मजदूर वर्ग को मध्ययुगीन गुलामी में धकेलने वाली चारों श्रम संहिताओं (लेबर कोड) को रद्द करो

April 1, 2022 0 By Yatharth

देशव्यापी हड़ताल 28-29 मार्च 2022

जैसा कि हम सभी को ज्ञात है, केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने आगामी 28-29 मार्च, 2022 को अखिल भारतीय मजदूर हड़ताल का आह्वान किया है जिसका उद्देश्य मोदी सरकार द्वारा बनाई गईं मजदूर विरोधी 4 श्रम संहिताओं (लेबर कोड) को रद्द करने के साथ-साथ निजीकरण, मौद्रीकरण और ठेका प्रथा जैसी घोर जनविरोधी एवं मजदूर विरोधी नीतियों पर रोक लगाने के लिए मोदी सरकार पर दबाव बनाना एवं इसके लिए उसे बाध्य करना है। शुरू से ही देश के तमाम ट्रेड यूनियनों व मजदूर संगठनों का यह मानना रहा है कि संघर्षों से हासिल 44 श्रम कानूनों की पुरानी व्यवस्था को और कारगर बनाने के बदले उसे खत्म करके जो चार श्रम संहिताएं बनाई गई हैं वे पूरी तरह कॉर्पोरेटपक्षीय तथा मजदूर वर्ग के हितों के खिलाफ हैं एवं मजदूर वर्ग को मध्ययुगीन गुलामी में धकेल देने के उद्देश्‍य से बनाई गई हैं।

               उसी तरह मोदी सरकार की निजीकरण, मौद्रीकरण एवं ठेकाकरण की नीतियां भी घोर रूप से जनविरोधी एवं मजदूरविरोधी हैं जिनका उद्गम स्थल भी चंद कॉर्पोरेट घरानों एवं बड़ी पूंजी के हाथों देश की जनता के भविष्य को सौंप देने की मोदी सरकार की मंशा और संकटग्रस्त विश्वपूंजीवाद का हर दिन घोर रूप से जनविरोधी एवं आदमखोर होते जाना है। दरअसल तेज रफ्तार से सरपट दौड़ती सुपरफास्‍ट रेलगाड़ी की तरह मोदी सरकार द्वारा लागू की जा रही निजीकरण, मौद्रीकरण एवं ठेकाकरण और इसी तरह की अन्‍य नीतियां देश की तमाम संपदा तथा इसके स्रोतों को मुट्ठी भर इजारेदार पूंजीपतियों के हाथों में सौंप देने एवं उनकी निर्मम लूट की नीतियां हैं, हालांकि इसकी शुरूआत मोदी की पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह सरकार द्वारा, तथा उससे भी पहले 1991 में इसी मनमोहन सिंह के वित्तमंत्रीत्व में हुई थी। ये उन्हीं मनमोहन सिंह द्वारा शुरू की गईं नवउदारवादी एवं कॉर्पोरेट पक्षीय आर्थिक नीतियों का विस्‍तारित रूप हैं जिन्‍हें मोदी के नेतृत्‍व में फासीवादी तरीके से लागू किया जा रहा है। यह इन नीतियों का नग्‍न पूंजी एवं कॉर्पोरेट पक्षीय स्‍वरूप और चरित्र ही है कि सत्ताधारी फासीवादी पार्टी से जुड़े संगठन बीएमएस तक को इनका विरोध करना पड़ा है। हालांकि हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि देश के सबसे पुराने एवं बड़े फासिस्ट संगठन आरएसएस से जुड़े किसी भी संगठन पर विश्वास करके पूंजी विरोधी संघर्ष में उतरना मजदूर वर्ग के लिए अंतत: घातक ही साबित होगा। बीएमएस मजदूर वर्ग के बीच काम करने वाला संगठन जरूर है, लेकिन इसकी विचारधारा उसी सत्ताधारी फासिस्ट पार्टी एवं उसकी विचारधारा से नाभिनालबद्ध (पूरी तरह जुड़ी हुई) है जिसकी अगुआई में देश का इजारेदार पूंजीपति वर्ग मजदूर वर्ग पर ताबड़तोड़ हमले कर रहा है।

               जहां तक अन्य मान्यता प्राप्त अखिल भारतीय केंद्रीय ट्रेड यूनियनों एवं फेडरेशनों की बात है, जिनमें संशोधनवादी एवं अवसरवादी कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों के ट्रेड यूनियन भी शामिल हैं, तो ये भी 1991 से लेकर अब तक, यानी पिछले तीन दशक में जिस तरह से दिन-प्रति-दिन बढ़ते इन हमलों के खिलाफ वास्तविक संघर्ष में उतरने के बजाय संघर्ष की रस्मअदायगी करते रहे हैं, उससे यही जाहिर होता है कि ये भी मजदूर वर्ग के निर्णायक संघर्ष की तैयारी के मद्देनजर बहुत ज्यादा भरोसे के लायक नहीं रह गए हैं। ”मान्यता प्राप्त” का मतलब संगठन की शक्ति की सरकार द्वारा मान्यता नहीं, संघर्ष के नाम पर इसकी औपचारिकता तक अपने को सीमित कर लेने के गुण व विशेषता की सरकारी मान्यता बन कर रह गया है। नहीं तो आखिर क्‍या वजह है कि मजदूर वर्ग को मिटा देने वाले हमलों की इतनी भयानक बौछार के बीच ये ”मान्यता प्राप्त” अखिल भारतीय मजदूर संगठन अभी भी निस्पृह आनुष्ठानिकता एवं भद्दी रस्मअदायगी तक अपने को सीमित किए हुए हैं? हालांकि यह सच्‍चाई है कि ये संगठन इतिहास में

