्यात लिस्ट में दसवें नंबर पर गौतम अडानी और ग्यारहवें नंबर पर मुकेश अम्बानी हैं। कोरोना महामारी से पहले यह गौतम अडानी पहले सौ लुटेरों की लिस्ट से बाहर हुआ करता था। उसकी हालत इतनी पतली थी कि उसे बैंकों ने कर्ज देना बंद कर दिया था। दो साल में उसके पास इतनी दौलत कहां से आई, जब लॉकडाउन से सारा उत्पादन बंद था? उसके पोर्ट पर 21000 करोड़ रु की ड्रग पकड़ी गई और उससे पूछताछ भी नहीं हुई!! बिड़ला के धनाड्य बनने का इतिहास क्या है? अंग्रेजों के राज में पड़े भयानक अकालों के दौरान जब लोग सड़कों पर मर रहे थे, उस वक्त खाद्य पदार्थों की जमाखोरी और काला बाजारी से ही वो बिड़ला बना। धीरुभाई अम्बानी ने भ्रष्टाचार को संस्थागत बनाया और हर तरह के फ्रॉड से ही उसकी कंपनियां दैत्याकार बनीं। सरकारें इन धन पशुओं की ताबेदार तो हमेशा रही हैं लेकिन दिन-ब-दिन जैसे-जैसे आर्थिक संकट गहराता जा रहा है, ये काम इतनी नंगई से हो रहा है कि पूरा खेल नंगा हो गया है। लौ बुझने से पहले भड़क रही है। 

आर्थिक पाबंदियां लगाकर बांह मरोड़ना और घुटने टेकने को मजबूर कर देना भी युद्ध ही है      

बाईडेन ने घोषणा की है कि अमेरिका अब रूस से तेल नहीं खरीदेगा। आर्थिक प्रतिबन्ध लगाकर रूस को घुटने टेकने पर मजबूर कर देगा!! वैसे ही प्रतिबन्ध, लेकिन, वेनेजुएला और ईरान पर भी लागू हैं। क्यूबा पर तो अनगिनत प्रतिबन्ध शुरू से ही लागू हैं। क्या बाईडेन ये बताने की जहमत उठाएंगे कि इन देशों को किस बात की सजा दी जा रही है? इन देशों ने कौन से देश पर हमला बोला है? जो देश अमेरिका के

धनपशुओं को अपने देश में लूट की इजाजत देने में आना-कानी करता है, उसी की समुद्री सीमा में भयानक तबाही मचाने वाले हथियारों से लैस अमेरिकी जहाज तैरने लगते हैं। आर्थिक पाबंदियां लग जाती हैं। उससे होने वाली तबाही के क्या परिणाम होते हैं बाईडेन साहब कैसे जानेंगे? रूस से तेल आयात पर पाबंदियों वाले भाषण पर ही गौर किया जाए तो अमेरिकी फ्रॉड समझ आ जाता है। ‘डेमोक्रेसी लाने की कीमत अमेरिकियों को चुकानी होगी, मैं चाहता हूं अमेरिकी कंपनियां मौके का फायदा ना उठाएं, तेल की कीमतें ना बढ़ाएं!!’ ये रक्तपिपासू कॉर्पोरेट ऐसी गिड़गिड़ाहट को कितना भाव देते हैं, बाईडेन भी जानता है। जहां काले लोगों की गर्दन पर गोरे पुलिस वाले घुटना टेक देते हों, ‘मुझे सांस नहीं आ रहा, मैं मर रहा हूं’ जैसी ह्रदय विदारक कराह को अनसुना कर दिया जाता हो, वो देश किस मुंह से दुनिया भर में ‘डेमोक्रेसी’ के झंडे गाड़ने जाता है? अमेरिका को दुनियाभर का दरोगा किसने चुना है? ये सवाल आज नाटो के उन देशों को भी अपनी-अपनी सरकारों से पूछने चाहिए जिन्हें अमेरिका इस युद्ध में घसीटना चाहता है और वे लोग सूचना युद्ध के शिकार हो जाते हैं। अभी तक युद्ध-पाबंदियों वाला युद्ध एकतरफा होता आया है। ये पहली बार है कि किसी देश ने यूरोप-अमेरिका के नाटो देशों को हवाई जहाजों को अपने देश के ऊपर से उड़ने से रोका है और दमन-उत्पीड़न को अपना पैदाइशी हक समझने वाले तिलमिलाने लगे हैं।

