झारखंड की स्थानीयता नीति: बाहरी और मूलवासी का द्वंद्व
May 9, 2022अमिता कुमारी
झारखंड में पिछले तीन महीनों से लगातार विरोध प्रदर्शनों का दौर चल रहा है। स्थानीयता और मूलवासी के प्रश्नों पर दो विरोधी खेमे बने हुए हैं, जिनके बीच समझौते की कोई संभावना फिलहाल नज़र नहीं आ रही है। इन परिस्थितियों की शुरुआत पिछले वर्ष दिसंबर में होती है जब राज्य सरकार जिले स्तर की तृतीय एवं चतुर्थ वर्गीय नौकरियों के लिए स्थानीय भाषा की सूची में भोजपुरी, मैथिली, अंगिका और मगही भाषाओं को शामिल करने की घोषणा करती है। धनबाद, बोकारो, पलामू तथा रांची में आदिवासी एवं मूलवासी संगठनों ने इसका जमकर विरोध किया. उनका यह मानना था कि यह भाषाएँ झारखंड के बाहरी लोगों की है, तथा इनके शामिल किए जाने से सरकारी नौकरियों में बाहरी लोगो का कब्जा हो जाएगा। बाहरी और मूलवासी के बीच का यह संघर्ष भाषा के प्रश्न पर नहीं रुका और फरवरी आते आते इसके साथ स्थानीयता का गंभीर व जटिल प्रश्न जुड़ गया। पूरे फरवरी और मार्च झारखंड के विभिन्न स्थानों पर कई विरोध प्रदर्शन, बैठकें एवं रैलियाँ आयोजित की गईं। विभिन्न आदिवासी व मूलवासी संगठन एक मंच पर आए तथा वे 1932 के खतियान पर आधारित स्थानीयता नीति के लागू किए जाने की लगातार व पुरजोर मांग कर रहे हैं। यह मांग जहां कई मायने में विवादित है, वहीं अस्मिता के प्रश्न से जुड़े होने के कारण यह बेहद संवेदनशील भी है। प्रस्तुत लेख में हम झारखंड में स्थानीयता के प्रश्न के इतिहास, उससे जुड़ी विसंगतियों और इस प्रश्न के समाधान से जुड़ी संभावनाओं का विश्लेषण करेंगे।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
झारखंड में स्थानीयता का मुद्दा एक ऐसा असुलझा प्रश्न है जिसका इतिहास झारखंड राज्य के अस्तित्व से भी पुराना है। झारखंड राज्य की स्थापना वर्ष 2000 में हुई। इसका गठन एक लंबे आंदोलन के तहत हुआ था जिसके केंद्र में झारखंड वासियों के संयुक्त बिहार में हो रहे हाशियाकरण की समस्या थी। उपेक्षा व भेदभाव का हल निकालने के लिए झारखंड के गठन के तुरंत बाद, सन 2002 में तत्कालीन राज्य सरकार ने वर्ष 1932 के भू-सर्वेक्षण को आधार बनाते हुए स्थानीयता की नीति की घोषणा की। इस घोषणा ने झारखंड में मौजूद सामाजिक दरारों को, जो फिलहाल झारखंड बनने के उत्साह में दबे पड़े थे, दोबारा ज़ाहिर कर दिया। इस नीति के अनुसार वर्ष 1932 के खतियान (भू-स्वामित्व के रिकॉर्ड) मे जिन झारखंड वासियों या उनके पूर्वजों का नाम दर्ज़ होगा, उन्हें ही झारखंड का स्थानीय निवासी माना जाएगा, तथा वे ही तृतीय एवं चतुर्थ वर्गीय सरकारी नौकरियों, तथा तकनीकी शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए योग्य माने जाएंगे। इस घोषणा से पूरे झारखंड में मानो हलचल सी आ गयी। करीब एक महीने ‘मूलवासी’ और ‘बाहरी’ की अस्मिता के प्रश्न पर विवाद और झड़पें होती रहीं। 1932 की स्थानीयता के पक्षधर विभिन्न समूहों का नेतृत्व करने वाले झारखंड मूलवासी जनाधिकार मंच और विपक्षी संगठन, झारखंड उपेक्षित युवा मंच, के बीच गंभीर झड़पें हुई। धनबाद, बोकारो, रांची और जमशेदपुर इनके प्रमुख केंद्र थे। इस आपसी टकराव में करीब छह लोगों को जान गंवानी पड़ी और सैकड़ों घायल हुए। मामला कोर्ट पहुंचा, और झारखंड उच्च न्यायालय ने इस स्थानीयता नीति को खारिज कर दिया। तत्कालीन झारखंड सरकार की बढ़ती अलोकप्रियता के कारण मुख्यमंत्री बाबूलाल मराण्डी को इस्तीफा देना पड़ा।