निभाई अपनी भूमिका की वजह से हासिल विशाल सांगठनिक नेटवर्क की बदौलत व्‍यापक मजदूरों को आज भी अपने दायरे में समेटे हुए हैं। क्या यह पहली बार है जब इन्‍होंने एक दिवसीय या दो दिवसीय हड़ताल का आह्वान किया है? ये इसी तरह की सालाना अनुष्‍ठानिक, यानी एक ही जगह पर कदमताल करने वाली लड़ाइयों में ही तो पिछले तीन दशकों से मजदूर वर्ग को फंसाए हुए हैं! ठीक-ठीक कहें, तो ऐसा आनुष्ठानिक व्यवहार हमलों को रोकने की दृष्टि से किसी काम का साबित नहीं हुआ है। उसी का नतीजा है कि आज स्थिति बेकाबू हो हाथ से निकल चुकी है। महज ”रस्‍म निभाने वाले” संघर्षों से आज मजदूर वर्ग का हौसला नहीं बढ़ता है, अपितु उस तक यह संदेश जाता है कि हारना और पीछे हटना ही नियति है, अर्थात जो पूंजीपक्षीय हमले हो रहे हैं उनको शिरोधार्य करके चलना ही मजदूर वर्ग के पास एकमात्र रास्‍ता बचा है। कुल मिलाकर आज यही स्थिति है।

               सबसे बड़ी दिक्‍कत की बात यह है कि ये ट्रेड यूनियन पुराना होने के साथ-साथ अखिल भारतीय फैलाव वाले संगठन हैं तथा मान्‍यता प्राप्‍त होने के कारण इनकी पहुंच सत्ता के ऊंचे प्रतिष्‍ठानों तक है। इस वजह से ये जो भी आचरण या व्‍यवहार करते हैं उसका मजदूर वर्ग के ऊपर व्यापक और गहरा असर पड़ता है। यही कारण है कि रस्मअदायगी के दायरे से अलग मजदूर वर्गीय आंदोलन का वास्‍तविक उत्थान इनके अवसरवादी एवं सुधारवादी व्‍यवहार एवं नीतियों को सैद्धांतिक एवं व्‍यावहारि‍क तौर पर परास्‍त किये बिना नहीं हो सकता है।

               तो फिर हम इनके आह्वान में अपनी आवाज क्‍यों मिला रहे हैं, यह सवाल पैदा होता है। हमारा मानना है कि आनुष्ठानिक और रस्‍मी ही सही, लेकिन इन मजदूर हड़तालों में मजदूर शामिल होते हैं क्‍योंकि इसमें उनके मुद्दे उठाये जाते हैं, और जिस भी लड़ाई में मजदूर वर्ग का एक अंश भी शामिल है उसमें भविष्‍य के वर्ग-संघर्ष का एक भ्रूण रूप मौजूद होता है एवं उसके बीज बिखरे होते हैं। इसलिए इसमें शामिल होकर इसे सफल बनाने की हमारी कोशिश हमारी उन अनगिनत कोशिशों का हिस्‍सा है जो हम मजदूर आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए करते हैं। यह तय है कि हम इनके द्वारा बुलाई गई हड़तालों के असफल होने की कामना नहीं कर सकते हैं। इससे कुछ भी हासिल नहीं होगा। इसे सफल करने में लग कर ही हम कल को कॉर्पोरेट पूंजी पक्षीय नीतियों के खिलाफ पूरे मजदूर वर्ग को संघर्ष में उतार सकते हैं और कोई फैसलाकुन आंदोलन खड़ा कर सकते हैं।

आखिर मौजूद श्रम कानूनों को खत्‍म करने पर क्‍यों अड़ी है मोदी सरकार?

आज का मुख्‍य सवाल यह है कि मजदूर संगठनों एवं प्रगतिशील लोगों के इतने पुरजोर एवं कड़े विरोध के बावजूद मोदी सरकार ने ये श्रम संहिताएं क्यों बनाईं और वह क्यों इन्हें लागू करने पर अड़ी हुई है? एक पंक्ति में हम इसका यह जवाब दे सकते हैं कि मोदी सरकार ने नये लेबर कोड पूंजीपतियों, खासकर बड़े पूंजीपतियों के हितों के पक्ष में बनाए हैं। लेकिन सवाल तो यहां यह भी बनता है कि वे और कौन से नये हित हैं जो पुराने श्रम कानूनों से नहीं सधते हैं? क्‍या मौजूदा यानी पुराने श्रम कानून पूंजीपतियों को बाधा देते हैं? अगर हां तो वह क्‍या है और उसका मतलब क्‍या है? इन श्रम संहि‍ताओं के लागू होने के बाद मजदूर वर्ग की हालत क्‍या और कैसी हो जाएगी? इनका एवं ऐसे तमाम प्रश्‍नों का जवाब पुराने (मौजूदा) श्रम कानूनों की प्रकृति एवं इनके द्वारा इतिहास के एक लंबे दौर में निभाई जाने वाली भूमिका को समझे बिना नहीं दिया जा सकता है।

मौजूदा श्रम कानूनों की भूमिका

संक्षेप में कहें, तो पहले से मौजूद और लड़ कर हासिल किए गए कुल 44 श्रम कानून ऐसे कानून हैं जो भारत में तब बने जब पूरे देश में पूंजीवाद की जड़ मजबूती से जमाने के लिए मजदूरी प्रथा को व्यवस्थित करने, सर्वजनीन एवं मजबूत बनाने की जरूरत थी। इन पर रूसी अक्टू़बर समाजवादी क्रांति के उपरांत बने मजदूर राज्य एवं समाजवाद में मजदूर वर्ग को मिले व्‍यापक अधिकारों एवं उनके जीवन में आये क्रांतिकारी सुधारों का प्रभाव ठीक उसी तरह पड़ा जिस तरह इनका सर्वव्‍यापी प्रभाव वि‍कसित पूंजीवादी देशों से लेकर दुनिया के अन्य सभी देशों पर पड़ा। तथाकथित मजदूर पक्षीय श्रम कानून बनाने पर इस तरह पूंजीपति वर्ग मजबूर हुआ। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूंजीपति वर्ग ने मजदूर वर्ग को बाजाप्‍ता अपना हमराह एवं सहचर बनाने की कोशिश के तहत श्रम कानूनों की ‘मजदूर पक्षधरता’ की बात को आगे बढ़ाया, जिसके लिए भौतिक आधार व स्‍पेस विश्वपूंजीवाद के वि‍कास के सुनहरे युग ने दिया जिसका एक लंबा दौर द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद से लेकर पिछली सदी के 70 के दशक तक चला।

