चुनावोपरांत वोटर सर्वे के आलोक में उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा की जीत के मायने
April 1, 2022चुनाव परिणाम विश्लेषण
ए सिन्हा
उत्तरप्रदेश विधान सभा चुनाव के नतीजे निश्चित ही बहुतों को दिमागी घन चक्कर में डालने वाले नतीजे हैं। 10 मार्च को जब मतगणना शुरू हुई तो लोग धड़कते दिल से ही सही लेकिन यह उम्मीद कर रहे थे कि भाजपा की हार होगी। कुछ को तो भाजपा की जबर्दस्त हार होने की भी उम्मीद थी। क्या इस उम्मीद का कोई ठोस आधार था? ठोस आधार की बात करना तो यहां बेमानी है, लेकिन जनता के बीच भाजपा को लेकर एक गहरी नाराजगी अवश्य मौजूद थी, और वह जगह-जगह तीखे ढंग से प्रकट भी हुई। सवाल है, क्या भाजपा की जीत से भाजपा से नाराजगी की यह बात भी खारिज हो जाती है? प्रश्न यह भी है कि अगर सपा (इस चुनाव में भाजपा की एकमात्र प्रतिद्वंद्वी) को भी पहले की तुलना में बढ़ी हुई संख्या में वोट व सीट मिले हैं, तो इसके क्या अर्थ हो सकते हैं? जहां तक ‘यथार्थ’ की बात है, तो हमारी ओर से भाजपा की पराजय को सुनिश्चित करने का आह्वान करते हुए यह कहा गया था कि उत्तरपद्रेश में जनता के बीच एक गहरा आक्रोश व असंतोष इस हद तक व्याप्त है जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि जनता ने खुद ही भाजपा के विरोध की कमान संभाल ली थी। हम ‘यथार्थ’ की इस बात को भी अवश्य परखेंगे।
चुनाव प्रचार के दौरान जमीनी स्थिति की हकीकत क्या भाजपा के पक्ष में थी? नहीं, बिल्कुल ही नहीं। यह कहने में हमें कोई गुरेज नहीं है कि भाजपा के लिए जमीनी स्थिति निरापद तो कतई नहीं दिख रही थी। इसके विपरीत विभिन्न माध्यमों से आने वाली जमीनी रिपोर्टों के अनुसार उत्तरप्रदेश चुनाव में आम जनभावना भाजपा के विरुद्ध थी। एक तीखा आक्रोश व्याप्त था। लोगों का गुस्सा खुलेआम सतह पर छलक रहा था जिसे हर कोई देख और महसूस भी कर रहा था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों में तो भाजपा के प्रत्याशी समुचित तरीके से प्रचार भी नहीं कर पा रहे थे। किसी की यह शिकायत थी कि लोग उनके अभिवादन का जवाब तक नहीं देते हैं, तो कई भाजपा प्रत्याशी बड़े-बुजुर्गों की तेल-मालिश करते देखे गए। कोई भरी सभा में पूर्व में हुई गलतियों के लिए लोगों के समक्ष दंडवत करता भी दिखा। कुछ समुदायों व तबकों को छोड़कर अधिकांश के बीच एक भाजपा विरोधी मानसिकता साफ तौर पर देखी जा सकती थी। अंतिम चरण आते-आते विकास, महंगाई, बेरोजगारी एवं जीवन-जीविका का सवाल मुख्य चुनावी मुद्दा बन चुके थे। चुनाव जब अंतिम चरण में पहुंचा तो सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे युवाओं का आक्रोश उफान पर था। इन सबसे एक भाजपा विरोधी लहर की मौजूदगी का स्वाभाविक तौर पर अहसास होता था। इस लिहाज से देखें, तो उत्तरप्रदेश में भाजपा गठबंधन को मिली जीत निस्संदेह अप्रत्याशित तथा आश्चर्यजनक मानी जाएगी। तो क्या सबको दिखने तथा महसूस होने वाला जनाक्रोश हमारा कोई भ्रम या कोई छलावा था? यही वह सवाल है जिसका जवाब हम इस लेख में देना चाहते हैं और देने की कोशिश करेंगे।
उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों के असली मायने तथा अर्थ को समझने में इसलिए भी परेशानी हो रही है क्योंकि भाजपा की जीत के साथ सपा गठबंधन के वोटों में भी लगभग 14 प्रतिशत का एक बड़ा उछाल (सपा का आज तक का यह सबसे उम्दा प्रदर्शन है) आया है जो इस बात का प्रथम दृष्टया प्रमाण है कि भाजपा से गंभीर स्तर की नाराजगी जनता में व्याप्त थी जो वोटों में भी तब्दील हुई। गौरतलब है कि वोटों में 14 प्रतिशत का यह (सपा गठबंधन की दृष्टि से) ऐतिहासिक उछाल भी दरअसल जनाक्रोश की वास्तविक मात्रा एवं इसके स्तर को अभिव्यक्त नहीं करता है, क्योंकि सतह पर असंतोष व नाराजगी की अनुगूंज इससे कहीं अधिक थी। लगभग एक शोर जैसी स्थिति थी। वहीं भाजपा की जीत को लेकर जनता के बीच कहीं कोई ऐसा शोर नहीं था। शायद इसलिए ही भाजपा समर्थकों को भी शुरू में भाजपा की यह जीत अप्रत्याशित ही लगी। जीत पक्की होने के एक दिन पहले तक वे निराशा की अवस्था में ही पड़े थे। यहां तक कि जीत के बाद भी नैराश्य की मनस्थिति से उबरने में उन्हें समय लगा। जीत के बाद फासिस्ट लंपटों की टोली फिर से अपने काम पर लग गई है और कहीं-कहीं वे पुराने मौज में लौटते आ रहे हैं, लेकिन इन्हें जनता के बीच अपने विरुद्ध जिस तरह के तीखे आक्रोश का दिग्दर्शन हुआ है उससे वे अभी भी सदमे में हैं। हालांकि यह अलग बात है कि लंबे संघर्षों में तपकर हासिल किए गए अनुभव और ज्ञान के अभाव में आक्रोशितों के एक बड़े हिस्से को मोदी और योगी अपने झूठ व लफ्फाजी से, तथा बेरोजगारी, गरीबी और महंगाई से बुरी तरह पीड़ित जनता की एक बड़ी आबादी को चंद सुविधाएं (मुफ्त अनाज तथा खाते में कैश ट्रांसफर, आदि) प्रदान कर अपने पक्ष में कर लेने एवं राज्यसत्ता की एजेंसियों के दुरुपयोग के बल पर वोटों के कुटिल प्रबंधन के द्वारा आम जनता को एक बार फिर से झांसा देने में सफल हो गए जिससे भाजपा को दुबारा सत्ता कब्जाने का मौका मिल गया।
हमारा मत है कि भाजपा की जीत में सत्ता की सहायता से किये जाने वाले वोटों के कुटिल व गुप्त प्रबंधन की भूमिका के साथ-साथ किसी विश्वसनीय एवं सकारात्मक विकल्प के अभाव में (सरकार से जो भी तुच्छ नकदी या गैर-नकदी सहायता मिली उसी से संतुष्ट होने के लिए
मजबूर) निराश-हताश जनता के एक हिस्से के खामोश, निष्क्रिय तथा एक हद तक अदृश्य समर्थन की भूमिका स्पष्टत: देखी जा सकती है। इसमें भाजपा के द्वारा संचालित मेटा नैरेटिव (हिंदू-मुस्लिम घृणा, सांप्रदायिक राष्ट्रवाद, पाकिस्तान-विरोध, हिंदू-राष्ट्र की अवधारणा के साथ-साथ ”सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास” के नारे को मिलाकर एक साथ तैयार किया गया एक भव्य नैरेटिव) द्वारा जनाक्रोश को मैनेज करने में मिली सफलता भी शामिल है।
