‘युद्ध और क्रांति’ – लेनिन

April 1, 2022 0 By Yatharth

14 (27) मई 1917 को व्लादिमीर ई लेनिन द्वारा दिया गया भाषण

वर्तमान यूक्रेन-रूस युद्धके साम्राज्‍यवादी चरित्र को समझने में लेनिन का यह भाषण, जिसके कुछ अंशों को हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं, काफी मददगार है। पाठकों से अपील है वे इस पूरे भाषण को भी पढ़ें, जिसका स्रोत लेख के अंत मे दिया गया है। जैसा कि पूरी तरह स्‍पष्‍ट होता जा रहा है, यह युद्ध अब साम्राज्‍यवादी लुटेरे के दो गिरोहों (एक तरफ अमेरिका के नेतृत्‍व में नाटो और दूसरी तरफ रूस-चीन) के बीच अब खुले-नंगे युद्ध, जिसमें न्‍यूक्लियर हमलों की संभावना प्रबल हो उठी है, में तब्‍दील हो चुका है जो प्रकृति और विशेषताओं में मुलत: प्रथम विश्‍वयुद्ध के सदृश्‍य है। इसलिए इसका विरोध करते वक्‍त लेनिन की नीति, यानी ”साम्राज्‍यवादी युद्ध को क्रांतिकारी गृह-युद्ध में बदल देने की नीति‍” पर ही अडिग रहना चाहिए। पूरी स्‍पष्‍टता हेतु हम शीघ्र ही एक विस्‍तृत लेख प्रकाशित  करेंगे। ~ संपादक मंडल

…. मुझे लगता है कि युद्ध के प्रश्न की बाबत जिस सबसे महत्वपूर्ण बात को आम तौर से नजरअंदाज कर दिया जाता है, जिस मुख्य समस्या पर नाकाफी ध्यान दिया जाता है और जिस पर इतना अधिक विवाद हो रहा है- निरर्थक, लाहासिल और बेबुनियाद विवाद, कहना चाहिए, वह है युद्ध के वर्ग-चरित्र की समस्या: युद्ध का कारण क्या था, उसे कौन से वर्ग चला रहे हैं और किन ऐतिहासिक तथा ऐतिहासिक-आर्थिक अवस्थाओं ने उसे जन्म दिया। ..

मार्क्सवाद की दृष्टि से यानी आधुनिक वैज्ञानिक समाजवाद की दृष्टि से युद्ध के मूल्यांकन के तरीके और उसके बारे में अपनाए जाने वाले रुख की बाबत समाजवादियों द्वारा किए जाने वाले किसी भी विचार-विमर्श में मुख्य समस्या यह है – युद्ध किस लिए लड़ा जा रहा है और किन वर्गों ने उसे छेड़ा और संचालित किया। हम मार्क्सवादी उन लोगों में नहीं हैं, जो युद्ध के बेशर्त विरोधी हैं। हम कहते हैं हमारा लक्ष्य समाज की समाजवादी व्यवस्था उपलब्ध करना है, जो मानवजाति का वर्गीय विभाजन समाप्त करके आदमी द्वारा आदमी के तथा राष्ट्र द्वारा राष्ट्र के शोषण का अंत करके अनिवार्यतः युद्ध की संभावना तक का अंत कर देगी। लेकिन समाज की उस समाजवादी व्यवस्था की उपलब्धि के लिए लड़ाई के दौरान हमें लाजिमी तौर से ऐसी अवस्थाओं का सामना करना पड़ेगा, जिनमें हर राष्ट्र के अंतर्गत चलने वाले वर्ग संघर्ष को उसी वर्ग संघर्ष द्वारा उत्पादित विभिन्न राष्ट्रों के आपसी युद्ध के साथ दो-चार होना पड़ सकता है। इसलिए हम क्रांतिकारी युद्धों की, यानी वर्ग संघर्ष से पैदा होने वाले युद्धों की, क्रांतिकारी वर्गों द्वारा लड़े जानेवाले युद्धों की, प्रत्यक्ष और सांप्रतिक क्रांतिकारी महत्व वाले युद्धों की संभावना से इनकार नहीं कर सकते। हम उससे इसलिए और भी इनकार नहीं कर सकते कि पिछली सदी के दौरान, कहें कि 125 से 135 बरसों तक के भीतर, यूरोपी क्रांतियों के इतिहास में अधिकतर प्रतिक्रियाशील युद्धों के साथ-साथ क्रांतिकारी युद्ध भी घटित हुए, मसलन संयुक्त राजतंत्रवादी, पिछड़े, सामंती तथा अर्द्धसामंती यूरोप के खिलाफ क्रांतिकारी फ्रांसीसी जनता का युद्ध। क्रांतिकारी युद्धों की मिसाल पेश करके जनता के साथ आज पश्चिमी यूरोप में और हाल से रूस में भी जो धोखेबाजी की जाती है, उससे अधिक व्यापक और कोई धोखेबाजी नहीं है। युद्ध तरह-तरह के होते हैं। हमारे दिमाग में इस बाबत स्पष्टता होनी चाहिए कि किन ऐतिहासिक अवस्थाओं ने युद्ध को जन्म दिया है, कौन से वर्ग उसे चला रहे हैं और किस उद्देश्य से। जब तक हम यह नहीं समझ लेते, तब तक युद्ध के बारे में हमारी सारी बातें लाजिमी तौर से नितांत बेकार होंगी, शुद्ध रूप से जबानी और लाहासिल तकरार होंगी।..