               इस दौर में बने श्रम कानूनों की इस तरह की ‘मजदूर पक्षधरता’ का अर्थ क्‍या है? क्‍या पूंजीपति वर्ग ने मजदूर वर्ग का शोषण करना छोड़ दिया? नहीं, बि‍ल्‍कुल भी नहीं। इसका अर्थ यह है कि पूंजीपति वर्ग ने मजदूर वर्ग को अपनी श्रम शक्ति बेचने के लिए मोलभाव करने का अवसर दिया। यानी इन श्रम कानूनों का फायदा श्रम-शक्ति रूपी माल के विक्रेता मजदूर वर्ग को श्रम-शक्ति के क्रेता पूंजीपति वर्ग से सामूहिक मोलभाव तथा सौदेबाजी करने की ताकत में हुए इजाफे के रूप में मिला। इस तरह मजदूर पूंजी द्वारा श्रम की लूट को अमानवीय सीमा तक बढ़ने से एक हद तक रोक पाये एवं पूंजीपति वर्ग से (तथा पूंजीपतियों के हिमायती राज्य से) चंद आर्थि‍क सुविधाएं तथा श्रम की परिस्थितियों में कुछ बेहतरी हासिल कर पाये। मजदूर वर्ग के नजरिए से मजदूर वर्ग को संगठित एवं सामूहिक मोलभाव करने की कानूनी शक्ति व अधिकार देने वाले इन मौजूदा श्रम कानूनों की मजदूर पक्षधरता का बस इतना ही मतलब है।

               दूसरी तरफ, पूंजीपति वर्ग के नजरिए से देखें, तो श्रम की शांतिपूर्वक लूट करने में इन कानूनों ने पूंजीपति वर्ग को काफी सहूलियतें दीं, क्‍योंकि इन ‘मजदूर पक्षधर’ कानूनों ने पूंजी और श्रम के बीच एक सामंजस्य स्‍थापित कर दिया। ये कानून ही इस सामंजस्‍य की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी थे। ये दरअसल पूंजी के खतरनाक नाखूनयुक्त हत्यारे पंजे पर लगे गद्देदार दस्ताने की तरह थे जो  आम मजदूरों को अपने मुख्‍य दुश्‍मन पूंजी के खूंखार चरित्र से अनभिज्ञ बनाये रखने के काम आते हैं। मजदूर यह समझने लगे कि पूंजीवाद उतना बुरा नहीं है कि इसे पलटा जाए। वे यह मानने लगे कि ये कानून हमेशा बने रहेंगे। इस तरह वे अपनी लड़ाई को बस कुछ सुधार व सुविधाएं हासिल करने तक सीमित करते चले गए। मजदूर आंदोलन में अवसरवाद, सुधारवाद और सुविधावाद पनपने का यही मुख्‍य आधार बने जिसके वाहक ये मान्‍यता प्राप्‍त ट्रेड

यूनियन और फेडरेशन बने। आम मजदूरों के इन श्रम कानूनों के इतिहास से परिचित नहीं होने की वजह से, या जानबूझ कर परिचित नहीं कराये जाने की वजह से वे धीरे-धीरे क्रांतिकारी राजनीति से दूर होते गए। मजदूर वर्ग इस तरह वैचारिक रूप से हथियारविहीन हो गया जिसका सीधा फायदा पूंजीपति वर्ग को जब तक संभव हो मजदूर वर्ग को चंद सुविधाएं प्रदान कर पूंजी का सहचर बनाये रखने में मिला।

               इन कानूनों के इतिहास के एक लंबे दौर में मजदूरों को कई अधिकार प्राप्‍त हुए जो श्रम कानूनों का सकारात्‍मक पक्ष है, लेकिन साथ में इसने मजदूरी प्रथा, जो गुलामी का ही एक रूप (उजरती गुलामी) है, को मजबूत, स्वीकार्य, सर्वांगीण तथा कारगर बनाने के काम के अतिरिक्‍त मजदूर वर्ग को वैचारिक व राजनीतिक रूप से पूंजीपति वर्ग का पिछलग्‍गू बनाने में भी बड़ी भूमिका निभाई है, हालांकि हम चाहते तो मजदूर वर्ग की चेतना बढ़ाकर ऐसा होने से एक हद तक रोक सकते थे। लेकिन आज? आज के दौर में पूंजीपति वर्ग स्‍वयं इन कानूनों को खत्‍म करके मजदूर वर्ग को भयानक तकलीफ में डालकर ही सही लेकिन शिक्षित कर रहा है कि पूंजी और श्रम के बीच का अंतर्विरोध हर हाल में असमाधेय ही बना रहेगा। हम पाते हैं कि आम तौर पर 80 के दशक और खासकर 90 के दशक के बाद से पूंजीपति वर्ग और उसकी हिमायती राज्यसत्‍ता के लिए ये श्रम कानून बोझ बन गए। आज तो स्थिति यह है कि पूंजीपति वर्ग अपने खतरनाक पंजे पर लगे गद्देदार दस्तानों एवं इसके अवशेष को जितनी जल्दी हो उतार फेंकने के लिए बेताब है।

 हमले का एक संक्षि‍प्त इतिहास

वैसे तो हमले की बौछार 1991 के बाद और खासकर 2002 में द्वितीय श्रम आयोग द्वारा पेश रिपोर्ट एवं सिफारिशों के बाद शुरू होती है, लेकिन शुरूआती कोशिशें 1980 के दशक से ही होने लगती हैं। इस दौरान  श्रम कानूनों में आज होने वाले मजदूर विरोधी बदलावों को टुकड़ों में लागू करने की छूट देश की सभी सरकारें पूंजीपतियों को देती रही हैं। फिक्‍स्‍ड टर्म एमप्लायमेंट और ठेका प्रथा इसके दो बड़े उदाहरण हैं जो आज औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूरों की नौकरियों के मुख्य आधार बने हुए हैं जबकि लेबर कोड लागू होना अभी बाकी है। दरअसल इन हमलों का एक सुव्यवस्थित क्रम है जिसकी मुकम्‍मल तस्‍वीर खींचकर हम यह साफ-साफ देख सकते हैं कि किस तरह पूंजी और श्रम के बीच के पुराने साहचर्यपूर्ण रिश्ते का भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में अंत हो रहा है, और किस तरह इसकी पूर्णाहुति का यह काल पूंजी की श्रम के ऊपर खुली नंगी तानाशाही एवं फासीवाद कायम करने की राजनीतिक-वैचारिक प्रवृत्तियों के उभार के काल से मेल खाता है। असल में इन्हीं प्रवृत्तियों की छाया ही है जो श्रम कानूनों पर हो रहे इन ताबड़तोड़ हमलों में दिखती है!