दूसरी तरफ, सपा गठबंधन को पहले की तुलना में मिले ज्यादा वोटों के पीछे उस सक्रिय जनाक्रोश की भूमिका रही है जो मोदी के उपरोक्त प्रभावी मैनेजमेंट के बावजूद मैनेज नहीं हो सका, और जो सपा के निकम्मेपन और एक सकारात्मक विकल्प के रूप में उसकी घोर अविश्वसनीयता के बावजूद भी अंतत: उसकी झोली में वोटों के रूप में चला गया। यानी, योगी और मोदी के खिलाफ एक ऐसा जनाक्रोश मौजूद था जो पूरी तरह मैनेजेबल नहीं था और वह मतदान के वक्त भी वोटरों के दिमाग पर हावी रहा। अर्थात अगर जनता के बीच कोई वास्तविक और सकारात्मक बुर्जुआ विकल्प भी मौजूद होता, और अगर खासकर कोई क्रांतिकारी दिशा के साथ कोई संघर्षकामी विकल्प मौजूद होता जो जनता के आक्रोश को महज वोट प्राप्त करने के साधन के रूप में देखने के बजाए संघर्ष की शक्ति के रूप में रूपांतरित करने की कोशिश करता, तो स्थिति निस्संदेह कुछ और भी हो सकती थी। यह अपने आप में संसदीय तरीके से फासिस्टों को पराजित करने और किसी वास्तविक परिवर्तन को सरजमीं पर उतारने की रणनीति की सीमा को भी बखूबी उजागर करता है। क्रांतिकारियों के लिए निस्संदेह इसमें एक महान लेनिनवादी सबक है कि वास्तविक बदलाव वर्ग-संघर्ष के मैदान में लड़कर ही हासिल होगा, क्योंकि मेहनतकश जनता की वास्तविक एकता, शक्ति व चेतना एकमात्र उसी में पूरी तरह फलीभूत हो सकती है।
हम आगे हुए हिंदू ग्रुप द्वारा कराए गए चुनावोपरांत वोटर सर्वे में इकट्ठा किए गए वोटरों के मनोभाव से जुड़ी विविध जानकारियों एवं आंकड़ों की सहायता से यह दिखाएंगे कि चुनाव प्रचार के दौरान दिखने वाला असंतोष वास्तविक था, कोई छलावा या भ्रम नहीं, जैसा कि कुछ लोग भाजपा की हुई अप्रत्याशित जीत के बहाने साबित करने पर आमाद हैं। हम जोर देकर कहना चाहते हैं कि शासकों के लिए गोबरपट्टी में सब कुछ दुरुस्त नहीं था और न हीं आगे दुरुस्त रहने वाला है, क्योंकि जनता के अंसतोष के हल के लिए न तो सपा के जीतने पर बहुत कुछ होने वाला था और न ही भाजपा की सरकार अब कुछ खास करने वाली है। पूंजीवादी व्यवस्था का संकट महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी तथा भुखमरी के विस्तार के रूप में जनता की जान लेने पर आमादा है। आम जनता फासिस्ट सरकार का अनुभव प्राप्त कर चुकी है। अगर क्रांतिकारी ताकतें जनता के बीच पल रहे आक्रोश को ठीक से समझते हुए संघर्ष खड़ा करने की नीति पर अपना सर्वस्व दांव पर लगाते हुए जनता को संगठित करने में लगते हैं तो इसके निश्चित ही अनुकूल परिणाम आएंगे।
चुनावोपरांत वोट सर्वे क्या कहते हैं?