युद्ध के दर्शन तथा इतिहास से संबंधित विषयों के एक सर्वाधिक प्रसिद्ध लेखक क्लाजवित्ज की उस उक्ति को हम सभी जानते हैं कि “युद्ध दूसरे साधनों द्वारा राजनीति का सिलसिला है।” यह बात उस लेखक की है, जिन्होंने नेपोलियनी युद्धों के दौर के फौरन ही बाद युद्धों के इतिहास की समीक्षा की थी और उससे दार्शनिक सीखें निकाली थी, उस लेखक ने, जिसके बुनियादी विचारों से अब निस्सन्देह हर विचारवान व्यक्ति परिचित हैं, प्राय: अस्सी साल पहले युद्ध संबंधी इस कूपमंडूक तथा अज्ञानपूर्ण अवधारणा को चुनौती दी थी कि मानो युद्ध को संबंधित सरकारों की संबंधित वर्गों की नीतियों से अलग किया जा सकता है, कि मानो कभी युद्ध को महज ऐसे आक्रमण के रूप में देखा जा सकता है जिससे शांति भंग हो जाती है और फिर वह भंग हुई शांति पुन:स्थापित हो जाती है। लड़ाई हुई और सुलह हो गई! यह नितांत अज्ञानपूर्ण विचार है, जिसका बीसियों साल पहले खंडन किया जा चुका था और जिसका युद्ध की ऐतिहासिक मुद्दतों के किसी भी कमोबेश सावधान विश्लेषण से खंडन हो जाता है।

युद्ध दूसरे साधनों के जरिए राजनीति का सिलसिला है। सभी युद्ध उसे जन्म देनेवाली राजनैतिक व्यवस्थाओं से अविच्छेद्य होते हैं। अमुक राज्य, उस राज्य के अंदर अमुक वर्ग, युद्ध से पहले बहुत दिनों तक जिस नीति का अनुसरण करता है, उसे युद्ध के दौरान वही वर्ग अनिवार्यतः जारी रखता है, बस कार्रवाई की शक्ल बदल जाती है।

युद्ध दूसरे साधनों के जरिए राजनीति का सिलसिला है। जब 18वीं सदी के अंत में फ्रांस के क्रांतिकारी शहरियों और क्रांतिकारी किसानों ने क्रांतिकारी ढंग से राजतंत्र को उलट दिया और जनवादी लोकतंत्र की स्थापना की, जब उन्होंने अपने राजा का झटपट सफाया कर दिया और अपने जमींदारों का भी झटपट सफाया कर दिया, तो क्रांतिकारी वर्ग की उस नीति का बाकी सारे तानाशाही जारशाही, साम्राजी और अर्द्धसामंती यूरोप को जड़-मूल से झकझोर देना लाजिमी था और फ्रांस के

विजयी क्रांतिकारी वर्ग की इस नीति का अनिवार्य सिलसिला वे युद्ध थे जिनमें क्रांतिकारी फ्रांस के खिलाफ यूरोप के सभी राजतांत्रिक राष्ट्र अपना प्रसिद्ध संघात बनाकर एक प्रतिक्रांतिकारी युद्ध में मोर्चाबंद हो गए थे।  जिस तरह देश के अंदर फ्रांस की क्रांतिकारी जनता ने उस समय पहले-पहल क्रांतिकारी ओज प्रदर्शित किया था, जो सदियों के दौरान कभी नहीं देखा गया था, उसी तरह 18वीं सदी के अंत में युद्ध के दौरान उसने रणनैतिक व्यवस्था का नवनिर्माण करके युद्ध के सभी पुराने नियमों-परम्पराओं को तोड़कर पुरानी फौजों की जगह नई क्रांतिकारी जनसेना की स्थापना करके और युद्ध की नयी कौशल ईजाद करके प्रचंडकारी सृजनशीलता प्रदर्शित की। ..

इस समय हमारे सामने मुख्यतः पूंजीशाही शक्तियों के दो दलों का संघात है। हमारे सामने दुनिया की सभी बड़ी से बड़ी पूंजीशाही शक्तियां हैं- बर्तानिया, फ्रांस, अमरीका और जर्मनी – जिन्होंने दशाब्दियों से सारी दुनिया पर प्रभुत्व जमाने, छोटे राष्ट्रों का गला घोंट देने और अपने प्रभाव-जाल में सारी दुनिया को फंसा लेनेवाली बैंक-पूंजी के मुनाफों को तिगुना और दसगुना बनाने के लक्ष्य से अबाध आर्थिक चढ़ा-ऊपरी की नीति का जमकर अनुसरण किया है। बर्तानिया और जर्मनी की नीतियों का दरअसल यही निष्कर्ष है। मैं इस तथ्य पर जोर देता हूं। इस तथ्य पर जितना भी जोर दिया जाए कम ही होगा, क्योंकि अगर हम इसे भूल जाएं तो यह कभी नहीं समझ सकेंगे कि यह युद्ध किसलिए है और तब हम किसी भी पूंजीवादी लोक-लेखक के आसानी से शिकार बन जाएंगे, जो हमारे ऊपर झूठी बातें लादने की कोशिश करता है।

पूंजीशाही महाबलों के बर्तानिया और जर्मनी के, जिन्होंने अपने-अपने संघातियों के साथ एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा संभाला है। दोनों दलों की असली नीतियों का, उन नीतियों का, जिन्हें वे युद्ध के दशाब्दियों पहले से चलाते रहे हैं समग्रतः अध्ययन किया जाना चाहिए। उन्हें समझा जाना चाहिये । अगर हमने यह नहीं किया, तो हम न महज वैज्ञानिक समाजवाद और आम तौर से सभी समाज विज्ञान के तात्विक तकाजे की उपेक्षा करेंगे, बल्कि वर्तमान युद्ध के बारे में कुछ भी समझने में असमर्थ रहेंगे। हम अपने को उस धोखेबाज मिल्युकोव के वशीभूत कर देंगे, जो ऐसे तरीकों से अंधराष्ट्रीयतावाद तथा एक राष्ट्र के प्रति दूसरे राष्ट्र की घृणा उभाड़ रहे हैं, जिन्हें आज निरपवाद ढंग से हर कहीं काम में लाया जा रहा है और जिनके बारे में क्लाजवित्ज ने 80 साल पहले लिखा था, जबकि उन्होंने ठीक उसी विचार की खिल्ली उड़ाई थी जो आज कुछ लोग रखते हैं, यानी यह कि राष्ट्र शांतिपूर्वक रहते थे और फिर उन्होंने लड़ना शुरू कर दिया। मानो यह सच हो! किसी युद्ध को संबंधित राज्य की, संबंधित राज्य व्यवस्था की संबंधित वर्गों की पहले की नीति के साथ उसके संबंध पर विचार किए बिना, कैसे समझा जा सकता है ? मैं फिर कहता हूं : यह एक बुनियादी बात है, जिसे निरंतर नजरअंदाज किया जाता है, जिसे समझने में चूक जाने के कारण समस्त युद्ध संबंधी बहसों का 60 फीसदी हिस्सा महज तकरार बन जाता है, ढेरों बकवास बन जाता है। हम कहते हैं अगर आपने दोनों युद्धरत दलों की दशाब्दियों की नीतियों का – ताकि सांयोगिक उपादानों और क्रम रहित उदाहरणों के उद्धरण से बचा जा सके- अध्ययन नहीं किया है, अगर आपने यह प्रदर्शित नहीं किया है कि पहले की नीतियों के साथ इस युद्ध का क्या संबंध है, तो आप नहीं समझते कि यह युद्ध किसलिए है।

