पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश का चुनाव परिणाम और किसान आंदोलन

April 1, 2022 0 By Yatharth

ए सिन्हा

निश्चित ही यह जानना महत्‍वपूर्ण होगा कि दिल्ली की सीमाओं पर साल-भर से ज्‍यादा समय तक चले ऐतिहासिक किसान आंदोलन का सकारात्‍मक प्रभाव उत्‍तर प्रदेश चुनावों के नतीजों पर क्‍या और कितना पड़ा है।

               इस संबंध में समझने वाली सबसे पहली बात यह कि 11 दिसंबर, 2021 को किसान आंदोलन समाप्‍त या स्‍थगित घोषित हो चुका था। यानी चुनावी सरगर्मी के तीन-चार महीने पहले ही इस ऐतिहासिक आंदोलन का अंत हो चुका था। निश्‍चित ही इसका फायदा भाजपा को किसानों के बीच अपनी छवि सुधारने में मिला। किसान आंदोलन के जारी रहने पर किसानों के बीच जो भाजपा विरोधी आक्रामकता थी उसमें भी कमी आई। यह भी एक कारण था कि यथार्थ ने किसान आंदोलन की वापसी के खिलाफ सख्‍त टिप्‍पणी की थी।

               आज जब भाजपा की उप्र में जीत हुई है तो उसके समर्थक तथा कुछ अन्‍य लोग अब यह दावा करने लगे हैं कि पश्चिमी उप्र में भाजपा के प्रदर्शन पर किसान आंदोलन का कोई असर नहीं पड़ा। लेकिन क्‍या इसमें सच्‍चाई है? आइए, इसे परखते हैं।

               इस बात को हम सभी मानेंगे कि किसान आंदोलन मुख्य रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुख्‍यत: जाट बहुल गन्‍ना बेल्‍ट में केंद्रित था। जिलावार तौर से देखें तो इसका प्रभाव मुख्‍यत: मुजफ्फरनगर, शामली, बागपत और कुछ हद तक मेरठ में था। इन चार जिलों में कुल 19 विधानसभा क्षेत्र आते हैं जिनमें से भाजपा सिर्फ 6 सीटें ही जीत पाई जबकि इनमें से तीन मेरठ दक्षिण, मेरठ कैंट और मुजफ्फरनगर के शहरी क्षेत्र की सीटें हैं जहां किसान आंदोलन का असर नहीं था या बहुत कम था। अन्य तीन सीटों में से एक बागपत जिले के बड़ौत की सीट है जहां भाजपा की राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) के ऊपर जीत लगभग 200 वोटों के बहुत मामूली अंतर से हुई है। वहीं शामली की तीनों सीटों पर भाजपा का सफाया हो गया। इसके पहले, 2013 में मुजफ्फरनगर और शाम‍ली जिलों में हुई सांप्रदायिक हिंसा के बाद से भाजपा को लगातार बड़ी जीतें हासिल होती रही हैं। इसी के बाद से पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा की लोकप्रियता में तेज उभार आया। सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के एक सर्वेक्षण से यह पता चलता है कि 2019 के आम चुनाव में 90 प्रतिशत से भी ज्यादा जाटों ने पूरी तरह एकतरफा हो भाजपा को वोट दिया। लेकिन इस बार, कम से कम किसान आंदोलन का केंद्र रहे उपरोक्‍त चार जिलों में किसान आंदोलन का भाजपा के विरुद्ध साफ-साफ असर देखा जा सकता है। जहां 2022 में भाजपा को मिले वोटों में 2017 की तुलना में वृद्धि (38 से 54 प्रतिशत) दिखाई देती है वहीं इसमें 2019 की तुलना में कमी (90 प्रतिशत से 54 प्रतिशत) आई है। 2013 की सांप्रदायिक हिंसा में सबसे ज्यादा प्रभावित रहे दोनों जिलों मुजफ्फरनगर और शामली में भाजपा का लगभग सफाया हो गया है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हिंदुत्व के नामचीन चेहरों (संगीत सोम जो मेरठ के सरधना से प्रत्याशी थे, सुरेश राणा जो शामली के थानाभवन से प्रत्याशी थे, उमेश मलिक जो मुजफ्फरनगर के बुढ़ाना से प्रत्याशी थे, मृगांका सिंह जो स्वर्गीय हुकुम सिंह की बेटी और शामली के कैराना से प्रत्याशी) को मिली करारी हार सुकून देने वाली है। ये सभी 2013 की हिंसा के मुख्य आरोपी थे और दस हजार या उससे ज्यादा मतों के अंतर से हारे हैं। लेकिन यह सही है कि पश्चिमी उत्‍तरप्रदेश के बाकी क्षेत्रों में भाजपा को मिले मतों में पहले की तुलना में कोई ज्‍यादा बड़ा उलटफेर नहीं हुआ है। उल्‍टे, कहीं-कहीं भाजपा के वोट प्रतिशत एवं सीटों में वृद्धि भी देखी गई है जिसके लिए भाजपा को मिले दलितों के अच्‍छे-खासे वोट सहित कई अन्‍य कारण व कारक जिम्‍मेवार हैं, जैसा कि उत्‍तरप्रदेश के चुनाव परिणामों के विश्‍लेषण वाले एक अन्‍य लेख में हमने दिखाने की कोशिश भी की है।