”यथार्थ” के पाठकों के लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि चुनावों में जो भाजपा विरोधी जनभावना दिखाई दी, ठीक वैसी ही भाजपा विरोधी भावना लोकनीति-सीएसडीएस के पोस्ट-पोल सर्वे (”द हिंदू” में हाल ही में प्रकाशित) में भी दिखाई देती है। हमारे कई पाठक इसे अब तक पढ़ भी चुके होंगे। इस सर्वे में वोट डालते वक्त वोटरों के दिमाग में क्या चल रहा था इसके आधार पर महत्वपूर्ण जानकारियां तथा इससे जुड़े कुछ महत्वपूर्ण आंकड़े इकट्ठे किए गए हैं तथा विश्लेषणात्मक टिप्पणी करते कुछ उद्देश्यपरक निष्कर्ष भी निकाले गए हैं। हम यहां इसके विश्लेषण को नहीं, लेकिन आंकड़ों व जानकारियों का इस्तेमाल यह देखने व समझने के लिए करेंगे कि चुनाव प्रचार के दौरान जो जनाक्रोश दिखा वह कितना वास्तविक था या कितना नकली, और वह चुनावोपरांत वोटर सर्वे के आंकड़ों में कहां तक दिखता है या कहां तक नहीं दिखता है।
1. एक सर्वे में यह तुलनात्मक अध्ययन करने की कोशिश की गई है कि वोट देते वक्त वोटर की नाराजगी किससे ज्यादा थी – योगी सरकार से या मोदी सरकार से। सर्वे के आंकड़े (टेबल 1 देखें) बताते हैं कि मतदान करते समय वोटरों की नाराजगी योगी सरकार से ज्यादा थी। लेकिन इस टेबल के अन्य आंकड़ों – दोनों सरकारों से पूरी तरह असंतुष्ट तथा थोड़ा बहुत संतुष्ट वोटरों के आंकड़ों – पर ध्यान केंद्रित करते ही यह साफ हो जाता है कि वोटरों की नाराजगी योगी से ही नहीं मोदी सरकार के खिलाफ बढ़ी हुई थी या है (देखें टेबल 1)। कहने का मतलब यह है कि दोनों सरकारों से वोटरों की नाराजगी पहले के किसी चुनाव की तुलना में इस बार के चुनाव में काफी ज्यादा बढ़ी हुई थी – जहां 2019 की तुलना में 2022 के चुनाव में योगी सरकार से पूरी तरह असंतुष्ट वोटरों की प्रतिशत संख्या 21 से बढ़कर 32 हो गई है, वहीं मोदी सरकार से भी पूरी तरह असंतुष्ट वोटरों की प्रतिशत संख्या 19 से बढ़कर 24 हो गई है, अर्थात 6 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसी तरह, योगी सरकार से थोड़ा बहुत संतुष्ट वोटरों की संख्या में 15 प्रतिशत की कमी आई है (33 से 18), तथा मोदी से थोड़ा बहुत संतुष्ट वोटरों की संख्या में इससे भी ज्यादा, यानी 20 प्रतिशत (39 से 19) की भारी कमी आई है। अर्थात, ये आंकड़े बता रहे हैं कि मोदी और योगी दोनों के खिलाफ जनता के बीच एक भारी असंतोष की स्थिति व्याप्त थी, और दोनों की लोकप्रियता में पहले की तुलना में इस चुनाव में ज्यादा गिरावट आई है।
2. सर्वे के दूसरे हिस्से में (टेबल 2 देखें) आंकड़े बता रहे हैं कि उत्तरप्रदेश सरकार की विदाई
चाहने वालों की संख्या 39 प्रतिशत थी जो कि एक बड़ी संख्या है। लेकिन सर्वे में यह तथ्य भी सामने आया है कि सरकार में बदलाव चाहने वालों में से सिर्फ दो-तिहाई (68प्रतिशत) ही भाजपा को हराने में सक्षम सपा गठबंधन को वोट दिए, जबकि बाकी बचे एक तिहाई ने सपा गठबंधन के बाहर की पार्टियों को, अर्थात मुख्यत: बसपा को वोट दिए। यह जानकारी सपा तथा बसपा दोनों के इतिहास व पुराने व नये चरित्र को देखते हुए चौंकाने वाली जानकारी तो कतई नहीं है। यह साबित करता है कि सपा दलितों-गरीबों की विश्वासपात्र नहीं बन पाई। इसलिए हम पाते हैं कि बदलाव के पक्ष में एक लहर के मौजूद होने के बावजूद सपा भाजपा को नहीं हरा सकी। भाजपा विरोधी मतों के बंटवारे की समस्या को भी आंकड़ा यह सामने ले आता है। बसपा के बारे में तो यहां तक कहा जाता है कि भाजपा ने राज्यसत्ता की एजेंसियों के बल पर इसकी बांह मरोड़ कर इसके समर्थक वोटों को अपने पक्ष में ट्रांसफर करवा लिया जो देखा जाए तो भाजपा की जीत का एक प्रमुख कारण भी बना। यह बसपा के जनाधार में आई घोर निराशा का कारण भी है।