 ये नीतियां हमें बस एक चीज दिखाती हैं – दुनिया के दो प्रचंडतम महाबलों के बीच, पूंजीशाही अर्थव्यवस्थाओं के बीच निरंतर आर्थिक प्रतिद्वंद्विता। एक तरफ हमारे सामने बर्तानिया है, एक ऐसा देश जो भूमंडल के अधिकतर भाग का मालिक है, जो दौलत में पहला स्थान रखता है, लेकिन जिसने उस दौलत को अपने मजदूरों के श्रम द्वारा उतना नहीं पैदा किया है, जितना अनगिनत उपनिवेशों के शोषण द्वारा अपने उन बैंकों की अपार शक्ति द्वारा जो सभी दूसरों से आगे बढ़कर कोई चार या पांच महाबैंकों के एक छोटे से दल में विकसित हो गए हैं और अरबों-खरबों रूबल का वारा-न्यारा करते हैं और इस ढंग से करते हैं कि यह बात बिना अतिशयोक्ति के कही जा सकती है कि आज दुनिया में जमीन का कोई चप्पा नहीं है, जिस पर इस पूंजी ने अपने भारी हाथ न रख दिए हों, जमीन का कोई चप्पा नहीं है जिसे बर्तानियाई पूंजी ने सहस्रों सूत्रों से जकड़ न लिया हो। गत शताब्दी के अंत तथा इस शताब्दी के प्रारंभ में यह पूंजी इतनी अधिक बढ़ गई कि उनकी सरगर्मियां अलग-अलग राज्यों की सीमाओं के बहुत परे तक फैल गई और उसने अकल्पनीय सम्पत्ति के स्वामी, घोर शक्ति सम्पन्न बैंकों का एक गुट बना लिया। बैंकों के इस नन्हें से गुट को जन्म देकर उसने सारी दुनिया को अपने अरबों खरबों के जाल में फंसा लिया है। बर्तानिया की आर्थिक नीति तथा फ्रांस की आर्थिक नीति का यही लब्बो-लुआब है जिसके बारे में फ्रांसीसी लेखकों तक ने, जिनमें अब भूतपूर्व समाजवादियों (दर असल वित्तीय विषयों के प्रख्यात लेखक लिजीस जैसे बड़े लोगों) के नियंत्रण में चलनेवाले ‘L’Humanita’ के भी कुछ लेखक शामिल हैं, युद्ध से बरसों पहले कहा था: ”फ्रांस वित्तीय राजतंत्र है, फ्रांस वित्तीय गुटशाही है, फ्रांस दुनिया का साहूकार है।”

दूसरी तरफ, इस मुख्यतः इंगलिस्तानी-फ्रांसीसी गुट के खिलाफ पूंजीपतियों का एक दूसरा गुट है, जो और भी अधिक अपहारी है, और भी अधिक लुंठनकारी है, वह गुट जो पूंजीशाही दस्तरखान पर तब पहुंचा जब वहां बैठने की जगह नहीं रह गई थी, मगर जिसने संघर्ष में पूंजीशाही उत्पादन के विकास के नए तरीके, बेहतर तकनीकों और उन्नत संगठन का समावेश किया, जिससे पुरानी पूंजीशाही, उंमुक्त प्रतिद्वंद्विता के युग की पूंजीशाही विराट ट्रस्टों, सिंडिकेटों और कार्टेलों की पूंजीशाही बन गई। इस गुट ने एक ही ढांचे में पूंजीशाही की विराट शक्ति और राज्य की विराट शक्ति को जोड़कर और दसियों लाख लोगों को राजकीय पूंजीशाही के एक ही संगठन में लाकर राज्यनियंत्रित पूंजीशाही उत्पादन की शुरूआत की। यह है कई दशाब्दियों का आर्थिक इतिहास, कूटनयिक इतिहास, जिससे कोई भी भाग नहीं सकता। युद्ध की समस्या के मुनासिब कूटनयिक हल का यही अकेला और एकमात्र पथ प्रदर्शक है। यह आपको इस नतीजे पर पहुंचाता है कि वर्तमान युद्ध भी उन वर्गों की नीतियों का नतीजा है, जो उसमें जूझ रहे है; दो परम महाबलों की नीतियों की देन है, जिन्होंने युद्ध से के बहुत पहले सारी दुनिया को, सभी देशों को वित्तीय जाल में फंसा लिया था और आर्थिक रूप से भूमंडल को आपस में बांट लिया था। उनका टकराना लाजिमी था, क्योंकि पूंजीशाही की दृष्टि से प्रभुत्व का पुनर्विभाजन अनिवार्य हो गया था।