बाबूलाल मराण्डी द्वारा 2002 में लायी गयी यह नीति असल में 1982 में तत्कालीन संयुक्त बिहार की सरकार द्वारा स्थानीय लोगों की गहराती उपेक्षा के प्रश्न को हल करने के लिए बनाई गयी योजना का ही संशोधित रूप थी। 1960 तथा 70 के दशकों में झारखंड में औद्योगीकरण की प्रक्रिया में तेज़ी आई तथा कोयला खनन का राष्ट्रीयकरण भी हुआ। इस दौर में बड़ी तेज़ी के साथ उत्तरी बिहार के लोग रोजगार के लिए दक्षिण बिहार (वर्तमान झारखंड) में बसने लगे। झारखंड में प्रवास के विषय पर शोध करने वाले निर्मल सेनगुप्ता (2014) बताते हैं कि 1971 में कोयला खनन के राष्ट्रीयकरण के पहले खदानों में काम की परिस्थितियाँ बेहद शोचनीय थीं, तथा इनमें अधिकांश झारखंड के स्थानीय लोग ही कार्यरत थे। परंतु, राष्ट्रीयकरण के ठीक बाद जैसे ही परिस्थितियों में बेहतरी की संभावनाएं बढ़ीं, धनबाद से हजारों टेलिग्राम आरा, बलिया, छपरा, जैसे शहरों में भेजे गए। उत्तरी बिहार के लोग झारखंड के क्षेत्रों में पहुंचे और स्थानीय झारखंड वासी बेदखल कर दिए गए। ऐसा माना जाता है कि इस दौरान करीब 50,000 झारखंडी मजदूरों को कोयला खनन के रोजगार से हाथ धोना पड़ा। सेनगुप्ता आगे बताते हैं कि किस प्रकार मौजूदा नियमों का उल्लंघन करते हुए इस समय शिक्षण संस्थानों में तृतीय व चतुर्थ वर्गीय पदों पर उत्तरी बिहारियों को बैठाया गया। इन्हीं परिस्थितियों के बीच 1982 में तत्कालीन बिहार सरकार ने विकास की प्रक्रिया में उपेक्षित रह गए स्थानीय लोगों के लिए जिले स्तर पर ‘स्थानीय’ को परिभाषित करते हुए अंतिम भूमि सेटलमेंट को आधार बनाया तथा उन्हें निम्न स्तरीय नौकरियों में प्राथमिकता देने की बात की। इस नीति को हालांकि कभी अमली जामा नहीं पहनाया गया। ठंडे बस्ते में दबी इस नीति को 2002 में बाबूलाल मराण्डी ने लागू करने की कोशिश की, जिसे अंततः न्यायालय ने निरस्त कर दिया। बाद की सरकारों ने इस मामले को दोबारा छेड़ने से परहेज किया। पर 2016 में रघुबर दास की सरकार ने एक नयी स्थानीयता नीति की घोषणा की, जिसमें छह मापदंड रखे गए और वर्ष 1985 को आधार बनाया गया।इस लचीली नीति ने ऐतिहासिक रूप से उपेक्षित झारखंड के मूलवासी समुदाय में असुरक्षा की भावना को तीव्र कर दिया। इसका जमकर विरोध हुआ, तथा इसे भी कभी लागू नहीं किया गया। 