               हमें अपनी बात औद्योगिक रोजगार (स्थाई आदेश) कानून, 1946 से शुरू करनी चाहिए जिसके तहत रोजगार को चार श्रेणियों – स्थाई, अस्थाई, कैजुअल तथा प्रोबेशनर (परिवीक्षा के अधीन) – में बांटा गया था। इसमें गौरतलब बात यह है कि इसकी मूल दिशा अस्थाई को स्थाई बनाने की थी। इस तरह स्थाई प्रकृति के काम के लिए स्थाई और अस्थाई एवं आकस्मिक काम के लिए अस्थाई एवं कैजुअल मजदूरों की बहाली का सिद्धांत काम कर रहा था। शोषक व्‍यवस्‍था में इसमें अनियमितता आम बात है, लेकिन तत्‍कालीन परिस्थितियों में 1969 में गठित प्रथम श्रम आयोग द्वारा पेश रिपोर्ट में इसके विरुद्ध कड़ी टिप्पणी की गई जिसके उपरांत कोर्ट द्वारा ऐसी अनियमितता को अनुचित श्रम प्रथा घोषित किये जाने के साथ-साथ 240 दिनों के नियमित तौर पर अस्थाई काम करने के बाद मजदूरों को स्थाई होने या पक्का मजदूर होने का कानून भी बना दिया गया। 

               लेकिन 1980 के दशक के पूर्वार्ध से 240 दिन के कानून पर पार पाने हेतु उलटफेर होने लगे। 1984 में 240 दिन के कानून के लागू रहते हुए भी अस्थाई मजदूरों को पक्का होने से रोकने के लिए उनकी छंटनी करने को आसान बनाया गया। इसके लिए ”निर्धारित अवधि के लिए नियोजन” का नया सिद्धांत (आज के फिक्सड टर्म अनुबंध का भ्रूण रूप) लाया गया जिसमें उस ”निर्धारित अवधि” में बर्खास्त किए गए मजदूर या कर्मचारी को छंटनीग्रस्त मान कर कानूनी राहत पाने की कोई कानूनी व्‍यवस्‍था नहीं दी गई थी। छंटनीग्रस्‍त मजदूर को इसके विरुद्ध न्‍याय पाने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। मकसद था – कैजुअल, अस्थाई तथा बदली मजदूरों को स्थाई या पक्का बनने से रोकना।

               यह विश्वपूंजीवाद के इतिहास का वह दौर था जब उसके सुनहरे काल का अवसान हो गया होता है और उसका संकटकाल शुरू हो चुका होता है। लगभग एक दशक बाद जब 1998 में द्वितीय श्रम आयोग का गठन होता है तो यह हमला और तेज होता है। तब तक सोवियत यूनियन के पतन, नवउदारवाद और साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण से प्रेरित नई आर्थिक नीतियों, WTO, गैट आदि के एक ”नये” साम्राज्‍यवादी युग की शुरूआत हुए 7 वर्ष बीत चुके थे और देश की अर्थव्यवस्था में इन सबका दखल बढ़ता जा रहा था।

               दूसरे श्रम आयोग ने तमाम मजदूरपक्षीय जीती हुई स्थितियों को पूरी तरह पलटना शुरू कर दिया। इसने कहा कि नई परिस्थितियों के मद्देनजर औद्योगिक एवं व्यापारिक सुगमता तथा विकास के लिए नौकरियों के स्थाई कार्यकाल के आधार तर्क को बदलने की जरूरत एक आर्थिक आवश्यकता बन गई है। उसने इसके लिए प्रथम स्टेज के कदम उठाने की सिफारिशें करते हुए ले ऑफ, छंटनी और तालाबंदी के लिए सरकार की अनुमति की अनिवार्यता के प्रावधान वाले औद्योगिक विवाद अधिनियम के अध्याय को ही खत्म करने तथा 20 से कम श्रमिकों वाले प्रतिष्ठानों को श्रम कानूनों की परिधि से बाहर कर देने, यानी इनमें श्रम कानूनों को लागू करने की बाध्यता को समाप्त कर देने की बातें की और सुझाव दिए। आज श्रम कोड में जो प्रावधान किए गये हैं वे तो दरअसल वही हैं जिनकी सिफारिश द्वितीय श्रम आयोग ने दो दशक पूर्व में की थी, लेकिन जिन्हें लागू करने का मौका वाजपेयी सरकार के चुनाव हार जाने की वजह से नहीं मिला, जबकि उनकी जगह बनी यूपीए 1 और यूपीए 2 की मनमोहन सिंह की सरकार में इन प्रावधानों को उतनी शीघ्रता से लागू करने की राजनीतिक‍ शक्ति या प्रतिबद्धता नहीं थी जितनी शीघ्रता से लागू करने की मांग बड़ा पूंजीपति वर्ग कर रहा था। इसलिए तो उन्‍होंने गुजरात से पूरे देश में उभरती फासिस्ट ताकतों के नायक नरेंद्र मोदी को केंद्र की सत्ता सौंप देने का निर्णय लिया। फिलहाल हम इस पर समय नहीं खर्च करना चाहते हैं कि मोदी सरकार ने किस तरह श्रम कानूनों को बदलने की कार्रवाई संसद और संसद के