पुराना बंटवारा इस तथ्य पर आधारित था कि कई शताब्दियों के दौरान बर्तानिया ने अपने भूतपूर्व प्रतिद्वंद्वियों को तबाह कर दिया था। उसका एक भूतपूर्व प्रतिद्वंदी हालैंड था, जिसने सारी दुनिया में प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। दूसरा फ्रांस था जो लगभग सौ साल तक प्रभुत्व के लिए लड़ा था। लम्बे युद्धों की एक श्रृंखला के बाद बर्तानिया अपनी आर्थिक शक्ति की बदौलत, अपनी व्यापारिक पूंजी की बदौलत, संसार पर अपना निर्द्वंद्व प्रभुत्व कायम करने में समर्थ हो गया। सन् 1871 में एक नए अपहारी का उद्भव हुआ, एक नई पूंजीशाही शक्ति पैदा हुई, जो बर्तानिया की अपेक्षा अतुलनीय तीव्र गति से विकसित हुई। यह बुनियादी हकीकत है। आपको आर्थिक इतिहास की कोई ऐसी किताब नहीं मिलेगी, जो इस निर्विवाद तथ्य को न स्वीकार करे, जर्मनी के तीव्रतर विकास के तथ्य को न स्वीकार करे। जर्मनी में पूंजीवाद का यह तीव्र विकास एक प्रबल तरुण अपहारी का विकास था, जिसने यूरोपी शक्तियों की हमाहंगी में प्रवेश करके कहा: “तुमने हालैंड को तबाह किया, तुमने फ्रांस को हराया, तुमने आधी दुनिया हथिया ली। अब कृपापूर्वक हमारा मुनासिब हिस्सा दे दो।” लेकिन “मुनासिब हिस्सा” का अर्थ क्या है? पूंजीशाही संसार में बैंकों की दुनिया में इसका किस तरह निर्णय हो? वहां शक्ति का निर्णय बैंकों की संख्या से किया जाता है, वहां शक्ति का निर्णय ऐसे होता है, जैसे अमरीकी धनकुबेरों के एक अखबार ने मिसाली अमरीकी बेबाकी के साथ, मिसाली अमरीकी मानव-द्रोहिता के साथ, ऐलान किया था कि “यूरोप में विश्व पर प्रभुत्व के लिए युद्ध चलाया जा रहा है। विश्व पर प्रभुत्व के लिए दो चीजें जरूरी हैं: डालर और बैंक। हमारे पास डालर हैं, हम बैंक बना लेंगे और विश्व पर प्रभुत्व जमा लेंगे।” यह वक्तव्य अमरीकी धनकुबेरों के एक अग्रणी अखबार ने दिया था। मुझे कहना चाहिए कि एक बौखलाए अमरीकी धनकुबेर के इस मानवद्रोही वक्तव्य में उन पूंजीवादी झूठों के हजारों लेखों की अपेक्षा सैकड़ों गुना अधिक सच्चाई है, जो यह प्रतिपादित करने की कोशिश करते हैं कि यह युद्ध राष्ट्रीय हितों के लिए राष्ट्रीय प्रश्नों के ऊपर लड़ा जा रहा है। वे इतिहास को पूरी तरह नकार देनेवाले इसी तरह के और ज्वलंत झूठ बोलते हैं और बेल्जियम पर हमला करने वाले शिकारखोर जर्मन जानवर के मामले जैसे इक्के-दुक्के उदाहरण लेते हैं। मामला निस्संदेह यथार्थ है। अपहारियों के इस दल ने पाशविक खूंखारी के साथ बेल्जियम पर हमला किया, लेकिन उसने वही कुछ किया जो दूसरे दल ने दूसरे साधनों से कल किया था और अन्य राष्ट्रों के साथ आज कर रहे हैं।

जब हम कब्जों की बाबत वितर्क करते हैं और इस बात का उस प्रश्न से संबंध है जिसे मैं आप लोगों को उन आर्थिक तथा कूटनयिक संबंधों के इतिहास के रूप में संक्षेपतः समझाने की कोशिश करता रहा हूं। जिनके फलस्वरूप वर्तमान युद्ध पैदा हुआ है, जब हम कब्जों की बाबत वितर्क करते हैं, तो हम हमेशा भूल जाते हैं कि आम तौर से ये ही वे चीजें हैं जिनके लिए युद्ध चलाया जा रहा है, उसे जीते हुए इलाकों को टुकड़ बांट के लिए, अथवा अधिक लोकपरिचित ढंग से कहें तो दो डाकू-गिरोहों द्वारा लूट के माल के बंटवारे के लिए चलाया जा रहा है। जब हम कब्जों की बाबत वितर्क करते हैं, तो हमें निरंतर ऐसे तरीकों का सामना करना पड़ता है, जो वैज्ञानिक दृष्टि से आलोचना में खरे नहीं उतरते और जो सार्वजनिक पत्रकारिता के तरीके के रूप में इरादी झूठ हैं। किसी रूसी अंधराष्ट्रीयतावादी अथवा समाजवादी अंधराष्ट्रीयतावादी से पूछिए कि जर्मनी द्वारा कब्जों का क्या अर्थ है । वह आपके सामने उत्तम व्याख्या प्रस्तुत कर देगा, क्योंकि उसे भली भांति समझता है। लेकिन वह कब्जों की एक ऐसी आम परिभाषा करने की प्रार्थना का जवाब नहीं देगा, जिसमें जर्मनी, बर्तानिया और रूस सभी फिट बैठ जाएं। वह यह काम कभी नहीं करेगा! …