2019 में हुए विधान सभा चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) पार्टी ने चुनावी वायदा करते हुए स्थानीयता नीति लागू करने की बात रखी, तथा पार्टी के पितामह माने जाने वाले शिबू सोरेन ने 1932 के खतियान आधारित नीति के लाए जाने की घोषणा भी कर दी। झामुमो ने सरकार तो बनाया पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने स्थानीयता प्रश्न से कोई छेड़-छाड़ नहीं की। पर 2022 के आरंभ में जब भाषा विवाद गहराया, तब स्थानीयता नीति लागू किए जाने की मांग ने दोबारा ज़ोर पकड़ा। जनता के बीच बढ़ते रोष के बीच हेमंत सोरेन के लिए यह ज़रूरी हो गया कि वह सरकार का पक्ष रखे। फिलहाल इस मामले पर सोरेन सरकार ने कोई स्पष्ट मत नहीं दिया है, परंतु हेमंत सोरेन ने इस बात की ओर इशारा ज़रूर किया है कि वर्ष 1932 की विभाजन रेखा पर विचार किया जाएगा। झारखंड उच्च न्यायालय द्वारा 2002 में स्थानीयता नीति को खारिज करने के पीछे सबसे बड़ा कारण 1932 खतियान से जुड़ी विसंगतियाँ थीं, जिनका हवाला हेमंत सोरेन भी दे रहे हैं। इस आलेख के अगले हिस्से में हम इन्हीं विसंगतियों की चर्चा करेंगे।
स्थानीयता नीति संबंधी विसंगतियाँ
‘स्थानीय’ के वर्ग को परिभाषित करना एक जटिल समस्या है। हाल के दिनों में भारत के विभिन्न राज्यों, खासकर नवनिर्मित राज्य (झारखंड, उत्तराखंड, तेलंगाना, इत्यादि), में यह प्रश्न अधिक पेचीदा बनकर उभरा है। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत के पुराने राज्य जो भाषायी आधार पर गठित हुए वहाँ भेद-भाव के कारणों की पहचान के लिए भाषायी अस्मिता को आधार बनाया जा सका, परंतु नवनिर्मित राज्य जो ‘भेद-भाव’ के आधार पर ही बने, वहाँ भेदभाव के कारकों की निश्चित शिनाख्त कर पाना मुश्किल है। ऐसे में झारखंड जैसे राज्य में ‘मूलवासी-बाहरी’ के प्रश्न पर ऐतिहासिक भेद-भाव के हल ढूँढने की कोशिश की जाती है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि संयुक्त बिहार के झारखंड क्षेत्र में रह रहे स्थानीय और आदिवासी लोगों की गंभीर उपेक्षा हुई है। स्टुअर्ट कोरब्रिज (1988) जैसे समाज विज्ञानी बताते हैं कि झारखंड क्षेत्र में हमेशा से पड़ोसी क्षेत्रों से प्रवास हुआ है, परंतु 1931 के बाद यह कई गुना बढ़ गया। पिछले खंड में भी हमने उन आंकड़ों को देखा जो बाहरी लोगों द्वारा स्थानीय समुदायों की बेदखली को रेखांकित करते हैं। इसके अलावा इससे जुड़ा एक अन्य तथ्य उल्लेखनीय है – झारखंड में आदिवासियों की लगातार घटती जनसंख्या। अरूप महारत्ना (2004), जिन्होंने 1951 से 1991 के बीच झारखंड की जनसंख्या का अध्ययन किया है, बताते हैं कि 1950 के दशक में जहां आदिवासियों की संख्या झारखंड क्षेत्र की कुल जनसंख्या के 36% थी, वहीं 1990 के दशक में यह कम होकर 27% रह गई। चौंकाने वाली बात यह है कि झारखंड में आदिवासियों की संख्या में यह गंभीर कमी अखिल भारतीय स्तर पर आदिवासियों के वृद्धि दर से मेल नहीं खाते हैं। इसके अलावा यह दुखद है कि आदिवासियों की जनसंख्या में यह कमी उस समय हो रही है जब झारखंड में शहरीकरण और औद्योगीकरण गति ले रहे हैं।
आदिवासियों की घटती जनसंख्या निश्चित तौर पर आदिवासी समुदाय के हाशिएकरण की कहानी बयां करते हैं। विशेषज्ञों की राय है कि इसके दो मुख्य कारण हो सकते हैं – पहला, आदिवासियों में घटती जन्म दर व बढ़ती मृत्यु दर, तथा दूसरा, बड़ी संख्या में रोजगार की तलाश में आदिवासियों का झारखंड से पलायन।