3. सर्वे यह भी बताता है कि योगी और मोदी भले ही उत्तरप्रदेश में भाजपा की सरकार बनाने मे सफल हुए हों, लेकिन दोनों की सरकारों को मिले शुद्ध (net) जन समर्थन में भारी गिरावट दर्ज हुई है। नीचे का टेबल बता रहा है कि 2017 तथा 2019 की तुलना में 2022 में योगी को प्राप्त शुद्ध समर्थन क्रमश: +36, +27 से घटकर +7 प्रतिशत हो गया जो योगी सरकार की घटी हुई लोकप्रियता का स्पष्ट प्रमाण है। इसी तरह मोदी सरकार के लिए भी यह आंकड़ा +51, +45 से घटकर +24 प्रतिशत रहा गया, और यह भी मोदी सरकार की लगातार घटती लोकप्रियता का ही एक और पुख्ता प्रमाण है (टेबल 3 देखें), हालांकि इस सर्वे में लोकनीति-सीएसडीएस का उद्देश्य यह जानना था कि योगी और मोदी सरकार में कौन ज्यादा लोकप्रिय है और चारों राज्यों में भाजपा की जीत के पीछे इन दोनों में से किसकी लोकप्रियता फलदायक या कामयाब रही। लेकिन यह बताने के क्रम में यह बात भी सामने आ गई कि दोनों की लोकप्रियता में भारी गिरावट आई है।
4. इसी तरह हम सर्वे के और हिस्से की बात कर सकते हैं (अगले पृष्ठ पर टेबल 4 देखें) जिसमें यह बताया गया है कि वोटिंग करते वक्त लोगों के दिमाग में जो मुद्दे थे उनमें महंगाई, बेरोजगारी, छुट्टा व आवारा पशुओं की समस्या, भ्रष्टाचार, किसान आंदोलन, सरकार के काम करने के तरीके, संप्रदायों की धार्मिक आजादी आदि बड़े मुद्दे थे। ये मुद्दे स्पष्टतया भाजपा के विरुद्ध जाने वाले मुद्दे हैं।
5. हम सर्वे के एक और महत्वपूर्ण आंकड़े से इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जनता के बीच पल रहे आक्रोश को विभिन्न तरीके से मैनेज करने के बाद भी सपा को लगभग सभी समुदायों के बीच से (निस्संदेह भाजपा के कट्टर समर्थक समुदायों को छोड़कर) प्राप्त मतों में वृद्धि ही हुई है (पृष्ठ 21पर देखें टेबल 5)। हम इस टेबल में यह आंकड़ा भी देख सकते हैं कि भाजपा को जाटव सहित अन्य दलित समुदायों के बीच से मिले मतों में इस बार काफी इजाफा हुआ है जो कि उस एक विशेष बसपा फैक्टर की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है जिसके तहत सपा गठबंधन को हराने के लिए भाजपा से इसका (बसपा का) समझौता हुआ बताया जाता है। इस बार के चुनाव में हम अगर बसपा फैक्टर की बात करें, तो इसे समझने में फ्रंटलाइन में प्रकाशित निम्नलिखित उपाख्यानात्मक वृत्तांत (व्यक्तिगत तौरपर इकट्ठा की गई जानकरी) काफी मददगार है। फ्रंटलाइन के अनुसार, पश्चिमी उप्र के अलीगढ़ इलाके के इब्राहीमपुर गांव के एक बसपा कार्यकर्ता रणवीर जाटव (उम्र 55 वर्ष) गांव के लोगों के एक ग्रुप के बीच कहता है कि ”बहन जी (मायावती) ने हमलोगों को बहुजन समाज पार्टी को वोट देने को कहा है। (लेकिन) उन्होंने यह सलाह दिया है कि अगर समाजवादी पार्टी दौड़ में दूसरों से आगे है, तो भाजपा को वोट करना