हमारा दावा है कि किसी भी अखबार ने, चाहे वह आम अंधराष्ट्रीयतावादियों का हो, जो महज यह कहते हैं कि पितृभूमि की प्रतिरक्षा की जानी  चाहिए, अथवा वह समाजवादी अंधराष्ट्रीयतावादियों का हो, कब्जे की ऐसी परिभाषा कभी नहीं बताई है, जो जर्मनी और रूस दोनों को माकूल आए, जो किसी भी पक्ष पर लागू होने योग्य हो। वह इस काम को महज इस कारण नहीं कर सकता कि यह सारा युद्ध कब्जों की नीति का, यानी दिग्विजय की नीति का, इस युद्ध में फंसे दोनों दलों की ओर से पूंजीशाही डाकेजनी की नीति का सिलसिला है। जाहिर है कि यह प्रश्न हमारे लिए कोई महत्व नहीं रखता कि इन दोनों डाकुओं में से किसने पहले चाकू निकाला। दशाब्दियों की मुद्दत में इन दोनों गुटों के नौसैनिक तथा सैनिक व्यय के इतिहास को लीजिए, उन छोटे युद्धों के इतिहास को लीजिए जिन्हें उन्होंने बड़े युद्ध से पहले चलाया था – “छोटे” इस मानी में कि उन युद्धों में कुछ ही यूरोपी मरे थे, जबकि उन राष्ट्रों के लाखों-लाख लोग मारे गए, जिन्हें वे गुलाम बनाए हुए थे, जो उनके दृष्टिकोण से राष्ट्र कतई नहीं समझे जा सकते थे (क्या उन एशियाइयों और अफ्रीकियों को राष्ट्र कहा जा सकता है?); इन राष्ट्रों के खिलाफ चलाए गए युद्ध, निहत्थे लोगों के खिलाफ चलाए गए युद्ध थे, जिन्हें महज गोलियों का, मशीनगनों का निशाना बना दिया गया। क्या आप उन्हें युद्ध कह सकते हैं? सच पूछिए तो वे युद्ध बिलकुल नहीं थे और आप उन्हें भूल जा सकते हैं। जनता के साथ इस सरीखी दगाबाजी के प्रति उनका यही रुख है।

वर्तमान युद्ध दिग्विजय की नीति का ही सिलसिला है, पूरी के पूरी जातियों के कत्लेआम का,उन हैरतअंगेज अत्याचारों की नीति का सिलसिला है, जो जर्मनों और अंग्रेजों द्वारा अफ्रीका में तथा अंग्रेजों और रूसियों द्वारा फारस में ढाए गए हैं – यह कहना मुश्किल है कि उनमें से अधिक अत्याचार किस ने ढाए। यही कारण है कि जर्मन पूंजीपति उन्हें अपना दुश्मन समझते थे। उन्होंने कहा, अच्छा, तो आप इसलिए बलशाली हैं, कि आप धनवान है? लेकिन हम आप से भी अधिक बलशाली हैं, इसलिए हमें भी लूटने का वही “पवित्र ” अधिकार प्राप्त है। इस युद्ध से पहले की कई दशाब्दियों के दौरान बर्तानियाई और जर्मन वित्तीय पूंजी का असली इतिहास यहीं पहुंचाता है। रूसी-जर्मन, रूसी-अंग्रेजी और जर्मन-अंग्रेजी संबंधों का इतिहास यहीं पहुंचाता है। यहां आपके सामने इस बात को समझने की कुंजी प्रस्तुत है कि यह युद्ध किस लिए है। यही कारण है कि युद्ध के कारण की प्रचलित कहानी महज धोखा और पाखंड है। वित्तीय पूंजी के इतिहास को भूलकर इस बात के इतिहास को भूलकर कि पुनर्विभाजन के प्रश्न पर युद्ध किस तरह पनपता रहा है, वे समस्या को इस प्रकार पेश करते है। दो राष्ट्र शांति के साथ रह रहे थे, फिर एक ने दूसरे पर हमला कर दिया और दूसरे ने उसका प्रतिकार किया। सारा विज्ञान, सारे बैंक भुला दिए गए हैं और लोगों से हथियार उठाने को कहा जाता है। यही बात किसानों से कही जाती है, जो राजनीति के बारे में कुछ भी नहीं जानते। जरूरत महज प्रतिरक्षा करने की है और बस! इस ढंग की दलील का तार्किक निष्कर्ष यह होगा कि सारे अखबार बंद कर दिए जाएं, सभी किताबें जला दी जाएं, चोर पत्र-पत्रिकाओं में कब्जों का कोई भी जिक्र वर्जित कर दिया जाए। इस तरीके से

कब्जों के बारे में ऐसी दृष्टि को उचित ठहराया जा सकता है। वे कब्जों की बाबत सच्ची बात नहीं बता सकते, क्योंकि रूस, बर्तानिया और जर्मनी का पूरा इतिहास कब्जों के ऊपर अविराम, निर्मम तथा रक्त-रंजित युद्ध का इतिहास रहा है। उन उदारतावादियों ने फारस और अफ्रीका में निर्मम युद्ध चलाया, उन्होंने भारत में राजनैतिक अपराधियों को इसलिए कोड़े लगवाए कि उन्होंने ऐसी मांग पेश करने का साहस किया था, जिनके लिए यहां रूस में संघर्ष चल रहा था। फ्रांसीसी औपनिवेशिक सेनाओं ने भी राष्ट्रों का उत्पीड़न किया। यहां आपके सामने प्रागितिहास है, अभूतपूर्व लूट का असली इतिहास है! यह है इन वर्गों की नीति, जिसका वर्तमान युद्ध एक सिलसिला है। यही कारण है कि कब्जों के प्रश्न पर वे वह जवाब नहीं दे सकते, जो हम देते हैं, यानी यह कि किसी राष्ट्र के साथ बहुमत की स्वेच्छापूर्ण राय से नहीं, बल्कि किसी राजा या सरकार के फैसले द्वारा जोड़ा गया दूसरा राष्ट्र कब्जाया हुआ राष्ट्र है। कब्जों को त्यागने का अर्थ है हर राष्ट्र को एक अलग राज्य बनाने अथवा चाहे जिस किसी राष्ट्र के साथ संघबद्ध होकर रहने का अधिकार देना। ऐसा जवाब उन सभी मजदूरों के लिए बिलकुल स्पष्ट है, जो जरा भी वर्ग-चेतन हैं।