               अगर इस नतीजे से कोई यह एकतरफा निष्‍कर्ष निकालता है कि किसान आंदोलन का इस चुनाव पर कुछ भी असर नहीं पड़ा तो यह महज मूर्खतापूर्ण बात ही नहीं भाजपा के दृष्टिकोण से कही गई बात होगी। हमने ऊपर दिखाया है कि इस दावे में कोई दम नहीं है।

जहां किसान आंदोलन और उसका प्रभाव नहीं था वहां सपा और इसके गठबंधन के पक्ष में मुसलमानों के हुए आक्रामक ध्रुवीकरण की प्रतिक्रिया में हिंदुओं का भी भाजपा के पक्ष में कुछ न कुछ ध्रुवीकरण अवश्‍य ही हुआ प्रतीत होता है जिसका फायदा भाजपा प्रत्‍याशियों को मिला। इससे एक बार फिर से यही बात साबित होती है कि जनता का जीवन के मूलभूत मुद्दों पर फूटने वाला आक्रोश जनता के मुद्दों पर चले संघर्षों में ही मुख्‍य रूप से प्रकट तथा एकबद्ध हो अपना प्रभाव डाल सकता है, न कि महज चुनावों में। चुनावों में यह प्रभावी तभी होता है जब चुनाव जन संघर्षों के ही एक विस्‍तारित अंग या क्षेत्र के बतौर लड़े जाएंगे। हम पाते हैं कि गन्ना बेल्ट के बहुत बड़े हिस्से के किसानों (मुख्यतः जाट) ने आंदोलन के लिए खुद को न सिर्फ संगठित किया था, अपितु इस चुनाव को भी संघर्ष का एक रूप माना और इसलिए वे भाजपा विरोध में वोट डालने में भी पीछे नहीं रहे, जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ही आलू बेल्ट (आगरा, अलीगढ़, मथुरा जैसे जिले) में किसान आंदोलन के कमजोर होने की वजह से इनके बीच कोई भाजपा विरोधी लहर देखने को नहीं मिली। कई लोग इसके कारण के रूप में यह बताते हैं कि भारतीय किसान यूनियन और रालोद नेतृत्व ने गन्ना बेल्ट के बाहर के जाट बहुल इलाकों में किसानों को लामबंद करने की समय रहते कोशिश नहीं की, और अगर की भी तो काफी देर से की। लेकिन मूल बात यही है कि शुरू से ही इन क्षेत्रों में किसान आंदोलन कमजोर था। इसी तरह पूर्वी उत्‍तरप्रदेश में भी किसान आंदोलन का असर काफी कम था।

               जहां तक सपा और अखिलेश यादव की बात है तो ये उत्‍तरप्रदेश में विपक्ष की भूमिका निभाने के बजाय पांच में से चार साल तो आराम ही फरमाते रहे। यहां तक कि किसान आंदोलन के दौरान भी ये बाहर नहीं निकले या बहुत कम निकले। बाकी के बचे एक साल में आधा साल तो इन्‍होंने पूरी तरह से आलस्‍य को त्‍यागने की प्रक्रिया में ही लगा दिया। बाकी बचे छह महीने में ये जनता के बीच नजर आए। इस निकम्‍मेपन के बावजूद अगर इस चुनाव में सपा का प्रदर्शन इसके इतिहास का सबसे अच्‍छा प्रदर्शन साबित हुआ है तो इसकी वजह सिर्फ यही है यह चुनाव जनता बनाम भाजपा के बतौर और जनता के द्वारा लड़ा गया। सपा को मिला फायदा बिल्‍कुल मुफ्त एक तोहफे जैसी चीज है। द वायर का कहना बिलकुल सही है कि ”सच तो यह है कि अभी तक उत्तर प्रदेश में कोई विपक्ष था ही नहीं। आज अगर कम से कम एक मजबूत विपक्ष है तो उसे जनता ने खुद ही तैयार किया है।”

               इसलिए आज यह साफ हो चुका है कि एकमात्र तीखे जन संघर्ष की चेतना के बल पर ही भाजपा जैसी पार्टी के सांप्रदायिक-राष्‍ट्रवादी ध्रुवीकरण की खतरनाक राजनीति को परास्‍त किया जा सकता है। ऐन चुनाव के पहले की सक्रियता और सामाजिक समीकरण साधने की चतुराई भरी चाल भाजपा जैसी एक फासिस्‍ट पार्टी, जो एक मेटा नैरेटिव सेट कर चुकी है, को हराने के बारे में सोचना दिन में तारे गिनना के बराबर ही माना जाएगा, खासकर उसकी नफरत की राजनीति के प्रयोगशाला बन चुके राज्‍यों में।

               फासिस्‍ट राजनीति की प्रयोगशालाओं में गुजरात और उत्‍तरप्रदेश के बाद कल को और कई नये नाम जुड़ने वाले हैं। कर्नाटक का नाम शायद उनमें सबसे ऊपर है। उत्‍तरप्रदेश की जीत फासिस्‍टों की शांतिपूर्ण जीत का एक उदाहरण है, लेकिन हमें याद रखना होगा कि अगर वे अगले किसी महत्‍वपूर्ण चुनाव में हारने को होंगे तो वे शांतिपूर्वक हार स्‍वीकार नहीं करेंगे। ज्‍यादा संभावना इस बात की है कि वे हार की स्थिति आने के पहले ही कुछ ऐसा करेंगे जिससे कोई चीज शांतिपूर्ण नहीं रह जाए। वे सत्‍ता में चुनाव से जरूर आए हैं, लेकिन वे चुनाव से जाएंगे इसकी संभावना नहीं के बराबर है।