हम यह जानते हैं की झारखंड राज्य का गठन आदिवासियों के अलग राज्य के रूप में नहीं किया गया; झारखंड आंदोलन आदिवासी व गैर-आदिवासियों की साझा मुहीम थी। पर आदिवासियों के लिए एक होमलैंड (गृह-भूमि) और आदिवासी हाशियाकरण जैसे मुद्दे, झारखंड आंदोलन में केन्द्रीय विचार के रूप में विद्यमान थे। इस लिहाज से झारखंड में स्थानीयता का मुद्दा आदिवासी हित के वृहत प्रश्न से भी गहराई से जुड़ जाता है, जो इसे और संवेदनशील बनाता है।
झारखंड में आदिवासियों तथा स्थानीय लोगों की उपेक्षा के लंबे अतीत के संदर्भ में स्थानीयता के प्रश्न का उत्तर ढूँढना वाकई एक ऐतिहासिक ज़रूरत है। लेकिन स्थानीयता का आधार तय करने के लिए फिर से ऐतिहासिक परिस्थितियों को ही ध्यान में रखना होगा और उन विसंगतियों को रेखांकित करना होगा जो कई नए प्रश्नों को जन्म देती हैं। जैसे, क्या 1932 के खतियान को आधार बनाया जा सकता है, जबकि हम जानते हैं कि झारखंड के कई जिलों में अंतिम सर्वे-सेटलमेंट 1932 के पहले और कई में उसके बहुत बाद हुए हैं? कुछ जिलों में 1887, 1894, 1910, 1915, 1920 में अंतिम बार सेटलमेंट हुए हैं और कई में 1964 तक सेटलमेंट चले। पलामू में तो 1997 में सेटलमेंट पूरे किए गए। ऐसी परिस्थिति में 1932 का वर्ष पूरे झारखंड पर एकरूपता से लागू करना बिलकुल अव्यवहारिक होगा। दूसरे, अगर 1932 को ही आधार बनाया जाता है, तो 1932 से अब तक करीब सौ वर्षों में एक ज़मीन कई बार बिकी है, कई हिस्सों में बंटी है। भारत जैसी विशाल जनसंख्या जिसमें मौजूद अधिकांश उपेक्षित जनता अशिक्षित भी है, जहां अपर्याप्त तकनीकी संसाधन हैं, और जहां भ्रष्ट अधिकारियों की एक बड़ी संख्या है, वहाँ स्वामित्व से जुड़े इन तमाम आंकड़ों और जटिलताओं का रिकार्ड रखना नामुमकिन है। झारखंड के अखबारों में आए दिन अशिक्षित स्थानीय लोगों की ज़मीनों में भ्रष्ट/अयोग्य अधिकारियों द्वारा लैंड रिकॉर्ड डिजिटाईजेशन के दौरान की गयी गड़बड़ियों की खबरें आती रहती हैं। ऐसे में 1932 जैसी पुरानी तिथि को आधार बनाना अव्यवहारिक होगा। तीसरे, अगर भूमि पर स्वामित्व को ही स्थानीयता का आधार बनाया जाता है, तो भूमिहीन जनता जो हाशिये से भी बाहर जीवन गुज़ार रहे हैं, पूरी तरह से वंचित हो जाएंगे। चौथे, 1932 के बाद झारखंड में रोजगार की तलाश में आया वह मजदूर वर्ग, जिसने किसी तरह अपना आशियाना यहाँ बनाया है और जिसने झारखंड के विकास में अपना श्रम लगाया है, वह एक झटके में ‘बाहरी’ हो जाएगा।
स्थानीयता के निर्धारण की पूरी प्रक्रिया में इन विसंगतियों को अवश्य ध्यान में रखना होगा, नहीं तो हम उन्हीं ऐतिहासिक गलतियों को उन तथाकथित ‘बाहरी’लोगों के लिए दोहराएंगे, जिनकी वजह से कभी स्थानीय समुदायों की बेदखली हुई थी। और यह तय है कि इस प्रक्रिया में बेदखल होने वाले ‘बाहरी’ में अधिकांश संख्या उस सर्वहारा की ही होगी जिसके लिए श्रम की तलाश में प्रवास करना जीवित रहने की मजबूरी होती है। क्या आज झारखंडी-बिहारी मजदूर जो महाराष्ट्र और असम जैसे राज्यों में रोजगार की तलाश में बसेरा बनाए हुए हैं, उन पर भी ‘बाहरी’ होने और रोजगार छीनने का आरोप नहीं लगाया जाता?