हर प्रस्ताव में, जो दर्जनों की संख्या में पास होते हैं और ‘जेम्ल्या इ वोल्या’ (जमीन और आजादी) जैसे अखबार में भी छपते रहते हैं, आपको जवाब की निहायत असंतोषजनक अभिव्यक्ति मिलेगी: हम दूसरे राष्ट्रों के ऊपर प्रभुत्व के लिए युद्ध नहीं चाहते, हम अपनी आजादी के लिए लड़ रहे हैं। सभी मजदूर और किसान यही कहते हैं। इसी तरह वे मेहनतकशों के विचार की, युद्ध की बाबत उनकी समझ की, अभिव्यक्ति करते हैं। इस कथन के भीतर उनका यह अभिप्राय निहित होता है कि अगर युद्ध शोषकों के खिलाफ और मेहनतकशों के हित में होता, तो वे उस प्रकार के युद्ध के पक्ष में होते। तब तो हम भी उसके पक्ष में होते और कोई भी क्रांतिकारी पार्टी उसके खिलाफ नहीं हो सकती। लेकिन इन अनेकानेक प्रस्तावों के प्रस्तुतकर्ता वहीं गलती कर जाते हैं, जब यह विश्वास कर लेते हैं कि युद्ध को वे चला रहे हैं। हम सैनिक, हम मजदूर, हम किसान अपनी आजादी के लिए लड़ रहे हैं। मैं उस सवाल को कभी नहीं भूलूंगा, जो उनमें से एक ने किसी सभा के बाद मुझ से पूछा था। उसने कहा, “आप क्यों हर घड़ी पूंजीपतियों के खिलाफ बोलते रहते हैं? मैं तो पूंजीपति नहीं हूं, कि हूं? हम मजदूर हैं, हम अपनी आजादी की रक्षा कर रहे हैं।” आप गलती पर हैं, आप इसलिए लड़ रहे हैं कि आप अपनी पूंजीशाही सरकार का आज्ञा पालन कर रहे हैं। युद्ध को राष्ट्र नहीं, सरकारें चला रही हैं। मुझे उस मजदूर या किसान पर आश्चर्य नहीं होता, जो राजनीति नहीं जानता, जिसको कुटनीति के रहस्यों अथवा इस वित्तीय लूट (मिसाल के लिए रूस और बर्तानिया द्वारा फारस के इस उत्पीड़न को ही लीजिये) की तस्वीर में दीक्षित होने का सौभाग्य या दुर्भाग्य नहीं प्राप्त हुआ है – मुझे उसपर आश्चर्य नहीं होता, जब वह इस इतिहास को भूलकर भोलेपन के साथ कहता है: पूंजीपति जाएं भाड़ में लड़ाई तो मैं लड़ रहा हूं। वह युद्ध और सरकार के संबंध को नहीं समझता, वह नहीं समझता कि युद्ध सरकार चला रही है और वह उस सरकार के हाथ का औजार है। …

वर्तमान युद्ध की बुनियादें ऐसी है। उसका कारण न तो पूंजीपतियों की दुष्टता है और न किसी राजा की गलत नीति, ऐसा सोचना गलत होगा। नहीं, यह युद्ध अति विराट पूंजीवाद खासकर बैंक पूंजीवाद के विकास की अनिवार्य बाहरी बाढ़ है, जिसके फलस्वरूप सारी दुनिया पर बर्लिन के कोई चार बैंकों का और लंदन के पांच या छः बैंकों का प्रभुत्व हो गया, सारी दुनिया की निधियों पर उनका स्वामित्व हो गया, हथियारबंद ताकत द्वारा उन्होंने अपनी वित्तीय नीति को बल पहुंचाया और अंततः बर्बर सशस्त्र टक्कर में जूझ गए, क्योंकि दिग्विजय के मामले में वे निर्बाधता की अंतिम छोर पर पहुंच गए थे। एक न एक पक्ष को अपने उपनिवेशों का त्याग करना ही था। पूंजीपतियों की इस दुनिया में ऐसे प्रश्न स्वेच्छापूर्वक नहीं हल किए जाते। यह प्रश्न केवल युद्ध द्वारा ही हल किया जा सकता है। इसीलिए एक या दूसरे ताजदार डाकू को दोष देना हिमाकत है। वे सभी एक ही थैले के चट्टे-बट्टे हैं, ये ताजदार डाकू। इसी कारण एक या दूसरे देश के पूंजीपतियों को भी दोष देना उतनी ही बड़ी हिमाकत है। उन्हें दोष इतना ही दिया जा सकता है कि उन्होंने इस व्यवस्था की शुरूआत की। लेकिन सभ्य राज्य की सभी शक्तियों द्वारा संरक्षित सभी कानूनों के रूप से ऐसा किया जा रहा है। “मैं पूरी तरह अपने अधिकारों की सीमा में हूं। मैं शेयरों का खरीदार हूं। सभी अदालतें, सारी पुलिस, पूरी की पूरी स्थायी सेना और दुनिया की सारी नौसेनाएं इन शेयरों पर मेरे पवित्र अधिकार की रक्षा करती हैं।” करोड़ों-करोड़ रूबलों का वारा-न्यारा करनेवाले बैंकों को खोलने के लिए, इन बैंकों द्वारा सारी दुनिया के ऊपर अपनी लूट का जाल बिछाये जाने के लिए और उनके सांघातिक युद्ध में गुंथ जाने के लिए कौन दोषी है? अगर आप ढूंढ सकें, तो अपराधी को ढूंढ़िए। दोष है आधी सदी के पूंजीशाही विकास का और उससे निस्तार का एकमात्र रास्ता पूंजीपतियों के प्रभुत्व का तख्ता उलट दिए जाने तथा मजदूर क्रांति में है। युद्ध के विश्लेषण से हमारी पार्टी इसी जवाब पर पहुंची हैं और इसी लिए हम कहते हैं: कब्जों के बहुत ही सीधे-सादे प्रश्न को इस कदर उलझा दिया गया है और पूंजीवादी पार्टियों के प्रवक्ता इतना अधिक झूठ बोल चुके हैं कि वे यह साबित करने में समर्थ है कि कूरलैंड रूस द्वारा कब्जाया हुआ नहीं है। कूरलैंड और पोलैंड को उन तीन ताजदार डाकुओं ने आपस में बांट लिया है। वे सौ साल से ऐसा करते रहे हैं, जिंदा मांस नोचते रहे हैं। रूसी डाकू ने सबसे ज्यादा नोचा, यह सबसे अधिक मजबूत था और आज जब शिकारजीवी पाठा पशु जर्मनी, जो उस समय के बंटवारे में साझीदार था, बढ़कर प्रबल पूंजीशाही शक्ति बन गया है, तब वह नए सिरे से बंटवारे की मांग करता है। वह कहता है, आप पुराने को बरकरार रखना चाहते हैं न? आप अपने को अधिक मजबूत समझते हैं न? आइए आजमाइश कर लें!