बाहर की, बस मोदी सरकार की पूंजीपक्षीय ”इच्छा शक्ति” को इंगित करने वाले इस तथ्‍य को यहां मात्र रख देना चाहते हैं कि मोदी ने सरकार बनते ही अपनी पहली कैबिनेट बैठक में ही श्रम कानूनों को द्वितीय श्रम आयोग की अनुशंसाओं के आलोक में पूरी तरह बदल देने का राजनीतिक निर्णय ले लिया था। उसके बाद से कॉर्पोरेट उस राजनीतिक निर्णय को राज्य तथा केंद्र दोनों स्तरों पर लागू करवाने के लिए मोदी की गर्दन पर हमेशा ही सवार रहा। फिर भी जब पहले कार्यकाल में बात नहीं बनी तो पूंजीपतियों ने प्रचार पर अकूत धन खर्च करके प्रचंड बहुमत वाले दूसरे कार्यकाल का तोहफा भी दिया, ताकि कम से कम लोकसभा में कोई दिक्कत नहीं हो। इस तरह सारे विरोधों को नजरअंदाज और यहां तक कि बलपूर्वक दरकिनार करते हुए इसने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में ही 8 अगस्त, 2019 को पहले लेबर कोड यानी ‘मजदूरी संहिता’ को संसद से पारित करवा लिया। फिर बाकी तीनों कोडों को भी इसने कोरोना महामारी के बीच, आपदा में अवसर तलाशने के सिद्धांत के आधार पर, संसद में विपक्ष की अनुपस्थिति में ही 23 सितंबर, 2020 को पारित करवा लिया।

नये लेबर कोड के कुप्रभाव  

कुप्रभावों की बात करें तो सबसे बड़ा कुप्रभाव तो यही है कि संघर्षों के बल पर हासिल 44 कानूनों की एक श्रृंखलाबद्ध व्‍यवस्‍था को इस बेतुके एवं दिखावटी तर्क के आधार पर खत्म कर दिया जाएगा कि इससे व्यवसायगत तथा औद्योगिक विकास एवं पूंजीगत आर्थिक निवेश के लिए आवश्यक सुगमता घटती या प्रभावित होती है। मानो यह कहा जा रहा है कि व्‍यवसाय तथा उद्योग के लाभकारी हितों के अलावा और कोई हित ही नहीं होते हैं! पूंजी के हिमायतियों के लिए सच भी यही है। इसलिए 44 कानूनों को महज 4 श्रम संहिताओं में बदलने की कवायद का असली एवं ठोस कारण इसके अलावा और कुछ नहीं है कि वे स्थाई व संगठित कार्यबल को समाप्त करना, भविष्य के कार्यबल (वर्क फोर्स) को फिक्‍स्‍ड टर्म के अनुबंध पर आधारित कार्यबल में बदलना, छंटनी – ले ऑफ – तालाबंदी के विरुद्ध पहले के कानूनों में मौजूद सुरक्षा को पूरी तरह से समाप्त करना, ठेकेदारी प्रथा का स्थायीकरण करना, ठेका श्रमिकों के अधिकारों को भी येन-केन-प्रकारेण कुचलना तथा जुझारू ट्रेड यूनियनों एवं मजदूर संगठनों को अक्षम तथा पंगु बनाना एवं अमान्य करना, आदि चाहते हैं। आइए, इन कुप्रभावों को एक-एक कर के समझें। 

1.            स्थाई कार्यबल का खात्मा

1970 तक उद्योगों में फोर्ड प्रणाली के अंत और फिर बाद में आउटसोर्सिंग प्रणाली के उदय के साथ फिक्‍स्‍ड टर्म एमप्लायमेंट के कानूनी सिद्धांत के तार जुड़े हैं, जिसके तहत अंतिम उत्पाद को छोटे-छोटे व अलग-अलग भागों या पुरजों में बांट कर इसके उत्पादन के काम को अलग-अलग तथा छोटे-छोटे निर्माताओं, जिन्हें वेंडर कहा जाता है, को सौंप देने का प्रचलन शुरू हुआ, जिसके अंतर्गत मुख्य निर्माता के द्वारा टुकड़ों में भेजे जाने वाले ऑर्डर के आधार पर उत्पादन कि‍या जाता है। जाहिर है, इसके बाद बड़े विशालकाय कारखानों की ही नहीं, अपितु स्थाई रोजगार के पुराने सिद्धांत की जरूरत और प्रासंग‍िकता भी पूंजीपति वर्ग के लिए खत्म‍ हो गई। पूंजीपति वर्ग की तरफ से स्थाई रोजगार पर हमला करने की भौतिक पृष्ठभूमि यहां से शुरू होती है।

               आउटसोर्सिंग प्रणाली और इसके साथ-साथ पनपे फिक्‍स्‍ड टर्म अनुबंध आधारित रोजगार लचीलेपन की नीति का उत्पादक शक्तियों और पहले के बड़े उद्योगों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। बड़े उद्योग बंद होने लगे और कुकुरमुत्ते की तरह उग आये स्वेट शॉप्स ने उनकी जगह ले लीं जहां न तो स्थाई रोजगार है और न ही पुराने श्रम कानूनों से बचाव की कोई व्‍यवस्‍था। वहां बेरोजगारी और गरीबी-भुखमरी से त्रस्‍त किसी तरह जिंदा रह रही औद्योगिक रिजर्व सेना बिना किसी शर्त के बस किसी तरह दो जून की रोटी का जुगाड़ करने हेतु पूंजी का पहाड़ खड़ा करने में लगी रहती है। वहां बस मालिकों एवं पूंजीपतियों की मनमर्जी चलती है। यहां ले ऑफ, तालाबंदी, छंटनी, डिसमिसल, डिस्चार्ज और रिट्रेंचमेंट, आदि जैसे मजदूरों को दबाने के लिए प्रयोग में आने वाले पूंजीपतियों के पुराने हथियारों की जरूरत भी नहीं पड़ती है! श्रम कानून इन क्षेत्रों में पहले ही बहुत बड़े हद तक आउटमोडेड हो चुके हैं।

               जहां तक पुराने पब्लिक सेक्टर के उद्योंगों की बात है, तो उन्हें भी अंदर ही अंदर ठेकेदारी प्रथा को लागू कर इसी ओर हांका जा रहा है। नये लेबर कोड के लागू होने के बाद कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं बचेगा। हम यहां से अंदाजा लगा सकते हैं कि उत्पादक शक्तियों की बर्बादी और लूट का तब कैसा  हृदयविदारक मंजर होगा।

