अमीरों द्वारा फैलाई गंदगी को साफ करते और मरते सफाई कर्मी: मूकदर्शक सरकार और हृदयहीन समाज
May 10, 2022संजय
इक्कीसवीं सदी में किसी इंसान को नंगे शरीर इंसानी और ग़ैर-इंसानी मल-मूत्रों और नारकीय गंदगी से अटे-पड़े, बदबूदार जहरीली गैस से भरा सीवर या गटर में उतरकर उसे साफ़ करना पड़े तो इस पूरी घटनाक्रम को क्या कहेंगे? और यदि उस गटर को साफ़ करने के दौरान किसी सफ़ाई कर्मी की मौत हो जाय तो आपके दिलो-दिमाग़ में कौन सी तस्वीर उभरती है? क्या वे इक्कीसवीं सदी के इंसान थे या किसी किसी पुरातन जमाने के थे ? क्या वे ग़रीब थे? क्या वे दलित थे? क्या वे नशे में बदहवास? आख़िर उन्हें गटर में उतरना ही क्यों पड़ा? क्या उन्हें कोई और दूसरा काम नहीं मिल सकता था? क्या वे एक इंसान के तौर पर जीना ही नहीं चाहते हैं ? क्या इस तरह का अमानवीय जीवन से बेहतर विद्रोह करना नही है? उनकी मौत पर दुःख जताया जाया या ग़ुस्सा या क्षोभ? सच पूछो तो मुझे उनकी मौतों से दुःख कम, ग़ुस्सा और क्षोभ अधिक होता है? आख़िर वे बग़ावत क्यूँ नही कर देते हैं?
30 मार्च 2022 को देश की राजधानी दिल्ली में एक सीवर को साफ़ करने के लिए सीवर के अंदर उतरे तीन सफ़ाई मज़दूर बच्चू, पिंटू और सूरज की मौत गटर साफ़ करने के दौरान, सीवर में फैली ज़हरीली गैस से हो गई। उनको बचाने की कोशिश में एक रिक्शा चालक सतीश की मौत भी उसी सीवर में हो गई। सीवर में मज़दूरों की मौत का यह कोई पहली घटना नही है और न हाई यह आख़िरी होगी। दिल्ली का सीवर दलित समुदाय से ताल्लुक़ रखने वाले सफ़ाई कर्मियों के लिए जीता जागता मौत का गैस चेम्बर साबित हो रहा है। यह एक ख़ास क़िस्म का ‘जातीय हौलोकास्ट’ है। एक अनुमान के मुताबिक़ गटर/सेप्टिक टैंक या सीवर साफ़ करने के दौरान हज़ारों सफ़ाई कर्मी मारे जा चुके हैं। लेकिन देश और ख़ासकर दिल्ली के खाए पिए अघाए लोगों की अंतरात्मा इतनी मर चुकी है कि ग़रीब मज़दूरों का इस तरह मौतों से कोई फ़र्क़ नही पड़ता। सीवर में हो रही सफ़ाई कर्मियों की मौतें पूरी पूंजीवादी चकाचौंध, तथाकथित ‘लोकतंत्र’ और पूरे समाज को ही कटघरे में खड़ा करता है। हाथ से मैला साफ़ करने की एक पुरानी प्रथा रही है। इस काम में दलित जातियों में भी सबसे दमित और हिंदू जाति व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर आने वाले दलित मेहतर और डोम आदि इस काम को करने को अभिशप्त रहे हैं। वास्तव में सफ़ाई कर्मियों की इस तरह हो रही अकाल मौतों का सम्बंध वर्ग और जाति आधारित समाज व्यवस्था है।
पांच अगस्त 2021 के हिंदुस्तान टाइम्स के अनुसार केंद्र सरकार ने स्वीकार किया कि पिछले तीन दशक में 941 सफ़ाई कर्मी सीवर और सेप्टिक टैंक को साफ़ करने के दौरान मारे गयें हैं। स्क्रोल न्यूज़ पोर्टल के अनुसार सरकार का कहना है की पिछले पाँच वर्षों में 321 सफ़ाई कर्मी गटर/सीवर साफ़ करने के दौरान मारे गये। सरकार ने यह भी कहा कि 2018 के सर्वे के अनुसार देश में कुल 58,098 मैन्यूअल स्कैवेंजर्स हैं। इस आंकड़े पर कई समाजिक कार्यकर्ता हैरानी जतातें है और सरकार के एक नमूने क़िस्म का मंत्री राम दास आठवाले को झूठ फैलाने वाला कहा है।