इस युद्ध का यही सार है। “आइए आजमाइश कर लें” की चुनौती, बेशक लूट की दस-साला नीति, बड़े बैंकों की नीति की अभिव्यक्ति मात्र है। यही कारण है कि कब्जों की बाबत इस सीधी-सादी, सभी मजदूरों और किसानों के लिए बोधगम्य सच्चाई को जिस तरह हम कह सकते हैं, उस तरह कोई भी नहीं कह सकता। यही कारण है कि संधियों के इतने सीधे-सादे प्रश्न को सभी अखबार इस तरह जानबूझकर और शर्मनाक ढंग से उलझाते हैं। .. क्या आप यह नहीं जानते कि आपके पास संधियां हैं, कि उन संधियों को खूनी निकोलाई ने बेहद खसोटू ढंग से सम्पन्न किया था? आप यह नहीं जानते? उन मजदूरों का, किसानों का न जानना क्षम्य है, जिन्होंने हड़पने का काम नहीं किया है, बुद्धिमानी भरी किताबें नहीं पढ़ी हैं। लेकिन जब पढ़े-लिखे कैडेट वाले यह प्रचार करते हैं, तो वे

भली-भांति जानते हैं कि उन संधियों में क्या है। यद्यपि वे “गुप्त” संधियां हैं, तथापि सभी देशों के सारे कूटनयिक अखबार उनकी बाबत बात करते हैं और कहते हैं: “तुझे जलडमरुमध्य (यहां आशय दर्रा दानियाल से है – अनु०) मिलेगा, तुझे आर्मीनिया, तुझे गैलीशिया, तुझे अलसास-लारेन, तुझे त्रिएस्त और हम अंतिम रूप से फारस को बांट लेंगे।” फिर जर्मन पूंजीपति कहता है: “अगर आप हमारे उपनिवेश नहीं वापस करते वह भी सूद के साथ तो मैं मिस्र को हड़प लूंगा, तो मैं यूरोप के राष्ट्रों को अधीन कर लूंगा।” पत्ती ऐसी चीज होती है, जो बिना सूद के रह ही नहीं सकती। यही कारण है कि संधियों के सवाल ने, जो अपने आप में स्पष्ट, सीधा-सादा सवाल है, इतनी प्रचंड अश्रुतपूर्व निर्लज्जतापूर्ण झुठाइयों को जन्म दे दिया है, जो सभी पूंजीवादी अखबारों के कालमों में बह निकली हैं। ..