               इस पद्धति ने जुझारू यूनियनों की हालत पतली कर दी है। फिक्‍स्‍ड टर्म वाली नौकरी में लगे मजदूर अब यूनियन से मेलजोल कायम करने में भी डरते हैं। उन्‍हें बाजाप्‍ता  मालि‍कों द्वारा धमकाया जाता है। मजदूरों को उस रास्‍ते से होकर भी नहीं जाने दिया जाता है जिधर कोई मजदूर हड़ताल या जुलूस प्रदर्शन और धरना हो रहा हो। हालांकि यह भी सच है कि इससे पूंजी और श्रम के बीच का अंतर्विरोध तेज हो रहा है और मजदूर की पूंजी विरोधी लड़ाई के लि‍ए जमीन तैयार हो रही है। इसलिए जहां के मजदूरों ने यूनियन बनाने या संघर्ष करने की ठान ली है वे इसमें सारी दिक्‍कतों के बावजूद सफल भी हुए हैं। इसमें आगे और तेजी ही आएगी। आखिर मजदूर कितने दिनों तक लड़ाई लड़ना बंद रख सकते हैं?

2. पुराने मजदूरी कानून और औद्योगिक संबंध से जुड़े श्रम कानूनों पर प्रभाव

स्थाई रोजगार के बाद लेबर कोड का मुख्‍य हमला इन्हीं दो पुराने कानूनों पर पड़ने वाला है; ठेका मजदूर अब स्थायी रोजगार की मांग या ऐसा कोई दावा ही नहीं कर सकेंगे। इसके अतिरिक्त, कार्यदिवस 8 के बजाय 9 घंटे के होंगे और इसे सरकार की मर्जी से 12 घंटे तक बढ़ाया भी जा सकेगा। बोनस के लिए मजदूरों को अयोग्य करने के उपाय तैयार किए गए हैं, जैसे यह कि ”दंगाई और हिंसक व्यवहार वाले वर्कर्स को बोनस के लिए अयोग्य घोषित किया जाएगा।” यह भी कहा गया है कि ”चोरी करने और कारखाने की संपत्ति को नुकसान करने वाले को भी बोनस के लिए अयोग्य घोषित किया जाएगा।” आज के समय में मजदूरों पर ऐसे आरोप लगाना मालिकों के लिए कितना आसान है हम जानते हैं।

          

इसी तरह औद्योगिक संबंध संहिता का सीधा हमला यूनियनों पर और मजदूरों के संघर्षों पर पड़ेगा जैसा कि पहले भी कहा गया है; आधे या आधे से अधिक कर्मचारियों द्वारा ली गई आकस्मिक छुट्टी, जो हड़ताल पर जाने के पहले मजदूरों के पास अपने संघर्ष को तीव्र करने का एक कारगर हथियार रही है, को हड़ताल माना जाएगा और इसलिए इसे गैर-कानूनी बना दिया गया है; इसी तरह 51 प्रतिशत मजदूरों या कर्मचारियों के समर्थन के बिना कोई यूनियन मान्यता प्राप्त नहीं हो सकेगा; 300 से कम मजदूरों वाले प्रतिष्ठानों में ले ऑफ करने के लिए सरकार से किसी तरह की कोई अनुमति की जरूरत नहीं होगी; अगर कोई विवाद चल रहा है तो उस समय भी मालिक ”हायर एंड फायर” के प्रावधान का उपयोग कर मजदूरों को निकाल बाहर कर सकेगा; नये औद्योगिक संबंध के तहत फिक्‍स्‍ड टर्म एमप्लायमेंट अब कानूनी प्रावधान बन जाएगा; इसी तरह अवैध (14 दिनों की पूर्व सूचना दिए बिना बुलाई गई) हड़ताल करना, इसमें भाग लेना या उसकी मदद करना आदि अब औद्योगिक संबंध कोड का उल्लंघन बन जाएगा और इस आधार पर यूनियन का निबंधन रद्द किया जा सकता है जबकि पहले ऐसा एकमात्र ट्रेड यूनियन ऐक्ट का उल्लंघन करने पर होता था। साफ मतलब है कि लेबर कोड लागू होने के बाद कानूनी रूप से वैध हड़ताल करना और यूनियन चलाना दोनों लगभग असंभव होगा।

               जहां तक पेशागत सुरक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य  और कार्य स्थितियां संहिता, 2020 की बात है तो इसके तहत मुख्य बदलाव यह होगा कि महिला मजदूरों व कर्मचारियों की असुरक्षा बढ़ जाएगी, क्‍योंकि उन्‍हें भी रात्रि पाली में बिना किसी समुचित सुरक्षा व्यवस्था के काम करने को कहा जाएगा, यानी  बाध्य किया जाएगा।

               दूसरी तरफ, मजदूरों के संगठनों द्वारा लंबे समय से उठाई जा रही जायज मांगों (जैसे कि समान काम की समान मजदूरी, आदि) को बिल्‍कुल ही नकार दिया गया। ठेका और स्‍थाई मजदूरों के बीच समानता की मांग की गई तो ठेकेदार को ही नियोक्‍ता बना दिया गया! न्‍यूनतम मजदूरी के निर्धारण में स्‍वीकृत फार्मूले को लागू करने की मांग की गई, तो एक और नया फार्मूला ले आया गया जो न्‍यूनतम मजदूरी की माप करने में पक्षपात करने वाला फार्मूला है! नौकरी की सुरक्षा की मांग की गई तो थोपी गई असुरक्षा को ही कानून (नीम ट्रेनी, फिक्‍स्‍ड टर्म, हायर एंड फायर) बना दिया गया! फैक्टरियों में धड़ल्‍ले से की जा रही श्रम कानूनों की अवहेलना की श्रम विभाग द्वारा सख्‍ती से समुचित एवं नियमित जांच की मांग की गई, तो श्रम निरीक्षकों से मजदूरों की शिकायत पर औचक निरीक्षण करने की तो बात दूर, उससे जांच करने का पावर ही छीन लिया गया और उसे निरीक्षक से फसलि‍टैटर (facilitator – समन्‍वयक या सहयोगकर्ता) बना दिया गया।   निष्‍पक्ष न्‍याय की गारंटी करने की मांग की गई तो स्‍वतंत्र न्‍यायि‍क प्रक्रिया की जगह न्‍यायाधिकरण थोप दिया गया जिसमें जज नहीं नौकरशाह बैठेंगे! 