1993 में मैन्यूअल स्कैवेंजिंग को रोकने और सफ़ाई कर्मियों को पुनर्वास करने के लिए एक विशेष क़िस्म का क़ानून भी बनाया गया। मैन्यूअल स्कैवेंजर्स को काम पर लगाना एक अपराध घोषित किया गया। लेकिन ख़ुद रेलवे और ऐसे कई सरकारी महकमा है जो मैन्यूअल स्कैवेंजर्स को काफ़ी कम मज़दूरी पर काम करवाते हैं। यह जानकर आश्चर्य होता है कि सीवर साफ़ करने वाले मजदूर इस क़ानून के तहत मैन्यूअल स्कैवेंजर्स की नायाब परिभाषा में नही आते हैं, इसलिए इस क़ानून के कोई लाभ उन्हें या उनके अकाल मौत के बाद उनके परिवार को नही मिलता। इस क़ानून के अनुसार मैन्यूअल स्कैवेंजर्स वे होते हैं जो अपने हाथो से आदमियों और औरतों के पखाना साफ़ करते हैं। ज़्यादातर मामलों में ये औरतें और आदमी सवर्ण हिंदू होते हैं जो निहायत ही रुग्ण किस्म के जातिवादी भी होते हैं।
फ़सिस्टों के सरगना ने सत्ता सम्भालते ही आम और ख़ास हिंदुस्तानियों को क़ायदे से साफ़ सुथरा रहना सिखाया। स्वच्छ भारत अभियान चलाया गया। इस मद के लिए करोड़ों रुपए फूकें गये। इक्कीसवीं सदी में लोगों को सलीक़े से हगना-मूतना सिखाया गया। एक समय हर कोई ख़ासकर बुर्जुआ नेता, फ़िल्मी सितारे और यहां तक कि कोरपोरेट जगत के नामचीन लोग नये राजा को ख़ुश करने के लिए साफ़ गलियों और सड़कों को हाथ में झाड़ू लेकर साफ़ करते हुए फ़ोटो खिंचवाने में अपनी व्यस्त दिखते थे। आज कल वह ट्रेंड नही दिखता है। लेकिन इस क़वायद में कई पूंजीपति, नेता और ठेकेदार मालामाल हो गए। एक पूरा गैंग है जो सफ़ाई कर्मियों को उनकी ग़ुरबत की स्थिति का फ़ायदा उठाते हैं और उन्हें मजबूर कर इस तरह के ख़तरनाक काम को करवाते हैं। ऐसे ठेकेदार, सरकारी अमला, तथाकथित एन जी ओ वाले ऐसे एक पूरा वर्ग है जो सफ़ाई मज़दूरों की पिछड़ी चेतना का लाभ उठाकर अपना जेबें भरते हैं। दरअसल मज़दूरों की और ख़ासकर सफ़ाई कर्मियों की हो रही मौतों का एक पोलिटिकल इकोनोमी है।
पूंजीवादी जनवाद से भारतीय समाज में कोई समाजिक बदलाव हुआ हो या न हुआ हो, लेकिन इसने भारतीय पूंजीपत्ति वर्ग और सभी जाति समुदाय के एक छोटे हिस्से के बुर्जुआ और टटपूंजिया वर्ग को ख़ूब फ़ायदा पहुंचाया है। तथाकथित दलितों की अस्मिता का दोहन करने वाली कई रंग बिरंगी राजनीतिक पार्टियां हैं। कुछ मुख्यमंत्री तो कई केंद्रीय मंत्री भी हुए हैं। उन पार्टियों के नेता भी उसी दलित समुदाय से आते है, जो ग़रीब दलितों का कुछ करे या न करे, लेकिन अपनी तिजोरी भरते हुए, पूंजीपतियों और ठेकेदारों का भी ख़ूब भला करते रहे हैं। सफ़ाई कर्मियों को ऐसे नक्करा, लबार, लूच्चा, आत्ममुग्ध, आत्मकेंद्रित और शोषक वर्ग से अपनी भलाई का उम्मीद करना, आत्मघाती होगा। दलितों की मुक्ति और ख़ासकर सफ़ाई कर्मियों की मुक्ति सम्पूर्ण सर्वहरा वर्ग की मुक्ति के प्रश्न से जुड़ा है। मज़दूर वर्गीय दृष्टि अपनाकर और जन-संघर्ष के माध्यम से ही आगे की लड़ाई लड़ी जा सकती है। अस्मितावादी राजनीति के झाड़ फूंक से कुछ नही होने वाला है। आज समय का तक़ाज़ा है कि दलित समुदाय से ताल्लुक़ रखने वाले सभी ग़रीब, मेहनतकश मजदूर और ख़ासकर सफ़ाई कर्मी, मार्क्सवादी संगठन के क्रांतिकारी धारा के साथ जुड़कर अपनी और तमाम मज़दूर-मेहनतकश अवाम के मुक्ति के संघर्ष में शरीक हों। वैज्ञानिक समाजवाद के अलावा, इंसानी गरिमा और मुक्ति का कोई दूसरा रास्ता नहीं है।