चाहिए।” फ्रंटलाइन आगे लिखता है कि जब एक 25 वर्षीय नौजवान जाटव मुकेश कुमार इसका विरोध करते हुए कहता है कि ”साइकिल आगे है, और अखिलेश यादव ने रोजगार देने का वायदा किया है, तो हमें समाजवादी पार्टी को क्यों नहीं वोट करना चाहिए”, तो मायावती के द्वारा सिखाये गये तर्क पर अडिग रहने वाले पहले बसपा कार्यकर्ता रणवीर का जवाब था कि ”हमलोगों को अपनी पार्टी का हित देखना चाहिए। अगर मायावती अच्छी-खासी संख्या में सीट जीत जाती हैं तो वे मंत्रालय बनने के समय भाजपा पर बहुजन हितों के पक्ष में अपनी शर्तें थोप सकती हैं।” हम अगर उपरोक्त उपाख्यानात्मक विवरण पर भरोसा करें (अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है), तो यह साफ हो जाता है कि बसपा का भाजपा से एक गुप्त समझौता हो चुका था जिसका लक्ष्य जहां तक संभव हो बसपा को जिताना और जहां वह नहीं जीत सकती है वहां सपा को हराना था। जाहिर है, इस समझौते के तहत सपा की जीत की प्रबल संभावना वाली ज्यादा से ज्यादा सीटों पर बसपा द्वारा वोटकटवा उम्मीदवार खड़े करने की भाजपा की रणनीति शामिल थी जो वास्तव में काम भी आई। कई सीटों पर सपा की हार और भाजपा की जीत के बीच के फासले के आंकड़े इस बात की पुष्टि भी करते हैं। जाटवों और अन्य दलितों के वोट सपा को भी बढ़ी हुई संख्या में मिले, लेकिन जितनी बड़ी संख्या में भाजपा को मिले उसकी तुलना में सपा को मिले वोट कुछ भी नहीं थे। मुफ्त राशन, खाते में पैसा, मुफ्त सिलिंडर, इज्जत घर (toilet), मकान, इलाज में सहायता, आदि के कारण तथा अन्य लाभकारी योजनाओं की वजह से भी महिलाओं के अंदर मोदी के प्रति समर्थन का भाव पहले से मौजूद था जिससे बसपा के समर्थक वोटों को भाजपा की ओर शिफ्ट करने को सफल बनाने में काफी सहूलियत हुई।
निष्कर्ष और सबक
इस बात को खास तौर पर नोट किया जाना जरूरी है कि सपा के वोट शेयर में आए उछाल में सपा की अपनी कोई खास मिहनत या भूमिका नहीं थी। वह चुनाव की सरगर्मियां शुरू होने के पहले कहीं दिखती भी नहीं थी। इसलिए यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यह उछाल सपा को मिले एक मुफ्त तोहफे की तरह है। दरअसल जनता के एक हिस्से ने भाजपा के खिलाफ कमान संभाल लिया था जिसका फायदा किसी अन्य सकारात्मक (खासकर क्रांतिकारी) विकल्प की अनुपस्थिति में भाजपा को हराने में सक्षम माने जाने वाले सपा गठबंधन को स्वाभाविक रूप से मिला। लेकिन भाजपा के खिलाफ व्याप्त पूरा आक्रोश सपा गठबंधन की झोली में नहीं आ पाया (वोटों की शक्ल में)। उसके एक हिस्से मात्र ने सपा को वोट किया। इसके कारणों पर हम चर्चा कर चुके हैं। मुख्य बात यही है कि सपा और इसका गठबंधन जनता के विश्वासपात्र नहीं हैं।
जनता का आक्रोश जब कटु संघर्षों के एक सिलसिले की अनुपस्थिति में राजनीतिक शक्ल नहीं ले पाता है, तो अक्सर यह सत्ताधारियों द्वारा मैनेजेबल होने के लिए अभिशप्त होता है, चाहे आक्रोश जितना भी गहरा और व्यापक क्यों न हो। एकमात्र पूंजीवादी व्यवस्था से अनवरत लड़ते हुए ही जनता की चेतना बढ़ती है या बढ़ सकती है। इसलिए संसदीय नहीं गैर-संसदीय संघर्ष ही मूल रूप से महत्वपूर्ण चीज है हमें यह नहीं भूलना चाहिए। पूंजीवादी जनतंत्र में होने वाले चुनाव में पैसे और ताकत की ही नहीं, छल और षडयंत्र की भी एक बड़ी भूमिका होती है जिसका उपयोग पूंजीवादी-फासीवादी पार्टियां करती हैं। इससे लड़ने के लिए जरूरी ऊंचे स्तर की चेतना जनता गैर-संसदीय संघर्षों में ही हासिल कर सकती है।