               तो स्थिति बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट है। लेबर कोड से कमजोर हुए यूनियन का प्रभाव मजदूरों पर ही पड़ने वाला है। चाहे कोई भी मसला हो, मजदूर यूनियन से जुड़ने या लड़ने में काम से निकाले जाने के डर से हिचकिचाएंगे। जैसे कि, कहा जा रहा है कि न्यूनतम वेतन के लिए केंद्र सरकार राष्ट्रीय स्तर पर एक नियत फ्लोर मजदूरी या वेतन तय करेगी जिसके नीचे मजदूरी देने का प्रावधान नहीं होगा और इसका उल्लंघन राज्य सरकारें भी नहीं कर सकेंगी। लेकिन ये महज जुमले हैं, क्योंकि न्‍यूनतम मजदूरी कितनी तय होगी इस पर मजदूरों का कोई जोर नहीं है। यह पहली बात हुई। दूसरे, अगर यह मान भी लिया जाए कि हमारे मन लायक वेतन तय हो गया है तो मालिकों द्वारा लागू नहीं करने की हालत में इसे हासिल करने के लिए मजदूरों के पास ताकत कहां से आएगी? ”फिक्‍स्‍ड टर्म एमप्लायमेंट” और ”हायर एंड फायर” के प्रावधानों के रहते वे न तो मांगों के लिए स्वयं आवाज उठा पाएंगे और न ही यूनियन से ही जुड़ पाएंगे ताकि कोई और उनकी आवाज उठा सके।

 3. नई परिभाषाओं व शब्दावलियों से पड़ने वाले प्रभाव

समझौता, औद्योगिक विवाद, ठेकेदार और नियोक्ता की परिभाषा बदल दी गई है जिसके मजदूर पर अत्‍यंत ही दूरगामी और अत्यंत ही घातक प्रभाव पड़ेंगे। पहले औद्योगिक विवाद (डिसमिसल और डिस्चार्ज को छोड़कर) का मतलब सामूहिक विवाद होता था। इसी तरह समझौता भी, जो एक सामूहिक विवाद के हल होने का परिणाम है, सामूहिक समझौता होता था। इससे मजदूरों की एकता और ताकत की मजबूती बनी रहती थी। अब नई परिभाषा के अनुसार, एक अकेला श्रमिक‍ भी प्रबंधन के साथ किसी भी तरह के विवाद को लेकर व्‍यक्तिगत समझौते में जा सकता है या कर सकता है। यानी, समझौते की नई परिभाषा के अनुसार, अब नियोक्ता फिक्‍स्‍ड टर्म अनुबंध पर रखने मात्र ही नहीं, अपितु हर फिक्‍स्‍ड टर्म मजदूर से अलग-अलग समझौता करने के लिए भी आजाद होगा। इस तरह प्रकारांतर में हर मजदूर अकेला हो जाएगा और जाहिर है ऐसे में पूंजीपति वर्ग के आगे उसकी हैसि‍यत कुछ भी नहीं रह जाएगी। मार्क्‍स ने कहा था, मजदूर अगर संगठित नहीं है तो कुछ भी नहीं है। वह भयंकर मनमानी एवं  शोषण का शिकार होगा।

               इसी तरह ठेकेदार की परिभाषा भी बदल दी गई है। पहले से ही मजदूर नियोक्ता द्वारा नियुक्त फर्जी ठेकेदारों की समस्या से जूझ रहे थे, लेकिन अब ठेकेदार की नई परिभाषा के बाद यह लड़ाई असंभव बन जाने वाली है, क्‍योंकि अब ”एकमात्र मानव श्रम मुहैया कराने वाला व्यक्ति” भी, ”बिना किसी निर्धारित परिणाम मुहैया कराने का ठेका लिए बिना ही” कानून सम्मत ठेकेदार माना जाएगा। यानी फर्जीवाड़े को ही कानूनसम्‍मत बनाने वाली परिभाषा दे दी गई है। इस तरह फर्जी ठेकेदारों की बाढ़ आ जाएगी और उन्हें फर्जी साबित करना असंभव हो जाएगा। लेकिन सबसे बड़ी बात यह होगी कि मानव श्रम खुलेआम व्यापार की चीज बन जाएगा, जिससे मजदूरों को खरीदे-बेचे जाने की नई परंपरा विकसित होगी। यही मजदूरों को मध्य युगीन गुलामी की ओर ले जाने वाली नीति जो लेबर कोड में निहित है जिसके बारे में हम मजदूरों को लगातार आगाह करते आ रहे हैं।   

               इसी तरह नियोक्ता की परिभाषा भी बदल दी गई है। दरअसल नई परिभाषा के तहत ठेकेदार भी नियोक्ता ही कहलाएंगे। यानी अब दो-दो नियोक्ता‍ होंगे। इसका मतलब यह है कि अगर कल को पीएफ अंशदान के भुगतान में हेराफेरी होती है तो मजदूरों को असली नियोक्ता और ठेकेदार दोनों के चक्कर काटने होंगे। लेकिन मूल परेशानी की बात यह है कि‍ ठेका श्रम अधिनियम, 1971 के तहत मजदूरों को

मिलने वाला संरक्षण मिलना बंद हो जाएगा। कुल मिलाकर यह विवाद खड़ा होगा कि वे न तो परमानेंट माने जाएंगे और न ही ठेका मजदूर। हालांकि इस कानून को लागू होने की सीमा को 20 मजदूर से बढ़ाकर 50 कर दिया गया है, यानी 70 से 80 प्रतिशत मजदूर वैसे ही कानून के दायरे से अलग कर दिए गए हैं। यानी, परमानेंट या कि ठेका का झंझट ही खत्‍म कर दिया गया है।

               उद्योग की बात पर आइए। इसकी परिभाषा को भी बदल दिया गया है। नये बदलाव के अनुसार उन संस्थानों व प्रतिष्ठानों को उद्योग के दर्जे से मुक्‍त या बाहर कर दिया गया है जो किसी तरह के सामाजिक कार्य, धर्म या परोपकार के काम में लगे हुए हैं। ये शब्‍द (सामाजिक, परोपकार, परमार्थ, आदि) इतने व्‍यापक अर्थ लिए हएु हैं कि बहुत बड़ी संख्या में औद्योगिक प्रतिष्ठान, जो आज की तारीख में उद्योग के कैटेगरी में शामिल हैं, वो बाहर हो जाएंगे और उन पर ये कोड या कानून लागू ही नहीं होंगे। मालिकों के मौज ही मौज होंगे। 