समाजवाद या सर्वनाश; तीसरा विकल्प नहीं   

अभी तक हुए सभी युद्धों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है; पहला- लुटेरों द्वारा लड़े गए युद्ध और दूसरे- लुटेरों के विरुद्ध मुक्ति युद्ध। रूस द्वारा यूक्रेन पर हमला नि:संदेह पहली श्रेणी का युद्ध है। रूस, ये युद्ध रूसी साम्राज्यवादी धन-पशुओं को यूक्रेन के संसाधन लूटते जाने के मकसद से लड़ रहा है जिसका पूरी ताकत से विरोध किया जाना चाहिए। रूस में युद्ध के विरुद्ध उठ रहे जन आक्रोश का पूरी ताकत से समर्थन किया जाना चाहिए। लेकिन अमेरिका जिस तरह नाटो को अपने पीछे लगा रहा है, उसके मंसूबे और भी खतरनाक हैं। इस युद्ध को गढ़ने के लिए उसकी पिछले कई साल की कार्यवाहियां बहुत खतरनाक हैं। नाटो को अस्तित्व में रहने का आज कोई कारण नहीं। अमेरिका उसे मजबूत और व्यापक करता जा रहा है। एक के बाद एक, रूस से सटे मुल्कों को अपना अखाड़ा बनाना युद्ध भड़काने वाली कार्यवाही है। अमेरिकी और नाटो देशों के लोगों को इसका पुरजोर विरोध करना चाहिए। अमेरिका दुनिया का अकेला लठैत बने रहना चाहता है। आज वो मुमकिन नहीं रहा। अमेरिका दुनिया भर में डेमोक्रेसी का सबसे बड़ा दुश्मन है। उसने युद्ध की विभीषिका कभी नहीं झेली। आज पूंजीवादी-साम्राज्यवादी संकट इतना भीषण हो चुका कि इस लूट की व्यवस्था को लोगों के गुस्से से बचाने के लिए, आक्रोश आंदोलनों को कुचलने के लिए फासीवादी तरीका अपना रहा है। साम्राज्यवादी युद्ध आज के हालात में विभिन्न कंपनियों के प्रतिस्पर्धात्मक युद्ध में बदल चुके हैं। सम्पूर्ण मानवता के अस्तित्व पर ही संकट मंडरा रहा है। अर्थ व्यवस्था के सैन्यीकरण और वित्तीय पूंजी के आधिपत्य वाली मौजूदा व्यवस्था में साम्राज्यवादी युद्धों को टाला नहीं जा सकता। हथियारों को सिर्फ बेचना ही नहीं होता, उनकी लाइव परफॉर्मेंस भी तो दिखानी होती है। युद्ध कुछ लोगों के लिए कितने जरूरी हैं? उनकी तोपों, मिसाइलों, बमों, बंदूकों की परफॉर्मेंस दूसरों से बेहतर है, उनसे कहीं ज्यादा तबाही मचाती हैं, पूरी बिल्डिंग ही नहीं नीचे धरती तक फाड़ देती हैं, बदन में लगी आग बुझने नहीं देती, तड़प कम नहीं हो सकती; लाइव युद्ध के अलावा कैसे बताया जाए? ग्राहकों को उनके पैसे का सही मूल्य मिल रहा है, कैसे समझाया जाए? मार्केट शेयर कैसे बढ़ाया जाए? कितनी मुश्किल से तो एक गुर्गा फंसा है, राजी हुआ है जंग को, अब इतनी जल्दी उसे कैसे जंग के मैदान से हटने दिया जाए!! इतनी मेहनत पर ऐसे कैसे पानी फेर दिया जाए? यही वजह है कि यूक्रेन में युद्ध से हो रही तबाही के बावजूद अमेरिका जिसने युद्ध में सीधे भाग लेने से साफ इंकार कर दिया है, यूक्रेन को लगातार उकसा रहा है।  

               दूसरे किस्म के युद्ध वे हैं जिन्हें शोषित-पीड़ित अवाम संगठित होकर शोषकों, लुटेरों के विरुद्ध लड़ता आया है। सत्ताएं फूल मालाएं देकर नहीं बदली जातीं। गुलदस्ते देकर तो सत्ता की मैनेजमेंट कमेटियां बदली जाती हैं, हालांकि आज के फासीवादी दौर में वे भी नहीं बदली जा रहीं। सामंती लुटेरे हर वक्त अपना साम्राज्य, मतलब लूट का दायरा बढ़ाने के लिए या तो युद्ध कर रहे होते थे या युद्ध की तैयारियां कर रहे होते थे। वही काम आज के साम्राज्यवादी गिरोह अपनी कंपनियों की लूट बढ़ाने के लिए कर रहे हैं। समाजवादी सोवियत संघ द्वारा नाजी जर्मनी के विरुद्ध युद्ध दुनिया को फासीवादी नरसंहार से बचाने वाला युद्ध था। आज ये रूसी साम्राज्यवादी ठग टैंकों पर कम्युनिज्म के लाल झंडे लगाकर रूसी लोगों और सेना की उन्हीं भावनाओं का शोषण कर रहे हैं जिसके खिलाफ रूस का मेहनतकश अवाम सड़कों पर जबरदस्त प्रतिकार कर रहा है। आज जरूरत है शोषित-उत्पीड़ित, मजदूरों-मजलूमों को संगठित होकर उसी तरह की जंग छेड़ने की, जैसी शहीद-ए-आजम भगतसिंह और उनकी हिंदुस्तान सोशलिस्ट आर्मी ने छेड़ी थी। पूंजीवादी-साम्राज्यवादी लुटेरों, ओलिगार्कों के विरुद्ध उस लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाए बगैर युद्ध खत्म नहीं होंगे जिसका आगाज हमारे अमर शहीद क्रांतिकारियों ने किया था। आज जरूरत है सारे ओलिगार्क समुदाय के खिलाफ निर्णायक जंग छेड़ने की। विकल्प दो ही हैं, समाजवाद या सर्वनाश।