यह तय है कि वर्तमान व्यवस्था में कमजोर और विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों के बीच की खाई को पाटने में स्थानीयता का निर्धारण एक कारगर उपकरण हो सकती है, पर साथ यह भी ज़रूरी है कि इससे जुड़ी विसंगतियों की अनदेखी ना हो। लेकिन, यह चर्चा यहाँ खत्म नहीं होती। इन तमाम तर्कों के बीच हमें कुछ और प्रश्नो की पड़ताल करनी होगी – क्या मात्र स्थानीयता के निर्धारण से उपेक्षित और समृद्ध का फासला मिट सकता है? कहीं स्थानीयता केवल एक भ्रामक समाधान तो नहीं, जिसकी आड़ में पूंजीवादी सत्ता की रोटी सेंकी जा रही है? इन प्रश्नों के उत्तर हम आलेख के निम्नलिखित हिस्से में ढूँढने के प्रयास करेंगे।
निष्कर्ष: असल समाधान की तलाश
पिछली चर्चा ने स्थानीयता के औचित्य और ज़रूरत को रेखांकित तो किया, परंतु इसके महत्व का पूर्ण मूल्यांकन तब तक संभव नहीं जब तक मौजूदा रोजगार के अवसरों से इसे ना जोड़ा जाए। स्थानीयता का निर्धारण केवल सरकारी सुविधाओं के लाभ के लिए ज़रूरी नहीं, इसकी मांग के पीछे जो सबसे बड़ा कारक काम कर रहा है वह है नौकरियाँ। जब हम झारखंड के रोजगार के अवसरों पर एक नज़र डालते हैं तो स्थानीयता के निर्धारण का पूरा प्रश्न महत्वहीन जान पड़ता है। स्वयं झारखंड के श्रम – रोजगार मंत्री द्वारा विधान सभा में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार झारखंड के 24 जिलों के 43 रोजगार आफिसों में कुल 6,45,844 युवा पंजीकृत हैं, जिनके पास ना रोजगार है ना बेरोजगारी भत्ता। वे आगे यह भी बताते हैं कि पड़ोसी राज्यों की तुलना में झारखंड सबसे ज्यादा बेरोजगार है और पूरे भारत में बेरोजगारी की दर में झारखंड चौथे स्थान पर है। जब रोजगार ही नहीं हैं तो स्थानीयता का निर्धारण हो या ना हो युवाओं के जीवन में इससे क्या फर्क पड़ेगा?
झारखंड का गठन हुए दो दशक से ऊपर हो गए। जिस ऐतिहासिक उपेक्षा से मुक्ति के लिए और जिन आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए झारखंड का निर्माण हुआ था, उस दिशा में रत्ती भर भी प्रगति नहीं हुई है। झारखंड के पिछले 22 वर्षों का इतिहास असफलता और निराशा की कहानी के अलावा कुछ नहीं। राजनीतिक पार्टियों और उनके पूंजीपति मित्रों के लिए झारखंड संसाधनों की लूट का एक मुनाफेवाला क्षेत्र भर है। जंगल और खनन माफियाओं, अडानी, ज़िंदल और अन्य बड़े कॉर्पोरेट घराने झारखंड को भीतर ही भीतर खोखला कर रहे हैं। रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी आधारभूत आवश्यकताएँ राजनीतिज्ञों और पूँजीपतियों की चिंताओं से कोसों दूर हैं। और यह चिंताएँ आम जनता से भी दूर रहे इसके लिये स्थानीय और बाहरी के द्विआधार को बनाए रखना वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था के अस्तित्व के लिये ज़रूरी है। इसलिए ‘स्थानीयता’ का प्रश्न ऐतिहासिक भेदभाव के समाधान के रूप में कितना भी कारगर क्यों ना लगे, इसके पीछे छिपी राजनीति से इनकार नहीं किया जा सकता।
समाज का उपेक्षित सर्वहारा वर्ग और लगातार सर्वहाराकरण झेल रहा मध्य वर्ग, चाहे वह स्थानीय हो या ‘बाहरी’, वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था की बली चढ़ रहे हैं। भौतिक दृष्टि से यह दोनों एक दूसरे के शत्रु नहीं बल्कि वर्गीय बंधु हैं, परंतु इनकी एकजुटता का अर्थ होगा पूंजीवादी व्यवस्था का विनाश। इस बात को यह व्यवस्था अच्छी तरह समझती है और इसलिए जब-जब यह खुद को संकट में पाती है, स्थानीयता और ऐसे ही विभाजनकारी मुद्दों को हवा देने लगती है। मूलवासी-बाहरी के दो विरोधी खेमों में संघर्षरत जनता का जब तक पूंजीवाद द्वारा बनाया गया भ्रम नहीं टूटता, जब तक वर्गीय चेतना के आधार पर इस व्यवस्था का दंश झेल रहे लोग एक साझे मंच पर नहीं आ जाते, ‘स्थानीयता’ के प्रश्न का कोई समाधान मौजूदा व्यवस्था कभी प्रस्तुत नहीं करेगी।