4. सामाजिक सुरक्षा की पीटी जा रही ढोल और असलियत

असंगठित क्षेत्र के मजूदरों को लेबर कोड के जरिए मिलने वाली सामाजिक सुरक्षा को खूब बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है। लेकिन ये अधिकांश फर्जी बातें ही हैं। निर्माण मजदूरों को लें। 1996 में केंद्र सरकार द्वारा पारित ‘भवन व अन्य निर्माण मजदूर अधिनियम’ और फिर 2008 में बने असंगठित क्षेत्र मजदूर अधिनियम का क्या बुरा हस्र हुआ है हम जानते हैं।

               हम यह बता चुके हैं कि यूनियनों का श्रम कोड (औद्योगिक संबंध संहिता) का उल्लंघन करने पर दंडस्वरूप निबंधन रद्द करने का प्रावधान पारित किया जा चुका है जिसका मतलब यह होगा कि यूनियन भी एक सीमा के बाद संघर्ष से भागेंगे। दलाल यूनियनों की चांदी होगी।

               जहां तक गिग मजदूरों, ठेका मजदूरों और यहां तक कि स्वरोजगार में लगे लोगों को भी सामाजिक सुरक्षा संहिता के दायरे में यानी पीएफ आदि के दायरे में लाने की बात की गई है तो  इसका भी वास्‍तविक एवं मुख्‍य उद्देश्य सरकार की कमाई बढ़ाना है न कि मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना। जैसे कि, पहले की तुलना में अब और ज्यादा मजदूरों से उनके पीएफ अंशदान के रूप में धन एकत्रित करने का अवसर मिलेगा।

               सरकार के आंसू घड़ि‍याली आंसू हैं इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि मोदी सरकार ने पीएफ मद में अंशदान हेतु वेतन से कटौती की दर 12 प्रतिशत से 10 प्रतिशत कर दी है, वह भी इस धोखेबाजी के साथ कि मजदूरों के टेक-होम वेतन का ज्यादा होना मजदूरों के पक्ष में है, जो कि गलत है।  इसके पीछे का खेल यह है कि इस नये प्रावधान के जरिए पूंजीपतियों की जेबें गरम की जा रही हैं। वह इस तरह कि एक मजदूर जितनी अतिरिक्त रकम अपने घर ले जाएगा उतने के बराबर की रकम (उसका अपना नहीं अपितु वह रकम जो पूंजीपतियों द्वारा उसके पीएफ खाते में जमा कराया जाता है) उसके पीएफ खाते में से कम हो जाएगी, क्‍योंकि पूंजीपति भी अब घटे दर से ही पीएफ में अंशदान देगा। इस तरह मोदी ने पूंजीपतियों को मजदूरों के पीएफ खाते से हजारों करोड़ रुपये डकार लेने का मौका दे दिया है।   

               सा‍थियो! इस तरह हम देख पा रहे हैं कि नये लेबर कोड से मजदूर किस तरह के शोषण एवं उत्पीड़न के शिकार होंगे। यहां तक‍ कि मजदूर यूनियन भी उत्पीड़ि‍त होंगे। हम पाते हैं कि पक्की नौकरी पूरी तरह खत्म कर दी जाएगी और यही मुख्य हमला है। नौकरी ही पक्कीं नहीं है तो किसी अन्‍य सुविधा का कोई खास मतलब नहीं रह जाता है। यूनियनों के टिके रहने का भौतिक आधार भी इससे खत्‍म हो जाएगा।

               लेकिन जैसा कि पहले भी लिखा गया है, मजदूर बहुत दिनों तक चुप बैठे नहीं रह सकते हैं और हम पाते हैं कि आज भी मजदूर जहां भी हैं लड़ रहे हैं वहां सारी मुश्किलों के बावजूद जीत भी रहे हैं। जुझारू एवं क्रातिकारी यूनियन भी सक्रिय हैं, बल्कि यह कहना सही होगा कि ज्‍यादा जोर लगाकर सक्रिय हैं। इसलिए हमें पूरा विश्‍वास है कि मजदूर एक न एक दिन न सिर्फ इन हमलों को नाकाम करेंगे अपितु नई दुनिया भी बनाऐंगे। 

               इसलिए आइए,आगामी 28-29 मार्च को आहूत हड़ताल,जो इन्‍हीं घोर मजदूर विरोधी श्रम संहिताओं को रद्द करने की केंद्रीय मांग पर आधारित है, को सफल बनाने में लगें और मोदी सरकार को इसके माध्यम से एक स्पष्ट चेतावनी दें कि मजदूर वर्ग पर यह हमला आधुनिक सभ्‍यता के मानदंडों तथा मानवीय गरिमा के एकदम विरुद्ध है, और इसलिए हर हाल में, आज नहीं तो कल, इन्हें वापस लेना होगा।

               इसके अतिरिक्त हम मजदूर वर्ग से यह अपील भी करना चाहेंगे कि वे इन हमलों के कारणों को संपूर्णता में तथा गहराई से समझें तथा उनकी तह में जाएं। एकमात्र तभी वे यह समझ पाएंगे कि बड़ी तथा वित्तीय पूंजी की हिमायत करने वाली सरकार व राज्यसत्ता, जो हमारी छाती पर मूंग दल रही हैं, को संपूर्णता में और माकूल चुनौती दिये बिना हम ऐसे बर्बर हमलों को रोक पाने में सफल नहीं हो पाएंगे।

               आइए, हम मजदूर वर्ग के बतौर अपने अस्ति‍त्व को बचाने की लड़ाई में विजयी होने के लिए इन चारों श्रम कोडों की वापसी के लिए जी जान लगा दें और हड़ताल को सफल करें । (जन अभियान, बिहार द्वारा अखिल भारतीय मजदूर हड़ताल के समर्थन में 25 मार्च 2022 को आयोजित कन्वेंशन में पेश आलेख)