जब जनता में सत्ता से विरोध की भावना प्रबल हो और भविष्य के प्रति घोर निराशा-हताशा व्याप्त हो, और साथ ही साथ अगर बुर्जुआ तथा संशोधनवादी विपक्ष जनता की नजर में विश्वसनीय न रह गया हो, तो यह स्थिति क्रांतिकारी ताकतों के हस्तक्षेप की दृष्टि से अत्यंत ही महत्वपूर्ण, यहां तक कि निर्णायक स्थिति का परिचायक होती है। लेकिन अगर क्रांतिकारी ताकतें भी जनता के समक्ष सबल एवं भौतिक रूप से उपस्थित नहीं हो, तो ऐसा आक्रोश या असंतोष 100 में से 99 मौकों पर सत्ताधारियों द्वारा चंद सुविधाओं देकर मैनेज किया जा सकता है। अगर सत्ता में कोई फासिस्ट पार्टी बैठी है, तब तो कहना ही क्या है! फासिस्टों के मेटा नैरेटिव के आगे किसी अन्य बुर्जुआ पार्टी का टिकना अक्सर मुश्किल हो जाता है। मेटा नैरेटिव का यहां हमारा मतलब अंधराष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता के मिश्रण से बने आम वातावरण में जनता के मसीहा के रूप में किसी नेता को पेश करने वाले नैरेटिव से है जिसमें एक फासिस्ट पार्टी का नेता राष्ट्र व देश की दृश्य-अदृश्य एवं गढ़े गये काल्पनिक दुश्मनों (जैसे कि भारत में मुस्लिम ) से सुरक्षा करने वाली छवि से विभूषित होता है और साथ ही में वह जनता के दुख-दर्द में हमेशा साथ देने वाला मसीहाई आवरण भी धारण किए रहता है, तथा अन्य विपक्षी पार्टियों को कॉर्पोरेट के पैसे के दम पर खरीदे गये मीडिया की ताकत से हमेशा देश व जनता का दुश्मन साबित करने में भी वह सक्षम होता है। इस कसौटी पर देखा जाए तो सपा-बसपा एवं कांग्रेस जैसी पार्टियां और इनके नेता कहीं से भी भाजपा और मोदी को टक्कर देते नजर नहीं आते हैं। फासिस्ट शासन ने एक ऐसी शून्यता पैदा कर दी है जिसको भरने के लिए एकमात्र वहीं मौजदू रहता है।
यानी, विपक्ष में भी वही होती है। इस स्थिति में उलटफेर के लिए या तो पहले से भिन्न तथा फासिस्टों को हर क्षेत्र में आउटस्मार्ट करने और टक्कर लेने वाली कोई नई बुर्जुआ पार्टी की दरकार होती है जिसे जनता फासिस्टों को छोड़ कर आजमा सके, या फिर जनता इस शून्यता को भरने में सक्षम किसी क्रांतिकारी राजनीतिक शक्ति के पीछे-पीछे लामबंद होगी, बशर्ते जनता के समक्ष सही मायने में एक क्रांतिकारी पार्टी सदेह उपस्थित हो। अगर दोनों में से कोई उपस्थित नहीं है, तो फिर ऐसी परिस्थिति में आक्रोश महज जीवन के अत्यंत बुरे बन चुके हालातों के रूप में जनता को सत्ताधारी फासिस्टों के रहमोकरम पर आश्रित रहने वाली जनता में तब्दील कर देता है जिसे सत्ताधारी फासिस्ट पार्टी अपने यार मित्रों (कॉर्पोरेट और इजारेदार पूंजीपति) द्वारा सरकार की कॉर्पोरेट पक्षीय नीतियों की सहायता से की जा रही लूट के एक हिस्से को जनता पर खर्च करके (उदाहरण के लिए कुछ दिनों तक मुफ्त अनाज और खाते में कुछ रुपये डालकर, आदि) बुरे हालात से उपजे आक्रोश को न सिर्फ मैनेज कर सकती है, अपितु जनता को अपने ऊपर निर्भर भी बना ले सकती है। इसीलिए हम पाते हैं कि उत्तरप्रदेश में फासिस्टों को आक्रोशित जनता के एक हिस्से को अपने पक्ष में कर लेने में कोई ज्यादा दिक्कत नहीं आई। इसलिए क्रांतिकारी शक्तियों को इसमें मौजूद फासिज्म की संपूर्ण गतिकी को ठीक से समझना चाहिए और तदनुरूप कदम उठाना चाहिए।