युद्ध को कैसे खत्म किया जा सकता है ? .. हम यह तजवीज नहीं करते कि युद्ध को एक ही धक्के में खत्म कर दिया जाए। हम इसका अहद नहीं करते। हम ऐसी असंभव और अव्यावहारिक बात का प्रचार नहीं करते कि युद्ध को महज एक पक्ष की इच्छा द्वारा खत्म किया जा सकता है। ऐसा कौल करना आसान है, पर उसका पूरा किया जाना असंभव है। .. हम कहते हैं: पूंजीशाही सरकारों द्वारा शुरू किया गया युद्ध केवल मजदूर क्रांति के जरिए ही खत्म किया जा सकता है। जो लोग समाजवादी आंदोलन में दिलचस्पी रखते हैं, उन्हें 1912 का बैसेल घोषणापत्र पढ़ना चाहिए, जो दुनिया की सभी समाजवादी पार्टियों द्वारा सर्वसम्मति से मंजूर हुआ था..। उसमें कहा गया था कि पूंजीशाही आपाधापी के फलस्वरूप इंगलिस्तान और जर्मनी के बीच युद्ध होगा। उसमें कहा गया था कि बारूद इतना जमा हो गया है कि बन्दूकें अपने आप दगने लगेंगी। उसमें लिखा गया था कि युद्ध किस लिए होगा और बताया गया था कि युद्ध का नतीजा सर्वहारा क्रांति होगा। इसलिए हम उन समाजवादियों से कहते हैं, जिन्होंने उस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए थे और बाद को अपनी पूंजीशाही सरकारों की तरफ मिल गए, कि उन्होंने समाजवाद के साथ गद्दारी की। सारी दुनिया के समाजवादियों में फूट पड़ गई। कुछ मंत्रिमंडलों में हैं और दूसरे जेलों में। सारी दुनिया में कुछ समाजवादी युद्ध की तैयारी का प्रचार कर रहे हैं और दूसरे, अमरीकी बेबेल यूजिन डेब्स की तरह, जिन्हें अमरीकी मजदूरों के बीच बेहद लोकप्रियता प्राप्त है, कहते हैं: “मुझे चाहे गोली मार दी जाए, लेकिन मैं इस युद्ध के लिए एक सेंट भी नहीं दूंगा। मैं केवल संसार भर के पूंजीपतियों के खिलाफ सर्वहारा वर्ग के युद्ध में ही लड़ने को तैयार हूं।” इस प्रकार सारी दुनिया के समाजवादी बंट गए हैं। दुनिया के समाजवादी देशभक्त समझते हैं कि वे अपने पितृदेश की प्रतिरक्षा कर रहे हैं। वे गलती पर हैं। वे पूंजीपतियों के एक गिरोह से दूसरे गिरोह के हितों की रक्षा कर रहे हैं। हम सर्वहारा क्रांति का प्रचार कर रहे हैं एकमात्र सच्चा हेतु, जिसके लिए दसियों फांसी पर चढ़ गए और सैकड़ों-हजारों जेलों में डाल दिए गए हैं। ये जेलों में डाले गए समाजवादी अल्पमत में हैं, लेकिन मजदूर वर्ग उनके साथ है, सारा आर्थिक विकास उनके पक्ष में है। ये सारी बातें हमें बताती हैं कि निस्तार की दूसरी राह नहीं है। इस युद्ध को कई देशों में मजदूरों की क्रांति द्वारा ही खत्म किया जा सकता है। तब तक हमें उस क्रांति के लिए तैयारियां करना चाहिए, उसकी सहायता करना चाहिए। जब तक युद्ध जार द्वारा चलाया जा रहा था, तब तक युद्ध के प्रति अपनी समस्त घृणा तथा शांति कामना के बावजूद रूसी जनता के खिलाफ इसके सिवा और कुछ भी नहीं कर सकती थी कि वह जार के खिलाफ क्रांति की तैयारी करे, जार का तख्ता उलट दे और ऐसा ही हुआ। कल इतिहास ने आपके सामने यह साबित कर दिया और कल फिर साबित कर देगा। हमने बहुत पहले कहा था कि बढ़ती हुई रूसी क्रांति की मदद करने की जरूरत है। है। हमने यह बात 1914 के अंत में कही थी। इसके कारण दूमा के हमारे प्रतिनिधि साइबेरिया में जलावतन कर दिए गए और हमसे कहा गया कि “आप जवाब नहीं दे रहे हैं। आप ऐसे समय क्रांति की बात कर रहे हैं, जब हड़तालें खत्म हो चुकी हैं, जब दूमा सदस्य सख्त कैद भुगत रहे हैं और कोई अखबार नहीं है।” हमारे ऊपर यह इलजाम लगाया गया कि हम जवाब देने से कतरा रहे हैं। हमने उन इलजामों को बरसों सुना। हमने जवाब दिया: आप रोष कर सकते हैं। लेकिन जब तक जार का तख्ता नहीं उलट दिया जाता तब तक हम युद्ध के खिलाफ कुछ भी नहीं कर सकते। हमारी भविष्यवाणी सही साबित हुई। अभी उसकी पूरी तरह पुष्टि नहीं हुई है, लेकिन पुष्टि होना शुरू हो गई है। रूस की ओर से क्रांति ने युद्ध को तबदील करना शुरू कर दिया है। पूंजीपति अभी तक युद्ध जारी रखे हुए हैं और हम कहते हैं जब तक कई देशों में मजदूरों की क्रांति नहीं होती, तब तक युद्ध को खत्म नहीं किया जा सकता, क्योंकि युद्ध चाहनेवाले लोग अभी तक सत्तारूढ़ है । हमसे कहा जाता है: “अनेक देशों में सब कुछ सुषुप्त प्रतीत हो रहा है। जर्मनी के सभी समाजवादी एक स्वर से युद्ध के पक्ष में हैं और अकेले लीब्ख्नेक्त उसके खिलाफ हैं।” इसके जवाब में मैं कहता हूं: अकेले ये लीब्ख्नेक्त मजदूर वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। सभी की आशाएं केवल उन पर, उनके समर्थकों पर, जर्मन सर्वहारा वर्ग पर लगी हुई हैं। आप इस बात पर विश्वास नहीं करते? तो, युद्ध को जारी रखिए, दूसरा रास्ता नहीं है। अगर आप लीब्ख्नेक्त पर विश्वास नहीं करते, अगर आप उस मजदूर क्रांति पर विश्वास नहीं करते, जो सर पर मंडरा रही है, अगर आप इस पर विश्वास नहीं करते तब पूंजीपतियों पर विश्वास करते रहिए !

कई देशों में मजदूर क्रांति के सिवा इस युद्ध को और कोई चीज शिकस्त नहीं दे सकती। युद्ध खिलवाड़ नहीं है। युद्ध अभूतपूर्व चीज है, युद्ध लामो की कुर्बानी ले रहा है और उसे इतनी आसानी से नहीं खत्म किया जा सकता। मोर्चे पर के सैनिक मोर्चे को बाकी राज्य से अलग करके अपने मन का फैसला नहीं कर सकते। मोर्चे पर के सैनिक देश के अंग हैं। जब तक सरकार लड़ रही है, तब तक मोर्चा भी दुख भोगेगा। इस मामले में कुछ भी नहीं किया जा सकता। युद्ध को शासक वर्गों ने जन्म दिया है और उसे केवल मजदूर वर्ग की क्रांति ही खत्म कर सकती है। आप शीघ्र शांति उपलब्ध कर सकेंगे कि नहीं, यह केवल इस बात पर निर्भर है कि क्रांति का विकास किस तरह होता है। चाहे जैसी भी भावुकतापूर्ण बातें क्यों न कही जाएं, चाहे आपसे जिस तरह भी क्यों न कहा जाए कि आइए युद्ध को अविलम्ब खत्म कर दें, क्रांति के विकास के बिना वह नहीं किया जा सकता। जब सत्ता सोवियतों के हाथ में चली जाएगी, तो पूंजीपति हमारे खिलाफ हो जाएंगे। जापान खिलाफ, फ्रांस खिलाफ, इंगलिस्तान – खिलाफ, सभी देशों की सरकारें खिलाफ हो जाएंगी। पूंजीपति हमारे खिलाफ होंगे, मजदूर हमारे पक्ष में होंगे। तब युद्ध खत्म हो जाएगा, जिसे पूंजीपतियों ने शुरू किया था। यह जवाब है, उस सवाल का कि युद्ध को कैसे खत्म किया जाए।   

(सर्वप्रथम 23 अप्रैल 1926 को ‘प्राव्दा’ अंक 93 में प्रकाशित, संग्रहीत रचनाएं, खंड 32, पृ० 77-102)