भाजपा की ऐसी जीत इसलिए भी हुई क्योंकि यही विपक्षी पार्टियां पहले जब सत्ता में थीं तो जनता के लिए इतना भी नहीं करती थीं। इसलिए हम पाते हैं कि मुफ्त राशन तथा कुछ रूपये खातों में डालकर भाजपा बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी और महंगाई बढ़ाने वाली सरकार की नीतियों से भयंकर रूप से पीड़ित जनता को यह समझाने में सफल हुई कि वह सत्ता में है तो ही ये सहायता भी मिल रही है। कहीं गलती से सपा और कांग्रेस आ गई तो यह भी नहीं मिलेगा। ऊपर से गुंडा राज या मुस्लिमों का अत्याचार बढ़ जाएगा सो अलग! आरोप कितना सच है या झूठ है यहां बहुत मायने नहीं रखता है। भारत में वैसे भी यह मान लिया गया है कि चुनाव के दौरान नेताओं द्वारा जनता को रिझाने के लिए कुछ भी बोला और कहा जा सकता है, भले उसका सच्चाई और ठोस परिस्थिति से दूर-दूर तक कुछ भी लेना-देना नहीं है। यह एक ऐसा खुला दंगल है जिसमें समरथ को नहीं दोष गोसाईं वाली स्थिति है। इसके अतिरिक्त चुनाव जीतने के लिए जातीय समीकरण बनाने, धार्मिक एजेंडा सेट करने, यहां तक कि दंगे भड़काने हेतु किसी धर्म विशेष के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने या गाली देने, किसी विशेष समुदाय को काट डालने तक की बात कह देने और किसी भी स्तर का झूठ बोलते हुए कुछ भी वायदा कर देने की छूट है। फासिस्टों का यह एक प्रमुख हथियार है। हम जानते हैं कि भाजपा बड़े पैमाने पर एक ऐसा भव्य नैरेटिव चलाने में भी कामयाब रहा है जिसमें हिंदुओं की रक्षा का एक सामाजिक ठेका फासिस्टों को मिला हुआ है। इसे बहुत बारीकी से गढ़ा गया है ताकि बैकग्राउंड में यह मौजूद रहे और हिंदुओं का वोट इस नाते भाजपा की झोली में गिरता रहे। गुजरात में गोधरा कांड के बाद मुसलमानों के खिलाफ हुए जनसंहार में नरेंद्र मोदी ने जिस तरह की भूमिका निभाई उसके बाद ही उनकी हिंदू हृदय सम्राट की छवि बनी जो हिंदू धर्म की जनता के मन में इस सोच के साथ एक जगह बना चुका है कि जब नरेंद्र मोदी सत्ता में हैं तब तक मुल्ला टाइट रहेंगे और हिंदुओं को और देश का बाल बांका भी नहीं होगा। धर्म भीरू गरीब जनता धर्म के राजनीति में हो रहे दुरुपयोग के खिलाफ या हिंदू राष्ट्र के विरूद्ध नहीं बोल पाती है। इसलिए जब तक जनता क्रांतिकारी संघर्षों के एक लंबे दौर में इस खेल को खत्म करने लायक चेतना और ताकत नहीं ग्रहण कर लेती है, तब तक इन फासिस्टों को संसदीय औजारों से हराना अगर असंभव नहीं तो आसान भी साबित होने वाला नहीं है।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जनता का वास्तविक गुस्सा (बेरोजगारी, महंगाई तथा इसी तरह के अन्य मुद्दों पर उत्पन्न गुस्सा) अक्सर चुनावों व वोटों में नहीं, संघर्षों के मैदान में व्यक्त होता है जैसा कि किसान आंदोलन में दिखा। ऐसा ही किसी भी न्य आंदोलन में होता है। जो किसान आंदोलन की ताकत के बल पर मगरूर मोदी को झुकाने में सफल रहे, वही किसान मोदी द्वारा चुनाव में ऐन-केन-प्रकारेण जाल में फंसा लिए गए जो यह साबित करता है कि किसान आंदोलन की वापसी गलत अवसर पर हुई और मोदी की चाल अंशत: ही सही लेकिन सफल हुई।